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अज्ञान से ज्ञान की ओर – आचार्य शिवकुमार आर्य

जो एकत्व भाव से सभी को देखता है, उसको मोह तथा शोक नहीं होता है-

यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः।

तत्र को मोहः कः शोकऽएकत्वमनुपश्यतः।।

यजु. 40-7

पदार्थ – (यस्मिन्) जिसमें-जिसके हृदय में। (सर्वाणि भूतानि) सभी प्राणी (आत्मा एव) आत्मा ही (अभूत) हैं (विजानतः) जानते हैं (तत्र) उसके हृदय में (कः मोहः) कैसा मोह (कः शोकः) कैसा शोक (एकत्वम्) एकता को (अनुपश्यतः) देखने वाले को।

अर्थ- जो सभी प्राणियों को आत्मा ही समझकर सब में एक जैसा अनुभव करता है, ऐसे व्यक्ति को कभी कोई मोह तथा शोक नहीं होता है। इन दोनों मन्त्रों में एक क्रम का वर्णन किया हैं। मनुष्य और अन्य प्राणियों में तीन प्रकार के रोग होते हैं। पहले का नाम है विचिकित्सा, दूसरे का नाम है मोह और तीसरे का नाम शोक है, परन्तु इन सभी दुःख निकायों का एक ही उपाय या समाधान है, जिसे कहते हैं समत्व। समत्व को व्यवहार के स्तर लाने के लिए प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार तथा यथायोग्य सभी के साथ व्यवहार करना चाहिए।

इन तीन प्रकार की व्यावहारिक भूलों के कारण मनुष्यों को अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। इसी प्रकरण को योग शास्त्र में बड़े अच्छे प्रकार से स्पष्ट किया है-

‘‘मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां-

सुख-दुःख पुण्यापुण्यविषयाणाम् भावनातश्चित्तः प्रसादनम्’’

– योग. द. समाधिपाद-33

इस योगदर्शन के सूत्र में चित्त को प्रसन्न करने के चार उपाय बताये हैं। सुखी जनों को देखकर या मिलकर प्रसन्न होना तथा दीन-दुखियों को देखकर करुणा के भाव रखना चाहिये और इनको सहयोग प्रदान करना चाहिए। इसी प्रकार से सज्जन मनुष्य या पुण्यात्माओं में मुदिता (हर्ष) के भाव रखने चाहिये। चौथा है अपुण्यात्मा, अर्थात् दुष्ट, अधर्मी। उसके प्रति सज्जन जनों को सदैव उपेक्षा के भाव रखने चाहिये, क्योंकि दुष्ट व्यक्ति से दोस्ती तथा दुश्मनी-दोनों ही दुःखदायी होती हैं। इसी प्रकार से जो प्रतिपाद्य विषय है, उसमें एकता के स्थान पर अनेकता आती है, क्योंकि भिन्न-भिन्न वस्तु व व्यक्ति के स्वभाव अथवा गुणों को देखकर उसी प्रकार की वृत्ति बदलती है, तभी मानव सुखी व प्रसन्न चित्त रह सकता है, जब वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप को देखे। सभी को सम दृष्टि से देखना तो सदैव अशान्ति का कारण होगा। वस्तुतः वेदमन्त्र प्रतिपादित ‘‘एकत्व’’ किसी अन्य बात को ही कह रहा है। जिस एकत्व के भाव से लोग मोह, शोकादि सभी अन्तर विकारों से शान्त या संयत हो जाते हैं, वह एकत्व क्या है? यह सर्वाधिक विचारणीय बिन्दु है। जो भौतिकवाद तथा आध्यात्मवाद के विषय को समता में लाने तथा अनेकता में ही एकता को स्थिर करने का नाम एकत्व या समत्व है। जैसे एक सन्तरे के फल में विभिन्न प्रकार के तत्त्व अथवा रसों के होने पर भी समत्व है, इसी प्रकार अन्य पदार्थों में अनेकता में एकता है। मानव शरीर में दस इन्द्रियाँ तथा चार अन्तःकरण हैं। मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार ये सभी मिलकर आत्मिक शान्ति को एक रूप में प्रकट करते हैं। मन तथा इन्द्रियों की अनेक क्रियाएँ एक ही सुखानुाूति को जन्म देती हैं तथा भिन्न-भिन्न, क्षणिक सुख बड़े सुखों में परिणित हो जाते हैं। इसी तरह समस्त जीवन के कर्म एक फल में समाहित हो जाते हैं। आत्मवत्- जो देखने का दृष्टिकोण है, वह यह नहीं कहता कि अच्छी-बुरी वस्तु या व्यक्ति को यथार्थ में मत देखो। आत्मवत् दर्शन का अभिप्राय है कि सभी जड़-चेतन व आत्मा-परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानो तथा जानकर विषमता को हटाकर समता स्थापित करो। भिन्न-ािन्न पदार्थों का अपना-अपना एकत्व या समत्व है। उसी प्रकार से स्वयं आत्म तत्त्व की भी समसन्तुलन व एक अवस्था है। जो पदार्थ अपनी सच्ची शन्ति को भंग न कर सके और उस वस्तु के क्षणिक संसर्ग सुख के वशीभूत न हों, वह यथार्थ में एकत्व का स्वरूप है। समत्व को लाने के लिए इस आत्मा को न जाने कितने जन्म धारण करने पड़ेंगे। क्योंकि भौतिक वस्तुओं में तो सदैव एकत्व व समानता होती ही नहीं है, क्योंकि इन पदार्थों में एक रूपता सदैव रहती ही नहीं। ये सर्वदा बदलते रहते हैं। जैसे-शीत काल में वायु शीतल अनुभव होती है, परन्तु वही वायु ग्रीष्म ऋतु में गर्म प्रतीत होती है। जैसे व्यवहार में अभी एक व्यक्ति हमारा मित्र है, किन्तु वही व्यक्ति कुछ काल बाद हमारा दुश्मन बन जाता है। जिस भोजन से हमें जीवन मिल रहा है, वही भोजन अब विषम हो गया है और नाना प्रकार के रोग उत्पन्न कर रहा है। इस पंचभौतिक शरीर को कितने प्रयत्नों से पाला-पोषा था, किन्तु अब तो इसने जीवन जीने से स्पष्ट मना कर दिया। जो सभी सांसारिक सुखों का अधिकरण था, वही अंग-प्रत्यंग से शिथिल हो चुका है। वह अब नवीनीकरण चाहता है। वह सभी सुखों के स्थान पर दुःख देना प्रारभ कर देता है, अतः ध्यान देने योग्य बात यह है कि सुख-दुःख तथा शान्ति-अशान्ति कोई वस्तुनिष्ठ नहीं है। इनमें तो एकान्तिक नियम स्थापित किया ही नहीं जा सकता है, जिसके लिए वेद में उपदेश दिया जा रहा है। वस्तुतः कोई संशय तथा रोग व्यर्थ नहीं है, किन्तु उनका जो उत्पन्न होना है, उसका समुचित उपाय करना आवश्यक है। इसके आगे एक और समस्या है, उसे मोह कहते हैं। मोह और प्रेम के अन्तर को जानना भी बहुत जरूरी है, क्योंकि इनके मौलिक भेद को जाने बिना सन्देह दूर नहीं हो सकता है, प्रायः मोह के दीवाने लोग प्रेम को अन्यत्र स्थानों पर घसीटते हैं और मोह पिपासा को तृप्त करते हैं, किन्तु सच्चे प्रेम के अभाव में सच्ची शन्ति नहीं मिलती है। आधुनिक कवियों ने मोहमयी वासनाओं को प्रेम के रूप में प्रस्तुत किया है। यह सच्चे प्रेम के साथ घोर अन्याय है। मोह तथा प्रेम में मौलिक अन्तर है, प्रेम निःस्वार्थ विवेकपूर्वक होता है, किन्तु मोह किसी विशेष स्वार्थयुक्त तथा विवेकशून्य होता है। ‘‘मुह-वैचित्ये’’ इस धातु से मोह शद सिद्ध होता है। इसका अर्थ है चित्त का विचलित होना या विभ्रम होना। इसी प्रकार ‘‘प्रीञ्-तर्पणे’’ धातु से प्रेम शद सिद्ध होता है, जिसका अर्थ होगा- तृप्ति, तो इन दोनों शदों के पृथक्-पृथक् अर्थ हैं। जिसमें क्षणिक सुख है अपितु दुःख अधिक है, उसे मोह कहते हैं। दूसरा है प्रेम, जो स्थायी सुख तथा समत्व का कारण है। क्योंकि मोह का उत्पत्ति स्थान स्नेह है। शास्त्र कहता है कि ‘‘नास्ति मोहसमासवः’’ -महाभारत, अर्थात् मोह के समान कोईाी मादक द्रव्य नहीं है। जैसे अहंकार का मनुष्य के ऊपर प्रकोप होता है, तब वह विवेक शून्य हो जाता है, उसी प्रकार जब मनुष्य के ऊपर मोह का आक्रमण होता है, तब भी वह मोहान्धकार में अन्धा हो जाता है। एक माँ अपने अबोध बच्चे के दोषों को छिपाती है, क्यों? जिससे उसका पिता उसे दण्ड न दे सके। यह उस माँ का मोह संयुक्त अज्ञान है। उसी मोह के साथ अन्य दोष भी जुड़ जाते हैं। धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों के प्रति अत्यन्त मोह था। जिससे वह सत्यासत्य का निर्णय न कर सका और एकाीषण युद्ध का कारण बना। ‘‘मोहः पापीयान्’’ की उक्ति यहाँ सार्थक सिद्ध होती है। इस मोह की कई प्रकार की शाखाप्रशाखायें होती हैं। जैसे माता-पिता, पति-पत्नी भाई-बहन, पुत्र, पौत्र, धन, धान्य तथा भवन-भोजनादि। इसके अतिरिक्त शरीर तथा प्राणों का मोह अतीव प्रगाढ़ होता है। जिस शरीर में आत्मा ने लबे समय तक वास किया है, उसके प्रति अब अत्यधिक मोह जाग्रत हो जाता है, जबकि जिसका संयोग हुआ है, उसका वियोग भी अवश्यंभावी है, क्योंकि-

जरा मृत्यु हि भूतानां खादितारौ वृकाविव।

बलिनां दुर्बलानाञ्च हृस्वानां महतामपि।।

ये बुढ़ापा तथा मृत्युरूपी दो भेड़िये हैं, जो निरन्तर मानव शरीरों को खाये जा रहे हैं। बलवान, दुर्बल या छोटा-बड़ा कोई भी हो, सभी को ये खाने वाले हैं। मनुष्य की अति आसक्ति प्रायः पदलिप्सा होती है, जिसे शास्त्रों में लोकेषणा के रूप में उद्धृत किया है। मोह के लघु बन्धनों को छोड़ने के बाद यह लोक प्रतिष्ठा का मोह बाँध ही लेता है, जिससे बड़े-बड़े त्यागी तपस्वी लोग भी नहीं बच पाते हैं। विषय को विषाद करने के लिए एक कवि ने रूपक अलंकार के रूप में एक सुन्दर आयान दिया है। वह यहाँ प्रस्तुत है- आत्मा जब इस शरीर में आती है, तभी से पति-पत्नी सन्तान, चलाचल सपत्ति और पद के मोह में फँस जाता हैं उसकी स्थिति एक भँवरे के समान होती है, जो एक कमल की सुगन्ध के सुगन्घि पर मुग्ध हो जाता है और उसी फूल में अपना आवास बना लेता है। प्रतिदिन के गमनागमन की परेशानी को दूर करने के लिए उस फूल में बैठ जाता है, किन्तु रात्रि के समय पुष्प पराग के अन्दर बैठकर यहविचार करता है कि-

रात्रिगमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम्।

भास्वानुदिष्यति हसिष्यति पंकज श्रीः।।

इत्थं विचिन्तयति शोकगते द्विरेफे।

हा हन्त, हन्त! नलिनीं गज उज्जहार।।

अर्थात् वह मनोरथ करता है कि रात्रि बीतेगी और सुन्दर प्रभात होगा, सूर्य उदित होगा, कमल खिलेंगे लेकिन उस भँवरे के मनोरथ पर जो तुषारापात हुआ, वह अत्यन्त दुःख भरा था। रात्रि के समय वहाँ एक जंगली हाथी आया और उसने जल पीकर जो उत्पात किया वह शदों में कहना कठिन है। उस मदान्ध गज ने सरोवर स्थित उस कमल वन को कुचल डाला और उन्हीं जिस कमल पुष्प में भौंरा बैठा हुआ था, वह भी कुचला गया। अतः इस मानव की दशा वैसी ही होती है, जैसे कि उस मूर्ख भौंरे की हुई। इसीलिए मोह के स्वार्थ रूपी अन्धकार से निकलकर ‘प्रेम’ प्रकाश में आना चाहिये, जिससे संसार के बन्धन छूट सकें। इति।

-महर्षि कपिल आर्ष गुरुकुल (वैदिक आश्रम), कोलायत, बीकानेर, राज. चलभाष- 9413144029, 9166323384