Category Archives: श्रेष्ठ आर्य

सलामतराय कौन थे: राजेन्द्र जिज्ञासु

सलामतराय कौन थे?ः-

परोपकारी में इस सेवक ने महाशय सलामतराय जी की चर्चा की तो माँग आई है कि उन पर कुछ प्रेरक सामग्री दी जाये। श्री ओमप्रकाश वर्मा जी अधिक बता सकते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी की कोठी के सामने जो पहली बार जालंधर में उनके दर्शन किये, वह आज तक नहीं भूल पाया। भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि जी के व्याख्यान में कादियाँ में यह प्रेरक प्रसंग सुना था कि कन्या महाविद्यालय की स्थापना पर केवल पाँच कन्यायें प्रविष्ट हुई थीं। उनमें एक श्री सलामतराय जी की बेटी भी थी। महात्मा मुंशीराम जी की पुत्री वेदकुमारी तो थी ही। शेष तीन के नाम मैं भूल गया हूँ। इस पर नगर में पोपों ने मुनादी करवाई कि बेटियों को मत पढ़ाओ। पढ़-लिख कर गृहस्थी बनकर पति को पत्र लिखा करेंगी। यह कार्य (पत्र लिखना) लज्जाहीनता है। ऐसी-ऐसी गंदी बातें मुनादी करवाकर कन्या विद्यालय के कर्णधारों के बारे में अश्लील कुवचन कहे जाते थे।
मेहता जी ने यह भी बताया था कि ऋषि भक्त दीवानों द्वारा यह मुनादी करवाई जाती थी कि विद्यालय में प्रवेश पानेवाली प्रत्येक कन्या को चार आने (१/४ रु०) प्रतिमास छात्रवृत्ति तथा एक पोछन (दोपट्टा) मिला करेगा। वे भी क्या दिन थे! कुरीतियों से भिड़ने वालों को पग-पग पर अपमानित होना पड़ता था। महाशय सलामतराय जी अग्नि-परीक्षा देने वाले एक तपे हुये आर्य यौद्धा थे।
जो प्रेरक प्रसंग एक बार सुन लिया, वह प्रायः मेरे हृदय पर अंकित हो जाता है। महात्मा हंसराज के नाती श्री अमृत भूषण बहुत सज्जन प्रेमी थे। महात्माजी पर मेरी पाण्डुलिपि पढ़कर एक घटना के बारे में पूछा, ‘‘यह हमारे घर की बात आपको किसने बता दी?’’ मैंने कहा, क्या सत्य नहीं है? उन्होंने कहा, ‘‘एकदम सच्ची घटना है, परन्तु मेरे कहने पर आप इसे पुस्तक में न देवें।’’ वह अठारह वर्ष तक अपने नाना के घर पर रहे। उन्हें इस बात पर आश्चर्य हुआ करता था कि इस लेखक को पुराने आर्य पुरुषों के मुख से सुने असंख्य प्रसंग ठीक-ठीक याद हैं।

श्री शत्रुघन सिन्हा का ज्ञान घोटालाः- राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री शत्रुघन सिन्हा का ज्ञान घोटालाः- राजनेता संसद में अथवा विधान सभा में पहुँचते ही सर्वज्ञ बन जाते हैं। उन्हें किसी भी विषय पर बोलना व लिखना हो तो स्वयं को उस विषय का अधिकारी विद्वान् मानकर अपनी अनाप-शनाप व्यवस्था देते हैं। वीर भगतसिंह जी के बलिदान पर्व पर विख्यात् अभिनेता शत्रुघन हुतात्मा भगतसिंह जी पर टी. वी. में उनके केश कटवाने पर किसी कल्पित व्यक्ति से उनका संवाद सुना रहे थे। उनकी जानकारी का स्रोत वही जानें। हम तो इसे ज्ञान-घोटाला ही मानते हैं।
वह संसद में जाकर कुछ न मिलने पर भाजपा से तो खीजे-खीजे कुछ न कुछ बोलते ही रहते हैं। इतिहास का गला घोंटते हुए अभिनेता जी ने वीर भगतसिंह के परिवार को कट्टर सिख बताया। अभिनेता ने भगतसिंह जी की भतीजी लिखित ग्रन्थ पढ़ा होता, उनके पितामह तथा पिताजी की वैदिक धर्म पर लिखी पुस्तकें पढ़ी होतीं तो उनको पता होता कि यह परिवार दृढ़ आर्यसमाजी था। श्री धमेन्द्र जिज्ञासु जी ने तथा इस लेखक ने भी वीर भगतसिंह की जीवनी लिखी है।
राजनीति में आकर भगतसिंह जी के विचारों में भले ही कुछ परिवर्तन आया, परन्तु उनका आर्यसमाज से यथापूर्व सम्बन्ध बना रहा। उनको हिन्दू-सिख सबसे प्रेम था, परन्तु उनको कट्टर पंथी सिख बताना तो इतिहास को विकृत करना है। उनके बलिदान पर ‘प्रकाश’ आर्य मुसाफिर आदि पत्रों में महाशय कृष्ण जी, प्रेम जी ने उनके वैदिक रीति से संस्कार न करवाने पर सरकार की नीति का घोर विरोध किया। तब किसी ने यह न कहा और न लिखा कि उनका परिवार सिख है। उस समय के आर्य पत्र मेरे पास हैं। तब किसी ने यह न लिखा कि वह आर्य परिवार से नहीं था। उनके अभियोग में पहला अभियुक्त महाशय कृष्ण का बेटा आर्य नेता वीरेन्द्र था। श्री सुखदेव, प्रेमदत्त व मेहता नन्दकिशोर आदि कई आर्य क्रान्तिकारी तब उनके साथ थे। पं. लोकनाथ स्वतन्त्रता सेनानी आर्य विद्वान् ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार करवाया। महान् आर्य दार्शनिक आचार्य उदयवीर उनके नैशनल कॅालेज के गुरु ने अन्त समय तक भगतसिंह के लिए जान जोखिम में डाली। शत्रुघन जी की आर्यसमाज से व इतिहास से ऐसी क्या शत्रुता हो गई है कि आपने आर्यसमाज को नीचा दिखाने के लिए सारा इतिहास ही तोड़ मरोड़ डाला है?

ये प्रेरक प्रसंग, यह किया और यह दिया: राजेन्द्र जिज्ञासु

ये प्रेरक प्रसंग, यह किया और यह दिया :- मार्च 2016 के वेदप्रकाश के अंक में श्री भावेश मेरजा ने मेरी दो पुस्तकों के आधार पर देशहित में स्वराज्य संग्राम में आर्यसमाज के बलिदानियों को शौर्य की 19 घटनायें या बिन्दु दिये हैं।

किन्हीं दो आर्यवीरों ने ऐसी और सामग्री देने का अनुरोध किया है। आज बहुत संक्षेप से आर्यों के साहस शौर्य की पाँच और विलक्षण घटनायें यहाँ दी जाती हैं।
1. देश के स्वराज्य संग्राम में केवल एक संन्यासी को फाँसी दण्ड सुनाया गया। वे थे महाविद्वान् स्वामी अनुभवानन्दजी महाराज। जन आन्दोलन व जन रोष के कारण फाँसी दण्ड कारागार में बदल दिया गया।

2. हैदराबाद राज्य के मुक्ति संग्राम में सबसे पहले निजामशाही ने पं. नरेन्द्र जी को कारागार में डाला अन्य नेता बाद में बन्दी बनाये गये।

3. निजाम राज्य में केवल एक क्रान्तिवीर को मनानूर के कालेपानी में एक विशेष पिंजरे में निर्वासित करके बन्दी बनाया गया।

4. स्वराज्य संग्राम में केवल एक राष्ट्रीय नेता को पिंजरे में गोराशाही ने बन्दी बनाया। वे थे हमारे पूज्य स्वामी श्रद्धानन्द जी।

5. जब वीर भगतसिंह व उनके साथियों ने भूख हड़ताल करके अपनी माँगें रखीं तब उनके समर्थन में एक विराट् सभा की। अध्यक्षता के लिए एक बेजोड़ निर्ाीक सेनानी की देश को आवश्यकता पड़ी। राष्ट्रवासियों की दृष्टि हमारे भीमकाय संन्यासी स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी पर पड़ी।

सरकार उनके उस ऐतिहासिक भाषण से हिल गई। आर्य समाज के पूजनीय नेता के उस अध्यक्षीय भाषण को क्रान्तिघोष मान कर सरकार ने केहरी को (स्वामी जी का पूर्व नाम केहर सिंह-सिंहों का सिंह था) कारागार में डाल दिया। आज देशवासी और आर्यसमाज भी यह इतिहास-गौरव गाथा भूल गया।

पाठक चाहेंगे तो ऐसी और सामग्री अगले अंकों में दी जायेगी। मेरे पश्चात् फि र कोई यह इतिहास बताने, सुनाने व लिखने वाला दिख नहीं रहा। श्री धर्मेन्द्र जिज्ञासु इस कार्य को करने में समर्थ हैं यदि……..

भीष्म स्वामी जी धीरता, वीरता व मौन :- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

भीष्म स्वामी जी धीरता, वीरता व मौन :-
इस बार केवल एक ही प्रेरक प्रसंग दिया जाता है। नरवाना के पुराने समर्पित आर्य समाजी और मेरे विद्यार्थी श्री धर्मपाल तीन-चार वर्ष पहले मुझे गाड़ी पर चढ़ाने स्टेशन पर आये तो वहाँ कहा कि सन् 1960 में कलायत कस्बा में आर्यसमाज के उत्सव में श्री स्वामी भीष्म जी कार्यक्रम में कूदकर गड़बड़ करने वाले साधु से आपने जो टक्कर ली वह प्रसंग पूरा सुनाओ। मैंने कहा, आपको भीष्म जी की उस घटना की जानकारी कहाँ से मिली? उसने कहा, मैं भी तब वहाँ गया था।

संक्षेप से वह घटना ऐसे घटी। कलायत में आर्यसमाज तो था नहीं। आस-पास के ग्रामों से भारी संया में लोग आये। स्वामी भीष्म जी को मन्त्र मुग्ध होकर ग्रामीण श्रोता सुनते थे। वक्ता केवल एक ही था युवा राजेन्द्र जिज्ञासु। स्वामी जी के भजनों व दहाड़ को श्रोता सुन रहे थे। एकदम एक गौरवर्ण युवा लंगडा साधु जिसके वस्त्र रेशमी थे वेदी के पास आया। अपने हाथ में माईक लेकर अनाप-शनाप बोलने लगा। ऋषि के बारे में भद्दे वचन कहे। न जाने स्वामी भीष्म जी ने उसे क्यों कुछ नहीं कहा। उनकी शान्ति देखकर सब दंग थे। दयालु तो थे ही। एक झटका देते तो सूखा सड़ा साधु वहीं गिर जाता।

मुझसे रहा न गया। मैं पीछे से भीड़ चीरकर वेदी पर पहुँचा। उस बाबा से माईक छीना। मुझसे अपने लोक कवि संन्यासी भीष्म स्वामी जी का निरादर न सहा गया। उसकी भद्दी बातों व ऋषि-निन्दा का समुचित उत्तर दिया। वह नीचे उतरा। स्वामी भीष्म जी ने उसे एक भी शद न कहा। उस दिन उनकी सहनशीलता बस देखे ही बनती थी। श्रोता उनकी मीठी तीन सुनने लगे। वह मीठी तान आज भी कानों में गूञ्ज रही हैं :-

तज करके घरबार को, माता-पिता के प्यार को,
करने परोपकार को, वे भस्म रमा कर चल दिये……

वे बाबा अपने अंधविश्वासी, चेले को लेकर अपने डेरे को चल दिया। मैं भी उसे खरी-खरी सुनाता साथ हो लिया। जोश में यह भी चिन्ता थी कि यह मुझ पर वार-प्रहार करवा सक ता था। धर्मपाल जी मेरे पीछे-पीछे वहाँ तक पहुँचे, यह उन्हीं से पता चला। मृतकों में जीवन संचार करने वाले भीष्म जी के दया भाव को तो मैं जानता था, उनकी सहन शक्ति का चमत्कार तो हमने उस दिन कलायत में ही देखा। धर्मपाल जी ने उसकी याद ताजा कर दी।

दिल्ली के वे दीवाने धर्मवीरः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

दिल्ली के वे दीवाने धर्मवीरः

कुछ पाठकों की प्रेरणा से छोटे-छोटे दो-तीन प्रेरक प्रसंग दिल्ली के इतिहास से देता हूँ। याद रखिये, सिलाई स्कूल, बारात घर, होयोपैथी डिस्पैन्सरी-यह आर्य समाज का इतिहास नहीं। यह कार्य तो रोटरी क्लब भी करते हैं। स्वामी चिदानन्द जी पर दिल्ली में शुद्धि के लिए अभियोग चला। वे जेल गये। यातनायें सहीं। मौत की धमकियाँ मिलती रहीं। कभी दिल्ली में किसी ने उनकी चर्चा की?

दिल्ली में दो स्वामी धर्मानन्द हुए हैं। मेरा उपहास उड़ाया गया कि कौन था धर्मानन्द स्वामी? अरे भाई दिल्ली वालों! आप नहीं जानते तो लड़ते क्यों हो? पं. ओ3म् प्रकाश जी वर्मा, डॉ. वेदपाल जी, श्री विरजानन्द से पूछ लो कि करोल बाग समाज वाले कर्मवीर संन्यासी धर्मानन्द कौन थे। दिल्ली के पहले मुयमंत्री चौ. ब्रह्मप्रकाश ने दिग्विजय जी वाला काम कर दिया। बुढ़ापे में शादी रचा ली। सब लीडर बधाइयाँ दे रहे थे। हमारे स्वामी धर्मानन्द जी पुराने स्वतन्त्रता सेनानी थे। यह उनके घर जाकर लताड़ लगा आये कि यह क्या सूझा?

दिल्ली के पहले आर्य पुस्तक विक्रेता का नाम दिल्ली में कौन जानता है? वह थे श्री दुर्गाप्रसाद जी। पं. लेखराम ला. बनवारीलाल करनाल वालों के संग एक ग्रन्थ की खोज करने निकले। प्रातः से रात तक सारी दिल्ली की दुकानें छान मारीं। आर्य जाति की रक्षा के लिए एक पुस्तक में उसका प्रमाण देना था। अँधेरा होते-होते उन्हें वह ग्रन्थ मिल गया। कुछ और ग्रन्थ भी क्रय कर लिये। पुस्तक विक्रेता थे श्री दुर्गाप्रसाद जी आर्य। वह ताड़ गये कि यह ग्रन्थ तो कोई गवेषक स्कालर ही लेता है। यह ग्राहक कौन है?

पं. लेखराम जी भी दुकानदार को कभी मिले नहीं थे। पन्द्रह रुपये माँग तो लिए फिर पूछा, ‘‘अरे भाई आप हो कौन?’’ साथी ला. बनवारी लाल बोले, ‘‘आप नहीं जानते? यह हैं जातिरक्षक आर्य पथिक पं. लेखराम जी।’’ अब दुर्गाप्रसादजी ने कहा, ‘‘इनसे मैं इनका मूल्य नहीं लूँगा।’’ पं. लेखराम अड़ गये कि ‘‘मैं यह राशि दूँगा और अवश्य दूँगा।’’ मित्रों! तब रुपया हाथी के पैर जितना बड़ा होता था। पण्डित जी की मासिक दक्षिणा मात्र 30-35 रुपये थे। धर्मवीर पं. लेखराम तो धन्य थे ही, कर्मवीर दुर्गाप्रसाद के धर्मानुराग कााी तो कोई मूल्याङ्कन करे।

ठाकुर मुकन्दसिंह जी की कविताः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

ठाकुर मुकन्दसिंह जी की कविताः

ठाकुर मुकन्द सिंह जी ऋषिवर के सबसे पहले शिष्यों में से एक थे और सबसे लबे समय तक ऋषि के सपर्क में रहे। वे एक विनम्र सेवक थे। राहुल जी के पुरुषार्थ से यह तथ्य सामने आया है कि आप एक गभीर विद्वान् व कवि भी थे। आपकी पुस्तक ‘तहकीक उलहक’ के पृष्ठ 317 पर पद्य की ये पाँच पंक्तियाँ छपी हैं। इन्हें ऋषि के प्रति उनकी श्रद्धाञ्जलि समझें।

दयानन्द स्वामी का फैजान1 है, जो लिखी है मैंने यह नादिर2 किताब। मगर क्या करूँ छह बरस हो गये, कि त्यागा उन्होंने जहाने सराब3। दयानन्दी संवत हुए यह नये, इसी में मैं लिखता हूँ साले किताब4 सरे हर बरक से अयाँ साल है, दयानन्दी संवत का है यह हिसाब। सरे वाह गुरुदेव कर दीजिये, तो है दूसरा साल भी लाजवाब।

ऋषि के सबसे पहले शिष्यों में से रचित ऋषि जी पर यह पहली कविता हमारे हाथ लगी है।

जाति पाँति का विषः जातिवाद के विरुद्ध दहाड़ने वाले, दलितों के लिये घड़ियाली आँसू बहाने किसी भी दल व संस्था ने आज पर्यन्त दलितोद्धार के लिए प्राण देने वाले वीर रामचन्द्र, वीर मेघराज, भक्त फूलसिंह आदि का स्मारक बनवाया? उन्हें किसी ने कभी श्रद्धाञ्जलि दी? उनके नाम पर डाक टिकट जारी किया? किसी और संस्था ने दलितों के लिए कोई बलिदान दिया? आज दलित-दलित का शोर मचाने वाले कभी दलितों के लिये पिटे या घायल हुए? राहुल केजरीवाल आज कहीं भी  पहुँच जाते हैं। जब फीरोजपुर के कारागार में नेहरू युग में सुमेर सिंह आर्य सत्याग्रही को पीट-पीट कर मारा गया, तब इन टर्राने वालों के दल व इनके पुरखा कहाँ थे? सज्जनो! देशवासियो!:-

नेहरूशाही ने दण्डा गुदा में दिया,

आप बीती यह कैसे सुनाऊँ तुहें?

आत्म हत्या व जातिवादःआत्महत्याएँ व जातिवाद की महामारियाँ फैल रही हैं। नेता लोग भाषण परोस रहे हैं। सामूहिक बलात्कार की घटनायें नित्य घटती हैं। दलों को, नेताओं को लज्जा आनी चाहिये। हिन्दू धर्म व संस्कृति के नये-नये व्यायाकार महाराष्ट्र में मन्दिर प्रवेश के लिये महिला सत्याग्रह पर आज भी वैसे ही मौन हैं, जैसे साठ वर्ष पूर्व काशी विश्वनाथ मन्दिर में दलितों के साथ प्रवेश करने पर विनोबा जी की पिटाई पर इनके बड़ों ने चुप्पी साघ ली थी। तब केवल आर्यसमाज ने भेदभाव व उस कुकृत्य की निन्दा की थी।

नारी की, कन्याओं की, संस्कृत की व संस्कृति की दुहाई देनेवाले नेता काशी जाते रहते हैं। काशी में कन्याओं के वेदाध्ययन के अधिकार की ध्वजा फहराने वाले और जाति-पाँति का विध्वंस करनेवाले पाणिनि गुरुकुल काशी की इनमें से किसने यात्रा की? इन्हें विवेकानन्द स्वामी तो याद रहते हैं, भेदभाव का दुर्ग ढहाने वाले काशी का यह गुरुकुल दिखाई ही नहीं देता। केजरीवाल भी तो गंगा स्नान का कर्मकाण्ड करके  काशी यात्रा कर आया।

पाद टिप्पणी

  1. उपकार 2. उत्तम, अद्भुत 3. नाशवान, अनित्य 4. पुस्तक लेखन का वर्ष

‘वैदिक विद्वान पं. भगवदत्त रिसर्चस्कालर और उनकी ग्रन्थ सम्पदा’

ओ३म्

वैदिक विद्वान पं. भगवदत्त रिसर्चस्कालर और उनकी ग्रन्थ सम्पदा

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

पण्डित भगवद्दत्त रिसर्चस्कालर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से वर्तमान पीढ़ी के मित्रों को परिचत कराने का विचार आया जिसका परिणाम  आज का हमारा यह संक्षिप्त विवरण व लेख है। पं. भगवद्दत्त जी आर्यसमाज में वेद एवं वैदिक विषयों पर आधुनिक विज्ञान की सहायता से शोध के प्रवर्तक थे। आपका जन्म वर्तमान पंजाब के अमृतसर में पिता लाला चन्दनलाल एवं माता श्रीमती हरदेवी जी के यहां 27 अक्तूबर सन् 1893 को हुआ था। आपकी इण्टरमीडिएट तक की शिक्षा विज्ञान विषयों सहित हुई जिसके बाद आपने सन् 1913 में बी.ए. किया। बी.ए. करने के बाद वेदाध्ययन को आपने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। आपने एम.ए. नहीं किया इसके पीछे जो कारण था उसका उल्लेख प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने पं. भगवद्दत्त जी पर अपनी प्रशंसित पुस्तक में किया है। वह लिखते हैं कि पण्डित जी ने मुम्बई के श्री ओंकारनाथ जी को उनके पूछने पर बताया था कि वह बहुत सरलता से एम.. कर सकते हैं परन्तु एम.. की परीक्षा में अच्छे अंक पाने के लिए पाठ्यक्रम में निर्धारित पश्चिमी भाषा विज्ञान अन्यअन्य ग्रन्थों की मिथ्या बातें लिखनी पड़ती है। मैं उन पुस्तकों की झूठी बातें लिख बोल नहीं सकता। इस कारण उन्होंने एम.. नहीं किया जबकि आपने अनेक युवकों को एम.. पीएच.डी. कराया था। स्वामी लक्ष्मणानन्द जी आपके गुरु थे जिन्होंने स्वामी दयानन्द से योगाभ्यास की विधि सीखी थी। पण्डित जी ने बी.ए. की परीक्षा डी.ए.वी. कालेज से पास की और इसके बात इसी कालेज को अपनी अवैतनिक सेवायें प्रदान कीं। सन् 1921 में महात्मा हंसराज ने आपको डी.ए.वी. कालेज लाहौर के अनुसंधान विभाग का अध्यक्ष बनाया। डी.ए.वी. कालेज के अपने कार्यकाल में आपने लगभग सात हजार हस्तलिखित प्राचीन ग्रन्थों वा उनकी पाण्डुलिपियों का वहां संग्रह किया। 1 जून, सन् 1934 को पण्डित जी ने डी.ए.वी. कालेज की सेवा से मुक्ति प्राप्त की और स्वतन्त्र रुप से वैदिक साहित्य के अध्ययन व अनुसंधान में लग गये। डी.ए.वी. कालेज की सेवा से मात्र 41 वर्ष की आयु में त्याग कर देने से अनुमान होता है कि वह डी.ए.वी. में कार्य से सन्तुष्ट नहीं थे। यह भी हो सकता है कि तत्कालीन अंग्रेज शासकों व उनके कुछ भक्तों के कारण उन्हें वहां कार्य करने में असुविधा रही हो। हर कार्य का कारण हुआ करता है। व्यक्तिगत स्तर पर कार्य करने पर अध्ययन व अनुसंधान के लिए साधन जुटाना कठिन होता है तथापि पण्डित जी ने इस कठिन मार्ग को चुना और आर्यसमाज व वैदिक साहित्य की प्रशंसनीय सेवा की।

 

सन् 1947 में देश का विभाजन होने पर आप दिल्ली आ गये और यहां पंजाबी बाग में अपना निवास बनवाकर रहने लगे। यहां रहते हुए आप वैदिक विषयों के ग्रन्थों के लेखन, अध्ययन व अनुसंधान के कार्य में संलग्न रहे। पण्डित जी महर्षि दयानन्द की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा, अजमेर के सदस्य भी रहे। सभा में आपकी नियुक्ति 4 मार्च, 1923 को हुई थी। समय-समय पर आपने परोपकारिणी सभा को महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों के भव्य व शुद्ध प्रकाशन के विषय में मुद्रण, सम्पादन व प्रकाशन विषयक अपने उपयोगी सुझाव दिए। पण्डित भगवद्दत्त इस सभा की विद्वत समिति के सदस्य भी रहे। 22 नवम्बर, सन् 1968 को 75 वर्ष की आयु में दिल्ली में आपका निधन हुआ।

 

पण्डित जी ने तीन खण्डों में वैदिक वांग्मय का इतिहास का लेखन किया जो आपकी अपने विषय की अपूर्व शोध कृति है। ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में वेद की शाखाओं का अनुसंधान पूर्ण इतिहास है। इसका प्रथम संस्करण अप्रैल, 1934 में लाहौर से प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में ब्राह्मण एवं आरण्यक ग्रन्थों का विवेचन हुआ है। इस द्वितीय भाग के प्रथम संस्करण का प्रकाशन डी.ए.वी. कालेज लाहौर के शोध विभाग की ओर सन् 1927 में हुआ था। तीसरे भाग में प्राचीन वेदभाष्यकारों का विवरण प्रस्तुत किया गया है जिसका प्रकाशन सन् 1931 में हुआ था। इस ग्रन्थ के तीनों भागों का द्वितीय संस्करण पं. भगवद्दत्त जी के सुपुत्र पं. सत्यश्रवा ने पण्डित जी की मृत्यु के बाद सन् 1974, 1976 व 1978 में स्वसम्पादन में किया। पण्डित भगवद्दत्त जी के ऋग्वेद पर व्याख्यान ग्रन्थ सन् 1920 में, इसके बाद ऋग्मन्त्र व्याख्या, तत्पश्चात वेद विद्या निदर्शन (सन् 1959) तथा निरुक्त भाषाभाष्य (सन् 1964) का प्रकाशन हुआ। अथर्ववेदीया पंचपटलिका (सन् 1920), अथर्ववेदीया माण्डूकी शिक्षा (सन् 1978), बाल्मीकि रामायण के बाल, अयोध्या तथा अरण्य काण्डों का सम्पादन, चारायणीय शाखा मंत्रार्षाध्याय, आथर्वण ज्योतिष, धनुर्वेद का इतिहास, आचार्य बृहस्पति के राजनीति सूत्रों की भूमिका आपके द्वारा सम्पादित कुछ अन्य ग्रन्थ हैं। पं. भगवद्दत्त जी ने अंग्रेजी में दो लघु महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे जिनमें प्रथम है Extra Ordinary Scientific Knowledge in Vedic Works जो कि अन्तर्राष्ट्रीय प्राच्य विद्यापरिषद् के दिल्ली अधिवेशन में पठित शोधपूर्ण निबन्ध है। दूसरा लघु ग्रन्थ Western Indologists : A study in Motives अर्थात् पश्चिमी भारत-तत्वविदों की पूर्वाग्रहपूर्ण धारणाओं का सप्रमाण खण्डन (सन् 1955) है।

 

पं. भगवद्दत्त जी के इतिहास व भाषाविज्ञान विषयक ग्रन्थों में प्रमुख ग्रन्थ हैं भारतीय राजनीति के मूल तत्व (सन् 1951), भारतवर्ष का इतिहास (1940), भारतवर्ष का वृहद इतिहास दो भागों में (सन् 1960), भाषा का इतिहास, भारतीय संस्कृति का इतिहास, ऋषि दयानन्द का स्वरचित (लिखित वा कथित) जन्म चरित, ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन के तीन भाग एवं सत्यार्थ प्रकाश का सुसम्पादित संस्करण सन् 1963। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी के सभी ग्रन्थों का पं. भगवद्दत्त जी ने पं. सन्तराम बी.ए. के सहयोग से हिन्दी मं अनुवाद किया। इस गुरुदत्त ग्रन्थावली का हिन्दी अनुवाद का प्रथम संस्करण राजपाल एण्ड संस लाहौर से सन् 1921 में प्रकाशित हुआ था। आज भी इसी संस्रण का पुनर्मुद्रण किया जाता है। हमें इस हिन्दी अनुवाद को पढ़ने में कहीं कहीं कठिनाईयां हुईं थी। हमने इसके नये अनुवाद के लिए श्री प्रभाकरदेव आर्य व श्री भावेश मेरजा जी से प्रार्थना की थी। श्री घूडमल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी को अंग्रेजी ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद आदि कार्यों में सेवा देने वाले श्री आर्यमुनि वानप्रस्थी जी ने गुरुदत्त ग्रन्थावली का अंग्रेजी से सुगम हिन्दी में नया अनुवाद का कार्य सम्पन्न कर दिया है। अब यह प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। हम आशा करते हैं कि न्यास के अध्यक्ष श्री प्रभाकरदेव आर्य जी इसका शीघ्र नया भव्य संस्करण प्रकाशित करायेंगे जिससे पाठकों को पढ़ने व समझने में सुगमता होगी। पं. भगवद्दत्त जी का अन्तिम ग्रन्थ Storey of Creation उनके निधन के दो मास पूर्व प्रकाशित हुआ था।  हमनें इस लेख को तैयार करने में डा. भवानीलाल भारतीय जी के आर्य लेखक कोष से सामग्री ली है। इसके लिए हम इस ग्रन्थ लेखक का धन्यवाद सहित आभार व्यक्त करते हैं।

 

पण्डित जी के सभी ग्रन्थ उच्च कोटि के हैं जिनमें से अधिकांश अप्राप्य हैं। आर्यसमाज व आर्यजनता का यह दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि अनेक उपयोगी व महत्वपूर्ण ग्रन्थ वर्षों पूर्व अप्राप्त हो गये थे परन्तु इनका पुनर्मुद्रण न हो सका। पुनप्रर्काशन व पुनर्मुद्रर्ण में एक प्रमुख कारण आर्यसमाज के लोगों में पुस्तक खरीदने व पढ़ने की प्रवृत्ति में अत्यधिक ह्रास है। आर्यसमाज ऐसा आन्दोलन है जो तभी सफल हो सकता है जब इसके सभी सदस्य स्वाध्यायशील हों और ऋषि ग्रन्थों सहित अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थों का भी स्वाध्याय करें और एक प्रचारक के रूप में कार्य करें। ऋषि मिशन से जुड़े सभी लोगों में स्वाध्याय के प्रति रूचि उत्पन्न करना आर्य नेताओं व विद्वानों के सामने एक बड़ी चुनौती है। हम अनुभव करते हैं कि आर्य नेताओं एवं विद्वानों को इस समस्या पर विचार मन्थन करना चाहिये जिससे आर्यसमाज की बगिया सदैव हरी भरी रहे। आर्यसमाज में अनुसंधान व शोध के प्रणेता एवं अद्भुद वैदिक विद्वान पं. भगवद्दत्त जी को हमारा सश्रद्ध स्मरण एवं श्रद्धांजलि।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

परोपकारी महाशय रूपसिंहः- राजेन्द्र जिज्ञासु

– राजेन्द्र जिज्ञासु

परोपकारी महाशय रूपसिंहः आर्य समाज को  दिशाहीन करने वालों ने निजी स्वार्थों व हीन भावना के कारण गोरी चमड़ी वालों, परकीय मतों व कुछ अंग्रेजी पठित अंग्रेज भक्त भारतीय सुधारकों की ऋषि भक्ति पर आवश्यकता से कहीं अधिक बल देकर अनेक सच्चे व समर्पित ऋषि भक्तों की घोर उपेक्षा करके इतिहास ही विकृत कर दिया। ऋषि के पत्र-व्यवहार के नये संस्करण से उनक ो मुखरित करना अब सरल हो गया है। ऐसे परोपकारी ऋषि भक्तों में से एक थे महाशय रूपसिंह जी। आप कहाँ के थे? यह बताना अति कठिन कार्य है। सभवतः कोहाट (सीमा प्रान्त) के निवासी थे। वैसे क्लर्क होने से विभिन्न नगरों में रहे। गुजराँवाला व लाहौर में भी रहे।

प्रतीत होता है, घर से सपन्न थे। बहुत दानी थे। ऋषि जी को परोपकार के कार्यों के लिए उस युग में पचास-पचास, साठ-साठ रुपये भेजते रहे। महर्षि को भेजे गये आपके प्रश्न व उनके उत्तर भी महत्त्वपूर्ण हैं, यथा ऋषि जी ने इनको लिखे पत्र में मांसाहार को बहुत बुरा लिखा है। आप राजस्थान यात्रा के समय (मेवाड़ में) ऋषि जी से मिलने आये थे। जिन्हें ऋषि ने बहुत पत्र लिखे और जो अन्त तक आर्य रहे, उनमें से एक आप भी थे। इस इतिहास पुरुष की ऐतिहासिक समाज सेवा पर गत साठ वर्षों में किसी ने क्या लिखा? सिख परिवार में जन्मे इस ऋषि भक्त ने तथा श्री महाशय कृष्ण जी ने युवा भगवद्दत्त को ऋषि के पत्र-व्यवहार के संग्रह की लगन लगाई। दोनों ने तरुण भगवद्दत्त को महर्षि के कुछ पत्र सौंपकर ऋषि के पत्रों की खोज व संग्रह को आन्दोलन का रूप दिलवाने का गौरव प्राप्त किया।

पं. भगवद्दत्त शोध शतादी वर्ष 2016 के ऋषि मेले तक चलेगा। इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना शेष है। श्री डॉ. रामप्रकाश जी का भी इस विषय का छात्र जीवन से ही गभीर अध्ययन है। मेरी इच्छा है कि डॉ. धर्मवीर जी, आचार्य विरजानन्द जी, डॉ. रामप्रकाश जी, श्री सत्येन्द्रसिंह आर्य जी और डॉ. वेदपाल जी भी ऋषि के पत्रों पर दो-दो तीन-तीन लेख लिखें, तभी पं. भगवद्दत्त जी के तर्पण का यश हम प्राप्त कर सकेंगे।

यह सेवक तो अपने अल्पमत के अनुसार इस कार्य में लगा ही है। पण्डित जी से बहुत कुछ सीखा है। उनका प्यार पाया। कुछ तो ऋण चुकता करना चाहिये।

मान्य ओम्मुनि जी ने पत्र-व्यवहार के प्रकाशन से एक कार्य आरभ कर दिया है- ऋषि के सपर्क में आये आर्य पुरुषों के परिवारों की खोज। मुझे भी इस काम में लगा दिया है। पं. भगवद्दत्त जी स्वयं भी एक ऐसे परिवार से थे। इस समय राजस्थान में ऐसे कई परिवारों का पता हमने कर लिया है। कोठारी परिवार, सारड़ा परिवार तथा शाहपुरा, यावर व जोधपुर आदि के ऐसे परिवारों की सूची शीघ्र प्रकाशित हो जायेगी। मेरठ क्षेत्र की सूची बनाने का कार्य डॉ. वेदपाल जी को हाथ में लेना होगा।

एक अलय स्रोतः पश्चिमी उत्तरप्रदेश के राजपूतों ने सरकार को एक स्मरण-पत्र दिया था। उस पर कई प्रतिष्ठित ठाकुरों के हस्ताक्षर हैं। वह चार, छह दिन में मुझे प्राप्त हो जायेगा। ठाकुर मुकन्द सिंह, मुन्नासिंह, भोपालसिंह के हस्ताक्षर तो हैं ही। पढ़ने से पता चलेगा कि शेष हस्ताक्षर कर्त्ता भी क्या ऋषि भक्त ही थे? इस स्मरण पत्र के विषय पर भी फिर ही लिखेंगे। इससे आर्यसमाज के इतिहास पर कुछ नया प्रकाश अवश्य पड़ेगा। दस्तावेज प्राप्त होने दो। आवश्यकता पड़ेगी तो श्री सत्येन्द्रसिंह जी, श्री यशपाल जी और ठाकुर विक्रमसिंह जी को साथ लेकर अलीगढ़ व छलेसर की यात्रा भी करुँगा।

पं. सुधाकर जी चतुर्वेदीः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

IMG_20140713_144031

पं. सुधाकर जी चतुर्वेदीः-कर्नाटक के आर्य विद्वान् पं. सुधाकर जी इस समय आर्य समाज ही नहीं देश के सबसे वयोवृद्ध वैदिक विद्वान् हैं। आप इस समय 116-118 वर्ष के होंगे। आप बाल ब्रह्मचारी हैं। कर्नाटक की राजधानी बैंगलूर में रहते हैं। चारों वेदों का अंग्रेजी व कन्नड़ दो भाषाओं में अनुवाद किया है। कन्नड़ में गद्य-पद्य दोनों में लिखा है। अंग्रेजी, हिन्दी में भी लिखते चले  आ रहे हैं। इस विकलाङ्ग कृषकाय मेधावी आर्य विद्वान् ने स्वाधीनता संग्राम मेंाी भाग लिया। पेंशन लेना स्वीकार नहीं किया। सरदार पटेल भी स्वराज्य संग्राम में घायल होने पर अस्पताल में आपका पता करने पहुँचे थे।

आप श्रीमद्दयानन्द उपदेशक विद्यालय लाहौर तथा गुरुकुल काँगड़ी में भी कुछ वर्ष तक रहे। स्वामी श्रद्धानन्द जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, स्वामी वेदानन्द जी आदि महापुरुषों के चरणों में बैठने का, कुछ पाने का आपको गौरव प्राप्त है। सत्यार्थप्रकाश का कन्नड़ भाषा में अनुवाद किया। बहुत कुछ लिखा है। एक बालक को गोद लिया। आर्यमित्र नाम का वह मेधावी बालक कर्नाटक राज्य में उच्च सरकारी पदों पर आसीन रहा। वह कर्नाटक आर्य प्रतिनिधि सभा का भी प्रधान रहा। अनेक बार आपका अभिनन्दन हो चुका है। आर्य समाज श्रद्धानन्द भवन बैंगलूर की हीरक जयन्ती पर आपका अविस्मरणीय अभिनन्दन इसी लेखक की अध्यक्षता में हुआ था। लाहौर में उपदेशक विद्यालय में रहते हुए गुण्डों के  आक्रमण में आप भी पं. नरेन्द्र जी के साथ घायल हुए थे। श्रवन शक्ति अब नहीं रही, तथापि धर्म प्रचार व साहित्य सृजन में सक्रिय हैं।

ऋषि के भक्त : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

ठाकुर रघुनाथ सिंह जयपुरः महर्षि जी के पत्र-व्यवहार में वर्णित कुछ प्रेरक प्रसंगों तथा निष्ठावान् ऋषि भक्तों को इतिहास की सुरक्षा की दृष्टि से वर्णित करना हमारे लिए अत्यावश्यक है। ऐसा न करने से पर्याप्त हानि हो चुकी है। ऋषि-जीवन पर लिखी गई नई-नई पुस्तकों से ऋषि के प्रिय भक्त व दीवाने तो बाहर कर दिये गये और बाहर वालों को बढ़ा-चढ़ा कर इनमें भर दिया गया। ऋषि के पत्र-व्यवहार के दूसरे भाग में पृष्ठ 363-364 पर जयपुर की एक घटना मिलती हैं। जयपुर के महाराजा को मूर्तिपूजकों ने महर्षि के भक्तों व शिष्यों को दण्डित करते हुए राज्य से निष्कासित करने का अनुरोध किया। आर्यों का भद्र (मुण्डन) करवाकर राज्य से बाहर करने का सुझाव दिया गया। महाराजा ने ठाकुर गोविन्दसिंह तथा ठाकुर रघुनाथसिंह को बुलवाकर पूछा- यह क्या बात है?

ठाकुर रघुनाथ सिंह जी ने कहा- आप निस्सन्देह इन लोगों का भद्र करवाकर इन्हें राज्य से निकाल दें, परन्तु इस सूची में सबसे ऊपर मेरा नाम होना चाहिये। कारण? मैं स्वामी दयानन्द का इस राज्य में पहला शिष्य हूँ। महाराजा पर इनकी सत्यवादिता, धर्मभाव व दृढ़ता का अद्भुत प्रभाव पड़ा। राजस्थान में ठाकुर रणजीत सिंह पहले ऋषि भक्त हैं, जिन्हें ऋषि मिशन के लिए अग्नि-परीक्षा देने का गौरव प्राप्त है। इस घटना को मुारित करना हमारा कर्त्तव्य है। कवियों को इस शूरवीर पर गीत लिखने चाहिये। वक्ता, उपदेशक, लेखक ठाकुर रघुनाथ को अपने व्यायानों व लेखों को समुचित महत्त्व देंगे तो जन-जन को प्रेरणा मिलेगी।

ठाकुर मुन्ना सिंहः महर्षि के शिष्यों भक्तों की रमाबाई, प्रतापसिंह व मैक्समूलर के दीवानों ने ऐसी उपेक्षा करवा दी कि ठाकुर मुन्नासिंह आदि प्यारे ऋषि भक्तों का नाम तक आर्यसमाजी नहीं जानते। ऋषि के कई पत्रों में छलेसर के ठाकुर मुन्नासिंह जी की चर्चा है। महर्षि ने अपने साहित्य के प्रसार के लिए ठाकुर मुकन्दसिंह, मुन्नासिंह व भोपालसिंह जी का मुखत्यारे आम नियत किया। इनसे बड़ा ऋषि का प्यारा कौन होगा?

ऋषि के जीवन काल में उनके कुल में टंकारा में कई एक का निधन हुआ होगा। ऋषि ने किसी की मृत्यु पर शोकाकुल होकर कभी कुछ लिखा व कहा? केवल एक अपवाद मेरी दृष्टि में आया है। महर्षि ने आर्य पुरुष श्री मुन्नासिंह के निधन को आर्य जाति की क्षति मानकर संवेदना प्रकट की थी। श्री स्वामी जी का एक पत्र इसका प्रमाण है।