अविद्या को दूर करना ही देशोन्नति का उपाय है: – सत्यवीर शास्त्री

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।

अविद्यया मृत्युं तीत्र्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते।।

– (यजु. ४०/१४)

साधारण संस्कृत भाषा का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी इस वेदमन्त्र के सामान्य अर्थ को समझ सकता है।

अर्थ-जो विद्वान् विद्या और अविद्या को साथ-साथ जानता है, वह महान् आत्मा, अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमृत (मोक्ष) सुख को प्राप्त कर लेता है, परन्तु चिन्तन इस विषय का है कि महर्षि स्वामी दयानन्द जी सरस्वती तथा आर्यसमाज तथा वैदिक-धर्मी विद्वानों के सिद्धान्तानुसार विद्या से सुख और अविद्या से दु:ख की प्राप्ति होती है और ‘‘जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही मानना’’ विद्या है, इसके विपरीत ‘‘जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा न मानना’’ अविद्या है।

महर्षि पतञ्जलि ने भी ‘योगदर्शन’ में विद्या का लक्षण बताते हुए कहा है-

अनित्याशुचिदु:खानात्मसुनित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या

अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दु:ख को सुख और जड़ को चेतन आत्मा या परमात्मा मानना अविद्या है। इसके विपरीत मानना अर्थात् अनित्य को अनित्य, नित्य को नित्य, अपवित्र को अपवित्र, पवित्र को पवित्र, दु:ख को दु:ख, सुख को सुख, जड़ पदार्थ को जड़ एवं चेतन आत्मा व परमात्मा को चेतन मानना विद्या कहलाती है। व्याख्या के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति यह मानता है कि यह भौतिक शरीर या पंचभूतों से निर्मित ब्रह्माण्ड ऐसा ही था, ऐसा ही है और ऐसा ही रहेगा- यह नास्तिकवादियों की अविद्या नहीं है तो और क्या है? यक्ष के प्रश्र के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर ने ठीक ही उत्तर दिया है-

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयं, शेषा: स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यत: परम्।

प्रतिदिन हम देख रहे हैं कि प्राणी मृत्यु का ग्रास बनते जा रहे हैं, फिर भी सबसे अधिक आश्चर्य यह है कि शेष बचे  प्राणियों (चिन्तनशील मानव) को यह विश्वास नहीं हो रहा कि एक दिन हमको भी मृत्यु का ग्रास बनना पड़ेगा। इससे बड़ी अविद्या और क्या हो सकती है? यदि यह भौतिक शरीर ऐसा ही था और ऐसा ही रहेगा तो जिन माता-पिता ने हमें उत्पन्न किया, पालन-पोषण किया, वे माता-पिता, दादा-दादी, दयानन्द, श्रद्धानन्द, राम और कृष्ण हमें छोडक़र क्यों चले गये?

पतञ्जलि ऋषि ने अविद्या का दूसरा लक्षण अशुचि को शुचि मानना अर्थात् अपवित्र को पवित्र मानना कहा है। वास्तव में ऋषि जी ने बात तो सत्य ही कही है, लेकिन शास्त्रों ने तो इस शरीर की उपमा राम की प्यारी नगरी अयोध्या से की है, यथा-

‘अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पुरयोध्या’

इस शरीर रूपी देवताओं की सुन्दर नगरी में नौ द्वार हैं तथा इसकी रक्षा हेतु अष्ट (आठ) चक्र लगे हुए हैं। कवियों ने इसकी सुन्दरता का वर्णन करते हुए अपनी कलम ही तोड़ दी है। इस शरीररूपी अयोध्या के मुख्य द्वार मुख की उपमा चन्द्रमा से की है। इसके दूसरे द्वार नेत्रों की उपमा कमलनयन कमल के फूल की पँखुडिय़ों से की है। तीसरे, मुख पर होठों की उपमा गुलाब के फू ल की पंखुडिय़ों से की है। चौथे, नाक की तुलना सुन्दर पक्षी तोते की नाक से की है। नर और मादा एक-दूसरे के साथ ऐसे समाहित हो जाते हैं कि स्वयं को भूल जाते हैं। इसी प्रकार सांसारिक भौतिक धन, ऐश्वर्य, महल, अटारी के लिये तथा उपरोक्त सुन्दर शरीर रूपी अयोध्या के पोषण के लिए प्राणी, प्राणी की हत्या कर रहा है। आज इस स्वार्थसिद्धि के लिए मानव जिस गोमाता के दुग्ध से अपने तथा अपने परिवार का पालन-पोषण करता है, उसी के खून, मांस का भी स्वाद ले रहा है।

अब उस शरीर रूपी अयोध्या का दूसरा रूप भी देखें। जिस मुख की तुलना चन्द्रमा से की गई है, उस मुख से क्या निकलता है? जिन नेत्रों की तुलना कमल की पंखुडिय़ों से की गई है, प्रात:काल उन नेत्रों से कौन-सा मल निकलता है? जिस नाक की तुलना तोते की नाक से की है, उससे क्या निकलता है? शरीर के प्रत्येक रोम से पसीने के रूप में क्या निकलता है? गुह्य इन्द्रियों से क्या निकलता है? इन सभी मलों को नाम लेने मात्र से मानव को घृणा होती है। इसके उपरान्त भी इस अशुचि, अपवित्र शरीर को पवित्र मानकर इसके पोषणार्थ मानव प्राणियों की ही नहीं, मानवों की भी हत्या कर हाड़-मांस का व्यापार करता है, जबकि  इस शरीर ने एक दिन साथ छोडऩा है। जिन भौतिक पदार्थों का हम संग्रह कर रहे हैं, उन्हें हमारे साथ चलना नहीं है, फिर मानव ऐसा क्यों कर रहा है? इसी का नाम तो अविद्या है तथा जानते हुए भी न जानना है।

तीसरा, ऋषि पतञ्जलि ने अविद्या का लक्षण दु:ख को सुख मानना बताया है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दु:ख के कारणों में मानव सुख की इच्छा से फँसता है। कामवासना-जो दु:ख का कारण है, उसको सुख का कारण समझकर रावण ने सीता का हरण किया। कामवासना रूपी दु:ख के कारण को सुख मानने के कारण ही रावण स्वर्ण नगरी लंका सहित विनाश को प्राप्त हुआ। संयोगिता के मोह में फँसकर पृथ्वीराज स्वयं नष्ट हो गया तथा सम्पूर्ण भारत को लगभग ग्यारह सौ वर्षों तक गुलाम कर गया। क्रोध के वशीभूत होकर दुर्योधन ने महाभारत के युद्ध का सूत्रपात किया, जिसके परिणाम को आज तक राष्ट्र भुगत रहा है। लोभरूपी दु:ख को सुख मानने के कारण घर-बार, जमीन-जायदाद के लोभ में आज भाई-भाई की हत्या कर रहा है। पुत्र पिता का हत्यारा बना हुआ है। भाई बहन के मुकदमे चले हुए हैं। दु:ख को सुख मानने वाली अविद्या ने मानव का ही पतन नहीं किया, अपितु राष्ट्र को भी भयंकर कालग्रस्त किया हुआ है।

चौथा-‘अनात्मसु आत्मख्यातिरविद्या’ कहा है, अर्थात् अनात्म जड़ भौतिक पत्थर मूर्ति को चेतन आत्मा अथवा परमात्मा मानना अविद्या का चौथा लक्षण कहा है। इस प्रकार माता-पिता तथा ईश्वर की जड़, पत्थर मूर्ति बनाकर पूजना, उनके किये गये उपकारों के प्रति भयंकर कृतघ्रता है, जिसका कोई भी प्रायश्चित्त नहीं हो सकता है, क्योंकि आत्मा व परमात्मा जड़-पदार्थ के बने हुए नहीं है।

आत्मा का लक्षण- आत्मा का लक्षण बताते हुए न्यायदर्शनकार मुनि ने कहा है कि

‘सुखदु:खेच्छाद्वेषप्रयत्नज्ञानानि आत्मनो लिङ्गम्’

जो सुख-दु:ख को अनुभव करता हो, जिसमें इच्छा, राग, द्वेष, प्रयत्न तथा ज्ञान हो, ये लक्षण आत्मा के होते हैं। बहुत से व्यक्ति यह कहेंगे कि सुख-दु:ख का अनुभव शरीर करता है। इच्छा, राग, द्वेष, प्रयत्न और ज्ञान ये भी शरीर के ही लक्षण हैं, परन्तु उनका यह कथन तर्क एवं विज्ञान की कसौटी में नहीं आता, न ही इसका कोई प्रमाण है।

श्रुति, उपनिषद् तथा दर्शनों के प्रमाण आत्मा के लिये तो अनेक प्राप्त हो जायेंगे, जैसे उदाहरण के लिये एक प्रमाण यहाँ प्रस्तुत करते हैं-

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यति:।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।

– केनोपनिषद्

जो आँख से नहीं देखता, जिसके कारण से आँख देखती है, वही ब्रह्म (अध्यात्म) है।

अन्यच्च ‘परांचिखानि व्यतृणत् स्वयंभू:’ (कठोपनिषद्)। परमात्मा ने इस शरीर के पुतले में काट-काटकर पाँच छेद बनाए हैं, जिसमें से ज्ञान अन्दर आता है। ये पाँच छेद वाली पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ स्वयं कुछ नहीं करतीं, इन छेदों (इन्द्रियों) के भीतर बैठा (आत्मा) जो झाँक रहा है, वही सब ज्ञान प्राप्त करता है। आँखें खुली हों, परन्तु देखने वाला कहीं अन्यत्र मग्र हो तो आँखें खुली होने पर भी नहीं देखतीं, कान खुले होने पर भी नहीं सुनते।

इस शरीर में जो सुन्दरता, ओज, कान्ति आदि दिखाई देती हैं, वह भी आत्मा के कारण ही दिखाई देती हैं। जब आत्मा शरीर को छोडक़र निकल जाती है, तब न तो आँखें देखने का कार्य करती है, न कान सुन सकते है। पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ जड़ हो जाती हैं। शरीर का ओज व कान्ति नष्ट हो जाती है। इस शरीर से कोसों दूर तक दुर्गन्ध आने लग जाती है, अत: मूर्ति जड़ पदार्थ की होती है, चेतन आत्मा की नहीं।

परमात्मा का लक्षण- क्लेषकर्मविपाकाश-यैरपरामृष्ट:पुरुषविशेष ईश्वर:। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश-मानव के जीवन में ये पाँच क्लेश हैं। इन क्लेशों से ईश्वर अछूता है, दूर है। चारों प्रकार की अविद्या का वर्णन तो ऊपर कर ही चुके हैं।

अस्मिता- ज्ञान को प्राप्त करने वाला जीवात्मा तथा ज्ञान को आत्मा जिस बुद्धिरूपी साधन से प्राप्त करता है, उन दोनों को एक मानना अस्मिता नामक क्लेश है।

राग- सुख भोगने पर पुन: सुख भोगने की तृष्णा राग नामक क्लेश है।

द्वेष- दु:ख भोगने के उपरान्त उसके प्रति क्रोध, रोष द्वेष नामक क्लेश है।

अभिनिवेश- पूर्वजन्मों के संस्कारों के वश मैं मृत्यु को प्राप्त नहीं होऊँ, यह दु:ख सभी प्राणियों की तरह शब्द ज्ञानी विद्वानों को भी होता है, जिसे अभिनिवेश नामक क्लेश कहते हैं। ये पाँच क्लेश परमात्मा को नहीं छूते। उसके अन्दर नहीं आते।

कर्म- कर्म तीन प्रकार के होते हैं, जिन्हें सामान्य व्यक्ति करते हैं- सत्, असत् और मिश्रित, अर्थात् शुभ-अशुभ व मिले-जुले, पुण्य, पाप व पाप-पुण्य से मिले-जुले। इन तीनों प्रकार के कर्मों तथा इनके फलों से ईश्वर अछूता होता है। परमात्मा आत्मा से भिन्न है। आत्मा पुरुष है तो परमात्मा पुरुषविशेष ईश्वर है। परमात्मा कभी भी क्लेश, कर्म आदि के निकट नहीं आता। जीव क्लेश तथा तीनों प्रकार के कर्मों के सम्पर्क में आते रहते हैं और छूटते रहते हैं।

तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्- योगदर्शनकार बताते हैं कि ईश्वर के समान तथा उससे अधिक किसी का ज्ञान नहीं है, अत: वह सर्वज्ञ है, जबकि जीवात्मा अल्पज्ञ तथा प्रकृति जड़ है। ईश्वर पूर्व समय के गुरुओं, ऋषियों, महर्षियों का भी गुरु है, क्योंकि वह तीनों कालों में एकरस रहता है। उसका जन्म-मरण नहीं होता। सृष्टि के आदि तथा पूर्व सृष्टियों में भी ईश्वर ने ही ऋषियों के हृदय में वेद का ज्ञान दिया है, अत: ईश्वर ही पूर्व के  सभी गुरुओं, ऋषियों, महर्षियों का गुरु है और रहेगा।

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्- इस ब्रह्माण्ड में, सृष्टि में जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है, उसके कण-कण में ईश्वर का निवास उसी प्रकार है, जिस प्रकार दूध के एक-एक कण में घृत समाया हुआ होता है अथवा यह कहा जाये- जिस प्रकार फूल में सुगन्ध का वास होता है, अर्थात् वह एकदेशीय नहीं, सर्वव्यापक विभु है।

‘अकायमव्रणम्’ (यजु. ४०/४) वह परमपिता परमेश्वर निराकार शरीर रहित बिना नस-नाडिय़ों वाला है।

‘न तस्य प्रतिमास्ति’ (यजु. ३२/३) उस ईश्वर की कोई प्रतिमा अर्थात् मूर्ति नहीं है।

‘स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम्’ वह ईश्वर ही पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा तथा तारागण आदि लोक-लोकान्तरों को धारण किये हुए है।

तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति

इसी ईश्वर के प्रकाश को लेकर ये सब सूर्य, चन्द्र, तारे और बिजली आदि प्रकाशित होते हैं। यदि ईश्वर इनको प्रकाश न दे तो ये कुछ भी प्रकाश नहीं कर सकते। इनके अन्दर जो भी प्रकाश है, वह उनका अपना नहीं, यह प्रकाश परमात्मा का दिया हुआ ही है। जैसे सभी व्यक्ति जानते हैं कि घड़ी में अपनी गति नहीं है, किसी के द्वारा चाबी भरकर गति दी गई है, अत: इस ब्रह्माण्ड मेें जो गति दिखाई दे रही है, वह उस परमात्मा की दी हुई है।

‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’- जिस प्रकार आत्मा इस शरीर को गति दिये हुये है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड में जो गति दिखाई दे रही है, वह उस परमपिता परमेश्वर की ही दी हुई है।

अत: जड़ अनात्म को चेतन आत्मा अथवा परमात्मा मानना अविद्या का चौथा लक्षण है। इस अविद्या के चौथे लक्षण ने व्यक्ति, समाज व राष्ट्र को बहुत बड़ी हानि पहुँचाई है, जिसकी पूर्ति होना संभव नहीं है।

जैसा कि महर्षि पतञ्जलि ने योगशास्त्र में कहा है-

‘विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्’

विपर्यय मिथ्या (विपरीत) ज्ञान को कहते हें। जैसे अँधेरे मेें पड़ी रज्जू (रस्सी) को साँप मान लेने से वह साँप नहीं हो सकती, इसी प्रकार जीवित माता-पिता का अपमान कर उनकी मूर्ति बना, भोग लगा, पूजा करने से माता-पिता का प्यार व सम्पत्ति प्राप्त नहीं हो सकती, न ही ऐसा व्यक्ति कभी भी जन्म-जन्मान्तरों तक मोक्ष सुख के मार्ग का अनुगामी ही हो सकता है। उस परम कृपालु ईश्वर की दया के लिये महर्षि दयानन्द के बताये आर्यसमाज के दूसरे नियम के स्वरूप वाले ईश्वर की आराधना ही करनी आवश्यक है।

शेष भाग अगले अंक में….

हिन्दू जाति के रोग का वास्तविक कारण क्या है? -भाई परमानन्द

उच्च सिद्धान्त तथा उसके मानने वालों का ‘आचरण’-ये दो विभिन्न बातें हैं। मनुष्य की उन्नति और सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके सिद्धान्त और आचरण में कहाँ तक समता पाई जाती है। जब तक यह समता रहती है, वह उन्नति करता है, जब मनुष्य के सिद्धान्त और आचरण में विषमता की खाई गहरी हो जाती है, तब अवनति आरम्भ हो जाती है। मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि उसका लक्ष्य सदा ऊँचे सिद्धान्तों पर रहता है, परन्तु जब तक उसके आचरण में दृढ़ता नहीं होती, वह उन (सिद्धान्तों) की ओर अग्रसर नहीं हो सकता है, परन्तु संसार को वह यही दिखाना चाहता है कि उन सिद्धान्तों का पालन कर रहा है। इस प्रकार मानव समाज में एक बड़ा रोग उत्पन्न हो जाता है। धार्मिक परिभाषा में इसे ही ‘पाखंड’ कहते हैं। जब कोई जाति या राष्ट्र इस रोग से घिर जाता है तो उसकी उन्नति के सब द्वार बन्द हो जाते हैं और उसके पतन को रोकना असाध्य रोग-सा असम्भव हो जाता है।

हमारे देश में एक प्राचीन प्रथा थी कि जब कोई व्यक्ति ‘उपनिषद्’ आदि उच्च विज्ञान का जिज्ञासु होता था, तो पहले उसके ‘अधिकारी’ होने का निश्चय किया जाता था। ‘अधिकारी’ का प्रश्र बड़ा आवश्यक और पवित्र है। कई बार इसे तुच्छ-सी बात समझा जाता है, परन्तु यदि ध्यान से देखा जाय तो ज्ञात होगा कि ‘अधिकारी’ ‘अनधिकारी’ का प्रश्र प्राकृतिक सिद्धान्तों के सर्वथा अनुकूल है। एक बच्चा चार बरस का है। उसको अपने साथी की साधारण-सी चेष्टायें की बड़ी मधुर अनुभव होती हैं। इनकी विचारशक्ति परस्पर समान है, इसलिये वे परस्पर मिलना और बातें करना चाहते हैं। गेंद को एक स्थान से उठाया और दूसरे स्थान पर फैं क दिया। यह काम उन्हें बहुत वीरतापूर्ण प्रतीत होता है। दो-चार बरस पश्चात् इसी गेेंद जैसी तुच्छ बातों से उनकी रुचि हट जाती है। अब वे रेत या पत्थरों के छोटे-छोटे मकान बनाने में रुचि दिखाते हैं, ठीकरों और कंकरों से वे खेलना चाहते हैं। और ऐसे खेलों में वे इतने लीन रहते हैं कि घर और माँ-बाप का ध्यान उन्हें नहीं रहता। फिर कुछ बरस पश्चात् उनकी रुचि शारीरिक खेलों की ओर हो जाती है और पुराने खेलों को अब वे बेहूदा बताने लगते हैं।। युवावस्था में उन्हें गृहस्थ की समझ उत्पन्न हो जाती है और अब सांसारिक कार्यों में उलझ जाते हैं। धीरे-धीरे उनके मन में इस संसार से विराग और धर्म में प्रवृत्ति का आविर्भाव होता है और त्याग व बलिदान के सिद्धान्तों को समझने की शक्ति उत्पन्न होती है। इससे यह स्पष्ट है कि प्रत्येक सिद्धान्त को समझने के लिये ‘अधिकारी’ होना आवश्यक है। आज की किसी भी सभा में-चाहे वह धार्मिक हो या राजनैतिक, ९० प्रतिेशत श्रोताओं को वक्ता की बातों में रस नहीं आता। बच्चों या बच्चों के से स्वभाव वाले बड़े-बूढ़ों को भी वही बात पसन्द आती है, जिस पर लोग हँसें या तालियाँ पीट दें, अतएव अनधिकारी के सन्मुख ऊँचे सिद्धान्तों का वर्णन करना भी प्राय: हानिकारक होता है।

जब किसी जाति या राष्ट्र में उन्नति की अभिलाषा उत्पन्न हो तो इसको कार्य रूप में परिणत करने का प्रथम आवश्यक साधन उसके व्यक्तियों के आचरण की दृढ़ता है। चरित्र जितना अधिक उच्च और भला होगा, उतनी ही शीघ्रता से उच्च और भले विचार बद्धमूल होंगे। ‘चरित्र’ के खेत को भली भाँति तैयार किये बिना उच्च विचार रूपी बीज बिखेरना, ऊसर भूमि में बीज फैं कने के समान ही व्यर्थ होगा। उच्च विचारों की शिक्षा देने के साथ-साथ आचरण और चरित्र को ऊँचा रखने का विचार अवश्य होना चाहिये, अन्यथा चरित्र के भ्रष्ट होने के साथ-साथ यदि उच्च विचारों की बातें ही रहीं तो ‘पाखंड’ का भयानक रोग लग जाना स्वाभाविक हो जायेगा।

यह पाख्ंाड हिन्दुओं में कै से उत्पन्न हुआ और किस प्रकार भीतर-ही-भीतर दीमक की भाँति यह हिन्दू समाज को खोखला कर रहा है-यह बात में यहाँ दो-तीन उदाहरणों से स्पष्ट करता हँू। ‘तपस्या’ का अर्थ आजकल की भाषा में नियन्त्रित किया जा सकता है, लेकिन जिस युग में हिन्दू जाति के पुरुषों ने ‘तपस्या’ को जीवन का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त निर्दिष्ट किया था, वे इसके महत्त्व को जानते हुए यह भी समझते थे कि जिन लोगों को इसका उपदेश दिया जा रहा है, वे भी इसके महत्त्व को समझते हैं और इन्द्रिय दमन व मन के वशीकरण को आचरण में लाना ‘तपस्या’ का लक्ष्य समझते हैं। समय आया कि जब लोग इस तप को कुछ से कुछ समझने लगे और अब तप इसलिये नहीं किया जाता कि अपने मन को वश में करना है, अपितु इसलिये कि संसार को दिखा सकें कि हम ‘बड़े तपस्वी’ हैं। आग की धूनी लगाकर बैठ गये। कभी एक हाथ ऊँचा उठा लिया, कभी दूसरा और लोगों में प्रसिद्ध कर दिया कि हम बड़े तपस्वी हैं। ‘तप’ सिद्धान्त रूप में बहुत ऊँचा सिद्धान्त है, परन्तु यह जिन लोगों के लिये है, उनका आचरण गिर गया। ‘सिद्धान्त’ और ‘आचरण’ में विषमता होने के कारण पाखण्ड आरम्भ हो गया और आज हजारों-लाखों स्त्री-पुरुष इस पाखंड के शिकार हैं। ‘त्याग’ को ही लीजिये। ‘त्याग’ के उच्च सिद्धान्त पर आचरण करने के स्थान पर आज लाखों व्यक्तियों ने इसलिये घर-बार छोड़ रखा है कि वे गृहस्थ-जीवन की कठिनाइयों को सहन नहीं कर सकते। वे त्यागियों का बाना धारण कर दूसरों को ठगने का  काम कर रहे हैं। कितनों ही ने न केवल सांसारिक इच्छाओं का त्याग नहीं किया, अपितु इनकी पूर्ति के लिये प्रत्येक अनुचित उपाय का सहारा किया है। जाति की पतितावस्था में ‘त्याग’ का ऊँचा आदर्श एक भारी पाखंड के रूप में रहता है।

देश के लिये बलिदान का आदर्श भी उच्च आदर्श है, परन्तु यदि देशभक्त कहलाने वाले व्यक्ति इसके सिद्धान्त के आचरण में इतने गिर जायें कि वे अपने से भिन्न व विरुद्ध सम्मति रखने वाले व्यक्ति को सम्मति प्रगट करने की स्वतन्त्रता भी न दें, ऐसी देशभक्ति एक प्रकार से व्यवसाय रूपी देशभक्ति है। कई बार ये लोग रुपया उड़ा लेते हैं और फिर इस बात का प्रचार करते हैं कि संसार में कोई भी व्यक्ति रुपये के लालच से नहीं बच सकता, इसलिये जो व्यक्ति इनसे असहमत रहता हो, उसे भी वे अपने ही समान रुपये के लालच में फँसा हुआ बताते हैं। ऐसी अवस्था में देशभक्ति की भावना एक पाखंड का रूप धारण कर लेती है। इसी प्रकार अनाथालय, विधवा आश्रम आदि सब परोपकार और सर्व साधारण की भलाई के कार्यों के नाम पर आज जो रुपया एकत्र होता है, वह सब चरित्र-बल न होने के कारण धोखे की टट्टी बने हुए हैं। ‘निर्वाण’ या ‘मुक्ति’ प्राप्त करने की भावना भी उच्च आदर्श है, परन्तु आज चरित्र-बल न होने से चरित्रहीन व्यक्तियों ने इसी ‘निर्वाण’ और ‘मुक्ति’ के नाम पर सैकड़ों अड्डे बना रखे हैं और लाखों नर-नारी इनके फंदे में फँस कर भी गर्व करते हैं।

यदि मुझसे कोई पूछे कि हिन्दू जाति की निर्बलता और उसके पतन का वास्तविक कारण क्या है? तो मेरा एक ही उत्तर होगा कि इस रोग का वास्तविक कारण यह ढोंग है। हिन्दुओं में प्रचलित इस ‘ढोंग’ से यह भी प्रमाणित होता है कि किसी युग में हिन्दू जाति का चरित्र और आचरण बहुत ऊँचा था और इसीलिये उन्हें ऊँचे आदर्श की शिक्षा दी जाती थी, परन्तु पीछे से घटना क्रम के वश हिन्दू जाति का आचरण गिरता गया और ‘सिद्धान्त’ शास्त्रों में सुरक्षित रहने के कारण ऊँचे ही बने रहे। व्यक्ति इन सिद्धान्तों के अनुकूल आचरण न रख सके, फिर भी उनकी यह इच्छा बनी रही कि संसार यह समझे कि उनका जीवन उन्हीं ऊँचे आदर्शों के अनुसार है। इस प्रकार ‘सिद्धान्त और आचरण’ अथवा ‘आदर्श’ और ‘चरित्र’ में विभिन्नता हो जाने के कारण ‘दिखावा’ या ‘ढोंग’ का रोग लग गया। इस समय यह ‘ढोंग’ दीमक के समान जाति की जड़ों में लगा हुआ है। इस जाति के उत्थान का यत्न करने की इच्छा रखने वाले के लिये आवश्यक है कि वह पहले इस ‘पाखंड वृत्ति’ को निकाल फैंके। यदि हम अपने आचरण या चरित्र को ऊँचा नहीं बना सकते तो उच्च आदर्शों का लोभ त्याग कर अपने आचरणों के अनुसार ही आदर्श को अपना लक्ष्य बनायें।

परमेश्वर व्यापक अन्तर्यामी परमैश्वर्यवान् यथार्थश्रोता: -डॉ. कृष्णपाल सिंह

उपप्रयन्तोऽअध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्रये।

आरेऽअस्मे च शृण्वते।।

-यजु. ३/११

प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि गौतम है और देवता अग्रि=जगदीश्वर है। मन्त्र का विषय निरूपित करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ‘अथेश्वरेण स्वस्वरूपमुपदिश्यते’ अर्थात् इस मन्त्र में ईश्वर ने अपने स्वरूप का उपदेश किया है। ईश्वर का स्वरूप कैसा है? इस बात का ज्ञान हमें इस मन्त्र द्वारा होता है। मन्त्र में परमेश्वर को यथार्थ श्रोता कहा गया है। वह सबकी स्तुतियों, प्रार्थनाओं, याचनाओं को यथार्थरूप में सुनता है। यह विचारणीय है कि उसके सुनने के साधन क्या हैं और कैसे सुनता है? क्या ईश्वर को सुनने के साधन हम जीवात्माओं के समान श्रोत्रादि हैं? इसका सीधा उत्तर नहीं में है।

जीवात्माओं को तो शरीर, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ और अन्त:करण चतुष्टय प्राप्त हैं। उन्हीं के द्वारा जीवात्मा अपना सब व्यवहार सम्पादित करता है, परन्तु परमेश्वर को जीवात्मा जैसे शरीरादि की आवश्यकता नहीं है। वह तो इन साधनों के बिना सब कार्य बड़ी कुशलता से निष्पादित करता है, क्योंकि वह अशरीरी (निराकार), सर्वज्ञ, सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी तथा परमैश्वर्यवान् है। अब यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि परमेश्वर श्रोत्रादि साधन के बिना कैसे सुनता है? सुनना तो श्रोत्रेन्द्रिय से ही होता है, फिर श्रोत्रेन्द्रिय के बिना सुनना कैसे हो सकता है? इस आशंका का समाधान यह है कि वह व्यापक और सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् होने से सब कुछ देखता, सुनता, जानता है।

‘यत्तददृश्यम्’ इस मुण्डकोपनिषद् के वचन से यह विदित होता है कि वह अदृश्य, निराकारादि स्वरूप वाला है। महर्षि ने यह वचन ऋ. भा. भूमिका के वेद विषय विचार के अन्तर्गत उद्धृत किया है। वहाँ प्रकरण वेद और ईश्वर का है। इस वचन के साथ और भी अनेक वेद, शास्त्रों, उपनिषदों के प्रमाणों को प्रस्तुत किया है। मुण्डकोपनिषद् के इस वचन के अतिरिक्त अन्य सभी प्रमाणों का अर्थ संस्कृत एवं भाषाभाष्य में उपलब्ध होता है, परन्तु मुण्डकोपनिषद् के उद्धृत वचन का न तो संस्कृत में और न ही भाषाभाष्य में अर्थ मिलता है। सम्भवत: सुगमार्थ (सरलार्थ) होने से अर्थ नहीं किया होगा। ऐसा भूमिका में अन्यत्र भी दृष्टिगोचर होता है, जैसे ऋ. भा. भूमिका के सृष्टिविद्या विषय के अन्तर्गत ‘न मृत्युरासीत्’ इत्यादि मन्त्र सुगमार्थ हैं इसलिये इनकी व्याख्या भी यहाँ नहीं करते, किन्तु भाष्य में करेंगे। अत: मुण्डकोपनिषद् के वचन को सरलार्थ (सुगमार्थ) मानकर वहाँ अर्थ न दिया होगा।

पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने उक्त मुण्डकोपनिषद् के वचन के अर्थ विषय में भावार्थ यथास्थान कोष्ठक के अन्दर बढ़ाते हुए लिखा है कि ‘यत्तददृश्यम्’ अर्थात् उस ब्रह्मा का ज्ञानेन्द्रियों से ग्रहण नहीं होता, हस्त से पकड़ा नहीं जा सकता, उसका कोई गोत्र वा वर्ण नहीं, वह नेत्र और कर्णरहित है, उसके हाथ और पाँव नहीं, वह नित्य है, व्यापक है, सर्वान्तर्यामी है, सुसूक्ष्म है, नाशरहित है……।

अतएव इस औपनिषदिक वचन से विदित होता है कि परमेश्वर निराकार, चक्षुरादि इन्द्रियरहित होने पर भी सबका दृष्टा, श्रोता है, क्योंकि वह सर्वगत अर्थात् सर्वत्र व्याप्त होने से सब कुछ देखता सुनता व जानता है। बृहदारण्यकोपनिषद् में महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि हे गार्गी! उस अक्षर ब्रह्म के विषय में विद्वान् लोग कहते हैं कि वह ‘अस्थूलम् अनणु…….अचक्षुम्…….अश्रोत्रम्’…….. इत्यादि विशेषणयुक्त है। अचक्षुकम् का अभिप्राय यह है कि वह अविनाशी, सर्वज्ञ अक्षर ब्रह्मं चक्षुरादि इन्द्रियों से भिन्न होने से ‘अचक्षुकम्’ कहा है। वह सर्वगत (व्यापक) होने से बिना चक्षु के सब कुछ देखता है। चक्षु का अर्थ पंचमहायज्ञ विधि में लिखा है कि

‘एष एवैतेषां प्रकाशकलात् बाह्याभ्यन्तरयो:

चक्षु:’ ‘चक्षु:’ ‘सर्वदृक्’

अर्थात् वह परमात्मा बाहर और अन्दर सबका द्रष्टा है। विश्वतश्चक्षु: पद का अर्थ करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ‘सर्वस्मिञ्जगति चक्षुर्दर्शनं यस्य स:’ अर्थात् सब जगत् पर चक्षु-दृष्टि रखने वाला है।

परमेश्वर का कर्तृत्व:- सत्यार्थ प्रकाश में परमेश्वर के कर्तृत्व को समझाते हुए उन्होंने लिखा है कि

पूर्व.- जब परमेश्वर के श्रोत्र, नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं है, फिर वह इन्द्रियों का काम कैसे कर सकता है?

उत्तर-अपाणिपादो जवनोग्रहीता पश्यत्यचक्षु: स शृणोत्यकर्ण:।

स वेत्ति विश्वं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्रं पुरुषं पुराणम्।।

यह उपनिषद् (श्वेता ३-१९) का वचन है। परमेश्वर के हाथ नहीं, परन्तु अपने शक्तिरूप हाथ से सब रचन, ग्रहण करता, पग नहीं, परन्तु व्यापक होने से सब अधिक वेगवान्, चक्षु का गोलक नहीं, परन्तु  सबको यथावत् देखता, श्रोत्र नहीं तथापि सबकी बात सुनता, अन्त:करण नहीं परन्तु सब जगत् को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहीं। उसी को सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सबमें पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं। वह इन्द्रियों और अन्त:करण से होने वाले काम अपने सामथ्र्य से करता है।

वह ब्रह्म अश्रोत्र है। अक्षर, ब्रह्म, श्रोत्र-भिन्न है। तुलसीदास ने उक्त वचन का काव्यानुवाद करते हुए कहा है कि ‘बिनु पग चलै सुनै बिनु काना’ प्रकृत वेदमन्त्र तो यह भाव ‘शृण्वते’ पद से अभिव्यक्त कर रहा है कि विज्ञान स्वरूप, सबका अन्तर्यामी, व्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर सबके अन्दर-बाहर व्याप्त हो रहा है। उसकी व्याप्ति के बिना कोई वस्तु नहीं है। अग्रिस्वरूप परमेश्वर सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने से सबको देखता, जानता व सुनता है। इसलिये सब मनुष्यों को वेदमन्त्रों द्वारा उसकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना करनी चाहिये।

वर्तमान समय में पाखण्ड का बोलबाला है। ईश्वर की उपासना में भी ढोंग चल रहा है। जो अविद्वान् व अयोगी हंै, वे लोग ही ईश्वर की पूजा (उपासना) आदि का मूर्ति रचकर प्रपंच करते हुए भोली जनता का पाखण्ड से द्रव्यहरण कर रहे हैं। इसी प्रकार यज्ञादि में भी नाना प्रकार का आडम्बर (ढोंग) का बाहुल्य हो रहा है। अवैदिक कृत्यों का समाज में बहुत प्रचार होता जा रहा है। यज्ञों में वेदमन्त्रों के स्थान पर मनुष्य रचित ग्रन्थों के श्लोकों, वाक्यों को पढक़र आहुतियाँ दी जा रही हैं। इस प्रकार यज्ञीय पाखण्ड फैल रहा है। यजुर्वेद का यह मन्त्र यह बतला रहा है कि यज्ञीय सब शुभकर्म वेद-मन्त्रों के द्वारा ही सम्पादित करने चाहिएँ।

महर्षि दयानन्दकृृत मन्त्रार्थ:

(अध्वरम्) क्रियामय यज्ञ को (उप प्रयन्त:) उत्तमरीति से सम्पादित (निष्पादित) करते हुए और जानते हुए हम लोग (अस्मे) हमारे (आरे) दूर और (च) चकार से समीप भी (शृण्वते) यथार्थ सत्यासत्य को सुनने वाले (अग्रये) विज्ञानस्वरूप अन्तर्यामी जगदीश्वर के लिये (मन्त्रम्) विज्ञान के निमित्त वेदमन्त्रों को (वोचेम) उच्चारण करें। अर्थात् वेदमन्त्रों से जगदीश्वर की स्तुति करें।

भावार्थ:- मनुष्यों को वेदमन्त्रों के साथ ईश्वर की स्तुति का यज्ञानुष्ठान करके एवं जो ईश्वर अन्दर और बाहर व्यापक होकर सब सुन रहा है, उससे डरकर अधर्म करने की कभी इच्छा भी न करें। जब मनुष्य इस ईश्वर को जानता है, तब यह उसके समीपस्थ तथा जब इसको नहीं जानता, तब दूरस्थ होता है, ऐसा समझें।

ईश्वरस्वरूप दर्शन:- प्रस्तुत मन्त्र का देवता अग्रि=जगदीश्वर है। परमेश्वर अग्रि के समान सर्वत्र सबके अन्दर और बाहर व्यापक हो रहा है। इसी कारण उसको अन्तर्यामी कहा जाता है। विज्ञानस्वरूप होने के कारण वह सबकी सुनता व सब कुछ जानता है। इस कारण उससे डरकर अधर्म, पापाचरण कभी न करना चाहिए। जब मनुष्य ईश्वर को अच्छी प्रकार जानता है, तब वह उसके समीप होता है और जब ईश्वर के  स्वरूप को नहीं जानता अथवा ईश्वर को नहीं जानता, तब वह उससे दूर होता है।

विशिष्ट पद विचार:- १. आरे:- आचार्य यास्क ने इस पद को निघण्टु ३/३६ में ‘दूर’ नामों में पढ़ा है। इस कारण महर्षि ने इस पद का अर्थ ‘दूर’ किया है।

२. अध्वर:- निरुक्त शास्त्र में यास्काचार्य ने इस ‘अध्वरम्’ पद की निरुक्ति करते हुए लिखा है कि

‘अध्वर इति यज्ञनाम ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेध:’

अर्थात् ‘अध्वर’ यह यज्ञ नाम है। जिसका अर्थ हिंसा-रहित कर्म है। चारों वेदों में यज्ञ के पर्याय अथवा कहीं-कहीं विशेषण के रूप में अध्वर पद का प्रयोग पाया जाता है।

मलाई दयानन्द किन प्रिय छन्?

ओ३म्..

मलाई दयानन्द किन प्रिय छन्?

 अविरल डि.सी “सत्यार्थी”

महर्षि दयानन्द सरस्वती:भारतीय धार्मिक इतिहासको अत्यन्त चर्चित नाम हो । हुन त धार्मिक इतिहासमा भारतीय परम्परामा धेरै नाम छन् जस्तै राजा थाम मोहन राय , केशव चन्द्र सेन, सन्त कबीर, स्वामी विवेकानन्द आदि । तर सत्यता , आध्यात्मिकता, एकेश्वरवाद, वैदिक उन्मुखपन , पाखण्डहीन समाजको कल्पना जहाँ अंग्रेज कालीन उपनिवेशमा गर्न गाह्रो हुन्छ त्यसबेला केवर यौटा एक्लो साधुले यस्तो समाजको निर्माण गरिदियो जुन समाजको उददेश्य सनातन धर्मको परिभाषामा वैदिक विचारधाराको प्रवाहमै सारा राष्ट्रको मैल धुन सकोस् । हो ! त्यसैले महर्षि दयानन्द सरस्वती मलाई प्रिय छन् ।

शैवऔदिच्यसामवेदी ब्राह्मण कुलमा जन्मिएर परिवारको बिघौको जमिनदारी,जागीर आदि सम्पत्ति हुँदा पनि मोह नगरेर ब्रह्मचारीसन्यासी भएर धर्ममा रमाउने , तर्कशीलसंयमी सन्तको रूपमा स्थित थिए हाम्रा स्वामी दयानन्द। हो ! त्यसैले मलाई महर्षि दयानन्द सरस्वती प्रिय छन्।

शुद्रस्त्री जातिलाई दबाएर जहाँ एकातिर धर्मपरिवर्तनको मार्ग विस्तृत गर्दै थिए देशका आन्तरिक शत्रुहरू र बाह्य रूपमा भारतलाई लुटिरहेका थिए युनानी अंग्रेजहरू , त्यो बेला हतोत्साहित नभएर यौटा वैदिक विचारको संग्रह गरेर पंडित लेखरामस्वामी श्रद्धानन्दगुरुदत्त विद्यार्थी जस्ता क्रान्तिकारी दिने तथा स्वराजको सपना देखाएर त्यसलाई प्राप्ति गर्न आचारको विस्तार गर्ने कर्मठ प्रकाशक सन्त थिए दयानन्द । हो ! त्यसैले मलाई महर्षि दयानन्द प्रिय छन्।

जहाँ अवतारवादमा वेदादिशास्त्र विरुद्ध आफूलाई विष्णुशिवगणेश आदिको अवतार बताउने पाखण्डीहरू धर्मलाई बदनाम गर्ने कुचेष्टा गरिरहन्छन् , धर्मलाई रिलिजनमजहब आदि बनाएर कलंकित गर्छन् ,धर्मलाई व्यापारको बाटो बनाउँछन् , त्यसबेला पाखण्डखण्डिनी ध्वजा लहराएर देशलाई अन्धविश्वास हीन बनाउने सपना देख्ने ती आँखा थिए दयानन्दका । हो ! त्यसैले मलाई महर्षि दयानन्द प्रिय छन् ।

आजको समाज महर्षि दयानन्दको तस्वीर ठड्याउन जान्छ, उहाँको मूर्ति अनावरण गराएर घण्टौ भाषण छाड्न सक्छ , अरू मजहबलाई नराम्रो भनेर बहस पनि गर्न सक्छ तर स्वयं दयानन्दको मार्गमा हिँड्न सक्दैन। आज पनि वैदिकमार्गको बाटो संकीर्ण हुँदै छ , दिनप्रतिदिन वैदिक आस्था क्षीण हुँदै छ । तर पनि जब म सत्यार्थ प्रकाश पल्टाउँछु , यसको पानामा मलाई त्यो भगवा वस्त्रको न्यानो पन आभाष हुन्छ, यज्ञको सुवास आउँछ, स्वाभिमानले मेरो छाति फुलेर आउँछ । हो, त्यसैले मलाई महर्षि दयानन्द प्रिय छन् ।

                                               –अविरल डि.सी “सत्यार्थी” –काठमाडौँ, नेपाल

शिक्षा समानता का आधार है: -धर्मवीर

मनुष्य का व्यवहार जड़ वस्तुओं से भी होता है तथा चेतन पदार्थों से भी होता है। जड़ वस्तुओं से व्यवहार करते हुए वह जैसा चाहता है, वैसा व्यवहार कर सकता है। जड़ वस्तु को तोडऩा चाहता है, तोड़ लेता है, जोडऩा चाहता है, जोड़ लेता है, फेंकना चाहता है, फेंक देता है, पास रखना चाहता है, पास रख लेता है। वह पत्थर को भगवान् बनाकर उसकी पूजा करने लगता है, वह पत्थर उसका भगवान् बन जाता है। व्यक्ति उस पत्थर को अपनी सीढिय़ों पर लगाकर उन पर जूते रखता है, उसे उसमें भी कोई आपत्ति नहीं होती। अत: जड़ वस्तु के साथ मनुष्य का व्यवहार अपनी इच्छानुसार होता है, अपनी मरजी से होता है, जड़ वस्तु क ी कोई मरजी इसमें काम नहीं करती।

चेतन पदार्थों से मनुष्य सर्वथा अपनी इच्छानुकूल व्यवहार नहीं कर सकता। चेतन में पशु-पक्षी आदि प्राणियों के साथ अपना व्यवहार बलपूर्वक करता है। यद्यपि प्राणियों में चेतन पदार्थों में इच्छा होती है, उन्हें अच्छा बुरा लगता है, परन्तु मनुष्य अपनी इच्छा उन पर थोपता है। उन्हें अपनाता है, दूर करता है, प्रेम करता है, हिंसा करता है, उसमें अपनी इच्छा को ऊपर रखता है। दूसरे प्राणी प्रतिकार करते हैं, प्रतिक्रिया करते हैं, परन्तु जितना उनका सामथ्र्य है, वे उतने ही सफल हो सकते हैं। अधिकांश में मनुष्य अपने बल से उनको अपने वश में करने का प्रयास करता है और सफल रहता है।

मनुष्य का मनुष्य के साथ इस प्रकार व्यवहार करना संभव नहीं होता। मनुष्य अज्ञानी, दुर्बल, निर्धन भी हो सकता है, इसके विपरीत ज्ञानवान्, सबल और साधन सम्पन्न भी हो सकता है। इस कारण मनुष्यों का परस्पर व्यवहार किसी एक प्रकार का या एक नियम से होने वाला नहीं होता। जो मनुष्य दुर्बल या निर्धन है, उसे अपने साधनों से मनुष्य अपने अनुकूल करने का प्रयास करता है, परन्तु जो कुछ समझ सकते हैं, उनको वश में करने के लिए ये उपाय निरर्थक हो जाते हैं। ज्ञानवान् व्यक्ति को अपने अनुकूल बनाने के लिए मनुष्य दो उपाय काम में लाता है। यदि वह किसी का अपने लिए उपयोग करना चाहता है अपने स्वार्थ के लिए उन्हें काम में लेना चाहता है तो वह उनको बहकाता है, भडक़ाता है और अपना स्वार्थ सिद्ध करता है।

इन सबसे अलग भी एक उपाय मनुष्य अपनाता है, जिनसे वह दूसरे मनुष्यों को अपने अनुकूल बनाता है। यह परिस्थिति मनुष्य की सबसे ऊँची स्थिति होती है, जब वह अपनी बुद्धि और अपने ज्ञान से दूसरे को अपने साथ चलने के लिए सहमत कर लेता है। इसमें किसी का स्वार्थ नहीं होता। इस प्रकार सबका हित सबका लाभ मुख्य उद्देश्य होता है।

यह उपाय सबसे उत्तम होने के साथ-साथ सबसे कठिन भी है। जहाँ जड़ वस्तु मनुष्य की इच्छा के विरुद्ध नहीं चल सकती, पशु-पक्षी उसके बल से उसके बन्धन में पड़े रह सकते हैं, परन्तु मनुष्य ज्ञानवान् या साधन सम्पन्न होकर दूसरे मनुष्य के विरुद्ध चला जाता है। इसलिए एक कम बुद्धि और कम सामथ्र्य वाले व्यक्ति को अपने आधीन रखने का प्रयास करता है। वह यह प्रयास भी करता है कि उसके आधीन काम करने वाला उससे कम बना रहे। इसी भावना ने समाज में कुछ वर्गों को कमजोर बनाकर रखा है।

आज समाज में स्त्री और शूद्रों की स्थिति इसी भावना का परिणाम है। जो लोग सबको ज्ञान का अधिकारी नहीं मानते वे दूसरे पक्ष के ज्ञानवान् होने से डरते हैं। क्योंकि जो मनुष्य शिक्षित, समर्थ और स्वावालम्बी होता है, ऐसे मनुष्य को आधीन बनाकर रखना संभव नहीं है। अत: समाज के समर्थ लोगों ने स्त्री और शूद्र कहकर कमजोर लोगों को कमजोर बनाये रखने की व्यवस्था की और अपनी इच्छा को धर्म, समाज और शासन का नाम देकर कमजोर वर्ग को मानने, स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। आज जितने एक तरफा बन्धन हंै, उन पर लादे गये हैं। जैसे पर्दा, अशिक्षा, स्वतन्त्रता का अभाव। पिछले दिनों अफगानिस्तान में महिलाओं को शिक्षा से वञ्चित कर बुर्के मेें रहने के लिए बाध्य किया गया, कोई अंग बाहर दिखने पर उसे काट दिया गया। यह नृशंसता धर्म, सिद्धान्त और समाजिक व्यवस्था के नाम पर की गई, जो दूसरे पक्ष की अज्ञानता और दुर्बलता के कारण संभव है।

इसके विपरीत मनुष्य मनुष्य होने के नाते समान अधिकार और कत्र्तव्य का उत्तरदायी है। इस आदर्श को वैदिक-धर्म स्वीकार करता है। वेद मनुष्यों को पारस्परिक व्यवहार और सम्बन्ध समानता के आधार पर स्थापित करने का उपदेश देता है। वैदिक-धर्म ने सभी मनुष्यों को शिक्षा का अधिकार दिया है तथा समानता से कत्र्तव्य पालन करने की भी प्रेरणा की है। आचार्य शिष्य को अपने समान बनाने की इच्छा रखता है, पति-पत्नी परस्पर एक दूसरे को समान मानने की प्रतिज्ञा करते हैं। विवाह संस्कार की यह विधि ध्यान देने योग्य है-

मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तं तेऽस्तु।

मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिस्त्वा नियुनक्तु मह्यम्।

विवाह संस्कार में वर-वधू एक-दूसरे के हृदय पर हाथ रखकर प्रतिज्ञा करते हैं, हम परस्पर एक दूसरे के व्रतों, कार्यों कत्र्तव्यों का बोध करेंगे, उनके पालन में सहयोगी बनेंगे, ऐसा करने के लिए परस्पर संवाद बनाकर रखेंगे, एक दूसरे की बात को ध्यान से सुनेंगे, गम्भीरता से लेंगे, इसके पालन में प्रभु से सहायता की याचना करेंगे।

यही मन्त्र उपनयन-वेदारम्भ संस्कार में आचार्य शिष्य को कहते हैं।

यहां किसी को बलपूर्वक अपनी बात मनवाने का प्रयास नहीं है, अपितु बात के औचित्य को समझकर उस बात को स्वीकार करने और सहमत होने का प्रयास है। इसके लिए दोनों पक्षों को समझदार और शिष्ट होना आवश्यक है।

समानता के अधिकार को वैदिक-धर्म कहाँ तक स्वीकार करता है, उसके लिए विवाह संस्कार का सप्तपदी प्रकरण ध्यान  देने योग्य है, सप्तपदी की सात प्रतिज्ञाओं में अन्तिम और सप्तम प्रतिज्ञा है-

सरखे सप्तपदी भव….।

हम गृहस्थ जीवन में सखा=मित्र बनकर रहेंगे। किसी को भी ‘‘मैं बड़ा हँू’’ यह कहना नहीं पड़ेगा। अत: दोनों एक दूसरे को अपने से बड़ा मानने की पहल करेंगे। ऐसा तभी संभव होगा, जब दोनों शिक्षित हों और दोनों समझदार हों। इस समझदारी की पराकाष्ठा में वैदिक नारी कहती है-मेरे पुत्र शत्रु पर विजय पाने वाले हैं। मेरी पुत्री भी उन्हीं के समान तेजस्विनी है। वह किसी का भी मुकाबला करने में समर्थ है। पति उसका प्रशंसक है-

मम पुत्रा: शत्रुहणोऽथो में दुहिता विराट्।

उताहमस्मि संजया पत्यौ में श्लोक उत्तम:।।

-धर्मवीर

‘शूरता की शान श्रद्धानन्द थे’: राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

यह सन् १९९४ से भी पहले की घटना है, आदरणीय क्षितीश कुमार जी वेदालंकार ने हमारा एक लेख ‘जब महात्मा मुंशीराम जी को फांसी पर लटकाया गया’ पढक़र अत्यन्त भावुक होकर बड़े प्रेम से इस विनीत से कहा था कि अब तक जिस-जिसने भी स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज की जीवनी लिखी है, उनमें से कोई भी उर्दू नहीं जानता था। उस युग में आर्यसमाज के सब बड़े-बड़े पत्र उर्दू में छपते थे। साहित्य भी अधिक उर्दू में छपता रहा, इस कारण श्री स्वामी जी के जीवनी लेखक उनसे पूरा न्याय न कर सके। आपने आर्यसमाज के निर्माताओं के जीवन पर बहुत खोजपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज पर अब लेखनी उठायें।

गुणी कृपालु विद्वान् का आदेश शिरोधार्य करते हुये इस कार्य को करने की हाँ भर दी। कुछ वर्ष पूर्व प्रिय श्री अनिल आर्य की प्रेरणा से लिखना आरम्भ भी कर दिया, परन्तु आर्यसामाजिक कार्यों की अधिकता में यह कार्य बीच में छूट गया। अब कमर कसकर यह लेखक कुछ समय से इस कार्य में जुट गया है। आर्यवीरों की प्रेरणा पर प्राणवीर पं. लेखराम जी पर नेट पर किये जा रहे निरन्तर आक्रमणों का उत्तर प्रत्युत्तर देकर अब हम पूरा समय अपने नये ग्रन्थ ‘शूरता की शान श्रद्धानन्द’ के लेखन कार्य में दे रहे हैं। ‘शूरता की शान श्रद्धानन्द’ एक छोटी पुस्तक पहले भी दी थी। अब बहुत बड़ा ग्रन्थ लिखा जा रहा है। पं. लेखराम जी, वीर राजपाल के लहू की धार से प्रेरणा पाकर कुछ कृपालु आर्यवीर इसके प्रकाशन के लिये मैदान में अपने आप आ गये हैं।

अब कई व्यक्ति अपनी-अपनी पीएच.डी. आदि के लिये चलभाष पर लम्बी-लम्बी जानकारी चाहते हैं। ऐसे सब सज्जनों को बोलना पड़ा है- समय नहीं है। जिस कार्य को हाथ में लिया है, जीवन की सांझ में प्रभु कृपा से उसे पूरा करने दीजिये।

मित्रो! ‘सद्धर्म प्रचारक’ उर्दू की पूरी फाइल, तेज दैनिक, पतितोद्धार, ‘शुद्धि समाचार’ आदि पत्रों के बलिदान अंक (१९२६) हमारी पहुँच में हैं। हिन्दी सद्धर्म प्रचारक की $फाइल भी कभी देखी-पढ़ी थी। मिजऱ्ाइ पत्र अल्$फज़ल की भी सन् १९२०-१९२७ तक सारी फाईलें हमने पढ़ रखी हैं और क्या-क्या हमारी पहुँच में है, उससे पाठक सोच-समझ लें कि यह ग्रन्थ कैसा होगा? स्वामी जी महाराज के जीवनकाल में छपी उनकी प्रथम जीवनी भी हमने पढ़ी है। उनके बलिदान पर छपी सबसे पहली पुस्तक भी हमारे पास है। प्रेमी पाठकों का स्नेह व आशीर्वाद चाहिये। प्रतीक्षा करें। नये वर्ष में यह ग्रन्थ आर्यजाति को भेंट किया जायेगा।

 

वैदिक कालमा आकाश-मार्ग बाट आवागमन

ओ३म्..

प्राचीन विमान शास्त्र:

Untitled

-प्रेम आर्य

दोहा, कतार बाट

वैदिक कालमा अनेकौं प्रकारका आविष्कारहरु भैसकेका थिए। यसको प्रमाण अनेकौं वैदिक साहित्यमा उपलब्ध हुन्छन्। पश्चिमका वैज्ञानिकहरुले स्वत्वाधिकार(कपी-राइट) को उल्लंघन गरेर हाम्रो विद्या चोरि गरेका हुन्।

वैदिक ऋषि (वैज्ञानिक) हरु सांसारिकता देखि टाढै रहन्थे, त्यसैले उनीहरुले भौतिक उन्नतिलाई अधिक प्रश्रय दिएनन् तर उनीहरुले सबै जान्दथे।

ऋग्वेदमा वरुणको स्तुतिमा भनिएको छ कि उनले आकाशमा उड्न सक्ने पंक्षीहरुको मार्ग जान्दथे:

“वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम् ।” (ऋग्वेदः१/२५/७)

आकाशमा उड्ने वायुयानहरुको लागि ऋग्वेदमा ‘नौ’ र ‘रथ’ शब्दको प्रयोग भएको छ। यिनलाई “अन्तरिक्षप्रुद्” (अन्तरिक्षमा चल्ने) र “अपोदक” (जल-स्पर्श-रहित) भनिएको छ। मन्त्रमा यिनलाई “आत्मन्वती” भनिएको छ। यसबाट सूचित हुन्छ कि यसमा कुनै मशीन राखिन्थ्यो जसको कारणले यी सजीव तुल्य हुन्थ्ये।

“नौभिरात्मन्वतीभिः अन्तरिक्षप्रुद्भिः अपोदकाभिः ।” (ऋग्वेदः १/११६/३)

“वीडुपत्मभिः” र “आशुहेमभिः” शब्दले यिनको तीव्र उडानलाई सूचित गर्दछन:

“वीडुपत्मभिः आशुहेमभिः ।” (ऋग्वेदः१/११६/२)

यी मन्त्रमा अश्विनीकुमारको रथलाई “श्येनपत्वा” बाज सरह उड्ने र मन भन्दा पनि तीव्र गति भएको भनिएको छ:

“रथो अश्विना श्येनपत्वा मनसो जवीयान् ।” (ऋग्वेदः १/११८/१)

यसमा तीन आसन, तीन भाग र तीन पैया हुन्थ्ये:

“त्रिबन्धुरेण त्रिवृता रथेन त्रिचक्रेण ।” (ऋग्वेदः १/११८/२)

यो श्येन (बाज) र गृध्र (गिद्ध) सरह उड्दथ्यो:

“श्येनासो वहन्तु । दिव्यासो न गृध्राः ।” (ऋग्वेदः १/११८/४)

यसबाट यहि ज्ञात हुन्छ कि प्राचीन ऋषि (वैज्ञानिक) हरु आकाशीय मार्ग र आकाशीय यात्रा देखि परिचित थिए। यिनको प्रयोग व्यापार गर्नको लागि हुने गर्दथ्यो।

 प्राचीन विमान शास्त्र !!

प्राचीन विमानहरुको दुई श्रेणि थियो:

१- मानव निर्मित विमान: जुन आधुनिक विमान सरह पंखाको सहायताले उडान भर्ने गर्दथे।

महर्षि भारद्वाजको शब्दमा पक्षिहरु झैं उड्ने हुनाले वायुयानलाई विमान भनिन्छ।
वेगसाम्याद विमानोण्डजानामिति ।।

विमानका प्रकारहरु:-
शकत्युदगमविमान: अर्थात्, विद्युत बाट चल्ने विमान,
धूम्रयान: अर्थात्, धुवाँ, वाष्प आदि बाट चल्ने,
अशुवाहविमान: सौर्य उर्जा बाट चल्ने,
शिखोदभगविमान: पारोको शक्ति बाट चल्ने,
तारामुखविमान: चुम्बक शक्तिले चल्ने,
मरूत्सखविमान: वायु शक्ति बाट चल्ने,
भूतवाहविमान: जल,अग्नि तथा वायु आदि बाट चल्ने।

२- आश्चर्य जनक विमान: जुन मानव निर्मित थिएनन् तर तिनका आकार-प्रकार भने आधुनिक ‘उडन तश्तरीहरु’अनुरूपका थिए।

विमान विकासका प्राचीन ग्रन्थ:

यसको उल्लेख प्राचीन संस्कृत भाषामा सैयौंको संख्यामा उपलब्ध छन्, तर दुःखको कुरो यो छ कि तिनलाई अहिले सम्म कुनै आधुनिक भाषामा अनुवादित गरिएको छैन।

प्राचीन ऋषि-मुनिहरुले जुन विमानहरुको अविष्कार गरेका थिए, उनले विमानहरुको संचालन प्रणाली तथा उनको सम्भार सम्बन्धी निर्देशन पनि संकलित गरेका थिए, जुन आज पनि उपलब्ध छन् र ति मध्ये केहिको अंग्रेजीमा अनुवाद पनि गरिएको छ।

विमान विज्ञान विषयमा केहि मुख्य प्राचीन ग्रन्थहरु यस प्रकार छन्:-

१- ऋगवेद:- यस आदि ग्रन्थमा लगभग २०० पटक विमानको बारेमा उल्लेख छ। यिनमा तीन तले. त्रिभुज आकार को, तथा तीन पैया भएका विमानहरुको उल्लेख छ जसलाई अश्विनीहरुले बनाएका थिए। तिनमा साधारणतया तीन यात्री मात्र चढ्न सक्दथे। विमान निर्माणको लागि स्वर्ण,रजत तथा लौह धातुको प्रयोग गर्ने गरिन्थ्यो तथा तिनको दुवै तिर पंखा हुन्थे। वेदमा कयौं आकार-प्रकारका विमानहरुको उल्लेख गरिएको छ:

अहनिहोत्र विमानको दुई इन्जन तथा हस्तः विमान(हात्ती जस्तै विमान) को दुई भन्दा अधिक इन्जन हुन्थे। एक अन्य विमान राम चरो अनुरूपको थियो।

यस प्रकार कयौं अन्य जीवहरुको रूप भएका विमान हुने गर्दथे। यसमा कुनै सन्देह छैन कि बीसौं सताब्दी कै सरह पहिले पनि मानवले उड्ने प्रेरणा पंक्षीहरु बाट नै लिएका हुन सक्छन।

याता-यातको लागि ऋग्वेदमा जुन विमानहरुको उल्लेख छ ति यस प्रकारका छन्:-

जल-यान: यो वायु तथा जल दुवैमा चल्न सक्थ्यो। (ऋग्वेद: ६/५८/३)

कारा: यो पनि वायु तथा जल दुवैमा चल्न सक्ने थियो। (ऋग्वेद: ९/१४/१)

त्रिताला: यो विमान तीन तले थियो। (ऋग्वेद: ३/१४/१)

त्रिचक्र रथ: यो तीन-पाङ्ग्रे थियो र आकाशमा उड्न सक्दथ्यो। (ऋग्वेद: ४/३६/१)

वायु रथ: रथ आकारको यो विमान वायुको शक्तिले चल्दथ्यो। (ऋग्वेद: ५/४१/६)

विद्युत रथ: यो रथ आकारको विमान विद्युत शक्तिले चल्दथ्यो। (ऋग्वेद: ३/१४/१)

२- यजुर्वेद: यसमा पनि एक अन्य विमानको तथा त्यसको संचालन प्रणालीको उल्लेख छ जसको निर्माण जुम्ल्याहा आश्विन कुमारले गर्दछन्।

३- विमानिका शास्त्र: ईसाई वर्ष-१८७५ मा दक्षिण-भारतको कुनै एक मन्दिरमा ‘विमानिका शास्त्र’ नामक ग्रंथको  एक प्रति भेटिएको थियो। जुन ग्रन्थ ईसाई वर्ष भन्दा ४०० वर्ष पूर्वको भनिन्छ जसलाई महर्षि भारद्वाज द्वारा रचित मानिन्छ। यसको अनुवाद अंग्रेजी भाषामा भैसकेको छ। यसै ग्रंथमा पूर्वका ९७ अन्य विमानाचार्यहरुको वर्णन छ तथा २० यस्ता कृतिहरुको पनि वर्णन छ जसमा विमानहरुको आकार प्रकारको बारेमा विस्तृत जानकारी छ। दुःखको विषय छ कि यी मध्य निक्कै अमूल्य कृतिहरु अहिले लुप्त भैसके या चोरी गरेर पश्चिम तिर गइसके।

यी ग्रन्थहरुको विषय यस्ता थिए:-

  • विमानको संचालनको बारेमा जानकारी,
  • उडानको समयमा सुरक्षा सम्बन्धी जानकारी,
  • आँधी-बेहरी तथा बिजुलीको आघात बाट विमानको सुरक्षा गर्ने उपाय,
  • आवश्यकता परेमा साधारण ईंधनको सट्टा सौर्य ऊर्जा द्वारा पनि विमान चलाउने आदि।

यसबाट यो तथ्य पनि स्पष्ट हुन्छ कि ति विमानमा गुरुत्व-विपरित (एन्टी ग्रेविटी) क्षेत्रको यात्रा गर्ने क्षमता पनि थीयो।

‘विमानिका शास्त्र’ मा सौर्य ऊर्जाको माध्यम बाट विमानलाई उडाउनुको अतिरिक्त ऊर्जालाई संचित राख्ने विधान पनि गरिएको छ।

एक विशेष प्रकारको शीशाको आठ नलिहरुमा सौर्य ऊर्जालाई एकत्रित गरिन्थ्यो जसको विधानको पूरा जानकारी लिखित छ तर यस मध्य निक्कै भाग अहिले सम्म ठिक तरिकाले बुझ्न सकिएको छैन। यस ग्रन्थमा आठ भाग छन् जसमा विस्तरित मानचित्रहरु बाट  विमानहरुको बनावटका अतिरिक्त विमानहरुलाई अग्नि तथा फुट्न बाट बचाउने तरीका पनि उल्लेखित छ।

ग्रन्थमा ३१उपकरणहरुको वृतान्त तथा १६धातुहरुको उल्लेख छ जुन विमान निर्माणमा प्रयोग गर्ने गरिन्छ। ति सब विमानहरुको निर्माणमा उपयुक्त मानिएको छ। किनकि यी सब धातुहरुले गर्मी सहन गर्ने क्षमता राख्दछन र भारमा हल्का पनि छन्।

४- यन्त्र सर्वस्वः यो ग्रन्थ पनि महर्षि भारद्वाज द्वारा रचित हो। यसका ४०भाग छन्। जसमध्य एक भाग ‘विमानिका प्रकरण’ का आठ अध्याय, लगभग १०० विषय र ५०० सूत्र छन् जसमा विमान विज्ञानको उल्लेख छ। यस ग्रन्थमा महर्षि भारद्वाजले विमानहरुलाई तीन श्रेनिमा विभाजित हरेका छन्:

अन्तरदेशीय: जुन देशका एक स्थान बाट अर्को स्थानमा जान्छन।
अन्तरराष्ट्रीय: जुन एक देश बाट अर्को देशमा जान्छन।

अन्तीर्क्षय: जुन विमान एक ग्रह देखि अर्को ग्रह सम्म जान्छन।

यिनै मध्ये बाट अति-उल्लेखनिय सैनिक विमान थिए; जसको विशेषताको बारेमा विस्तार पूर्वक लेखिएको छ। ति विमानहरूले आज भोलिका अत्याधुनिक विज्ञानका काल्पनिक लेखकहरुलाई पनि आश्चर्य-चकित पार्न सक्छन।

उदाहरणार्थ सैनिक विमानहरुको विशेषता यस प्रकार थीयो:-

  • पूर्णतया अटूट।
  • अग्नि बाट पूर्णतया सुरक्षित।
  • आवश्यक्ता परेमा पलमात्र समय भित्र नै एकदम संग स्थिर हुन सक्ने क्षमता।
  • शत्रु बाट अदृष्य हुनसक्ने क्षमता।
  • शत्रुको विमानमा हुने वार्तालाप तथा अन्य ध्वनिलाई सुन्न सक्षम।
  • शत्रुको विमान भित्र बाट आउने आवाज तथा त्याहाँको दृष्यलाई अभिलेख (रेकर्ड) राख्न सक्ने क्षमता।
  • शत्रुको विमानको दिशा तथा दशाको सहि अनुमान लगाउनु र त्यसलाई निरिक्षणमा राख्नु।
  • शत्रुको विमान-चालक तथा यात्रिहरुलाई दीर्घ काल सम्मको लागि स्तब्ध गर्न सक्ने क्षमता।
  • निजि रुकावट तथा स्तब्धताको दशा बाट उम्कन सक्ने क्षमता।
  • आवश्यकता भएमा स्वयंलाई नष्ट गर्न सक्ने क्षमता।
  • चालक तथा यात्रिहरुमा मौसमानुसार आँफूलाई बदल्न सक्ने क्षमता।
  • स्वचालित तापमान नियन्त्रण गर्ने क्षमता।
  • हल्का तथा उष्णता ग्रहण गर्न सक्ने धातु द्वारा निर्मित तथा आफ्नो आकारलाई लघु या बृहत् गर्न सक्ने र आफ्नो आवाजलाई पूर्णतया नियन्त्रित गर्नमा सक्षम।

विचार गर्न योग्य तथ्य यो छ कि यस प्रकारका विमान आजको संसारमा बनाउन त परै जाओस् कसैले कल्पना समेत गरेको आभास पनि पाइदैन। अनुमान लगाउँदा अमेरिकाको अति आधुनिक स्टेल्थ लडाकु विमान र उडन-तशतरीको मिश्रण केहि हद सम्म मिलन सक्छ।

                महर्षि भारद्वाज कुनै आधुनिक विज्ञानका काल्पनिक कथा या उपन्यास लेखक थिएनन्, तर  यस्ता विमानहरुको परिकल्पना गर्नु नै आधुनिक बुद्धिजीविहरुलाई चकित पार्न सक्छ कि आर्य ऋषि-मुनि तथा महर्षिहरुले यस प्रकारको आदर्श वैज्ञिानक नमुनाको  विचार कसरि गरे। उनीहरुले अंतरीक्ष जगत र अति-आधुनिक विमानहरुको बारेमा लेख लेख्ने मात्र नभएर जल-जमिन तथा अन्तरिक्षमा एकछत्र राज पनि गरेका थिए, जब कि विश्वका अन्य देश जो आज आँफूलाई विज्ञान र प्रविधि विकाशको सुत्रधार सम्झन्छन्, त्यति बेला साधारण खेती-पातीको ज्ञान पनि पूर्णतया हासिल गर्नमा सक्षम नभएर जङ्गली पशु सरह जीवन बिताई रहेका थिए।

५- समरांगनः सुत्रधारा: यो ग्रन्थले विमान तथा त्यस संग सम्बन्धित सबै विषयहरुको बारेमा जानकारी दिन्छ। यसका २३०वटा पद्यहरुले विमानहरुको निर्माण, उडान, गति, सामान्य तथा आकस्मिक अवतरण एवं दुर्घटनाहरुको बारेमा पनि उल्लेख जानकारी दिएका छन्।

लगभग सबै वैदिक ग्रन्थहरुमा विमानहरुको बनावट त्रिभुज आकारको देखाइएको छ। तर यी ग्रन्थहरुमा दिइएको आकार प्रकार पूर्णतया स्पष्ट र अति सूक्ष्म छ। कठिनाई केवल धातुहरुको पहिचान गर्नमा आउँछ। समरांगनः सुत्रधाराकानुसार सर्व प्रथम पाँच प्रकारका विमानहरुको निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्रको लागि गरिएको थियो । त्यस पश्चात अतिरिक्त विमानहरु बनाइयो। चार मुख्य श्रेणिहरुको प्रकार यस्तो छ:-

  • रुकमा: रुकमा चुच्चो आकारको र स्वर्ण रङको थियो।
  • सुन्दरः सुन्दर आज-भोलिको रकेट जस्तो आकारको तथा रजत युक्त थियो।
  • त्रिपुरः त्रिपुर तीन तला भएको थियो।
  • शकुनः शकुनःको आकार पंक्षी जस्तो थियो।

दस अध्याय संलग्नित विषयहरुमा लेखिएको छ जस्तै – विमान चालकहरुको परिशिक्षण, उडानको मार्ग, विमानहरुको कल- पुर्जा, उपकरण, चालक एवं यात्रिहरुको परिधान तथा लामो विमान यात्राको समयमा भोजन कस्तो प्रकारको हुनु पर्छ आदि।

ग्रन्थमा धातुहरुलाइ सफा गर्ने विधि, त्यसको लागि प्रयोग गरिने द्रव्य, अम्ल जस्तै कागती अथवा स्याउ या कुनै अन्य रसायन। विमानमा प्रयोग गरिने तेल तथा तापमान आदिको विषयहरुमा पनि लेखिएको छ।

सात प्रकारका ईजनहरुको वर्णन गरिएको छ तथा तिनको कुन विशिष्ट उद्देष्यको लागि प्रयोग गर्नु पर्छ र कति ऊचाईमा त्यसको प्रयोग सफल र उत्तम हुन्छ आदि। सारांश यहि हो कि प्रत्येक विषयमा प्रविधि र प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्ध छ।

विमान आधुनिक हेलीकप्टर जस्तै सिधा माथि उडान भर्ने तथा अवतरणको लागि, अगाडी-पछाडी तथा तेर्छो चल्नमा पनि सक्ष्म भएको उल्लेख छ।

६- कथा सरित-सागर: यो ग्रन्थले उच्च कोटिका श्रमिकहरुको उल्लेख गरेको छ जस्तै – काष्ठको काम गर्ने जसलाई राज्यधर र प्राणधर भनिन्थ्यो। तिनीहरुले समुद्र पार गर्नको लागि पनि उच्च कोटिका रथहरु निर्माण गर्दथे तथा एक हजार यात्रिहरुलाई लिएर उड्न सक्ने विमानहरु पनि बनाउन सक्थे।
यी रथ-विमानहरु मनको गति समान चल्न सक्दथे।

कौटिल्यको अर्थशास्त्रमा अन्य कारीगरहरुका अतिरिक्त सोविकाहरुको पनि उल्लेख छ जसले विमानहरुलाई आकाशमा उडाउने गर्दथे। कौटिल्यले उनीहरुको लागि विशिष्ट शब्द ‘आकाश युद्धिनाह’ को प्रयोग गरेका छन्, जसको अर्थ हुन्छ आकाशमा युद्ध गर्ने वाला (फाईटर-पाइलट),

आकाश-रथ चाहे त्यो कुनै पनि आकारको होस्। यसको उल्लेख सम्राट अशोकका आलेखहरुमा पनि गरिएको छ, जो ईसाई वर्ष भन्दा २५६-२३७ वर्ष पूर्वमा लगाइएको थियो। उपरोक्त तथ्यहरुलाई केवल कोरा कल्पना मात्र भनेर नकार्न सकिन्न किनकि कल्पनाको आधारको लागि पनि कुनै ठोस धरातलको आवश्यकता पर्दछ।

हामि एक प्रश्न गर्न सक्छौं कि के विश्वमा अन्य कुनै देशको साहित्यमा यस विषयका प्राचीन ग्रंथ छन्? आजको प्रविधिले हाम्रो उही प्राचीन ज्ञानलाई हाम्रै सामु पुनः साकार गरेर देखाई दिएको छ। तर विदेशमा या त अप्सराहरु र देव-दुत (एन्जल्स) हरुको पाखुरामा उम्रिएका पखेटाहरुको सहायताले उडेको देखाइएको छ या कुनै सिंदबादलाई कुनै बाजले उडाएर लैजान्छ। या कुनै गुलफामले उड्ने गधा (बुर्राक) मा चढेर कुनै अप्सरालाई  कुनै भूत-प्रेत (जिन्न) को उड्दै गरेको खटौली (कालीन) बाट तल झारेर बचाउँछ र फेरी ऊँटमा बसालेर मरुभूमिमा बनेको महलमा फिर्ता छोड्दिन्छ। यसलाई विज्ञान हैन, कपोल कल्पित कहानी या भ्रम (फेन्टासी) भनिन्छ। अस्तु..

नमस्ते..

(सन्दर्भ: स्व.राजिव दिक्षित ज्यू को प्रवचन र ब्लग)

महर्षि दयानन्द सरस्वती- सम्पूर्ण जीवन चरित्र: राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

पिछली बार इस ग्रन्थ की मौलिकता तथा विशेषताओं पर हमने पाँच बिन्दु पाठकों के सामने रखे थे। अब आगे कुछ निवेदन करते हैं।

६. इस जीवन-चरित्र में ऋषि जीवन विषयक सामग्री की खोज तथा जीवन-चरित्र लिखने के इतिहास पर दुर्लभ दस्तावेज़ों के छायाचित्र देकर प्रामाणिक प्रकाश डाला गया है। दस्तावेज़ों से सिद्ध होता है कि ऋषि के बलिदान के समय पं. लेखराम जी के अतिरिक्त कोई उपयुक्त व्यक्ति-इस कार्य के लिये ग्राम-ग्राम, नगर-नगर, डगर-डगर धक्के खाने को तैयार ही नहीं था। सब यही कहते थे कि ऋषि जी की घटनायें उनके घर में मेज़ पर पहुँचाई जायें। ऐसे दस्तावेज़ हमने खोज-खोजकर इस ग्रन्थ में दे दिये हैं। ऋषि का जीवन-चरित्र लिखने में तथा सामग्री की खोज में जो महापुुरुष, विद्वान् और ऋषिभक्त नींव का पत्थर बने, हमने उनके चित्र खोज-खोजकर इस ग्रन्थ में दिये हैं। हमें कहा गया कि महाशय मामराज जी का तो चित्र ही नहीं मिलता। महर्षि के पत्रों की खोज के लिये पं. भगवद्दत्त जी, पूज्य मीमांसक जी के इस अथक हनुमान् का चित्र खोजकर ही चैन लिया। ऋषि जीवनी के एक लेखक जिसको इस अपराध में घर-बार, सगे-सम्बन्धी, सम्पदा तथा परिवार तक छोडऩा पड़ा, उस तपस्वी निर्भीक विद्वान् पं. चमूपति का चित्र इस ऐतिहासिक ग्रन्थ में देकर एक नया इतिहास रचा है। जिस-जिस ने ऋषि जीवन के लिये कुछ मौलिक कार्य किया, सामग्री की खोज की, उन सबके चित्र देने व चर्चा करने का भरपूर प्रयास किया।

७. ऋषि के विषपान, बलिदान व दाहकर्म संस्कार का विस्तृत तथा मूल स्रोतों के आधार पर वर्णन किया गया है। लाला जीवनदास जी ने अरथी को कंधा दिया, ऋषि ने नाई को पाँच रुपये दिलवाये, ऋषि की आँखें खुली ही रह गईं- यह प्रामाणिक जानकारी इसी ग्रन्थ में मिलेगी। प्रतापसिंह की विषपान के पश्चात् ऋषि से जोधपुर में कोई भेंट नहीं हुई और आबू पर भी कोई बात नहीं हुई। ये सब प्रमाण हमने खोज निकाले।

८. जोधपुर के राजपरिवार की कृपा से बलिदान के पश्चात्  परोपकारिणी सभा को कोई दान नहीं मिला। २४०००/- रुपये की मेवाड़ आदि से प्राप्ति के दस्तावेज़ी प्रमाण खोजकर इतिहास प्रदूषण से ऋषि जीवनी को बचाया गया है।

९. ऋषि के बलिदान के समय स्थापित समाजों की दो सूचियाँ केवल इसी ग्रन्थ में खोजकर दी गई है।

१०. ऋषि के पत्र-व्यवहार का सर्वाधिक उपयोग इसी ग्रन्थ में किया गया है। ऋषि के कई महत्त्वपूर्ण पत्रों को पहली बार हमीं ने मुखरित किया है।

११. ऋषि के शास्त्रार्थों के तत्कालीन पत्रों व मूल स्रोतों को खोजकर, छायाचित्र देकर सबसे पहला प्रयास हमीं ने इस जीवन चरित्र में करके इतिहास प्रदूषण का प्रतिकार किया है।

१२. ऋषि के आरम्भिक काल के शिष्यों, अग्नि परीक्षा देने वाले पहले आर्यों, सबसे पहले आर्य शास्त्रार्थ महारथी राव बहादुरसिंह जी को मुखरित करके इसी ग्रन्थ में दिया गया है।

१३. पं. श्रद्धाराम फिलौरी के हृदय परिवर्तन विषयक उसके ऋषि के नाम लिखे गये ऐतिहासिक पत्र का फोटो देकर ऋषि-जीवन का नया अध्याय  इसमें लिखा है।

१४. ऋषि के व्यक्तित्व का, शरीर का, ब्रह्मचर्य का सबसे पहले जिस भारतीय ने विस्तृत वर्णन किया, वह बनेड़ा के राजपुरोहित श्री नगजीराम थे। उनकी डायरी के ऐसे पृष्ठों का केवल इसी ग्रन्थ में फोटो मिलेगा। (शेष अगले अंकों में)

चाँदापुर शास्त्रार्थ का भय-भूत: – राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

चाँदापुर शास्त्रार्थ का भय-भूत:- एक आर्य भाई ने यह जानकारी दी है कि आपने ऋषि-जीवन की चर्चा करते हुए पं. लेखराम जी के अमर-ग्रन्थ के आधार पर चाँदापुर शास्त्रार्थ की यह घटना क्या दे दी कि शास्त्रार्थ से पूर्व कुछ मौलवी ऋषि के पास यह फरियाद लेकर आये कि हिन्दू-मुसलमान मिलकर शास्त्रार्थ में ईसाई पादरियों से टक्कर लें। आप द्वारा उद्धृत प्रमाण तो एक सज्जन के लिये भय का भूत बन चुका है। न जाने वह कितने पत्रों में अपनी निब घिसा चुका है। अब फिर आर्यजगत् साप्ताहिक में वही राग-अलापा है। महाशय चिरञ्जीलाल प्रेम जैसे सम्पादक अब कहाँ? कुछ भी लिख दो। सब चलता है। इन्हें कौन समझावे कि आप पं. लेखराम जी और स्वामी श्रद्धानन्द जी के सामने बौने हो। कुछ सीखो, समझो व पढ़ो।

मेरा निवेदन है कि इनको अपनी चाल चलने दो। आपके लिये एक और प्रमाण दिया जाता है। कभी बाबा छज्जूसिंह जी का ग्रन्थ ‘लाइफ एण्ड टीचिंग ऑफ स्वामी दयानन्द’ अत्यन्त लोकप्रिय था। इस पुस्तक के सन् १९७१ के संस्करण में डॉ. भवानीलाल जी भारतीय ने इसका गुणगान किया था। जो प्रमाण पं. लेखराम जी का मैंने दिया है, उसी चाँदापुर शास्त्रार्थ उर्दू को बाबा छज्जूसिंह जी ने अपने ग्रन्थ में उद्धृत किया है। पं. लेखराम जी को झुठलाने के लिये नये कुतर्क गढक़र कोई कुछ भी लिख दे, इन्हें कौन रोक सकता है। सूर्य निकलने पर आँखें मीचकर सूर्य की सत्ता से इनकार करने वाले को क्या कह सकते हैं। अब भारतीय जी को क्या कहते हैं? यह देख लेना।

तनाव मुक्त र आनन्दित जीवन बिताउनको लागि सात्विक आहार अपनाउँ …!

ओ३म्..

तनाव मुक्त र आनन्दित जीवन बिताउनको लागि सात्विक आहार अपनाउँ..

       दुःखको कुरो छ कि गलत संस्कार, यथार्थ ज्ञानको अभाव, तथा पाश्चात्य संस्कृतिको अन्ध-नक्कलले गर्दा आजभोली मांसाहारी भोजन गर्ने चलन बढ्दैछ । यति सम्म अज्ञानता छ कि कसैले त अण्डालाई पनि साकाहारी भोजनमा लिन थालेका छन्। यो भन्दा बिडम्बना अरु के होला र!?

मांसाहारले केवल जिब्रोको स्वाद मेटाउन बाहेक अर्को मानव स्वास्थ्यलाइ कुनै किसिमको पनि हित गर्दैन। कसैले समाजमा केवल आफ्नो धाक र बोक्रे सान देखाउनको लागि मात्र पनि निर्दोष पशु-पंक्षीहरु मार्ने गर्दछन। यसैको दुष्परिणाम हो आज हाम्रो समाजमा कहिल्यै नाम नै नसुनेका भयङ्कर रोगले वास गरेको छ, मानिसहरु रोग ग्रस्त भएका छन् जसको कारण आफ्नो अमुल्य समय अस्पतालको चक्कर काट्नमा बिताएका छन्, अथाह धन-सम्पत्ति औषधिमा नाश गरेका छन्, जिन्दगि पीडामय बनाएर आफ्नो जीवन असमयमै गुमाउनु परेको छ । यस्ता मानिसहरुलाई  आज यथार्थ धार्मिक ज्ञान र उचित मार्गदर्शनको खाँचो छ ।

हाम्रा सनातन वैदिक ग्रन्थ तथा हिन्दु शास्त्रहरुमा एकमतले सम्पूर्ण जीवलाई ईश्वरिय अंश मानिएकोछ । अहिंसा, दया, प्रेम, क्षमा आदि गुणहरुको अत्यंत महत्व दिइएकोछ ।  मांसाहारलाई बिल्कुल त्याज्य, दोषपूर्ण, आयु क्षीण गर्ने पदार्थ र पाप योनिमा लैजाने वाला भनिएको छ। महाभारत अनुशासन पर्वमा भीष्म पितामहले मासु खानेहरु, मासुको व्यापार गर्नेहरु र मासुको लागि जीव हत्या गर्नेहरु तीनैलाई दोषी भनेका छन्। उनले भनेका छन् कि जसले अर्काको मासुले आफ्नो मासु बढाउन चाहन्छ, त्यसले जहाँ जन्म लिए पनि सुख र आनन्द पुर्वक रहन सक्दैन। जसले अन्य प्राणिहरुको मासु खान्छन, उनलाई अर्को जन्ममा तिनै प्राणिहरुले भक्षण गर्ने छन्। जुन प्राणीलाई वध गरिन्छ, त्यसले यही भन्ने गर्दछ- “मांस भक्षयते यस्माद भक्षयिष्ये तमप्यहमू ” अर्थात्, आज उसले मलाई खान्छ भने मैले पनि कहिल्यै उसलाई खाउँला।

गीतामा भोजनको तीन श्रेणि दिइएको छ:

  • सात्त्विक भोजन:- जस्तै फल, तरकारी, अनाज, दाल,  दूध, दहि, घिउ इत्यादि जसले आयु, बुद्धि, बल बढाउँछन् र सुख, शान्ति, दयाभाव, अहिंसा भाव र एकरसता प्रदान गर्दछन तथा हर प्रकारका अशुद्धिहरुबाट शरीर, मन, मस्तिष्कलाई बचाउँछन् ।
  • राजसिक भोजन:- अति गरम, पिरो, तितो, अमिलो, मसला युक्त आदि जलन तथा उत्तेजना उत्पन्न गर्ने रूखो भोजन। यस प्रकारको भोजन उत्तेजक हुन्छ जसले मानसिक तनाव, दु:ख, रोग तथा चिन्ता उत्पन्न गर्दछन।
  • तामसिक भोजन: – जस्तै बासी, रसविहीन, आधा पाकेको, दुर्गन्ध युक्त, सडेको अपवित्र नशालु पदार्थमासु इत्यादि जसले मनुष्यलाई निर्दयता, दुराचार र कुसंस्कार तिर लैजान्छ, बुद्धि भ्रष्ट गर्दछ, भयङ्कर रोग तथा आलस्य प्रमाद इत्यादि दुर्गुण उत्पन्न गर्दछ।

वैदिक मत प्रारम्भ देखि नै अहिंसक र शाकाहारी थियो –
य आमं मांसमदन्ति पौरूषेयं च ये क्रवि: ।
गर्भान खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि।। (अथर्ववेद: ८/६/२३)
अर्थात्, जसले काँचो मासु खान्छ, जसले मनुष्य द्वारा पकाएको मासु खान्छ, जसले गर्भ रूप अण्डाको सेवन गर्दछ, त्यसको यस दुष्ट व्यसनलाई नाश गर।
अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि (यजुर्वेद: १/१/)
अर्थात्, हे मनुष्य ! पशु अघ्न्य हुन्, कहिल्यै मार्न नहुने, पशुहरुको रक्षा गर।

अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः। (महाभारत-आदिपर्व: ११/१३)
अर्थात्, कुनै पनि प्राणीलाई नमार्नु मै परमधर्म हो।
सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥ (महाभारत-शान्तिपर्व: २६५/९)
अर्थात्, सुरा, माछा, मद्य, मासु, आसव, कृसरा आदि भोजन धूर्त प्रवर्तित छन्, जसले यस्ता अखाद्यलाई वेदमा कल्पना गरे।

अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥ (मनुस्मृति: ५/५१)
अर्थात्, प्राणीलाई मासुको लागि वध गर्ने अनुमति दिने, सहमति दिने, मार्ने, क्रय-विक्रय गर्ने, पकाउने, पस्कने, र खाने यी सबै घातकी अर्थात  हत्यारा हुन्।

सिख धर्ममा मांसाहारको निषेध:

“कबीर भांग मछली सूरा पान जो-जो प्राणी खाहिं
तीरथ नेम ब्रत सब जे कीते सभी रसातल जाहिं” (श्री गुरुग्रन्थ साहिब:अंग-१३७)
“जीव वधहु को धरम कर थापहु अधरम कहहु कत भाई
आपन को मुनिवर कह थापहु काको कहहु कसाई” (श्री गुरुग्रन्थ साहिब: अंग-११०३)
वेद कतेब कहो मत झूठे, झूठा जो न विचारे

जो सब में एक खुदा कहु तो क्यों मुरगी मारे” (श्री गुरुग्रन्थ साहिब: अंग-१३५०)

ईसाई समुदायमा मांस-मदिराको निषेध: (हुनत बाइबलमा मांस-मदिराको समर्थनमा पनि थुप्रै प्रमाण छन् तर यहाँ जो सत्य छ त्यहि लिनु उपयुक्त छ)

बाइबल-नया करारमा स्पष्ट शब्दमा मांस र मदिरा सेवन गर्न निषेध गरिएको। त्यहाँ भनिएको छ- किनकि यसको सेवन गर्ने वाला स्वयंले ठक्कर खान्छ र अरुलाई पनि सही धर्मबाट बिमुख गराउँछ।

भलो यसैमा छ कि तैले मासु नखानु र न दाख रस पिउनु, न अन्य कुनै यस्तो कर्म गर्नु जसबाट तेरो भाईले दुःख पाओस्। (रोमियो-१४/२१)

बौद्ध सम्प्रदायमा जीवहत्याको निषेध: (यसमा पनि बुद्धको मृत्यु पछी मांसाहारीले प्रक्षेपित गरेका छन्, यहाँ सत्य मात्र ग्रहण गरौँ)

कुनै पनि प्राणीलाई नमारेर मासु प्राप्त हुँदैन, त्यसैले भगवान बुद्धले हर प्रकारका जीवको हत्या गर्नुलाई पाप भनेका छन्। र यस्तो गर्नेहरुले कहिल्यै सुख-शांति प्राप्त गर्न सक्दैनन् भनेका छन्।
धम्मपदको गाथा ‘दण्ड्वग्गो’ मा भगवान बुद्धले भनेका छन :

सब्बे तसन्ति दण्डस्स, सब्बेसं जीवितं पियं।
अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये॥ (१३०)
अर्थात्, सबै दण्ड देखि डराउँछन्। सबैलाई मृत्यु देखि डर लाग्छ। अत: सबैलाई आँफू जस्तो सम्झेर न कसैको हत्या गर या हत्या गर्नको लागि प्रेरित गर।
सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन विहिंसति।
अत्तनो सुखमेसानो, पेच्‍च सो न लभते सुखं॥ (१३१)
अर्थात्, जुन सुखको चाहना गर्ने प्राणिहरुलाई जसले आफ्नो सुखको चाहनाले, दण्डले विहिंसित गर्दछ (कष्ट दिन्छया मार्छ) त्यसले मरेर पनि सुख पाउँदैन।
बौद्धका पंचशील (पाँच प्रतिज्ञा) मा प्रथम प्रतिज्ञा छ-
” पाणाति पाता वेरमणी सिक्खा पदम समादियामि”
अर्थात, मैले कुनै पनि प्राणीलाई नमार्ने प्रतिज्ञा गर्दछु।

जैन सम्प्रदायमा प्राणी हत्याको निषेध:

जैन समुदायमा सुक्ष्म तथा विशाल सबै प्रकारक जीव हत्याको घोर वर्जना गरिएको छ।
भगवान महावीरको भनाइमा-
“सव्वे  जीवा  इच्छन्ति जीवियुं न मररिस्सयुं तम्हा पाणि बहम घोरं निग्गन्ठा पब्बजन्ति च समण”। (सुत्तगाथा-३)
अर्थात, सबै जीव जिउन चाहन्छन्, मर्न कसैले चाहदैन, त्यसैले निर्ग्रन्थ (जैन) प्राणी वधलाई घोर वर्जना गर्दछन्।
अस्तु..

नमस्ते..!

-प्रेम आर्य

दोहा, कतार बाट