धर्म अनिवार्य क्यों है? डॉ – धर्मवीर

हम समझते हैं- धर्म ऐच्छिक है, इसे हम मानें हमारी इच्छा, न मानें हमारी इच्छा। इसी प्रकार हम यह भी मानते हैं कि धर्म अनेक होते हैं, इसमें भी विकल्प हैं। कोई किसी बात को धर्म मानता है, कोई किसी बात को। ऋषि दयानन्द कहते हैं कि धर्म दो नहीं होते, धर्म एक ही होता है। धर्म की कसौटी भी उन्होंने बता दी- जिसे दुनिया का कोई भी समझदार व्यक्ति मानने से इन्कार नहीं कर सके, उसे धर्म कहते हैं। धर्म के सबन्ध में यह जानना आवश्यक है कि कोई वस्तु या विचार आवश्यक है या नहीं, इस बात का निर्णय उसकी आवश्यकता और उपयोगिता से होता है। हमें धन की  आवश्यकता का पता है, हमारे जीवन में उसकी उपयोगिता का हमें अनुभव है, अतः उसे प्राप्त करना चाहते हैं। धन प्राप्त करने के उपाय भी खोजते हैं। इसके लिए हम व्यापार करते हैं, नौकरी करते हैं, मजदूरी करते हैं, खेती करते हैं। कुछ भी करके हम धन कमाते हैं, क्योंकि धन के बिना हमारा जीवन चलता नहीं है, इसलिए अर्थ की हमारे जीवन में उपयोगिता है। हमें लगता है कि अर्थ की भाँति हमारे जीवन में धर्म की कहीं उपयोगिता दृष्टिगत नहीं होती, अतः धर्म अनिवार्य नहीं, ऐच्छिक है। हमें व्यापार आदि के करने से अर्थ का लाभ होता है, परन्तु धर्म के करने से हमें कुछ प्राप्ति होती दिखाई नहीं देती, अतः हम स्वीकार कर लेते हैं कि धर्म गौण और ऐच्छिक है।

अर्थ की आवश्यकता स्पष्ट है, धर्म की आवश्यकता स्पष्ट नहीं है। मनुष्य के पास जब पर्याप्त साधन हो जाते हैं, तब वह समझता है- मुझे किसी की आवश्यकता नहीं है, उसी प्रकार सब अपने लिये अपने-अपने पुरुषार्थ से धन कमा लेंगे, फिर मेरे धन की भी किसी को आवश्यकता नहीं रहेगी। मैंने अपने प्रयत्न से अपनी सूझ-बूझ और बुद्धि से धन कमाया है, वह मेरा है, अतः मैं किसी को भी क्यों दूँ? यह विचार स्वाभाविक है, इस विचार को सुधारने के लिए हमें वह प्रसंग खोजना होगा, जहाँ हमारे साधन सपन्न होने पर भी ये साधन हमारी कुछ भी सहायता नहीं कर सकते। आज नेपाल में भूकप आया है, क्या वहाँ के साधन सपन्न लोगों को कोई कष्ट नहीं है? क्या उनकी सपत्ति, उनके काम आ रही है? हम देखते हैं कि सपन्न व्यक्ति का घर टूट गया है, उसके पास आज रहने के लिए स्थान नहीं है, पीने के लिए पानी नहीं है, पहनने के लिए कपड़ा नहीं है, चोट और रोग की पीड़ा दूर करने के लिए उनके पास औषध और चिकित्सक नहीं है। आज उसके पास कोई सान्त्वना देने वाला भी नहीं है। ऐसी परिस्थिति में क्या धन उसकी सहायता कर सकता है? प्रथम तो उसके साधन नष्ट हो गये होते हैं, यदि साधन कहीं रखे भी हैं तो व्यवस्था के छिन्न-भिन्न हो जाने से वे साधन उसे एक घूँट पानी या एक ग्रास भोजन दिलाने में भी असमर्थ हैं। ऐसे समय में उसे कोई व्यक्ति पानी, भोजन, वस्त्र आदि साधन और सान्त्वना क्यों देगा? बस यहीं से दूसरी व्यवस्था का जन्म होता है, जिसे हम धर्म कहते हैं।

धर्म का फल मिलता है। लोग समझते हैं, धर्म का कोई फल नहीं मिलता, धर्म का फल मिलता है, क्योंकि ऐसा सभव नहीं है कि आपने कर्म किया हो, उसका फल  न मिले। जब बुरे कर्म का बुरा फल मिलता है तो धर्म के रूप में अच्छे कर्म का अच्छा फल क्यों नहीं मिलेगा? फल तो निष्काम कर्म का भी मिलता है, क्योंकि वह कर्म फल की आकांक्षा से प्रेरित होकर चाहे नहीं किया गया, परन्तु कर्म तो है। कर्म है तो फल भी होगा। सकाम कर्म में फल की इच्छा से कर्म किया जाता है। निष्काम कर्म में कर्त्ता के मन में फल की इच्छा नहीं रहती, फल परमेश्वर की व्यवस्था पर छोड़ दिया जाता है। सांसारिक कर्म पाप और पुण्य नहीं होने पर भी आवश्यक होने से फल की इच्छा से किये जाते हैं। धर्म के कार्य में और व्यापार के कर्म में अन्तर इतना ही है कि व्यापार के फल के रूप में धन को ध्यान में रख कर व्यापार किया जाता है, धर्म पुण्य रूप फल  को ध्यान में रखकर किया जाता है। रेल के डिबे में दो लोग पानी पिला रहे हैं या भोजन दे रहे हैं। एक जो पैसे लेकर देता है, उससे कोई भी व्यक्ति ले सकता है, परन्तु उसकी जेब में पैसे होने चाहिएँ। आपको कितनी भी भूख या प्यास लगी हो, यदि पैसे पास में नहीं हैं तो आप को भोजन या पानी नहीं मिल सकता। पैसे हैं तो आप बिना आवश्यकता के भी सामान लेकर अपने पास रख सकते हैं। इसके विपरीत धर्म आपके पैसे नहीं देखता, धर्म आपकी आवश्यकता देखता है, आपकी पीड़ा या कष्ट दूर करता है। यही उसका मूल्य है। धर्म आपके कष्ट को दूर करने के लिए किया जाता है, इसी कारण ऐसे कार्य को सेवा कहा गया है। पुराने लोगों ने सेवा को धर्म कहा है। जब कोई दुकानदार या सेवक सेवा करता है तो वह भी सेवा है, परन्तु धर्म की भाँति निष्काम कर्म नहीं है। जब धर्म समझ कर किसी की सेवा करते हैं, तब उसका धर्म, जाति, रूप, रंग, सबन्ध आदि में किसी का बोध नहीं होता। हम केवल उसकी पीड़ा से पीड़ित होते हैं और पीड़ा को दूर करना चाहते हैं। यदि सेवा में हम पक्षपात करते हैं, तब वह कार्य धर्म नहीं होगा, व्यापार होगा, सौदा होगा। बदले में आप कुछ भी क्यों न चाहते हों, जब आप बदला चाहते हैं, तब व्यापार करते हैं और तब वह पाप तो नहीं, परन्तु पुण्य भी नहीं, वह अपनों के साथ किया गया, कर्त्तव्य है। अतः जब कुछ देकर कुछ लिया जाता है, वह व्यापार है। जो देकर ही सुख मानता है, वह किसे दे रहा है, इससे उसका कुछ भी सबन्ध नहीं रहता, तब वह कार्य धर्म कहलाता है।

लोग समझते हैं कि धर्म बड़ी कठिन और गहरी वस्तु है, उसको समझना सबके लिए सरल नहीं है। यह हो सकता है कि विवेचना के स्तर पर तर्क-वितर्क में उसको समझना कठिन हो, परन्तु व्यावहारिक धरातल पर धर्म को समझना और करना दोनों ही सरल हैं। आप भोजन करते हैं, तब आप नहीं कहते कि आप धर्म कर रहे हैं, परन्तु रोटी का छोटा-सा टुकड़ा थाली में से निकाल कर किसी निमित्त से रखते हैं, तब आप धार्मिक भावना से भरे होते हैं। हमारे घरों में मातायें रोटी बनाते हुए पहली रोटी गाय के लिए और अन्तिम रोटी कुत्ते के लिए बनाती थीं। यह रोटी अपने लिए नहीं होने से स्वार्थ नहीं, परोपकार है और परोपकार और धर्म दोनों पर्यायवाची शद हैं। जब हम स्वयं पानी पीते हैं, तब स्वार्थ होता है और जब सब के लिए पानी पीने की व्यवस्था करते हैं, तब उसे धर्मार्थ प्याऊ कहते हैं। हम अपने लिये भवन बनाते हैं, तब वह घर होता है, होटल होता है, जब उपकार की भावना से घर बनाते हैं, तब उसे धर्मशाला कहते हैं। इस प्रकार अपने बच्चों को पढ़ाना स्वार्थ है, परन्तु निर्धन, असमर्थ बच्चों की सहायता करना धर्म है। मनुष्य की जो-जो आवश्यकताएँ है, उनकी पूर्त्ति स्वार्थ है। यदि हम उन्हीं आवश्यकताओं की पूर्त्ति निस्वार्थ भाव से अन्यों की करते हैं, तब वह धर्म बन जाता है। धर्म मनुष्य को संवेदनशील बनाता है, उसका मुय कारण है- स्वार्थ में मनुष्य के मन में रजोगुण प्रबल होता है। जब मनुष्य धर्म का कार्य करने की इच्छा करता है, तब उसके अन्दर सतोगुण की प्रबलता होती है। स्वामी दयानन्द जी के जीवन में आता है कि जब एक किसान गाड़ी में जुते हुए बैलों को मार-मार कर कीचड़ से गाड़ी को निकाल रहा था, तब स्वामी जी ने स्वयं गाड़ी में जुतकर गाड़ी को कीचड़ से बाहर निकाल दिया। सभी महापुरुषों के जीवन में इस प्रकार की दया और करुणा से भरे कार्यों की चर्चा आती है।

धर्म और अर्थ के उपार्जन में मुय अन्तर परिणाम के प्राप्त होने का है। यथार्थ में धर्म भी व्यापार ही है, अन्तर इतना ही है कि व्यापार में मनुष्य फल की प्राप्ति तत्काल चाहता है और जिसके प्रति कार्य किया गया है, उसी से फल की आशा करता है। जिसके लिये कार्य किया है, जिसको सौदा दिया है, उसी से मनुष्य परिणाम के रूप में धन प्राप्त करता है, परन्तु धर्म में कार्य तो हुआ है, परन्तु फल कब मिलेगा, कहाँ मिलेगा, किस के द्वारा मिलेगा- इसका धर्म करने वाले को पता नहीं होता। मनुष्य को विपत्ति में जब सहायता मिलती है तो वह फल ही है, परन्तु हमारे कौन से कार्य का, किसके प्रति किये गये कार्य का फल है- यह हम नहीं जान सकते। जैसे वर्तमान जीवन के लिए धन की तत्काल प्राप्ति हमारे आजीविका के लिये आवश्यक है, उसी प्रकार हमें विषम परिस्थितियों में, असमर्थता की दशा में धर्म की आवश्यकता होती है। व्यापार से, पुरुषार्थ से स्वयं धन कमाकर व्यक्ति स्वयं जीवित रहता है, परन्तु धर्म से अपने साथ-साथ दूसरों को भी जीवन देता है। मनुष्य को यदि दूसरे की सहायता की आवश्यकता न होती तो सभव था- धर्म की भी आवश्यकता न होती, परन्तु मनुष्य के जीवन पर दृष्टिपात करने पर देखते हैं- पदे-पदे मनुष्य को दूसरों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है। मनुष्य का बालक सहायता के बिना जीवित नहीं रह सकता। उसे जीवन में सदा सहायता की आवश्यकता होती है। सामान्य रूप से अपने कहे जाने वाले लोग जन्म से मृत्यु तक उसकी सहायता करते हैं। यह सहायता कर्त्तव्यवश या मोहवश की जाती है, परन्तु हमारे लोग सदा हमारे साथ नहीं होते या सदा समर्थ नहीं होते, ऐसी परिस्थिति में हमें अन्य की सहायता अपेक्षित है और यह सहायता हमें बिना धार्मिक बने नहीं मिल सकती। धर्म के फल की प्राप्ति जब परमेश्वर हमें आवश्यक समझता है, तब कराता है। जब हमें कहीं से भी आशा की किरण नहीं दिखाई देती, तब हम परमेश्वर को याद करते हैं, उससे सहायता की आशा करते हैं। वह सहायता क्या हमारे बिना किये कर्म का फल है? यदि ऐसा होता तो यह सहायता सबको सदा समान रूप से मिल रही होती, परन्तु विपत्ति सब पर आने पर भी दुःख सबको समान रूप से नहीं होता। दुःख में सहायता भी सबको समान रूप से नहीं मिल पाती। किसी को तत्काल सहायता मिलती है तो किसी को देर से, किसी को पर्याप्त, तो किसी को स्वल्प, ऐसा क्यों होता है? हमारे कर्मों की भिन्नता के कारण फल की प्राप्ति भी भिन्न होती है। जैसे व्यापार को सत्य व्यवहार से करने पर मन में सन्तुष्टि और धन की प्राप्ति भी होती है, उसी प्रकार धर्म का आचरण करने पर वर्तमान में सन्तोष का सुख और कालान्तर में परमेश्वर का सहयोग मिलता है।

इस बात को एक और प्रकार से समझा जा सकता है। राममनोहर लोहिया ने एक बार धर्म और राजनीति को परिभाषित करते हुए कहा था कि तात्कालिक धर्म को राजनीति कहते हैं और दीर्घकालिक राजनीति को धर्म कहा जाता है। उसी प्रकार तात्कालिक लाभ को व्यापार और दीर्घकालिक व्यापार को परोपकार या धर्म कहा जाता है। स्वार्थ और परार्थ दो कार्य हैं, दोनों की जीवन में आवश्यकता है, एक से किसी का भी कार्य नहीं चल सकता, परोपकार से स्वार्थ सिद्ध हो सकता है, परन्तु स्वार्थ में धर्म का अंश न हो तो परोपकार की सिद्धि नहीं हो सकती।

एक प्रश्न फिर भी अनुत्तरित रह जाता है- धर्म के प्रति रुचि कैसे जाग्रत हो? मनुष्य को धार्मिक होने के लिये संवेदनशील होना आवश्यक है। संवेदना शून्य व्यक्ति क्रूर बन जाता है, दूसरों को दुःख देने में प्रसन्नता अनुभव करता है। इसके विपरीत संवेदनशील व्यक्ति दूसरों के दुःखों से स्वयं दुःखी होता है और अपने दुःख को दूर करने के लिये वह दूसरों की सहायता करता है। इसी कारण धार्मिक परोपकार के कार्य करके मनुष्य को प्रसन्नता होती है और वह सन्तोष का अनुभव करता है। इसके लिए चाणक्य ने कहा है- हम जो कुछ करें, उसे बुद्धि के प्रकाश में करें, संसार के सारे कार्य हमें करने हैं, यदि धार्मिक बुद्धि से किये गये तो हमारी प्रवृत्ति उस ओर होती है। वह धार्मिक बुद्धि कैसे प्राप्त होती है? तब कहा गया है, वह धार्मिक बुद्धि शास्त्रों के अध्ययन से मिलती है। परमेश्वर की उपासना से मिलती है। हम ईश्वर उपासक या ईश्वर के भक्त को धार्मिक कहते हैं और मानते हैं कि जो धार्मिक होगा, वह ईश्वर का भक्त भी होगा। धार्मिक व्यक्ति को शास्त्र इसलिए पढ़ना चाहिए कि शास्त्रों की रचना धार्मिक और ईश्वर भक्त लोगों ने की है, उन्होंने इसमें धर्म पर चलने का मार्ग बतलाया है। धर्म पर चलने से क्या होता है? कोई व्यक्ति धार्मिक होता है तो कैसा होता है? धार्मिक होने से मनुष्य को क्या लाभ होता है? इसके लिए गीता में कहा गया है-  धर्म से वर्तमान में सुख होता है और बाद में कल्याण की प्राप्ति होती है। चाणक्य ने अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है- जो मनुष्य धार्मिक होता है, उसकी बुद्धि निर्मल होती है, धार्मिक व्यक्ति की वाणी स्पष्ट होती है, उसके कार्य सरल होते हैं, उसके कार्य में किसी प्रकार की कुटिलता नहीं होती। धार्मिक व्यक्ति के जीवन में जो सर्वाधिक उत्कृष्ट पक्ष है, वह कष्ट या दुःख आने पर विचलित नहीं होता और वैभव की प्राप्ति  होने पर अहंकार का ग्रास नहीं बनता। दोनों परिस्थितियाँ मनुष्य को असामान्य बनाती हैं। सांसारिक पदार्थों के लाभ और प्राप्ति में मनुष्य अपनी उपलधियों से गर्व का अनुभव करने लगता है, पदार्थों के अभाव में घोर निराशा और दुःख में डूब जाता है, आत्महत्या कर लेता है, इसलिये मनुष्य को वर्तमान लाभ के साथ परोक्ष के लाभ के लिए धार्मिक होने की आवश्यकता होती है। मनु महाराज नेाी संवेदनशील बनने के लिये कहा है-

अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते।

धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।।

– धर्मवीर

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