संध्या क्या ?,क्यों ?,कैसे ?

संध्या क्या ?,क्यों ?,कैसे ? डा. अशोक आर्य आर्य समाज की स्थापना से बहुत पूर्व जब से यह जगत् रचा गया है , तब से ही इस जगत् में संध्या करने की परम्परा अनवरत रूप से चल रही है | बीच में एक युग एसा आया जब वेद धर्म से विमुख हो कर कार्यों का प्रचलन आरम्भ हुआ तो संध्या को भी लोग भुलाने लगे किन्तु स्वामी दयानंद सरस्वती जी का हम पर महान् उपकार है , जो हम पुन: वेद धर्म के अनुगामी बने तथा संध्या से न केवल परिचित ही हुए अपितु संध्या करने भी लगे | संध्या क्या है ? सृष्टि क्रम में एक निर्धारित समय पर परम पिता परमात्मा का चिंतन करना ही संध्या कहलाता है … Continue reading संध्या क्या ?,क्यों ?,कैसे ?

उत्थायावश्यकं कृत्वा कृतशौचः समाहितः । पूर्वां संध्यां जपंस्तिष्ठेत्स्वकाले चापरां चिरम् ।

संध्योपासन आदि नित्यचर्चा का पालन एवं उससे दीर्घायु की प्राप्ति – उठकर दिनचर्या के आवश्यक कार्य सम्पन्न करके स्वच्छ – पवित्र होकर एकाग्रचित्त होकर प्रातः कालीन संध्योपासना करने के लिए देर तक बैठे और उपयुक्त समय पर सांयकालीन संध्या में भी उपासना करे ।

पूर्वां संध्यां जपंस्तिष्ठन्नैशं एनो व्यपोहति । पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम् ।

संध्योपासना का फल – मनुष्य पूर्वासंध्या जपन् तिष्ठन् प्रातः कालीन संध्या में बैठकर जप करके नैशम् एनः व्यपोहति रात्रिकालीन मानसिक मलीनता या दोषों को दूर करता है तु पश्चिमां समासीनः और सांयकालीन संध्या करके दिवाकृतं मलं हन्ति दिन में संच्चित मानसिक मलीनता या दोषों को नष्ट करता है अभिप्राय यह है कि दोनों समय संध्या करने से पूर्व वेला में आये दोषों पर चिन्तन – मनन और पश्चात्ताप करके उन्हें आगे न करने के लिए संकल्प किया जाता है तथा गायत्री – जप से अपने संस्कारों को शुद्ध – पवित्र बनाया जा सकता है ।

इतरेषु ससंध्येषु ससंध्यांशेषु च त्रिषु । एकापायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतानि च

च और इतरेषु त्रिषु शेष अन्य तीन – त्रेता, द्वापर, कलियुगों में ससंध्येषु संसध्यांशेषु ‘संध्या’ नामक कालों में तथा ‘संध्यांश’ नामक कालों में सहस्त्राणि च शतानि एक – अपायेन क्रमशः एक हजार और एक – एक सौ घटा देने से वर्तन्ते उनका अपना – अपना कालपरिमाण निकल आता है अर्थात् ४८०० दिव्यवर्षों का सतयुग होता है, उसकी संख्याओं मं एक सहस्त्र और संध्या व संध्यांश में एक – एक सौ घटाने से ३००० दिव्यवर्ष + ३०० संध्यावर्ष + ३०० संध्यांशवर्ष – ३६०० दिव्यवर्षों का त्रेतायुग होता है । इसी प्रकार – २०००+२००+२००- २४०० दिव्यवर्षों का द्वापर और १०००+१००+१०० – १२०० दिव्यवर्षों का कलियुग होता है ।  

चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्साणां तत्कृतं युगम् । तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च तथाविधः

तत् चत्वारि सहस्त्राणि वर्षाणां कृतं युगम् आहुः उन देवताओं ६७ वें में जिनके दिन – रातों का वर्णन है के चार हजार दिव्य वर्षों का एक ‘सतयुग’ कहा है (तस्य) इस सतयुग की यावत् शती सन्ध्या उतने ही सौ वर्ष की अर्थात् ४०० वर्ष की संध्या होती है और तथाविधः उतने ही वर्षों का अर्थात् संध्यांशः संध्याशं का समय होता है ।

ईश्वर को पाने के लिए क्या यह आवश्यक है कि संध्या, उपासना आदि संस्कृत में बोलकर की जाये। अब अगर वेद हिन्दी में लिखे गये हैं, तो मंत्र भी हिन्दी में होंगे। इसलिए संध्या उपासना भी क्या हिन्दी में की जा सकती है?

आदि सृष्टि में ईश्वर ने संस्कृत भाषा में वेदों का ज्ञान दिया। वेद संस्कृत में थे। तब एक ही भाषा थी, दूसरी कोई भाषा नहीं थी। उस समय संस्कृत में ही लोग बोलते थे, संस्कृत में ही व्यवहार करते थे, संस्कृत में ही वेद मंत्रों के आधार पर ईश्वर की उपासना चलती थी। अब भले ही उसके हिन्दी भाष्य बन गये हैं। परन्तु मूल, मूल ही होता है और भाष्य, भाष्य ही होता है। ईश्वर उपासना मूल मंत्रों से संस्कृत में ही की जानी चाहिए। बाद में आप हिन्दी अनुवाद भले ही कर लें। अगर मूल संस्कृत छूट गई, तो मूल मंत्र छूट जायेगा। और यदि मंत्र छूट गया, तो किसी भी उपासना करने वाले को उपासना करनी ही नहीं … Continue reading ईश्वर को पाने के लिए क्या यह आवश्यक है कि संध्या, उपासना आदि संस्कृत में बोलकर की जाये। अब अगर वेद हिन्दी में लिखे गये हैं, तो मंत्र भी हिन्दी में होंगे। इसलिए संध्या उपासना भी क्या हिन्दी में की जा सकती है?

मन में आते हुए विचारों को कैसे रोकें? संध्या, ध्यान आदि में अनेक विचारों से एकाग्रता टूट जाती है। क्या करें?

मन में विचारों की उत्पत्ति के दो कारण है- ‘इच्छा’ और ‘प्रयत्न’। विचारों को रोकने का उपाय यही है, कि- इच्छा को रोक दीजिए और प्रयत्न को रोक दीजिये। इससे मन में आने वाले विचार रुक जाएँगे। स योगदर्शन में पतंजलि महाराज ने दूसरे दो शब्दों का प्रयोग किया। पहला है- ‘वैराग्य’ और दूसरा है- ‘अभ्यास’। वृत्तियों (विचारों( को रोकने के लिए बस ये दो उपाय अभ्यास और वैराग्य हैं। स लंबे समय तक दीर्घकाल तक अभ्यास में जुटे रहिये। निरंतर अभ्यास कीजिए। धीरे-धीरे मन एकाग्र होता जाएगा। जो विचार हम उठा लेते हैं, उन्हें मन से हटाते जाइये। इस तरह धीरे- धीरे अभ्यास करेंगे तो लाभ होगा। और थोड़ा वैराग्य बढ़ाइये। वैराग्य का मतलब- संसार से राग भी नहीं … Continue reading मन में आते हुए विचारों को कैसे रोकें? संध्या, ध्यान आदि में अनेक विचारों से एकाग्रता टूट जाती है। क्या करें?