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महर्षि दयानन्द जी के समय माईक का सिस्टम नहीं था, तो महर्षि जी हजारों लोगों के बीच में अपनी वाणी को कैसे प्रस्तुत करते थे?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासामेरी शंकाएँ

महर्षि दयानन्द जी के समय माईक का सिस्टम नहीं था, तो महर्षि जी हजारों लोगों के बीच में अपनी वाणी को कैसे प्रस्तुत करते थे?

समाधानः महर्षि दयानन्द जी का व्यक्तित्व अदूत था, यह जानकारी उनके दर्शन करने वालों ने दी है। महर्षि के जीवंत व्यक्तित्व का वर्णन बनेड़ा निवासी श्री नगजीराम जी शर्मा एक सनातनी विद्वान् ने किया है, इन्होंने महर्षि के दर्शन किये थे। उनके उपदेश व्यायान सुने थे, महर्षि को निकट से देखा था। श्री नगजीराम जी ने महर्षि दयानन्द के शरीर का वर्णन किया- ‘‘स्वामी जी महाराज के शरीर का वर्णन इस प्रकार है कि ऐसी दीर्घ पुष्ट एवं भव्यमूर्ति मैंने सिवाय आज तक ऐसी कहीं किसी को भी नहीं देखी। महात्मा के मस्तक की परिधि ढाई फीट से कम न थी और गर्दन बड़ी ऊँची, मुखारविन्द गोलाई को लिए हुए लबा था। नेत्र विशेष बड़े नहीं थे, कर्ण व नासिका बड़े-बड़े थे। दोनों भुज बड़े पुष्ट और आजानु लबे थे। वक्षस्थल किसी वीर धनुषधारी के समान चौड़ा और दृढ़ था। शरीर अति पुष्ट होने पर भी उदर छिटका हुआ नहीं था। दोनों जाघें बड़ी पुष्ट और तीन फिट की परिधि से कम नहीं थीं। पिंडलियाँ भी पुष्ट एवं साफ थीं। पैर सवा फीट के करीब लबे होंगे। शरीर का वर्ण गोरा था। शिर के बाल श्वेत होने लग गये थे। जिस समय वे घूमने को निकलते मुलतानी मिट्टी शरीर पर लगा, जोड़े पहन, एक दुशाले को सिर पे बाँध चद्दर से शरीर को ढक हाथ में लट्ठ कमण्डल लिये स्वयं एकाकी ही घूमने निकलते थे।

उस समय जंगल में यदि किसी अज्ञात पुरुष के अचानक दृष्टिगोचर होते तो वह इनको मनुष्य नहीं देव विशेष की मूर्ति मान चकित होके मार्ग को छोड़ एक तरफ खड़ा हो जाता। दर्शन कर बतलाने पर निर्भय हो प्रसन्न होता आपका घूमना तीन मील से कभी कम नहीं होता था। एक दिन मुझे व मेरे मित्र गौरीशंकर जी को स्वामी जी के साथ घूमने जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। किन्तु स्वामी जी के धीमे-धीमे चलने पर भी हम दोनों उनके साथ नहीं निभ सके। अतएवं 400-500 गज कि फासले से वापिस लौट आये।’’ (यह वृत्तान्त परोपकारी पत्रिका के मई 1986 के अंक में पृष्ठ 14 पर छपा था)

ये महर्षि के  दिव्य शरीर का वर्णन हुआ, जब ऋषिवर का शरीर इतना दिव्य था तो वाणी क्यों न दिव्य होगी। महर्षि के दर्शनकर्त्ताओं ने महर्षि की सिंह गर्जना युक्त वाणी का भी वर्णन किया है। उस समय भले ही ध्वनि विस्तारक (माईक) नहीं थे तो भी महर्षि अपनी तेजस्वी वाणी को सब श्रोताओं तक पहुँचाने में समर्थ थे।

हमारे आर्य जगत् में अनेकों भजनोपदेशक व उपदेशक हुए जिनकी आवाज बड़ी बुलंद रही है, स्वामी भीष्म जी भजनोपदेश व स्वामी सत्यानन्द जी श्रीमद् दयानन्द प्रकाश के लेखक ये लोग बिना माईक के ही हजारों लोगों तक अपनी बात पहुँचा देते थे। आज भी भजनोपदेशक कुंवर भूपेन्द्र सिंह जी अलीगढ़ व पं. नौबतराम जी ऋषि उद्यान अजमेर में बिना ध्वनि विस्तारक के अपनी बात हजारों तक पहुँचा सकते हैं। जबकि इन दोनों की अवस्था अस्सी (80) वर्ष से ऊपर है। जब ऐसे-ऐसे आर्यजनों की वाणी में बल है तो ऋषि की वाणी में कितना बल होगा स्वयं अनुमान लगाकर देखिए।