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महान् आचार्य बलदेव जी महाराज

  महान् आचार्य बलदेव जी महाराज

-पं. नन्दलाल निर्भय सिद्धान्ताचार्य

आचार्य बलदेवजी, सार्वदेशिक प्रधान।

ईश भक्त धर्मात्मा, थे सच्चे इंसान।।

थे सच्चे इंसान, वेद मर्यादा पालक।

स्वामी ओमानन्द रहे, गुरु उनके लायक।।

देशभक्त, गुणवान, धर्म के थे अनुरागी।

पर उपकारी सन्त, सत्यवादी थे त्यागी।।1।।

 

खोला गुरुकुल कालवा, किया धर्म का काम।

देव पुरुष ने कर दिया, सकल विश्व में नाम।।

सकल विश्व में नाम, हजारों बाल पढ़ाए।

देशभक्त विद्वान्, सैकड़ों शिष्य बनाए।।

राजसिंह अरु धर्मवीर को, ज्ञान सिखाया।

रामदेव को सकल विश्व में है चमकाया।।2।।

 

दर्शनाचार्य थे बड़े, थे गोभक्त महान्।

आर्य जगत में सब जगह, उनका था सममान।।

उनका था सममान, कर्म अच्छे करते थे।

मानवता के पुंज, पराया दुःख हरते थे।।

हिन्दी रक्षा सत्याग्रह में, काम किया था।

तारा सिंह, प्रताप सिंह को, हरा दिया था।।3।।

हाँ, आचार्य प्रवर गए, छोड़ सकल संसार।

मौत अचमभा है बड़ा, मित्रो! करो विचार।।

मित्रो! करो विचार, जगत में जो जन आता।

राजा हो या रंक, काल सबको खा जाता।।

राम, कृष्ण, चाणक्य, न यम से बचने पाए।

अर्जुन, पृथ्वीराज, काल ने ग्रास बनाए।।4।।

 

सुनो आर्यो! ध्यान से, एक काम की बात।

आपस में तुम मत करो, अब विवाद की बात।।

अब विवाद की बात करोगे, पछताओगे।

कहता हूँ मैं साफ, एक दिन मिट जाओगे।।

जगत्गुरु ऋषि दयानन्द की शिक्षा मानो।

अहंकार दो त्याग, धर्म अपना अब जानो।।5।।

आर्य सदन बहीन जनपद पलवल (हरियाणा)

 

श्री रंगपा मंगीशः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री रंगपा मंगीशः

ऋषि के प्रति आकर्षित होकर वेद के लिए समर्पित होने वाले उनके सच्चे पक्के भक्तों में रंगपा मंगीश की आर्य समाज में कभी भी कहीं भी चर्चा नहीं सुनी गई। वे दक्षिण भारत के प्रथम आर्य समाजी थे। यह भ्रामक विचार है कि धारूर महाराष्ट्र का आर्य समाज दक्षिण भारत का पहला आर्य समाज है। कर्नाटक आर्य समाज का इतिहास लिखते समय और फिर लक्ष्मण जी के ग्र्रन्थ पर कार्य करते हुए तत्कालीन कई पुष्ट प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा चुका है कि मंजेश्वर ग्राम मंगलूर कर्नाटक के श्री रंगपा मंगीश दक्षिण भारत के पहले आर्य समाजी युवक थे। उनका दान परोपकारिणी सभा तक भी पहुँचता रहा। ऋषि दर्शन करके, उनके व्यायान सुनकर और संवाद करके वह युवक दृढ़ वैदिक धर्मी बना था। भारत सुदशा प्रवर्त्तक में उनकी मृत्यु का विस्तृत समाचार सन् 1892 के एक अंक में हमने पढ़ा है। अभी कुछ दिन पूर्व ऋषि के पत्रों पर कार्य करते समय भी उनकी चर्चा पढ़ी, पर वह नोट न की गई। वेद भाष्य के अंकों में ग्राहकों में भी इनका नाम मिलेगा। आर्य समाज के इतिहास लेखकों ने तो कहीं मंगलूर के इस समाज की कतई चर्चा नहीं की।

स्वामी स्वतन्त्रानन्द महर्षि दयानन्द के एक प्रमुख योग्यतम शिष्य

ओ३म्

स्वामी स्वतन्त्रानन्द महर्षि दयानन्द के एक प्रमुख योग्यतम शिष्य

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज आर्यसमाज के अनूठे संन्यासी थे। आपने अमृतसर के निकट सन् 1937 में दयानन्द मठ दीनानगर की स्थापना की और वेदों का दिगदिगन्त प्रचार कर स्वयं को इतिहास में अमर कर दिया। आपके बाद आपके प्रमुख शिष्य स्वामी सर्वानन्द सरस्वती इसी मठ के संचालक व प्रेरक रहे। आपके जीवन पर स्वामी सर्वानन्द जी ने एक लेख के माध्यम से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी दी है। उसी को हमने आज के इस लेख की विषय वस्तु बनाया है। स्वामी सर्वानन्द जी लिखते हैं कि पूज्यपाद सन्त शिरोमणि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज इतिहास के एक जानेमाने विद्वान् थे। प्रो. राजेंद्र जिज्ञासु ने पूज्य स्वामी जी महाराज का जीवन-चरित लिखा है और इतिहास दर्पण नाम से स्वामी जी महाराज के प्रेरणाप्रद लेखों की खोज, संकलन व सम्पादन किया है। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज प्रतिवर्ष तीन बार दीनानगर मठ में कथा किया करते थे। सदा नई-नई घटनाएं और नये-नये उदहरण दिया करते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों में स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने हरियाणा का भ्रमण किया। हरियाणा सैनिक भरती का बहुत बड़ा क्षेत्र है। श्री स्वामीजी ने हरियाणा के जवानों को देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा दी थी। उनके देश-प्रम को उबारा। तब देश के अन्दर भारत छोड़ो आन्दोलन चल रहा था और देश से बाहर आजाद हिन्द सेना देश को गुलामी के बन्धन से मुक्त करने के लिए लड़ रही थी। श्री महाराज की इस ऐतिहासिक यात्रा में श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती व आचार्य भगवान्देव जी, परवर्ती नाम स्वामी ओमानन्दसरस्वती उनके साथ रहे। इनका कहना था कि स्वामी जी महाराज प्रतिदिन नया-नया इतिहास और नई-नई घटनाएं सुनाते थे।

 

विख्यात शिक्षाविद् विद्यामार्तण्ड आचार्य प्रियव्रतजी कहा करते थे कि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी को आर्यसमाज के इतिहास की छोटी-बड़ी घटनाओं का जितना ज्ञान था उतना और किसी को नहीं। आश्चर्य इस बात पर होता था कि यह सारा ज्ञान उन्हें स्मरण वा कंठस्थ था। डायरी या नोट बुक देखने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ती थी। भारत के प्राचीन इतिहास की बातें भी स्वामीजी महाराज यदा-कदा सुनाया करते थे। एक बार प्रसिद्ध इतिहासकार श्री जयचन्द्र विद्यालंकार दीनानगर मठ, निकट अमृतसर में आये। आपने स्वामीजी महाराज से प्राचीन भारत के नगरों प्रदेशों के नाम पूंछें। स्वामीजी ने उनकी सारी समस्या का समाधान कर दिया और एतद्विषयक एक लेख भी पत्रों में प्रकाशित करवाया। पं. चमूपति जी आर्यजगत् के एक अद्भुत लेखक, कवि व विचारक थे। आपकी स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज के प्रति असीम श्रद्धा थी। आप लाहौर में स्वामीजी महाराज से इतिहास-विषय पर घण्टों चर्चा किया करते थे। आपने लिखा है कि स्वामीजी को इतिहास की खोज का चस्का है। स्वामीजी महाराज को विभिन्न प्रदेशों, वर्गों व जातियों के इतिहास व रीति-नीति का सूक्ष्म ज्ञान था।

 

किस मत की कौन-सी बात कैसे आरम्भ हुई, कौन-सा मत कैसे पैदा हुआ, उसने संसार का क्या व कितना हित-अहित किया, विश्व पर कितना प्रभाव छोड़ा, इन सब बातों की विस्तृत विवेचना स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी किया करते थे। श्रोता व पाठक स्वामी जी महाराज के गम्भीर ज्ञान को देख, सुन व पढ़कर आश्चर्य करते थे। सिख इतिहास के भी स्वामीजी मर्मज्ञ थे। सिखमत किन परिस्थितियों में उत्पन्न हुआ, क्या कारण थे, सिखपंथ कैसे बढ़ा, इसने देश के लिए क्या किया, कहां भूल की–सिख गुरुओं का वास्तविक मन्तव्य क्या था, लोगों ने इसे कितना समझा और देश पर इसका क्या प्रभाव पड़ा, इन सब बातों का उन्हें गहरा व प्रामाणिक ज्ञान था। जानेमाने सिख विद्वान् प्रिंसिपल गंगासिंहजी की प्रार्थना पर आपने सिख मिशनरी कालेज में सिख इतिहास पर एक सप्ताह तक व्याख्यान दिये। व्याख्यानमाला की समाप्ति पर जब प्रिंसिपल गगासिंह जी ने प्रश्न पूछने को कहा तो सबने यह कहा कि हमें कोई शंका नहीं है। हमें स्वामीजी ने तृप्त कर दिया है। प्राचार्य जोधासिंह जी तो दयानन्द मठ, दीनानगर में आकर आपसे बहुत विषयों पर चर्चा किया करते थे। 

 

इतिहास की घटनाओं के कारणों व परिणामों को स्वामीजी महाराज बहुत अच्छे ढंग से समझाया करते थे। एक बार उदार विचार के एक मौलाना ने जो आर्य विद्वानों के सम्पर्क में थे, स्वामी जी के सामने कुछ शंकाएं रखीं। आपने मौलवीजी के सब प्रश्नों के उत्तर दिये। आपके विचार सुनकर उस मौलाना ने कहा इस्लाम-विषयक आपके गहरे ज्ञान से मैं बहुत प्रभावित हूं। मैंने ऐसी युक्तियुक्त प्रमाणिक बातें कभी नहीं सुनी। हमारे मौलवी इतनी गहराई में जाते ही नहीं।

 

स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी के इतिहास विषयक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इतिहास विषयक लेखों का एक संलकन इतिहास दर्पण नाम से सन् 1997 में प्रकाशित हुआ जिसका सम्पादन प्रसिद्ध विद्वान, लेखक, विचारक और इतिहासकार प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने किया है। स्वामी सर्वानन्द जी ने इस पुस्तक और प्रा. जिज्ञासु जी के परिचय में लिखा है कि आपने इस इतिहासदर्पण ग्रन्थ के लिए बहुत परिश्रम किया है। इस अद्भुत पुस्तक में विभिन्न समयों में लिखे गये स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के लेखों का संग्रह किया गया है। इस पुस्तक का पाठ करने से आर्यसमाज के इतिहास के सम्बन्ध में ऐसी-ऐसी बातों का ज्ञान होगा जो बातें लोगों ने कभी न सुनी हों और धर्म-कर्म के बारे में बहुत-सी शंकाओं का भी इतिहासदर्पण पुस्तक से समाधान होगा। श्री जिज्ञासु जी ने इन लेखों के लिए बहुत दूर-दूर के विद्वानों से सम्पर्क करने के साथ अनेक संस्थाओं एवं समाजों में जाकर खोज की है। स्वामी सर्वानन्द जी बताते हैं कि उन्हें बड़ा आश्चर्य होता है कि जो बातें धर्म और इतिहास के बारे में हमने कभी सुनी ही नहीं थी, वे बातें जिज्ञासु जी ने खोज निकाली हैं जो इतिहासदर्पण पुस्तक में संग्रहीत हैं।

 

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का संक्षिप्त परिचय भी जान लेते हैं। स्वामी जी का जन्म लुधियाना के मोही ग्राम में एक प्रतिष्ठित सिख जाट परिवार में पौष मास की पूर्णिमा को सन् 1877 में हुआ था। स्वामीजी के माता-पिता ने आपको केहर सिंह नाम दिया था। आपके पिता सेना में सूबेदार मेजर थे। माता समयकौर जब दिवंगत हुई तब केहरसिंह बहुत छोटी अवस्था के बालक थे। आपका पालन आपकी नानी माता महाकौर जी ने आपके ननिहाल लताला में बड़े लाड़-प्यार से किया। आपने स्कूली शिक्षा मिडल तक प्राप्त की। आपके ननिहाल में उदासीन साधुओं के डेरे से आपका सम्पर्क हुआ। उसके महन्त पं. विशनदास जी की प्रेरणा से आपने संस्कृत पढ़ी। फरीदकोट, ऋषिकेश अमृसर आदि नगरों में भी कई विद्वानों के पास अध्ययन किया। यूनानी व आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का भी आपने गहन अध्ययन किया था। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि कई बड़े-बड़े हकीमों ने दयानन्द मठ, दीनानगर में आपके चरणों में बैठकर आपसे यूनानी व आयुर्वेदिक चिकित्सा की शिक्षा प्राप्त की। सन् 1898 में आपने अपनी लाखों की सम्पत्ति पर लात मार कर महर्षि दयानन्द के वेद प्रचार मार्ग को अपनाया।  सन् 1901 में आपने परवरनड़ ग्राम में स्वामी पूर्णानन्द जी से संन्यासदीक्षा लेकर प्राणपुरी नाम पाया और कालान्तर में आप स्वामी स्वतन्त्रानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए। सन् 1901 में ही आपने दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों की धर्म प्रचारार्थ यात्रा की और इसका आरम्भ कलकत्ता के बन्दरगाह से जलपोत से किया। इस यात्रा में आपने मलयेशिया, फिलिपीन्स द्वीपसमूह, हिन्देशिया व चीन आदि कई देशों का भ्रमण कर वहां वेदों के अमृतमय ज्ञान की वर्षा की और सन् 1904 में स्वदेश लौटे। प्रा. जिज्ञासु जी ने स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के पूर्णरूपेण आर्यसमाज के प्रचार से जुड़ने पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि स्वामी जी भ्रमण करते हुए वैदिक धर्म का ही प्रचार करते थे, परन्तु भारत-भ्रमण से जब पंजाब लैटे तो पं. विशनदास जी ने आपको लताला बुलाकर आर्यसमाज के साथ जुड़कर धर्मप्रचार करने की आज्ञा दी। आपने इसे प्रवृत्ति का बखेड़ा कहकर ऐसा करने में संकोच दिखाया परन्तु पं. विशनदास जी का आदेश मानते हुए आर्यसमाज के साहित्य के विशेष अध्ययन में लग गए। आपकी स्मरण शक्ति बहुत अच्छी थी। पन्द्रह दिनों में ही आपने गीता के सात सौ श्लोक कण्ठस्थ कर लिये। अब थोड़े से समय में आपने आर्यसमाज के सब महत्वपूर्ण छोटेबड़े ग्रन्थों का स्वाध्याय करके आर्यसमाज की सेवा के लिए समर्पित हो गये। आपने पं. विशनदास जी के साथ पहली बार आर्यसमाज मोगा के वार्षिकोत्सव में भी भाग लिया। अपनी दूसरी वेद प्रचार यात्रा में आपने मारीशस में तीन वर्षों तक वेदों का प्रचार किया। वहां से लौटने के समय तक मारीशस में 58 आर्य समाजें स्थापित हो चुकी थीं। आपके जाने से पूर्व यह संख्या 13 थी और वर्तमान में यह संख्या एक सौ से अधिक है। स्वामीजी ने देश की आजादी के आन्दोलन में भी सक्रिय भाग लिया था। पराधीनता के काल में हैदराबाद में हिन्दुओं को धार्मिक आजादी नहीं थी। पाकिस्तान व बंगलादेश में हिन्दुओं पर जो प्रतिबन्ध व दमघोटू वातावरण है, वैसा ही वातावरण तब हैदराबाद के हिन्दुजगत में था। कांग्रेस व इसके प्रमुख नेताओं को हिन्दुओं के धार्मिक अधिकारों के इस हनन पर कोई सहानुभूति नहीं थी। अतः आर्यसमाज को सन् 1939 में वहां एक अभूतपूर्व व्यापक सत्याग्रह करना पड़ा जिसके फील्ड मार्शल स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी थे। यह आन्दोलन पूर्ण सफल रहा। देश की आजादी के बाद भारत के प्रथम उपप्रधानमंत्री और गृहमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने हैदराबाद का भारत में विलय कराया और यह स्वीकार किया कि इस हैदराबाद रियासत के भारत गणराज्य में विलय की भूमिका आर्यसमाज के सत्याग्रह ने तैयार की थी। स्वामी जी ने विश्व के अनेक देशों में प्रचार करने के साथ भारत में राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार, दलितोद्धार कार्य व गोहत्या निवारण के अनेक प्रशंसनीय कार्य किये। आपका जीवन अनेक पे्ररणाप्रद घटनाओं से पूर्ण है। धर्म प्रचार में आपने अपने धर्म पिता महर्षि दयानन्द के जीवन के अनुसार ही अपने जीवन व चरित्र को ढ़ाला था। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आपका जीवनचरित लिखकर एक अभूतपूर्व कार्य किया है। 3 अप्रैल, 1955 को 78 वर्ष की आयु में आपने नश्वर शरीर छोडा। जिज्ञासु जी ने लिखा है कि स्वामीजी गोधन की रक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त हुए अर्थात् शहीद हुए।

 

स्वामी स्वतन्त्रानन्द महर्षि दयानन्द की परम्परा के उनके योग्यतम शिष्यों में से एक थे। उनका यशस्वी जीवन देशवासियों की एक आध्यात्मिक एवं सामाजिक धरोहर व पूंजी है। उनसे मार्गदर्शन लेकर देश और समाज को उन्नत किया जा सकता है। हम इस महापुरुष को उनके यशस्वी कार्यों के लिए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

भारत में वैदिक युग के सूत्रधार – स्वामी विरजानन्दजी दण्डी

भारत  में वैदिक युग के सूत्रधार – स्वामी विरजानन्दजी दण्डी

(जन्म-1778ई. – निर्वाण 1868 ई.)

– आचार्य चन्द्रशेखर

1.आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती के विद्यादाता एवं पथ-प्रदर्शक महान गुरु  विरजानन्द दण्डी (बचपन का नाम व्रजलाल) का जन्म पूज्य पिता श्रीनारायणदत्त के भरद्वाज गोत्र सारस्वत ब्राह्मणकुल में 1778 ई. में करतापुर, जिला जालन्धर (पंजाब) में हुआ था।

  1. 2. पाँच वर्ष की आयु में चेचक के कारण नेत्र-ज्योति चली गई, परन्तु विधाता की कृपा से बुद्धि विलक्षण स्मरणशक्ति के रूप में प्राप्त हुई। आठ वर्ष में यज्ञोपवीत संस्कार एवं गायत्री दीक्षा के बाद पिता से संस्कृत का ज्ञानार्जन प्रारभ किया। बारहवें वर्ष में माता-पिता की मृत्यु के बाद तो सदा के लिए घर छोड़ दिया।
  2. 3. ऋषिकेश में तीन वर्ष तक साधना व एक लाख गायत्री मन्त्र का जप गंगा के पावन जल में आकंठ करने से अद्भुत प्रतिभा का वरदान प्राप्त हुआ। स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से संन्यास की दीक्षा 1798 ई. में प्राप्त करके संस्कृत व्याकरण पढ़ना प्रारभ किया। पूर्णानन्दजी ने विरजानन्दजी को महाभाष्य पढ़ने के लिए प्रेरित किया।
  3. 4. हरिद्वार से वे कनखल पहुँचे और कनखल शबद का अर्थ बताते हुए उन्होंने कहा- को न खलस्तरति कनखलो नाम। सोरों और गंगा के किनारे स्थित नगरों का भ्रमण करते हुए सन् 1800 ई. में काशी पहुँचे। भिक्षाटन न करने के कारण दो-तीन दिन निराहार रहना पड़ा। महाभाष्य, मनोरमा, शेखर, न्यायमीमांसा और वेदान्त का अध्ययन किया। इस तरह अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया और विद्वानों में प्रतिष्ठा प्राप्त की। उनके गुरु पं. विद्याधर और गौरीशंकर थे। वे 21 वर्ष की आयु में काशी गये काशी के विद्वानों में उनकी गणना थी। वे ‘‘प्रज्ञाचक्षु’’ की उपाधि से विभूषित हुये। जाने-आने के लिए पालकी व्यय तथा दक्षिणा मिलने लगी। दक्षिणा को वो अपने शिष्यों में बाँट देते थे।
  4. 5. बनारस से गया की यात्रा के बीच जंगल में लुटेरों ने लूटने की कोशिश की। ग्वालियर रियासत ने अपने सैनिक भेजकर स्वामीजी की रक्षा की और अपने डेरे पर पाँच दिन तक ठहराया और उन पंडित के साथ ज्ञान चर्चा की। दण्डी स्वामी ने गया में एक वर्ष तक ठहर कर वेदान्त ग्रन्थों का अध्ययन किया।
  5. 6. गया से कोलकाता जाकर साहित्य दर्पण, काव्य प्रकाश, रस गंगाधर, कुवलयानन्द आदि काव्य शास्त्रों के अध्ययन के साथ दर्शन, आयुर्वेद, संगीत, वीणा-वादन, योगासन तथा फारसी भाषा का ज्ञान अर्जित किया। कोलकाता में स्वामीजी के अध्ययन-अध्यापन की योग्यता की प्रशंसा विद्वानों में हुई।
  6. 7. कोलकाता से ‘सोरों’ आकर संस्कृत पढ़ाने लगे। मई 1832 ई. में दण्डी जी गंगा में खड़े होकर विरचित विष्णुस्तोत्र का पाठ कर रहे थे। उनके शुद्ध उच्चारण से प्रभावित होकर अलवर के राजा विनय सिंह आपको श्रद्धा के साथ संस्कृत पढ़ाने के लिए अलवर ले गये। अलवर में कुछ माह रहकर स्वामी जी ने राजा को स्वलिखित शबदबोध (1832 ई. के उत्तरार्ध), लघुकौमुदी, विदुर-प्रजागर, तर्कसंग्रह, रघुवंश आदि पढ़ाये और राजा संस्कृत में सामान्य संभाषण करने लगे थे। फिर दण्डी जी ने अलवर छोड़ने का निश्चय कर लिया। विदाई के समय राजा ने ढाई हजार रुपये देकर समान के साथ विदा किया। कालान्तर में राजा ने अपने पुत्र शिवदान सिंह के जन्म (14 सितबर, रविवार) के शुभ अवसर पर दण्डी जी को हजार रुपये और पंद्रह रुपये मासिक सहयोग भी किया।
  7. 8. स्वामी जी अलवर से भरतपुर के शासक बलवन्त सिंह के यहाँ (1836 ई. के लगभग) पहुँचे और विश्राम किया। राजा ने स्वामी जी की विद्या से प्रभावित होकर रुकने को कहा, परन्तु स्वामी जी के चलने के आग्रह पर 400 रुपये एक दुशाला भेंट में दिया। स्वामी जी भरतपुर से मथुरा पहुँचे। फिर मुरसान (राजा टीकम सिंह) का आतिथ्य स्वीकार करके वहाँ से बेसवाँ जाकर (राजा गिरिधर सिंह) के अतिथि रहकर सोरों में पढ़ाने लगे। कुछ वर्षों के बाद रुग्ण हो जाने पर अचेत तक हो गये।
  8. 9. सोरों से मथुरा जाने का निश्चय किया। सेवक और बैलगाड़ी चालक को किराया भाड़ा देने तक के रुपये नहीं थे। ईश्वर का विश्वास कर चल पड़े। बिलराम निवासी धनपति दिलसुख राय (1857 ई. में अंग्रेज सरकार की सहायता के कारण राजा की उपाधि) ने स्वामी जी को पाँच अशर्फियाँ और आठ रुपये भेंट किये।
  9. 10. मथुरा में स्वामी जी का आगमन 1846 ई. में हुआ और 1868 ई. तक (22वर्ष) संस्कृत पठन-पाठन किया। दण्डी जी के गुरुभाई पं. किशनसिद्ध चतुर्वेदी और शिवानन्द मथुरा में रहते थे। यहाँ रहकर पढ़ाना प्रारभ किया। योगेश्वर श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा में युगद्रष्टा स्वामी विरजानन्द ने आर्ष पठन-पाठन, वैदिक साहित्य के संरक्षण व अध्ययन, पाखण्ड और कुरीतियों के निवारण तथा भारत के स्वाभिमान और स्वतन्त्रता के रक्षण का संकल्प अपनी पाठशाला से प्रारभ किया। देश के 1857 ई. के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में स्वामी जी के विचारों का प्रभावशाली योगदान रहा। हिन्दू समाज व मुसलमान स्वामी जी को अपना मुखिया (बुजुर्ग) मानते और समान करते थे। स्वामी वेदानन्द सरस्वती ने माना था कि दण्डी जी के शिष्यों ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया था। चौधरी कबूलसिंह ने मीर मुश्ताक मीर इलाही मिरासी का उर्दू में लिखा दस्तावेज पत्रिका को दिया था, जिसका हिन्दी अनुवाद पत्रिका में छपा। इसके अनुसार 1856 ई. में मथुरा के जंगलों में दण्डी जी की अध्यक्षता में एक पंचायत हुई थी, जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की रचना की गयी थी। मथुरा निवासी शिष्य नवनीत कविवर के स्वामी दण्डी जी विषयक कवित्त से उनके अंग्रेजी सत्ता के प्रति विद्रोह-भावना का पता लगता है सप्रदायवाद वेदविहित विवर्जित पै, शासन विदेशिन को नासन प्रचण्डी ने। अगारे ही उदण्ड भय उठाय दण्ड, चण्ड हवै प्रतिज्ञा करी। प्रज्ञाचक्षु दण्डी ने 1859 ई. में आकर कौमुदी के स्थान पर अष्टाध्यायी पढ़ाने का निश्चय किया और वैष्णव विचारधारा, मूर्तिपूजा, भागवत का खंडन करने लगे। उन्होंने इस समय वाक्य मीमांसा 1859 ई. में लिखी और बाद में उन्होंने पाणिनी सूत्रार्थ प्रकाश की रचना की । स्वामी दयानन्द के उदयपुर प्रवास के समय मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या को बताया था कि स्वामी विरजानन्द जी को अष्टाध्यायी पढ़ाने की प्रेरणा देने वाले स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती थे । दण्डी जी ने बनारस और मथुरा में दाक्षिणात्य ऋग्वेदी ब्राह्मण के मुख से अष्टाध्यायी के सूत्र सुने और सुनकर कंठस्थ किये।
  10. 11. गुरु विरजानन्द की इस पाठशाला में स्वामी दयानन्द सरस्वती का विद्या प्राप्ति हेतु आना नवबर 1860 (1917 वि. कार्तिक मास शुक्ल पक्ष द्वितीया बुधवार को हुआ। महान गुरु विरजानन्द दंडी और पढ़ने वाले तेजस्वी शिष्य स्वामी दयानन्द सरस्वती) के परस्पर सममिलन से भारत में प्राचीन वैदिक संस्कृति के सरंक्षण के क्रांतिकारी युग का सूत्रपात हुआ।
  11. 12. स्वामी विरजानन्द दंडी अद्भुत विलक्षण प्रतिभा- सपन्न, व्याकरण, शास्त्रके, सूक्ष्म-द्रष्टा, विद्या-विलासीगुरु, राजाओं को नीति, संस्कृति और राष्ट्र की शिक्षा देने वाले तथा भारतीय संस्कृति का गुणगान करने वाले राष्ट्र-प्रेमी और राष्ट्र-भक्त महात्मा थे।
  12. 13. दंडी स्वामी का निर्वाण 14 सितबर 1868 ई. को मथुरा में हुआ था। उनके देहावसान का समाचार सुनकर प्रिय शिष्य दयानन्द ने कहा- आज व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया। यह स्वामी दयानन्द की अपने गुरु के प्रति सच्ची भावना थी। अपने गुरु को दिये वचन के अनुसार अपना सपूर्ण जीवन संस्कृति के सरंक्षण और भारत माता के उत्थान में लगा दिया।
  13. 14. भारत माता के यह महान् प्रज्ञा-चक्षु, तेजस्वी संन्यासी संसार से जाते हुए एक दिव्यज्योति दयानन्द के रूप में दे गए। भारतीय इतिहास में विरजानन्द दंडी का नाम सदा सूर्य की भाँति प्रकाशित रहेगा।

ऐसे महान गुरु को हमारा श्रद्धा के साथ शत्-शत नमन।

– नईदिल्ली

चलभाष- 09871020844

पाखण्ड खण्डिनी पताका, सद्धर्म प्रचार और महर्षि दयानन्द

ओ३म्

पाखण्ड खण्डिनी पताका, सद्धर्म प्रचार और महर्षि दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

किसी भी विषय में सत्य का निर्धारण करने पर सत्य वह होता है जो तर्क व युक्ति के आधार पर सिद्ध हो। दो संख्याओं 2  व 3 का योग 5 होता है। तर्क व युक्ति से यही उत्तर सत्य सिद्ध होता है। अतः 2 व 3 का योग 4 या 6 अथवा अन्य कुछ कहा जाये तो वह असत्य की कोटि में आता है। धार्मिक मान्यताओं व सिद्धान्तों की दृष्टि से भी एक विषय में सत्य मान्यता व सिद्धान्त केवल एक ही होता है। इसका प्रथम ज्ञान परमात्मा ने स्वयं ही सृष्टि के आरम्भ में वेदों के द्वारा आदि ऋषियों को कराया था। आज भी सम्पूर्ण वेद अपने मूल स्वरूप सहित संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में भाष्यों के रूप में उपलब्ध है। इनके द्वारा सत्य धर्म, मत, मान्यताओं व सिद्धान्तों का निर्धारण किया जा सकता है। धर्म का सम्बन्ध ईश्वर व आत्मा के ज्ञान व मनुष्य द्वारा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना से भी जुड़ा हुआ है। अतः ईश्वर, जीव व उपासना से जुड़ी सभी मान्यतायें व सिद्धान्त जो परस्पर विरोधी व युक्ति प्रमाणों के विरुद्ध हैं, सत्य नहीं कहे जा सकते। सत्य की विस्मृति से ही अज्ञान उत्पन्न होता है जो समय के साथ बढ़ता रहता है। महाभारत युद्ध के बाद वेदों के विलुप्त हो जाने व अल्प ज्ञानी लोगों द्वारा वेदों के अर्थ न समझने के कारण भारत व विश्व के सभी देशों में अज्ञान व पाखण्ड में वृद्धि होती रही।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्य ज्ञान की खोज की। उन्होंने भारत के सभी ज्ञानी गुरूओं से धर्म, योग व उपासना आदि का ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने संस्कृत का व्याकरण व अन्य सभी आर्ष व अनार्ष ग्रन्थों को पढ़ कर उनका मन्थन कर अपने विद्यागुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती की कृपा से सत्य व असत्य के भेद व अन्तर को जाना था। इसके साथ उन्होंने गुरू की प्रेरणा व आज्ञा तथा स्वयं के विवेक से समस्त मानवता के हित व कल्याण के लिए पाखण्ड व असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का खण्डन कर सत्य वैदिक मान्यताओं की स्थापना का संकल्प किया था जिसका उन्होंने अपनी अन्तिम श्वांस तक पालन किया। स्वामी जी ने सन् 1863 तक गुरु विरजानन्द की मथुरा स्थित कुटिया वा गुरुकुल में अध्ययन कर इसके बाद सत्य धर्म वैदिक मत का प्रचार आरम्भ किया था। आगरा व ग्वालियर आदि अनेक स्थानों पर प्रचार करते हुए वह सन् 1867 के हरिद्वार के कुम्भ मेले में धर्म प्रचार करने के उद्देश्य से आये थे। इसका कारण था कि कुम्भ के मेले में हिन्दू स्त्री-पुरुष और साधु लाखों की संख्या में इकट्ठे होते हैं। यह लेाग समझते हैं कि कुम्भ के मेले पर गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं और मनुष्य को दुःखों व जन्म-मरण से मुक्ति मिल जाती है। हरिद्वार में उन्होंने देखा कि साधु और पण्डे धर्म का उपदेश देकर लोगों को सीधे रास्ते पर लाने के स्थान पर उन्हें पाखण्ड की शिक्षा देकर लूट रह हैं। उन्होंने पाया कि संसार सत्य धर्म पर चलने के स्थान पर अज्ञान के गहरे गड्ढ़े में गिर रहा है। जिसे हर की पैड़ी कहा जाता है, वह हर की पैड़ी न होकर हाड़ की पैड़ी बन रही है। गंगा में डुबकी लगाने से सब पाप दूर हो जाते है, इस मिथ्या विश्वास से लोग बिना सोचे विचारे अन्धाधुन्ध गंगा नदी में डुबकियां लगा रहे थे।

 

हरिद्वार में इन दृश्यों को देखकर स्वामी दयानन्द जी को गहरी चोट लगी। उन्होंने पाया कि इन कृत्यों से लोग दुःखों से छूटने के स्थान पर दुःखों के सागर में डूब रहे हैं। अतः उन्होंने साधुओं और पण्डों के इस पाखण्ड की पोल खोलने का निर्णय लिया। इसके बाद एक दिन यात्रियों ने देखा कि हरिद्वार से ऋषिकेश को जाने वाली सड़क पर वहां एक स्थान पर स्वामी दयानन्द ने पाखण्ड-खण्डिनी पताका गाड़ दी है। वह वहां गरज-गरज कर उपदेश दे रहे हैं। वह अपने उपदेशों में साधुओं और पण्डों की करतूतें दिखला कर झूठे गंगा-महात्म्य की धज्जियां उड़ा रह हैं। स्वामी दयानन्द की इस गरजना से मेले में भारी हलचल मच गई। आज तक लोगों ने किसी संन्यासी को श्राद्ध, मूर्ति-पूजा, अवतार और गंगा-स्नान से मुक्ति मिलने का खण्डन करते हुए तथा पुराणों को झूठा कहते नहीं सुना था। सहस्त्र्रों की संख्या में लोग उनका क्रान्तिकारी उपदेश सुनने आने लगे। स्वामीजी सबसे यही कहते थे कि हर की पैड़ी पर नहाने से पाप नहीं धुलते। वेद की शिक्षा पर चलो। अच्छे काम करो। इसी से सुख और मोक्ष मिलेगा। धर्म ग्रन्थों का पढ़ना-सुनना और सच्चे धर्मात्माओं की संगति ही सच्चा तीर्थ होती है।

 

आने को तो स्वामी दयानन्द जी के सत्संग व प्रवचन में सहस्त्रों लोग उपदेश सुनने आते थे परन्तु वे केवल सुनकर चले जाते, उन पर उनके उपदेशों का प्रभाव दिखाई नहीं देता था। यह देख कर स्वामीजी को गहरी निराशा हुई। उन्होंने विचार किया कि मेरे तप व त्याग में कहीं कुछ कमी है जिस कारण से उनकी बात का लोगों पर असर नहीं हो रहा है। बस उन्होंने निर्णय किया कि वह अब आगे प्रचार न कर मौन रहकर तपस्या करेंगे। उन्होंने अपने सब वस्त्र उतार कर फेंक दिये। महाभाष्य की एक कापी, सोने की एक मुहर और मलमल का एक थान अपने गुरूदेव स्वामी विरजानन्द जी के लिए मथुरा भिजवा दिया। श्री कैलासपर्वत नाम के एक साधु ने स्वामी से पूछा कि महाराज आप यह क्या कर रहे हैं? स्वामी जी ने उन्हें उत्तर दिया कि जब तक अपनी आवश्यकताओं को कम से कम न किया जाये, पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती और कार्य में सफलता भी नहीं हो सकती। कैलास पर्वत को उन्होंने कहा कि वह सत्य वैदिक धर्म के विरोधी सभी असत्य मत, पन्थों व सम्प्रदायों का खण्डन कर सत्य को स्थापित करना चाहते हैं। इसके लिए वह सांसारिक आवश्यकताओं और सुख-दुःख से ऊपर उठना चाहते हैं। इसके बाद स्वामीजी ने पुस्तकें आदि छोड़कर अपने सारे शरीर पर राख रमा ली। अपने तन पर केवल एक कौपीन रख कर मौन रहने का व्रत ले लिया। जो वेदों का विद्वान शेर की तरह किसी समय लाखों के समूह में गरजता था, जिसकी गरज को सुनकर झूठे मतों और पंथों के दिल दहल जाते थे, वह अब मौन रहकर अपनी कुटी में बैठ गया। बातचीत करना पूरी तरह से बन्द हो गया। इस स्थिति में उनके मन में जो तूफान उठ रहा होगा, उसका अनुमान किया जा सकता है। अतः यह स्थिति अधिक दिन नहीं चली। उन्होंने तो यह पाठ पढ़ा हुआ था कि मौन रहने से अच्छा सत्य बोलना होता है। ऐसा व्यक्ति कब तक चुप रह सकता था? कुछ दिन बाद एक घटना घटी। एक व्यक्ति उनके तम्बू के बाहर खड़ा होकर पुराणों की प्रशंसा करने लगा। उसने वेदों को पुराणों से हेय बताया। इस असत्य वचन को सुनकर स्वामी जी से रहा न गया और वह अपना मौन व्रत तोड़कर बाहर निकले और उस व्यक्ति के असत्य वाक्यों का खण्डन आरम्भ कर दिया। हो सकता है कि उस व्यक्ति ने यह कार्य ईश्वर की प्रेरणा से स्वामी जी का मौन व्रत भंग करने के लिए किया हो? जो भी रहा हो, यह अच्छा ही हुआ और अब स्वामीजी पूरे बल से वेद प्रचार करने लगे।

 

अब स्वामी दयानन्द नगर-नगर और स्थान-स्थान में घूम कर वैदिक धर्म का प्रचार करने लगे। चारों वेदों का अध्ययन कर उन्होंने जाना था कि वेदों में कहीं मूर्तिपूजा का विधान व समर्थन नहीं है। उन्होंने मूर्तिपूजा और अन्य अवैदिक अन्धविश्वासों व पाखण्डों का खण्डन करना आरम्भ कर दिया। बहुत से लोग उनके साथ शास्त्रार्थ करने आते परन्तु हार खाकर चले जाते। कर्णवास में पं. हीरावल्लभ नाम के एक बहुत बड़े विद्वान पण्डित थे। वह नौ और पण्डितों को अपने साथ लेकर स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने आये। आते हुए साथ में एक पाषाण मूर्ति भी उठा लाये और प्रतिज्ञा की कि जब तक दयानन्द से इसकी पूजा न करा लूंगा, वापस न जाऊंगा। कोई एक सप्ताह तक प्रतिदिन ना-नौ घंटे तक शास्त्रार्थ हुआ करता था। दोनों ओर से संस्कृत बोली जाती थी और वाद प्रतिवाद होता था। अन्तिम दिन पण्डित जी उठे और ऊंचे स्वर से बोले–स्वामी दयानन्द जी महाराज जो कुछ कहते हैं, वह सब सत्य है। इतना कहकर उन्होंने अपनी मूर्तियां उठाई और गंगा में फेंक दीं। उनको देखकर बाकी पण्डितों और नगर-निवासियों ने भी अपनी-अपनी मूर्तियां घर से लाकर गंगा की भेंट कर दीं। हीरावल्लभजी ने मूर्तियों की जगह सिंहासन पर वेदों को प्रतिष्ठत कर दिया। इस कर्णवास के शास्त्रार्थ की सर्वत्र बड़ी धूम मची। बहुत से ठाकुर लोग स्वामी जी महाराज के पास आकर उपदेश लेने लगे। स्वामी जी ने उन्हें यज्ञोपवीत-जनेऊ देकर गायत्री मन्त्र को गुरु-मन्त्र के रूप में दिया। गंगा के किनारे भ्रमण करते हुए स्वामी दयानन्द ने इस प्रकार गायत्री के उपदेश से सहस्त्रों स्त्री-पुरुषों को धर्म का अमृत पिलाकर उनका कल्याण किया।

 

महर्षि दयानन्द ने देश से अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, परतन्त्रता, गोहत्या दूर करने, गोरक्षा का महत्व स्थापित करने, हिन्दी को अपनाने, विदेशी भाषाओं के अंधाधुन प्रयोग न करने सहित सामाजिक विषमा दूर करने, समाज सुधार व मानव जाति के हित के अनेकानेक कार्य किये और इनके लिए अपना एक-एक पल व एक-एक श्वांस व्यतीत किया। उनके जैसा महापुरूष इतिहास के पृष्ठों पर दूसरा देखने को नहीं मिलता जिसने देश व मानवता के हित के लिए अपना सर्वस्व त्याग किया हो। उनका बलिदान तो महत्व पूर्ण है ही परन्तु हमें लगता है कि उनका कार्य उनके बलिदान से भी अधिक महत्वूपर्ण है। उनके कार्य का किंचित परिचय देना ही आज के इस लेख का उद्देश्य है। आज के इस लेख में हमने महर्षि दयानन्द भक्त श्री सन्तराम जी के ऋषि जीवन से सहायता ली है। उनका आभार व्यक्त करते हैं। आशा है कि पाठक इस लेख को पसन्द करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा -2

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा

– स्व. डॉ. रघुवंश

कीर्तिशेष डॉ. रघुवंश हिन्दी-जगत् के जाने-माने विद्वान् थे । वे हिन्दी-संस्कृत-अंग्रेजी के परिपक्व ज्ञाता तो थे ही, भारत की शास्त्रीयता और उसके इतिहास के अनुशीलन में भी उनकी विपुल रुचि और गति थी। उन्होंने साहित्य के विभिन्न पक्षों पर साहित्य-सर्जन कर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और समर्थ लेखक के रूप में वे सर्व मान्य रहे। अपने अग्रज श्रीमान्यदुवंशसहाय द्वारा रचित ‘महर्षि दयानन्द’ नामक ग्रन्थ की भूमिका-रूप में लिखे गए उनके इस लेख से हमारे ऋषि भक्त पाठक लाभान्वित हों, अतः इसे हम उक्त ग्रन्थ से साभार उद्धृत कर रहे हैं।    –  सपादक

पिछले अंक का शेष भाग……..

विवेकानन्द ने, और बहुत कुछ गाँधी ने भी यह माना है कि भारतीय संस्कृति का स्वर आध्यात्मिक है। भारतीय जीवन में आध्यात्मिक मूल्यों को अधिक मान मिला है। विवेकानन्द के अनुसार यदि भारत को पश्चिम के विज्ञान और प्रविधि की आवश्यकता है तो पश्चिम को अपने सन्तुलित विकास के लिए भारतीय आध्यात्मिक मूल्यों की अपेक्षा है। और गाँधी के अनुसार भारत को नई समाज-रचना के लिए अपनी आध्यात्मिक मूल्यों की नई वैज्ञानिक उद्भावना द्वारा समस्त आधुनिक समाज तंत्र, राजतंत्र और अर्थतंत्र के मूल्यों को नया रूपप्रदान करना है। ये मूल्य भारतीय समाज-रचना का आधुनिकीकरण करने में सहायक होंगे और यह नया समाज व्यक्ति को समत्व और स्वाधीनता का वास्तविक मूल्य-बोध प्रदान करेगा। साथ ही पश्चिमी संस्कृति उन मूल्यों के आधार पर अपने संकट और संत्रास से मुक्त होकर नये भविष्य की संभावना से प्रेरित हो सकेगी। यहाँ ध्यान देने की बात है कि विवेकानन्द ने भारतीय अध्यात्म के अद्वैततत्त्व पर बल दिया है और गाँधी ने वैष्णव भावना को महत्त्व प्रदान किया है। ये दोनों तत्त्व भारतीयदर्शन, साधना और अध्यात्म के उच्चतम स्वरूप का परिचय दे सकते हैं, परन्तु सपूर्ण भारतीय मानस को इन तत्त्वों ने एकांगी और लोक निरपेक्ष भी बनाया है। इनके आधार पर व्यक्ति साधना की उच्चतम भूमिओं में भले ही प्रवेश करता हो, परलौकिक जीवन के विकास और समृद्धि के लिए अपेक्षित चरित्र-बल और आत्म-विश्वास उनसे जनता को प्राप्त नहीं हो सका। अधिक से अधिक सामाजिक जीवन के आचार तथा नैतिकता को आध्यात्मिक जीवन की अपेक्षा में महत्त्व मिला, परन्तु जब आत्मा और ब्रह्म में अभेद प्रतिपादित किया जाता हो, अथवा भक्त को सपूर्णतः अपने समस्त कर्मों को अपने प्रभु के प्रति समर्पण करना है, ऐसी स्थिति में समस्त सामाजिक दायित्व असंगत हो जाते हैं। यह अवश्य है कि विवेकानन्द और गाँधी दोनों ने इन आध्यात्मिक तत्त्वों की व्यायामें समाज-सेवा, परस्पर प्रेम और सहयोग आदि को स्थान दिया है, परन्तु जिस परमपरा से इन तत्त्वों का गहरा सबन्ध रहा है, इन तत्त्वों की स्वीकृति के साथ उस परमपरा की स्थापना तथा स्वीकृति ही अधिक हो सकी, समाज-सेवा, लोक-कल्याण, प्रेम-सहयोग आदि अधिकाधिक गौण होते गये हैं। आज के अवसरवादी समाज में भजन-कीर्तन और योगआदि की जितनी प्रतिष्ठा बढ़ी, प्रेम-सेवा आदि उतने ही उपेक्षणीय होते गये हैं।

इस दृष्टि से दयानन्द का भारतीय समाज का ज्ञान अधिक गहरा था और उनका भारतीय सांस्कृतिक परमपरा का अध्ययन अधिक पूर्ण माना जा सकता है। दयानन्द में प्रखर प्रतिभा और गहरी अन्तर्दृष्टि थी। साथ ही उनमें मानवीय संवेदना की बहुत व्यापक और आन्तरिक क्षमता थी, इसलिए घर से बाहर निकलने के बाद लगभग चौबीस वर्ष उन्होंने देश के स्थान-स्थान पर घूमने में बिताये और सारे भारतीय जन-समाज का बहुत व्यापक अनुभव प्राप्त किया। अपनी सूक्ष्म संवेदना के कारण ही उनको भारतीय समाज के जीवन का यथार्थ ज्ञान हो सका। भारतीय जन-समाज की विकृत, कुंठित, जड़ित और गतिरुद्ध स्थिति को देखकर उनका मन पीड़ा, दुःख और करुणा से अभिभूत हो गया। यह एक ऐतिहासिक संयोग ही कहा जायगा कि गौतम संसार के कष्ट, पीड़ा, दुःख-दर्द और जरा-मरण को देखकर इनसे मुक्त होने के उपाय की खोज में घर से निकले और बुद्ध ने अन्ततः पाया व्यक्ति के निर्वाण का मार्ग। पर मूलशंकर घर से निकले थे, संसार के बन्धनों से मुक्त होकर शुद्धस्वरूप शिव की खोज में और दयानन्द को मिला दुःखी, संतप्त व हीन-भाव से ग्रस्त, अनेक कुरीतियों, पाखण्डों और दुराचारों से पीड़ित, कुंठित, गतिरुद्ध भारतीय समाज। और फिर वे व्यक्तिगत मोक्ष के मार्ग को भूलकर अपने समाज के उद्धार में प्राण-पण से लग गये। न कोई गौतम बुद्ध को अपने मार्ग से विचलित कर सका और न स्वामी दयानन्द को ही कर सकता था।

दयानन्द की संवेदन-क्षमता के समान उनकी विवेक-बुद्धि बहुत प्रखर थी। उन्होंने भारतीय समाज की यथार्थ स्थिति का जितना मार्मिक अनुभव प्राप्त किया, उतनी ही गहराई से उन्होंने इस समाज के अधःपतन के कारणों का विवेचन-विश्लेषण किया। भारतीय समाज की धारावाहिक परमपरा का बहुत सटीक विश्लेषण उन्होंने किया है और उसके द्वारा वे ठीक निदान भी कर सके हैं। स्मरणीय है दयानन्द स्वामी विरजानन्द के पास पढ़ने के लिए मथुरा जब पहुँचे तो उनकी अवस्था लगभग सैंतीस-अड़तीस वर्ष की थी। इस प्रकार चालीस वर्ष की अवस्था तक दयानन्द विभिन्न शास्त्रों, दार्शनिक सिद्धान्तों और आध्यात्मिक साधनाओं के अध्ययन और अभयास में लगे रहे थे। एक ओर उनको तत्कालीन भारतीय समाज की यथार्थ स्थिति का सही ज्ञान था, तो दूसरी और भारतीय संस्कृति का उन्होंने मन्थन भी किया था। स्वामी विरजानन्द ने आर्य ग्रन्थों और वैदिक संस्कृति की ओर उनका ध्यान आकर्षित करके उनको दिशा-निर्देश दिया था। अपने परिभ्रमण काल में दयानन्द ने यह अनुभव किया था कि देश के समाज को अवरुद्ध करने वाला वर्ग पौराणि कों, पुरोहितों, साप्रदायिकों तथा महन्तों का है। यह इतना बड़ा निहितस्वार्थों का वर्ग बन गया है, जो अपनी शक्ति में बहुत व्यापक और समर्थ है। सामाजिक जीवन में जितने अन्धविश्वास, कुरीतियाँ, नृशंसताएँ और अन्याय फैले हुए हैं, उनके पीछे इसी वर्ग का समर्थन है। उन्होंने इस बीच भारतीय दर्शन, धर्म, अध्यात्म, आचार-शास्त्र और साधना का गहरा अध्ययन और अभयास किया था। इसके माध्यम से उन्हें भारतीय संस्कृति की मूलधारा की स्वछन्दता, गतिशीलता और मौलिकता की सही पहचान भी हुई। अपनी संस्कृति के उच्चतम मूल्यों के अनुभव और साक्षात्कार से उनके मन में यह प्रश्न बार-बार उमड़ता-घुमड़ता रहा कि इस महान संस्कृति के देश और समाज की पतनावस्था का कारण क्या है? जिस जाति ने जीवन के उच्चतम मूल्यों की उपलबधि की, व्यक्ति और समाज तथा व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन के समन्वय तथा सामंजस्य की श्रेयस्कर भूमिकाएँ प्रस्तुतकी हैं, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों की सुन्दर व्यवस्थाएँ दी हैं, उस जाति की ऐसी दीन-हीन अवस्था का कारण क्या है? ऐसे शक्तिशाली और समर्थ मानस की ऐसी कुंठित, गतिरुद्ध और विवेकहीन अवस्था क्यों हो गई है?

स्वामी विरजानन्द ने दयानन्द का ध्यान अनार्ष ग्रन्थों की ओर से हटाकर, आर्ष ग्रन्थों की ओर आकर्षित किया। उस प्रज्ञा चक्षु संन्यासी ने यह समझ लिया था कि वैदिककाल के बाद के ब्राह्मण और पुरोहित वर्ग ने स्वार्थवश और शक्ति को प्रतिद्वंद्विता में शुद्ध आर्षग्रन्थों की मनमानी टीकाएँ और व्याखयाएँ की हैं, अनेक समानान्तर ग्रन्थों की रचना की है। इन संहिताओं, स्मृतियों, उपनिषदों और पुराणों में अपने स्वार्थ-सिद्धि के नियमों और सिद्धान्तों का समाहार किया। किया ही नहीं, मनमाने ढंग से आर्ष ग्रन्थों में प्रक्षेप भी किये गये। इसलिए उन्होंने दयानन्द को विदा देते समय यही गुरु-दक्षिणा माँगी कि भारतीय संस्कृति के स्रोतों का आर्षग्र्रन्थों में अनुसन्धान करके भारतीयजन-समाज को पुनःएकत्रित और गतिशील करो। इस दिशा को पाकर दयानन्द ने भारतीय समाज के पुनर्जागरण का जो मार्ग प्रशस्त किया है, और उसके लिए जिन सिद्धान्तों और मूल्यों की विवेचना की है, वे उनकी दिव्य-दृष्टि का परिचायक हैं। उन्होंने भारतीय समाज का यथार्थ साक्षात्कार किया, उसकी दीनावस्था के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक कारणों का वैज्ञानिक विवेचन किया और अपने युगीन-परिवेश के अनुकूल समाज की नई रचना के लिए मार्ग दिखाया । क्योंकि उन्होंने सपूर्ण भारतीय समाज से अपना तादात्य स्थापित किया था, इस समाज की पहचान उनकी सही थी। उन्होंने पूरी आत्मीय संवेदना के साथ अपने समाज की पीड़ा-व्यथा को ग्रहण किया था, अतः उनमें समाज के प्रति गहरा आन्तरिक भाव था, उसके उद्धार के लिए जीवन भर वे पूरी तन्मयता के साथ लगे रहे। दयानन्द ने बार-बार अनेक अवसरों पर घोषित किया है कि अपने समाज के उत्थान और सेवा-कार्य के समुख, वे अपने निजीआत्मोद्धार और मोक्ष को कुछ भी महत्त्व नहीं देते। इस कार्य को वे अगले जन्मों के लिए स्थगित कर सकते हैं, पर उनका जीवन पूर्णतः अपने समाज के लिए उत्सर्ग है। उनका सपूर्ण जीवन और अन्त में मृत्यु भी इसका प्रमाण है। उनके सामने एकमात्र लक्ष्य था-भारतीय समाज का उत्थान, भारतीय मानस की मुक्ति ।

स्वामी दयानन्द के सामने बड़ा सवाल था कि भारतीय संस्कृति के परस्पर विरोधी तत्त्वों का समाधान किस प्रकार हो? उन्होंने देखा कि एक ओर इस संस्कृति में मानव जीवन और समाज के उच्चतम मूल्यों की रचना शीलता परिलक्षित होती है, और दूसरी ओर उसमें मानवता विरोधी, समाज के शोषण को समर्थन देने वाले, अन्धविश्वासों का पोषण करनेवाले विचार भी पाये जाते हैं, अतः उनके मनको उद्वेलित करनेवाली बात थी कि हमारी सांस्कृतिक मूल्य-दृष्टि की प्रामाणिकता क्या है?  कहा जा सकता है कि सत्य के लिए, मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए प्रामाणिकता की आवश्यकता क्या है? गाँधी को अपने सत्य के लिए किसी धर्म-विशेष के ग्रन्थ की प्रामाणिकता की आवश्यकता नहीं हुई। यहाँ दो बातों की ओर ध्यान देना चाहिए। दयानन्द के युग में पश्चिमी संस्कृति की बड़ी आक्रमक चुनौती थी। यूरोप में 19 वीं शती से विज्ञान और नये मानववाद के प्रभाव से मध्ययुगीन धर्म की उपेक्षा की जा रही थी, और मध्ययुगीन आस्था के स्थान पर बुद्धि और तर्क का आग्रह बढ़ा था, परन्तु भारत में यूरोप के मध्ययुगीन धर्म को विज्ञान और मानववाद के साथ आधुनिक कह कर रखा जा रहा था। धर्म को अपने प्रभाव को बढ़ाने और सत्ता को स्थायी बनाने में इस्तेमाल किया जा रहा था। अतः भारतीय संस्कृति की ओर से इस चुनौती को स्वीकार करने में भारतीय अध्यात्म के वैज्ञानिक तथा मानवतावादी स्वरूप की स्थापना आवश्यक थी। फिर भारतीय अध्यात्म को इस रूप में विवेचित करने के लिए आधार रूप प्रामाणिकता की अपेक्षा थी। गाँधी को इस बात की सुविधा थी कि उनके पहले भारत के धर्म, अध्यात्म तथा संस्कृति के समन्वयात्मक रूप की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। दूसरे, दयानन्द को भारतीय परमपरा के जिन पुराणपंथियों, पुरोहितों और महन्तों का विरोध करना था, वे परमपरा की प्रामाणिकता की दुहाई देकर जनता के जीवन को पतन के गर्त में ढकेलते आये थे। भारतीय जनता प्रामाणिकता की अभयस्त बना दी गई थी, चाहे वे प्रमाण उसके लिए कोई अर्थ न रखते हों। इस निहित स्वार्थ के वर्ग के गढ़ को ध्वस्त करने के लिए दयानन्द भारतीय संस्कृति के स्रोत की खोज में प्रामाणिक आधार पाने के लिए बेचैन थे।

वे स्वयं इस बात का अनुभव कर रहे थे कि भारतीय समाज को इस अवस्था में पहुँचाने का कार्य यहाँ के ब्राह्मण, पुरोहित, पौराणिक तथा साप्रदायिक वर्ग ने अपने स्वार्थ-साधन के लिए किया है। उन्होंने देखा कि यहाँ विभिन्न धर्म सप्रदायों के कर्मकाण्ड, दार्शनिक मान्यताएँ, साधना-पद्धतियाँ अन्ततःसाप्रदायिकों, गुरुओें, महन्तों के स्वार्थ-साधन में सहायक हैं। इस प्रकार मौलिक धर्म, दर्शन, अध्यात्म और साधना में जितना विकास परिलक्षित होता है, उसका उपयोग सामाजिक जीवन को अन्धविश्वासी, निष्क्रिय और जड़ बनाने के लिए ही हुआ है। अद्वैतवाद जैसे दार्शनिक सिद्धान्त चिन्तन के स्तर पर जैसे भी हों, पर वे जन-समाज के जीवन को कर्म, दायित्व, सेवा जैसे मूल्यों से निरपेक्ष करने वाले हैं। योग का मध्ययुगीन विकृत रूप इसी प्रकार जन समाज में अनेक गुह्य और रहस्य साधनाओंके प्रचार का कारण बना। ये साधना भ्रष्टाचार, अनैतिकता, असामाजिकता का कारण बन गईं। मध्ययुग की प्रेम-साधना और भक्ति ने सामाजिक जीवन को व्यक्तिगत भावावेश का विषय बना दिया। पौराणिक धर्म ने आध्यात्मिक जीवन की उपलबधियों को सरल बना दिया, सामाजिक कर्म और दायित्व को इस प्रकार गौण बना दिया गया। नाम लेने मात्र से पापियों का उद्धार हो जाता है, तीर्थ-व्रत-स्नान से मुक्ति मिलती है, मूर्ति-पूजन से ईश्वर-भक्ति होती है, आदि ऐसे सरल उपाय बताये गये, जिनके सामने ज्ञान-विवेक-कर्म की उपेक्षा की जाने लगी। इस प्रकार दयानन्द ने देखा कि मध्य-युग के पुराण-पंथियों ने व्यक्तिगत साधनाओं पर बल देकर सामाजिक जीवन को विशृंखल कर दिया है, व्यक्ति और समाज के सन्तुलन को बिगाड़ दिया और ज्ञान-कर्म-भाव के सामंजस्य को नष्ट कर दिया है।

इसी ऊहापोह में दयानन्द ने समझ लिया कि वेद और वैदिक-साहित्य तथा अन्य आर्षग्रन्थों के प्रमाण के आधार पर इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। सामान्यतः भारतीयदर्शन, धर्म तथा अध्यात्म आदि से सबन्धित सभी सिद्धान्त अथवा सप्रदाय वेदों को प्रमाण मानते आये हैं। वेदों को प्रमाण मानने की परमपरा भारत में इस सीमा तक स्वीकृत रही है कि एक-दूसरे से विरोधी मत समान रूप से वेदों को प्रमाण मान कर चलते हैं। वेदों के प्रामाण्य की इतनी सुदृढ़ परमपरा के पीछे कोई न कोई तार्किक विवेक सममत आधार चाहिए। स्वामी विरजानन्द से वेदों के सच्चे अर्थ तक पहुँचने का दिशा-निर्देश मिल सका था। दयानन्द अपने विवेक से यह मानने को तैयार नहीं थे कि वेद, जिसका साधारण सहज अर्थ ही ज्ञान है, केवल मंत्र-शक्ति से अभिमंत्रित मन्त्रों के संकलन हैं। निश्चय ही सायणवेदों के बहुत बाद के भाष्यकार हैं, उनके समय तक वेदों के अध्ययन की परमपरा समाप्त हो चुकी थी। इसी प्रकार पश्चिमी दृष्टि से धर्म गाथा, नृतत्त्व और समाज शास्त्र आदि के आधार पर वेदों को धर्म और अभिव्यक्ति का प्रारमभिक रूप मानना भी असंगत है। यह पश्चिमी चिन्तकों और शास्त्रों की अपनी सीमा है। भारतीय ज्ञान की समर्थ परमपरा में वेदों की जो मान्यता और प्रामाणिकता रही है, उसको देखते हुए पश्चिमी विद्वानों के द्वारा प्रस्तुत वेदों की व्याखया बचकानी लगती है। दयानन्द के अनुसार वेद यदि ज्ञान के भण्डार हैं, अन्य दर्शनों के लिए तथा भारत के महान चिन्तकों के लिए प्रामाण्य हैं, ऋषियों और द्रष्टाओं के द्वारा उनके मन्त्रों का साक्षात्कार किया गया है, तो उनके मन्त्रों का संगत अर्थ होना चाहिए, उनकी अर्थ और भावकी व्यंजनाओं में ज्ञान, अनुभव और मूल्यों की श्रेष्ठ तथा उच्चतम भूमियाँ लक्षित होनी चाहिए। अरविन्द ने दयानन्द की वेद-सबन्धी दृष्टि पर विचार करते समय स्पष्ट शबदों में घोषित किया है कि वेदों की व्याखया के बारे में उनका दृष्टिकोण ही मात्र सही दृष्टिकोण है, अन्यथा भारतीय परमपरा में वेदों की महिमा का आधार ही क्या है?

स्वामी दयानन्द ‘वेद’ को ज्ञान मानते हैं, अतः उनका उद्घोष था कि यदि ‘वेद’ सत्य-ज्ञान के आदिस्रोत हैं, जैसा कि सभी भारतीय ज्ञान और शास्त्र की परमपराएँ स्वीकार करती हैं, तो उनमें मानवीय ज्ञान का विवेक-संगतस्वरूप सुरक्षित है, जिसकी स्पष्ट और सुसमबद्ध व्याखया की जा सकती है। उनके अनुसार जो यह मानते हैं कि वेद के मन्त्रों का स्पष्ट अर्थ नहीं है, उनमें मन्त्र-शक्ति ही प्रमुख है, अथवा पशु-चारण-युगीन संस्कृति के गीत सुरक्षित हैं, उनके पास वेदों को अपौरुषेय कहने, सत्य-ज्ञान के मूलस्रोत मानने और भारतीय ज्ञान और अध्यात्म के प्रामाण्य स्वीकार करने के लिए कोई आधार नहीं है। उनके अनुसार सायण के द्वारा लगाये जानेवाले वेद-मन्त्रों के भाष्य अथवा पश्चिमी पद्धतियों से की जाने वाली इन मन्त्रों की व्याखया के अनुसार जो अर्थ निकाला गया है, उसमें विरोधाभास, असंगतियाँ और क्लिष्ट कल्पनाएँ तो हैं ही, पर यदि उसको मानकर चला जाय, तो वेदों को उच्चतम मानवीय ज्ञान और मूल्यों के स्रोत मानने की बात तो दूर रही, कोई और विवेकशील व्यक्ति उसकी ओर ध्यान देने की जरूरत भी नहीं समझेगा। साथ ही इस प्रकार के अर्थों से यह भी प्रमाणित होगा कि वेदों में मानवीय समाज के असंस्कृत अथवा अर्द्धसंस्कृत आदिम स्तर की अभिव्यक्ति है। पश्चिमी संस्कृति और उसके समर्थन में विकसित पश्चिमी चिन्तन के लिए यह व्याखया अनुकूल हो सकती है, पर जिस भारतीय परमपरा ने सदा अपनी संस्कृति और ज्ञान का मूल-स्रोत वेदों को माना है, और जो वेदों के प्रामाण्य पर सर्वदा अत्यधिक बल देते हैं, वे इसका क्या समाधान दे सकेंगे ?

शेष भाग अगले अंक में……

दोस्त हो तो ऐसा -धर्मेन्द्र  गौड़

 

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और शौत्तेन्द्रो कुमार घोष बचपन में सहपाठी थे। वे कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च स्कृूल में पढ़ते थे। फिर स्कॉॅटिश चर्च कॉलेज में पढ़े थे, एक साथ। सुभाष बोस रहते थे एलगिन रोड पर अपनी आलीशान दो मंजिली कोठी में और शौत्तेन्द्रो घोष भवानीपुर मोहल्ले में रॉय स्ट्रीट पर दो नबर बँगले में। दोनों के घर पास-पास थे। घोष रग्बी और फुटबाल के कैप्टेन थे। सुभाष और उनके बड़े भाई शरत अपने पड़ोसी के खेल पर जी-जान से फिदा थे।

पढ़ाई-लिखाई खत्म होने पर सुभाष और शौत्तेन्द्रो दोनों आई.सी.एस. (इण्डियन सिविल सर्विस) के इतहान में बैठे। दोनों अच्छे नबरों से पास हुए और ट्रेनिंग के लिए इंग्लैण्ड भेजे गए। विदेश में सुभाष को भारत और भारतवासियों को गुलाम बनाए रखने वाला अंग्रेजों का रवैया भाया नहीं। वे तो बस स्वतन्त्र भारत की ही तस्वीर साकार होते देखना चाहते थे। आई.सी.एस. की नौकरी का चक्कर छोड़छाड़ सीधे लौटे भारत और अपने प्यारे, मगर गुलाम देश की आजादी के लिए राजनीति में कू द पड़े। सुभाष ने युगों से सोई हुई जनता को जगाने के कठिन कार्य का संकल्प लिया।

शौत्तेन्द्रो और सुभाष का सपर्क पूरी तरह टूट चुका था, लेकिन जब भी शौत्तेन्द्रो अखबारों की सुर्खियों में अपने सुभाष की उपलधियों, बुलन्दियों और भारतीय और भारतीय जन-मानस पर उनका अमिट प्रभाव देखते-पढ़ते, तो उनका हृदय आनन्द से खिल उठता था और वे उनके प्रति नतमस्तक हुए बिना न रहते थे।

अब इस समय भीषण युद्ध के दौरान शौत्तेन्द्रो को अपने बर्मी एजेंटों द्वारा नेताजी सुभाष के बारे में उपयुक्त जानकारियाँ मिल रही थीं। उन्होंने अपने एक खास एजेंट के जरिए नेताजी के पास खबर भिजवाई कि उनका और उनकी आजाद हिन्द फौज का भारत भूमि पर अभूतपूर्व स्वागत है, यदि वे कोहिमा की ओर से दाखिल हों। चटगाँव की तरफ भूलकर भी कदम न बढ़ायें। वहाँ चप्पे-चप्पे पर दुश्मन उनकी घात में बैठे हैं। मैं नहीं चाहता कि मेरे गोरिल्लों द्वारा आजाद हिन्द फौज के नौनिहाल देशभक्तों का सफाया हो। तब तो भारत की स्वाधीनता की रही-सही आशा भी धूल में मिल जाएगी।

यह राष्ट्रप्रेम भरा सन्देश पाकर नेताजी के नेत्र सजल हो गए। उन्हें बचपन की सभी पुरानी बातें याद आईं। उन्हें अपने बालसखा पर पूरा भरोसा था। वे उसकी बात मान गए।

18 मार्च, 1944 को आजाद हिन्द फौज के बाँके जवान मारते-काटते, सड़कें तोड़ते, पुल उड़ाते, कोहिमा और मणिपुर तक आगे बढ़ आए और 14 अप्रैल, 1944 को नेताजी ने स्वयं अपने ही हाथों मोइरंग में भारत-भूमि पर राष्ट्रीय झण्डा फहराया। लगातार दो महीनों तक घास खाकर, पत्ते चबाकर, नदी-नालों का जल पीकर जूझे थे भारतीय वीर।

इस घटना से पहले अराकान युद्ध ने और भी भंयकर रूप धारण कर लिया था। जाँबाज जापानी अपनी जान पर खेल रहे थे। अंग्रेज बौखला गए और फरवरी, 1944 में रिजर्व में रखी अपनी 26 वीं और 70 वीं डिवीजनें भी लड़ाई के मैदान में झोंक दीं। लिबरेटर चर्चिल, वेलिंग्टन, लेनहेस, वल्टीवेंजनेंस बमवर्षकों से अंधाधुंध बमबारी करके जापानियों की युद्ध-सामग्री ले जाने वाले सभी थल और जल-मार्ग रोक दिए। ‘फोर्स-136’ एजेंटों ने, जिनमें घोष के गोरिल्ले भी शामिल थे, उनकी रेलों और सड़कों को काम आने लायक नहीं रखा। यही कारण था कि अधिकांश जापानी सैनिकों को बैंकॉक से इफाल तक पन्द्रह सौ किलोमीटर की दूरी पैदल ही तय करनी पड़ी। हमने उनकी रेलों और मोटरगाड़ियों का तो दौड़ना बन्द कर दिया था, लेकिन हमारा शक्तिशाली रॉयल एयर फोर्स जापानी सैनिकों को यह असभव दूरी पैदल तय करने से न रोक पाया।

गले में लटकते केवल मुट्ठी भर चावल के दानों के सहारे ही वे जूझ रहे थे। उनकी युद्ध-सामग्री समाप्त हो चुकी थी। घोष के एजेंटों ने उनकी सप्लाई लाइन काटकर उनकी रसद का आना ही बन्द कर दिया था। उनकी दिलेरी सचमुच ऊँची थी-बहुत ऊँची। सैकड़ों तो भूख-प्यास और घुटन से ही तड़प-तड़पकर मर गए और हजारों ने अपनी पेटी से लटककर ‘हाराकिरी’ कर ली। आत्मसमर्पण से मृत्यु उन्हें कहीं समानजनक और प्रिय थी। अराकान युद्ध जैसी विभीषिका शायद ही इतिहास के पन्नों में देखने को मिले।

मुस्लिम लीगी नेता हसन शहीद सोहरावर्दी, घोष से दुश्मनी रखने लगा। इसकी खास वजह थी कि जब घोष युद्ध-रेखा के पीछे होते, तो सोहरावर्दी घोष के शरणार्थी शिविरों में जाकर राजनीतिक भाषण देता और मुसलमानों के बीच हिन्दुओं के प्रति घृणा के बीज बोता। इस प्रकार वह वहाँ के मुसलमानों पर अपना सिक्का जमाना चाहता था। घोष ने इस बात पर एतराज किया। सरकार को भी आगाह कर दिया कि भारत-विभाजन के बीज बोए जा रहे हैं। फिर बंगाल प्रान्त के मुस्लिम लीगी नेताओं को चेतावनी भी दे दी कि वे भूलकर भी उसके शरणार्थी शिविरों में कदम न रखें, मगर सोहरावर्दी को इस बात की कहाँ परवाह? उसके कंधे पर तो अंग्रेजों का हाथ था। वह घोष के शरणार्थी कैपों में बिना उनकी पूर्व अनुमति के ही दाखिल होने लगा। ऐसे ही एक मौके पर घोष की गैरहाजिरी में उन्हीं के आदेश से सोहरावर्दी और उसके साथियों को मामूली घुसपैठियों की तरह पकड़ लिया गया। फिर घोष के आने पर ही सबको छोड़ा गया, इस चेतावनी के साथ कि भविष्य में फिर यहाँ आने क ी जुर्रत न करें। सोहरावर्दी इस बात को कभी भूला नहीं और घोष को मटियामेट करने की तदबीरें भिड़ाने लगा।

आर.बी.लैगडन के माध्यम से फोर्स-136 घोष को बहुत ही अच्छा पारिश्रमिक देता था। लैगडन असम में कई चाय बागानों के मालिक थे। वे घोष के पुराने मित्र भी थे। लैगडन इस धनराशि का एक बड़ा भाग घोष के सालिसीटर-फाउलर एण्ड कंपनी के मालिक हैरी फाउलर के पास जमा कर दिया करते थे। यह सब सर गाल्विन स्टुअर्ट की सिफाारिश पर ही किया गया था। घोष ने फाउलर से इतना अलबत्ता कहा था कि इस रकम को अच्छे से अच्छे काम में लगाया जाए। फाउलर ने घोष के लिए कलकत्ता में बिल्डिगें खरीदनी शुरू कर दीं।

अपनी बेहतरीन कारगुजारी के फलस्वरूप सन् 1945 के शुरू में घोष की महत्ता काफी बढ़ गई थी और लड़ाई खत्म होने पर घोष को दी गई ताकत, रुतबा, धन-दौलत देखकर अंग्रेज चौंके । घोष हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने पहाड़ी आदिवासियों को जापान के खिलाफ करने में जबरदस्त कामयाबी हासिल की थी। यह काम था भी उन्हीं के बस का। सर गाल्विन स्टुअर्ट और सर कॉलिन मिकेन्जी घबरा गए कि कहीं घोष इन्हीं आदिवासियों को हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए आगे खड़ा न कर दें, जिससे उनका बंगाल-विभाजन का वाब हमेशा के लिए मिट्टी में मिल जायेगा। ‘फोर्स-136’ बंगाल-विभाजन के पक्ष में था और घोष उसके बेहद खिलाफ। बंगाल पर जापानी कजा भी नहीं हो पाया। अंग्रेजों का घोष से मतलब भी निकल चुका था। फिर तो घोष को मिटा डालने का फैसला आनन-फानन में कर लिया गया। फैसला करने वालों में थे- सर गाल्विन स्टुअर्ट, जनरल सर गिफर्ड और हसन शहीद सोहरावर्दी ‘‘जो बाद में अविभाजित बंगाल का मुयमंत्री बना’’ खान बहादुर ई.ए.रे. और उनके साथी।

‘फोर्स-136’ ने धन और रुतबे का लालच देकर कुछ लोग तैयार किए। उन्होंने झूठे-सच्चे इल्जाम लगाकर घोष के खिलाफ उलटी-सीधी शिकायतें जड़ीं। लाखों सरकारी रुपयों की फिजूलखर्ची और गोलमाल के जुर्म में घोष को दण्ड का भागी बनाया गया। सामने से घोष की मुखालफत करने वाले प्रमुख व्यक्ति थे- इण्डियन मेडिकल सर्विस के मेजर फिच (इन्हीं हजरत ने मेजर ड्रेक बोजमैन और सर जफरुल्ला खाँ के सहयोग से भारत में हिन्दू-मुस्लिम दंगों और देश-विभाजन की रूपरेखा तैयार की थी, जिसे ‘पोस्ट क्विट प्लान’ के नाम से जाना गया), चटगाँव-ढाका के कमिश्नर मिस्टर जेमिसन। फिर अन्त में तो बर्मा के लिए अमरीकी और चीनी फौजों को छोड़कर ब्रिटिश लैण्ड फोर्सेज के कमाण्डर इन-चीफ जनरल सर जॉर्ज गिफर्ड, जी.सी.बी., डी.एस.ओ., ए.डी.सी. तक इस घिनौने काम पर उतर आए।

इस साजिश को कार्यान्वित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने खास तौर पर सन् 1944 का ऑर्डिनेंस 38-ओ.एस. 53/1944 पास किया- केवल घोष को सताने और उन्हें जलील करने के  लिए। घोष की जमीन-जायदाद, शेयर, बीमे आदि जत कर उन्हें कटघरे में ला खड़ा किया। घोष की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर वे करें भी तो क्या? सीधे पहुँचे सर गाल्विन स्टुअर्ट के पास। उन्होंने भी ठेंगा दिखा दिया और बोले, ‘‘आपको भर्ती करते समय ही पूरी तरह से आगाह कर दिया गया था कि अगर जाल में फँसते हो, तो खुद ही निकलना होगा। आपकी सहायता करने का मतलब ही है ‘फोर्स-136’ जैसी ब्रिटिश गुप्तचर संस्था को बेनकाब करना, जो हम किसी भी कीमत पर नहीं कर सकते।’’ घोष ऐसे डूबे कि कहीं के न रहे। अराकान युद्ध की सफलता में उनका कितना महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, यह भूलने में अंग्रेजों को तनिक देर न लगी।

स्टुअर्ट ने सच ही कहा था। घोष भी जानते थे कि दुश्मन द्वारा पकड़े जाने पर असह्य यातनाएँ सहने पर और मौत के मुँह में जाने पर भी ‘फोर्स-136’ उनकी सहायता करके अपने आपको बेनकाब कभी नहीं करेगा।

तभी घोष को पता चला कि उनके पुराने मित्र और ‘फोर्स-136’ के साथी आर.बी. लैगडन, जो उन दिनों इंग्लैण्ड में थे, घोष की तरफ से अदालत के रूबरू गवाही देने भारत आ रहे हैं। लैगडन को पूरी जानकारी थी कि यह पैसा कहाँ से और कितना आता था और वे ही इसे घोष को देते भी थे। घोष की खुशी का ठिकाना न रहा, लेकिन उनके भाग्य में तो कुछ और भी बदा था। ‘फोर्स-136’ को लैगडन के आने की सूचना मिल गई, अतः भारत आते समय कराची में ही उनके यान का ‘एयर क्रैश’ हो गया, ऐसी खबर कुछ अखबारों में छपा दी गई। मगर हकीकत यह थी कि कराची में ही ‘फोर्स-136’ के एजेंटों ने गोली मार कर उनकी हत्या कर दी।

जिस समय कलकत्ता में घोष के मुकद्दमे की सुनवाई हो रही थी, लीगी नेता हसन शहीद सोहरावर्दी बंगाल सरकार का पहला मुयमन्त्री था। ब्रिटिश सरकार द्वारा घोष पर दायर किया गया यह मुकद्दमा कलकत्ता और दिल्ली की अदालतों में दस वर्षों से कुछ अधिक समय तक चला। विद्वान न्यायाधीशों ने घोष का ‘फोर्स-136’ जैसी ब्रिटिश गुप्तचर संस्था से सबद्ध होना माना ही नहीं। बर्मा शरणार्थी शिविरों का भी पूरा हिसाब-किताब सही निकला। कहीं कोई गड़बड़ी नहीं। फिर भी घोष को सजा मिली। सभवतः भारतीय न्यायालय के इतिहास में यह सबसे गहरा काला धबा है। कानूनी दाँव-पेच में असलियत किस प्रकार दबा दी गई, यह भी इसी केस में उजागर हुआ। इस मामले से यह तो साबित हो ही गया कि भारत छोड़ने के बाद भी इस देश में अंग्रेजों की जड़ें कितनी गहरी हैं।

15 सितबर,1947 को अदालत में दाखिल किए गए अपने लिखित बयान में घोष ने ‘फोर्स-136’ में अपने गुप्त क्रियाकलापों का हवाला देते हुए ब्रिटिश सेना के कमाण्डरों की गतिविधियों और लड़ाई में जापानियों के दाँव-पेच का भी इजहार किया था। चार वर्षों बाद सन् 1951 में ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण-पूर्व एशिया कमाण्ड के सुप्रीम अलाइड कमाण्डर अर्ल माउण्टबैटन ऑफ बर्मा की रिपोर्ट प्रकाशित की थी। कहा जाता है कि उसमें भी वही सब बातें लिखी थीं, जो चार वर्ष पूर्व घोष ने अदालत के समक्ष अपने लिखित बयान में कही थीं। फिर घोष के साथ यह अन्याय हुआ ही क्यों?

अराकान-युद्ध में घोष का योगदान इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। जिस क्षेत्र में ब्रिटिश साम्राज्य के दो-दो फील्ड मार्शलों को जापानियों ने धूल चटा दी थी, वहीं घोष और उनके एजेंट दुश्मन को लगातार ग्यारह महीनों तक बीहड़ जंगलों में फँसाए रहे और कमाल यह कि ब्रिटिश फौज उनसे सैकड़ों मील दूर रही। अराकान-युद्ध की जीत का पूरा-पूरा श्रेय घोष और उनके चतुर जासूसों को है।

इण्डियन सिविल सर्विस के शौत्तेन्द्रो कुमार घोष जैसे विद्वान् विशेष सूझबूझ वाले अफसर से केवल एक ही बार भेंट हुई थी, जुलाई, 1943 में। स्टुअर्ट ने एक निहायत जरूरी पार्सल उनके हवाले करने उनकी कोठी पर भेजा था। क्या था उसमें, यह तो मुझे आज तक मालूम न हो सका। ऐसी सुरक्षा बरती जाती थी ‘फोर्स-136’ में, किन्तु थी अवश्य ही कोई अति महत्त्वपूर्ण वजनी चीज, वरना मेरे जरिए कभी न भेजी जाती। उस दिन काफी देर तक गुप्तचरी-प्रतिगुप्तचरी के अचूक दाँव-पेचों पर उनसे विचार-विमर्श हुआ था।

इस भेंट के बाद उन्होंने बहुत कोशिश की थी मुझे अपने स्टाफ में लेने की, लेकिन लॉर्ड जॉन लिनार्ड कॉली को तो मुझसे कुछ और ही काम लेने थे, अतः वे राजी न हुए। ऐसे दबंग अफसर की याद आज 55 वर्षों बाद भी आ ही जाती है। अब तो वे इस संसार में भी नहीं हैं। उनका देहान्त सितबर,1975 में हुआ था। यह बात मुझे 26 जनवरी, 1982 को ही ज्ञात हुई। ऐसे उच्चकोटि के ‘मास्टर-स्पाई’ को मेरे शत-शत नमन!

subhash chandra bose

श्रद्धेय भक्त फूल सिंह के आध्यात्मिक गुरु स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती – चन्दराम आर्य

 

हरियाणा प्रान्त आर्य समाज का गढ़ रहा है। इसके प्रचार-प्रसार का मुय कारण यहाँ के निवासियों का व्यवसाय रहा है, जिसमें एक कृषि करना तथा दूसरा युद्ध करना। इसका भी मुय कारण है- शहर की न्यूनता। यहाँ के लोग परिश्रमी, साहसी, सरलचित्त और भावुक हैं, अतः इनके लिए रूढ़ियों को तोड़ना बहुत सरल है। हरियाणे में आर्य समाज का प्रचार आरभ बहुत शीघ्रता से हुआ। रोहतक और हिसार आर्य समाज के प्रमुख के न्द्र रहे हैं। जब लाला लाजपतराय को 1909 में निर्वासन का दण्ड दिया गया तो उस समय हरियाणा के आर्य समाजियों में असन्तोष की लहर दौड़ गई। इस असन्तोष की लहर ने अंग्रेज शासकों को चौकन्ना कर दिया और वे आर्य जनता को अनेक प्रकार से तंग करने लगे। रोहतक जिले में सरकारी अधिकारियों ने जब आर्य समाजियों पर दमन चक्र चलाया तो उस समय वहाँ के प्रमुख आर्य समाजियों ने एक शिष्ट मण्डल महात्मा मुन्शीराम जी से मिलने के लिए गुरुकुल काँगड़ी भेजा। शिष्ट मण्डल ने महात्मा मुन्शीराम को अंग्रेज सरकार की दमनकारी नीति कह सुनाई। उस समय मुन्शीराम जी ने पं. ब्रह्मदत्त (स्वामी ब्रह्मानन्द) को रोहतक जिले में आर्य समाज के प्रचारार्थ भेजा।

जन्म-स्थान तथा कार्यक्षेत्र- स्वामी ब्रह्मानन्द जी का जन्म बिहार प्रान्त के आरा जिले के डुमरा ग्राम में सं. 1925 वि. (सन् 1868)माघ शुक्ला पंचमी को माता श्रीमती देवमूर्ति की कोख से श्री रामगुलाम सिंह के घर पर हुआ। ब्राह्मणों ने नामकरण संस्कार में आपका नाम ब्रह्मदत्त रखा जो बाद में संन्यास लेने के उपरान्त संन्यास गुरु स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती ने स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती रखा। आपके माता-पिता दोनों ईश्वरभक्त, धर्मपरायण एवं सद्विचारों के थे। स्नेहमयी माता की गोद में लोरी के साथ-साथ विशुद्ध धर्म-परायणता घुट्टी के रूप में मिली। यही कारण है जब आप आरा के हाईस्कूल में शिक्षा अर्जित कर रहे थे, तब आपको किसी आर्य विद्वान् से सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने को मिला। आपका मन सत्यार्थ प्रकाश को पढ़कर सत्य-असत्य का निर्णय करने में तल्लीन हो गया। तभी से आप वैदिक धर्म, महर्षि दयानन्द एवं आर्य समाज के दीवाने हो गए।

शिक्षा-अर्जित करने के उपरान्त सर्व प्रथम श्री ब्रह्मदत्त जी ने सन् 1890 ई. में ‘‘आर्यावर्त’’ नामक साप्ताहिक पत्र के सपादन का कार्य निर्भ्रान्त एवं सुचारु रूप सें किया। अपने सपादकत्व काल में आपने ‘‘आर्यावर्त’’ पत्र के द्वारा आर्य समाज के सिद्धान्तों का बहुत ही उत्कृष्टता से प्रचार-प्रसार किया और सामयिक परिस्थितियों पर लेख लिखकर पाठकों के हृदयों को उद्वेलित किया। जो भी लेख पढ़ता था, वह आपके अग्रिम लेखों का इन्तजार करता था। इसके उपरान्त आप कलकत्ते से निकलने वाले हिन्दी पत्र ‘‘भारत मित्र’’ के सपादक बन गये। इस पत्र को भी आपने आर्य सिद्धान्तों का संवाहक पत्र बना दिया। इसमें महर्षि दयानन्द के भी लेख छपते थे। आपके लेखों की माँग उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। हरियाणा के गुडियानी ग्राम (तब झज्जर) के निवासी बाबू बालमुकुन्द गुप्त को भी इस पत्र का सपादक रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। कलकत्ते में रहते हुए पं. ब्रह्मदत्त जी आर्य सिद्धान्तों की पुष्टि में व्यायान भी देते रहे। आपकी वाणी में मधुरता एवं गाभीर्य था। आपको इतिहास का काफी ज्ञान था।

दुर्भाग्य से उन दिनों पं. दीनदयाल व्यायान वाचस्पति के कुछ अनुयायी आपके साथ ‘‘भारत मित्र’’ में कार्य करने के लिए आ गये। उनके विचारों से आप सहमत नहीं हो सके, क्योंकि उन्होंने इस पत्र पर पौराणिक प्रभाव डालना चाहा। आप किसी भी कीमत पर आर्य सिद्धान्तों से समझौता नहीं करना चाहते थे। अन्त में आपने वहाँ से त्याग-पत्र दे दिया। आप वहाँ से गुरुकुल काँगड़ी हरिद्वार में महात्मा मुन्शीराम के पास आ गये। वहाँ से आर्य समाज का प्रचार-प्रसार करने के लिए पंजाब व हरियाणा में चले गये। हरियाणा प्रान्त में आपने पानीपत, रोहतक और हिसार में वैदिक धर्म और आर्य सिद्धान्तों का बहुत प्रचार किया। यहाँ पर आपने लगभग दस हजार नए आर्य समाजी बनाए। सन् 1918 में भक्त फूलसिंह पटवारी अपनी धर्मपत्नी श्रीमती धूपा देवी के साथ स्वामी ब्रह्मानन्द जी से वानप्रस्थाश्रम की दीक्षा लेने के लिए गए। वहीं से दीक्षित होकर भक्त फूलसिंह व माता धूपा देवी ने सर्वमेघ यज्ञ करके सपूर्ण जीवन गुरुकुल और गरीब जनता के लिए अर्पित कर दिया। आपने गुरुकुल भैंरुवाल, गुरुकुल झज्जर व गुरुकुल चित्तौड़ में मुयाधिष्ठाता एवं आचार्य पद पर अनेक वर्षों तक कार्य किया।

सन् 1925 में आपने स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती से संन्यास आश्रम की दीक्षा ली। उसके उपरान्त ही आप पं. ब्रह्मदत्त से स्वामी ब्रह्मानन्द नाम से वियात् हुए। आपकी कार्य-क्षमता बुद्धिमत्ता एवं बृहद्ज्ञान को देखकर रायबहादुर रामविलास शारदा ने आपको ‘‘वैदिक यन्त्रालय’’अजमेर के मैनेजर पद पर कार्य करने के लिए बुला लिया। आपने बड़ी निष्ठा एवं श्रद्धा से यहाँ कार्य किया।

महात्मा मुन्शीराम जी अपने साप्ताहिक पत्र ‘‘सद्धर्म प्रचारक’’ को उर्दू से बदलकर हिन्दी में निकालना चाहते थे। इस कार्य के सपादन के लिए आप अजमेर से जालन्धर चले गए। ‘‘सद्धर्म प्रचारक’’ पत्र थोड़े दिनों के उपरान्त जालन्धर से गुरुकुल काँगड़ी चला गया, अतः आप भी काँगड़ी पहुँचे, लगभग पाँच वर्ष तक आप गुरुकुल काँगड़ी में रहे। ‘‘सद्धर्म प्रचारक’’ पत्र ने आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में अपना अमिट योगदान दिया। जब आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब की बागडोर लाला मुन्शीराम के हाथों में आ गई, तब तो यह पत्र एक प्रकार से सभा का मुापत्र ही बन गया था। इस प्रकार लेखन क्षेत्र में जो योगदान स्वामी ब्रह्मानन्द जी का रहा, वह सार्वजनिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक क्षेत्र में भी कम नहीं रहा। आर्य समाज द्वारा उस काल में चलाये गये साी आन्दोलनों में आपकी अहम भूमिका रही। हैदराबाद सत्याग्रह के समय तो आपने भक्त फूलसिंह जी के साथ ग्राम-ग्राम में जाकर ऐसा माहौल बनाया कि हजारों की संया में सत्याग्रही आपके साथ रोहतक से हैदराबाद के लिए रवाना हुए। भक्त फूलसिंह जी ने जब मोठ ग्राम के दलितों (चमारों) के कुएँ के लिए नारनौद ग्राम में अनशन व्रत किया, तब आपने घूम-घूमकर अनशन व्रत के पक्ष में वातावरण तैयार किया। आपको अनेक कठिनाइयों, संकटों का सामना भी करना पड़ा, परन्तु आप अपने कर्त्तव्य से कभी विमुख नहीं हुए। आपका हरियाणा में प्रचार का इतना प्रभाव पड़ा कि वहाँ के आम जन आपको ‘‘जाट गुरु’’ कहते थे। आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब की ओर से आपने लगभग 12 वर्ष तक हरियाणा में वैदिक धर्म व आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। रोहतक जिले में तो आपने आर्य समाज की अमर बेल को उस समय सींचा, जबकि उसे विचार रूपी रस की सर्वाधिक आवश्यकता थी। लेखनी और वाणी के धनी स्वामी ब्रह्मानन्द जी जैसे-जैसे उमर ढलती गई, रुग्ण अवस्था के जाल में फँसते गये। इस प्रकार आयु के अन्तिम दिनों में आप आर्य समाज दीवानहाल में रहने लगे। आपका स्वास्थ्य वहाँ पर दिन प्रतिदिन गिरने लगा। मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। वहाँ से आपके सुयोग्य सुपुत्र डॉ. अनन्तानन्द जी, जो कि गुरुकुल काँगड़ी में आयुर्वेद महाविद्यालय के आचार्य थे, गुरुकुल में ले गये। वहाँ पर आपका काफी उपचार हुआ, परन्तु आप स्वस्थ नहीं हो सके। वहाँ सन् 1948 में 80 वर्ष की आयु में आपका देहावसान हो गया। आर्य जनता में शोक की लहर छा गई। महर्षि दयानन्द सरस्वती की आर्य समाज रूपी वाटिका का पुष्प और मुरझा गया, परन्तु यह वाटिका उनके त्याग-तप से और भी पल्लवित हुई है। मुझे यह लिखने में संकोच नहीं है कि आज जो आर्य समाज बचा हुआ है, वह ऐसे ही महापुरुषों के तप और त्याग का फल है। उनका यश रूपी शरीर हम सबके हृदयों में सुगन्धित है। यह सुगन्ध हम सबके लिये प्रेरणादायी बनी रहे। भगवान हम सब आर्यों को शक्ति व सद्बुद्धि दे कि हम अपने महापुरुषों के अधूरे कार्यों को पूरा कर सकें। अन्त में मैं डॉ. धर्मवीर कुण्डू रोहतक व श्री बलबीर शास्त्री भैंसवाल का आभारी हूँ कि आपने श्रद्धेय स्वामी ब्रह्ममानन्द का चित्र उपलध करवाने में सहयोग प्रदान किया, जिससे में दो शद स्वामी जी के बारे में लिख सका।

पवित्र अनशन की समाप्ति पर महात्मा गाँधी का जो धन्यवाद पत्र भक्त फूलसिंह को मिला, वह इस प्रकार था….

                        हरिजन सेवक 26/10/1940

मुझे श्री वियोगी हरि जी के पत्रों से भक्त फूलसिंह जी के पवित्र अनशन व्रत का समाचार मिला। भक्त जी के हृदय में हरिजनों के प्रति किए गये अन्याय का गहरा दुःख था। उन की दोनों पक्षों के प्रति शुभकामना थी। हरिजनों को पीने के पानी का बड़ा कष्ट था, इसे दूर करने के लिए उन्हें अनशन व्रत करना पड़ा।

इनका अनशन व्रत मोठ के मुसलमान रांघड़ों तथा जाटों को अपने पवित्र प्रेम से उन्हें सच्चा रास्ता दिखाने का था। यह व्रत केवल धर्म-बुद्धि से तथा ईश्वर विश्वास पर किया गया था। व्रत काल में अनेक बार असफलता के बादल मँडलाए, परन्तुाक्ति जी का धैर्य और ईश्वर विश्वास प्रबल था। भगवान की ज्योति में वे अपनी सफलता देखते थे। समय आया, वे अपने व्रत में सफल हुए। मेरे राजकोट के अनशन व्रत में विश्वास की कमी थी। प्रतिकूल स्थिति ने मेरे मन को हिला दिया, जिससे मैं अपने व्रत में असफल रहा।            –एम.के. गाँधी

– 1325/38, ‘ओ3म् आर्य निवास’,

गली नं. 5, विज्ञान नगर, आदर्श नगर, अजमेर

swami brahmanand ji

आलाराम स्वामी की पीड़ाः-राजेन्द्र जिज्ञासु

आलाराम स्वामी की पीड़ाः

स्वामी आलाराम नाम के एक बाबा जी ने उन्नीसवीं शताब्दी  के अन्तिम वर्षों में आर्य समाज में प्रवेश किया। वे किस प्रयोजन से आर्य समाज में आये- यह जानने का किसी ने तब यत्न नहीं किया। बाबा ने घूम-घूम कर आर्य समाज का अच्छा प्रचार किया। बोलने की कला में उन्हें सिद्धि प्राप्त थी, पर कुछ ही वर्षों में आर्य समाज के घोर विरोधी के रूप में सनातन धर्म के बहुत बड़े नेता व विचारक बन गये। ऋषि दयानन्द और आर्य समाज को कोसने से लीडर बनना व धन कमाना बड़ा अचूक नुस्खा आपके भी काम आया।

आप ही ने प्रयाग में सत्यार्थप्रकाश पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए एक प्रसिद्ध केस करके अपनी राजभक्ति की धूम मचा दी। सत्यार्थप्रकाश राजद्रोह फैलाने वाला ग्रन्थ है, इसलिए आप इसे जत करने पर तुल गये, परन्तु हाथ कुछ भी न लगा।

आर्य समाज में रहते हुए एक बार मेरे जन्म स्थान के समीप जफरवाल कस्बा में बाबा आलाराम ने आर्य समाज के प्रचार की धूम मचा दी। वे हास्यरस में बोलते हुए एक लावणी बहुत सुनाया करते थेः- ‘धौल दाहढ़े मरें पुत्र आरज बन जायेंगे।’ अर्थात् श्वेत दाढ़ी वाले वृद्धों के मर जाने पर इनके पुत्र आर्य बन जायेंगे। पौराणिक दल के नेता बनकर बाबाजी ने ‘दयानन्द मिथ्यात्व प्रकाश’ की एक पुस्तकमाला निकाली। इसके पाँच-छह भाग मेरे पुस्तकालय में हैं। यह पुस्तकमाला धर्म प्रचार के प्रयोजन से तो लिखी नहीं गई थी। इसका मुय प्रयोजन लोगों को राजभक्ति की घुट्टी पिलाना था। यह पुस्तकमाला के मुखपृष्ठ पर छपा करता था।

मैंने माननीय आचार्य सोमदेव जी से प्रार्थना की है कि वे बाबा आलाराम सागर की इस पुस्तकमाला पर एक 32 पृष्ठ की प्रामाणिक पुस्तक लिख दें। इससे महर्षि के व्यक्तित्व, उपकार, सुधार तथा वैदिक धर्म की विशेषताओं का नई पीढ़ी को ठोस ज्ञान होगा। ‘सत्यार्थप्रकाश’ का भयभूत विरोधियों पर ऐसा सवार हुआ कि बाबा आलाराम को अपनी पुस्तकमाला में ‘प्रकाश’ शद जोड़ना पड़ा। मौलवी सनाउल्ला को अपनी पुस्तक का नाम ‘हक प्रकाश’ रखना पड़ा। यह सत्यार्थप्रकाश का चमत्कार ही तो था।

 

Impact of Satyarth Prakash

आर्यसमाज के गगन मण्डल में चमकते नक्षत्र पं. चमूपति

ओ३म्

जयन्ती पर

आर्यसमाज के गगन मण्डल में चमकते नक्षत्र पं. चमूपति

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द आर्यसमाज के संस्थापक व निर्माता हैं जिन्होंने ईश्वरीय ज्ञान वेदों की सत्य मान्यताओं, सिद्धान्तों व शिक्षाओं का  जनसामान्य में प्रचार करने के लिए 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। वस्तुतः आर्यसमाज संसार से अविद्या का नाश करने तथा विद्या की वृद्धि करने का संसार में अब तक का एक अभूतपूर्व आन्दोलन है। महर्षि दयानन्द अपने समय के एकमात्र वेदों के पारदर्शी मर्मज्ञ विद्वान थे और निजी स्वार्थों, पारिवारिक दायित्वों व चारित्रिक दुर्बलताओं से पूर्णतः मुक्त थे। अतः मानवजाति की उन्नति व देश के पुनरुत्थान के लिए उन्होंने वेद प्रचार के आन्दोलन आर्यसमाज को स्थापित किया और प्राणपण से उसका पोषण किया। उनके प्रयासों का सुप्रभाव देश, समाज व विश्व की मानव जाति पर हुआ। अपने आन्दोलन को गति प्रदान करने के लिए उन्हें जो प्रमुख प्रतिभावान् देशभक्त मिले उनमें शहीद स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, रक्तसाक्षी पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय, लाला साईंदास सहित पं. चमूपति, एम.ए. भी थे जिन्होंने आर्यसमाज आन्दोलन की सफलता के लिए अपने जीवन को समर्पित किया। आज के लेख में हम आर्यजगत के उच्च कोटि के वयोवृद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी के लेख के आधार पर पं. चमूपति जी के जीवन पर प्रकाश डाल रहे हैं। हम समझते हैं कि जीवित विद्वानों का सत्कार व संगति तो लाभदायक होती ही है, इसके साथ अपने पूर्वज विद्वानों, देशहित व धर्महित के लिए प्रमुख योगदान देने वालों महान पुरूषों का समय-समय पर स्मरण करना भी हमारे जीवन की उन्नति में सहायक होता है। इसी आशय से यह लेख प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

पं. चमूपति जी का जन्म आजादी से पूर्व भारत के एक पिछड़े मुस्लिम राज्य बहावलपुर, जो अब पाकिस्तान में है, वहां 15 फरवरी, सन् 1893 को हुआ था। श्री वसन्दाराम आपके पिता थे और माता थी श्रीमती लक्ष्मी दवी। माता पिता से आपको चम्पतराय नाम मिला। कालान्तर में जब आपकी प्रसिद्धि फैलने लगी तो आपने अपने नाम में संशोधन कर इसको चम्पतराय से चमूपति कर दिया। चमूपति का अर्थ सेनापति होता है। आपके दादा जी का नाम श्री दलपतराय था। बहावलपुर में पं. चमूपति जी का जन्म होने से यह स्थान वैदिक जगत में विख्यात हो गया और भविष्य में भी रहेगा। पं. चमूपति जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। बाल्यकाल से ही आप उर्दू में कविता करने लगे थे।  डा. राधाकृष्ण जी आपके सहपाठी थे। आपके अनुसार मैट्रिक करने के बाद कालेज में अध्ययन करते समय आप फारसी में कविता लिखा करते थे।

 

बहावलपुर एक मुस्लिम रियासत थी और वहां उर्दू फारसी का ही प्रभाव था। हिन्दी व संस्कृत का वहां शायद ही अपवादस्वरुप कोई विद्वान रहा हो। पं. चमूपति भी बी.ए. करने तक देवनागरी के अक्षरों से अपरिचित थे। सत्संग व संगति के प्रभाव से आपको आर्यसमाज का परिचय हुआ और महर्षि दयानन्द के एक प्रमुख ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का परिचय पाकर आपने इस ग्रन्थ के उर्दू अनुवाद को प्राप्त कर उसको पढ़ा। अनुवाद से आपकी सन्तुष्टि नहीं हुई अतः आपने एम.. संस्कृत विषय लेकर किया। बी.. तक देवनागरी अक्षरों वर्णमाला से अपरिचित व्यक्ति का संस्कृत में एम.. करना आश्चर्यजनक है और शायद ये अपने समय का शिक्षा जगत का रिकार्ड भी हो। इसे हम असम्भव को सम्भव करने वाले कार्य की उपमा दे सकते हैं। इस कार्य से आपकी विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न होने का ज्ञान होता है।

 

पं. चमूपति जी सात भाषाओं के विद्वान थे जिनमें संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, फारसी आदि भाषायें सम्मिलित हैं। उर्दू और हिन्दी में की गई आपकी कवितायें दैनिक, साप्ताहिक व मासिक रूप से प्रकाशित देश की विख्यात पत्र व पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ करती थीं। आपके समकालीन प्रायः सभी मूर्धन्य साहित्यकारों, कवियों व पत्रकारों ने आपकी रचनाओं की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। आपके प्रशंसक प्रतिष्ठित साहित्यकारों में महाकवि नाथूराम शंकर शर्मा, पं. पद्मसिंह शर्मा, डा. मोहम्मद इकबाल, प्रो. त्रिलोकचन्द ‘महरूम’, कहानीकार सुदर्शन, महाशय जैमिनी सरशार, पं. वितस्ताप्रसाद ‘फिदा’, श्री दत्तात्रय प्रसाद कैफी, महाशय कृष्ण, श्री मनोहरलाल ‘शहीद’ ‘सरोज’ आदि सम्मिलित हैं।  प्रो. त्रिलोकचन्द ‘महरूम’ ने आपसे अपनी एक पुस्तक की भूमिका भी लिखवाई थी। सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा के रचयिता डा. इकबाल ने आपको अपना गुरू समान मानकर कहा था कि पं. चमूपति को देख कर मुझे अपने गुरू की याद जाती है। पण्डितजी जब कविता पाठ करते थे तो श्रोता मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। इसका कारण आपकी रचना की श्रेष्ठता के साथ सुनाने का अपना मौलिक अन्दाज था जो कृत्रिमता से रहित सहज व स्वभाविक होता था। मौलाना आजाद भी आपकी प्रतिभा और लेखन क्षमता से परिचित थे। आपने दैनिक उर्दू पत्र ‘‘तेज में आपका एक लेख गीता और कुरान पढ़कर आपसे इसी लेख की शैली में सारे कुरान का भाष्य करने का अनुरोध किया था।

 

पं. चमूपति जी के गद्य में काव्य का सा रस पाठक को मिलता है। इस संबंध में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि आपके गद्य में भी पद्य का सा रस है। हिन्दी में आप द्वारा लिखित सोम सरोवर जीवन ज्योति ग्रन्थों को हम गद्यमय पद्य की संज्ञा दे तो यह कोई अत्युक्ति नहीं है। जवाहिरे जावेद, ‘वैदिक स्वर्ग, ‘मजहब का मकसद चौदहवीं का चांद सरीखी दार्शनिक पुस्तकें इतनी रोचक साहित्यिक भाषा में लिखी गई हैं कि लेखनी उनकी साहित्यिक प्रतिभा की प्रशंसा करने में अक्षम है। आपके साहित्य, गद्य पद्य दोनों में, कौन सा रस नहीं है? वीर रस, भक्ति रस, करूणा रस, हास्यसब कुछ आपको मिलेगा। पं. चमूपति जी ऐसे महामानव थे जिन्होंने स्वेच्छा से धन को धूल समझ कर अपने देश जाति की सेवा, धर्मप्रचार धर्मरक्षा के लिए फकीरी ग्रहण की थी। आप गृहस्थी थे, आपके पुत्र लाजपत जी से हम मिले भी हैं, तथापि आपने परिवार के आर्थिक हितों की उपेक्षा करके तप, त्याग का कांटों भरा मार्ग स्वेच्छा से चुना था। आपके इस जज्बे को हमारा नमन है।

 

आपकी एक उर्दू रचना दयानन्द आनन्द सागर है जिसमें आपने महर्षि दयानन्द के विभिन्न पहलुओं पर कविताओं की रचना कर प्रस्तुत किया है। उनकी इस रचना से बहावलपुर रियासत में विवाद व बवाल हो गया। मुसलिम रियासत होने के कारण स्वामी दयानन्द की शान में लिखे गये दो शब्दों पर रियासत के मुसलमानों ने आपत्ति की। रियासत के मुसलमान हाथ धोकर आपके पीछे पड़ गये। बवाल को शान्त करने के लिए रिसासत के नवाब की ओर से आपको अपने इन शब्दों पर खेद व्यक्त करने को कहा गया। पं. चमूपति का पक्ष था कि जब उन्होंने कुछ अनुचित लिखा ही नहीं है तो खेद प्रकट करने का कोई कारण नहीं। महर्षि दयानन्द, वेद और आर्यसमाज के प्रति अपनी निष्ठा के लिए आपने अपना परिवार, जन्मभूमि, सगे संबंधी और इष्ट मित्रों का त्याग कर दिया परन्तु झुके नहीं। आज बहावलपुर में उस समय जैसी असहिष्णुता की प्रवृति अनेक तथाकथित बुद्धिजीवियों में देश भर में देखने को मिल रही है। पं. चमूपति का यह त्याग विचारों की स्वतन्त्रता के लिए था। सत्य की वाणी मनुष्यों की हितकारी होती है और ब्राह्मण की गौ कहलाती है। उसे दबाने का मतलब होता है देश को अधोगति में ले जाना। चमूपति जी ने अपनी आत्मा की आवाज को दबने नहीं दिया और स्वयं एक प्रकार का देश निकाला ले लिया। यह भी बता दे कि पण्डित जी हिन्दी कविता में अपना उपनाम चातक और उर्दू रचनाओं में सादिक का प्रयोग करते थे। धर्म, दर्शन, इतिहास उनके मुख्य विषय थे। उन्होंने जो लिखा बहुत सुन्दर व प्रभावशाली लिखा। उनकी भाषा में सौन्दर्य था, ओज था, रस था और प्रवाह था। आपकी भाषा में श्रेष्ठता के सभी गुण थे। अंग्रेजी पर भी आपका अधिकार था। इस भाषा में भी आपने सैकड़ों पृष्ठों की सामग्री दी है।

 

प्रा. जिज्ञासु जी ने पं. चमूपति जी के जीवन की एक छोटी परन्तु सदाचार संबंधी एक बड़ी घटना प्रस्तुत की है। उनके अनुसार एक बार पण्डित जी सपरिवार रेल यात्रा कर रहे थे। आरक्षण करवा रखा था। टिकट चैकर आया। टिकट देखकर आगे चलने लगा तो पण्डित जी ने आधा टिकट बनाने के लिए कहा। उसने कहा, ‘‘आधा टिकट किसके लिए?’’ पण्डित जी ने अपने नन्हें पुत्र लाजपत की ओर संकेत किया। टीटी ने कहा, ‘‘इसकी क्या आवश्यकता, यह तो चलता है। पण्डित जी ने कहा, ‘‘यह कल तीन वर्ष का हो गया सो आज इसका आधा टिकट बनना ही चाहिए। तीन वर्ष से एक दिन ऊपर हो गया है। इस पर टीटी ने कहा, ‘‘लगता है कि आप आर्यसमाजी हैं। ऐसा सिद्धान्तवादी तो एक आर्य ही हो सकता है। पं. चमूपति जी बहावलपुर में कालेज में प्राध्यापक रहे। आप गुरुकुल मुलतान व गुरुकुल कांगड़ी में भी कुछ वर्ष तक विभिन्न पदों पर रहे। एक आदर्श आचार्य के रूप में आपने अपने शिष्यों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। हमने आपके जिन ग्रन्थों को पढ़ा है, उससे हम भी अपने आप को आपका शिष्य ही मानते हैं। आपका व्यक्तित्व कितना महान था, इसका उदाहरण है कि आपकी सरलता विनम्रता, योग्यता आत्मा की निर्मलता के कारण आपके समकालीन आर्यसमाज के मूर्धन्य नेता श्री महाशय कृष्ण जी दीवान बद्री दास जी खड़े होकर आपका अभिवादन करते थे। आपके निधन से पूर्व आपकी पत्नी ने आपके बारे में कहा था कि पण्डित चमूपति जी हंसी विनोद में भी कभी असत्य भाषण नहीं किया करते थे। सन् 1915 व उसके बाद जब एम.ए. पढ़े लोग उंगलियों पर गिने जाते थे, तब भी आपने अपने नाम के साथ इस उपाधि का प्रयोग नहीं किया जबकि अनेक विख्यात लोगों के नाम के साथ एम.एम. की तुलना में निम्न उपाधि बी.ए. लिखा जाता रहा। आप कहा करते थे कि लेाग मेरे लेख और साहित्य को मेरे नाम से पढ़े, मेरी उपाधि को देखकर नहीं। आपका यह गुण आपकी वैराग्य भावना और आत्मगौरव को पुष्ट करता है।

 

15 जून सन् 1937 को 44 वर्ष की आयु में आपने मृत्यु का वरण किया। आप देशभक्त, वैदिक विद्वान, कवि, लेखक, उपदेशक, प्रचारक, ईश्वर-वेद-दयानन्द-भारत भक्त, आचार्य, तपस्वी और सच्चे ईश्वर उपासक थे। आर्यजगत के महान संन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द आपको आर्यसमाज का दूसरा गुरुदत्त विद्यार्थी मानते थे। पण्डित जी की मृत्यु पर उर्दू के प्रसिद्ध कवि श्री रोशन पटियालवी ने साप्ताहिक उर्दू प़त्र आर्य  मुसाफिर में उन पर श्रद्धाभाव से परिपूर्ण यह पंक्तियां लिखी थीं-खुश बयां शीरीं दहन सैफ जबां हरदिल अजीज। अल्लाह अल्लाह खाक के पुतले में इतनी खूबियां।  प्रा. जिज्ञासु जी ने इनका अनुवाद कर लिखा वह सुवक्ता मधुरभाषी लौह लेखक पूज्यपाद। वाह ! वाह! इतना गुणी पंचतत्व का पुतला प्रभो। इन्हीं शब्दों के साथ पं. चमूपति जी की 123 वीं जयन्ती पर हम उन्हें अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि आर्यसमाज को एक और दयानन्द और चमूपति प्रदान करें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121