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ईश्वर की दया और न्यायः – राजेन्द्र जिज्ञासु

ईश्वर की दया और न्यायः सहस्रों वर्षों के पश्चात् संसार में पहला विचारक, दार्शनिक, ऋषि महर्षि दयानन्द ही ऐसा धर्माचार्य आया, जिसने यह जटिल गुत्थी सुलझाई कि ईश्वर की दया तथा न्याय पर्याय हैं। दोनों का प्रयोजन एक ही है। आस्तिक लोग ईश्वर को दयालु तो मानते ही हैं, परन्तु अन्यायी न मानते हुए भी मतवादी ईश्वर के दया व न्याय इन दो गुणों की संगति नहीं लगा पाते थे। पूर्व व पश्चिम में तार्किक लोगों ने एक प्रश्न उठाया कि संसार में सबसे बड़ा दुःख मौत है। यदि ईश्वर है तो उसके संसार में मृत्यु रूपी दुःख का होना उसकी क्रूरता को दर्शाता है। वह दयालु परमात्मा नहीं हो सकता। यही प्रश्न इन दिनों किसी ने महाराष्ट्र यात्रा में पूछ लिया।

एक बार काशी प्रयाग के पण्डितों को एक ऐसे ही व्यक्ति ने यह प्रश्न उठाकर परेशान कर दिया। तब जन्माभिमानी ब्राह्मणों को महर्षि के शिष्य पं. गंगाप्रसादजी उपाध्याय की शरण लेनी पड़ी थी। उपाध्याय जी ने प्रश्नकर्त्ता से कहा- मृत्यु का होनााी ईश्वर की दया को दर्शाता है, न कि क्रूरता को। यदि संसार में जन्मे प्राणियों की मृत्यु न होती, तो धरती तल पर नये जन्मे व्यक्तियों को खड़े होने को भी स्थान न मिलता। यदि हमारे पूर्वज न मरते तो फिर हमारे सिर पर सैंकड़ों व्यक्ति खड़े भी न हो सकते। उपाध्याय जी के उत्तर ने प्रश्न करने वाले को सर्वथा निरुत्तर व शान्त कर दिया।

इस्लाम में पहली बार एक विचारक नेाुलकर लिखा है- ‘‘वह रब भी है और आदिल और रहीम भी (न्यायकारी तथा दयालु भी)’’ यह और महर्षि के दया व न्याय का प्रयोजन एक ही है। इस घोष को सुनकर इस्लामी विद्वान् ने यह सिद्धान्त स्वीकार किया है। यह लेखक दया का अर्थ पाप को क्षमा होना नहीं मानता। इस लेखक ने यह लिखने का साहस दिखाया है कि ‘‘संसार में प्रत्येक कर्म का एक फल है, जो किसी भी अवस्था में उससे पृथक् नहीं हो सकता’’। यह वैचारिक क्रान्ति है। यह वैदिक इस्लाम है। ईश्वर की दया व न्याय पर विचार करने व समझने से उपरोक्त प्रश्न जैसे सब प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं।

आर्य सामाजिक साहित्य में घुसते दोषः अति उत्साही लेखकों के कारण तथा कुछ लेखकों व प्रकाशकों के प्रमाद से आर्य सामाजिक साहित्य में आपत्तिजनक दोष घुस रहे हैं। महाराष्ट्र यात्रा में एक आर्यााई ने ‘निर्णय के तट पर’ ग्रन्थ का पाँचवाँ भाग दिखाया। मुझे यह देखकर दुःख हुआ कि इसमें भी ऋषि के शास्त्रार्थ बहालगढ़ से छपे ग्रन्थ से उद्धरण लेकर दिये गये हैं, सो इनमें क ई दोष व भयङ्कर दोष घुस गये हैं। विषय पर अधिकार न होने से सपादकों ने पं. लेखराम जी सरीखे अद्वितीय शास्त्रार्थ महारथी द्वारा संग्रहीत ऋषि के शास्त्रार्थों को दोषयुक्त बना दिया है।

जालंधर में महर्षि का मौलवी अहमद अहसन से शास्त्रार्थ हुआ था। मकी पर मक्खी मारने वालों ने यहाँ मौलवी अहमद हुसैन कर दिया है। भूल स्वीकार करने का साहस कोई करता नहीं। गड़बड़ संक्रामक रोग बनकर फैल रही है। मिलान करने से और भी कई चूक मिलेंगी। ईसाइयों की एक प्रसिद्ध पुस्तक का नाम ही कुछ-का-कुछ छप रहा है। सावधान होने की आवश्यकता है। शास्त्रार्थों में प्रतिपक्षियों के महर्षि के बारे कहे गये कुछ कथन प्रमुाता से प्रचारित, करने की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता, यथा चाँदापुर के शास्त्रार्थ में पादरी जी ने कहाः-

‘‘सुनो भाई मौलवी साहबो! कि पण्डित जी इसका उत्तर हजार प्रकार से दे सकते हैं। हम और तुम हजारों मिलकर भी इनसे बात करें तो भी पण्डित जी (ऋषि दयानन्द) बराबर उत्तर दे सकते हैं।’’

आशा है, आर्यजन मेरी विनती पर ध्यान देंगे।

हिन्दू तथा हिन्दुत्ववादीः देश में हिन्दू समाज की स्थति पूर्ववत् दयनीय है। देश जाति हित चिन्तकों को बहुत जागरूक होकर धर्म रक्षा, जाति रक्षा के लिए बहुत सूझबूझ से सक्रिय होना होगा। हिन्दुत्ववादी के वक्तव्यों से भ्रमित होकर अति आशावादी व प्रमादी होना आत्मघाती नीति होगी। हिन्दू की दुर्बलता उसके अंधविश्वास तथा अनेकेश्वरवाद है। नागपुर का एक समाचार आँखें खोलने वाला है। एक उच्च शिक्षित हिन्दू अनेक भगवानों के हिन्दू चिन्तन पर विधर्मियों के पंजे में फँसकर……..। एक आर्यवीर को इसकी जानकारी मिली। ईशकृपा से उस परिवार की रक्षा हो गई। इस सेवक से भी अब उसका सपर्क हो जायेगा। हिन्दुत्ववादी नयी-नयी घोषणायें करने में मस्त हैं। शिवाजी के महाराष्ट्र में अनेक सुपठित परिवार अनेकेश्वरवाद की हिन्दुत्व फिलॉसफी से ऊबकर ईसाई मत में इन्हीं दिनों चले गये। आर्यवीर लगे हैं। देखिये, क्या परिणाम निकलता है, जब हिन्दुत्व के महानायक स्वामी विवेकानन्द की पुस्तक प्रभुदूत ईसा पादरियों के हाथ में हो तो फिर अशोक सिंघल ऐसे अभियान को कैसे रोक सकता है? गीता-गीता पर सर्मन सुनने को मिलने लगे हैं। काशी (रामनगर) से विधर्मियों ने गीता के पुनर्जन्म की धज्जियाँ उड़ा दीं। हिन्दुत्ववादी गीता प्रवचनकर्त्ता सब मौन रहे। किसी से उत्तर न बन पाया। परोपकारी ने ऐसे सब लेखकों व कान्ति मासिक को उपयुक्त उत्तर देकर धर्म रक्षा की। विवेकानन्द स्वामी के नाम लेवाओं तथा गीता के गोरखपुर प्रेस की नींद तो जगाने पराी न टूटी। लेखक ने गोरखपुर जाकर उन्हें चेताया कि उत्तर दो परन्तु…… । हिन्दुओं का उपास्य कौन है? दर्शन क्या है? इसका उत्तर मिलना चाहिये।

– वेद सदन, अबोहर-252226 (पंजाब)