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पुस्तक परिचय पुस्तक का नाम- आनन्द रस धारा

पुस्तक परिचय

पुस्तक का नामआनन्द रस धारा

लेखक प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

प्रकाशक विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, नई सड़क, दिल्ली।

पृष्ठ 144         मूल्य- 90/- रु. मात्र

महर्षि दयानन्द के विचारों से देशी विदेशी बहुत से प्रबुद्ध जन प्रभावित होकर आर्यसमाज से जुड़े। जुड़कर मानव जाति के लिए कार्य किया। महर्षि के जीवन काल व उनके परलोक गमन के बाद भी ऐसे अनेकों महान् पुण्यात्मा जन ऋषि मिशन से जुड़े कि उन पुण्यात्माओं ने वेद व देश राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने में अपने को धन्य समझा। धर्मध्वजी श्रीयुत् पण्डित लेखराम, महात्मा मुन्शीराम (स्वामी श्रद्धानन्द), पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं चमुपति जी, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द आदि ऐसे अनोखे रत्न महर्षि के विचारों से आर्य समाज को मिले जिन्होंने विश्वभर में आर्य समाज का नाम प्रकाशित किया।

आर्य समाज ने विद्वान् अध्यापक, योग्य लेखक, समपादक, प्रबुद्ध प्रचारक, वक्ता, पुरोहित, सामाजिक कार्यकर्त्ता इस देश को दिये हैं, केवल इन्हीं लोगों को ही नहीं अपितु योग्य साधु संन्यासी भी आर्य समाज ने दिये हैं। स्वामी श्रद्धानन्द, स्वामी दर्शनानन्द, स्वामी स्वतन्त्रानन्द, महात्मा नारायण स्वामी, महात्मा आनन्द स्वामी जैसे योग्य संन्यासी हुए जिन्होंने अपनी वाणी व पुरुषार्थ से आर्यों में नई उमंग भरी।

इन सभी महापुरुषों की जीवनियाँ-लेखन के धनी, आर्यसमाज के ऊपर प्रहार कर्त्ताओं के लिए सदा जिनकी लेखनी उत्तर देने हेतु  उद्यत रहती है, आर्यसमाज के इतिहास की सर्वाधिक जानकारी रखने वाले, विश्व के सर्वाधिक जीवन चरित लिखने वाले मान्यवर प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी हैं। इन जीवनियों में महात्मा आनन्द स्वामी की जीवनी नहीं लिखी गई थी, अब वह काम भी मान्य जिज्ञासु जी ने ‘‘आनन्द रसधारा’’ पुस्तक लिखकर पूरा कर दिया है।

इस पुस्तक का प्रकाशन सबसे अधिक आर्य साहित्य देने वाले, लगभग नबे (90)वर्षों से आर्य साहित्य का प्रकाशन कर समाज को दिशा देने वाले प्रकाशक ‘‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द’’ ने किया है। पुस्तक के प्रकाशक मान्य अजयकुमार जी ने प्रकाशकीय बड़े भाव से लिखा है। इस जीवन चरित के विषय में अपने भाव व्यक्त करते हुए लिखा-‘‘देर से आर्य जनता आपके एक सुन्दर प्रेरक जीवन चरित की माँग करती चली आ रही थी। हर्ष का विषय है कि विश्व में सर्वाधिक जीवनियाँ लिखने का कीर्तिमान् बना चुके हमारे लेखक श्री राजेन्द्र जिज्ञासु ने इस चुभते अभाव की कमी पूरी करते हुए ‘आनन्द रसधारा’ नाम से उनका एक पठनीय जीवन चरित आपके हाथों में पहुँचा दिया है। यह पुस्तक आपने एक अलग शैली में लिखी है।’’

महात्मा आनन्द स्वामी जी के जीवन चरित को लिखने का विचार लेखकके मन में स्वामी जी के जीवन काल से ही था, किन्तु यह कार्य लेखक के जीवन की साँझ में हुआ। इस विषय में लेखक अपने प्राक्कथन में लिखते हैं-‘‘जीवन की साँझ का विचार करके मैं कई महीनों से महात्मा जी पर एक पठनीय पुस्तक लिखने का निर्णय ले चुका था…….।’’ महात्मा जी की विशेषता को बताते हुए लेखक लिखते हैं-‘‘महात्मा आनन्द स्वामी वेदभक्त, ऋषिभक्त, प्रभूभक्त, देशभक्त, जातिभक्त और लोकसेवक पहले थे और नेता बाद में थे। नेता कोई भी हो उसके जीवन के साथ छोटा-मोटा कोई न कोई विवाद जुड़ जाता है। ‘आनन्द रस धारा’ में विवादों से बचकर ऐसी सामग्री दी है जिससे अपने पराये सबको ऊर्जा प्राप्त होगी। पाठकों में नवजीवन का संचार होगा। मनु महाराज ने धर्म के दश लक्षण बताए हैं। ऋषि दयानन्द की धर्म की परिभाषा पढ़िये। योगदर्शन में वर्णित यम-नियमों व आठ अंगों पर विचार करके-इन्हें सामने रखकर ‘आनन्द रस धारा’ को कसौटी पर कसिये फिर आपको पूरा लाभ मिलेगा।’’

इस पुस्तक को लेखक ने आठ भागों में विभक्त किया है। पहला भाग-बाल्यकाल से यौवन की चौखट तक जीवन झाँकी। दूसरा भाग-अष्टांग योग की कसौटी पर। तीसरा भाग-जीवन के कुछ विशेष प्रसंग। चौथा भाग-हैदराबाद सत्याग्रह के नर नायक। पाँचवाँ भाग-संन्यास दीक्षा। छठा भाग-हैदराबाद में एक बड़ा ऑपरेशन। सातवाँ भाग-एक निराधार कथन-मिथ्या सोच। आठवाँ भाग-महाप्रयाण-वे चलते-चलते चल बसे।

आठ भागों में विभक्त यह पुस्तक अपने अन्दर महात्मा जी के जीवन के अनेक प्रसंगों को संजोये है। पाठक इस आनन्द रस धारा को पढ़कर अवश्य ही आनन्द में सराबोर होंगे। सुन्दर आवरण से सुसज्जित, उत्तम कागज व छपाई से युक्त यह पुस्तक पाठकों को बहुत प्रेरणा देने वाली सिद्ध होगी। ऐसी आशा है।                      – आचार्य सोमदेव

 

कृपया दैनिक यज्ञ के मन्त्र अलग से और साप्ताहिक यज्ञ के मन्त्र अलग से परोपकारी में सुधी पाठकों के लिए बताने का कष्ट करें। पूरा मन्त्र लिखकर कृतार्थ करें क्योंकि विभिन्न प्रदेशों में, विभिन्न आर्यसमाजों में विभिन्न विद्वानों के द्वारा बताया गया, लिखाया गया, छपवाया गया यज्ञ पद्धति प्रचलन में है।

(ग) कृपया दैनिक यज्ञ के मन्त्र अलग से और साप्ताहिक यज्ञ के मन्त्र अलग से परोपकारी में सुधी पाठकों के लिए बताने का कष्ट करें। पूरा मन्त्र लिखकर कृतार्थ करें क्योंकि विभिन्न प्रदेशों में, विभिन्न आर्यसमाजों में विभिन्न विद्वानों के द्वारा बताया गया, लिखाया गया, छपवाया गया यज्ञ पद्धति प्रचलन में है।

ऋषि दयानन्द जी की यज्ञ पद्धति कौन-सी है यह समझने में सामान्य जनों को कठिनाई होती है। गायत्री मन्त्र कब बोलना चाहिए? गुड़, स्वीट आदि इस्तमाल नहीं करना चाहिये लेकिन स्विष्टकृत आहुति में प्रयोग कर रहे हैं, और पूर्णाहुति से पूर्व विभिन्न मन्त्र पूर्णमदं…आदि और पूर्णाहुति के बाद वसो पवित्र मसि का प्रयोग कर रहे हैं। पौर्णमासी और अमावास्या की तीन-तीन आहुतियों के अलावा विभिन्न मन्त्रों को प्रयोग में ला रहे हैं। कृपया आप से विनम्र निवेदन है कि दैनिक यज्ञ पद्धति अलग से साप्ताहिक यज्ञ पद्धति अलग से पूरे मन्त्र लिख कर बताने का कष्ट करें।

धन्यवाद

– रणवीर आर्य, हैदराबाद, तेलंगाना।

समाधान 

(ग)अग्निहोत्र रूप यज्ञ कर्मकाण्ड के अन्तर्गत आता है, इसका विशुद्ध रूप महर्षि दयानन्द ने संस्कार विधि पुस्तक में दिया है। वहाँ दैनिक यज्ञ को किस प्रकार करना है वह और संस्कारों में किस विधि से यज्ञ करना है वह भी ठीक से समझाया है। वहाँ आप देख लेवें। यहाँ हम इनके मन्त्र नहीं दे सकते। कारण कि अभी विद्वान् इस यज्ञ कार्य की एकरूपता के लिए एक मत नहीं हैं। पिछले वर्षों में परोपकारिणी सभा की ओर से यज्ञ में एकरूपता हो इसके लिए यज्ञ गोष्ठियों का आयोजन हुआ था उसमें अनेक विद्वानों ने भाग लिया था। गोष्ठी में रखे गये बिन्दुओं पर चर्चा होकर निष्कर्ष भी निकला था किन्तु अनेक बिन्दु ऐसे रहे जिन पर विद्वान् एक मत नहीं हुए। परमेश्वर की कृपा से पुनः ऐसी विद्वानों की गोष्ठी होवे जिसमें सब विद्वान् एक मत हो जायें और आर्य जगत् में यज्ञ एकरूपता से होने लग जाये।

आज वर्तमान् में विभिन्न विद्वान् इस यज्ञ कर्म को विभिन्न प्रकार से करवाते हैं। जिससे सामान्य जन में भ्रम फैलता है कि  कौनसा विद्वान् ठीक पद्धति से यज्ञ करवा रहा है कौनसा अपनी मनमर्जी से। यदि ऋषि दयानन्द के अनुसार जैसा ऋषि ने लिखा है उस प्रकार भी यज्ञ कर्म करने लग जायें तो एक रूपता यज्ञ में दिखने लगेगी।

हमने पहले भी  जिज्ञासा समाधान में लिखा था कि यज्ञ में कुछ विशेष कर्मों का विधान किया है जिसमें जहाँ जैसा निर्देश होना चाहिए वहाँ वैसा निर्देश महर्षि ने किया हुआ है। महर्षि गायत्री मन्त्र की आहुति के विषय में कहते हैं कि जिसको अधिक होम करना हो तो गायत्री मन्त्र और विश्वानि देव….मन्त्र की आहुतियाँ देवें। ये आहुतियाँ हमारा सामान्य दैनिक यज्ञ पूरा होने पर देने के लिए कहा है। आज जब हवन पूरा हो चुका होता है तब आहुतियाँ तो देते हैं किन्तु ऋषि के अनुसार इन दो मन्त्रों से नहीं अन्य-अन्य मन्त्र बोलकर आहुति दी जाती हैं, यह मन मर्जी ही है। जब ऋषि ने विधान कर दिया है तो वैसा ही करना चाहिए। इसका परिणाम यह होता जा रहा है कि यज्ञ कर्म को भी व्यवसाय बनाया जा रहा है। जिससे यजमान् प्रसन्न हो और दक्षिणा अधिक मिले ऐसा उपाय अधिक होने लग गया।

स्विष्टकृत आहुति के लिए भी महर्षि ने निर्देश कर रखा है कि ‘‘यह घृत की अथवा भात की देनी चाहिए।’’ इसमें भी आहुति देते समय कोई लड्डु, बर्फी, बतासे, मखाने आदि कोई भी मीठा मिल जाये उसकी आहुति देते हैं जबकि महर्षि का स्पष्ट निर्देश भात अथवा घी का है।

पूर्ण आहुति से पहले पूर्णमदंः…..आदि मन्त्र का बोलना और इससे आहुति देना पौराणिकों की भाँति यज्ञ में पाखण्ड को जोड़ना ही है और ऐसे ही पूर्णाहुति के बाद वसो पवित्रमसि….मन्त्र का पाठ करना आदि क्योंकि इसका विधान कर्मकाण्ड में नहीं है यदि ऐसे ही करते चले गये तो जो ऋषि ने यज्ञ की जो विशुद्ध पद्धति लिखी है वह गौण हो जायेगी और ये दक्षिणार्थियों की पद्धति मुखय हो जायेगी।

पौर्णमासी व अमावस्या के दिन इनकी तीन-तीन आहुति देकर चार-चार व्याहृति आज्याहुति का विधान ऋषि ने किया है अन्य मन्त्रों का नहीं। यदि कोई अन्य मन्त्रों से भी आहुति देता है तो वह ऋषि की अवहेलना ही कर रहा है।

यज्ञ विषय में हमारा उद्देश्य रहे कि ऋषि की पद्धति के अनुसार एक रूपता हो और समूचा आर्य जगत् उस एक पद्धति से ही यज्ञ करे। यहाँ हम सब मन्त्र नहीं दे सकते इसके लिए आप संस्कार विधि का अवलोकन करें। अलमिति।

– सोमदेव आचार्य

 

ऋषि दयानन्द जी और कुछ वर्ष जीते तो संसार का कितना उपकार होता सविवरण बताने का कष्ट करें।

(ख) ऋषि दयानन्द जी और कुछ वर्ष जीते तो संसार का कितना उपकार होता सविवरण बताने का कष्ट करें।

समाधान-

(ख)किसी भी लोकोपकारक महापुरुष का शरीर जितना अधिक जीवित रहता है वह महापुरुष उतना ही अधिक जगत् का कल्याण करता है। महर्षि दयानन्द जी भी अधिक जीवित रहते तो संसार का अत्यधिक उपकार होता ही; आर्यावर्त का सबसे अधिक उपकार होता यदि ऋषिवर का शरीर बना रहता तो आर्यावर्त को अंग्रेज बहुत शीघ्र छोड़कर चला गया होता। भारत को स्वतन्त्रता कहीं पहले मिल गई होती। देश भक्त, बलिदानियों का अत्यधिक समान होता। जो आज अपने देश में अपूज्यों का समान हो रहा है देश को मुस्लिम प्रधान बनाने वाले महात्मा और इस देश को गर्त की ओर ले जाने वाले एक लपट और उसके भारत विरोधी परिवार का समान न होता। महर्षि दयानन्द सदा ही देश हितैषियों धार्मिकों का समान करते थे, वे होते तो आज भी ऐसा ही होता।

ऋषि दयानन्द और अधिक जीवित रहते तो यह देश पुनः विश्वगुरु बन गया होता। विश्वभर में वेद की मान्यता होती। हमने जो पिछले अंक सिपतमबर प्रथम में लिखा था कि ऋषि क्या-क्या करना चाहते थे, उन कार्यों में से बहुत से कार्य हो रहे होते। और अधिक कार्य क्या-क्या हो सकते थे इसका तो हम अनुमान ही लगा सकते हैं, यथार्थ में तो ऋषि होते और उनके द्वारा जो कार्य किये जाते उससे उनके उपकार का पता लगता। अस्तु।

एक और ऋषि को आने में और कितना समय लगेगा? भारत में दुनिया में ऋषि मुनि उत्पन्न होने के लिए हमें क्या-क्या कार्य करने चाहिए

आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा- (क) एक और ऋषि को आने में और कितना समय लगेगा? भारत में दुनिया में ऋषि मुनि उत्पन्न होने के लिए हमें क्या-क्या कार्य करने चाहिए

समाधान-(क)किसी महापुरुष, ऋषि को संसार में आने में कितना समय लगेगा इस विषय में तो कुछ नहीं कह सकते यह तो परमेश्वर ही जानता है, उसी की यह व्यवस्था है। ऋषि होना और साधक योगी होना या बनना दोनों में कुछ भेद है। साधक एक सामान्य (सामान्य का अर्थ यहाँ धार्मिक विशेष से ले न कि जो कोई) व्यक्ति भी बन सकता है, किन्तु ऋषि तो धार्मिक साधक होते हुए अत्यन्त बुद्धिमान् ही बन सकता है, अल्प बुद्धि वाला नहीं। एक साधक और ऋषि के सामर्थ्य में भी अन्तर होता है। साधक उस स्तर पर काम नहीं कर सकता जिस स्तर पर ऋषि कर सकता है। साधक धार्मिक ईश्वरोपासक होता है, वैराग्य को प्राप्त होता है और ऋषि साधक धार्मिक, ईश्वरोपासक, वैराग्यवान् होते हुए वेद मन्त्रार्थ द्रष्टा होता है। ऋषि अनेक जन्मों, वर्षों के पुण्य वाले सत्व की पराकाष्ठा से युक्त आत्मा बनते हैं।

आज भी यदि कोई बुद्धिमान् व्यक्ति वेदानुकूल जीवन जीता हुआ ऋषि बनने का प्रयत्न करे तो वह इसी जन्म व अगले जन्मों में ऋषि बन सकता है। ऋषि बनने के लिए अपने पूरे जीवन को ईश्वर में समर्पित रखते हुए वैदिक वाङ्मय व वेद को जानने में लगाये। बुद्धिमान् लोग वैराग्यवान् हो वेद पढ़ने में प्रवृत्त हों, इसके लिए समाज व राजा ऐसी व्यवस्था करे। समाज व राजा वेद पढ़ने पढ़ाने वाले हों। वेदादि पढ़ने वाले को ही राज की सेवा में प्राथमिकता मिले। वेद का पढ़ा हुआ ही न्यायाधीश, उच्च अधिकारी, मन्त्री, प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति बने। ऐसा करने से वेद के गभीर रहस्य को जानते जायेंगे वैसे-वैसे ऋषित्व की ओर भी जाते जायेंगे। ऋषि बनना असमभव तो नहीं, परन्तु अत्यन्त कठिन अवश्य है।

 

पुस्तक परिचय पुस्तक का नाम- आनन्द रस धारा

पुस्तक परिचय

पुस्तक का नामआनन्द रस धारा

लेखक प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

प्रकाशक  विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द,

नई सड़क, दिल्ली।

पृष्ठ 144        मूल्य- 90 रु. मात्र

महर्षि दयानन्द के विचारों से देशी विदेशी बहुत से प्रबुद्ध जन प्रभावित होकर आर्यसमाज से जुड़ें। जुड़कर मानव जाति के लिए कार्य किया। महर्षि के जीवन काल व उनके परलोक गमन के बाद भी ऐसे अनेक ों महान् पुण्यात्मा जन ऋषि मिशन से जुड़े कि उन पुण्यात्माओं ने वेद व देश राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने में अपने को धन्य समझा। धर्मध्वजी श्रीयुत् पण्डित लेखराम, महात्मा मुन्शीराम (स्वामी श्रद्धानन्द), पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं चमुपति जी, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द आदि ऐसे अनोखे रत्न महर्षि के विचारों से आर्य समाज को मिले जिन्होंने विश्वभर में आर्य समाज का नाम प्रकाशित किया।

आर्य समाज ने विद्वान् अध्यापक, योग्य लेखक, सपादक, प्रबुद्ध प्रचारक, वक्ता, पुरोहित, सामाजिक कार्यकर्त्ता इस देश को दिये हैं, केवल इन्हीं लोगों को ही नहीं अपितु योग्य साधु संन्यासी भी आर्य समाज ने दिये हैं। स्वामी श्रद्धानन्द, स्वामी दर्शनानन्द, स्वामी स्वतन्त्रानन्द, महात्मा नारायण स्वामी, महात्मा आनन्द स्वामी जैसे योग्य संन्यासी हुए जिन्होंने अपनी वाणी व पुरुषार्थ से आर्यों में नई उमंग भरी।

इन सभी महापुरुषों की जीवनियाँ-लेखन के धनी, आर्यसमाज के ऊपर प्रहार कर्त्ताओं के लिए सदा अपनी लेखनी उत्तर देने में उद्यत आर्यसमाज के इतिहास की सर्वाधिक जानकारी रखने वाले, विश्व के सर्वाधिक जीवन चरित लिखने वाले मान्यवर प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी हैं। इन जीवनियों में महात्मा आनन्द स्वामी की जीवनी नहीं लिखी गई थी, अब वह काम भी मान्य जिज्ञासु जी ने ‘‘आनन्द रसधारा’’ पुस्तक लिखकर पूरा कर दिया है।

इस पुस्तक का प्रकाशन सबसे अधिक आर्य साहित्य देने वाला, लगभग नबे (90)वर्षों से आर्य साहित्य का प्रकाशन कर समाज को दिशा देने वाले प्रकाशक ‘‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द’’ ने किया है। पुस्तक के प्रकाशक मान्य अजयकुमार जी ने प्रकाशकीय बड़े भाव से लिखा है। इस जीवन चरित के विषय में अपने भाव व्यक्त करते हुए लिखा-‘‘देर से आर्य जनता आपके एक सुन्दर प्रेरक जीवन चरित की माँग करती चली आ रही थी। हर्ष का विषय है कि विश्व में सर्वाधिक जीवनियाँ लिखने का कीर्तिमान् बना चुके हमारे लेखक श्री राजन्द्र जिज्ञासु ने इस चुभते अभाव की कमी पूरी करते हुए ‘आनन्द रसधारा’ नाम से उनका एक पठनीय जीवन चरित आपके हाथों में पहुँचा दिया है। यह पुस्तक आपने एक अलग शैली से लिखी है।’’

महात्मा आनन्द स्वामी जी के जीवन चरित को लिखने का विचार लेखकके मन में स्वामी जी के जीवन काल से ही था, किन्तु यह कार्य लेखक के जीवन की साँझ में हुआ। इस विषय में लेखक अपने प्राक्कथन में लिखते हैं-‘‘जीवन की साँझ का विचार करके मैं कई महीनों से महात्मा जी पर एक पठनीय पुस्तक लिखने का निर्णय ले चुका था…….।’’ महात्मा जी की विशेषता को बताते हुए लेखक लिखते हैं-‘‘महात्मा आनन्द स्वामी वेदभक्त, ऋषिभक्त, प्राुाक्त, देशभक्त, जातिभक्त और लोकसेवक पहले थे और नेता बाद में थे। नेता कोई भी हो उसके जीवन के साथ छोटा-मोटा कोई न कोई विवाद जुड़ जाता है। ‘आनन्द रस धारा’ में विवादों से बचकर ऐसी सामग्री दी है जिससे अपने पराये सबको ऊर्जा प्राप्त होगी। पाठकों में नवजीवन का संचार होगा। मनु महाराज ने धर्म के दश लक्षण बताए हैं। ऋषि दयानन्द की धर्म की परिभाषा पढ़िये। योगदर्शन में वर्णित यम-नियमों व आठ अंगों पर विचार करके-इन्हें सामने रखकर ‘आनन्द रस धारा’ को कसौटी पर कसिये फिर आपको पूरा लाभ मिलेगा।’’

इस पुस्तक को लेखक ने आठ भागों में विभक्त किया है। पहला भाग-बाल्यकाल से यौवन की चौखट तक जीवन झाँकी। दूसरा भाग-अष्टांग योग की कसौटी पर। तीसरा भाग-जीवन के कुछ विशेष प्रसंग। चौथा भाग-हैदराबाद सत्याग्रह के नर नायक। पाँचवाँ भाग-संन्यास दीक्षा। छठा भाग-हैदराबाद में एक बड़ा ऑपरेशन। सातवाँ भाग-एक निराधार कथन-मिथ्या सोच। आठवाँ भाग-महाप्रयाण-वे चलते-चलते चल बसे।

आठ भागों में विभक्त यह पुस्तक अपने अन्दर महात्मा जी के अनेक जीवन प्रसंगों को संजोये है। पाठक इस आनन्द रस धारा को पढ़कर अवश्य ही आनन्द में सराबोर होंगे। सुन्दर आवरण से सुसज्जित, उत्तम कागज व छपाई से युक्त यह पुस्तक पाठकों को बहुत प्रेरणा देने वाली सिद्ध होगी। ऐसी आशा है।

– आचार्य सोमदेव, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

 

महर्षि दयानन्द जी उनके पूर्व के ऋषियों से भी अधिक महान् थे क्या? कपिल, जैमिनि, गौतम आदि ऋषियों ने दर्शन प्रस्तुत किये हैं। ऋषि दयानन्द जी ने तो ऋग्वेद के छः मण्डल पूर्ण और सातवें मण्डल के कुछ मन्त्र तक और यजुर्वेद का पूर्ण भाष्य किया है तो हम ऋषियों से भी अधिक ज्ञान में सामर्थ्य में महर्षि दयानन्द जी को महान् मान सकते हैं क्या?

महर्षि दयानन्द जी उनके पूर्व के ऋषियों से भी अधिक महान् थे क्या? कपिल, जैमिनि, गौतम आदि ऋषियों ने दर्शन प्रस्तुत किये हैं। ऋषि दयानन्द जी ने तो ऋग्वेद के छः मण्डल पूर्ण और सातवें मण्डल के कुछ मन्त्र तक और यजुर्वेद का पूर्ण भाष्य किया है तो हम ऋषियों से भी अधिक ज्ञान में सामर्थ्य में महर्षि दयानन्द जी को महान् मान सकते हैं क्या?

समाधानः-

ऋषियों में ऐसे तुलना करना ठीक नहीं। अभी हमने पूर्व में कहा कि सभी ऋषियों का ऋषित्व तो एक ही होता है। उसका कार्य क्षेत्र भिन्न-भिन्न हो सकता है। महर्षि कपिल, कणाद आदि ने दर्शन शास्त्रों की रचना कर वेद का ही कार्य किया था। ऐसे महर्षि दयानन्द ने वेद भाष्य कर वेद का कार्य किया। ऐसा कदापि नहीं है कि महर्षि कपिल, कणाद आदि में वेद का भाष्य करने की योग्यता नहीं थी ओर यह योग्यता ऋषि दयानन्द में ही थी। सभी ऋषि लोग वेद भाष्य करने में समर्थ होते थे क्योंकि ऋषि कहते ही मन्त्रार्थदृष्टा को हैं। जब महर्षि दयानन्द से पूर्व के ऋषि भी वेद भाष्य की योग्यता रखते थे और महर्षि दयानन्द भी रखते थे तो इनमें कौन महान् और कौन हीन ऐसा नहीं कह सकते। महर्षि दयानन्द भी महान् थे और अन्य ऋषि भी महान् थे। ऋषियों में तुलना करके हमें एक को महान् और दूसरे को हीन सिद्ध करने का कोई अधिकार नहीं है। अस्तु।

 

महर्षि दयानन्द जी उनके पूर्व ऋषियों से भिन्न थे क्या देश काल परिस्थिति के अनुसार?

महर्षि दयानन्द जी उनके पूर्व ऋषियों से भिन्न थे क्या देश काल परिस्थिति के अनुसार?

समाधानः 

महर्षि दयानन्द जी से पूर्व पतन्जलि, पाणिनि से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त (ये क्रम नीचे से ऊपर की ओर है) जितने ऋषि हुए वे महर्षि से हजारों वर्ष पूर्व हुए हैं, उस समय की परिस्थिति के अनुसार उनकी वेशभूषा, रहन-सहन आदि रहा होगा। वे केशधारी होते थे यह तो कह नहीं सकते। जो ऋषि संन्यास आश्रम का पालन कर रहे होंगे वे महर्षि मनु के अनुसार क्षौर कर्माी करवाते होंगे।

‘‘क्लृप्तकेशनखश्मश्रुः’’

इस मनु के वचनानुसार।

आप भिन्नता शारीरिक रूप से देख रहे हैं या रहन-सहन वा बौद्धिक सामर्थ्य के रूप में देख रहे हैं। हाँ ऋषित्व तो सब ऋषियों में एक जैसा होना चाहिए। ज्ञान का विषय पृथक्-पृथक् हो सकता है। कोई विज्ञान विषय प्रमुख रख कार्य करता रहा हो और चिकित्सा विषय को लेकर-इनके विषय भिन्न होने से ज्ञान भी भिन्न होगा।

अन्य ऋषियों व महर्षि दयानन्द जी में सबसे बड़ी भिन्नता तो यह है कि महर्षि दयानन्द को सबसे अधिक विरोधियों का सामना करना पड़ा। इतना सामना अन्य किसी ऋषि ने नहीं किया होगा, क्योंकि उन ऋषियों के सामने ऐसी परिस्थिति ही नहीं थी।

एक बात और स्पष्ट कर दें कि हम आर्य महर्षि के प्रति श्रद्धातिरेक में आकर कह बैठते हैं कि ‘‘ऋषि दयानन्द जैसे न हुआ है और न होगा’’ यह कहकर हम अन्य ऋषियों व परमात्मा का अपमान कर रहे होते हैं, महर्षि दयानन्द से पूर्व भी बहुत से योग्य ऋषि हुए हैं और परमेश्वर की व्यवस्था से इससेाी अधिक योग्य ऋषि आगे हो सकते हैं।

महर्षि जीकी फोटोज् सही हैं, किन-किन ने खेंची औरा कब-कब?

महर्षि जीकी फोटोज् सही हैं, किन-किन ने खेंची औरा कब-कब?

समाधानः-

 महर्षि दयानन्द जी के चित्र व चित्रों का वर्णन ‘वेदवाणी’ पत्रिका में पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने नवबर 1983 के अंक में विस्तार से किया था। उसमें महर्षि के 9 असली चित्र व उन चित्रों का वर्णन है कि वे चित्र कब और कहाँ खिंचे थे। उन 9 चित्रों के अतिरिक्त भी कुछ असली चित्र महर्षि के मिलते हैं। कुछ समय पूर्व परोपकारिणी सभा ने भी जन सामान्य के लिए महर्षि के 12 असली चित्र छपवाकर उपलध कराए थे।

महर्षि दयानन्द जी के समय माईक का सिस्टम नहीं था, तो महर्षि जी हजारों लोगों के बीच में अपनी वाणी को कैसे प्रस्तुत करते थे?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासामेरी शंकाएँ

महर्षि दयानन्द जी के समय माईक का सिस्टम नहीं था, तो महर्षि जी हजारों लोगों के बीच में अपनी वाणी को कैसे प्रस्तुत करते थे?

समाधानः महर्षि दयानन्द जी का व्यक्तित्व अदूत था, यह जानकारी उनके दर्शन करने वालों ने दी है। महर्षि के जीवंत व्यक्तित्व का वर्णन बनेड़ा निवासी श्री नगजीराम जी शर्मा एक सनातनी विद्वान् ने किया है, इन्होंने महर्षि के दर्शन किये थे। उनके उपदेश व्यायान सुने थे, महर्षि को निकट से देखा था। श्री नगजीराम जी ने महर्षि दयानन्द के शरीर का वर्णन किया- ‘‘स्वामी जी महाराज के शरीर का वर्णन इस प्रकार है कि ऐसी दीर्घ पुष्ट एवं भव्यमूर्ति मैंने सिवाय आज तक ऐसी कहीं किसी को भी नहीं देखी। महात्मा के मस्तक की परिधि ढाई फीट से कम न थी और गर्दन बड़ी ऊँची, मुखारविन्द गोलाई को लिए हुए लबा था। नेत्र विशेष बड़े नहीं थे, कर्ण व नासिका बड़े-बड़े थे। दोनों भुज बड़े पुष्ट और आजानु लबे थे। वक्षस्थल किसी वीर धनुषधारी के समान चौड़ा और दृढ़ था। शरीर अति पुष्ट होने पर भी उदर छिटका हुआ नहीं था। दोनों जाघें बड़ी पुष्ट और तीन फिट की परिधि से कम नहीं थीं। पिंडलियाँ भी पुष्ट एवं साफ थीं। पैर सवा फीट के करीब लबे होंगे। शरीर का वर्ण गोरा था। शिर के बाल श्वेत होने लग गये थे। जिस समय वे घूमने को निकलते मुलतानी मिट्टी शरीर पर लगा, जोड़े पहन, एक दुशाले को सिर पे बाँध चद्दर से शरीर को ढक हाथ में लट्ठ कमण्डल लिये स्वयं एकाकी ही घूमने निकलते थे।

उस समय जंगल में यदि किसी अज्ञात पुरुष के अचानक दृष्टिगोचर होते तो वह इनको मनुष्य नहीं देव विशेष की मूर्ति मान चकित होके मार्ग को छोड़ एक तरफ खड़ा हो जाता। दर्शन कर बतलाने पर निर्भय हो प्रसन्न होता आपका घूमना तीन मील से कभी कम नहीं होता था। एक दिन मुझे व मेरे मित्र गौरीशंकर जी को स्वामी जी के साथ घूमने जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। किन्तु स्वामी जी के धीमे-धीमे चलने पर भी हम दोनों उनके साथ नहीं निभ सके। अतएवं 400-500 गज कि फासले से वापिस लौट आये।’’ (यह वृत्तान्त परोपकारी पत्रिका के मई 1986 के अंक में पृष्ठ 14 पर छपा था)

ये महर्षि के  दिव्य शरीर का वर्णन हुआ, जब ऋषिवर का शरीर इतना दिव्य था तो वाणी क्यों न दिव्य होगी। महर्षि के दर्शनकर्त्ताओं ने महर्षि की सिंह गर्जना युक्त वाणी का भी वर्णन किया है। उस समय भले ही ध्वनि विस्तारक (माईक) नहीं थे तो भी महर्षि अपनी तेजस्वी वाणी को सब श्रोताओं तक पहुँचाने में समर्थ थे।

हमारे आर्य जगत् में अनेकों भजनोपदेशक व उपदेशक हुए जिनकी आवाज बड़ी बुलंद रही है, स्वामी भीष्म जी भजनोपदेश व स्वामी सत्यानन्द जी श्रीमद् दयानन्द प्रकाश के लेखक ये लोग बिना माईक के ही हजारों लोगों तक अपनी बात पहुँचा देते थे। आज भी भजनोपदेशक कुंवर भूपेन्द्र सिंह जी अलीगढ़ व पं. नौबतराम जी ऋषि उद्यान अजमेर में बिना ध्वनि विस्तारक के अपनी बात हजारों तक पहुँचा सकते हैं। जबकि इन दोनों की अवस्था अस्सी (80) वर्ष से ऊपर है। जब ऐसे-ऐसे आर्यजनों की वाणी में बल है तो ऋषि की वाणी में कितना बल होगा स्वयं अनुमान लगाकर देखिए।

वर्तमान समय में धर्मगुरुओं में ये भावना घर कर गई कि महर्षि जी इतने विद्वान् नहीं थे जितने हम हैं कृपया इस पर विस्तार से मार्ग दर्शन करनेकी कृपा करें।

वर्तमान समय में धर्मगुरुओं में ये भावना घर कर गई कि महर्षि जी इतने विद्वान् नहीं थे जितने हम हैं कृपया इस पर विस्तार से मार्ग दर्शन करनेकी कृपा करें।

– देवपाल आर्य, देव दयानन्द आश्रम, लालूखेड़ी, डा. अलीपुरखेड़ी, जनपद मुजफरनगर-251301 उ.प्र.।

समाधानः

 महर्षि दयानन्द कितने विद्वान् थे इसका प्रमाण पत्र क्या अविद्या की साक्षात्मूर्ति तथा कथित धर्मगुरु देंगे? महर्षि को विद्वान् का प्रमाण पत्र इन वर्तमान के धर्मगुरुओं से नहीं चाहिए। महर्षि की विद्वत्ता को पक्षपात रहित विद्वान् ही जान सकता है, इनकी विद्वत्ता को ये अपनी पूजा कराने वाले और पाखण्ड फैलाने वाले क्या जाने?

काशी शास्त्रार्थ में एक ओर उस समय के प्रकाण्ड पण्डित स्वामी विशुद्धानन्द, बाल शास्त्री, शिवसहाय, माधवाचार्य आदि सत्ताईस-अट्ठाईस विद्वान् दूसरी ओर इन सबको धूल चटाने वाला विद्या का सागर अकेला महर्षि दयानन्द था। उस दिन इन धर्मगुरुओं के आदर्श पण्डितों ने काशी शास्त्रार्थ में ऋषि दयानन्द की विद्वत्ता का लोहा माना था। महर्षि दयानन्द की विद्वत्ता व साधुपने से प्रभावित होकर राधा-स्वामी मत के प्रमुख ‘हजुर साहिब’ ने ऋषि दयानन्द की जीवनी लिखी थी। महर्षि की विद्वत्ता के कारण आज कुरान और बाईबल की आयतों के अर्थ बदल गये। पौराणिकों के पारिभाषिक शबदों के अर्थ बदल गये। उनकी विद्वत्ता के कारण ही कोई मत समप्रदाय का अनुयाई शास्त्रार्थ में जीत नहीं पाया। महर्षि के विचारान्दोलन के कारण ही आज कुमभ में एक दलित को साथ लेकर स्नान किया जा रहा है। महर्षि दयानन्द के विद्या विचार के कारण ही घर वापसी हो रही है। महर्षि की विद्या, तप, त्याग, ईश्वर समर्पण को देख सिंध प्रांत के प्रर्सिद्ध समाज सुधारक टी.एल. बास्वानी ने भक्ति भाव से ऋषि जीवन पर आधारित तीन पुस्तकें लिखी। विदेशी विद्वान् रोमा रोलां ने महर्षि के विषय में अपने सर्वोत्कृष्ट विचार लिखे। महर्षि दयानन्द कितने बड़े विद्या के भण्डार थे यह जानकारी उनके ग्रन्थ, वेद भाष्य, पत्र व्यवहार, उनका जीवन चरित्र ये सब दे रहें। फिर भी जिस किसी अल्प मति को अपना मत समप्रदाय रूपी व्यवसाय चलाना होता है तो वह प्रायः किसी बड़े व्यक्ति की आलोचना किया करता है कि जिससे उसकी दूकान चलने लग जाये। ऐसा ही वर्तमान का कोई-कोई धर्मगुरु कर रहा होगा। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।