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बच्चों का व्यापार – आचार्य अखिल विनय

जर्मनी में ‘बच्चों का केटलॉग’ छापकर बच्चे बेचने का धंधा किया जाता है। उसमें छपा रहता है कि तीन सप्ताह में ‘बच्चा’ लिया जा सकता है। वैसे जर्मनी में किसी बच्चे को गोद लेने में दो-ढाई साल तक का समय लगता है। जर्मन माता-पिता की निःसंतान बने रहने की समस्या को दूर करने में बच्चों का व्यापार करने वाली हॉलैण्ड की संस्थाएँ अग्रणी हैं।

बच्चे पैदा करके बेचने वाली एक फर्म के बारे में कोलबो का समाचार छाप कर ‘‘बाल साहित्य समीक्षा’’ (पृष्ठ 9, जून 1987) ने एक महत्त्वपूर्ण बात बतायी है कि किस प्रकार ‘शिशु फार्म’ पर छापा मार कर पुलिस ने 26 बच्चे और बारह र्गावती महिलाएँ बरामद कीं। स्वीडन की महिला लुदरस्ट्राम श्रीलंका से बच्चों का व्यापार करती थी। कितना अमानवीय कृत्य है यह! पैसा कमाने के लिए कानूनी तरीके से बच्चे पैदा करके उनका निर्यात किया जाना भर्त्सना के योग्य है।

किन्तु बच्चे बेचने का यह कार्य श्रीलंका ही नहीं, भारत, बंग्लादेश और थाईलैंड से भी होता है। पश्चिम जर्मनी की पत्रिका ‘डेर स्पेगल’ ने इस रहस्य का उद्घाटन किया, जिसकी चर्चा ‘इंडिया टूडे’ (जनवरी 15, 1943) में की गयी थी। प्रायः हर सप्ताह जर्मनी के फ्रेंकफुर्त नगर के विमानतल पर हीरों के हार पहने जर्मनी महिलाएँ, मुबई से उठाये गये बच्चों को छाती से चिपटाये वहाँ उतरती हैं। मुबई, कलकत्ता, कोलबो या थाइलैंड की झोपड़ पट्टियों में निरन्तर बढ़ने वाले ऐसे बच्चे हैं, जो विदेश ले जाये जाते हैं।

पिछले दिनों जर्मन चर्च संगठन ने ऐसे एक सर्वेक्षण में पाया था कि अकेले कलकत्ता के अनाथगृहों में पचास हजार ऐसे बच्चे थे।ाारत में ऐसे अनाथ बच्चों की संया कितनी ज्यादा होगी, इसका सहज ही अंदाज लग सकता है। एजेंटों और बिचोलियों की मदद से बच्चों की बिक्री का यह व्यापार खूब पनप रहा है। मध्यमवर्गीय निःसंतान लोग इस प्रकार अपनी तमन्ना पूरी करते हैं, क्योंकि उन्हें सफेद वर्ण का दत्तक बालक मिलता नहीं। पश्चिम यूरोप-विशेषकर पश्चिम जर्मनी में यह धंधा खूब पनप रहा है। प्रायः एक बच्चा रुपये 44000/- में, एक निःसंतान जर्मन दपति को मिलता है।

कहा जाता है कि बच्चों के ऐसे अवैध व्यापार में जर्मनी ही नहीं, निकटवर्ती हॉलैण्ड की कुछ एजेंसियों का भी हाथ है। ऐसी ही एक संस्था का नाम है- लैश, जो बच्चों को जल्दी उपलध कराती है। किन्तु सवाल यह उठता है कि बच्चे खरीदें क्यों जाते हैं? क्या गोद नहीं ले सकते? कारण स्पष्ट है कि गोद लेने की कार्रवाई में ढाई साल तक का समय लग सकता है, जबकि एजेंसियों के मार्फत बच्चे खरीदने में केवल ढाई सप्ताह लगते हैं। ये एजेंसियाँ अश्वेत बच्चों के आकर्षक फोटो देकर अपने ‘केटलॉग’ छापती हैं और निःसंतान धनी जर्मनी दपतियों को आकृष्ट करती हैं।

पश्चिम जर्मनी की प्रमुख पत्रिका ‘डेर स्पीगले’ में पत्रकार स्वांट्जे स्ट्रेडर ने बच्चे बेचने की इस प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए बताया है कि हॉलैण्ड की संस्था ‘लैश’ के डाइरेक्टर- डभास हॉर्डिक संतान के इच्छुक जर्मन दपतियों को बच्चों की पसन्दगी के लिए कोलबो ले जाते हैं और वहीं सौदा होता है।

हॉलैण्ड की संस्था ‘लैश’ की ही भाँति, इस धन्धे में संलग्न कुछ संस्थाएँ आस्ट्रेलिया, स्केंडिनेविया और स्वीट्जरलैण्ड की हैं, जो बच्चों का व्यापार चलाती हैं। खरीदे गए ऐसे बच्चों को गोद लेने के लिए जर्मनी का कानून इजाजत नहीं देता, किन्तु उन्हीं बच्चों का प्रथम प्रार्थनापत्र अस्वीकृत होने के बावजूद दूसरी बार निवेदन करने पर ‘‘सेकन्ड एडॉप्शन’’ कानून के आधार पर उसे स्वीकृति प्राप्त हो जाती है। यही कारण है कि बच्चों का यह अवैध व्यापार चल रहा है।

मासूम बच्चों की आँखों, गुर्दों व दिल का निर्यात-

‘बाल साहित्य समीक्षा’ (जून 1987 के अंक में, पृष्ठ 4 पर) द्वारा एक समाचार छापा गया है कि दिसबर 86 में हाँसराजू की पुलिस ने सेन पेड्रोसुला में चार मकानों पर छापे मारकर 13 बच्चों को मुक्त कराया। गिरतार लोगों में से पाँच ने स्वीकार किया कि वे बच्चों को चुराकर या गरीब परिवार वालों से खरीदकर अमेरिका भेजते थे, जहाँ प्रत्येक बच्चा दस हजार डालर में बिकता है।

इस तरह का जघन्य कृत्य भारत के भी बच्चों के साथ किया जा रहा है। दैनिक ‘‘इंडियन एक्सप्रेस’’ के 20 अगस्त 1947 में छपा था कि आंध्रप्रदेश के बटपला में इस तरह बच्चों के गुर्दे तथा दिल निकालकर बेचने वाला गिरोह सक्रिय है। तेनाली के निकटवर्ती गाँव कर्लापलेम के 16 वर्षीय श्रीनिवास राव ने बताया कि जब वह एक बस में सफर कर रहा था, विषाक्त रूमाल सुँघाकर एक व्यक्ति बेहोश करके उसे नेल्लोर के पास रेलगाड़ी से ले गया और बाद में उसे मारुति कार में ले जाया गया। श्रीनिवास राव को एक निर्जन स्थल में रखा गया, जहाँ 15 दूसरे बच्चे थे। उसे पता चला कि उस दल के लोगों ने 50 बच्चों की हत्या की और उन्हें भी जान से मारेंगे। उस दल में नौ व्यक्ति हैं और बंदूकधारी पहरा देते हैं। वह अन्य युवकों की मदद से जान बचाकर भागा। चार घंटे जंगल में भटकने के बाद एक छोटे स्टेशन पर पहुँचा और किसी प्रकार घर लौटा। दूसरे 15 बच्चे कमजोरी की वजह से भागने में सफल नहीं हो सके।

श्रीनिवास राव के पिता ने इस दल की क्रूर कार्रवाइयों की सूचना पुलिस को दी और बटपला के पास चंदोलू पुलिस स्टेशन में उनकी शिकायत दर्ज है। वहाँ के सब-इंस्पेक्टर जी.आय. नेयलू उस मामले की जाँच कर रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि धन कमाने के लिए बच्चों के अवयव बेचने का जघन्य कृत्य लैटिन अमरीकी देशों में ही नहीं, भारत में भी हो रहा है। भारत सरकार को चाहिए कि वह इस दिशा में शीघ्र और ठोस कदम उठाये।

बाल साहित्य समीक्षा (मासिक)

कानपुर (उत्तरप्रदेश)

सितबर, सन 1987