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‘क्या हमारा अब तक का जीवन व्यर्थ चला गया है?’

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ओ३म्

प्रेरकप्रसंग

क्या हमारा अब तक का जीवन व्यर्थ चला गया है?’


हम अपने सारे जीवन भर यह भूले रहते हैं कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है। हम संसार में क्यों आये हैं? न हमें इसके बारे में माता-पिता से कोई विशेष ज्ञान मिलता है और न हि हमारे आचार्य व अध्यापक ही विद्यालयों में इस विषय के बारे में पढ़ाते या बताते हैं। माता, पिता व आचार्य का उद्देश्य यही होता है कि हम खा-पी कर स्वस्थ बने और शिक्षा पाकर अच्छा रोजगार प्राप्त कर लें और विवाह, सन्तान, धन, सम्पत्ति, सुविधापूर्ण आवास, कार आदि खरीद कर सुखी जीवन व्यतीत करें। यही आम मनुष्य के जीवन का उद्देश्य उसकी जीवन शैली को देखकर विदित होता है। कभी कोई विचार ही नहीं करता कि क्या यही वास्तविक जीवन का उद्देश्य है? महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में इस प्रश्न पर विचार किया था। उन्हें ज्ञात हुआ था कि नहीं, जीवन का उद्देश्य यह नहीं है अपितु ज्ञान की प्राप्ति से ईश्वर का साक्षात्कार और सद्कर्मों से जन्म मरण से मुक्ति प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य है।

 

प्रिंसीपल श्री ज्ञानचन्द्र जी हिसार आर्य समाज के प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित विद्वान थे। आप अत्यन्त अध्ययनशील व्यक्ति थे। उनके जीवन में अनेक विशेषतायें थीं। आपने सन् 1939 के हैदराबाद की मुस्लिम रियासत मे बहुसंख्य हिन्दु प्रजा पर वहां के निजाम और उनके अधिकारियों के धार्मिक भेदभाव एवं अत्याचारों के विरूद्ध “‘राष्ट्रीय आर्य सत्याग्रह में भाग लिया था और जेल भी गये थे। भारत के प्रथम उपप्रधान मंत्री एवं गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस सत्याग्रह की प्रशंसा की थी। आर्य जगत् के विद्वान और आर्य गजट पत्र के पूर्व सम्पादक चौधरी वेदव्रत, स्वामी ओमानन्द जी तथा प्रो. उत्तम चन्द शरर जेल में आपके साथ थे।

 

प्रिंसीपल ज्ञान चन्द्र जी ने संन्यास लेने का निर्णय किया। विचार करने के बाद उन्होंने आर्य जगत् के प्रसिद्ध विद्वान एवं 300 से अधिक ग्रन्थों के लेखक श्री राजेन्द्र जिज्ञासु, अबोहर से कहा कि वह कुछ दिन उनके पास अज्ञातवास के लिए आना चाहता हैं। प्रवास में वह कुछ चिन्तन, मनन व स्वाध्याय करना चाहते हैं, परन्तु वहां व्याख्यान नहीं देंगे। जिज्ञासु जी ने उन्हें आमंत्रित किया और उनके निर्णय की प्रशंसा की। अबोहर में उनके निवास व अन्य सभी प्रकार के प्रबन्ध कर दिये गये। प्रिंसीपल महोदय अबोहर आये और निवास किया। यहां उनके दर्शन करने सायंकाल के समय अनेक श्रद्धालुजन आते रहे, अतः प्रिंसीपल महोदय द्वारा उन्हें उपदेश किया जाता रहा। यहां प्रिंसीपल महोदय ने जिज्ञसु जी को आर्य जगत् के नाम अपनी ओर से एक सन्देश लिपिबद्ध कराया जिसका प्रकाशन कर स्थानीय जनता में वितरित कर दिया गया। एकदिन जिज्ञासुजी से आपने कहा कि आप मुझे स्वाध्याय के लिए उपयोगी कोई आध्यात्मिक ग्रन्थ दीजिये। इसका पालन कर जिज्ञासु जी ने उन्हें वेदभाष्यकार पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार का सामवेद भाष्य ले जाकर उन्हें दिया। आपने भक्तिभाव से सामवेद का अध्ययन किया। इसके कुछ दिन बाद जब जिज्ञासु जी प्रिंसीपल ज्ञान चन्द्र जी से मिले तो आपने उनसे कहा कि जिज्ञासु जी ! मेरा तो अब तक का सारा जीवन ही बेकार ही गया।  इसके आगे वह बोले कि मैंने आज तक प्रभु की अमरवाणी वेद का स्वाध्याय कभी नहीं किया। बस अपवाद रूप में ही कुछ वेद मन्त्र कभी देखे पढ़े। वेदों की महत्ता को सुनता तो अवश्य रहा हूं। पहली बार ही आपने यह भाष्य लाकर मुझे अमृतपान करवा दिया। जिज्ञासुजी यह शब्द सुनकर हैरान हो गय। वह जानना चाह रहे थे कि इसके पीछे उनकी भावना क्या है। जिज्ञासु जी बताते हैं कि वह प्रिंसीपल ज्ञान चन्द्र जी के छोटे भाई मास्टर रत्नचन्द जी के शिष्य रहे हैं। बाद में वह श्री ज्ञानचन्द्र जी के भी शिष्य बने। उनका जिज्ञास जी से बहुत स्नेह था और अपने इस शिष्य का नाम न लेकर उन्हें हमेशा जिज्ञासु जी कहकर पुकारते थे। यह उनका बड़पन्न था। प्रिसीपल साहिब के देश भर मे बड़ी संख्या में समर्पित भक्त व प्रेमी थे, उन्हें व सेठ एवं लीडरों को छोड़कर वह उन एक साधारण विप्र के यहां अज्ञातवास हेतु आये थे। अपने जीवन के बेकार होने की बात कहने के बाद उन्होंने सामवेद भाष्य को खोलकर एक मन्त्र और उसका अर्थ पढ़कर सुनाया। मन्त्र में कहा गया है कि इस जन्म में जहां हम छोड़ते हैं आगे की यात्रा वहीं से आरम्भ होती है जैसे कि मां जब बच्चे को दूध पिलाती है तो दाएं स्तन का पान करके वह बच्चा बाएं स्तन का पान करने लगता है। बाएं का पान करते समय वह नये सिरे से यह क्रिया नहीं करता। जितना दूध पी चुका है अब उससे आगे पीता है। जितना पेट पहले भर चुका था, वह तो भर चुका, अब तो वह और पी कर बची भूख को शान्त करता है। उन्होंने आगे कहा कि अब वह शेष जीवन वेद का ही स्वाध्याय करेगें और इस जीवन में जो न्यूनता रहेगी वह अगले जन्म में पूरी करेंगे। उन्होंने तब एक पंक्ति बोली थी जिसका आशय था कि ईश्वर तेरी वेदवाणी है अनमोल, इसमें अमृत भरा हुआ है विभोर।

 

यह रहस्य सामवेद के एक मन्त्र के भाष्य ने खोला। श्री ज्ञान चन्द्र जी ने जिज्ञासु जी को कहा कि यदि उन्हें पहले यह बात समझ में जाती तो वह बहुत कुछ पाकर आगे निकल जाते। श्री ज्ञानचन्द्र जी देश भर में उपनिषदों की कथा करने के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। उनकी उपनिषदों की कथायें बहुत रोचक, प्रेरक व चिचारोत्तेचक होती थी। उनकी भाषा पंजाबी उच्चारण बहुल थी परन्तु उनका चिन्तन गहन था व उनके विस्तृत अध्ययन का प्रभाव श्रोताओं पर जादू का सा होता था।

 

प्रिंसीपल ज्ञानचन्द्र ने जो बात कही कि मेरा तो अब तक का सारा जीवन ही बेकार गया। इसकी जानकारी देकर उन्होंने वेदाध्ययन को उन्होंने अमृत के तुल्य बताया। इस प्ररेणादायक प्रसंग से हम व सभी लोग लाभ उठा सकते हैं। हमने आरम्भ में महर्षि दयानन्द जी के जीवन के उद्देश्य विषयक अन्वेषण और परिणामों का उल्लेख किया है। हमने भी लगभग 40 वर्षों से वेद एवं वैदिक साहित्य के अध्ययन में व्यतीत किए हैं। हम इस प्रसंग में यह भी जोड़ना चाहेंगे कि महर्षि दयानन्द का विख्यात ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश संसार के धार्मिक साहित्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। प्रत्येक व्यक्ति को उसका अध्ययन और उसकी सत्य शिक्षाओं पर आचरण कर अपना जीवन सफल करना चाहिये। जिस सामवेद भाष्य की चर्चा उपर्युक्त पंक्तियों में की गई हैं, वह वैदिक साहित्य के प्रकाशक श्री घड़मल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, ब्यानिया पाडा, हिण्डोनसिटीराजस्थान से उपलब्ध है। पत्र भेजकर डाक से मंगाया जा सकता है। हमारा अनुभव है कि प्रिंसीपल ज्ञानचन्द्र जी का अपने और हम सभी के जीवन के बारे में निष्कर्ष पूरी तरह से यथार्थ है। इसे लेख की पंक्तियों से यदि पाठको को कुछ लाभ होता है तो हमारा श्रम सफल होगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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