Category Archives: श्रेष्ठ आर्य

वेदो की कुछ पर अतिज्ञानवर्धक मौलिक शिक्षाये :

1. जीवन भर (शत समां पयंत) निष्काम कर्म करते रहना चाहिए। इस प्रकार का निष्काम कर्म पुरुष में लिप्त नहीं होता है। (यजु० ४०।२)

2. जो ग्राम, अरण्य, रात्रि-दिन में जानकार अथवा अजानकार बुरे कर्म करने की इच्छा है अथवा भविष्य में करने वाले हैं उनसे परमेश्वर हमें सदा दूर रखे।

3. हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर वा विद्वन आप हमें दुश्चरित से दूर हटावे और सुचरित में प्रवृत करे (यजु० ४।२८)

4. हे पुरुष ! तू लालच मत कर, धन है ही किसका। (यजु० ४०।१)

5. एक समय में एक पति की एक ही पत्नी और एक पत्नी का एक ही पति होवे। (अथर्व० ७।३७।१)

6. हमारे दायें हाथ में पुरुषार्थ हो और बायें में विजय हो। (अथर्व० ७। ५८।८)

7. पिता पुत्र, भाई-बहिन आदि परस्पर किस प्रकार व्यवहार करे – इसका वर्णन अथर्व० ३।३० सूक्त में हैं।

8. द्यूत नहीं खेलना चाहिए। इसको निंद कर्म समझे। (ऋग्वेद १०।३४ सूक्त )

9. सात मर्यादाएं हैं जिनका सेवन करने वाला पापी माना जाता है। इन सातो पापो को नहीं करना चाहिए। स्तेय, तलपारोहण, ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या, सुरापान, दुष्कृत कर्म पुनः पुनः करना, तथा पाप करके झूठ बोलना – ये साथ मर्यादाये हैं। (ऋग्वेद १०।५।६)

10. पशुओ के मित्र बनो और उनका पालन करो। (अथर्व० १७।४ और यजु० १।१)

11. चावल खाओ यव खावो उड़द खाओ तिल खाओ – इन अन्नो में ही तुम्हारा भाग निहित है। (अथर्व० ६।१४०।२)

12. आयु यज्ञ से पूर्ण हो, मन यज्ञ से पूर्ण हो, आत्मा यज्ञ से पूर्ण हो और यज्ञ भी यज्ञ से पूर्ण हो। (यजु० २२।३३)

13. संसार के मनुष्यो में न कोई छोटा है और न कोई बड़ा है। सब एक परमात्मा की संतान हैं और पृथ्वी उनकी माता है। सबको प्रत्येक के कल्याण में लगे रहना चाहिए (ऋग्वेद ५।६०।५)

14. जो samast प्राणियों को अपनी आत्मा में देखता है उसे किसी प्रकार का मोह और शोक नहीं होता है। (यजु ४०।६)

15. परमेश्वर यहाँ वहां सर्वत्र और सबके बाहर भीतर भी है। (यजु० ४०।५)

श्री राम द्वारा वनवास के दौरान भरत को नीतिगत उपदेश

जब भरत राम को वन से अयोध्या लौटाने के लिए वन में गए तो श्री राम ने कुशल प्रश्न के बहाने भरत को राजनीति का उपदेश दिया, वह प्रत्येक राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री के लिए सदैव स्मरणीय व अनुकरणीय है।

प्रभु राम भरत से पूछते हैं –

1. क्या तुम सहस्रों मूर्खो के बदले एक विद्वान के कथन को अधिक महत्त्व देते हो ?

2. क्या तुम जो व्यक्ति जिस कार्य के योग्य है उससे वही काम लेते हो ?

3. तुम्हारे कर्मचारी बाहर भीतर पवित्र है न ? वे किसी से घूस तो नहीं लेते ?

4. यदि धनी और निर्धन में विवाद हो, और वह विवाद न्यायालय में विचाराधीन हो, तो तुम्हारे मंत्री धन के लोभ में आकर उसमे हस्तक्षेप तो नहीं करते ?

5. तुम्हारे मंत्री और राजदूत अपने ही देश के वासी अर्थात अपने देश में उत्पन्न हुए हैं न ?

6. क्या तुम अपने कर्मचारियों को उनके लिए नियत वेतन व भत्ता समय पर देते हो ? देने में विलम्ब तो नहीं करते ?

7. क्या राज्य की प्रजा कठोर दंड से उद्विग्न होकर तुम्हारे मंत्रियो का अपमान तो नहीं करती ?

8. तुम्हारा व्यय कभी आय से अधिक तो नहीं होता ?

9. कृषि और गौपालन से आजीविका चलाने वाले लोग तुम्हारे प्रीतिपात्र है न ? क्योंकि कृषि और व्यापार में संलग्न रहने पर ही राष्ट्र सुखी रह सकता है।

10. क्या तुम वेदो की आज्ञा के अनुसार काम करने में सफल रहते हो ?

11. मिथ्या अपराध के कारण दण्डित व्यक्तियों के जो आंसू गिरते हैं, वे अपने आनंद के लिए शासन करने वाले राजा के पुत्र और पशुओ का नाश कर डालते हैं।

मर्यादा पुरोषत्तम राम दिग्विजयी थे, किन्तु सम्राज्य्वादी नहीं। कालिदास ने रघुवंश में रघुकुल की परंपरा का विवेचन करते हुए लिखा है –

“आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव”

अर्थात जिस प्रकार मेघ पृथ्वी से जल लेकर वर्षा द्वारा उसी को लौटा देते हैं, उसी प्रकार सत्पुरुषों का लेना भी देने = लौटाने के लिए होता है।

इसी नीति का अनुसरण करते हुए बाली से किष्किन्धा का राज्य जीत कर, अपने राज्य में न मिला कर, उसके भाई सुग्रीव को दे दिया और लंका पर विजय प्राप्त करके उसका राज्य रावण के भाई विभीषण को सौंप दिया।

मित्रो इस देश में ऐसे ही महापुरष उत्पन्न होते आये हैं, महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, वीर शिवाजी आदि अनेक उदहारण अभी हाल के ही हैं,

फिर ये अकबर गौरी – जैसे चोर, डाकू, लुटेरे, कैसे इस देश में महान हो गए ?

‘एक ऐतिहासिक स्थल की खोज जहां रोचक शास्त्रार्थ हुआ था’

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ओ३म्

एक ऐतिहासिक स्थल की खोज जहां रोचक शास्त्रार्थ हुआ था

 समय समय पर अनेक ऐतिहासिक घटनायें घटित होती रहती हैं परन्तु कई बार उनमें से कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं का महत्व न जानकर उस काल के लोग उसकी सुरक्षा का ध्यान नहीं करते। बाद के लोगों को उसके लिए काफी पुरूषार्थ करना पड़ता है। कई बार सफलता मिल जाती है और कई बार नहीं मिलती। डा. कुशल देव शास्त्री आर्य जगत के प्रतिष्ठित विद्वान, अथक गवेषक, तपस्वी सेवक, खोजी लेखक व पत्रकार थे। जून सन् 1997 में कादियां में आयोजित पं. लेखराम बलिदान शताब्दी समारोह में वह पधारे थे। हम भी इस कार्यक्रम में अपने मित्रों के साथ पहुचें थे। कादियां में ही आर्य समाज के इतिहास प्रसिद्ध विद्वान और प्रचारक हुतात्मा प. लेखराम जी के उनके 6 मार्च, 1897 को बलिदान से पूर्व अनेक व्याख्यान हुए थे। आर्य जगत के उच्च कोटि के लेखक व विद्वान प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु ने कादियां में अपने विद्यार्थी जीवन में लगभग 10 वर्षों तक निवास किया था। वह इस स्थान के चप्पे-चप्पे से परिचित रहे हैं। बलिदान समारोह में भेंट के अवसर पर डा. कुशल देव ने प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु से प्रश्न किया कि पं. लेखराम जी ने लाहौर से कादियां आकर व्याख्यान किस स्थान पर दिये थे? जिज्ञासु जी का इससे पहले इस प्रश्न पर ध्यान नहीं गया था और न ही उन्हें उस स्थान का पता था जहां कादियां में पं. लेखराम जी के व्याख्यान हुआ करते थे। उन्होंने कुशलदेव जी को वास्तविकता बताई और कहा कि मैं अब इसकी गहन खोज करूंगा।

 

जिज्ञासु जी ने खोज आरम्भ की और कादियां के एक मुस्लिम सज्जन के एक लेख से उन्हें पता चला कि वहां स्कूल के मैदान में पं. लेखराम ने सद्धर्म का प्रचार करते हुए पाखण्डों का खण्डन किया था। स्कूल कादियां में किस स्थान पर था, वह उस लेख में नहीं था। घटना को 100 वर्ष से कुछ अधिक समय व्यतीत हो जाने के कारण वहां किसी पुराने स्कूल के भग्नावशेष भी विद्यमान नहीं थे। अतः जिज्ञासु जी उस स्कूल की खोज करने में लग गये जिस स्थान पर कादियां का वह स्कूल स्थित था? चिन्तन-मनन करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि कादियां में सबसे पुराने आर्य समाजी उस समय बाबू सोहनलाल जी ही जीवित हैं जो उन दिनों मुम्बई में रहते थे। उन्होंने मुम्बई के अपने परिचित लोगों को बाबू सोहनलाल का पता करने का आग्रह किया। इन बाबू सोहनलाल जी से जिज्ञासु जी अपनी युवावस्था के दिनों में परिचित थे। जिज्ञासु जी आर्यसमाज के लिए इसके सदस्यों से मासिक सदस्यता शुल्क एकत्र किया करते थे। बाबू सोहनलाल जी आर्यसमाज के सत्संग में तो आते नहीं थे परन्तु लगभग सन् 1950 के वर्ष में प्रत्येक माह 1 रूपया मासिक चन्दा देते थे। इस कारण जिज्ञासुजी का उनसे प्रत्येक माह मिलना होता था तथा दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह से पहचानते थे। मुम्बई के आर्य समाज के सक्रिय अनुयायी एवं नेता श्री अरूण अबरोल से सम्पर्क करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि श्री अबरोल, बाबू सोहनलाल जी को जानते हैं और वह उन्हें मुम्बई आने पर उनसे मिलवा देंगे। जिज्ञासु जी मुम्बई पहुंच गये और श्री अबरोल के साथ उनसे मिले। श्री सोहनलाल और जिज्ञासुजी दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया। जिज्ञासुजी ने प्रश्न किया कि मैं वैदिक धर्म की वेदी पर बलिदान हुए हुतात्मा पं. लेखराम के बारे में जानने आया हूं कि वह जब कादियां वैदिक धर्म के प्रचार के लिए आते थे तो उनके व्याख्यान वहां किस स्थान पर होते थेदोनों विद्वत्जनों के वार्तालाप में बाबूजी ने बताया कि कादियां में आपके घर के आगे गन्दे नाले के पास एक छोटा सा स्कूल होता था, उसी के मैदान में लोग उन्हें सुनने आते थे। इस प्रकार से जिज्ञासु जी डा. कुशल देव शास्त्री की खोज पूरी हो गई परन्तु इस वार्तालाप में बाबू सोहनलाल जी ने जिज्ञासु जी को यह भी बताया कि वह आर्यसमाजी क्यों कैसे बनें? सोहनलाल जी ने कहा कि इसी स्कूल में पुजर्नन्म विषय पर आर्यसमाज के शास्त्रार्थ महारथी और मुस्लिम मत के तलस्पर्शी विद्वान पण्डित धर्मभिक्षु जी का एक मिर्जाई मौलवी से शास्त्रार्थ हुआ था। बाबू सोहनलाल जी के अनुसार शास्त्रार्थ स्थल पर दर्शकों की भारी भीड़ थी। श्रोताओं में हिन्दू व सिख एक ओर थे और बहुसंख्यक मिर्जाई अपने मौलाना का उत्साह बढ़ाने के लिए बहुत बड़ी संख्या में आये थे। शास्त्रार्थ में मौलाना ने अपनी सारी शक्ति इस बात पर लगाई कि यदि पूर्वजन्म होता है तो फिर हमें इसकी स्मृति क्यों नहीं रहती? श्री पण्डित जी ने उनके प्रश्न का कई प्रकार से उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि इस जन्म की बड़ी-बड़ी सब घटनायें क्या हमें याद रहा करती हैं? इसका मौलाना जी के पास कोई उत्तर नहीं था। मौलाना के पास पुनर्जन्म पर कहने लिए कोई सशक्त प्रमाण या दलील नहीं थी। अपनी पुरानी बात को ही नये तरीके से पेश करते हुए उन्होंने कहा कि आप बताएं, ‘‘आप पूर्वजन्म में क्या थे? गधे थे, कुत्ते थे, सूअर थे, गाय थेक्या थे?”  पण्डित जी ने कहा, सब जन्मों की तो मुझे अब याद नहीं परन्तु इससे पहले के जन्म में मैं तुम्हारा बाप था। इतना कहना था कि मौलाना बोल पड़ा, ‘‘नहीं ! आप मेरे बाप नहीं बल्कि मेरी बीवी थे अर्थात्  मैं तुम्हारा पति था और तुम मेरी पत्नी थे। इस पर पण्डित जी ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं तुम्हारा बाप नहीं बीवी था, परन्तु पुनर्जन्म तो सिद्ध हो गया। आपने हमारा सिद्धान्त तो मान ही लिया।

 

पण्डित घर्मभिक्षु जी के यह शब्द सुनकर मौलाना मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ और बाबू सोहनलाल इस घटना से प्रभावित होकर आर्यसमाजी बन गये।  बाबूजी ने श्री राजेन्द्र जिज्ञासु को बताया कि जब यह शास्त्रार्थ हुआ था तब वह विद्यार्थी थे और इस शास्त्रार्थ को सुनकर और मिर्जाई मौलवी के भागने का दृश्य देखकर वह आर्यसमाजी बने थेे। इस घटना से बाबूजी के जीवन में एक नया मोड़ आया था अतः यह घटना ज्यों की त्यों उन्हें पूर्णतः स्मरण थी। इस प्रकार एक ऐतिहासिक स्थान, जहां रक्तसांक्षी हुतात्मा पं. लेखराम जी ने कादियां में व्याख्यान दिए थे, की खोज हुई और वहां पुनर्जन्म विषय पर एक शास्त्रार्थ का एक प्रत्यक्षदर्शी से वर्णन सुनने के साथ उस शास्त्रार्थ के प्रभाव से उनके आर्य समाजी बनने की घटना का ज्ञान हुआ। इसी प्रकार की इतिहास में अनेक घटनायें हुआ करती है परन्तु उनकी सुरक्षा न होने के कारण वह विस्मृत हो जाती हैं। आर्य समाज के यशस्वी भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनी भी लाहौर में वैदिक रिसर्च स्कालर पं. गुरूदत्त विद्यार्थी के शास्त्रार्थ को सुनकर आर्यसमाजी बने थे जिसके बाद उन्होंने सारा जीवन देश विदेश में आर्य समाज के प्रचार कर कीर्तिमान बनाया है। मेहता जैमिनी का खोजपूर्ण विस्तृत जीवन चरित्र भी पं. राजेन्द्र जिज्ञासु ने लिखा है जो कि पठनीय है।

 

 –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121 

‘क्या हमारा अब तक का जीवन व्यर्थ चला गया है?’

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ओ३म्

प्रेरकप्रसंग

क्या हमारा अब तक का जीवन व्यर्थ चला गया है?’


हम अपने सारे जीवन भर यह भूले रहते हैं कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है। हम संसार में क्यों आये हैं? न हमें इसके बारे में माता-पिता से कोई विशेष ज्ञान मिलता है और न हि हमारे आचार्य व अध्यापक ही विद्यालयों में इस विषय के बारे में पढ़ाते या बताते हैं। माता, पिता व आचार्य का उद्देश्य यही होता है कि हम खा-पी कर स्वस्थ बने और शिक्षा पाकर अच्छा रोजगार प्राप्त कर लें और विवाह, सन्तान, धन, सम्पत्ति, सुविधापूर्ण आवास, कार आदि खरीद कर सुखी जीवन व्यतीत करें। यही आम मनुष्य के जीवन का उद्देश्य उसकी जीवन शैली को देखकर विदित होता है। कभी कोई विचार ही नहीं करता कि क्या यही वास्तविक जीवन का उद्देश्य है? महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में इस प्रश्न पर विचार किया था। उन्हें ज्ञात हुआ था कि नहीं, जीवन का उद्देश्य यह नहीं है अपितु ज्ञान की प्राप्ति से ईश्वर का साक्षात्कार और सद्कर्मों से जन्म मरण से मुक्ति प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य है।

 

प्रिंसीपल श्री ज्ञानचन्द्र जी हिसार आर्य समाज के प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित विद्वान थे। आप अत्यन्त अध्ययनशील व्यक्ति थे। उनके जीवन में अनेक विशेषतायें थीं। आपने सन् 1939 के हैदराबाद की मुस्लिम रियासत मे बहुसंख्य हिन्दु प्रजा पर वहां के निजाम और उनके अधिकारियों के धार्मिक भेदभाव एवं अत्याचारों के विरूद्ध “‘राष्ट्रीय आर्य सत्याग्रह में भाग लिया था और जेल भी गये थे। भारत के प्रथम उपप्रधान मंत्री एवं गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस सत्याग्रह की प्रशंसा की थी। आर्य जगत् के विद्वान और आर्य गजट पत्र के पूर्व सम्पादक चौधरी वेदव्रत, स्वामी ओमानन्द जी तथा प्रो. उत्तम चन्द शरर जेल में आपके साथ थे।

 

प्रिंसीपल ज्ञान चन्द्र जी ने संन्यास लेने का निर्णय किया। विचार करने के बाद उन्होंने आर्य जगत् के प्रसिद्ध विद्वान एवं 300 से अधिक ग्रन्थों के लेखक श्री राजेन्द्र जिज्ञासु, अबोहर से कहा कि वह कुछ दिन उनके पास अज्ञातवास के लिए आना चाहता हैं। प्रवास में वह कुछ चिन्तन, मनन व स्वाध्याय करना चाहते हैं, परन्तु वहां व्याख्यान नहीं देंगे। जिज्ञासु जी ने उन्हें आमंत्रित किया और उनके निर्णय की प्रशंसा की। अबोहर में उनके निवास व अन्य सभी प्रकार के प्रबन्ध कर दिये गये। प्रिंसीपल महोदय अबोहर आये और निवास किया। यहां उनके दर्शन करने सायंकाल के समय अनेक श्रद्धालुजन आते रहे, अतः प्रिंसीपल महोदय द्वारा उन्हें उपदेश किया जाता रहा। यहां प्रिंसीपल महोदय ने जिज्ञसु जी को आर्य जगत् के नाम अपनी ओर से एक सन्देश लिपिबद्ध कराया जिसका प्रकाशन कर स्थानीय जनता में वितरित कर दिया गया। एकदिन जिज्ञासुजी से आपने कहा कि आप मुझे स्वाध्याय के लिए उपयोगी कोई आध्यात्मिक ग्रन्थ दीजिये। इसका पालन कर जिज्ञासु जी ने उन्हें वेदभाष्यकार पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार का सामवेद भाष्य ले जाकर उन्हें दिया। आपने भक्तिभाव से सामवेद का अध्ययन किया। इसके कुछ दिन बाद जब जिज्ञासु जी प्रिंसीपल ज्ञान चन्द्र जी से मिले तो आपने उनसे कहा कि जिज्ञासु जी ! मेरा तो अब तक का सारा जीवन ही बेकार ही गया।  इसके आगे वह बोले कि मैंने आज तक प्रभु की अमरवाणी वेद का स्वाध्याय कभी नहीं किया। बस अपवाद रूप में ही कुछ वेद मन्त्र कभी देखे पढ़े। वेदों की महत्ता को सुनता तो अवश्य रहा हूं। पहली बार ही आपने यह भाष्य लाकर मुझे अमृतपान करवा दिया। जिज्ञासुजी यह शब्द सुनकर हैरान हो गय। वह जानना चाह रहे थे कि इसके पीछे उनकी भावना क्या है। जिज्ञासु जी बताते हैं कि वह प्रिंसीपल ज्ञान चन्द्र जी के छोटे भाई मास्टर रत्नचन्द जी के शिष्य रहे हैं। बाद में वह श्री ज्ञानचन्द्र जी के भी शिष्य बने। उनका जिज्ञास जी से बहुत स्नेह था और अपने इस शिष्य का नाम न लेकर उन्हें हमेशा जिज्ञासु जी कहकर पुकारते थे। यह उनका बड़पन्न था। प्रिसीपल साहिब के देश भर मे बड़ी संख्या में समर्पित भक्त व प्रेमी थे, उन्हें व सेठ एवं लीडरों को छोड़कर वह उन एक साधारण विप्र के यहां अज्ञातवास हेतु आये थे। अपने जीवन के बेकार होने की बात कहने के बाद उन्होंने सामवेद भाष्य को खोलकर एक मन्त्र और उसका अर्थ पढ़कर सुनाया। मन्त्र में कहा गया है कि इस जन्म में जहां हम छोड़ते हैं आगे की यात्रा वहीं से आरम्भ होती है जैसे कि मां जब बच्चे को दूध पिलाती है तो दाएं स्तन का पान करके वह बच्चा बाएं स्तन का पान करने लगता है। बाएं का पान करते समय वह नये सिरे से यह क्रिया नहीं करता। जितना दूध पी चुका है अब उससे आगे पीता है। जितना पेट पहले भर चुका था, वह तो भर चुका, अब तो वह और पी कर बची भूख को शान्त करता है। उन्होंने आगे कहा कि अब वह शेष जीवन वेद का ही स्वाध्याय करेगें और इस जीवन में जो न्यूनता रहेगी वह अगले जन्म में पूरी करेंगे। उन्होंने तब एक पंक्ति बोली थी जिसका आशय था कि ईश्वर तेरी वेदवाणी है अनमोल, इसमें अमृत भरा हुआ है विभोर।

 

यह रहस्य सामवेद के एक मन्त्र के भाष्य ने खोला। श्री ज्ञान चन्द्र जी ने जिज्ञासु जी को कहा कि यदि उन्हें पहले यह बात समझ में जाती तो वह बहुत कुछ पाकर आगे निकल जाते। श्री ज्ञानचन्द्र जी देश भर में उपनिषदों की कथा करने के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। उनकी उपनिषदों की कथायें बहुत रोचक, प्रेरक व चिचारोत्तेचक होती थी। उनकी भाषा पंजाबी उच्चारण बहुल थी परन्तु उनका चिन्तन गहन था व उनके विस्तृत अध्ययन का प्रभाव श्रोताओं पर जादू का सा होता था।

 

प्रिंसीपल ज्ञानचन्द्र ने जो बात कही कि मेरा तो अब तक का सारा जीवन ही बेकार गया। इसकी जानकारी देकर उन्होंने वेदाध्ययन को उन्होंने अमृत के तुल्य बताया। इस प्ररेणादायक प्रसंग से हम व सभी लोग लाभ उठा सकते हैं। हमने आरम्भ में महर्षि दयानन्द जी के जीवन के उद्देश्य विषयक अन्वेषण और परिणामों का उल्लेख किया है। हमने भी लगभग 40 वर्षों से वेद एवं वैदिक साहित्य के अध्ययन में व्यतीत किए हैं। हम इस प्रसंग में यह भी जोड़ना चाहेंगे कि महर्षि दयानन्द का विख्यात ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश संसार के धार्मिक साहित्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। प्रत्येक व्यक्ति को उसका अध्ययन और उसकी सत्य शिक्षाओं पर आचरण कर अपना जीवन सफल करना चाहिये। जिस सामवेद भाष्य की चर्चा उपर्युक्त पंक्तियों में की गई हैं, वह वैदिक साहित्य के प्रकाशक श्री घड़मल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, ब्यानिया पाडा, हिण्डोनसिटीराजस्थान से उपलब्ध है। पत्र भेजकर डाक से मंगाया जा सकता है। हमारा अनुभव है कि प्रिंसीपल ज्ञानचन्द्र जी का अपने और हम सभी के जीवन के बारे में निष्कर्ष पूरी तरह से यथार्थ है। इसे लेख की पंक्तियों से यदि पाठको को कुछ लाभ होता है तो हमारा श्रम सफल होगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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फोनः 09412985121 

‘प्रेरणादायक जीवन: वैदिक विद्वान पं. हीरानन्द’

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ओ३म्

कहां गये वो लोग, कैसे होते थे हमारे पूर्वज, धर्मात्मा व महात्मा

प्रेरणादायक जीवन: वैदिक विद्वान पं. हीरानन्द

संसार में सुर तथा असुर अर्थात् देवता और राक्षस सदा से होते आये हैं। असुरों के प्रति सामान्य लोगों का भाव वितृष्णा का होता है परन्तु सत्पुरूष वा सुर संज्ञी पुरूषों के प्रति हृदय में आदर व श्रद्धा का भाव देखा जाता है। शायद यही कारण है कि दुष्ट पुरूष भी अपने काले कारनामों को छुपाते हैं और बाहर से अच्छा दिखने व दिखाने का प्रयास करते हैं। आज स्वाध्याय करते हुए हमने एक घटना पढ़ी जिसका हमारे मन पर चमत्कारिक प्रभाव हुआ। मन में विचार आया कि इसे अन्यों तक भी पहुंचाना चाहिये। इसलिए हमारे ऋषियों ने वैदिक सिद्धान्त बनाया है, स्वाध्यायान्मा प्रमदः अर्थात् किसी को कभी भी स्वाध्याय से प्रमाद नहीं करना चाहिये अर्थात प्रतिदिन नियमित स्वाध्याय करना चाहिये। स्वाध्याय करने वाले लोगों के जीवनों में नाना चमत्कार देखे जाते हैं। यही उन्नति व सफलता की भी मूल मन्त्र है। हमें लगता है कि यदि आज हम स्वाध्याय न करते तो यह घटना हम न पढ़ते और न यह पंक्तिया ही लिखी जाती।

 

मानव की प्रकृति जीवात्मा के स्वाभाविक गुणों से जुड़ी हुई है। इसी कारण से संसार के सभी लोग अच्छी बातों व गुणों को पसन्द करते हैं और अवगुणों के प्रति वितृष्णा रखते हैं। यह भी सत्य है कि स्वयं बुरे काम करने वाले व्यक्ति नहीं चाहते कि उनका परिवार का कोई व्यक्ति बुरा काम करे। मनुष्यों का यह स्वभाव देखा जाता है कि गुणी व सदाचारी धर्मात्माओं के प्रति वह आदर व श्रद्धा भाव रखते हैं, भले ही वह स्वयं में अच्छे हों या न हों। बुरा व्यक्ति भी अच्छे व्यक्ति का लोहा मानता है। सद्गुणों वाले व्यक्ति के प्रति लोगों में एक अलौकिक आकर्षण होता है। यही कारण हैं कि हम और हमारा समाज महर्षि दयानन्द, मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगश्वर श्री कृष्ण, आचार्य चाणक्य, महर्षि बाल्मिीकी, गुरू रविदास, आर्यराज पृथिवीराज चैहान, वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरू गोविन्द सिंह, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हंसराज, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री आदि के प्रति आदर व श्रद्धा का भाव रखते हैं।

 

आर्य जगत के प्रसिद्ध विद्वान पं. राजेन्द्र जिज्ञासु जी का जन्म मालोमहे जिला स्यालकोट, पंजाब सम्प्रति पाकिस्तान में हुआ था। उनके गांव में एक वैदिक विद्वान पं. हीरानन्द जी यदाकदा वेदों के प्रचार के लिए आते-जाते रहते थे और महीनों वहां निवास करते थे। गांव के लोगों को पता था कि इन पण्डित जी ने अपने विद्यार्थी जीवन में काशी में पढ़ते हुए अपने गुरूजनों के कहने पर महर्षि दयानन्द सरस्वती पर ईंटे व पत्थर फेंके थे और उन्हें अपमानित करने का प्रयास किया था। यह कार्य उन्होंने अपने बाल्य जीवन में किया था। उस समय उन्हें उचित-अनुचित का ज्ञान नहीं था। अध्ययन समाप्ति करने पर वह आर्य समाज के सम्पर्क में आये तो महर्षि के गुणों के दीवाने हो गये और उन्हीं की शिक्षाओं, वैदिक मान्याओं व सिद्धान्तों के प्रचार को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया।

 

एक बार की बात है कि पण्डित हीरानन्द जी आर्य समाज, मालोमहे में आये हुए थे। आर्य विद्वान राजेन्द्र जिज्ञासु जी मालोमहे में रहते थे और वह नियमित रूप से कई बार आर्य समाज जाया करते थे जो कि उनके निवास के समीप ही था। जिज्ञासु जी सायंकल समाज मन्दिर में खेलने के उद्देश्य से पहुंचे तो वहां चारपाई पर पंडित जी को बैठा हुआ पाया। जिज्ञासु जी मक्की के दाने चबा रहे थे। यही उन दिनों आजकल की मिठाईयों के समान लोकप्रिय पकवान हुआ करते थे। पण्डितजी को देखकर आपने उनसे पूछा कि क्या वह मक्की के दाने चबायेंगे? उन दिनों पण्डित जी की अवस्था 80 वर्ष थी और उनके मुंह में दांत नहीं थे। इसलिए पण्डित जी ने कहा कि मेरे दांत नहीं है। यदि तुम इन्हें कूट-पीस कर ले आओ तो मैं इन्हें खा सकता हूं। जिज्ञासु जी तुरन्त घर आये और मक्की के दानों का पाउडर बना कर ले गये जिन्हें पण्डित जी ने बड़े प्रेम से ग्रहण किया और अपनी किंचित क्षुधा निवृत्ति की।

 

अगले दिन आर्य समाज मन्दिर में एक सज्जन आये और पण्डित जी को उनके घर चल कर रात्रि भोजन ग्रहण करने का निवेदन किया। पण्डित जी ने अपनी सहमति दी। आतिथेय महोदय ने पूछा कि पूर्व रात्रि को उन्होंने किसके यहां भोजन किया था। पण्डित जी ने पूर्व रात्रि को किसी के यहां भोजन नहीं किया था। कोई उन्हें भोजन के लिए कहने आया ही नहीं था। इस कारण पण्डित जी को उस रात्रि भूखा ही रहना पड़ा था। सच्चे महात्मा होने का प्रमाण देते हुए उन्होंने कहा कि कल उन्होंने मंत्री जी के पुत्र के यहां भोजन किया था। पं. राजेन्द्र जिज्ञासु जी के पिता जी को वहां लोग मंत्रीजी कह कर पुकारते थे। उस आतिथेय सज्जन ने पं. हीरानन्द जी से पूछा कि उसने आपको भोजन में क्या-क्या व्यंजन परोसे थे। अब पण्डित जी के लिए कुछ कठिनाई पैदा हो गई। महात्मा असत्य तो बोल नहीं सकते। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा कि वह मेरे लिए मक्की की दाने कूट कर ले आया था। वह आतिथेय सारी बात समझ गये। सारे समाज में इस बात की चर्चा फैल गई। पण्डित हीरानन्द जी के सरल स्वभाव से वहां के सभी लोग परिचित थे। सबको इस घटना को सुनकर पश्चाताप हुआ। पण्डित जी तो हर स्थिति में शान्त व आनन्दित रहा करते थे। इसी प्रकार की घटनायें महर्षि दयानन्द के साथ भी जीवन में कई बार हुईं। अनेक अन्य आर्य विद्वानों व महात्माओं के साथ भी प्रायः ऐसा होता आया है।

 

जब यह घटना घटी, उन दिनों श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी मात्र 12 वर्ष के किशोर थे। उनके कोमल हृदय पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा। जिज्ञासु जी लिखते हैं- तब मैं इस घटना से इतना प्रभावित हुआ कि मेरे हृदय पर यह छाप पड़ी कि हमारे पण्डित जी बड़े पुण्यात्मा, महात्मा, तपस्वी त्यागी पुरूष हैं। भूख प्यास पर इन्होंने विजय प्राप्त कर रखी है। यह सच्चे धर्मात्मा है। पूजनीय हैं। इस घटना के उल्लेख के बाद जिज्ञासु जी बड़ी मार्मिक टिप्पणी करते हैं- युग कितना बदल गया है। तब त्याग से व्यक्ति बड़ा समझा जाता था, अब साधनों से बाबा जी की प्रतिष्ठा है। (त्याग, तपस्या, ब्रह्मचर्य रूपी) साधना से नहीं। नेता भी तभी नेता बनता है जब दो चार गाडि़यां आगे पीछे घूमती हों।

 

आज पं. हीरानन्द जी जैसे महात्माओं का समाज में अभाव हो गया है। आज हमारे महात्माओं के भी दोहरे चरित्र अनुभव में आते हैं। उनके मन में कुछ और होता है और वाणी में कुछ और। भक्तों को भी यही कृत्रिम महात्मा पसन्द आते हैं। तभी तो आज धार्मिक सत्संगों में हजारों लोगों की भीड़ दिखाई देती हैं जहां महात्मा जी अपने सेवक-सेविकाओं के साथ आते हैं और दो-तीन दिनों के सत्संगों के ही लाखों रूपये बटोरते हैं। कुछ धार्मिक टीवी चैनल भी कंचन-कांचनी वाले महात्माओं के प्रवचनों से भरे होते हैं। लाखों रूपये व्यय करके यह अपना प्रचार करते हैं। हम अपने अनुभव से कहना चाहते हैं कि जो ज्ञान सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ को पढ़कर कुछ ही दिनों में प्राप्त होता है वह पूरा जीवन लगाकर भी इन सत्संगों व इसके भक्तों को प्राप्त नहीं होता। यहां ज्ञान ग्रहण नहीं किया जाता, मात्र गुरू के प्रति अन्ध-भक्ति व आस्था उत्पन्न कराई जाती है। गुरू कैसा भी हो, हर हाल में उसकी वन्दना व गुणगान करना है। हमारे पं. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने सारा जीवन स्वाध्याय, लेखन व प्रवचनों में लगाया है। 300 से अधिक ग्रन्थ लिखकर उन्होंने एक इतिहास बनाया है। वह सही मायनों में एक सच्चे महात्मा है। अपने उनके दर्शन व प्रवचन सुनकर व इससे भी अधिक पत्र पत्रिकाओं में उनके लेखों व पुस्तकों को पढ़कर अपने जीवन में किंचित लाभ उठाया है और उससे धन्य हुए हैं। अपने ग्रन्थ स्मृतियों की यात्रा ग्रन्थ में पं. हीरानन्द जी का संस्मरण लिखकर जिज्ञासु जी ने पं. हीरानन्द जी को भी विख्यात व अमर कर दिया है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

फोनः 09412985121

‘एक दलित बन्धु की बारात में एक सुप्रसिद्ध आर्य संन्यासी’

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ओ३म्

इतिहासकीएकविस्मृतमहत्वपूर्णघटना

एक दलित बन्धु की बारात में एक सुप्रसिद्ध आर्य संन्यासी

 

 

महाभारत काल तक हमारे देश में गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्ण (selection) व्यवस्था थी। महाभारत काल के बाद मध्यकाल के दिनों व उससे कुछ समय पूर्व इस व्यवस्था ने जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था का रूप ले लिया। इस व्यवस्था में ही मनुष्य-मनुष्य के बीच छुआछूत आदि का प्रचलन भी हुआ। महर्षि दयानन्द ने नयी जाति या वर्ण व्यवस्था को मरण व्यवस्था नाम दिया और इसे समाप्त करने का प्रयास किया। उन्हें इसमें आंशिक सफलता भी मिली है। परन्तु आज भी यह हानिकारक जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था समाप्त नहीं हुई है। अब से 50 – 100 वर्ष पूर्व यह बहुत अधिक विकराल रूप में देश में भी। आर्य समाज ने इसके उन्मूलन में सराहनीय कार्य किया है। इस लेख में हम एक आर्य समाज के अनुयायी दलित बन्धु के विवाह की प्रेरणाप्रद घटना प्रस्तुत कर रहे हैं जिसका अपना विशेष महत्व है।

 

आर्य जगत के वयोवृद्ध व ज्ञानवृद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु सन् 1975 में अहमदाबाद गये। इस अवसर पर वहां उन्होंने साबरमति आश्रम देखा। इस आश्रम में गांधी जी ने अपने हाथों से सूत कात कर अपने सबसे पहले हरिजन साथी को एक कुर्ता सिलवा कर दिया था। यह कुर्ता साबरमति आश्रम में गांधी जी के प्रयोग में आई वस्तुओं के साथ में रखा हुआ है। जिज्ञासु जी ने जब इस कुर्ते को देखा तो उन्हें यह बहुत अच्छा लगा। उनके मन में विचार आया कि आर्य जगत के ज्ञानी, त्यागी, तपस्वी व देश-धर्म-संस्कृति भक्त स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने दलितोद्धार के लिए प्रशंसनीय कार्य किया था। उनके प्रथम दलित शिष्य भक्त का पता लगाना चाहिये। वह उसकी खोज में निकल पड़े। पंजाब में रामा मण्डी गये। वहां महाशय निहालचन्द जी से इस बारे में प्रश्न किया। उन्होंने बताया कि जिस श्री किशन सिंह के विवाह की घटना उन्होंने “प्रेरणा कलश” में दी थी, वही स्वामी जी का पहला दलित शिष्य था।

 

श्री निहाल सिंह और प्रा. जिज्ञासु जी की बातचीत में यह तथ्य सम्मुख आये कि श्री निहाल सिंह, श्री अजीत सिंह ‘किरती’ तथा श्री किशन सिंह सहोदर भाई न होकर एक गुरू के शिष्य होने के कारण परस्पर भाई थे। श्री किरती एक जाट परिवार में जन्में थे और श्री किशन सिंह एक दलित परिवार में। किशन सिंह जी का विवाह निश्चित हो गया था। सब आर्य युवकों की एक बैठक हुई। बैठक में विचार हुआ कि विवाह संस्कार व बरात आदि की ऐसी व्यवस्था हो कि कन्या पक्ष के गांव में आर्य समाज की अच्छी धाक व छाप पड़े। इसके लिए एकमत से निर्णय हुआ कि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी को बरात में ले जाया जाये। स्वामी जी के बरात में जाने से वैदिक धर्म के विचार व सिद्धान्त वघू पक्ष के गांव में पहुंच जायेंगे। बैठक के लोगों ने अजीत किरती जी को स्वामीजी को बरात में चलने के लिए राजी करने का काम सौंपा।

 

किरती जी ने स्वामीजी को जब बरात में चलने के लिए कहा तो स्वामीजी ने समझाया कि साधू संन्यासियों को बरात में ले जाना अच्छा नहीं लगता। मैं बरात में नहीं चलूंगा। जिन दिनों की यह घटना है, उन दिनों इस प्रकार की बैठक का होना तथा इस प्रकार का कार्यक्रम बनाना एक बहुत बड़ी क्रान्ति थी। एक दलित भाई के विवाह में जाट, बनिये, ब्राह्मण, खत्री आदि मिलकर बरात की रूप रेखा तय कर रहे थे। यह भी अनोखा ही कार्य था कि एक दलित बन्धु के विवाह में सभी बिरादरियों के युवक प्रसन्नता व उत्साह पूर्वक भाग लें। ऐसा इससे पूर्व कभी देखा नहीं गया था। किरती जी ने जब बैठक को सूचित किया कि स्वामी जी बरात में जाने के लिए सहमत नहीं हैं तो सबने एकस्वर से उन्हें कहा कि स्वामीजी को बता दें कि यदि वह बरात में नहीं जायेंगे तो श्री किशन सिंह का विवाह नहीं होगा। किरती जी ने जब स्वामी जी को यह सूचना दी तो स्वामी जी विचार करने लगे कि यदि शादी न हुई तो कन्या को सारे जीवन में घर में बैठना होगा। कौन उससे विवाह करेगा? कन्या के भावी जीवन की कल्पना कर स्वामीजी चिन्तित हो गये। उन्होंने किरतीजी को कहा कि अच्छा! मैं बरात में तो चलूँगा परन्तु वहां केवल पांच मिण्ट ही रहूंगा, इससे अधिक देर नहीं रूकूंगा। रामा मण्डी के युवक मण्डल ने स्वामीजी की बात मान ली। उन दिनों में रामामण्डी में ऊंट ही यातायात का साधन था। बरात का दिन आ गया। स्वामी जी के लिए बारात के दिन एक ऊंट को सजाया गया। कन्या पक्ष को स्वामी जी के बरात में आने की सूचना दी जा चुकी थी जिसे सुन कर वहां के लोग अत्यन्त खुश थेे। देश-विदेश में विख्यात वेदों के एक विद्वान संन्यासी का बरात में जाना कोई साधारण बात नहीं थी। बरात के दिन स्वामीजी ने ऊंट पर बैठना तो स्वीकार नही किया। वह पैदल ही कन्या पक्ष के गृह स्थान की ओर चल पड़े। उनके सम्मान मे अन्य सभी बराती भी ऊंटों को साथ लेकर पैदल ही कन्या पक्ष के घर पर जा पहुंचंे।

 

इतिहास की अपने प्रकार की यह एक निराली घटना थी जिसमें एक प्रसिद्ध, तेजस्वी, प्रतापी, बाल ब्रह्मचारी संन्यासी सम्मिलित हुआ। शिष्यों ने गुरू को मनाया और गुरू ने शिष्यों का पे्रम व श्रद्धा से सिक्त आग्रह स्वीकार किया। इस बारात के स्वागत के लिए कन्या पक्ष का सारा ग्राम उमड़ पड़ा था। वहां स्वामी जी को एक बड़े पंलग पर बैठाया गया। स्वामीजी पैर नीचे लटकाकर पलंग पर बैठ गये। आपने दोनों पक्षों के लोगों को 5 मिन्ट तक गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों पर सारगर्भित उपदेश दिया और इसके बाद वापिस अपने स्थान पर लौट आये। स्वामीजी ने उपदेश के अन्त में जो शब्द कहे वह थे – यही धर्म है। यही मर्यादा है। यही सनातन वैदिक रीति है। अब तुम्हारी बिरादरी के मनोरंजन की वेला है। आर्य जगत के शीर्ष विद्वान प्रा. जिज्ञासु जी ने अपनी स्मृतियों की यात्रा पुस्तक में इस घटना को देकर लिखा है कि इस घटना की खोज पर उन्हें बड़ा गौरव है। श्री महाशय निहालचन्द जी व अन्य कर्मवारों से जुड़ा यह संस्मरण उनके लिए अविस्मरणीय है। वे लोग क्रान्ति करते हुए प्रेम माला में सबको पिरोते गये।आगे उन्होंने लिखा है कि आरक्षण के बीच में आरक्षण देश को डुबो के न रख दे। युवको! चेतों! यह घटना आज भी प्रासंगिक है। इतने वर्षों बाद भी समाज में उन्नति की जगह अवनति ही देखने को मिल रही है। इसके अनेक कारण हैं जिन पर विचार कर उनका निराकरण करना है अन्यथा यह देश के लिए घातक हो सकता है। हम इस घटना को प्रकाश में लाने के लिए प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी का आभार व्यक्त करते हैं। आर्य समाज ने दलितोद्वार का कार्य सन् 1875 में सत्यार्थ प्रकाश के प्रकाशन से ही आरम्भ कर दिया था।

 

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के दलितोद्धार पर प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु रचित कुछ पंक्तियों को प्रस्तुत कर लेख को विराम देंगे। जिज्ञासु जी ने लिखा है-“करूणासिन्धु दयानन्द के शिष्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज को भी छूतछात, जातिभेद ऊंचनीच के भद्दे भाव बहुत अखरते थे। इन बुराइयों के विरूद्ध वे जीजान से लड़े। वैदिक धर्म किसी वर्गविशेष के लिए नहीं है। प्रभु की पवित्र वेदवाणी मानवमात्र के लिए है। अस्पृश्यतानिवारण के लिए आपने पंजाब, हरियाणा, हिमाचल जम्मूकश्मीर में बड़ा संघर्ष किया। जम्मू में जान जोखिम में डालकर दलित भाइयों की सेवा की। किसी भी राजनैतिक दल ने दलितों के लिए कभी भी कोई बलिदान नहीं दिया। आर्यवीर रामचन्द्र जी ने जम्मू में दलितोद्धार के लिए महाबलिदान दिया। उस वीर के बलिदान के समय आर्यों पर बड़े अत्याचार किए गए। तब जान जोखिम में डालकर आजन्म ब्रह्मचारी स्वामी स्वतन्त्रानन्द सीना तानकर जम्मू राज्य में कए। महात्मा हरिराम जी श्री अनन्तराम सरीखे आर्यों को साथ लेकर पूज्य स्वामी जी ने पोंगापंथियों पर विजय पाई। दलितों की रक्षा उत्थान के लिए जो कार्य स्वामी जी ने किया, उसको शब्दों में बता पाना कठिन है। दलितोद्धार के लिए श्री महाराज एक बात कहा करते थे कि यदि इनको आर्थिक उद्धार हो जाए तो अन्य बुराइयां दूर करना इतना कठिन नहीं। जब दीनबंधु महात्मा फूलसिंह ने नारनौंद में दलितों के लिए कुएं खुलवाने के लिए ऐतिहासिक मरणव्रत रखा, तो सारे देश का ध्यान आर्य नेता महात्मा फूलसिंह की सतत ससाधना पर केन्द्रित हो गया। गांधी जी भी भक्त फूलसिंह जी के महाव्रत से बड़े प्रभावित हुए थे। तब हमारे पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने हरियाणा के गांवगांव में घूमकर वातावरण को अनुकूल बनाया, जनजागृति पैदा की और चैयधरी छोटूराम का भी सहयोग प्राप्त किया। वोटनोट की राजनीति करने वाले भला वीर रामचन्द्र  भक्त फूल सिंह के बलिदान की चर्चा क्यों करें? स्वामी स्वतन्त्रता ने दलितोद्धार के जो कार्य किए यह तो उनका संकेत मात्र है।

 

हमारे इन स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का जन्म लुधियाना जिले के मोही ग्राम के एक प्रतिष्ठित सिख जाट परिवार में जनवरी, 1877 में हुआ था। आप कुछ समय तक अद्वैतवाद की विचारधारा से प्रभावित रहे और बाद में आर्य समाज के अनुयायी बने। आप सन् 1939 में हैदराबाद में चलाये गये आर्य सत्याग्रह के फील्ड मार्शल बनाये गये थे। आपका शौर्य और सूझबूझ ने हैदराबाद के निजाम को झुका कर उससे हिनदुओं के धार्मिक कृत्यों पर प्रतिबन्ध को समाप्त करने की अपनी मांगे मनवाई थी। 29 मार्च सन् 1941 को मुस्लिम रियासत लोहारू में आर्य समाज के उत्सव की शोभा यात्रा में विधर्मियों ने 65 वर्षीय इस संन्यासी के शिर पर कुल्हाड़े व लाठियों आदि का प्रहार कर घायल कर दिया था। शिर से रक्त बह रहा था। इसी अवस्था में आप लोहारू से रेल द्वारा दिल्ली पहुंचे जहां इरविन अस्पताल में आपने उपचार कराया। आपके शिर में अनेक टांके लगे। आपने बिना क्लोरोफार्म सूँधे ही टांके लगवाकर अपने ब्रह्मचर्य एवं योग बल का परिचय देकर सभी डाक्टरों को आश्चर्य में डाल दिया था। महर्षि दयानन्द से प्रेरणा आपने और महर्षि दयानन्द के सभी सैनिक अनुयायियों ने दलितोद्धार का अविस्मरणीय ऐतिहासिक कार्य किया है। इन्हीं शब्दों के साथ हम लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द : सत्येन्द्र सिंह आर्य

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पंजाब प्रान्त के  जालन्धर जिले में तलवन ग्राम में एक प्रतिष्ठित परिवार में लाला नानकचन्द्र जी के गृह में विक्रमी सवत् 1913 में फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन जिस बालक का जन्म हुआ, उसका नाम पण्डित जी ने बृहस्पति रखकर भी प्रसिद्ध नाम मुंशीराम रख दिया। संन्यास ग्रहण करने के समय तक वे इसी नाम से वियात रहे। पिता जी पुलिस में इस्पेक्टर के पद पर राजकीय सेवा में थे। अतः जल्दी-जल्दी होने वाले स्थानान्तरण के कारण बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान पड़ना स्वाााविक था। परन्तु एक लाा भी हुआ। जिन दिनों श्री नानकचन्द्र जी बरेली में पद स्थापित थे, उन दिनों अंग्रेजी भाषा के व्यामोह में फंसे और नास्तिकता के भँवर में गोते लगाते मुंशीराम को स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के दर्शन करने का, उनके वेदोपदेश सुनने का, उनसे मिलकर अपनी शंकाओं का समाधान करने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी द्वारा प्रतिपादित वैदिक विचारधारा का मुंशीराम जी के जीवन पर प्रााव पड़ने में यद्यपि वर्षों का समय लगा, परन्तु अन्त में ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि वे ऋषि-मिशन के दीवाने हो गए। एक-एक करके इतने कार्य किये कि उनका सही मूल्यांकन कोई ऋषि-भक्त, तपस्वी, वैदिक विद्वान् ही कर सकता है।

जालन्धर में कन्या पाठशाला खोली जिसका स्थानीय लोगों ने घोर विरोध किया। उस युग में सब स्त्री-शिक्षा के शत्रु थे। पाठशाला चार लड़कियों से आरभ हुई, दो बेटियाँ इनकी स्वयं की थी और दो इनके साले की थीं। वही संस्था आज स्नातकोत्तर कन्या विद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित है जिसमें हजारों कन्याएँ शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। हरिद्वार के निकट काँगड़ी ग्राम में गुरुकुल की स्थापना की। अपने दोनों पुत्रों हरिशचन्द्र एवं इन्द्र को उसी में प्रविष्ट किया। वह संस्था भी आज एक विश्वविद्यालय के रूप में विद्यमान है। इस संस्था से आर्यसमाज को बड़ी संया में वेद के विद्वान्, उपदेशक, साहित्यकार, पत्रकार एवं समाजसेवी राजनेता प्राप्त हुए। पं. इन्द्र जी विद्यावाचस्पति एक आर्य पुरुष, साहित्यकार, पत्रकार के रूप में इसी संस्था की देन हैं।

वैदिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए मुंशीराम जी ने सद्धर्म प्रचारक पत्र निकाला। पहले उर्दु में और बाद में आर्य भाषा में। पत्र इतना लोकप्रिय था कि पाठकों को अगले अंक की सदैव प्रतीक्षा रहती थी। मुद्रण की सुविधा के लिए अपना प्रेस स्थापित किया। देश-दुनिया के समाचारों से आर्य जनता को परिचित कराये रखने का यह बड़ा सशक्त माध्यम था। अपनी पत्रकारिता में कुशलता के बल पर मुंशीराम जी ने उस युग में राष्ट्र की महती सेवा की।

अछूतोद्धार का कार्य उनकी प्राथमिकता में था। राजनैतिक रूप से उस समय कांग्रेस एक पार्टी के रूप में देश की आजादी के लिए कार्य कर रही थी। मुंशीराम जी (और अप्रैल 1917 में संन्यास ग्रहण के पश्चात् स्वामी श्रद्धानन्द जी) उस समय देश के अग्रणी नेताओं में थे उनके जीवन की एक-एक घटना उनकी महानता की साक्ष्य है। वर्ष 1917 ईसवी में अप्रैल मास में उत्सव के समाप्त होने के पश्चात् अगले दिन उन्हें संन्यास लेना था। संन्यास-ग्रहण संस्कार के समय वहाँ हजारों की भीड़ थी। आर्य समाज के बहुत से संन्यासी, पण्डित और अधिकारी साक्षीरूप से उपस्थित थे। संस्कार में सबसे विशेष बात यह हुई कि, मंशीराम जी ने किसी संन्यासी महानुााव को अपना आचार्य न बनाकर परमात्मा को ही आचार्य माना और जो प्रक्रिया आचार्य द्वारा पूरी होनी थी, वह स्वयं ही पूरी कर ली। क्षौर कराकर और भगवावस्त्र पहनकर वे यज्ञ-मण्डप में आए और खड़े होकर उन्होंने निम्नलिखित आशय की घोषणा की-

‘‘मैं सदा सब निश्चय परमात्मा की प्रेरणा से श्रद्धापूर्वक ही करता रहा हॅूँ। मैंने संन्यास भी श्रद्धा की भावना से प्रेरित होकर ही लिया है। इस कारण मैंने श्रद्धानन्द नाम धारण करके संन्यास में प्रवेश किया है। आप सब नर-नारी परमात्मा से प्रार्थना करें कि वे मुझे अपने इस नए व्रत को पूर्णता से निभाने की शक्ति दे।’’

सन् 1919 में बैसाखी के दिन अमृतसर में जलियाँवाला बाग में भीषण हत्याकाण्ड हुआ। उसी वर्ष कुछ माह पश्चात् अमृतसर में ही कांग्रेस का महा-अधिवेशन होना था, परन्तु बैसाखी वाली भयावह घटना लोगों के मन-मस्तिष्क पर छाई हुई थी। निर्भीकता की प्रतिमूृर्ति स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने स्वागताध्यक्ष का कार्य भार ग्रहण करके सारे आयोजन को सहज और सरल बना दिया।

अछूतोद्धार एवं शुद्धि सभा स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज आर्य पुरुष थे और कांग्रेसी भी थे। उस समय कांग्रेस में आर्यों की संया काफी अधिक थी। उन्होंने समाज में अछूत कहे जाने वाले लोगों के लिए विशेष कार्य किया। संस्थागत रूप में इस कार्य को आगे बढ़ाया। जन्मना जाति-प्रथा को यथावत् बनाए रखने वाले हिन्दुओं एवं मठाधीशों का उस समय दबदबा था। अछूत कहे जाने वाले नर-नारियों की बात तो दूर रही, उस समय के हिन्दू मठाधीश, सन्त-महन्त तो मजबूरी में या प्रलोभनवश ईसाइयों -मुसलमानों द्वारा हिन्दू वर्ग से धर्मान्तरित किये गए सवर्ण हिन्दुओं को भी शुद्ध करके पुनः अपने में मिलाना शास्त्र-विरुद्ध और पूर्णतः निषिद्ध मानते थे। हिन्दू (आर्य) जाति एक प्रकार से कच्चे माल की खान बनी हुई थी। सूक्ष्म राजनीतिक सूझबूझ वाले ईसाई मिशनरी और मुल्ला मौलवी इसी खान में से विशेषकर अछूत कहे जाने वाले वर्ग में से हमारे ही भाई-बहनों को बहला-फुसलाकर, प्रलोभन देकर, धोखाधड़ी से ईसाई-मुसलमान बना रहे थे। हिन्दू जाति के विघटन की यह चरम स्थिति थी। ऐसे में दूरदर्शी आर्य नेता एवं इस हिन्दू जाति के परम शुभचिन्तक स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने अछूतोद्धार एवं शुद्धि का कार्य एक आन्दोलन के रूप में किया। शुद्धि के काम से महात्मा गाँधी के चहेते अलीबन्धु बौखला गए और उन्होंने गाँधी जी से स्वामी श्रद्धानन्द जी के शुद्धि-कार्य के विरुद्ध शिकायत की। गाँधी जी द्वारा एतद्विषयक चर्चा किये जाने पर स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कहा कि आप अली बन्धुओं को कहकर इस्लाम द्वारा जारी तबलीग (धर्मान्तरण के लिए इस्लाम मतावलबियों द्वारा निरन्तर चलाई जाने वाली प्रक्रिया) का काम रुकवा दीजिए, मैं शुद्धि का काम बन्द कर दूँगा। भला यह कार्य मुस्लिम तुष्टिकरण के जनक और मसीहा महात्मा गाँधी के बूते का कहाँ था। अतः स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज कांग्रेस से अलग हो गये। शुद्धि के कार्य को करने के मूल्य के रूप में स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज को अपने प्राण आहूत करने पड़े।

विडबना देखिए कि जिस हत्यारे अदुल रसीद ने स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज को गोली मारी और जिसे रंगे हाथों पकड लिया गया उसी के बचाव के लिए महात्मा गाँधी के दायाँ और बाँया हाथ (जैसा कि अली बन्धुओं-मौलाना मोहमद अली, मौलाना शौकत अली को कहा करते थे) ये अली बन्धु न्यायालय में उपस्थित रहा करते थे और गाँधी जी इस बात को जानते थे। मुस्लिम प्रेम के आगे महात्मा गाँधी को सत्य दिखाई नहीं पड़ता था जैसे रतौन्धी (आँखों की एक बीमारी) वाले व्यक्ति को रात्रि में कुछ नहीं दिखाई पड़ता। इस्लाम मतावलबियों की करतूतों का वर्णन करने लगे तो पोथे पर पोथे बनते चले जायेंगे परन्तु उन करतूतों का किनारा नहीं पा सकते। उदाहरण के लिए एक घटना देते हैं।

वाजा हसन निजामीकृत ‘दाइये इस्लाम’- वाजा हसन निजामी अपने समय के मौलवियों, पीरों, सूफियों और मुस्लिम नेताओं में सर्वोच्च स्थान रखते थे। इस्लामी साहित्य और इतिहास के वे बहुत बड़े आलिम माने जाते थे। वह अपना अखबार निकालते थे और अपना रोजनामचा (दैनन्दिनी) भी लिखते थे। देहली की निजामी दरगाह में उनका मुय निवास था। वह सदा यही सोचते रहते थे कि किस प्रकार भारत के हिन्दुओं को इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाए और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उचित-अनुचित की चिन्ता किये बिना वे किसी भी सीमा तक जाने को तैयार थे। जहाँ उन्होंने और अनेक उपाय इस बात के लिए मुसलमानों को जताये थे, वहीं हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित करने का एक बड़ा विषैला और गुप्त उपाय भी निकाला था। सब मुसलमानों में उस उपाय का गुप्त रूप से प्रचार किया गया। जितने धन्धे-पेशे मुसलमान करते थे जैसे नाई, धोबी, लुहार आदि उन्हीं के अनुसार उनको उपाय समझाए गए थे। यहाँ तक कि बाजारू औरतों (वेश्याओं) को भी हिदायत दी गई थी कि वे अपनी सुन्दरता में फँसा कर हिन्दुओं को मुसलमान बनाएँ। इन सब उपायों को एक पुस्तक में लिखा गया था और पुस्तक का नाम था- ‘दाइये इस्लाम’। इस पुस्तक को गुप्त रूप से न केवल भारत भर के मुसलमानों में पहुँचाया गया, अपितु भारत से बाहर के इस्लामी देशों में भी भेजा गया था।

हिन्दुओं के विरुद्ध किये जा रहे इस भीषण षड्यन्त्र की पौराणिकों के किसी सन्त-महन्त, मठाधीश, शंकराचार्य अथवा नेता को भनक तक न लगी। स्वामी श्रद्धानन्द जी तब मुय रूप से दिल्ली में ही रहा करते थे। नया बाजार के एक मकान के ऊपरी भाग में निवास करते थे। स्वामी जी महाराज बड़े ही विलक्षण आर्य नेता थे। वह आर्य समाज के साथ-साथ समस्त हिन्दुओं के बारे में खबरगीरी रखते थे। वह यह पूरा ध्यान रखते थे कि बेखबर सोती हिन्दू जाति की सब तरफ से रक्षा की जाए। इस बात को जानने के लिए चाणक्य मुनि द्वारा वर्णित उपायों को काम में लाते थे। उसी आधार पर उन्हें अत्यन्त सूक्ष्म और अतीव गुप्त रूप और अज्ञात द्वार से वाजा हसन निजामी द्वारा लिखित और प्रचारित ‘दाइये-इस्लाम’ पुस्तक की सूचना मिली। पुस्तक उर्दु में लिखी गयी, प्रैस में छपी। कातिबों ने काम किया, मशीनों पर छपी, बाइण्डरों ने जिल्दें बान्धी, दुकानों में बिक्री के लिए गयी। न जाने कितने हाथों में पहुँची। प्रैस एक्ट के अनुसार छपी पुस्तकों की प्रतियाँ सरकारी कार्यालय को भेजी जानी चाहिए। इतना सब कुछ होते हुए भी कानोकान किसी गैर-मुसलमान को जरा सी भी भनक सुनाई नहीं पड़ी। सारे भारत में गुप्त खोज करने पर इस पुस्तक की एक भी प्रति न मिल सकी। परन्तु स्वामी जी के हाथ भी बहुत लबे थे। अन्त में बहुत यत्न करने पर एक प्रति ब्रिटिश ईस्ट अफ्रीका में एक सज्जन के हाथ लगी और उस पुस्तक को दिल्ली स्वामी जी के पास पहँुंचा दिया गया। उन्होंने उसको पढ़ा और देखा कि हिन्दुओं को नाश के गहरे गड्ढ़े में गिराये जाने के लिए कैसे षड्यन्त्र किये और कराये जा रहे हैं। स्वामी जी ने उस पुस्तक को फिर से छपवाया और ‘आर्य-बिगुल’, ‘अलार्म’ नाम से उसका खण्डन और आलोचनाएँ भी प्रकाशित हुई। हिन्दुओं को सावधान किया गया। आज के तथाकथित आर्य नेता? तो अपनी सर्व-स्वीकार्यता का ग्राफ ऊँचा करने के लिए मुस्लिम नेताओं और ईसाई पादरियों की चापलूसी में जीवन गुजार देते हैं परन्तु नोबेल पुरस्कार (शान्ति के लिए) प्राप्त करने की उनकी इच्छा अपूर्ण ही रह जाती है। नोबेल पुरस्कार क्या, नई दिल्ली स्थित उप वैटिकन में दशकों तक मत्था टेकने के बाद राज्यसभा की सदस्यता भी नसीब न हुई। ऐसे लोग जाति की क्या सेवा करेंगे।

स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज के बलिदान की पहली कड़ी यह पुस्तक ‘दाइये इस्लाम’ कहीं जा सकती है। आज साधारण जनता और आर्यजनों की तो बात ही क्या है अपितु बड़े-बड़े नेताओं को इस पुस्तक का पता भी नहीं है, उसका पढ़ना तो दूर रहा। इन पंक्तियों के लेखक के पास उस पुस्तक के हिन्दी संस्करण की एक प्रति है जो परोपकारिणी सभा को पुस्तकालय हेतु सौंप दी जाएगी।

प्रतिवर्ष अमर हुतात्मा का बलिदान दिवस मनाया जाता है। धुआँ-धार व्यायान होते हैं। अखबारों में लेख लिखे जाते हैं। उनके अनेक उत्तम गुणों पर प्रकाश डाला जात है परन्तु उस जहरीली पुस्तक दाइये-इस्लाम का मानो किसी को पता ही नहीं। स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने अछूतोद्धार एवं शुद्धि का जो कार्य अपने जीवन में किया उनके बलिदान के बाद उसमें शिथिलता आ गई थी। आर्य समाज के लिए यह हानि की बात रही। स्वामी जी ने देश, जाति, धर्म की अहर्निश सेवा की, ऋषि मिशन के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और 23 दिसबर सन् 1926 को अपने प्राण भी दे दिये। उस नर-नाहर सर्वस्व-त्यागी आर्य पुरुष के प्रति मेरी विनम्र श्रद्धाञ्जलि।

– 751/6, जागृति विहार, मेरठ

शिवाजी-भारतवर्षीय सिकन्दर

King-Shivaji-Maharaj-Statue-on-Throne

शिवाजी-भारतवर्षीय सिकन्दर

लेखक- डा बालकृष्ण एम०ए०पी०यच०डी ( लंडन )

बहुत से पाठक इस लेख के शीर्षक को देखकर अशर्चार्यन्वित होंगे जैसा कि शिवाजी को भारत वर्षीया सिकंदर कहने की अतिशयोक्ति में यह कुछ कम नहीं सुनाई पड़ता | बहुत से लोग उसके विषय में कहते है कि वह डाकू लुटेरा, पहाड़ी चूहा, पहाड़ी बन्दर झूठा, विश्वासघाती व निर्दयी था जिसने मानविक व ईश्वर प्रदत नियमों को भंग किया | उसके शत्रुओ ने, जिसको उसने लुटा उसको शैतान का अवतार कहने तक में सकोच न किया | इतिहास ने इन निर्णयों ( दोषारोपणों ) को सिद्ध किया है परन्तु उसको एक महान व्यक्ति कि पदवी से विभूषित किया है

अद्वितिय सेनापति

निसंदेह वह संसार के महारथी सेनापतियो में से एक था- जैसे आरमी की सम्मति से सब समझ सकते है :-

व्यक्तिगत गुणों के विचार से संसार के महारथियों में जिनका कि अबतक कुछ प्रमाण है वह सब से श्रेष्ठ निकला | क्यों कि किसी भी सेनापति ने कभी भी सेना के अग्रमुख होकर उतनी लड़ाई तै नहीं कि जितनी उसने | उसने प्रतेयक आपति का चाहे वह आकस्मिक हो अथवा पूर्व परिचित, बड़े अमोघ साहस व तात्कालिक बुद्धिमानी से सामना किया | उसके सर्व श्रेष्ठ सेनापति ने उसकी महतवपूर्ण योग्यता को अंगीकर किया | एक सैनिक की हैसियत से वह हाथ में तलवार लिए हुए शेखी का रूप धारण किये हुए दिखता था |

अदम्य विजयी

हमारे इतिहास की पाठ्य-पुस्तक में शिवाजी के युद्ध की विशेषता नहीं दिखाई गयी है | अर्थात जैसे की कर्नाटक में | यह वह युद्ध था जो शिवाजी महाराज की संसार के प्रमुख विजयियो में स्थापना कराता है, मुग़ल सम्राट और औरंगजेब व बीजापुर के सेनापति जैसे दो शक्ति संपन्न जानी दुश्मनों के बिच व अस्थिर विश्वासी गोलकुंडा के राजा जैसे उभयपक्षी मित्र के होने पर भी शिवाजी ने विजय के उत्साह में रूढ़ी को छोडते हुए रण-दुदुंभी बजाई | उसने सयांदरी पर्वत से तन्ज्जोर तक जो दक्षिण का उपवन कहलाता है सफलता पूर्वक भ्रमण किया और फिर कारों मंडल होता हुआ मलवार से लौटा जैसा कि Kincaid कैनकैड में भली प्रकार समझाया हुआ है :-

“१८ मास के अंदर अंदर उसने प्राचीन राज्य की तरह अपने ही आधार पर ७०० मील लंबे राज्य को जित लिया | जब उसे कभी प्राणघातक आपत्ति प्राप्त होती तो वह उसे साधारण बात समझ कर पार कर जाता | एक विजय के के बाद दूसरी विजय प्राप्त हुई और एक शहर के बाद दूसरे शहर को उसने अपने आधीन किया | जब वह आगे बढता तो विजित प्रान्तों को अपने राज्य में मिलाता और जब वह रायगढ़ को लौटा, जैसा कि उसने अब किया, उसका राज्य समुद्र की एक सीमा से दूसरी सीमा तक सुरक्षितता से विस्तृत था जो दृढ़ किलो में सुसज्जित तथा स्वामी भक्त सेनाओ से रक्षित था |” [ Kincaid Vol I P 260 ]

यह उसकी विजय थी जो उस की प्रति वर्ष २० लाख होनस ( रुपयों की ) आमदनी और सकैडो किलों की प्राप्ति कराती थी | सारा कर्नाटक वज्राघात की तरह उसके लूट खसोट से सर्वनाश हो गया था |

Mr. H. Gary बम्बई के डिपुटी गवर्नर ने इंग्लैंड में ईस्ट इण्डिया कंपनी को एक पत्र लिखा जिस में उसने कर्नाटक के युद्ध का वर्णन दिखाया | यह पत्र हमको महानुभावी अंग्रेज महाशय की समकालिक सम्मति को प्रगट करता है | ३१ अक्तूबर १६७७ का पत्र एक अत्यावश्यक घटना को याद दिलाता है जिसने मुसलमान सेना के हृदयों को हिला दिया और उन्होंने भागने ही में रक्षा समझी |

“ शिवाजी ने इस साल उत्तर कर्नाटक में पूर्ण सफलता प्राप्त करके विजय वंश के दो घरानों को जो कि वंहा के गवर्नर थे, अपने अधिकार में कर लिया है जहां से कि उसने पर्याप्त धन भी प्राप्त किया है और भी छोटे-छोटे राजा जो कि उसके अधीन हो चुके है वह उनसे कर भी लेता है, और उनको धमकियां देता है जो कर देने से इनकार करते है मुसलमान लोग उसके आने की गलत फैमि को सुनकर अपने किले गडो को छोड़ रहे है इस प्रकार उसकी सेना पूर्ण फलीभूत हो रही है | संभवत: यह विश्वास किया जाता है की वह अपने राज्य को सूरत के सिमापर्वती देशो से कामोरिन तक बिना किसी रुकावट के बढ़ावेंगा, आप का एजेंट तथा काउन्सिल यह सलाह देते है की इनकी सेनाये सेंट जोर्ज की तरफ चक्कर लगा रही है और तुरंत ही हम लोगो पर उसका आक्रमण होनेवाला है लेकिन आशा करता हूँ कि परमात्मा दया कि दृष्टी हमारे राज्य के उप्पर रक्खेंगा जिसकी रक्षा के लिए हम परमात्मा से प्रार्थना करते है “ ( सूरत चिट्ठी ३१ अक्तूबर १६७७ लंडन को )

बम्बई २६|२६ सन १६७८ का पत्र इस से अधिक महत्व का है जब कि शिवाजी महाराज कि तुलना प्रसिद्ध रोम विजयी सीजर के साथ कि जाती है जिसने अपनी विजय का प्रसार फ्रांस, जर्मनी तथा ब्रिटेन तक किया | यह भी कहा जाता है कि शिवाजी महाराज सिकंदर से कम निपुण नहीं थे और वह अपने मनुष्यों को पक्षी करके संकेत करते थे | मिस्टर गैरी ने मरहाठो को “ पर वाला मनुष्य “ कहा है |

“ शिवाजी कि सीजर व सिकंदर के साथ तुलना “

शिवाजी महाराज ने महान साम्राज्य स्थापित करने कि प्रबल इच्छा से घोषित कोकण प्रान्त के मजबूत किले रैडीको अंतिम जून के दिनों के बाद त्यागा और अपने २००० हजार घोड़े सवार ४० हजार पैदल लेकर के कर्नाटक कि ओर चल दिए जहाँ कि विजयियो के दो बड़े किले जो कि चिन्दावर कहलाते थे ओर जहाँ बहोत से व्यापारिक भी थे | उसने इस प्रकार विजय की जिस प्रकार से सीजर ने स्पेन में उसने देखा ओर जीता ओर बहोत सा सोना, हिरा, मणि-माणिक आदि जवाहिरातो को लुटा ओर केरल प्रान्त को जीतकर बड़ी योग्यतानुसार शारारिक दशा को देखते हुए अपनी सेनाको बढाया ताकि उसकी भविष्य युद्ध की युक्तिया निर्विघ्नता पूर्वक चल सके | वर्तमान समय में में वह वंकाप्पुर में है, दो अन्य दृढ़ किले जो की उसने इतनी शीघ्रता से ले लिए | उसने ३ माह के अंदर ही मुगलों से ले लिया ओर जो उसने अपने उस समय के सेनापति राजा जैसिंह को दिए | विजापुर के राजा के विरुद्ध थे जो की दक्षिण के राजाओ की राजधानी थी, इस प्रकार वहाँ अधिकारी बन कर ये प्रतिज्ञा की कि जब तक दिल्ली ने पहुँच जाऊँगा अपनी तलवार को म्यान में न रखूँगा ओर औरंगजेब को इसी तलवार से वध करूँगा | मोरो पन्त जो कि उस के सेनापतियो में से एक है मुग़ल राज्य को खूब लुट रहा है ओर राज लोश के धन कि वृद्धि कि है |

शिवाजी-भारतवर्षीय हनीबाल

दूसरे पत्र में शिवाजी की तुलना ठीक Hani ball से की जो उस की अपूर्व नीति को दर्शाता है जिसे मरहाठो राज्य स्थापक ने अपने अंतिम दिनों में किया | उसने बीजापुर को मुगलों के विरुद्ध साहयता दी और मुग़ल राज्य के ऊपर आक्रमण कर के एक प्रकार से कौतुक किया | केवल उसकी साहयता ने ही शिवाजी को सर १६७८ में मुगलों के आक्रमण से बचाया |

मुग़ल सेना ८० हजार घोड़े सवार लेकर शिवाजी को जद से मिटाना चाहते थे | परंतु यह बात प्रसिद्ध है की शिवाजी दूसरा सरटोरियश है और हनीबाल से युद्ध कुशलता में किसी प्रकार कम नहीं है |इस समाचार के थोड़ी देर पश्च्यात सेना में यह खबर फैली की गोलकुंडा के राजा शिवाजी और दक्षिणियो ने मुग़ल के विरुद्ध राजद्रोह रचा है और दलितकू को दक्षिण से निकालने की तैयारी में है शिवाजी ने १००० घोड़े सवार लेकर उसके उप्पर आक्रमण किया | वाही एक ऐसा राजनीतिज्ञ था जिसने की दक्षिणियो व कुतबशाह को अपने विरुद्ध से रोका |

यह बात स्पष्ट है की शिवाजी महाराज संसार के महान सेनापतियो, वीर सिपापियो में से एक थे | अब भी उसे राजनीति, राज-तर्कशास्त्र और राज-प्रभावक गुणों में किसी ने नहीं पाया | छत्रपति शिवाजी केवल मरहटों राज्य के स्थापक ही नहीं थे बल्कि हिंदू राज्य के पुन्ह: स्थापक थे, स्वराज्य के राजछत्र के देने वाले आर्य सभ्यता के रक्षक थे और महराष्ट्र और हिंदू समाज के प्रवर्तक थे |वह उनके महान कार्यों के लिए सिकंदर, हनिबाल, सीजर बा नैपोलियन से तुलना के योग्य है | इस कारण हम शिवाजी महाराज को महान शिवाजी, भारतवर्षीय सिकंदर, भारतवर्षीय हनिबाल,भारतवर्षीय सीजर, व भारतवर्षीय नैपोलियन की पदवी देकर विभूषित करते है |

 

स्वामी दयानन्द एक महान व्यकितत्व…………..

 

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स्वामी दयानन्द एक महान व्यकितत्व………….. -शिवदेव आर्य

इतिहास साक्षी है कि जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से संवेदनशील व्यकितयों के जीवन की दिशा बदल जाती है। हम प्रतिदिन रोगी, वृध्द और मृत व्यकितयों को देखते हैं। हमारे ह्र्दय पर इसका कुछ ही प्रभाव होता है, परन्तु ऐसी घटनाओं को देखकर महात्मा बुध्द को वैराग्य हुआ। पेड़ों से फलों को धरती पर गिरते हुए किसने नहीं देखा, परन्तु न्यूटन ही ऐसा व्यकित था जिसने इसके पीछे छिपे कारण को समझा और ‘गुरुत्वाकर्षण के नियम का आविष्कार किया और प्रतिदिन कितने शिव भक्तों ने शिव मनिदर में शिव की पिंडी पर मिष्ठान्न का भोग लगाते मूषकों को देखा होगा, परन्तु केवल )षिवर दयानन्द के ही मन में यह जिज्ञासाजागृत हुर्इ कि क्या यही वह सर्वशकितमान, सच्चे महादेव हैं। जो अपने भोजन की रक्षा भी नहीं कर सकते हैं। इस घटना से प्रेरणा लेकर किशेार मूलशंकर सच्चे शिव की खोज के लिए अपनी प्यारी माँ और पिता को छोड़कर घर से निकल पड़े। मूलशंकर सच्चे शिव की खोज में नर्मदा के घने वनों, योगियों-मुनियों के आश्रमों, पर्वत, निर्झर, गिरिकन्दराओं में भटकता रहा। अलखनन्दा के हिमखण्डों से क्षतविक्षत होकर वह मरणासन्न तक हो गया परन्तु उसने अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं छोड़ा। चौबीस वर्ष की आयु में पूर्णानन्द सरस्वती से संन्यास की दीक्षा लेकर मूलशंकर दयानन्द बन गए। अन्तत: इन्ही प्रेरणा से वे प्रज्ञाचक्षु दण्डी विरजानन्द के पास पहुँचे और तीन वर्ष तक श्री चरणों में ज्ञानागिन में तपकर गुरु की प्रेरणा से मानवमात्र के कल्याण एवं वेदों के उ(ार के लिए तथा अज्ञान-अन्धकार और समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए कार्यक्षेत्र में उतर पड़े। उस समय भारत में मुगल साम्राज्य का सूर्य अस्त हो गया था। और अंग्रेजों का आधिपत्य सम्पूर्ण भारत पर हो चला था। स्वामी दयानन्द इस विदेशी प्रभुत्व से अत्यधिक क्षुब्ध थे। जिसकी अभिव्यकित सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुल्लास में हुर्इ। उन्होंने लिखा कि देश के लोग निषिक्रयता और प्रमाद से ग्रस्त हैं। लोगों में परस्पर विरेाध व्याप्त है और विदेशियों ने हमारे देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ है इसलिए देशवासियों को अनेक प्रकार के दु:ख भोगने पड़ रहे हैं। यह ऐसा समय था जब देश मे ंसर्वत्र अज्ञान का अन्èाकार व्याप्त था। जनमानस अन्धविश्वासों और कुरीतियों से ग्रस्त था। अंग्रेजी शासकों ने भारतीय सभ्यता और संस्Ïति को समाप्त करने के लिए मैकाले की शिक्षानीति को लागू कर भारतवासियों में हीन भावना का संचार कर दिया था। निराश देशवासी पशिचमी राष्ट्रों की भौतिक समृध्दि की चकाचौंध से प्रभावित होकर अपने गौरवशाली, अतीत, धर्म, और जीवन के नैतिक मूल्यों से विमुख हो रहे थे। इसलिए उन्हें पाश्चात्य जीवन प्रणाली के अनुकरण में ही अपना हित मालूम होता था। ऐसी विकट परिसिथतियों में महर्षि ने आर्य समाज की स्थापना करके जर्जर निष्प्राण हिन्दू समाज में प्राण फूंकने का उसकी धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं सांस्Ïतिक चेतना को उदबु( करने का प्रयास किया। नारी जाति की दुर्दशा को देखकर उनमें शिक्षा का प्रसार करने तथा अछूतों को हिन्दू समाज की मुख्यधारा में लाने और इस्लाम एवं र्इसाइयत में हिन्दुओं के धर्मान्तरण को रोकने का महत्वपूर्ण कार्य किया। )षि के जीवन का मुख्य उददेश्य वेदों का उत्तर और उसका प्रचार-प्रसार करना था उनका कहना था कि वेद ज्ञान भारत तक ही सीमित न रहे अपितु सम्पूर्ण विश्व में उसका प्रचार हो। उनका कहना था कि वेदों का ज्ञान किसी एक धर्म, जाति, सम्प्रदाय या देश के लिए नहीं है अपितु सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए है। इसीलिए उन्होंने ”Ïण्वन्तो विश्वमार्यम अर्थात सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाने का सन्देश दिया है हमें उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए। आओं! हम सब मिलकर उनके द्वारा दर्शाये मार्ग का अनुगमन कर स्वामी जी की कमी को पूर्ण करने का प्रयास करें।

Pandit Lekh Ram: A Great Gem Of Arya Samaj

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Pandit Lekh Ram: A Great Gem Of Arya Samaj

There had been many shining stars who worked for the propagation of the philosophy and principles of Arya Samaj that was founded by the great visionary Maharshi Dayanand Saraswati in 1875. Pt Lekhram is one of the three contemporaries – Swami Shraddhanand who founded Gurukul kangri, Pt. Guru Datt who wrote such matchless books that found a respectable place in Oxford University, DharamVeer Pt. Lekhram who wrote Kuliyat Arya Musafir that became the most authentic document on religion.

Pt. Lekhram was born on 8th.Of Chaitra 1915 in the village Saiyad Pur in the Jhelum district of Punjab. His father was Tara Singh and the mother was Bhag Bhari.

He was influenced by the writings of “Munshi Kanhaiya Lal Alakhdhari” and came to know about Maharshi Dayanand Saraswati and Arya Samaj. He founded Arya Samaj at Peshawar. He also published a paper “Dharmopdesh”.

He resigned from his government job and devoted himself whole heartedly to writing and speaking for the propagation of the the ideals of Arya Samaj and Vedic Dharma. He became a preacher of Arya Pratinidhi Sabha Punjab. He also vowed to write the authentic life history of Maharshi Dayanand Saraswati. For this, he traveled far and wide and produced a detailed account of the life of the founder of Arya Samaj. He established his view point so forcefully that nobody dared to come forward to oppose.