झट क्षमा माँग-ली

झट क्षमा माँग-ली

जब दयानन्द मठ की स्थापना का विचार स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के मन में आया तो आपने आर्य-पत्रों में अपनी योजना रखी।

इस पर अनेक आर्य नेताओं व विद्वानों ने जहाँ आपके विचारों का समर्थन किया, वहाँ कुछ एक ने विरोध में भी लेख दिये। ऐसे लोगों में एक थे स्वर्गीय श्री पण्डित भीमसेनजी विद्यालंकार। आप तब पंजाब सभा के मन्त्री थे। सभा के पत्र में आपका एक लेख दयानन्द मठ के विषय पर छपा।

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तब सार्वदेशिक सभा के कार्यकर्ज़ा प्रधान थे। आपने पण्डित भीमसेनजी के लेख का उज़र देते हुए एक लेख में लिखा-सभा मन्त्रीजी ऐसा लिखते हैं आदि आदि। इस

पर पण्डित भीमसेनजी का लेख छपा कि ये मेरे निजी विचार थे।

मैंने सभामन्त्री के रूप में ऐसा नहीं लिखा। ज़्या स्वामीजी के लेख को मैं सार्वदेशिक के कार्यकर्ज़ा प्रधान का लेख जानूँ? पण्डितजी ने स्वामीजी के लेख पर इस आधार पर बड़ी आपज़ि की।

श्रीस्वामी ने इस पर एक और लेख दिया। उसमें आपने लिखा कि चूँकि लेख सज़्पादकीय के पृष्ठ पर छपा था-जिस पृष्ठ पर सभामन्त्री के नाते वे यदा-कदा लिखा करते थे, अतः मैंने इसे

सभामन्त्री का लेख जाना। मेरा जो भी लेख सार्वदेशिक के अधिकारी के रूप में होगा, उसके नीचे मैं कार्यकर्ज़ा प्रधान लिखूँगा।

मैंने पण्डितजी के लेख को सभामन्त्री का लेख समझा, यह मेरी भूल थी। इसलिए मैं पण्डितजी से क्षमा माँगता हूँ।

कितने विशाल हृदय के थे हमारे महापुरुष। उनके बड़ह्रश्वपन का परिचय उनके पद न थे अपितु उनका व्यवहार था। वे पदों के कारण ऊँचे नहीं उठे, उनके कारण उनके पदों की शोभा थी।

HADEES : THE HUSBAND�S RIGHTS

THE HUSBAND�S RIGHTS

A husband has complete sexual rights over his wife.  �Your wives are your tilth; go then unto your tilth as you may desire� (3363).  The same idea is also found in the QurAn (2:223).  Another hadIs in the same group tells the husband that �if he likes he may have intercourse being on the back or in front of her, but it should be through one hole� (3365), which means vagina only, as the commentators tell us.

It is the duty of a wife to be responsive to all of her husband�s overtures.  �When a woman spends the night away from the bed of her husband, the angels curse her until morning� (3366).

author : ram swarup

मुस्लिम स्कूल की लाइब्रेरी में रखी किताबों की सीख: पति चाहे तो पत्नी के साथ करे मार-पीट

मुस्लिम स्कूल की लाइब्रेरी में रखी किताबों की सीख: पति चाहे तो पत्नी के साथ करे मार-पीट

british government to take control of the muslim school where library books says husbands are allowed to beat their wives

सांकेतिक तस्वीर…
लंदन
ब्रिटेन में प्रशासन द्वारा दिए जाने वाले फंड से चल रहे एक मुस्लिम स्कूल को सरकार अपने नियंत्रण में लेने जा रही है। एक सरकारी टीम ने स्कूल के पुस्तकालय में रखी किताबों का निरीक्षण किया था। यहां कुछ ऐसी किताबें पाई गईं, जिनके मुताबिक पति चाहे तो अपनी पत्नी को पीट सकता है। किताब में बताया गया है कि पतियों को अपनी पत्नियों के साथ मार-पीट करने की इजाजत होती है। इतना ही नहीं, वह चाहे तो जबरन अपनी पत्नी के साथ सेक्स भी कर सकता है।

इस निरीक्षण के बाद जांच दल ने जून में अपनी रिपोर्ट संबंधित सरकारी विभाग को सौंप दी। रिपोर्ट में स्कूल को अयोग्य बताया गया है। इसी स्कूल में कुछ दिनों पहले एक 9 साल के छात्र की मौत हो गई थी। बच्चे को किसी किस्म का अलर्जिक रिऐक्शन हुआ और वह स्कूल में ही बेहोश हो गया। बाद में बच्चे को अस्पताल ले जाया गया, लेकिन डॉक्टर उसे नहीं बचा पाए। जांच दल का कहना है कि यहां पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं स्कूल में पूरी तरह से सुरक्षित नहीं हैं।

यह स्कूल फिलहाल अदालत में एक कानूनी लड़ाई भी लड़ रहा है। स्कूल अपने यहां पढ़ने वाले छात्रों और छात्राओं के पढ़ने की व्यवस्था अलग-अलद करने के पक्ष में है। उसका कहना है कि लड़के और लड़कियों को साथ नहीं पढ़ना चाहिए, बल्कि दोनों को पढ़ाने का इंतजाम अलग-अलग किए जाने की छूट मिलनी चाहिए। वहीं सरकारी शिक्षा विभाग ऐसी व्यवस्था के पक्ष में नहीं है। हालांकि इससे पहले नवंबर में हाई कोर्ट ने स्कूल के पक्ष में फैसला सुनाया था, लेकिन विभाग ने इस निर्णय के खिलाफ अपील की है।

source :  http://navbharattimes.indiatimes.com/world/britain/british-government-to-take-control-of-the-muslim-school-where-library-books-says-husbands-are-allowed-to-beat-their-wives/articleshow/59626175.cms

हदीस : एहराम की दशा

एहराम की दशा

 

”हज की किताब“ तीर्थयात्री की पोशाक और सज-धज के बारे में, और तीर्थयात्री की पोशाक पहन लेने के बाद एहराम (निषेध) की दशा में प्रवेश के बारे में है, जिसमें कि मक्का में अपनी इबादत पूरी कर लेने तक कोई अन्य काम करना मना किया गया है।

 

पोशाक के बारे में, ”कमीज या पगड़ी या पायजामा या टोपी पहनना“ मना है (2647)। एहराम की दशा में इत्र का इस्तेमाल मना है, पर उसके पहले या बाद में इस्तेमाल मना नहीं है। आयशा बतलाती हैं-”रसूल-अल्लाह जब एहराम में प्रविष्ट होते थे और जब उससे मुक्त हो जाते थे, तब मैं उन्हें इत्र लगाती थी“ (2683)। एक अन्य हदीस (2685) में वे आगे कहती हैं-”सबसे बढ़िया इत्र।“

author : ram swarup

 

वे ऐसे व्यक्ति थे

वे ऐसे व्यक्ति थे

1908 की घटना होगी। पंजाब विश्वविद्यालय सेनिट के चुनाव हुए। डी0ए0वी0 कॉलेज लाहौर के प्राचार्य महात्मा हंसराजजी को भी प्रबन्ध समिति ने चुनाव के अखाड़े में उतरने के लिए कहा।

वे पहले भी सेनिट के सदस्य थे। उन्होंने चुनाव लड़ा, परन्तु सेनिट के चुनाव में हार गये।

उन दिनों डी0ए0वी0 कॉलेज की एक पत्रिका निकला करती थी। उसमें कॉलेज के समाचार भी छपा करते थे। एक समाचार यह भी छपा कि कॉलेज के प्राचार्य हंसराज चुनाव हार गये हैं।

पाठकवृन्द! ज़्या आज कोई छोटा-बड़ा व्यक्ति चुनाव हार जाने पर अपनी ही पत्रिका में ऐसा समाचार देने का नैतिक साहस दिखा सकता है? आज तो शिक्षा-व्यापार जगत् के इन लोगों से ऐसी आशा नहीं की जा सकती।

HADEES : PROHIBITIONS

PROHIBITIONS

The law appears to be quite indulgent, but it is not entirely so.  There are many restrictions on grounds of number, consanguinity, affinity, religion, rank, etc.  For example, a man cannot marry more than four free women at a time (QurAn 4:3)-there is no restriction on the number of slave concubines.  Also, one cannot marry one�s wife�s father�s sister nor her mother�s sister (3268-3277).  It is also forbidden to marry the daughter of one�s foster brother, or even the sister of one�s wife if the wife is alive and not divorced (3412-3413).

It is also forbidden to marry an unbeliever (QurAn 2:220-221).  Later on, this restriction was relaxed, and a male Muslim could then marry a Jew or a Christian (QurAn 5:5).  Under no circumstances could a female Muslim marry a nonbeliever.

Marriage is also disallowed when the parties are not equal in rank or status (kafa�ah), though what is rank is differently understood by different people.  Generally speaking, an Arab is considered higher than a non-Arab, the Prophet�s relatives being the highest.  One who had committed a portion of the QurAn to memory was considered a qualified match by Muhammad himself.  A woman came to him and entrusted herself to him.  He �cast a glance at her from head to foot . . . but made no decision� about her.  Then a Companion who was there stood up and said: �Messenger of Allah, marry her to me if you have no need for her.� But the man possessed nothing, not even an iron ring for a dowry.  He was turning away in disappointment when Muhammad asked him if he knew any verses of the QurAn and could recite them.  The man said yes.  Then Muhammad decided and said: �Go, I have given her to you in marriage for the part of the QurAn which you know� (3316).

One should also not outbid one�s brother.  �A believer is the brother of a believer, so it is not lawful for a believer to outbid his brother, and he should not propose an agreement when his brother has thus proposed until he gives it up� (3294).

ShighAr marriage is also prohibited (3295-3301). This is the marriage which says: Marry me your daughter or sister, and in exchange I will give you in marriage my daughter or sister.

One should also not marry when one has put on the ritual garb of pilgrimage.  �A Muhrim should neither marry nor make the proposal of marriage,� reports UsmAn b. AffAn, quoting the Prophet (3281).  But this point is controversial, for Muhammad himself �married MaimUna while he was a Muhrim� (3284).

One cannot remarry one�s divorced wife unless she subsequently married someone else and the new husband had sexual intercourse with her and then divorced her (3354-3356).  A divorcee married but then decided to go back to her old husband.  Seeking the Prophet�s permission, she told Muhammad that all the new husband possessed was �like the fringe of a garment� (i.e., he was sexually weak).  The Prophet �laughed� but withheld the permission.  �You cannot do that until you have tasted his [the new husbands] sweetness and he has tasted your sweetness,� he told her (3354).

author : ram swarup

*पेरियार रचित सच्ची रामायण खंडन भाग-१२*

*पेरियार रचित सच्ची रामायण खंडन भाग-१२*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
-कार्तिक अय्यर
पाठकगण! सादर नमस्ते।पिछली पोस्ट में हमने दशरथ शीर्षक के पहले बिंदु का खंडन किया।अब आगे:-
*आक्षेप २* :-  किसी डॉ सोमसुद्रा बरेथियर का नाम लेकर लिखा है कि उनकी पुस्तक “कैकेयी की शुद्धता और दशरथ की नीचता” ने मौलिक कथा की कलई खोल दी।
*समीक्षा*:- *अंधी देवी के गंजे पुजारी!* जैसे आप वैसे आपके साक्षी! हमें किसी सोमसुद्रा के स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। हमारे लिये वाल्मीकीय रामायण ही काफी है।और उसके अनुसार दशरथ महाराज का चरित्र उत्तम था और कैकेयी ने मूर्खतापूर्ण वरदान मांगकर नीचता का परिचय दिया।जिसके लिये मात्र सुमंत्र,दशरथ,वसिष्ठ, अन्य नगर वासियों ने ही नहीं,अपितु उसके पुत्र भरत ने भी उसकी भर्त्सना की।इसके लिये अयोध्याकांड के सर्ग ७३ और ७४ का अवलोकन कीजिये।और अपने सोमसुद्रा साहब की पुस्तक को रोज़ शहद लगाकर चाटा करिये।
*आक्षेप ३* राजा दशरथ के उक्त प्रभाव से राम और उसकी मां कौसल्या अनभिज्ञ न थी।वृद्ध राजा ने राम को प्रकट रूप से बताया था कि राम राज्यतिलकोत्सव के समय कैकेयी के पुत्र भरत का अपने नाना के घर जाना शुभसंकेत है।(अध्याय १४)अयोध्या में बिना कभी वापस आये दस वर्ष के दीर्घकाल तक भरत का अपने नाना के यहां रहने का कोई आकस्मिक कारण नहीं था इत्यादि । मंथरा का उल्लेख करके लिखा है कि उसके अनुसार “दशरथ ने अपनी पूर्व निश्चित योजना द्वारा भरत को उसके नाना के यहां भेज दिया था। और कहा है कि इससे भरत अयोध्या के निवासियों की सहानुभूति पाने में असमर्थ हो गये थे। भारत की यह धारणा थी कि भारत का राज्याभिषेक के किस समय उसके नाना के यहां पठवा देने से मुझे (दशरथ को)लोगों से शत्रुता बढ़ जायेगी।
*समीक्षा* हद है! केवल सर्ग १४ लिखकर छोड़ दिया।न श्लोक लिखा न उसका अर्थ दिया।खैर! पहले इस पर चर्चा करते हैं कि राजा दशरथ ने भरत को जबरन उसके नाना के यहां भेजा था या वे अपनी इच्छा से अपने ननिहाल गये थे।देखिये:-
कस्यचित् अथ कालस्य राजा दशरधः सुतम् ॥१-७७-१५॥ भरतम् कैकेयी पुत्रम् अब्रवीत् रघुनंदन ।
अयम् केकय राजस्य पुत्रो वसति पुत्रक ॥१-७७-१६॥ त्वाम् नेतुम् आगतो वीरो युधाजित् मातुलः तव ।
श्रुत्वा दशरथस्य एतत् भरतः कैकेयि सुतः ॥१-७७-१७॥ गमनाय अभिचक्राम शत्रुघ्न सहितः तदा ।
आपृच्छ्य पितरम् शूरो रामम् च अक्लिष्ट कर्मणम् ॥१-७७-१८॥ मातॄः च अपि नरश्रेष्ट शत्रुघ्न सहितो ययौ ।
युधाजित् प्राप्य भरतम् स शत्रुघ्नम् प्रहर्षितः ॥१-७७-१९॥ स्व पुरम् प्रविवेशत् वीरः पिता तस्य तुतोष ह ।
गते च भरते रामो लक्ष्मणः च महाबलः ॥१-७७-२०॥ पितरम् देव संकाशम् पूजयामासतुः तदा ।
“कुछ काल के बाद रघुनंदन राजा दशरथ ने अपने पुत्र कैकेयीकुमार भरत से कहा-।बेटा!ये तुम्हारे मामा केकयराजकुमार युधाजित तुम्हें लेने के लिये आये हैं *और कई दिनों से यहां ठहरे हुये हैं*।” *दशरथ जी की यह बात सुनकर कैकेयीकुमार भरत ने उस समय शत्रुघ्न के साथ मामा के यहां जाने का विचार किया।वे नरश्रेष्ठ शूरवीर भरत अपने पिता राजा दशरथ,अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीराम तथा सभी माताओं से पूछकर उनकी आज्ञा ले शत्रुघ्न के साथ वहां से चल दिये।शत्रुघ्न सहित भरत को साथ लेकर वीर युधाजित् ने बड़े हर्ष के साथ अपने नगर में प्रवेश किया,इससे उनके पिता को बड़ा संतोष हुआ।भरत के चले जाने के बाद महाबली श्रीराम और लक्ष्मण अपने देवेपम पिताजी की सेवा करने लगे।”
 इससे सिद्ध है कि भरत को जबरन दशरथ ने ननिहाल नहीं पठवाया।भरत के मामा युधाजित ही उनके लेने आये थे और कई दिनों तक उनसे मिलने के लिये रुके थे। वे १० वर्ष तक वहां रहें इससे आपको आपत्ति है? वे चाहे दस साल रहें या पूरा जीवन।
रहा सवाल कि “राजा ने क्यों कहा कि भरत इस नगर के बाहर अपने मामा के यहां निवास कर रहा है ,तब तक तुम्हारा अभिषेक मुझे उचित प्रतीत होता है। इसका उत्तर हैथे। अर्थात्:-
” यद्यपि भरत सदाचारी,धर्मात्मा,दयालु और जितेंद्रिय है तथापि मनुष्यों का चित्त प्रायः स्थिर नहीं रहता-ऐसा मेरा मत है।रघुनंदन!धर्मपरायण पुरुषों का भी मन विभिन्न कारणों से राग-द्वेषादिसे संयुक्त हो जाता है।२६-२७।।”
तात्पर्य यह कि राजा पूरी राजसभा में रामराज्याभिषेक की घोषणा कर चुके थे।
अयोध्या कांड सर्ग २ श्लोक १०:-
सोऽहं विश्रममिच्छामि पुत्रं कृत्वा प्रजाहिते ।
सन्निकृष्टानिमान् सर्वाननुमान्य द्विजर्षभान् ॥२-२-१०॥
अर्थात्:-” यहां बैठे इम सभी श्रेष्ठ द्विजोंकी अनुमति लेकर प्रजाजनों के हित के कार्य में अपने पुत्र श्रीराम को नियुक्त करके मैं राजकार्य से विश्राम लेना चाहता हूं।”
 दशरथ चाहते थे कि श्रीराम का अभिषेक बिना किसी विघ्न-बाधा के हो। भरत यद्यपि धर्मात्मा और श्रीराम के अनुगामी थे तो भी राग-द्वेषादिसे मनुष्य का स्वभाव बदल जाता है।नहीं तो भरतमाता कैकेयी ही भरत को राजा बनाने का हठ कर सकती थी क्यों कि वह स्वार्थी और स्वयं को बुद्धिमान समझती थी-यह स्वयं भरत ने माना है।साथ ही,भरत का ननिहाल कैकयदेश बहुत दूर और दुर्गम स्थान पर था।वहां से उन्हें आने में ही काफी समय लग जाता और शुभ घड़ी निकल जाती।इक्ष्वाकुकुल की परंपरा थी चैत्रमास में ही राज्याभिषेक होता था क्योंकि चैत्रमास ही संसवत्सर का पहला दिन है और ऋतु के भी अनुकूल है।पुष्य नक्षत्र का योग भरत के आने तक टल जाता इसलिये राजा दशरथ ने यह बात कही।अन्यथा भरत को दूर रखने का कोई कारण न था।क्योंकि भरत भी मानते थे कि इक्ष्वाकुवंश की परंपरानुसार ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनता है।साथ ही भरत को राजगद्दी देने की प्रतिज्ञा भी झूठी और मिलावट है यह हम सिद्ध कर चुके हैं।
रहा प्रश्न मंथरा का,तो महाशय!मंथरा जैसी कपटबुद्धि स्त्री की बात आप जैसे लोग ही मान सकते हैं। मंथरा ने कहा था कि दशरथ ने जानबूझकर भरत को ननिहाल भेज दिया ताकि वो अयोध्या की जनता ही सहानुभूति न हासिल कर सके।महाशय!यदि भरत को राजगद्दी दी जानी थी और वे राज्य के अधिकारी थे,तो फिर उनको १० वर्ष तक ननिहाल में रहने की भला क्या आवश्यकता थी?उन्हें कुछ समय ननिहाल में बिताकर बाकी समय अयोध्या में रहकर जनता का विश्वास जीतना था।पर ऐसा नहीं हुआ।इससे पुनः सिद्ध होता है कि भरत के नाना को राजा दशरथ ने कोई वचन नहीं दिया। सबसे बड़ी बात,भरत अपनी स्वेच्छा से ननिहाल गये थे।तब दशरथ पर आरोप लगाना कहां तक उचित है?अयोध्या की जनता,समस्त देशों के राजा और जनपद,मंत्रिमंडल सब चाहते थे कि श्रीराम राजा बने।मंथरा ने वो सारी बातें कैकेयी को भड़काने के लिये कहीं थीं।
और एक बात।भरत पहले से जानते थे कि दशरथ श्री राम का ही अभिषेक करेंगे,उनका नहीं।जब वे अयोध्या लौटे और महाराज के निधन का समाचार उन्हें मिला तब वे कहते हैं:-
अभिषेक्ष्यति रामम् तु राजा यज्ञम् नु यक्ष्यति ।
इति अहम् कृत सम्कल्पो हृष्टः यात्राम् अयासिषम् ॥२-७२-२७॥
“मैंने तो सोचा था कि महाराज श्रीरामजी का राज्याभिषेक करेंगे यह सोचकर मैंने हर्ष के साथ वहां से यात्रा आरंभ की थी।”
कैकयराज के वचन की बात यहां भी मिथ्या सिद्ध हुई।
यदि आप मंथरा की बात का प्रमाण मानते हैं तो क्या मंथरा द्वारा श्रीराम का गुणगान मानेंगे?-
“प्रत्यासन्नक्रमेणापि भरतस्तैव भामिनि ।
राज्यक्रमो विप्रकृष्टस्तयोस्तावत्कनीयसोः ॥२-८-७॥
विदुषः क्षत्रचारित्रे प्राज्ञस्य प्राप्तकारिणः ।८।।
(अयोध्या कांड सर्ग ७।७-८)
” उत्पत्ति के क्रम से श्रीराम के बाद ही भरत का राज्यपर अधिकार हो सकता है।लक्ष्मण और शत्रुघ्न तो छोटे भाई हैं।श्रीराम समस्त शात्रों के ज्ञाता,विशेषतः क्षत्रियचरित्र के पंडित हैं और समयोचित कर्तव्य का पालन करने वाले हैं।”
यहां मंथरा स्वयं स्वीकार कर रही है कि श्रीराम ही ज्येष्ठ होने से राज्याधिकारी हैं। यदि कोई कैकयराज वाली प्रतिज्ञा होती तो कैकेयी ऐसा न कहती ।साथ ही वो श्रीराम के गुणों का उल्लेख भी करती है।क्या पेरियार साहब मंथरा की इस बात से सहमत होंगे?
अतः राजा दशरथ ने भरत को ननिहाल भेजकर कोई छल नहीं किया। वे बूढ़े हो जाने से अपना राज्य श्रीराम को देना चाहते थे।
*आक्षेप ४* एक दिन पूर्व ही दशरथ ने अगले दिन रामराज्याभिषेक की झूठी घोषणा करवा दी।
*समीक्षा*:- या बेईमानी तेरा आसरा!क्या इसी का नाम ईमानदारी है।
*पता नहीं यों झूठ बोल कैसे रह जाते हैं जिंदा।*
*ऐसे छल पर तो स्वयं छलों का बाप भी होगा शर्मिंदा।।*
महाराज दशरथ ने एक दिन पूर्व ही अगले दिन रामराज्याभिषेक की घोषणा पूरी राजसभा एवं श्रेष्ठ मंत्रियों के समक्ष की थी।सारे नगरवासी हर्षोल्लास के साथ अलगे दिन रामराज्याभिषेक की प्रतीक्षा कर रहे थे।सुमंत्र तो इतने लालायित थे कि रातभर सोये नहीं।राजा दशरथ ने श्रीराम और मां सीता को भी कुशा पर सोने तथा उपवास रखने का उपदेश दिया था।इतना सब होने के बाद भी राज्याभिषेक की घोषणा झूठी कैसे हो गई?हां,कैकेयी ने दो वरदान मांगकर रामजी का वनवास और भरत का राज्याभिषेक वह भी उन सामग्रियों से,जो रामाभिषेक के लिये रखीं थी का वरदान मांगकर अवश्य ही घोषणा का कबाड़ा कर दिया वरना सारी अयोध्या श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी कर चुकी थी।इसे झूठा कहना दिवालियापन है।बिना प्रमाण किये आक्षेप पर अधिक न लिखते हुये केवल एक प्रमाण देते हैं:-
इति प्रत्यर्च्य तान् राजा ब्राह्मणानिद मब्रवीत् ।
वसिष्ठं वामदेवं च तेषामेवोपशृण्वताम् ॥२-३-३॥
चैत्रः श्रीमानयं मासः पुण्यः पुष्पितकाननः ।
यौवराज्याय रामस्य सर्वमेवोपकल्प्यताम् ॥२-३-४॥
यतस्त्वया प्रजाश्चेमाः स्वगुणैरनुरञ्जिताः ॥२-३-४०॥
तस्मात्त्वं पुष्ययोगेन यौवराज्यमवाप्नुहि ।४१।।
(अयोध्या कांड सर्ग ३ )
 “राजासभा में उपस्थित सभी सभासदों की प्रत्यर्चना करके(ज्ञात हो कि इसके पूर्व के सर्ग में राजा दशरथ राजसभा में श्रीराम के राज्याभिषेक की चर्चा करते हैं और सभी श्रीराम के राज्याभिषेक के लिये खुशी खुशी हामी भर देते हैं,इस विषय को आगे विस्तृत करेंगे) राजा दशरथ वामदेव,वसिष्ठ आदि श्रेष्ठ ब्राह्मणों से बोले-“यह चैत्रमास अत्यंत श्रेष्ठ और पुण्यदायक है।इसमें वन-उपवन पुष्पित हो जाते हैं।अतः इसी मास में श्रीराम के राज्याभिषेक के लिये उपयुक्त है।
राजा दशरथ श्रीराम से कहते हैं-” हे राम!प्रजा तुम्हारे सारे गुणों के कारण तुमको राजा बनाना चाहती है।कल पुष्य नक्षत्र के समय तुम्हारा राज्याभिषेक होगा।”
इससे सिद्ध है कि अगले दिव राज्यतिलकोत्सव की घोषणा करना झूठ नहीं था।पूरी राजसभा,मंत्रियों और अयोध्यावासियों को इसका पता था और धूमधाम से राज्याभिषेक की तैयारी कर रही थी।
*आक्षेप ५* यद्यपि वसिष्ठ व अन्य गुरुजन भली भांति और स्पष्टतया जानते थे कि भरत राजगद्दी का उत्तराधिकारी है-तो भी चतुर,धूर्त व ठग लोग राम को गद्दी देने की मिथ्या हामी भर रहे थे।
*समीक्षा*:- वसिष्ठ आदि गुरुजन सत्यवादी,नीतिज्ञ एवं ज्ञानी थे।उनका चरित्र चित्रण हम पीछे कर चुके हैं।भरत राजगद्दी के अधिकारी नहीं थे और श्रीराम ज्येष्ठ पुत्र होने से सर्वथा राज्याधिकारी थे-यह बात महर्षि वसिष्ठ और सुमंत्र जानते थे।इसका प्रमाण बिंदु १ के उत्तर में दे चुके हैं।कोई भी मंत्री या ऋत्विक भरत के राज्याधिकारी होने की बात नहीं करता।सब यही कहते हैं कि श्रीराम ही राज्याधिकारी हैं।भरत को राजगद्दी वाले वचन का प्रक्षिप्त होना हम बिंदु १ में सिद्ध कर चुके हैं। वाह महाराज! धूर्त,ठग और जाने क्या क्या!बड़े मधुर शब्दों की अमृत वर्षा की है आपने।आपके दिये पुष्प हम आपकी ही झोली में डालते हैं।ऐसा प्रमाणहीन और निराधार बातें करते और गालियां देते आपको लज्जा नहीं आती!शोक है!
क्रमशः ।
पाठकगण! पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें।
यहां तक हम पांचवे आक्षेप तक समीक्षा कर चुके हैं।अगले लेख में आगे के ६-९ बिंदुओं का खंडन करेंगे।
नमस्ते।
मर्यादा पुरुषोत्तम सियावर श्रीरामचंद्र की जय।
योगेश्वर कृष्ण चंद्र जी की जय।
।।ओ३म्।।

नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

हदीस : एक बुतपरस्त विचार

एक बुतपरस्त विचार

मुस्लिम पंथ-मीमांसा की दृष्टि से देखने पर मक्का और काबा की तीर्थयात्रा का सम्पूर्ण विचार बुतपरस्ती के समान है। किन्तु इस्लाम के लिए उसका बहुत बड़ा सामाजिक एवं राजनैतिक महत्त्व है। मुहम्मद के नेतृत्व में सम्पन्न मक्का की पहली मुस्लिम तीर्थयात्रा भी शायद एक धार्मिक सम्मेलन की अपेक्षा राजनैतिक प्रदर्शन अधिक थी।

 

हिजरी सन् 6 में मुहम्मद उमरा अनुष्ठान (लघुतर तीर्थयात्रा) के लिए मक्का रवाना हुए। यह मदीना आने के बाद उनकी तीर्थयात्रा थी। वे पन्द्रह-सौ लोगों के तीर्थयात्रा-दल की अगुवाई कर रहे थे। दल का एक हिस्सा सशस्त्र था। संख्यावृद्धि के लिए उन्होंने रेगिस्तान के अरबों से साथ देने की अपील की थी। पर अरबों की प्रतिक्रिया मन्द रही, क्योंकि लूट के माल का कोई वायदा न था और कुरान के शब्दों में, ”वे समझ बैठे थे कि पैगम्बर और मोमिन अपने परिवारों की ओर कभी नहीं लौट पायेंगे“ (48/12)।

 

तथापि पन्द्रह-सौ एक असरदार संख्या थी और कोई भी समझ सकता था कि उन्हें तीर्थयात्री कहना कठिन है। मक्का वालों का मुहम्मद से एक सन्धि करनी पड़ी, जिसे होडैवा की सन्धि कहा जाता है। मुहम्मद ने इसे अपनी जीत माना और वह जीत ही सिद्ध भी हुई। दो बरस बाद, एक तरह की विलम्बित चढ़ाई के जरिए मक्का वाले परास्त हो गए। जीत के इस साल में तीर्थयात्रा अर्थात् हज़ को इस्लाम के पांच बुनियादी आधारों में से एक घोषित किया गया।

 

दो बरस बाद, सन् 632 ईस्वी के मार्च में, मुहम्मद ने एक और तीर्थयात्रा की। वह उनकी आखिरी तीर्थयात्रा सिद्ध हुई और मुस्लिम आख्यानों में उसे ”पैगम्बर की विदाई तीर्थयात्रा“ कहकर गरिमामंडित किया जाता है। इसके लिए बड़ी तैयारियाँ की गई थीं। इसे मोमिनों के सम्मेलन से ज्यादा महत्त्व दिया गया था। इसका उद्देश्य मुहम्मद की शक्ति का प्रदर्शन करना था। ”इस महान तीर्थयात्रा में उनका साथ देने के लिए अरब के सभी अंचलों से लोगों को आमंत्रित करने के लिए दूत भेजे गए थे।

 

मक्का की हार के बाद, मुहम्मद की ताकत का कोई प्रतिस्पर्धी नहीं रहा था और वद्दू कबीलों के लोगों ने समझ लिया था कि ये बुलावे, वैसी तीर्थयात्रा से कुछ भिन्न हैं जो वे पहले, अपनी सुविधा से, अपने देवताओं की आराधना के लिए खुद किया करते थे। वे जान गए थे कि यह अधीनता स्वीकार करने का आह्वान भी है। इसी से, पिछली बार से विपरीत, इस बार वे बड़ी तादाद में और उत्साह से आये। ”कारवां जैसे-जैसे बढ़ता गया, सहभागियों की तादाद बढ़ती गई“, जब तक कि वह, वर्णनकत्र्ताओं के अनुसार, 1 लाख 30 हजार से ज्यादा नहीं हो गई (सही मुस्लिम, पृष्ठ 612)। मंडली में शामिल होने के लिए सभी लोग उतावले हो उठे थे।

author : ram swarup

महापुरुषों की रीति

महापुरुषों की रीति

सार्वदेशिक सभा की बैठक थी। महात्मा नारायण स्वामीजी प्रधान थे। पण्डित चमूपति जी महाराज उठकर कुछ बोले। महात्माजी आवेश में थे। बोले-‘‘बैठ जाओ, तुज़्हें कुछ पता नहीं।’’

आचार्य प्रवर पण्डित चमूपति चुपचाप बैठ गये। बैठक समाप्त हुई। महात्माजी एक ऊँचे साधक थे। उनके मन में विचार आया कि उनसे कितनी भयङ्कर भूल हुई है। आचार्य चमूपति सरीखे

अद्वितीय मेधावी विद्वान् को यह ज़्या कह दिया?

महात्माजी आचार्यजी के पास गये। नम्रता से कहा- ‘‘पण्डितजी मुझसे बड़ी भूल हुई। मैं आवेश में था। सभा-सञ्चालन में कई बार ऐसा हो ही जाता है। मैंने आवेश में आकर कह दिया-

‘‘तुज़्हें कुछ पता नहीं या तुज़्हें ज़्या आता है।’’

आचार्य प्रवर चमूपति बोले, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं, आपने ठीक ही कहा। आपको कहने का अधिकार है। आप हमारे ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध, महात्मा व त्यागी-तपस्वी नेता हैं।’’

दोनों महापुरुषों में इस प्रकार की बातचीत हुई। पाठकगण! इस घटना पर गज़्भीरता से विचार करें। दोनों महापुरुषों की बड़ह्रश्वपन व नम्रता से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। सङ्गठन की सुदृढ़ता के लिए ऐसे सद्भावों का होना आवश्यक है। आचार्य चमूपतिजी ने ही ‘सोम-सरोवर’ ग्रन्थरत्न में लिखा है कि संशय में बिखेरने की शक्ति तो है, जोड़ने व पिरोने की नहीं। आज अहं के कारण, पदलालसा व सन्देह के कारण कितने व्यक्ति हमारे सङ्गठन को बिखेरने

में लगे हुए हैं। आइए, जोड़ने की कला सीखें।

HADEES : TEMPORARY MARRIAGE (Mut�ah)

TEMPORARY MARRIAGE (Mut�ah)

Muhammad allowed temporary marriages.  �Abdullah b. Mas�ud reports: �We were on an expedition with Allah�s Messenger and we had no women with us.  We said: Should we not have ourselves castrated?  The Holy Prophet forbade us to do so.  He then granted us permission that we should contract temporary marriage for a stipulated period giving her a garment [for a dowry].� At this �Abdullah felt happy and remembered the QurAnic verse: �The believers do not make unlawful the good things which Allah has made lawful for you, and do not transgress.  Allah does not like transgressors� (3243; QurAn 5:87).

JAbir reports: �We contracted temporary marriage giving a handful of dates and flour as a dower� (3249).  He told another group: �Yes, we had been benefiting ourselves by this temporary marriage during the lifetime of the Holy Prophet, and during the time of AbU Bakr and �Umar� (3248). IYas b. Salama reports, on the authority of his father, �that Allah�s Messenger gave sanction for contracting temporary marriage for three nights in the year of AutAs [after the Battle of Hunain, A.H. 8] and then forbade it� (3251).

Sunni theologians regard this form of marriage as no longer lawful, but the Shias differ and still practice it in Persia.  The Shia theologians support this with a QurAnic verse: �Forbidden to you also are married women, except those who are your hands as slaves. . . . And it is allowed you, besides this, to seek out wives by means of your wealth, with modest conduct, and without fornication.  And give those with whom you have cohabited their dowry.  This is the law.  But it shall be no crime in you to make agreements over and above the law.  Verily, God is knowing, Wise� (QurAn 4:24).

author : ram swarup