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‘प्रेरणादायक जीवन: वैदिक विद्वान पं. हीरानन्द’

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ओ३म्

कहां गये वो लोग, कैसे होते थे हमारे पूर्वज, धर्मात्मा व महात्मा

प्रेरणादायक जीवन: वैदिक विद्वान पं. हीरानन्द

संसार में सुर तथा असुर अर्थात् देवता और राक्षस सदा से होते आये हैं। असुरों के प्रति सामान्य लोगों का भाव वितृष्णा का होता है परन्तु सत्पुरूष वा सुर संज्ञी पुरूषों के प्रति हृदय में आदर व श्रद्धा का भाव देखा जाता है। शायद यही कारण है कि दुष्ट पुरूष भी अपने काले कारनामों को छुपाते हैं और बाहर से अच्छा दिखने व दिखाने का प्रयास करते हैं। आज स्वाध्याय करते हुए हमने एक घटना पढ़ी जिसका हमारे मन पर चमत्कारिक प्रभाव हुआ। मन में विचार आया कि इसे अन्यों तक भी पहुंचाना चाहिये। इसलिए हमारे ऋषियों ने वैदिक सिद्धान्त बनाया है, स्वाध्यायान्मा प्रमदः अर्थात् किसी को कभी भी स्वाध्याय से प्रमाद नहीं करना चाहिये अर्थात प्रतिदिन नियमित स्वाध्याय करना चाहिये। स्वाध्याय करने वाले लोगों के जीवनों में नाना चमत्कार देखे जाते हैं। यही उन्नति व सफलता की भी मूल मन्त्र है। हमें लगता है कि यदि आज हम स्वाध्याय न करते तो यह घटना हम न पढ़ते और न यह पंक्तिया ही लिखी जाती।

 

मानव की प्रकृति जीवात्मा के स्वाभाविक गुणों से जुड़ी हुई है। इसी कारण से संसार के सभी लोग अच्छी बातों व गुणों को पसन्द करते हैं और अवगुणों के प्रति वितृष्णा रखते हैं। यह भी सत्य है कि स्वयं बुरे काम करने वाले व्यक्ति नहीं चाहते कि उनका परिवार का कोई व्यक्ति बुरा काम करे। मनुष्यों का यह स्वभाव देखा जाता है कि गुणी व सदाचारी धर्मात्माओं के प्रति वह आदर व श्रद्धा भाव रखते हैं, भले ही वह स्वयं में अच्छे हों या न हों। बुरा व्यक्ति भी अच्छे व्यक्ति का लोहा मानता है। सद्गुणों वाले व्यक्ति के प्रति लोगों में एक अलौकिक आकर्षण होता है। यही कारण हैं कि हम और हमारा समाज महर्षि दयानन्द, मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगश्वर श्री कृष्ण, आचार्य चाणक्य, महर्षि बाल्मिीकी, गुरू रविदास, आर्यराज पृथिवीराज चैहान, वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरू गोविन्द सिंह, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हंसराज, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री आदि के प्रति आदर व श्रद्धा का भाव रखते हैं।

 

आर्य जगत के प्रसिद्ध विद्वान पं. राजेन्द्र जिज्ञासु जी का जन्म मालोमहे जिला स्यालकोट, पंजाब सम्प्रति पाकिस्तान में हुआ था। उनके गांव में एक वैदिक विद्वान पं. हीरानन्द जी यदाकदा वेदों के प्रचार के लिए आते-जाते रहते थे और महीनों वहां निवास करते थे। गांव के लोगों को पता था कि इन पण्डित जी ने अपने विद्यार्थी जीवन में काशी में पढ़ते हुए अपने गुरूजनों के कहने पर महर्षि दयानन्द सरस्वती पर ईंटे व पत्थर फेंके थे और उन्हें अपमानित करने का प्रयास किया था। यह कार्य उन्होंने अपने बाल्य जीवन में किया था। उस समय उन्हें उचित-अनुचित का ज्ञान नहीं था। अध्ययन समाप्ति करने पर वह आर्य समाज के सम्पर्क में आये तो महर्षि के गुणों के दीवाने हो गये और उन्हीं की शिक्षाओं, वैदिक मान्याओं व सिद्धान्तों के प्रचार को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया।

 

एक बार की बात है कि पण्डित हीरानन्द जी आर्य समाज, मालोमहे में आये हुए थे। आर्य विद्वान राजेन्द्र जिज्ञासु जी मालोमहे में रहते थे और वह नियमित रूप से कई बार आर्य समाज जाया करते थे जो कि उनके निवास के समीप ही था। जिज्ञासु जी सायंकल समाज मन्दिर में खेलने के उद्देश्य से पहुंचे तो वहां चारपाई पर पंडित जी को बैठा हुआ पाया। जिज्ञासु जी मक्की के दाने चबा रहे थे। यही उन दिनों आजकल की मिठाईयों के समान लोकप्रिय पकवान हुआ करते थे। पण्डितजी को देखकर आपने उनसे पूछा कि क्या वह मक्की के दाने चबायेंगे? उन दिनों पण्डित जी की अवस्था 80 वर्ष थी और उनके मुंह में दांत नहीं थे। इसलिए पण्डित जी ने कहा कि मेरे दांत नहीं है। यदि तुम इन्हें कूट-पीस कर ले आओ तो मैं इन्हें खा सकता हूं। जिज्ञासु जी तुरन्त घर आये और मक्की के दानों का पाउडर बना कर ले गये जिन्हें पण्डित जी ने बड़े प्रेम से ग्रहण किया और अपनी किंचित क्षुधा निवृत्ति की।

 

अगले दिन आर्य समाज मन्दिर में एक सज्जन आये और पण्डित जी को उनके घर चल कर रात्रि भोजन ग्रहण करने का निवेदन किया। पण्डित जी ने अपनी सहमति दी। आतिथेय महोदय ने पूछा कि पूर्व रात्रि को उन्होंने किसके यहां भोजन किया था। पण्डित जी ने पूर्व रात्रि को किसी के यहां भोजन नहीं किया था। कोई उन्हें भोजन के लिए कहने आया ही नहीं था। इस कारण पण्डित जी को उस रात्रि भूखा ही रहना पड़ा था। सच्चे महात्मा होने का प्रमाण देते हुए उन्होंने कहा कि कल उन्होंने मंत्री जी के पुत्र के यहां भोजन किया था। पं. राजेन्द्र जिज्ञासु जी के पिता जी को वहां लोग मंत्रीजी कह कर पुकारते थे। उस आतिथेय सज्जन ने पं. हीरानन्द जी से पूछा कि उसने आपको भोजन में क्या-क्या व्यंजन परोसे थे। अब पण्डित जी के लिए कुछ कठिनाई पैदा हो गई। महात्मा असत्य तो बोल नहीं सकते। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा कि वह मेरे लिए मक्की की दाने कूट कर ले आया था। वह आतिथेय सारी बात समझ गये। सारे समाज में इस बात की चर्चा फैल गई। पण्डित हीरानन्द जी के सरल स्वभाव से वहां के सभी लोग परिचित थे। सबको इस घटना को सुनकर पश्चाताप हुआ। पण्डित जी तो हर स्थिति में शान्त व आनन्दित रहा करते थे। इसी प्रकार की घटनायें महर्षि दयानन्द के साथ भी जीवन में कई बार हुईं। अनेक अन्य आर्य विद्वानों व महात्माओं के साथ भी प्रायः ऐसा होता आया है।

 

जब यह घटना घटी, उन दिनों श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी मात्र 12 वर्ष के किशोर थे। उनके कोमल हृदय पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा। जिज्ञासु जी लिखते हैं- तब मैं इस घटना से इतना प्रभावित हुआ कि मेरे हृदय पर यह छाप पड़ी कि हमारे पण्डित जी बड़े पुण्यात्मा, महात्मा, तपस्वी त्यागी पुरूष हैं। भूख प्यास पर इन्होंने विजय प्राप्त कर रखी है। यह सच्चे धर्मात्मा है। पूजनीय हैं। इस घटना के उल्लेख के बाद जिज्ञासु जी बड़ी मार्मिक टिप्पणी करते हैं- युग कितना बदल गया है। तब त्याग से व्यक्ति बड़ा समझा जाता था, अब साधनों से बाबा जी की प्रतिष्ठा है। (त्याग, तपस्या, ब्रह्मचर्य रूपी) साधना से नहीं। नेता भी तभी नेता बनता है जब दो चार गाडि़यां आगे पीछे घूमती हों।

 

आज पं. हीरानन्द जी जैसे महात्माओं का समाज में अभाव हो गया है। आज हमारे महात्माओं के भी दोहरे चरित्र अनुभव में आते हैं। उनके मन में कुछ और होता है और वाणी में कुछ और। भक्तों को भी यही कृत्रिम महात्मा पसन्द आते हैं। तभी तो आज धार्मिक सत्संगों में हजारों लोगों की भीड़ दिखाई देती हैं जहां महात्मा जी अपने सेवक-सेविकाओं के साथ आते हैं और दो-तीन दिनों के सत्संगों के ही लाखों रूपये बटोरते हैं। कुछ धार्मिक टीवी चैनल भी कंचन-कांचनी वाले महात्माओं के प्रवचनों से भरे होते हैं। लाखों रूपये व्यय करके यह अपना प्रचार करते हैं। हम अपने अनुभव से कहना चाहते हैं कि जो ज्ञान सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ को पढ़कर कुछ ही दिनों में प्राप्त होता है वह पूरा जीवन लगाकर भी इन सत्संगों व इसके भक्तों को प्राप्त नहीं होता। यहां ज्ञान ग्रहण नहीं किया जाता, मात्र गुरू के प्रति अन्ध-भक्ति व आस्था उत्पन्न कराई जाती है। गुरू कैसा भी हो, हर हाल में उसकी वन्दना व गुणगान करना है। हमारे पं. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने सारा जीवन स्वाध्याय, लेखन व प्रवचनों में लगाया है। 300 से अधिक ग्रन्थ लिखकर उन्होंने एक इतिहास बनाया है। वह सही मायनों में एक सच्चे महात्मा है। अपने उनके दर्शन व प्रवचन सुनकर व इससे भी अधिक पत्र पत्रिकाओं में उनके लेखों व पुस्तकों को पढ़कर अपने जीवन में किंचित लाभ उठाया है और उससे धन्य हुए हैं। अपने ग्रन्थ स्मृतियों की यात्रा ग्रन्थ में पं. हीरानन्द जी का संस्मरण लिखकर जिज्ञासु जी ने पं. हीरानन्द जी को भी विख्यात व अमर कर दिया है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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