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‘शूरता की शान श्रद्धानन्द थे’: राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

यह सन् १९९४ से भी पहले की घटना है, आदरणीय क्षितीश कुमार जी वेदालंकार ने हमारा एक लेख ‘जब महात्मा मुंशीराम जी को फांसी पर लटकाया गया’ पढक़र अत्यन्त भावुक होकर बड़े प्रेम से इस विनीत से कहा था कि अब तक जिस-जिसने भी स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज की जीवनी लिखी है, उनमें से कोई भी उर्दू नहीं जानता था। उस युग में आर्यसमाज के सब बड़े-बड़े पत्र उर्दू में छपते थे। साहित्य भी अधिक उर्दू में छपता रहा, इस कारण श्री स्वामी जी के जीवनी लेखक उनसे पूरा न्याय न कर सके। आपने आर्यसमाज के निर्माताओं के जीवन पर बहुत खोजपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज पर अब लेखनी उठायें।

गुणी कृपालु विद्वान् का आदेश शिरोधार्य करते हुये इस कार्य को करने की हाँ भर दी। कुछ वर्ष पूर्व प्रिय श्री अनिल आर्य की प्रेरणा से लिखना आरम्भ भी कर दिया, परन्तु आर्यसामाजिक कार्यों की अधिकता में यह कार्य बीच में छूट गया। अब कमर कसकर यह लेखक कुछ समय से इस कार्य में जुट गया है। आर्यवीरों की प्रेरणा पर प्राणवीर पं. लेखराम जी पर नेट पर किये जा रहे निरन्तर आक्रमणों का उत्तर प्रत्युत्तर देकर अब हम पूरा समय अपने नये ग्रन्थ ‘शूरता की शान श्रद्धानन्द’ के लेखन कार्य में दे रहे हैं। ‘शूरता की शान श्रद्धानन्द’ एक छोटी पुस्तक पहले भी दी थी। अब बहुत बड़ा ग्रन्थ लिखा जा रहा है। पं. लेखराम जी, वीर राजपाल के लहू की धार से प्रेरणा पाकर कुछ कृपालु आर्यवीर इसके प्रकाशन के लिये मैदान में अपने आप आ गये हैं।

अब कई व्यक्ति अपनी-अपनी पीएच.डी. आदि के लिये चलभाष पर लम्बी-लम्बी जानकारी चाहते हैं। ऐसे सब सज्जनों को बोलना पड़ा है- समय नहीं है। जिस कार्य को हाथ में लिया है, जीवन की सांझ में प्रभु कृपा से उसे पूरा करने दीजिये।

मित्रो! ‘सद्धर्म प्रचारक’ उर्दू की पूरी फाइल, तेज दैनिक, पतितोद्धार, ‘शुद्धि समाचार’ आदि पत्रों के बलिदान अंक (१९२६) हमारी पहुँच में हैं। हिन्दी सद्धर्म प्रचारक की $फाइल भी कभी देखी-पढ़ी थी। मिजऱ्ाइ पत्र अल्$फज़ल की भी सन् १९२०-१९२७ तक सारी फाईलें हमने पढ़ रखी हैं और क्या-क्या हमारी पहुँच में है, उससे पाठक सोच-समझ लें कि यह ग्रन्थ कैसा होगा? स्वामी जी महाराज के जीवनकाल में छपी उनकी प्रथम जीवनी भी हमने पढ़ी है। उनके बलिदान पर छपी सबसे पहली पुस्तक भी हमारे पास है। प्रेमी पाठकों का स्नेह व आशीर्वाद चाहिये। प्रतीक्षा करें। नये वर्ष में यह ग्रन्थ आर्यजाति को भेंट किया जायेगा।

 

स्वामी श्रद्धानन्द जी का ९०वाँ बलिदान दिवस: – चान्दराम आर्य

स्वामी दयानन्द ने ही स्वराज्य की चिंगारी सुलगाई थी। उसी चिंगारी से श्रद्धानन्द ने क्रान्ति का दावानल फैलाया था। कोई माने या न माने, सत्य तो यही है। आर्यवीरों की कुर्बानी से ही आजादी आई थी।

बालक मुन्शीराम का जन्म पंजाब प्रान्त के तलवन (जालन्धर) ग्राम के लाला नानकचन्द के घर सन् १८५६ को हुआ था। पुरोहितों ने बच्चे का नाम ‘बृहस्पति’ रखा, परन्तु पिता ने उनका नाम मुंशीराम रखा। बदा में महात्मा गाँधी ने उनके नाम के आगे ‘महात्मा’ शब्द और जोड़ दिया। पिता नानकचन्द उन दिनों शहर कोतवाल थे। बरेली में स्थायी नियुक्ति हो जाने पर पिता ने परिवार को तलवन से बरेली में ही बुला दिया।

बरेली में मुंशीराम को महर्षि दयानन्द  के दर्शन हुए। उनके भाषणों से व दर्शन से मुंशीराम बहुत प्रभावित हुए। कानूनी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आप लाहौर पधारे। वहाँ पढ़ाई के साथ-साथ सभा-संस्थाओं में आना-जाना आरम्भ हुआ। लाहौर में ही उन्हें आर्यसमाज में जाने का चस्का लगा। वहाँ पर उन्होंने आर्यसमाज के सभी ग्रन्थ पढ़ डाले थे। महर्षि दयानन्द के निर्वाणोपरान्त आर्यसमाज लाहौर के पदाधिकारियों ने १ जून १८८६ को डी.ए.वी. कॉलेज की स्थापना की। महात्मा हंसराज उस कॉलेज के अवैतनिक प्राचार्य नियुक्त किए गए। उससे वैदिक सिद्धान्तों का शिक्षण संस्कृत भाषा के द्वारा सम्भव न हो सका। आपने मन-ही-मन वैदिक सिद्धान्तों की शिक्षा मातृभाषा में देने के लिए गुरुकुल की स्थापना करने का संकल्प किया और उचित अवसर की तलाश करने लगे। दुर्भाग्य से ३१ अगस्त १८९१ को उल्टी-दस्त से पत्नी शिवदेवी जी का देहान्त हो गया।

दूसरे दिन जब मुुंशीराम जी शिवदेवी जी का सामान सँभालने लगे तो उनकी बड़ी बेटी वेदकुमारी जी ने माता जी के हाथ का लिखा हुआ कागज लाकर दिया, उसमें लिखा था- ‘‘बाबू जी, अब मैं चली। मेरे अपराध क्षमा करना। आपको तो मुझसे भी अधिक रूपवती व बुद्धिमती सेविका मिल जाएगी, किन्तु इन बच्चों को मत भूलना। मेरा अन्तिम प्रणाम स्वीकार करें।’’ पत्नी के इन शब्दों ने मुन्शीराम जी के हृदय में एक अद्भुत शक्ति का संचार कर दिया। निर्बलता सब दूर हो गई। बच्चों के लिए माता का स्थान भी स्वयं पूरा करने का संकल्प लिया। ऋषि दयानन्द के उपदेश और वैदिक आदेश को पूरा करने के लिए सन् १९०२ को गुरुकुल काँगड़ी (हरिद्वार) की स्थापना की। इसके साथ-साथ देश के उद्धार और जाति के उत्थान का कोई क्षेत्र अछूता न रहा। राजनीति, समाज सुधार, हिन्दी भाषा, अनाथ रक्षा, अकाल, बाढ़, दीन रक्षा, अछूतोद्धार, शुद्धि आन्दोलन आदि सभी कार्यों में स्वामी जी आगे दिखाई देते थे।

श्री रैम्जे मैकडॉनल्ड महोदय ने एक स्थान पर उनके सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है-

‘‘एक महान्, भव्य और शानदार मूत्र्ति-जिसको देखते ही उसके प्रति आदर का भाव उत्पन्न होता है, हमारे आगे हमसे मिलने के लिए बढ़ती है। आधुनिक चित्रकार ईसा मसीह का चित्र बनाने के लिए उसको अपने सामने रख सकता है और मध्यकालीन चित्रकार उसे देखकर सेन्ट पीटर का चित्र बना सकता है। यद्यपि उस मछियारे की अपेक्षा यह मूत्र्ति कहीं अधिक भव्य और प्रभावोत्पादक है।’’

कांग्रेस के स्वागताध्यक्ष पद से अमृतसर पंजाब में राष्ट्रभाषा हिन्दी में जो भाषण मुंशीराम ने दिया था, उनकी ये पंक्तियाँ अब भी रह-रहकर हमारे कानों में गूँज रही हैं, ‘मैं आप सब बहनों व भाइयों से एक याचना करूँगा। इस पवित्र जातीय मन्दिर में बैठे हुए अपने हृदयों को मातृभूमि के प्रेम जल से शुद्ध करके प्रतिज्ञा करो कि आज से साढ़े छ: करोड़ हमारे लिए अछूत नहीं रहे, बल्कि हमारे भाई-बहन हैं। हे देवियो और सज्जन पुरुषो! मुझे आशीर्वाद दो कि परमेश्वर की कृपा से मेरा स्वप्न पूरा हो।’ स्वामी श्रद्धानन्द जी के कार्य का परिचय कराने वाले दीनबन्धु श्री सी.एफ. एण्ड्रूज थे, जिन्होंने गाँधी जी से परिचय करवाया। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के नेटाल सत्याग्रह में व्यस्त गाँधी जी के दिव्य गुणों का वर्णन किया था। उस समय स्वामी जी केवल मुंशीराम जी थे, गाँधी जी भी केवल मिस्टर गाँधी थे। बाद में दोनों का पुण्य स्मरण ‘महात्मा’ नाम से होने लगा। गाँधी जी ने २१ अक्टूबर १९१४ को जो पत्र लिखा था, उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं-

प्रिय महात्मा जी,

मि. एण्ड्रूज ने आपके नाम और काम का इतना परिचय दिया है कि मैं अनुभव कर रहा हूँ कि मैं किसी अजनबी को पत्र नहीं लिख रहा हूँ, इसलिए आप मुझे आपको महात्मा जी लिखने के लिए क्षमा करेंगे। मैं और एण्ड्रूज साहब आपकी चर्चा करते हुए आपके लिए इसी शब्द का प्रयोग करते हैं। उन्होंने मुझे आपकी संस्था गुरुकुल को देखने के लिए अधीर बना दिया है।

आपका मोहनदास कर्मचन्द गाँधी

इसके छ: महीने बाद गाँधी जी भारत में आये तो आप गुरुकुल पधारे। वहाँ गुरुकुल की ओर से उन्हें जो मानपत्र ८ अप्रैल १९१५ को दिया गया, उसमें गाँधी जी को भी ‘महात्मा’ नाम से सम्बोधित किया। आपने १५ वर्ष तक गुरुकुल की सेवा की और १९१७ में संन्यास लेकर स्वामी श्रद्धानन्द कहलाये। २३ दिसम्बर १९२६ को दिल्ली में उनके निवास स्थान पर एक मतान्ध अब्दुल रशीद ने स्वामी जी पर गोलियाँ चलाकर शहीद कर दिया। उनके बलिदान पर पंजाब केसरी लाला लाजपतराय ने निम्न उद्गार प्रकट किए- ‘स्वामी जी की हड्डियों से यमुना के तट पर एक विशाल वृक्ष उत्पन्न होगा, जिसकी जड़े पताल में पहुँचेंगी। शहीदों के खून से नये शहीद पैदा होते हैं।’

जो जीवनभर संघर्षों से खेला, मृदु मुस्कान लिए,

बाधाओं का वक्ष चीरता बढ़ा वेद का ज्ञान लिए।

तोपों-बन्दूकों के आगे, डटा रहा जो सीना तान,

धन्य-धन्य वह वीर तपस्वी, स्वामी श्रद्धानन्द महान्।