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कृपया दैनिक यज्ञ के मन्त्र अलग से और साप्ताहिक यज्ञ के मन्त्र अलग से परोपकारी में सुधी पाठकों के लिए बताने का कष्ट करें। पूरा मन्त्र लिखकर कृतार्थ करें क्योंकि विभिन्न प्रदेशों में, विभिन्न आर्यसमाजों में विभिन्न विद्वानों के द्वारा बताया गया, लिखाया गया, छपवाया गया यज्ञ पद्धति प्रचलन में है।

(ग) कृपया दैनिक यज्ञ के मन्त्र अलग से और साप्ताहिक यज्ञ के मन्त्र अलग से परोपकारी में सुधी पाठकों के लिए बताने का कष्ट करें। पूरा मन्त्र लिखकर कृतार्थ करें क्योंकि विभिन्न प्रदेशों में, विभिन्न आर्यसमाजों में विभिन्न विद्वानों के द्वारा बताया गया, लिखाया गया, छपवाया गया यज्ञ पद्धति प्रचलन में है।

ऋषि दयानन्द जी की यज्ञ पद्धति कौन-सी है यह समझने में सामान्य जनों को कठिनाई होती है। गायत्री मन्त्र कब बोलना चाहिए? गुड़, स्वीट आदि इस्तमाल नहीं करना चाहिये लेकिन स्विष्टकृत आहुति में प्रयोग कर रहे हैं, और पूर्णाहुति से पूर्व विभिन्न मन्त्र पूर्णमदं…आदि और पूर्णाहुति के बाद वसो पवित्र मसि का प्रयोग कर रहे हैं। पौर्णमासी और अमावास्या की तीन-तीन आहुतियों के अलावा विभिन्न मन्त्रों को प्रयोग में ला रहे हैं। कृपया आप से विनम्र निवेदन है कि दैनिक यज्ञ पद्धति अलग से साप्ताहिक यज्ञ पद्धति अलग से पूरे मन्त्र लिख कर बताने का कष्ट करें।

धन्यवाद

– रणवीर आर्य, हैदराबाद, तेलंगाना।

समाधान 

(ग)अग्निहोत्र रूप यज्ञ कर्मकाण्ड के अन्तर्गत आता है, इसका विशुद्ध रूप महर्षि दयानन्द ने संस्कार विधि पुस्तक में दिया है। वहाँ दैनिक यज्ञ को किस प्रकार करना है वह और संस्कारों में किस विधि से यज्ञ करना है वह भी ठीक से समझाया है। वहाँ आप देख लेवें। यहाँ हम इनके मन्त्र नहीं दे सकते। कारण कि अभी विद्वान् इस यज्ञ कार्य की एकरूपता के लिए एक मत नहीं हैं। पिछले वर्षों में परोपकारिणी सभा की ओर से यज्ञ में एकरूपता हो इसके लिए यज्ञ गोष्ठियों का आयोजन हुआ था उसमें अनेक विद्वानों ने भाग लिया था। गोष्ठी में रखे गये बिन्दुओं पर चर्चा होकर निष्कर्ष भी निकला था किन्तु अनेक बिन्दु ऐसे रहे जिन पर विद्वान् एक मत नहीं हुए। परमेश्वर की कृपा से पुनः ऐसी विद्वानों की गोष्ठी होवे जिसमें सब विद्वान् एक मत हो जायें और आर्य जगत् में यज्ञ एकरूपता से होने लग जाये।

आज वर्तमान् में विभिन्न विद्वान् इस यज्ञ कर्म को विभिन्न प्रकार से करवाते हैं। जिससे सामान्य जन में भ्रम फैलता है कि  कौनसा विद्वान् ठीक पद्धति से यज्ञ करवा रहा है कौनसा अपनी मनमर्जी से। यदि ऋषि दयानन्द के अनुसार जैसा ऋषि ने लिखा है उस प्रकार भी यज्ञ कर्म करने लग जायें तो एक रूपता यज्ञ में दिखने लगेगी।

हमने पहले भी  जिज्ञासा समाधान में लिखा था कि यज्ञ में कुछ विशेष कर्मों का विधान किया है जिसमें जहाँ जैसा निर्देश होना चाहिए वहाँ वैसा निर्देश महर्षि ने किया हुआ है। महर्षि गायत्री मन्त्र की आहुति के विषय में कहते हैं कि जिसको अधिक होम करना हो तो गायत्री मन्त्र और विश्वानि देव….मन्त्र की आहुतियाँ देवें। ये आहुतियाँ हमारा सामान्य दैनिक यज्ञ पूरा होने पर देने के लिए कहा है। आज जब हवन पूरा हो चुका होता है तब आहुतियाँ तो देते हैं किन्तु ऋषि के अनुसार इन दो मन्त्रों से नहीं अन्य-अन्य मन्त्र बोलकर आहुति दी जाती हैं, यह मन मर्जी ही है। जब ऋषि ने विधान कर दिया है तो वैसा ही करना चाहिए। इसका परिणाम यह होता जा रहा है कि यज्ञ कर्म को भी व्यवसाय बनाया जा रहा है। जिससे यजमान् प्रसन्न हो और दक्षिणा अधिक मिले ऐसा उपाय अधिक होने लग गया।

स्विष्टकृत आहुति के लिए भी महर्षि ने निर्देश कर रखा है कि ‘‘यह घृत की अथवा भात की देनी चाहिए।’’ इसमें भी आहुति देते समय कोई लड्डु, बर्फी, बतासे, मखाने आदि कोई भी मीठा मिल जाये उसकी आहुति देते हैं जबकि महर्षि का स्पष्ट निर्देश भात अथवा घी का है।

पूर्ण आहुति से पहले पूर्णमदंः…..आदि मन्त्र का बोलना और इससे आहुति देना पौराणिकों की भाँति यज्ञ में पाखण्ड को जोड़ना ही है और ऐसे ही पूर्णाहुति के बाद वसो पवित्रमसि….मन्त्र का पाठ करना आदि क्योंकि इसका विधान कर्मकाण्ड में नहीं है यदि ऐसे ही करते चले गये तो जो ऋषि ने यज्ञ की जो विशुद्ध पद्धति लिखी है वह गौण हो जायेगी और ये दक्षिणार्थियों की पद्धति मुखय हो जायेगी।

पौर्णमासी व अमावस्या के दिन इनकी तीन-तीन आहुति देकर चार-चार व्याहृति आज्याहुति का विधान ऋषि ने किया है अन्य मन्त्रों का नहीं। यदि कोई अन्य मन्त्रों से भी आहुति देता है तो वह ऋषि की अवहेलना ही कर रहा है।

यज्ञ विषय में हमारा उद्देश्य रहे कि ऋषि की पद्धति के अनुसार एक रूपता हो और समूचा आर्य जगत् उस एक पद्धति से ही यज्ञ करे। यहाँ हम सब मन्त्र नहीं दे सकते इसके लिए आप संस्कार विधि का अवलोकन करें। अलमिति।

– सोमदेव आचार्य