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अज्ञान से ज्ञान की ओर – आचार्य शिवकुमार आर्य

जो एकत्व भाव से सभी को देखता है, उसको मोह तथा शोक नहीं होता है-

यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः।

तत्र को मोहः कः शोकऽएकत्वमनुपश्यतः।।

यजु. 40-7

पदार्थ – (यस्मिन्) जिसमें-जिसके हृदय में। (सर्वाणि भूतानि) सभी प्राणी (आत्मा एव) आत्मा ही (अभूत) हैं (विजानतः) जानते हैं (तत्र) उसके हृदय में (कः मोहः) कैसा मोह (कः शोकः) कैसा शोक (एकत्वम्) एकता को (अनुपश्यतः) देखने वाले को।

अर्थ- जो सभी प्राणियों को आत्मा ही समझकर सब में एक जैसा अनुभव करता है, ऐसे व्यक्ति को कभी कोई मोह तथा शोक नहीं होता है। इन दोनों मन्त्रों में एक क्रम का वर्णन किया हैं। मनुष्य और अन्य प्राणियों में तीन प्रकार के रोग होते हैं। पहले का नाम है विचिकित्सा, दूसरे का नाम है मोह और तीसरे का नाम शोक है, परन्तु इन सभी दुःख निकायों का एक ही उपाय या समाधान है, जिसे कहते हैं समत्व। समत्व को व्यवहार के स्तर लाने के लिए प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार तथा यथायोग्य सभी के साथ व्यवहार करना चाहिए।

इन तीन प्रकार की व्यावहारिक भूलों के कारण मनुष्यों को अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। इसी प्रकरण को योग शास्त्र में बड़े अच्छे प्रकार से स्पष्ट किया है-

‘‘मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां-

सुख-दुःख पुण्यापुण्यविषयाणाम् भावनातश्चित्तः प्रसादनम्’’

– योग. द. समाधिपाद-33

इस योगदर्शन के सूत्र में चित्त को प्रसन्न करने के चार उपाय बताये हैं। सुखी जनों को देखकर या मिलकर प्रसन्न होना तथा दीन-दुखियों को देखकर करुणा के भाव रखना चाहिये और इनको सहयोग प्रदान करना चाहिए। इसी प्रकार से सज्जन मनुष्य या पुण्यात्माओं में मुदिता (हर्ष) के भाव रखने चाहिये। चौथा है अपुण्यात्मा, अर्थात् दुष्ट, अधर्मी। उसके प्रति सज्जन जनों को सदैव उपेक्षा के भाव रखने चाहिये, क्योंकि दुष्ट व्यक्ति से दोस्ती तथा दुश्मनी-दोनों ही दुःखदायी होती हैं। इसी प्रकार से जो प्रतिपाद्य विषय है, उसमें एकता के स्थान पर अनेकता आती है, क्योंकि भिन्न-भिन्न वस्तु व व्यक्ति के स्वभाव अथवा गुणों को देखकर उसी प्रकार की वृत्ति बदलती है, तभी मानव सुखी व प्रसन्न चित्त रह सकता है, जब वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप को देखे। सभी को सम दृष्टि से देखना तो सदैव अशान्ति का कारण होगा। वस्तुतः वेदमन्त्र प्रतिपादित ‘‘एकत्व’’ किसी अन्य बात को ही कह रहा है। जिस एकत्व के भाव से लोग मोह, शोकादि सभी अन्तर विकारों से शान्त या संयत हो जाते हैं, वह एकत्व क्या है? यह सर्वाधिक विचारणीय बिन्दु है। जो भौतिकवाद तथा आध्यात्मवाद के विषय को समता में लाने तथा अनेकता में ही एकता को स्थिर करने का नाम एकत्व या समत्व है। जैसे एक सन्तरे के फल में विभिन्न प्रकार के तत्त्व अथवा रसों के होने पर भी समत्व है, इसी प्रकार अन्य पदार्थों में अनेकता में एकता है। मानव शरीर में दस इन्द्रियाँ तथा चार अन्तःकरण हैं। मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार ये सभी मिलकर आत्मिक शान्ति को एक रूप में प्रकट करते हैं। मन तथा इन्द्रियों की अनेक क्रियाएँ एक ही सुखानुाूति को जन्म देती हैं तथा भिन्न-भिन्न, क्षणिक सुख बड़े सुखों में परिणित हो जाते हैं। इसी तरह समस्त जीवन के कर्म एक फल में समाहित हो जाते हैं। आत्मवत्- जो देखने का दृष्टिकोण है, वह यह नहीं कहता कि अच्छी-बुरी वस्तु या व्यक्ति को यथार्थ में मत देखो। आत्मवत् दर्शन का अभिप्राय है कि सभी जड़-चेतन व आत्मा-परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानो तथा जानकर विषमता को हटाकर समता स्थापित करो। भिन्न-ािन्न पदार्थों का अपना-अपना एकत्व या समत्व है। उसी प्रकार से स्वयं आत्म तत्त्व की भी समसन्तुलन व एक अवस्था है। जो पदार्थ अपनी सच्ची शन्ति को भंग न कर सके और उस वस्तु के क्षणिक संसर्ग सुख के वशीभूत न हों, वह यथार्थ में एकत्व का स्वरूप है। समत्व को लाने के लिए इस आत्मा को न जाने कितने जन्म धारण करने पड़ेंगे। क्योंकि भौतिक वस्तुओं में तो सदैव एकत्व व समानता होती ही नहीं है, क्योंकि इन पदार्थों में एक रूपता सदैव रहती ही नहीं। ये सर्वदा बदलते रहते हैं। जैसे-शीत काल में वायु शीतल अनुभव होती है, परन्तु वही वायु ग्रीष्म ऋतु में गर्म प्रतीत होती है। जैसे व्यवहार में अभी एक व्यक्ति हमारा मित्र है, किन्तु वही व्यक्ति कुछ काल बाद हमारा दुश्मन बन जाता है। जिस भोजन से हमें जीवन मिल रहा है, वही भोजन अब विषम हो गया है और नाना प्रकार के रोग उत्पन्न कर रहा है। इस पंचभौतिक शरीर को कितने प्रयत्नों से पाला-पोषा था, किन्तु अब तो इसने जीवन जीने से स्पष्ट मना कर दिया। जो सभी सांसारिक सुखों का अधिकरण था, वही अंग-प्रत्यंग से शिथिल हो चुका है। वह अब नवीनीकरण चाहता है। वह सभी सुखों के स्थान पर दुःख देना प्रारभ कर देता है, अतः ध्यान देने योग्य बात यह है कि सुख-दुःख तथा शान्ति-अशान्ति कोई वस्तुनिष्ठ नहीं है। इनमें तो एकान्तिक नियम स्थापित किया ही नहीं जा सकता है, जिसके लिए वेद में उपदेश दिया जा रहा है। वस्तुतः कोई संशय तथा रोग व्यर्थ नहीं है, किन्तु उनका जो उत्पन्न होना है, उसका समुचित उपाय करना आवश्यक है। इसके आगे एक और समस्या है, उसे मोह कहते हैं। मोह और प्रेम के अन्तर को जानना भी बहुत जरूरी है, क्योंकि इनके मौलिक भेद को जाने बिना सन्देह दूर नहीं हो सकता है, प्रायः मोह के दीवाने लोग प्रेम को अन्यत्र स्थानों पर घसीटते हैं और मोह पिपासा को तृप्त करते हैं, किन्तु सच्चे प्रेम के अभाव में सच्ची शन्ति नहीं मिलती है। आधुनिक कवियों ने मोहमयी वासनाओं को प्रेम के रूप में प्रस्तुत किया है। यह सच्चे प्रेम के साथ घोर अन्याय है। मोह तथा प्रेम में मौलिक अन्तर है, प्रेम निःस्वार्थ विवेकपूर्वक होता है, किन्तु मोह किसी विशेष स्वार्थयुक्त तथा विवेकशून्य होता है। ‘‘मुह-वैचित्ये’’ इस धातु से मोह शद सिद्ध होता है। इसका अर्थ है चित्त का विचलित होना या विभ्रम होना। इसी प्रकार ‘‘प्रीञ्-तर्पणे’’ धातु से प्रेम शद सिद्ध होता है, जिसका अर्थ होगा- तृप्ति, तो इन दोनों शदों के पृथक्-पृथक् अर्थ हैं। जिसमें क्षणिक सुख है अपितु दुःख अधिक है, उसे मोह कहते हैं। दूसरा है प्रेम, जो स्थायी सुख तथा समत्व का कारण है। क्योंकि मोह का उत्पत्ति स्थान स्नेह है। शास्त्र कहता है कि ‘‘नास्ति मोहसमासवः’’ -महाभारत, अर्थात् मोह के समान कोईाी मादक द्रव्य नहीं है। जैसे अहंकार का मनुष्य के ऊपर प्रकोप होता है, तब वह विवेक शून्य हो जाता है, उसी प्रकार जब मनुष्य के ऊपर मोह का आक्रमण होता है, तब भी वह मोहान्धकार में अन्धा हो जाता है। एक माँ अपने अबोध बच्चे के दोषों को छिपाती है, क्यों? जिससे उसका पिता उसे दण्ड न दे सके। यह उस माँ का मोह संयुक्त अज्ञान है। उसी मोह के साथ अन्य दोष भी जुड़ जाते हैं। धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों के प्रति अत्यन्त मोह था। जिससे वह सत्यासत्य का निर्णय न कर सका और एकाीषण युद्ध का कारण बना। ‘‘मोहः पापीयान्’’ की उक्ति यहाँ सार्थक सिद्ध होती है। इस मोह की कई प्रकार की शाखाप्रशाखायें होती हैं। जैसे माता-पिता, पति-पत्नी भाई-बहन, पुत्र, पौत्र, धन, धान्य तथा भवन-भोजनादि। इसके अतिरिक्त शरीर तथा प्राणों का मोह अतीव प्रगाढ़ होता है। जिस शरीर में आत्मा ने लबे समय तक वास किया है, उसके प्रति अब अत्यधिक मोह जाग्रत हो जाता है, जबकि जिसका संयोग हुआ है, उसका वियोग भी अवश्यंभावी है, क्योंकि-

जरा मृत्यु हि भूतानां खादितारौ वृकाविव।

बलिनां दुर्बलानाञ्च हृस्वानां महतामपि।।

ये बुढ़ापा तथा मृत्युरूपी दो भेड़िये हैं, जो निरन्तर मानव शरीरों को खाये जा रहे हैं। बलवान, दुर्बल या छोटा-बड़ा कोई भी हो, सभी को ये खाने वाले हैं। मनुष्य की अति आसक्ति प्रायः पदलिप्सा होती है, जिसे शास्त्रों में लोकेषणा के रूप में उद्धृत किया है। मोह के लघु बन्धनों को छोड़ने के बाद यह लोक प्रतिष्ठा का मोह बाँध ही लेता है, जिससे बड़े-बड़े त्यागी तपस्वी लोग भी नहीं बच पाते हैं। विषय को विषाद करने के लिए एक कवि ने रूपक अलंकार के रूप में एक सुन्दर आयान दिया है। वह यहाँ प्रस्तुत है- आत्मा जब इस शरीर में आती है, तभी से पति-पत्नी सन्तान, चलाचल सपत्ति और पद के मोह में फँस जाता हैं उसकी स्थिति एक भँवरे के समान होती है, जो एक कमल की सुगन्ध के सुगन्घि पर मुग्ध हो जाता है और उसी फूल में अपना आवास बना लेता है। प्रतिदिन के गमनागमन की परेशानी को दूर करने के लिए उस फूल में बैठ जाता है, किन्तु रात्रि के समय पुष्प पराग के अन्दर बैठकर यहविचार करता है कि-

रात्रिगमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम्।

भास्वानुदिष्यति हसिष्यति पंकज श्रीः।।

इत्थं विचिन्तयति शोकगते द्विरेफे।

हा हन्त, हन्त! नलिनीं गज उज्जहार।।

अर्थात् वह मनोरथ करता है कि रात्रि बीतेगी और सुन्दर प्रभात होगा, सूर्य उदित होगा, कमल खिलेंगे लेकिन उस भँवरे के मनोरथ पर जो तुषारापात हुआ, वह अत्यन्त दुःख भरा था। रात्रि के समय वहाँ एक जंगली हाथी आया और उसने जल पीकर जो उत्पात किया वह शदों में कहना कठिन है। उस मदान्ध गज ने सरोवर स्थित उस कमल वन को कुचल डाला और उन्हीं जिस कमल पुष्प में भौंरा बैठा हुआ था, वह भी कुचला गया। अतः इस मानव की दशा वैसी ही होती है, जैसे कि उस मूर्ख भौंरे की हुई। इसीलिए मोह के स्वार्थ रूपी अन्धकार से निकलकर ‘प्रेम’ प्रकाश में आना चाहिये, जिससे संसार के बन्धन छूट सकें। इति।

-महर्षि कपिल आर्ष गुरुकुल (वैदिक आश्रम), कोलायत, बीकानेर, राज. चलभाष- 9413144029, 9166323384

टूटे पुतले-एक कहानी – महेन्द्र आर्य

मुन्नी अपनी नयी गुड़िया से बहुत खुश थी। वह अपनी गुड़िया को नए-नए कपड़े पहनाती, उसके बाल बनाती और उसे अपने पास सुलाती। इतना ही नहीं उसने अपनी सहेली के गुड्डे के साथ उसका याह ही रचा डाला। अपने सुख-दुःख की बातें गुड़िया से करती। कभी गुस्सा आता तो वह गुड़िया को डांट भी देती, हाँ, बाद में उसे सॉरी बोल देती।

एक दिन गजब हो गया। छोटे भाई बबलू ने नाराज होकर उसकी गुड़िया तोड़ दी। मुन्नी के दुःख और क्रोध का ठिकाना नहीं रहा। वह बबलू पर चिल्लाई। इतने से उसका मन शान्त नहीं हुआ तो एक चांटा बबलू को रसीद कर दिया। बबलू रोते-रोते माँ के पास गया। माँ ने मुन्नी को धमकाया और उसके कान खींचे। मुन्नी ने कहा- बबलू ने उसकी प्यारी गुड़िया तोड़ दी, उसे कुछ कहने की जगह, मुझे क्यों डांटा जा रहा है। माँ ने कहा गुड़िया तोड़ दी, उसके लिए उसे डाँट मिलनी ठीक थी, लेकिन उसे इतनी छोटी गलती पर चांटा नहीं मारना चाहिए। गुड़िया का क्या है, बाजार से खरीद कर लाये थे, दूसरी आ जायेगी। बात रफा-दफा हो गयी।

5-7 साल बाद की एक घटना। दादी अपने पूजा घर में बैठकर भगवान जी की पूजा कर रही थी। दादी जी दिन में कम से कम 8-10 घंटे पूजा घर में बिताती। दिनचर्या शुरु होती भगवान जी को सुबह जगाने से लेकर। फिर वह भगवान जी को स्नान करवाती, धुले हुए कपड़े पहनाती, नाश्ते का भोग लगाती, झूला झुलाती। दोपहर का भोजन खिला कर भगवान जी को सुला देती।

उस दिन यही भगवान जी के सोने का समय था। बबलू बाहर से क्रिकेट खेल कर लौटा। उसके हाथ में क्रिकेट का बल्ला और भारी वाली गेंद थी। खेल की मस्ती में उसने गेंद को बल्ले से मार दिया। फिर कुछ ऐसा हुआ जिससे घर में एक तूफान खड़ा हो गया। बबलू की गेंद सीधी पूजा घर में गयी और भगवान जी की मूर्ति से टकराई। गेंद की चोट से मूर्ति का सर टूटकर अलग हो गया। दादी जी बिलकुल पगला गयी। बुरी तरह चिल्लाने लगी आज मेरी जीवन भर की तपस्या नष्ट हो गयी। मेरे ही घर में मेरे भगवान जी को चमड़े की गेंद से खंडित कर दिया। मैं कहाँ जाऊँ। लड़के ने मेरे लिए नर्क के द्वार खोल दिए।

माँ ने ये सब देखा तो अपना आपा खो दिया। लगी बुरी तरह बबलू को पीटने। बबलू डर के मारे सहमा हुआ तो था ही, माँ के इस आक्रमण से रोने लगा। उधर से पापा आ गए, उन्होंने जब सारा दृश्य देखा तो उनका भी पारा चढ़ गया। उन्होंने भी बबलू को 2 तमाचे लगा दिए।

ये सारा दृश्य मुन्नी देख रही थी। उससे नहीं रहा गया। उसने बीच में पड़कर बबलू को बचाया। उसे अपने पीछे छुपा कर जोर से बोली- क्यों पीट रहे हैं आप इसको? क्या बिगाड़ा है इसने?

दादी चिल्लाई- तुहें दिख नहीं रहा, इसने भगवान जी को तोड़ दिया। फिर भी पूछती है क्या बिगाड़ा है?

मुन्नी ने कहा- इसने सिर्फ एक पुतले को तोड़ा है, और वह भी जानबूझ कर नहीं।

माँ ने कहा- मुन्नी, देखती नहीं दादी जी रोज कितने प्यार से भगवान जी को तैयार करती है, भोग लगाती है और उनकी पूजा करती है। भगवान जी को एक पुतला कहके तुम उनका अपमान कर रही हो।

मुन्नी ने अपने उसी तेवर में कहा- आखिर क्या फर्क है, दादी जी के भगवान जी में और मेरी गुड़िया में? दोनों ही बाजार से खरीदकर लाये गए थे, दोनों ही टूटने वाली वस्तु से बने थे। जितना मैं मेरी गुड़िया से प्यार करती थी, उतना ही दादी अपनेागवान जी से करती थी। दोनों ही बबलू के हाथों टूट गयी। लेकिन दोनों बातों में इतना फर्क क्यों? मेरी गुड़िया मेरे लिए दादी जी के भगवान से कम नहीं थी, लेकिन फिर भी आप मुझ पर नाराज हुए जब मैंने बबलू को तमाचा मारा। आपका कहना सही था, एक गुड़िया थी उसकी जगह दूसरी आ जायेगी। फिर आज आप सभी की सोच क्यों बदल गयी? क्योंकि आपने इस पुतले को भगवान का नाम दे दिया और अगर यही भगवान थे तो फिर अपनी रक्षा क्यों नहीं कर पाये, एक मामूली गेंद की चोट से और एक मामूली चोट से बिखर भी गए। ये तो आम इंसान से भी कमजोर निकले। ऐसे भगवान जी की प्रार्थना से हमें क्या मिलेगा?

पापा ने प्यार से कहा- बेटी, बात तो तुहारी ठीक है, लेकिन इसमें दादी जी की आस्था का सवाल है।

मुन्नी ने प्यार से कहा- पापा, दादी जी की आस्था और मेरी बचपन की आस्था में कोई अंतर नहीं है। मैंने अपनी गुड़िया से भावनात्मक रिश्ता जोड़ लिया था, वैसे ही दादी जी ने अपने भगवान की मूर्ति से भावनात्मक रिश्ता जोड़ लिया था। दोनों के लिए ये एक मनोरंजन था।

दादी ने कहा- मुन्नी, तू सचमुच कितनी बड़ी हो गयी है। ये बातें कई बार मेरे दिमाग में भी आती हैं, क्या मैं सचमुच भगवान की पूजा कर रही हूँ या बुढ़ापे में अपना मन बहला रही हूँ। मेरे पास समय बिताने के लिए कोई काम नहीं है। मुझे लगता है कि मैं जैसे बचपन में तेरे पापा को प्यार से नहलाती-धुलाती, खाना खिलाती, सुलाती- वैसा ही एक अनुभव मैंने इस मूर्ति के साथ शुरु कर दिया। लेकिन ये सारा अनुभव एक तरफा था, मूर्ति की तरफ से कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं थी।

बबलू रुआंसा होकर बोला-दादी माँ! मुझे माफ कर दीजिये। आज के बाद मैं कभी कोई तोड़-फोड़ नहीं करुँगा। कभी आपके भगवान जी को कोई चोट नहीं लगने दूँगा।

दादी ने प्यार से बबलू को अपने पास खींचा। बोली- बेटा भगवान को चोट तुमने नहीं पहुँचाई, बल्कि हम सबने पहुँचाई है। तुहारी एक छोटी-सी गलती पर हम सबने तिल का ताड़ बना दिया। आज के बाद यहाँ कोई भगवान जी नहीं आएंगे। मेरे भगवान हो तुम सब। मेरा प्यार अब मैं एक मूर्ति पर नहीं लुटाऊँगी। मेरा प्यार हैं मेरे पोते और पोती के लिए।

दादी ने परिवार के सभी सदस्यों को अपनी बाँहों में भर लिया।                       – मुबई

 

बच्चों का व्यापार – आचार्य अखिल विनय

जर्मनी में ‘बच्चों का केटलॉग’ छापकर बच्चे बेचने का धंधा किया जाता है। उसमें छपा रहता है कि तीन सप्ताह में ‘बच्चा’ लिया जा सकता है। वैसे जर्मनी में किसी बच्चे को गोद लेने में दो-ढाई साल तक का समय लगता है। जर्मन माता-पिता की निःसंतान बने रहने की समस्या को दूर करने में बच्चों का व्यापार करने वाली हॉलैण्ड की संस्थाएँ अग्रणी हैं।

बच्चे पैदा करके बेचने वाली एक फर्म के बारे में कोलबो का समाचार छाप कर ‘‘बाल साहित्य समीक्षा’’ (पृष्ठ 9, जून 1987) ने एक महत्त्वपूर्ण बात बतायी है कि किस प्रकार ‘शिशु फार्म’ पर छापा मार कर पुलिस ने 26 बच्चे और बारह र्गावती महिलाएँ बरामद कीं। स्वीडन की महिला लुदरस्ट्राम श्रीलंका से बच्चों का व्यापार करती थी। कितना अमानवीय कृत्य है यह! पैसा कमाने के लिए कानूनी तरीके से बच्चे पैदा करके उनका निर्यात किया जाना भर्त्सना के योग्य है।

किन्तु बच्चे बेचने का यह कार्य श्रीलंका ही नहीं, भारत, बंग्लादेश और थाईलैंड से भी होता है। पश्चिम जर्मनी की पत्रिका ‘डेर स्पेगल’ ने इस रहस्य का उद्घाटन किया, जिसकी चर्चा ‘इंडिया टूडे’ (जनवरी 15, 1943) में की गयी थी। प्रायः हर सप्ताह जर्मनी के फ्रेंकफुर्त नगर के विमानतल पर हीरों के हार पहने जर्मनी महिलाएँ, मुबई से उठाये गये बच्चों को छाती से चिपटाये वहाँ उतरती हैं। मुबई, कलकत्ता, कोलबो या थाइलैंड की झोपड़ पट्टियों में निरन्तर बढ़ने वाले ऐसे बच्चे हैं, जो विदेश ले जाये जाते हैं।

पिछले दिनों जर्मन चर्च संगठन ने ऐसे एक सर्वेक्षण में पाया था कि अकेले कलकत्ता के अनाथगृहों में पचास हजार ऐसे बच्चे थे।ाारत में ऐसे अनाथ बच्चों की संया कितनी ज्यादा होगी, इसका सहज ही अंदाज लग सकता है। एजेंटों और बिचोलियों की मदद से बच्चों की बिक्री का यह व्यापार खूब पनप रहा है। मध्यमवर्गीय निःसंतान लोग इस प्रकार अपनी तमन्ना पूरी करते हैं, क्योंकि उन्हें सफेद वर्ण का दत्तक बालक मिलता नहीं। पश्चिम यूरोप-विशेषकर पश्चिम जर्मनी में यह धंधा खूब पनप रहा है। प्रायः एक बच्चा रुपये 44000/- में, एक निःसंतान जर्मन दपति को मिलता है।

कहा जाता है कि बच्चों के ऐसे अवैध व्यापार में जर्मनी ही नहीं, निकटवर्ती हॉलैण्ड की कुछ एजेंसियों का भी हाथ है। ऐसी ही एक संस्था का नाम है- लैश, जो बच्चों को जल्दी उपलध कराती है। किन्तु सवाल यह उठता है कि बच्चे खरीदें क्यों जाते हैं? क्या गोद नहीं ले सकते? कारण स्पष्ट है कि गोद लेने की कार्रवाई में ढाई साल तक का समय लग सकता है, जबकि एजेंसियों के मार्फत बच्चे खरीदने में केवल ढाई सप्ताह लगते हैं। ये एजेंसियाँ अश्वेत बच्चों के आकर्षक फोटो देकर अपने ‘केटलॉग’ छापती हैं और निःसंतान धनी जर्मनी दपतियों को आकृष्ट करती हैं।

पश्चिम जर्मनी की प्रमुख पत्रिका ‘डेर स्पीगले’ में पत्रकार स्वांट्जे स्ट्रेडर ने बच्चे बेचने की इस प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए बताया है कि हॉलैण्ड की संस्था ‘लैश’ के डाइरेक्टर- डभास हॉर्डिक संतान के इच्छुक जर्मन दपतियों को बच्चों की पसन्दगी के लिए कोलबो ले जाते हैं और वहीं सौदा होता है।

हॉलैण्ड की संस्था ‘लैश’ की ही भाँति, इस धन्धे में संलग्न कुछ संस्थाएँ आस्ट्रेलिया, स्केंडिनेविया और स्वीट्जरलैण्ड की हैं, जो बच्चों का व्यापार चलाती हैं। खरीदे गए ऐसे बच्चों को गोद लेने के लिए जर्मनी का कानून इजाजत नहीं देता, किन्तु उन्हीं बच्चों का प्रथम प्रार्थनापत्र अस्वीकृत होने के बावजूद दूसरी बार निवेदन करने पर ‘‘सेकन्ड एडॉप्शन’’ कानून के आधार पर उसे स्वीकृति प्राप्त हो जाती है। यही कारण है कि बच्चों का यह अवैध व्यापार चल रहा है।

मासूम बच्चों की आँखों, गुर्दों व दिल का निर्यात-

‘बाल साहित्य समीक्षा’ (जून 1987 के अंक में, पृष्ठ 4 पर) द्वारा एक समाचार छापा गया है कि दिसबर 86 में हाँसराजू की पुलिस ने सेन पेड्रोसुला में चार मकानों पर छापे मारकर 13 बच्चों को मुक्त कराया। गिरतार लोगों में से पाँच ने स्वीकार किया कि वे बच्चों को चुराकर या गरीब परिवार वालों से खरीदकर अमेरिका भेजते थे, जहाँ प्रत्येक बच्चा दस हजार डालर में बिकता है।

इस तरह का जघन्य कृत्य भारत के भी बच्चों के साथ किया जा रहा है। दैनिक ‘‘इंडियन एक्सप्रेस’’ के 20 अगस्त 1947 में छपा था कि आंध्रप्रदेश के बटपला में इस तरह बच्चों के गुर्दे तथा दिल निकालकर बेचने वाला गिरोह सक्रिय है। तेनाली के निकटवर्ती गाँव कर्लापलेम के 16 वर्षीय श्रीनिवास राव ने बताया कि जब वह एक बस में सफर कर रहा था, विषाक्त रूमाल सुँघाकर एक व्यक्ति बेहोश करके उसे नेल्लोर के पास रेलगाड़ी से ले गया और बाद में उसे मारुति कार में ले जाया गया। श्रीनिवास राव को एक निर्जन स्थल में रखा गया, जहाँ 15 दूसरे बच्चे थे। उसे पता चला कि उस दल के लोगों ने 50 बच्चों की हत्या की और उन्हें भी जान से मारेंगे। उस दल में नौ व्यक्ति हैं और बंदूकधारी पहरा देते हैं। वह अन्य युवकों की मदद से जान बचाकर भागा। चार घंटे जंगल में भटकने के बाद एक छोटे स्टेशन पर पहुँचा और किसी प्रकार घर लौटा। दूसरे 15 बच्चे कमजोरी की वजह से भागने में सफल नहीं हो सके।

श्रीनिवास राव के पिता ने इस दल की क्रूर कार्रवाइयों की सूचना पुलिस को दी और बटपला के पास चंदोलू पुलिस स्टेशन में उनकी शिकायत दर्ज है। वहाँ के सब-इंस्पेक्टर जी.आय. नेयलू उस मामले की जाँच कर रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि धन कमाने के लिए बच्चों के अवयव बेचने का जघन्य कृत्य लैटिन अमरीकी देशों में ही नहीं, भारत में भी हो रहा है। भारत सरकार को चाहिए कि वह इस दिशा में शीघ्र और ठोस कदम उठाये।

बाल साहित्य समीक्षा (मासिक)

कानपुर (उत्तरप्रदेश)

सितबर, सन 1987

ईश्वर की दया और न्यायः – राजेन्द्र जिज्ञासु

ईश्वर की दया और न्यायः सहस्रों वर्षों के पश्चात् संसार में पहला विचारक, दार्शनिक, ऋषि महर्षि दयानन्द ही ऐसा धर्माचार्य आया, जिसने यह जटिल गुत्थी सुलझाई कि ईश्वर की दया तथा न्याय पर्याय हैं। दोनों का प्रयोजन एक ही है। आस्तिक लोग ईश्वर को दयालु तो मानते ही हैं, परन्तु अन्यायी न मानते हुए भी मतवादी ईश्वर के दया व न्याय इन दो गुणों की संगति नहीं लगा पाते थे। पूर्व व पश्चिम में तार्किक लोगों ने एक प्रश्न उठाया कि संसार में सबसे बड़ा दुःख मौत है। यदि ईश्वर है तो उसके संसार में मृत्यु रूपी दुःख का होना उसकी क्रूरता को दर्शाता है। वह दयालु परमात्मा नहीं हो सकता। यही प्रश्न इन दिनों किसी ने महाराष्ट्र यात्रा में पूछ लिया।

एक बार काशी प्रयाग के पण्डितों को एक ऐसे ही व्यक्ति ने यह प्रश्न उठाकर परेशान कर दिया। तब जन्माभिमानी ब्राह्मणों को महर्षि के शिष्य पं. गंगाप्रसादजी उपाध्याय की शरण लेनी पड़ी थी। उपाध्याय जी ने प्रश्नकर्त्ता से कहा- मृत्यु का होनााी ईश्वर की दया को दर्शाता है, न कि क्रूरता को। यदि संसार में जन्मे प्राणियों की मृत्यु न होती, तो धरती तल पर नये जन्मे व्यक्तियों को खड़े होने को भी स्थान न मिलता। यदि हमारे पूर्वज न मरते तो फिर हमारे सिर पर सैंकड़ों व्यक्ति खड़े भी न हो सकते। उपाध्याय जी के उत्तर ने प्रश्न करने वाले को सर्वथा निरुत्तर व शान्त कर दिया।

इस्लाम में पहली बार एक विचारक नेाुलकर लिखा है- ‘‘वह रब भी है और आदिल और रहीम भी (न्यायकारी तथा दयालु भी)’’ यह और महर्षि के दया व न्याय का प्रयोजन एक ही है। इस घोष को सुनकर इस्लामी विद्वान् ने यह सिद्धान्त स्वीकार किया है। यह लेखक दया का अर्थ पाप को क्षमा होना नहीं मानता। इस लेखक ने यह लिखने का साहस दिखाया है कि ‘‘संसार में प्रत्येक कर्म का एक फल है, जो किसी भी अवस्था में उससे पृथक् नहीं हो सकता’’। यह वैचारिक क्रान्ति है। यह वैदिक इस्लाम है। ईश्वर की दया व न्याय पर विचार करने व समझने से उपरोक्त प्रश्न जैसे सब प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं।

आर्य सामाजिक साहित्य में घुसते दोषः अति उत्साही लेखकों के कारण तथा कुछ लेखकों व प्रकाशकों के प्रमाद से आर्य सामाजिक साहित्य में आपत्तिजनक दोष घुस रहे हैं। महाराष्ट्र यात्रा में एक आर्यााई ने ‘निर्णय के तट पर’ ग्रन्थ का पाँचवाँ भाग दिखाया। मुझे यह देखकर दुःख हुआ कि इसमें भी ऋषि के शास्त्रार्थ बहालगढ़ से छपे ग्रन्थ से उद्धरण लेकर दिये गये हैं, सो इनमें क ई दोष व भयङ्कर दोष घुस गये हैं। विषय पर अधिकार न होने से सपादकों ने पं. लेखराम जी सरीखे अद्वितीय शास्त्रार्थ महारथी द्वारा संग्रहीत ऋषि के शास्त्रार्थों को दोषयुक्त बना दिया है।

जालंधर में महर्षि का मौलवी अहमद अहसन से शास्त्रार्थ हुआ था। मकी पर मक्खी मारने वालों ने यहाँ मौलवी अहमद हुसैन कर दिया है। भूल स्वीकार करने का साहस कोई करता नहीं। गड़बड़ संक्रामक रोग बनकर फैल रही है। मिलान करने से और भी कई चूक मिलेंगी। ईसाइयों की एक प्रसिद्ध पुस्तक का नाम ही कुछ-का-कुछ छप रहा है। सावधान होने की आवश्यकता है। शास्त्रार्थों में प्रतिपक्षियों के महर्षि के बारे कहे गये कुछ कथन प्रमुाता से प्रचारित, करने की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता, यथा चाँदापुर के शास्त्रार्थ में पादरी जी ने कहाः-

‘‘सुनो भाई मौलवी साहबो! कि पण्डित जी इसका उत्तर हजार प्रकार से दे सकते हैं। हम और तुम हजारों मिलकर भी इनसे बात करें तो भी पण्डित जी (ऋषि दयानन्द) बराबर उत्तर दे सकते हैं।’’

आशा है, आर्यजन मेरी विनती पर ध्यान देंगे।

हिन्दू तथा हिन्दुत्ववादीः देश में हिन्दू समाज की स्थति पूर्ववत् दयनीय है। देश जाति हित चिन्तकों को बहुत जागरूक होकर धर्म रक्षा, जाति रक्षा के लिए बहुत सूझबूझ से सक्रिय होना होगा। हिन्दुत्ववादी के वक्तव्यों से भ्रमित होकर अति आशावादी व प्रमादी होना आत्मघाती नीति होगी। हिन्दू की दुर्बलता उसके अंधविश्वास तथा अनेकेश्वरवाद है। नागपुर का एक समाचार आँखें खोलने वाला है। एक उच्च शिक्षित हिन्दू अनेक भगवानों के हिन्दू चिन्तन पर विधर्मियों के पंजे में फँसकर……..। एक आर्यवीर को इसकी जानकारी मिली। ईशकृपा से उस परिवार की रक्षा हो गई। इस सेवक से भी अब उसका सपर्क हो जायेगा। हिन्दुत्ववादी नयी-नयी घोषणायें करने में मस्त हैं। शिवाजी के महाराष्ट्र में अनेक सुपठित परिवार अनेकेश्वरवाद की हिन्दुत्व फिलॉसफी से ऊबकर ईसाई मत में इन्हीं दिनों चले गये। आर्यवीर लगे हैं। देखिये, क्या परिणाम निकलता है, जब हिन्दुत्व के महानायक स्वामी विवेकानन्द की पुस्तक प्रभुदूत ईसा पादरियों के हाथ में हो तो फिर अशोक सिंघल ऐसे अभियान को कैसे रोक सकता है? गीता-गीता पर सर्मन सुनने को मिलने लगे हैं। काशी (रामनगर) से विधर्मियों ने गीता के पुनर्जन्म की धज्जियाँ उड़ा दीं। हिन्दुत्ववादी गीता प्रवचनकर्त्ता सब मौन रहे। किसी से उत्तर न बन पाया। परोपकारी ने ऐसे सब लेखकों व कान्ति मासिक को उपयुक्त उत्तर देकर धर्म रक्षा की। विवेकानन्द स्वामी के नाम लेवाओं तथा गीता के गोरखपुर प्रेस की नींद तो जगाने पराी न टूटी। लेखक ने गोरखपुर जाकर उन्हें चेताया कि उत्तर दो परन्तु…… । हिन्दुओं का उपास्य कौन है? दर्शन क्या है? इसका उत्तर मिलना चाहिये।

– वेद सदन, अबोहर-252226 (पंजाब)

रामपाल का पतनः – राजेन्द्र जिज्ञासु

रामपाल देव बना बैठा था। उसको देश ने दानव के रूप में जान लिया, देख लिया। आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द के विरुद्ध विष वमन करते हुए उसने असीम धन विज्ञापनों पर फूँ का। उसके पीछे कौन-कौन सी बाहरी शक्तियाँ थीं, यह भी पता लगना चाहिये। देश विरोधी शक्तियों ने ही हिन्दू समाज के नाश के लिए आर्य समाज के विरोध में उसे खड़ा किया।

कबीर जी के नाम की आड़ में उसने आर्यसमाज के विरुद्ध अभियान छेड़ा। उसने यह प्रचार किया कि कुरान की एक आयत में कबीर जी का नाम आता है। परोपकारी में मैंने उसे हिसार में शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी थी। कुरान में ‘कबीर’ शद तो है, परन्तु वहाँ ‘अजीम’ शद कबीर का विशेषण है, जिसका अर्थ दारुण दुःख है। कुरान की प्रत्येक तफसीर में यही अर्थ मिलेगा। कबीर शद अरबी साहित्य में भी मिलता है। रामपाल को कौन बतावे कि कबीरः शद का अर्थ भयङ्कर अथवा बड़ा पाप है।

रामपाल को मनुष्य रूप में झज्जर के निकट भगवान मिल गया था। वह किसी और को न दिखा। बाइबिल कीाी आड़ इसने ली थी। यह हिन्दुओं को धर्मच्युत करने का षड्यन्त्र था।

कबीर पंथियों ने इस्लाम व ईसाई प्रचारकों से टक्कर लेने के लिए ऋषि दयानन्द की शरण ली। एक कबीर पंथी विद्वान् श्री शिवव्रत लाल वर्मन के शदों में पादरी व मौलवी चाँदापुर में ऋषि का सिंहनाद सुनकर भाग खड़े हुए। आर्यसमाज का यह उपकार रामपाल भूल गया। ऋण तो क्या चुकाना था, गालियाँ देता फिरता था। डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी तथा डॉ. धर्मवीर जी ने रामपाल के प्रहार का अपनी लौह लेखनी से उत्तर दिया। धर्मवीर जी प्रेस कौंसिल तक भी पहुँचे। इन्द्रजित देव जी या डॉ. धर्मवीर जी यदि टी.वी. पर बुलाये जाते तो आर्यसमाज का दृष्टिकोण देश के सामने आता, परन्तु टी.वी. पर आर्यसमाज की बात रखने वाला कोई कुशल विद्वान् था ही नहीं।

महात्मा कबीर ने मांसाहार का खण्डन करते हुए प्राणियों पर दया की शिक्षा दी। रामपाल ने तो हरियाणा में गो-वध पर कभी दो शब्द  भी न कहे। रामपाल महात्मा कबीर के नाम पर ठगी करता रहा। देश के विरुद्ध युद्ध लड़ने वाले इस पाजी सन्त ने हूडा सरकार की परोक्ष सहायता से शस्त्र तो एकत्र किये ही, सैकड़ों कमाण्डो भी प्रशिक्षित कर लिये। हूडा ने रामपाल को धर दबोचने में नई सरकार को विफल बताया, परन्तु आश्रमों के नाम पर अपार धन इकट्ठा करके बंकर आदि जो रामपाल ने निर्मित किये, यह सब कुछ हूडा के कांग्रेस राज में ही हो पाया। इसका सबसे बड़ा श्रेय हूडा के एक आर्यसमाज द्वेषी सहयोगी को प्राप्त है। देश को ललकारने वाले दैत्य रामपाल की जेल में अच्छी सेवा हो रही है। अन्त भला सो भला।

कभी सी.वाई. चिन्तामणि ने लिखा था कि प्रत्येक देशद्रोही, राष्ट्रद्वेषी की आँखों में आर्यसमाज काँटा बन कर खटकता है। रामपाल काण्ड उसी का एक नया प्रमाण है। आचार्य बलदेव जी तथा उनके सहयोगी युवक हम सबके धन्यवाद व बधाई के अधिकारी हैं।

ध्यान से मिलता है भगवान -वाशी पुरसवानी

भूख से तड़प रहा इन्सान,

तू पूजे पत्थर का भगवान।

गरीबों में बसता है ईश,

अरे, तू क्यों होता हैरान?

 

लुटाकर लाखों रुपये व्यर्थ,

बनाया मन्दिर एक विशाल।

न दीनों का है कोई याल,

बन गए वे सारे कंगाल।

नहीं पत्थर में है भगवान,

अरे, वह खुद ही है इन्सान।

 

खा रहा लोभी ब्राह्मण खूब,

नहीं छोड़े मुर्दे का माल।

गपोड़ों के बल पर ही आज

बन गया देखो मालामाल।

बाँचता रहता रोज पुराण,

कथाओं की है जिसमें खान।

 

वेद है सत्य, ओम् है ब्रहम,

ज्ञान की गंगा निर्मल धार।

खोल पट अन्दर के ऐ मूर्ख!

चढ़ेगा तुझ पर तभी खुमार।

मंत्र ऋषि दयानन्द का जान,

ध्यान से मिलता है भगवान।

मलेशिया

क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः-स्वामी विष्वङ्

प्रस्तुत सूत्र में ‘कर्माशयः’ शद आया है, इसका अभिप्राय है – कर्मों का संस्कार, जिन्हें धर्माधर्म अथवा पुण्यापुण्य शदों से कथन किया जाता है और इसे अदृष्ट शद से भी बोला जाता है। कर्माशय शद में ‘कर्म’ का अभिप्राय हम जानते ही हैं और ‘आशय’ का अभिप्राय संस्कार है। कर्माशय अर्थात् कर्मसंस्कार। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य कर्म करता है, वह कर्म क्रिया होने से कर्म करने के उपरान्त समाप्त होता है। यह सर्वविदित है कि क्रिया,क्रिया काल में ही विद्यमान रहती है और क्रिया के बाद समाप्त होती है, इसलिए क्रिया के काल में क्रिया की छाप मन में पड़ती है, उस छाप को संस्कार कहते हैं। वह संस्कार धर्म-पुण्य अथवा अधर्म-अपुण्य के रूप में दो प्रकार का होता है। इसी धर्माधर्म-पुण्यापुण्य रूपी संस्कार को कर्माशय शद से सूत्रकार ने स्पष्ट किया है। इस कर्माशय के आधार पर ही परमेश्वर मनुष्य को सुख-दुःा रूपी फल प्रदान करता है। सूत्र में ‘क्लेशमूलः’ पद आया है, इसका अभिप्राय है- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश मूल= कारण वाले कर्माशय, अर्थात् अविद्या आदि पाँचों क्लेशों के कारण ही मनुष्य कर्म करता है, इसलिए कर्माशय क्लेशमूल= क्लेशकारण वाले हैं। सूत्र में तीसरा पद आया है- ‘दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः’। इस शद को अलग-अलग करने पर ‘दृष्टजन्मवेदनीय’ और ‘अदृष्टजन्मवेदनीय’ दो शद बनते हैं। दृष्ट का अभिप्राय वर्तमान काल से है और अदृष्ट का अभिप्राय भविष्यत काल से है। जन्म शद से हम परिचित हैं। वेदनीय शद का अभिप्राय है- अनुभवनीय, अर्थात् अनुभव करने योग्य। इस प्रकार दृष्टजन्मवेदनीय का अर्थ हुआ वर्तमान जन्म में अनुभव करने योग्य सुख-दुःख रूपी फल और अदृष्टजन्मवेदनीय का अर्थ हुआ भविष्यतकाल में अनुभव करने योग्य सुख-दुःख रूपी फल।

प्रस्तुत सूत्र का अर्थ इस प्रकार समझना चाहिए कि क्लेशमूल- क्लेश आधार- क्लेशकारण वाले कर्माशय के फल वर्तमान जन्म में और आगे भविष्य में मिलने वाले जन्मों में अनुाव किये जाते हैं। मनुष्य प्रवाह (परपर) से, अनादि काल से धर्मयुक्त और अधर्मयुक्त कर्मों को करता हुआ आ रहा है और उनके फलों को काल के अनुसार, अर्थात् इस वर्तमान जन्म में और आगे आने वाले भविष्य के जन्मों में भोगता हुआ आ रहा है और भोगेगा। इस प्रकार फल देने वाले कर्मों को करने की योग्यता और सामर्थ्य केवल मनुष्य में ही संभव है, अर्थात् मनुष्य से इतर योनियों में सभव नहीं है। वेदादि शास्त्रों में विधि या निषेध केवल मनुष्य जाति के लिए ही किये हैं। परमात्मा ने मनुष्य को ऐसी बुद्धि दी है, जिसका प्रयोग करके वह प्रवाह (परपरा) से चले आ रहे क्लेशों और कर्मों को जानकर और अपनी बुद्धि में बिठाकर इस संसार में आने के प्रयोजन को पूर्ण करना चाहता है।

सूत्र की व्याया करते हुए महर्षि वेदव्यास लिखते हैं-

तत्र पुण्यापुण्यकर्माशयः कामलोभमोहक्रोधप्रभवः।

अर्थात् पुण्य-धर्मयुक्त संस्कार और अपुण्य-अधर्मयुक्त कर्म संस्कार काम, लोभ, मोह और क्रोध से उत्पन्न होते हैं, इसका तात्पर्य इस प्रकार समझना चाहिए कि अविद्या आदि पाँचों क्लेशों के कारण मनुष्य में काम कीाावना, लोा की भावना, मोह की भावना और क्रोध कीाावना उत्पन्न होती है। इन्हीं काम आदि की भावनाओं से मनुष्य पुण्य कर्म और पाप कर्म करने में तत्पर होता रहता है। मनुष्य क्लेशों से युक्त होकर जहाँ अधर्म करता है, वहाँ धर्म भी करता है। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार मनुष्य जहाँ काम भावना से बड़े-बड़े सोम याग आदि करके स्वर्ग की कामना करता है, वहाँ काम भावना से अधर्म करने में तनिक विचार न करते हुए ऐसे-ऐसे निकृष्ट कर्म भी करता है, जिनकी सपूर्ण समाज निन्दा करता है। मनुष्य लोभ की भावना से जहाँ विद्या, धन, नौकरी आदि को पाने के लिए धर्मयुक्त कर्मों को करता है, वहाँ उन्हीं को पाने के लिए अधर्म युक्त कार्यों को भी कर लेता है। मनुष्य मोह की भावना से जहाँ दान, सेवा आदि पुण्य कर्म कर लेता है, वहाँ घोर हिंसा (मनुष्य बलि, पशु बलि आदि) करने में तनिक विचार भी नहीं करता है। क्र ोध की भावना से बड़े-बड़े अनर्थ करता हुआ देखा जाता है। जहाँ मनुष्य क्रोध से अनर्थ करता है, वहाँ क्रोध से पुण्य भी क रता है, जैसे अन्य लेखकों से द्वेष करता हुआ स्वयं उत्तम लेख या पुस्तक लिखना। इसी प्रकार दानी से, प्रवक्ता से, बलवान से द्वेष करते हुए स्वयं भी दान देना, प्रवचन करना, बल का संपादन करना रूपी पुण्य कर्म करते हुए देखे जाते हैं। इस प्रकार मनुष्य काम, लोभ, मोह और क्रोध पूर्वक उत्तम कर्म और निकृष्ट कर्म करते रहते हैं।

‘स दृष्टजन्मवेदनीयश्चादृष्टजन्मवेदनीयश्च।’

अर्थात् वह पुण्य और अपुण्य कर्माशय दृष्टजन्म= वर्तमान जन्म में फल देने वाला और अदृष्टजन्म= भविष्य में- आने वाले जन्मों में फल देने वाला होता है। चाहे पुण्य कर्माशय हो या अपुण्य कर्माशय हो, दोनों में से कोई भी कर्माशय वर्तमान जन्म में फल दे सकता है। यदि वर्तमान जन्म में फल नहीं दे रहा हो, तो आगे आने वाले किसी भी जन्म में फल दे सकता है। कौन-सा पुण्य-अपुण्य कर्माशय वर्तमान जन्म में फल देने वाला है और कौन-सा पुण्य अपुण्य कर्माशय अगले जन्मों में फल देने वाला है, इसका मापदण्ड क्या है? कैसे पता लग सकता है? इसका समाधान करते हुए महर्षि वेदव्यास कहते हैं-

तत्र तीव्रसंवेगेन मन्त्रतपः समाधिभिर्निवर्तितः ईश्वरदेवतामहर्षिमहानुभावानामाराधनाद्वा यः परिनिष्पन्नः स सद्यः परिपच्यते पुण्यकर्माशय इति।

अर्थात् उन पुण्य-अपुण्य कर्माशयों में से जो पुण्य कर्माशय है, वह शीघ्र फल देने वाला कैसे बनता है? इसका उपाय बताते हुए महर्षि वेदव्यास कहते हैं-‘तीव्र संवेग’ से योगायासी पुरुषार्थ करता है, अर्थात् वह पूर्ण रूप से अहिंसा, सत्य आदि का पालन निष्ठा-श्रद्धा आदि से करता जाता है। किसी प्रकार की त्रुटि न रखते हुए सावधानीपूर्वक उत्तम पवित्र कर्म करता जाता है। ‘मन्त्र’ का अभिप्राय है- वेद-अध्ययन के द्वारा वेदों में स्थित रहस्य का बोध होता है, जिससे विभिन्न प्रकार के जनोपयोगी यन्त्रों का निर्माण करके जन कल्याण के उत्तम कर्म किये जाते हैं और गायत्री आदि मन्त्रों के जप से परमेश्वर के निकट जाया जाता है। ‘तप’ से योगसाधक अपने शरीर वाणी और मन को तपाता है, अर्थात् मन, वाणी और शरीर को संयम में रखता हुआ सभी द्वन्द्वों (भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि) को सहन करता हुआ उत्तम कर्म करता जाता है।

वह ‘समाधि’ लगा-लगा कर अपने कुसंस्कारों को कमजोर और नष्ट करता हुआ निष्काम कर्मों को करता जाता है। ईश्वर की उपासना, देवता= विद्वानों की सेवा और ऋषि-महर्षियों के ग्रन्थों के स्वाध्याय से उनकी आज्ञा का पालन करता हुआ योग साधक अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। इस प्रकार तीव्र संवेग के द्वारा मन्त्र, तप, समाधि आदि को व्यवहार में उतारने से ईश्वरोपासना, विद्वानों की सेवा और ऋषि-महर्षियों के ग्रन्थों के स्वाध्याय से उत्पन्न पुण्य कर्माशय शीघ्र फल प्रदान करता है।

इसी प्रकार अपुण्य कर्माशय के सबन्ध में ऋषि कहते हैं-

तथा तीव्रक्लेशेन भीतव्याधितकृपणेषु विश्वासोपगतेषु वा महानुभावेषु वा तपस्विषु कृतः पुनः पुनरपकारः स चापि पापकर्माशयः सद्य एव परिपच्यते।

अर्थात् योगायास न करने वाला लौकिक व्यक्ति तीव्रता से= अत्यधिक पाप में (डूबा हुआ) संलग्न होकर अविद्या में आकण्ठ डूब कर पाप कर्म करने में लगा रहता है। वह किनके प्रति पाप कार्य करता है? इसका समाधान करते हुए ऋषि लिखते हैं- जो ‘भीत’ -डरे हुए हैं, उन डरे हुए लोगों को वह अन्याय, अत्याचार आदि के माध्यम से दुःख पहुँचाता है। एक बार नहीं, बार-बार दुःा देने का कर्म करता रहता है। ‘व्याधित’ जो रोगों से ग्रस्त हैं, दुःाी हैं, उन रोग ग्रस्त लोगों को और दुःा पहुँचाता रहता है। ‘कृपण’ जो दीन-हीन हैं अर्थात् बुद्धि से, धन से, रोटी, कपड़ा और मकान से और अन्य-अन्य साधनों से रहित हैं, ऐसे-ऐसे दीन-हीन लोगों को और अधिक दुःख पहुँचाता रहता है। जो लोग विश्वास करके चलते हैं, ऐसे विश्वास करने वालों को अन्याय, अत्याचार करके दुःख पहुँचाता रहता है। जो लोग महान हैं, तपस्वी हैं, श्रेष्ठ हैं, परोपकारी हैं, ऐसे-ऐसे उत्तम पवित्र लोगों का जो बार-बार अपकार करता है, उसे भी शीघ्र फल प्राप्त होता है।

महर्षि वेदव्यास शीघ्र फल देने वाले पाप और पुण्य कर्माशयों का  वर्णन करके उन दोनों के उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं-

यथा नन्दीश्वरः कुमारो मनुष्यपरिणामं हित्वा देवत्वेन परिणतः।

अर्थात् जिस प्रकार से नन्दीश्वर कुमार तीव्रता से मन्त्र, तप समाधि आदि के द्वारा उत्तम कर्म करके  मनुष्यत्व से देवत्व को प्राप्त हुआ है, ठीक इसी प्रकार

‘तथा नहुषोऽपि देवानामिन्द्रः स्वकं परिणामं हित्वा तिर्यक्त्वेन पिरणत इति।’

अर्थात् नहुष नामक राजा, जो देवों का भी देव राजा था, उसने अपने पद-प्रतिष्ठा के अहंकार(अविद्या) से युक्त होकर प्रजा पर अन्याय, अत्याचार किया था, जिसके कारण उसे अपने राज-पाट से हाथ धोना पड़ा, अर्थात् राजगद्दी से च्युत होकर नीचत्व को प्राप्त होना पड़ा । ये दोनों उदाहरण वर्तमान जन्म में फल देने से सबन्धित हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जिन कर्मों का फल वर्तमान जन्म में मिलता है, वे दो प्रकार के होते हैं। वह फल आयु और भोग के रूप में प्राप्त होता है, इसलिए यहाँ पर नन्दीश्वर कुमार और नहुष वर्तमान जन्म में, अर्थात् उसी शरीर में रहते हुए, मनुष्य न होकर देव कहलाये। यहाँ पर कोई यह न समझे कि वे दोनों वर्तमान शरीरों को छोड़ कर नये शरीरों को प्राप्त हुए। ऐसा सभव नहीं होगा। यदि सभव होता तो महर्षि वेदव्यास यह नहीं लिखते कि-

‘दृष्टजन्मवेदनीयस्त्वेकविपाकारभी भोगहेतुत्वात् द्विविपाकारभी वा आयुर्भोगहेतुत्वान्नन्दीश्वरवन्नहुषवद्वेति।’

(योग. 2.13 व्यासभाष्य)

अर्थात् वर्तमान जन्म में फल देने वाला कर्माशय या तो एक फल को देता है, केवल भोग का कारण होने से अथवा दो फल को देने वाला होता है, केवल भोग और आयु का कारण होने से। जैसे नन्दीश्वर कुमार और राजा नहुष को प्राप्त हुआ। इससे स्पष्ट होता है कि वर्तमान जन्म में भोग या आयु के रूप में फल तो मिलता है, परन्तु जाति- मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के रूप में फल नहीं मिलता है। जाति रूप फल तो नये जन्म के साथ मिलता है, ऐसा समझना चाहिए।

महर्षि वेदव्यास एक और विशेष बात को लेकर स्पष्टता करते हैं कि जो मनुष्य अत्यन्त निकृष्ट कर्म मात्रा की दृष्टि से व गुणवत्ता की दृष्टि से बहुत अधिक करता है, उसके लिए वर्तमान जन्म में फल देने वाला कर्माशय नहीं होता है, बल्कि आगे के जन्मों में फल देने वाला अदृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय होता है- तत्र नारकाणां नास्ति दृष्टजन्मवेदनीयः कर्माशयः।

और ऋषि यह भी कहते हैं कि जो योगायासी अपने क्लेशों (अविद्या अस्मिता आदि) को दग्धबीज (जले हुए-भुने हुए चने के समान) कर लेता है, ऐसे योगायासी का अदृष्टजन्मवेदनीय (अगले जन्म का) कर्माशय  नहीं होता, अर्थात् उसका पुनर्जन्म नहीं होता, बल्कि वह मुक्ति में जाता है-

क्षीणक्लेशानामपि नास्त्यदृष्टजन्मवेदनीयः कर्माशय इति।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

 

धर्म अनिवार्य क्यों है? डॉ – धर्मवीर

हम समझते हैं- धर्म ऐच्छिक है, इसे हम मानें हमारी इच्छा, न मानें हमारी इच्छा। इसी प्रकार हम यह भी मानते हैं कि धर्म अनेक होते हैं, इसमें भी विकल्प हैं। कोई किसी बात को धर्म मानता है, कोई किसी बात को। ऋषि दयानन्द कहते हैं कि धर्म दो नहीं होते, धर्म एक ही होता है। धर्म की कसौटी भी उन्होंने बता दी- जिसे दुनिया का कोई भी समझदार व्यक्ति मानने से इन्कार नहीं कर सके, उसे धर्म कहते हैं। धर्म के सबन्ध में यह जानना आवश्यक है कि कोई वस्तु या विचार आवश्यक है या नहीं, इस बात का निर्णय उसकी आवश्यकता और उपयोगिता से होता है। हमें धन की  आवश्यकता का पता है, हमारे जीवन में उसकी उपयोगिता का हमें अनुभव है, अतः उसे प्राप्त करना चाहते हैं। धन प्राप्त करने के उपाय भी खोजते हैं। इसके लिए हम व्यापार करते हैं, नौकरी करते हैं, मजदूरी करते हैं, खेती करते हैं। कुछ भी करके हम धन कमाते हैं, क्योंकि धन के बिना हमारा जीवन चलता नहीं है, इसलिए अर्थ की हमारे जीवन में उपयोगिता है। हमें लगता है कि अर्थ की भाँति हमारे जीवन में धर्म की कहीं उपयोगिता दृष्टिगत नहीं होती, अतः धर्म अनिवार्य नहीं, ऐच्छिक है। हमें व्यापार आदि के करने से अर्थ का लाभ होता है, परन्तु धर्म के करने से हमें कुछ प्राप्ति होती दिखाई नहीं देती, अतः हम स्वीकार कर लेते हैं कि धर्म गौण और ऐच्छिक है।

अर्थ की आवश्यकता स्पष्ट है, धर्म की आवश्यकता स्पष्ट नहीं है। मनुष्य के पास जब पर्याप्त साधन हो जाते हैं, तब वह समझता है- मुझे किसी की आवश्यकता नहीं है, उसी प्रकार सब अपने लिये अपने-अपने पुरुषार्थ से धन कमा लेंगे, फिर मेरे धन की भी किसी को आवश्यकता नहीं रहेगी। मैंने अपने प्रयत्न से अपनी सूझ-बूझ और बुद्धि से धन कमाया है, वह मेरा है, अतः मैं किसी को भी क्यों दूँ? यह विचार स्वाभाविक है, इस विचार को सुधारने के लिए हमें वह प्रसंग खोजना होगा, जहाँ हमारे साधन सपन्न होने पर भी ये साधन हमारी कुछ भी सहायता नहीं कर सकते। आज नेपाल में भूकप आया है, क्या वहाँ के साधन सपन्न लोगों को कोई कष्ट नहीं है? क्या उनकी सपत्ति, उनके काम आ रही है? हम देखते हैं कि सपन्न व्यक्ति का घर टूट गया है, उसके पास आज रहने के लिए स्थान नहीं है, पीने के लिए पानी नहीं है, पहनने के लिए कपड़ा नहीं है, चोट और रोग की पीड़ा दूर करने के लिए उनके पास औषध और चिकित्सक नहीं है। आज उसके पास कोई सान्त्वना देने वाला भी नहीं है। ऐसी परिस्थिति में क्या धन उसकी सहायता कर सकता है? प्रथम तो उसके साधन नष्ट हो गये होते हैं, यदि साधन कहीं रखे भी हैं तो व्यवस्था के छिन्न-भिन्न हो जाने से वे साधन उसे एक घूँट पानी या एक ग्रास भोजन दिलाने में भी असमर्थ हैं। ऐसे समय में उसे कोई व्यक्ति पानी, भोजन, वस्त्र आदि साधन और सान्त्वना क्यों देगा? बस यहीं से दूसरी व्यवस्था का जन्म होता है, जिसे हम धर्म कहते हैं।

धर्म का फल मिलता है। लोग समझते हैं, धर्म का कोई फल नहीं मिलता, धर्म का फल मिलता है, क्योंकि ऐसा सभव नहीं है कि आपने कर्म किया हो, उसका फल  न मिले। जब बुरे कर्म का बुरा फल मिलता है तो धर्म के रूप में अच्छे कर्म का अच्छा फल क्यों नहीं मिलेगा? फल तो निष्काम कर्म का भी मिलता है, क्योंकि वह कर्म फल की आकांक्षा से प्रेरित होकर चाहे नहीं किया गया, परन्तु कर्म तो है। कर्म है तो फल भी होगा। सकाम कर्म में फल की इच्छा से कर्म किया जाता है। निष्काम कर्म में कर्त्ता के मन में फल की इच्छा नहीं रहती, फल परमेश्वर की व्यवस्था पर छोड़ दिया जाता है। सांसारिक कर्म पाप और पुण्य नहीं होने पर भी आवश्यक होने से फल की इच्छा से किये जाते हैं। धर्म के कार्य में और व्यापार के कर्म में अन्तर इतना ही है कि व्यापार के फल के रूप में धन को ध्यान में रख कर व्यापार किया जाता है, धर्म पुण्य रूप फल  को ध्यान में रखकर किया जाता है। रेल के डिबे में दो लोग पानी पिला रहे हैं या भोजन दे रहे हैं। एक जो पैसे लेकर देता है, उससे कोई भी व्यक्ति ले सकता है, परन्तु उसकी जेब में पैसे होने चाहिएँ। आपको कितनी भी भूख या प्यास लगी हो, यदि पैसे पास में नहीं हैं तो आप को भोजन या पानी नहीं मिल सकता। पैसे हैं तो आप बिना आवश्यकता के भी सामान लेकर अपने पास रख सकते हैं। इसके विपरीत धर्म आपके पैसे नहीं देखता, धर्म आपकी आवश्यकता देखता है, आपकी पीड़ा या कष्ट दूर करता है। यही उसका मूल्य है। धर्म आपके कष्ट को दूर करने के लिए किया जाता है, इसी कारण ऐसे कार्य को सेवा कहा गया है। पुराने लोगों ने सेवा को धर्म कहा है। जब कोई दुकानदार या सेवक सेवा करता है तो वह भी सेवा है, परन्तु धर्म की भाँति निष्काम कर्म नहीं है। जब धर्म समझ कर किसी की सेवा करते हैं, तब उसका धर्म, जाति, रूप, रंग, सबन्ध आदि में किसी का बोध नहीं होता। हम केवल उसकी पीड़ा से पीड़ित होते हैं और पीड़ा को दूर करना चाहते हैं। यदि सेवा में हम पक्षपात करते हैं, तब वह कार्य धर्म नहीं होगा, व्यापार होगा, सौदा होगा। बदले में आप कुछ भी क्यों न चाहते हों, जब आप बदला चाहते हैं, तब व्यापार करते हैं और तब वह पाप तो नहीं, परन्तु पुण्य भी नहीं, वह अपनों के साथ किया गया, कर्त्तव्य है। अतः जब कुछ देकर कुछ लिया जाता है, वह व्यापार है। जो देकर ही सुख मानता है, वह किसे दे रहा है, इससे उसका कुछ भी सबन्ध नहीं रहता, तब वह कार्य धर्म कहलाता है।

लोग समझते हैं कि धर्म बड़ी कठिन और गहरी वस्तु है, उसको समझना सबके लिए सरल नहीं है। यह हो सकता है कि विवेचना के स्तर पर तर्क-वितर्क में उसको समझना कठिन हो, परन्तु व्यावहारिक धरातल पर धर्म को समझना और करना दोनों ही सरल हैं। आप भोजन करते हैं, तब आप नहीं कहते कि आप धर्म कर रहे हैं, परन्तु रोटी का छोटा-सा टुकड़ा थाली में से निकाल कर किसी निमित्त से रखते हैं, तब आप धार्मिक भावना से भरे होते हैं। हमारे घरों में मातायें रोटी बनाते हुए पहली रोटी गाय के लिए और अन्तिम रोटी कुत्ते के लिए बनाती थीं। यह रोटी अपने लिए नहीं होने से स्वार्थ नहीं, परोपकार है और परोपकार और धर्म दोनों पर्यायवाची शद हैं। जब हम स्वयं पानी पीते हैं, तब स्वार्थ होता है और जब सब के लिए पानी पीने की व्यवस्था करते हैं, तब उसे धर्मार्थ प्याऊ कहते हैं। हम अपने लिये भवन बनाते हैं, तब वह घर होता है, होटल होता है, जब उपकार की भावना से घर बनाते हैं, तब उसे धर्मशाला कहते हैं। इस प्रकार अपने बच्चों को पढ़ाना स्वार्थ है, परन्तु निर्धन, असमर्थ बच्चों की सहायता करना धर्म है। मनुष्य की जो-जो आवश्यकताएँ है, उनकी पूर्त्ति स्वार्थ है। यदि हम उन्हीं आवश्यकताओं की पूर्त्ति निस्वार्थ भाव से अन्यों की करते हैं, तब वह धर्म बन जाता है। धर्म मनुष्य को संवेदनशील बनाता है, उसका मुय कारण है- स्वार्थ में मनुष्य के मन में रजोगुण प्रबल होता है। जब मनुष्य धर्म का कार्य करने की इच्छा करता है, तब उसके अन्दर सतोगुण की प्रबलता होती है। स्वामी दयानन्द जी के जीवन में आता है कि जब एक किसान गाड़ी में जुते हुए बैलों को मार-मार कर कीचड़ से गाड़ी को निकाल रहा था, तब स्वामी जी ने स्वयं गाड़ी में जुतकर गाड़ी को कीचड़ से बाहर निकाल दिया। सभी महापुरुषों के जीवन में इस प्रकार की दया और करुणा से भरे कार्यों की चर्चा आती है।

धर्म और अर्थ के उपार्जन में मुय अन्तर परिणाम के प्राप्त होने का है। यथार्थ में धर्म भी व्यापार ही है, अन्तर इतना ही है कि व्यापार में मनुष्य फल की प्राप्ति तत्काल चाहता है और जिसके प्रति कार्य किया गया है, उसी से फल की आशा करता है। जिसके लिये कार्य किया है, जिसको सौदा दिया है, उसी से मनुष्य परिणाम के रूप में धन प्राप्त करता है, परन्तु धर्म में कार्य तो हुआ है, परन्तु फल कब मिलेगा, कहाँ मिलेगा, किस के द्वारा मिलेगा- इसका धर्म करने वाले को पता नहीं होता। मनुष्य को विपत्ति में जब सहायता मिलती है तो वह फल ही है, परन्तु हमारे कौन से कार्य का, किसके प्रति किये गये कार्य का फल है- यह हम नहीं जान सकते। जैसे वर्तमान जीवन के लिए धन की तत्काल प्राप्ति हमारे आजीविका के लिये आवश्यक है, उसी प्रकार हमें विषम परिस्थितियों में, असमर्थता की दशा में धर्म की आवश्यकता होती है। व्यापार से, पुरुषार्थ से स्वयं धन कमाकर व्यक्ति स्वयं जीवित रहता है, परन्तु धर्म से अपने साथ-साथ दूसरों को भी जीवन देता है। मनुष्य को यदि दूसरे की सहायता की आवश्यकता न होती तो सभव था- धर्म की भी आवश्यकता न होती, परन्तु मनुष्य के जीवन पर दृष्टिपात करने पर देखते हैं- पदे-पदे मनुष्य को दूसरों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है। मनुष्य का बालक सहायता के बिना जीवित नहीं रह सकता। उसे जीवन में सदा सहायता की आवश्यकता होती है। सामान्य रूप से अपने कहे जाने वाले लोग जन्म से मृत्यु तक उसकी सहायता करते हैं। यह सहायता कर्त्तव्यवश या मोहवश की जाती है, परन्तु हमारे लोग सदा हमारे साथ नहीं होते या सदा समर्थ नहीं होते, ऐसी परिस्थिति में हमें अन्य की सहायता अपेक्षित है और यह सहायता हमें बिना धार्मिक बने नहीं मिल सकती। धर्म के फल की प्राप्ति जब परमेश्वर हमें आवश्यक समझता है, तब कराता है। जब हमें कहीं से भी आशा की किरण नहीं दिखाई देती, तब हम परमेश्वर को याद करते हैं, उससे सहायता की आशा करते हैं। वह सहायता क्या हमारे बिना किये कर्म का फल है? यदि ऐसा होता तो यह सहायता सबको सदा समान रूप से मिल रही होती, परन्तु विपत्ति सब पर आने पर भी दुःख सबको समान रूप से नहीं होता। दुःख में सहायता भी सबको समान रूप से नहीं मिल पाती। किसी को तत्काल सहायता मिलती है तो किसी को देर से, किसी को पर्याप्त, तो किसी को स्वल्प, ऐसा क्यों होता है? हमारे कर्मों की भिन्नता के कारण फल की प्राप्ति भी भिन्न होती है। जैसे व्यापार को सत्य व्यवहार से करने पर मन में सन्तुष्टि और धन की प्राप्ति भी होती है, उसी प्रकार धर्म का आचरण करने पर वर्तमान में सन्तोष का सुख और कालान्तर में परमेश्वर का सहयोग मिलता है।

इस बात को एक और प्रकार से समझा जा सकता है। राममनोहर लोहिया ने एक बार धर्म और राजनीति को परिभाषित करते हुए कहा था कि तात्कालिक धर्म को राजनीति कहते हैं और दीर्घकालिक राजनीति को धर्म कहा जाता है। उसी प्रकार तात्कालिक लाभ को व्यापार और दीर्घकालिक व्यापार को परोपकार या धर्म कहा जाता है। स्वार्थ और परार्थ दो कार्य हैं, दोनों की जीवन में आवश्यकता है, एक से किसी का भी कार्य नहीं चल सकता, परोपकार से स्वार्थ सिद्ध हो सकता है, परन्तु स्वार्थ में धर्म का अंश न हो तो परोपकार की सिद्धि नहीं हो सकती।

एक प्रश्न फिर भी अनुत्तरित रह जाता है- धर्म के प्रति रुचि कैसे जाग्रत हो? मनुष्य को धार्मिक होने के लिये संवेदनशील होना आवश्यक है। संवेदना शून्य व्यक्ति क्रूर बन जाता है, दूसरों को दुःख देने में प्रसन्नता अनुभव करता है। इसके विपरीत संवेदनशील व्यक्ति दूसरों के दुःखों से स्वयं दुःखी होता है और अपने दुःख को दूर करने के लिये वह दूसरों की सहायता करता है। इसी कारण धार्मिक परोपकार के कार्य करके मनुष्य को प्रसन्नता होती है और वह सन्तोष का अनुभव करता है। इसके लिए चाणक्य ने कहा है- हम जो कुछ करें, उसे बुद्धि के प्रकाश में करें, संसार के सारे कार्य हमें करने हैं, यदि धार्मिक बुद्धि से किये गये तो हमारी प्रवृत्ति उस ओर होती है। वह धार्मिक बुद्धि कैसे प्राप्त होती है? तब कहा गया है, वह धार्मिक बुद्धि शास्त्रों के अध्ययन से मिलती है। परमेश्वर की उपासना से मिलती है। हम ईश्वर उपासक या ईश्वर के भक्त को धार्मिक कहते हैं और मानते हैं कि जो धार्मिक होगा, वह ईश्वर का भक्त भी होगा। धार्मिक व्यक्ति को शास्त्र इसलिए पढ़ना चाहिए कि शास्त्रों की रचना धार्मिक और ईश्वर भक्त लोगों ने की है, उन्होंने इसमें धर्म पर चलने का मार्ग बतलाया है। धर्म पर चलने से क्या होता है? कोई व्यक्ति धार्मिक होता है तो कैसा होता है? धार्मिक होने से मनुष्य को क्या लाभ होता है? इसके लिए गीता में कहा गया है-  धर्म से वर्तमान में सुख होता है और बाद में कल्याण की प्राप्ति होती है। चाणक्य ने अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है- जो मनुष्य धार्मिक होता है, उसकी बुद्धि निर्मल होती है, धार्मिक व्यक्ति की वाणी स्पष्ट होती है, उसके कार्य सरल होते हैं, उसके कार्य में किसी प्रकार की कुटिलता नहीं होती। धार्मिक व्यक्ति के जीवन में जो सर्वाधिक उत्कृष्ट पक्ष है, वह कष्ट या दुःख आने पर विचलित नहीं होता और वैभव की प्राप्ति  होने पर अहंकार का ग्रास नहीं बनता। दोनों परिस्थितियाँ मनुष्य को असामान्य बनाती हैं। सांसारिक पदार्थों के लाभ और प्राप्ति में मनुष्य अपनी उपलधियों से गर्व का अनुभव करने लगता है, पदार्थों के अभाव में घोर निराशा और दुःख में डूब जाता है, आत्महत्या कर लेता है, इसलिये मनुष्य को वर्तमान लाभ के साथ परोक्ष के लाभ के लिए धार्मिक होने की आवश्यकता होती है। मनु महाराज नेाी संवेदनशील बनने के लिये कहा है-

अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते।

धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।।

– धर्मवीर

आओ, सोम-सरोवर के भक्ति रस-जल में स्नान कर आनन्दित हों’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ओ३म्

 

सामवेद उपासना तथा ईश्वर की स्तुति-गान का वेद है। उपासना ईश्वर के पास बैठकर आनन्द में सराबोर होना है। इसे सोम सरोवर का स्नान भी कह सकते हैं। पं. चमूपति महर्षि दयानन्द के आदर्श अनुयायी थे। वह उर्दू, अरबी, फारसी व अंग्रेजी के विद्वान होने के साथ संस्कृत व हिन्दी के भी विद्वान थे। आपने अनेक भाषाओं में रचनायें की है। आपकी अनेक प्रसिद्ध रचनाओं में से एक है सोम सरोवर इस पुस्तक में आपने सामवेद के पवमान सूक्त के मन्त्रों की भक्ति रस में डूब कर व्याख्या की है जो हृदय को झंकृत कर उसमें आस्तिक भाव को उत्पन्न करती है और जीवात्मा-पुरूष आनन्द रस में भरकर हरा-भरा हो जाता है। आर्यसमाज के एक दूरदर्शी नेता पत्रकार शिरोमणि महाशय कृष्ण की सोम सरोवर के सम्बन्ध में यह सम्मति थी कि यह विश्व के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थों में से एक है। जिन साहित्यिक ग्रन्थों पर साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया जा चुका है, सोम सरोवर ऐसे कई ग्रन्थों से कहीं ऊंचा श्रेष्ठ है। सोम-सरोवर पुस्तक का महत्व बताते हुए प्रसिद्ध लेखक एवं विद्वान राजेन्द्र जिज्ञासु ने लिखा है कि हिन्दी के साहित्यकार, प्राध्यापक प्रेमी यह जान लें कि हिन्दी साहित्य में इस कोटि की दूसरी पुस्तक अब तक तो लिखी नहीं गई। यदि कोई है तो वह पं. चमूपति कृत जीवनज्योति है। आईये इस पुस्तक सोम-सरोवर से दो मन्त्रों का पाठ व उसकी व्याख्या पढ़कर सरोवर में स्नान का आनन्द लेते हैं।

 

मन्त्र हैः यस्ते मदो वरेण्यस्तेनापवस्वान्धसा। देवावीरघशंसहा।। लेखक ने इस मन्त्र का शीर्षक पापनाशक नशा दिया है। मन्त्र का ऋषि है अमहीयुः अर्थात् एक ऐसा मनीषी जो पृथिवी की नहीं, आकाश से भी ऊपर द्युलोक की उड़ान लेने वाला। पहले इस मन्त्र के पदों वा शब्दों के अर्थ जान लेते हैं। (ते) तेरा (यः) जो (वरेण्यः) ग्रहण करने लायक (मदः) नशा है (तेन) उस (अन्धसा) प्राणप्रद संजीवनरस से (आपवस्व) चारों ओर पवित्रता का प्रवाह चला। तू (देवावीः) दिव्य भावनाओं तथा दिव्य प्रजाओं का रक्षक तथा (अघशंसहा) पाप की प्रशंसा का घातक है।

 

अन्य सब नशे छोड़ देने चाहिए। वे मैले हैं, अपवित्र हैं। उन में पाप का पुट है। वे हिंसा से पैदा होते हैं। उन के खमीर में पाप है। वे पाप ही की उपज हैं और पाप ही की प्रेरणा करते हैं। परन्तु मोहन ! तेरे प्रेम का नशा प्राणप्रद है। इस से स्वास्थ्य बढ़ता है। इस के पान से शरीर नया जीवन-लाभ करता है। और मन की तो काया-पलट सी हो जाती है। यह नशा अत्यन्त पवित्र, अत्यन्त सुखदायक है।

 

देवताओं के लिए यह नशा अमृत है। दैवी प्रवृत्तियां सो रही हों तो इस नशे का ध्यान आते ही जाग जाती हैं, झूमने लगती हैं। भली भावना किसी संकट के कारण मृतप्राय हो तो केवल जी ही नहीं, लहलहा उठती हैं। साईं के स्नेह का नशा सत्य की, सरलता की, सन्तोष की, सदाचार की रक्षा करता है। लाख आपत्तियां आती हों, साईं का स्नेही धर्म के रास्ते से नहीं हटता। धर्म के लिए संकट सहने में उसे आनन्द आता है। पाप की मोहिनी साईं के स्नेह के सम्मुख एक क्षण के लिए भी नहीं ठहर सकती।

 

हमारा मन भटक जाता है। उस की रूचि पाप की ओर हो जाती है। कोई अन्दर-अन्दर से मानो दबी सी आवाज में पाप की प्रशंसा करने लगता है। दिल कहता है-पाप है तो क्या, इस से लाभ ही होगा, झूठ बोल दो, इस से एक अपना ही नहीं, सम्पूर्ण जाति का लाभ है। परोपकारार्थ छल करने से क्या दोष है? इस प्रकार के कितने छल हैं जो मेरा छली मन रोज करता रहता है।

 

प्रभो ! आप की आंख बचा कर तो यह छल चल भी जाये, परन्तु आप के सामने आते ही यह मोह–अज्ञान का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जाता है। आप की एक कृपा-कोर लाख पापों का बंटाढार कर देती है।

 

तो फिर वह आप की कृपाकोर कहां है? मेरे लिए वही सोम है। मैं उसी का प्यासा हूं। एक प्याली! एक घूंट!! एक बूंद!!!

 

हम आशा करते हैं कि उक्त मन्त्र की व्याख्या से पाठक आनन्दित एवं भाव-विभोर हुए होंगे। एक अन्य मन्त्र की व्याख्या और प्रस्तुत कर रहे हैं। इस मन्त्र का शीर्षक है इन्द्र की अर्चना मन्त्र प्रस्तुत हैः इन्द्रायेन्दो मरुत्वते पवस्व मधुमत्तमः। अर्कस्य योनिमासदम्।। मन्त्रार्थः (इन्दो) जगत् को सरसाने वाले स्नेहरस के सुधाकर मुझ (मरुत्वते) प्राणों वाले (इन्द्राय) मुझ इन्द्रियों वाले देहधारी के लिए (मधुमत्तमः) अत्यन्त मधुर होकर (पवस्व) पवित्रता का प्रवाह चला। मैं (अर्कस्य) अर्चना के (योनिम्) मन्दिर में (आसदम्) प्रवेश कर रहा हूं।

 

मेरे प्राण प्रबल हैं। शरीर स्वस्थ हैं। अंग-अंग में स्फूर्ति है। निठल्ला बैठने को जी नहीं चाहता। दसों इन्द्रियां शक्तिशाली हैं। यह सब कुछ होते हुए भी जीवन नीरस है। स्वास्थ्य के साथ भी दिन बीत जाता है। रोग की अवस्था में भी ज्यों त्यों रात कट जाती है। किसी ने कराह-कराह कर समय गुजार दिया, किसी ने हंस खेल कर दिन बिता दिये। स्मृति दोनों की नीरस है।

 

मुझे शक्ति का अभिमान तो होता है, रस नहीं मिलता। गर्व से गर्दन उठा देता हूं और वह ऐंठ जाती है। पर ऐंठ में रस कहां? रस तो लचक में है। हां लचक ही में जीवन है।

 

प्रभो ! कोई लचकीला आनन्द !  कोई स्थायी स्थिर रस ! सुनता हूं, स्थिर रस तुम्हारी कृपा-कोरों में है। तुम्हारी कृपा-कोरों की चांदनी चांद के, तारों के प्रकाश के साथ-साथ जगत् को व्याप्त कर रही है। आकाश-गंगा प्रेम की गंगा बहाये जा रही है। मेरे हृदय-चकोर के चांद ! तुम्हारी स्निग्ध किरणों ने ही तो अपने स्नेह-रस में सम्पूर्ण प्रकृति को गूंध-गूंध कर रसमय बना दिया है। तुम्हारा हृदय यदि आर्द्र न होता तो अणु-अणु पृथक भले ही रह जाता, पर इस में तरी न आती। पिण्ड न बनते। ब्राह्माण्डों की सृष्टि-संसृष्टि-न हो पाती।

 

हे सृष्ट जगत् के संजीवन-रस। एक कृपा-कोर मेरी ओर भी।

 

मैं अपने ताप का कारण समझ गया हूं। वह है तुम्हारी करुणा से विमुखता। मेरे पास स्वास्थ्य है, स्फूर्ति है, पर इन दोनों का सारतुम्हारा स्नेह मेरी आंखों से दूर है।

 

हे प्राणों के प्राण ! मेरे प्राणों को अपनी स्नेहसुधा से अनुप्राणित कर दो। मेरे जीवन को अपनी संजीवनी से उज्जीवित कर दो। मेरी इन्द्रियां तुम्हारी अर्चना के फूल बन जायें। मेरे प्राण तुम्हारी पूजा के नैवेद्य हों। आज मेरा नया जन्म हो। अर्चना के जीवन का जन्म। पूजा के नवजीवन का उदय।

 

मैं झुक जाऊं, लचक जाऊं, तुम्हारे चरणों में तन, मन, धनसब अर्पण कर दूं। सफलता अर्पण में है। अर्चन में है। अर्पण अर्चन एक हैं।

 

हम आशा करते हैं कि पं. चमूपति जी की उपर्युक्त अर्चनाओं को पढ़कर पाठकों ने भक्ति के सोम-सरोवर में स्नान कर आनन्द का अनुभव अवश्य किया होगा। इस अर्पण व अर्चन को संजो कर रखिये, बहुत काम आएगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001/फोनः09412985121

क्या धर्म से सुखी हो सकते हैं?????                                              शिवदेव आर्य, गुरुकुल पौन्धा, देहरादून मो.-8810005096

 

इस भूमण्डल पर प्रत्येक प्राणी सुख की कामना करता है। हर कोई साधु-संन्यासी, बड़े-बड़े महन्त पूर्ण दावे के साथ सुख प्राप्त करा देने की बात करते हैं। ये बात कितनी ठीक है? ये तो नहीं जानता परन्तु निश्चित रूप से कह सकता हूॅं कि यदि कोई व्यक्ति चाहे और प्रयास करने लग जाये, तो सुख का सोपान अलभ्य तो बिल्कुल नहीं है। प्रयत्न काल से ही सुख की वृष्टि प्रारम्भ हो जाती है।

सुख कैसे प्राप्त हो ? इस प्रश्न का समाधान वैदिक वाङ्मय से सहजतया प्राप्त होता है कि सुखस्य मूलं धर्मः अर्थात् सुख का मूल धर्म है। जी हाॅं,  ये तो बहुत आश्चर्य का विषय है कि धर्म सुख का मूल कैसे हो सकता है? ये धर्म ही तो आज दुःख के कारण बने हुए हैं। जहाॅं देखो वहीं धर्म के नाम पर लड़ाई-झगड़े हो रहे हैं। यहाॅं कोई हिन्दु धर्म को मानने वाला है तो कोई मुस्लिम, कोई सिख तो कोई ईसाइ आदि। ये जो परस्पर द्रोह करते रहते हैं। दुःख पहूॅंचाने का सदैव प्रयत्न करते रहते हैं। अगर मैं इन धर्मों को मानूॅंगा तो मैं भी इन के ही समान हो जाऊॅंगा तो ये धर्म सुख का साधन कैसे हो सकता है?

यह सर्वमान्य सत्य है कि आज के समाज में धर्म के नाम पर पाखण्ड़ पनप रहा है। धर्माधिकारी धर्म का यथार्थ स्वरूप न बताकर मतान्ध बना रहे हैं। एक दूसरे से लड़ना सिखा रहे है।ं चाहे कोई हिन्दू हो या मुसलमान, सिक्ख हो या ईसाई, पारसी हो या बहाई, जैनी हो या बौध्द, कोई भी क्यों न हो, प्रत्येक एक-दूसरे को मारने-काटने को सदैव उद्यत रहते हैं।

हम अपनी सारी शक्ति लड़ने-झगड़ने में समाप्त कर देते हैं। हम अपने बारे में ही सोचते हैं। हम अपने से आगे किसी को देखना पसन्द नहीं करते।  अगर कोई  परिश्रम करके आगे निकल भी जाता है तो उसको पीछे करने के लिए परिश्रम नहीं करते। बल्कि दूसरे मनुष्य  के पैर पकड़ कर नीचे खींच देते हैं।

धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है, तोड़ता नहीं। जो एक-दूसरे के बीच में दरारें पैदा करता है, एक-दूसरे को तोडता है, झगड़े कराता है, वह धर्म कदापि नहीं हो सकता। धर्म तो एकता का पाठ पढ़ाता है, वैर-विरोध का नहीं। धर्म तो आपस में भाई-चारे का पाठ सिखाता है, पे्रम का पाठ पढ़ाता है, सुख और शान्ति की सुगन्ध फैलाता है।

धर्म शब्द ‘धृ धारणपोषणयोः ’ इस धातु से औणादिक मन् प्रत्यय करने से सिध्द होता है। सुख प्राप्ति के लिए जिसको धारण किया जाये या जिसका सेवन किया जाये, उसे धर्म कहते हैं। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि किसको धारण किया जाये? वह क्या हैं? इसका उत्तर देते हुए मनुमहाराज  कहते हैं कि धर्म के दश लक्षण हैं, जो इस प्रकार हैं-

धृतिक्षमादमोऽस्तेयं  शौचमिन्द्रिय निग्रहः।

धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।

धृति:   धृति अर्थात् धैर्य को धारण करना। बड़ी से बड़ी आपत्ति आने पर, अपने आप में धैर्य को बनाये रखना चाहिए।

क्षमा: क्षमा करने के सामथ्र्य को धारण करना। जैसे कोई जीव निर्बल है, उससे कोई गलती होने पर उसे माफ (क्षमा) कर देना ही क्षमा है।

दम:    दमन करना अर्थात् रोकना। इन्द्रियाॅं अपने विषयों में बार-बार चली जाती है। आॅंख अच्छा रूप देखना चाहती है परन्तु विषय वस्तुओं में लिप्त हो जाती हैं। इनको रोकना ही दम है।

अस्तेय: चोरी न करना ही अस्तेय है। कोई भी तुच्छ से तुच्छ वस्तु को बिना स्वामी की आज्ञा से हाथ न लगाना अस्तेय कहाता है।

शौच: शुचिता अर्थात् पवित्रता एवं स्वच्छतापूर्वक रहने को शौच कहते है। शुचि रहने से मनुष्य परम शान्ति का अनुभव करता है।

इन्द्रियनिग्रह: इन्द्रियनिग्रह का तात्पर्य यह है कि अपनी इन्द्रियों को अपने  नियन्त्रण में रखना। हम कोई भी आकर्षक चीज देखते हैं तो उसे प्राप्त करने के लिए हम अपनी इन्द्रियों के अधीन हो जाते हैं। इसी आकर्षण से बचने का नाम ही इन्द्रियनिग्रह है।

धी:    अच्छी मति (बुध्दि) को धी कहते हैं। हमारे शरीर का मुख्य भाग बुध्दि है। वह बुध्दि अच्छी हो, पापाचार से अयुक्त हो तो सम्पूर्ण कार्य अच्छे होते हैं। इसलिए गायत्री मन्त्र में परमपिता परमेश्वर से ‘‘धियो योः न प्रचोदयात्’’ की प्रार्थना  करते है।

विद्या: विद्या अर्थात्  सत्य ज्ञान को पाकर, मानव अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त होता है।  विद्या के वास्तविक स्वरूप को दर्शाते हुए कहा गया है कि ‘‘सा विद्या या विमुक्तये’’ विद्या वही जो अमृतत्व को प्राप्त कराये।

सत्य: वास्तविकता को सत्य कहते हैं। अर्थात् जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही मानना, कहना, जानना  और उसके अनुरूप कार्य करना ही सत्य है।  किसी ने कह दिया और उसे हम सत्य मान ले, तो यह न्यायोचित नहीं है। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी लिखते है कि जो प्रत्यक्षादि आठ प्रमाणों से युक्त और पाॅंच प्रकार की परीक्षाओं की कसौटी पर तुला हुआ हो, वही सत्य है।

अक्रोध: ‘‘क्रोधो अमर्षा’’ अर्थात् सहन न करने को  क्रोध  कहते है। किसी ने कुछ अपशब्द कह दिये तो उसे सहन न करना ही क्रोध है। क्रोध मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। जब हम क्रोध में वशी भूत होकर धर्माधर्म में अन्तर नहीं समझते तब अधर्मयुक्त कुकृत्यों को कर बैठतें है।

ऋषिवर देव दयानन्द जी महाराज धर्म के स्वरूप को दर्शाते हुए आर्योदेश्य रत्नमाला में  लिखते हैं कि-जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन पक्षपात रहित न्याय व सर्वहित करना है, जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए एक और मानने योग्य है, उसे धर्म कहते हैं।

न लिंगधर्मकारणम्-संसार में विभिन्न मतवालों ने अपने-अपने धर्म के नाम पर विभिन्न चिह्न बना रखे हैं। जैसे कोई केश बढ़ा रहा है, कोई लम्बी दाढ़ी बढ़ाये हुए  है, कोई्र केश व दाढ़ी दोनों बढ़ाये हुए है, कोई पांच शिखाएं रखे हुए है, कोई मूंछ कटाकर दाढ़ी बढ़ा रहा है और कोई चन्दन का तिलक लगा रहा है, कोई माथे को अनेक रेखाओं से अंकित किये हुए है और हाथों पर भी चिह्न बनाये हुए है, किन्तु ये सभी धर्म से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखते हैं। अत एव बाह्यचिह्नों को धर्म नहीं माना गया हैं।

धर्म को धारण करने से ही लौकिक तथा पारलौकिक सुख की प्राप्ति होती है। हमें जानना चाहिए कि सुख-दुःख क्या हैं?   सुख और दुःख संस्कृत भाषा के शब्द हैं- सु=शोभनं खेभ्यः=इन्द्रियेभ्यः’ अर्थात् जो इन्द्रियों को अच्छा लगे उसे सुख कहते हैं। और दूर्=दुष्ठु=अशोभनं खेभ्यः=इन्द्रियेभ्यः अर्थात् जो इन्द्रियों को अच्छा न लगे उसे दुःख कहते हैं।

आत्मा भोक्ता है, उसके भोग का आधार शरीर है, भोग के साधन नेत्रादि इन्द्रियाँ है। इन्द्रियों के अर्थ ही भोक्तव्य हैं, बुध्दि ही भोग है, और फल तथा दुःख का स्वरूप समझाते हुए लिखा हैं-ससाधनं सुखदुःखोपभोगः फलम्। जन्म……सुखसाधनस्य दुःखानुषंगगात् विविधबधनायोगाद् दुःखम्।।

अर्थात् सुख-दुःख के साधनों का बुध्दिविषयत्वापन्न भोग ही फल है। सुख के साधनों का दुःख से सम्पर्क होना ही दुःख हैं। इसी बात को इस प्रकार कह सकते हैं कि-

अनुकूलवेदनीयं सुखं प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्।।

अर्थात् आत्मा के अनुकूलता का ही नाम सुख है और प्रतिकूलता दुःख है। महर्षि मनु ने सुख दुःख की व्याख्या इस प्रकार की है-

सर्वं परवश्ंा दुःखम्, सर्वमात्मवशं सुखम्।।

एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।।

सुख दुःख का संक्षेप में यही लक्षण जानना चाहिये अर्थात् दूसरों के अधीन होना ही दुःख है और अपने अधीन रहना ही सुख है।

सुख दुःख का प्रत्यक्ष ज्ञान हमें कैसे होता है। इसकी प्रक्रिया समझाते हुए, न्यायदर्शन में वात्स्यायन भाष्य में लिखा है कि ‘‘आत्मादिषु सुखादिषु च प्रत्यक्षलक्षणं वक्तव्यम्।’’ आत्मादि तथा सुखादि का प्रत्यक्ष कैसे होता है उसका प्रकार समझाते है- जीवात्मा प्रथम मन से सम्पर्क करता है, मन इन्द्रियों से तथा इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सम्बध्द होकर प्रत्यक्ष कराती है।

वैशेषिक दर्शनकार कणाद कहते हैं – ‘‘यतोऽभ्युदयनिश्रेयस् बुध्दि: स धर्मः’’ इसलिए धर्म करने से ही मनुष्य का जीवन सार्थक है परन्तु आज सम्पूर्ण विश्व में लोगों को यह नहीं पता कि धर्म क्या होता है? मुस्लिम, इसाई, बौध्द, जैन आदि मत-मतान्तरों को कुछ लोग धर्म मान लेते है और उस पर चलना प्रारम्भ कर देते है वे नहीं जानते कि धर्म क्या है अथवा किसे कहते है? मुस्लिम विचार करता है कि मुस्लिमत्व ही मेरा धर्म है, ईसाई विचार करता है कि कृश्चीयन मेरा धर्म है, हिन्दु विचार करता है कि हिन्दुत्व ही मेरा धर्म है परन्तु ये यह नहीं जानते कि जिसका ये धर्म मानकर अनुष्ठान कर रहे है, वे धर्म नहीं मत-सम्प्रदाय है। वास्तव में जब धर्म का स्वरूप ही भ्रान्त हो जाएगा तो, धर्म का अनुष्ठान सर्वथा व्यर्थ है।

व्यक्ति के अवनति  व विनाश के साधनों को जुटाने में जो ऊर्जा शक्ति का अपव्यय होता है, उससे आत्मिक बल और जीवनीय शक्ति का भी क्षय होता हैं। भय और हिंसक प्रवृत्ति बढ़ने लगती हे और निश्चित रूप से विवेक में न्यूनता आती है। उस व्यक्ति में स्वार्थ, लिप्सा और मिथ्याहंकार ज्ञान-चक्षुओं के पट खुलने नहीं देते। इसके दुष्परिणाम तत्काल या कालान्तर में उस व्यक्ति, समाज व राष्ट्र को भुगतने पड़ते हैं। इसलिए जीवन में उन्नति के इच्छुक व्यक्ति को विवेक का विकास निरन्तर करते रहना चाहिए। यही यथार्थ में जीवन का पथ हैंै।

आचार्य चाणक्य ने लिखा है‘‘सुखस्य मूलं धर्मः धर्मस्य मूलमिन्द्रियजयः।’’ अर्थात् सुख का मूल धर्म है और धर्म का मूल है-इन्द्रियों को संयम में रखना। संसार में  प्रत्येक मनुष्य की इच्छा होती है कि मैं सुखी रहूँ और सुख की प्राप्ति धर्म के बिना नहीं हो सकती। अतः धर्म का आचरण अवश्य ही करना चाहिये। बिना धर्म को अपनाये कोई भी मनुष्य सुखी नहीं हो सकता है। इसीलिए वर्तमान में तथाकथित जो धर्म है, उसे स्वीकार न कर सर्वहितार्थ जो धर्म का स्वरूप यहाॅं बताया है, उसे ही धारण करना चाहिए। इसी से दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति हो सकेगी। धर्म को धारण करने से सुख ही नहीं प्राप्त होगा अपितु भावी जन्म में भी सहायक होगा।

संसार की कोई भी वस्तु सुख का हेतु हो सकती है परन्तु मरणोत्तर किसी के साथ नहीं जा सकती। शास्त्रकार कहते हैं-

धर्म एकोऽनुगच्छति’ अर्थात् एक धर्म ही मरणोत्तर मनुष्य के साथ जाता है। नीतिकार भी कहते है-

धनानि भूमौ, पशवश्च गोष्ठे, नारी गृहे बान्धवाः श्मशाने।

देहश्चितायां परलोकमार्गे, धर्मानुगो गच्छति जीवः एकः।।

अर्थात् भौतिक समस्त धन भूमि में ही गड़ा रह जाता है अथवा आजकल बैंकों में या तिजोरियों में ही   धरा रह जाता है और गाय आदि पशु गोशाला में ही    बन्धे रह जाते हैं । पत्नी घर के द्वार तक ही साथ जाती है और परिवार के भाई-बन्धु व मित्रजन श्मशान तक ही साथ देते है एक मनुष्य का शुभाशुभ कर्म ;धर्मद्ध ही परलोक में मनुष्य का साथ देता है अर्थात्  धर्म के अनुसार ही मनुष्य को परलोक में अच्छी-बुरी योनियों में जाना पड़ता है।

यतो धर्मस्ततो जयः गीता के इस श्लोक से इस बात की पुष्टि होती है कि धर्म सदैव विजयी होता है। चाहे  अधर्मी कितना ही बलवान् हो उसकी हार अवश्य होती है लोक में भी यह देखा जाता है कि अधर्मी की हार का कारण अधर्म ही बन जाता है। मनुस्मृति में भी सत्य ही कहा गया है-

अधर्मेणैधते तावत् ततो भद्राणि पश्यति।

ततो सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति।।

अर्थात् अधर्माचरण करने से व्यक्ति धन-सम्पदा बढ़ने से बढ़ता हुआ दिखाई देता है, तत्पश्चात् भद्र भी देखता है अर्थात् भौतिक साधनों की समृध्दि होने से बड़े-बड़े महल, कोठियाँ बना लेता हे, अपने विरोधियों पर येन-केन विजय प्राप्त कर लेता है। किन्तु अन्त में उसका सर्वनाश हो जाता है। इसलिए हमें इस शाश्वत सत्य पर अवश्य दृढ़ विश्वास करना चाहिये-

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।

तस्माद् धर्मो न हन्तव्यः मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।

जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म उसका नाश कर देता है और जो धर्म की रक्षा करता हैं धर्म उसकी रक्षा करता है। इसलिए अधर्म से प्राप्त लक्ष्मी कभी भी घर में न आने देवंे। अन्यथा ऐसा धन तीसरी पीढ़ी में अवश्य दुष्परिणाम दिखा देता है। लोक में ऐसे उदाहरण अधिकांशतया प्राप्त हो जाते हैं।

निष्कर्ष रूप में  धर्म का ज्ञान तथा उसका आचरण मनुष्य के लिए परमावश्यक है। यही हम सब का आधार है। हम सब के परमलक्ष्य का परम सहायक भी यही धर्म है। आओ! हम सब मिलकर धर्म के यथार्थ स्वरूप को जाने तथा धारण कर सुख-सम्पन्नता के मार्ग को प्राप्त हो, मोक्षपथानुगामी हों।