मुझे यही अच्छा लगता है

मुझे यही अच्छा लगता है

पण्डित श्री शान्तिप्रकाशजी शास्त्रार्थ-महारथी एक बार लेखरामनगर (कादियाँ) पधारे। उन पर उन दिनों अर्थ-संकट बहुत था। वहाँ एक डॉज़्टर जगन्नाथजी ने उनका टूटा हुआ जूता देखकर

आर्यसमाज के मन्त्री श्री रोशनलालजी से कहा कि पण्डितजी का जूता बहुत टूटा हुआ है। यह अच्छा नहीं लगता। मुझसे पण्डितजी लेंगे नहीं। आप उन्हें आग्रह करें। मैं उन्हें एक अच्छा जूता लेकर देना चाहता हूँ।

श्री रोशनलालजी ने पूज्य पंडितजी से यह विनती की। त्यागमूर्ति पण्डितजी का उज़र था वे डॉज़्टर हैं। उनकी बात और है। मुझे तो यही जूता अच्छा लगता है। मुझे पता है कि सभा से प्राप्त होनेवाली मासिक दक्षिणा से इस मास घर में किस का जूता लेना है, किसके वस्त्र बनाने हैं और किसकी फ़ीस देनी है। जब मेरे नया जूता लेने की बारी आएगी, मैं ले लूँगा।

ऐसे तपस्वियों ने, ऐसे पूज्य पुरुषों ने, ऐसे लगनशील साधकों और सादगी की मूर्ज़ियों ने समाज का गौरव बढ़ाया इनके कारण युग बदला है। इन्होंने नवजागरण का शंख घर-घर, गली-गली,

द्वार-द्वार पर जाकर बजाया है। समाज इनका सदा ऋणी रहेगा॥

HADEES : CAPTIVE WOMEN

CAPTIVE WOMEN

Adultery and fornication are punished according to Muhammad�s law, but not if you commit them with the �women that your right hands possess,� that is, those women, whether married or unmarried, who are captured by the Muslims injihAd, or holy war.  A QurAnic verse fortifies this position: �Also prohibited are women already married except those whom your right hands possess� (4:24).

AhAdIs 3432-3434 tell us that this verse descended on the Prophet for the benefit of his Companions.  AbU Sa�Id reports that �at the Battle of Hunain Allah�s Messenger sent an army to AutAs. . . . Having overcome them [the enemies] and taken them captives, the Companions of Allah�s Messenger seemed to refrain from having intercourse with captive women because of their husbands being polytheists.  Then, Allah, Most High. sent down [the above verse]� (3432).

The followers had a feeling of delicacy in the matter, based on an old moral code, but Allah now gave a new one.

author : ram swarup

हदीस : कंकड़ फैंकना

कंकड़ फैंकना

एक अन्य महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान है रमियुररिजाम अर्थात् कंकड़ फैंकना। दसवें दिन, जो ”कुरबानी का दिन“ भी है, तीर्थयात्री जमरात-अल-अकाबा पर, जिसे बड़ा शैतान (शैतानुल कबीर) भी कहा जाता है, सात कंकड़ फैंकते हैं। यह करते समय, वे गाते हैं-”अल्लाह के नाम पर जो सर्वशक्तिमान है, और शैतान से नफरत के कारण तथा उस पर लानत लाने के लिए मैं यह करता हूँ।“ कई एक पंथमीमांसाओं में अल्लाह और शैतान का नाता अटूट रहता है।

 

यह मजहबी अनुष्ठान उस पुरातन घटना की स्मृति में किया जाता है, जब शैतान क्रमशः आदम, इब्राहिम और इस्माइल के सामने पड़ा था और जिब्रैल द्वारा सिखलाई गई इस आसान विधि से-सात कंकड़ फैंकने से दूर भाग गया था। मीना में स्थित तीन खम्बे, उन तीन अवसरों के प्रतीक हैं, जब यह घटित हुआ था। इसीलिए तीर्थयात्री तीनों में से प्रत्येक पर सात कंकड़ फैंकता है।

 

कंकड़ फैंकने से मिलने वाले पुण्य के विषय में कंकड़ों के आकार तथा उन की संख्या और उनके फैंके जाने के सर्वोत्तम समय के बारे में अनेक अहादीस है। कंकड़ छोटे होने चाहिए-”मैंने अल्लाह के रसूल को पत्थर फैंकते देखा, जैसे छोटे रोड़ों की बौछार हो“ (2979)। फैंकने का सर्वोत्तम समय है कुरबानी के रोज़ सूर्योदय के बाद-”अल्लाह के रसूल ने जमरा पर महर के रोज सूर्योदय के बाद कंकड़ फैंके थे, और उसके बाद जुलहिजा के 11वें, 12वें और 13वें रोज़ सूरज ढलने के बाद“ (2980)। उनकी संख्या विषम होनी चाहिए। पैगम्बर कहते हैं-”नित्यकर्म से निपटने के बाद गुप्त अंगों को साफ करने के लिए विषम संख्या में पत्थर चाहिए, और जमरान पर फैंके जाने वाले कंकड़ों की संख्या भी विषम (सात) होनी चाहिए, और अल-सफा एवं अल-मरवा के फेरों की संख्या भी विषम (सात) होनी चाहिए, और काबा के फेरों की संख्या विषम (सात) होनी चाहिए“ (2982)।

author : ram swarup

 

वे कितने महान् थे!

वे कितने महान् थे!

महात्मा नारायण स्वामीजी महाराज ने अपने जीवन के कुछ नियम बना रखे थे। उनमें से एक यह था कि अपने लिए कभी किसी से कुछ माँगना नहीं। इस नियम पर गृहस्थी नारायणप्रसाद

(महात्माजी का पूर्वनाम) ने कठोरता से आचरण किया। अब उनका ऐसा स्वभाव बन चुका था कि वे किसी अज्ञात व्यक्ति से तुच्छ-से-तुच्छ वस्तु भी लेने से संकोच करते थे।

अपनी इस प्रवृज़ि को ध्यान में रखते हुए महात्माजी ने संन्यास लेते समय कुछ राशि आर्यप्रतिनिधि सभा उ0प्र0 को दान करते हुए दी और यह कहा कि आवश्यकता पड़ने पर वे इस स्थिर-निधि के सूद से कुछ राशि ले सकेंगे। श्री महाशय कृष्णजी ने इस पर आपज़ि की कि यह संन्यास की मर्यादा के विपरीत है। दान की गई राशि से यह ममत्व ज़्यों?

महात्माजी चाहते तो अपने निर्णय का औचित्य सिद्ध करने के लिए दस तर्क दे सकते थे। उनके पक्ष में भी कई विद्वान् लेखनी उठा सकते थे तथापि उस महान् विभूति ने तत्काल पत्रों में ऐसी

घोषणा कर दी कि मैं उस राशि से कभी भी सूद न लूँगा।

आपने महाशय कृष्ण के लेख को उचित ठहराते हुए, अपनी आत्मकथा में इस बात को गिरा हुआ कर्म बताया।1 महात्माजी ने स्वयं लिखा कि उन्होंने जो सूद से राशि लेनेवाली बात सोची थी यह उनकी आत्मा की निर्बलता ही थी। अपने गुण-दोष पर विचार करना और अपनी भूल का सुधार करना, यह आत्मोन्नित का सोपान है।

नारायण स्वामीजी का जीवन इसका एक ज्वलन्त उदाहरण है।

HADEES : AL-�AZL

AL-�AZL

Coitus interruptus is permitted, but it is useless if the object is to prevent conception, for that is in the hand of Allah.  AbU Sirma reports: �We went out with Allah�s Messenger on the expedition. . . . and took some excellent Arab women; and we desired them . . . but we also desired ransom for them.  So we decided to have sexual intercourse with them but by observing �azl.� They consulted Muhammad, and he advised: �It does not matter if you do not do it, for every soul that is to be born up to the Day of Resurrection will be born� (3371).

author : ram swarup

हदीस : परिक्रमा और पत्थर चूमना

परिक्रमा और पत्थर चूमना

जब कोई शख्स तीर्थयात्री का पहनावा धारण कर चुके, जोकि सीवन-रहित दो आवरण-वस्त्र होते हैं, तब उसे न तो दाढ़ी बनानी चाहिए, न नाखून काटने चाहिएं। तब उसे तीर्थयात्री का गीत-”तलबिया, लब्वैका ! अल्लाहुम्मा ! (ऐ अल्लाह, मैं तुम्हारी सेवा में हाजिर हूँ)“-गाते हुए मक्का की तरफ बढ़ना चाहिए। मक्का पहुंचने पर वह मस्जिद-उल-हराम में वुजू करता है काले पत्थर (अल-जिर-उल-असवद) को चूमता है। तब काबा (तवाफ़) की सात बार परिक्रमा करता है। खुद मुहम्मद ने ”अपने ऊंट की पीठ पर सवार होकर …..” परिक्रमा की थी, ”ताकि लोग उन्हें देख सकें और वे विशिष्ट बने रहें“ (2919)। इसी वजह से उन्होंने कोने (काले पत्थर) को छड़ी से छुआ। अब्बू तुफैल बतलाते हैं-”मैं अल्लाह के रसूल को उस मकान की परिक्रमा करते तथा कोने को उस छड़ी से छूते देखा जो उन के पास थी और फिर उस छड़ी को चूमते देखा“ (2921)।

 

पत्थर चूमने का रिवाज बुतपरस्ती है। उमर ने कहा था-”कसम अल्लाह की, मैं जानता हूँ कि तुम पत्थर हो और अगर मैंने रसूल-अल्लाह को तुम्हें चूमते न देखा होता, तो मैं तुम्हें चूमता नहीं’ (2912)। ईसाई पंथमीमांसक ”श्रद्धा-निवेदन“ और ”आराधना“ में भेद बतलाते हैं। उनका अनुसरण करते हुए, मुस्लिम विद्वान तर्क करते हैं कि काबा और काला पत्थर श्रद्धा के स्थान हैं, आराधना के नहीं।

 

एक अन्य महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान यह है कि तीर्थयात्री अस-सफ़ा पहाड़ की चोटी से अल-मर्वाह पहाड़ की चोटी तक दौड़ते हैं, क्योंकि कुरान (2/158) के अनुसार ये दोनों पहाड़ ”अल्लाह के प्रतीक“ हैं। मुहम्मद का कहना है कि ”अल्लाह किसी व्यक्ति के हज या उमरा को तब तक पूरा नहीं करता, जब तक कि वह सई न करे (यानी अल-सफ़ा और अल-मर्वाह के बीच दौड़ न लें)“ (2923)।

 

हर बार जब तीर्थयात्री इन पहाड़ों की चोटी पर पहुंचता है तो वह जपता है-”अल्लाह के सिवाय और कोई आराध्य-देव नहीं। उसने अपना वायदा निभाया है, और अपने खिदमतगार (मुहम्मद) की इमदाद की है, और अकेले ही काफिरों के कटक को मार भगाया है।“ मुहम्मद कभी ढील नहीं देते। हर मौके पर वे काफिरों के प्रति एक अटल वैर-भाव मोमिनों के मन में भरते रहते हैं।

author : ram swarup

 

उनकी आत्मीयता

उनकी आत्मीयता

आर्यसमाज फ़तहपुर उज़रप्रदेश का वार्षिक उत्सव था। शीत ऋतु थी। श्री सुरेशचन्द्रजी वेदालंकार का व्याज़्यान सबसे अन्त में था। उन्हें व्याज़्यान से पूर्व ही ठण्डी लगने लगी। व्याज़्यान देते

गये, ज्वर चढ़ता गया। व्याज़्यान की समाप्ति पर मन्त्रीजी ने ओषधियाँ लाकर दे दीं। पण्डित श्री गंगाप्रसादजी उपाध्याय भी आमन्त्रित थे।

वे रात्रि में तीन-चार बार उठ-उठकर वेदालंकारजी का पता करने के लिए उनके कमरे में आये। प्रातः जब तक उन्हें रिज़्शा में बिठाकर विदा न कर लिया तब तक उपाध्यायजी को चैन न आया। यह उपाध्यायजी के अन्तिम दिनों की घटना है। यह थी उनकी आत्मीयता।

HADEES : WOMEN�S RIGHTS

WOMEN�S RIGHTS

In return, a woman has her rights.  She is entitled to a lawful maintenance (nafaqah); if the husband fails to provide it, she can seek a divorce.  She is also entitled to a dowry (mahr), or what the QurAn in some verses (4:24, 33:50) calls her �hire� (ujUrat).  She can claim it when divorced.

She is also to be consulted in the choice of her partner.  �A woman who has been previously married (Sayyib) has more right to her person than her guardian.  And a virgin should also be consulted, and her silence implies her consent� (3307).  Theoretically, a Muslim woman is entitled to make the marriage contract herself, but in practice it is her nearest kinsman, the guardian (walI), who does it.  The father and the grandfather are even called �compelling walIs.� According to some schools, a minor girl given in marriage by a guardian other than her father or grandfather can seek dissolution of the marriage when she attains her majority.

author : ram swarup

संध्या क्या ?,क्यों ?,कैसे ?

संध्या क्या ?,क्यों ?,कैसे ? डा. अशोक आर्य
आर्य समाज की स्थापना से बहुत पूर्व जब से यह जगत् रचा गया है , तब से ही इस जगत् में संध्या करने की परम्परा अनवरत रूप से चल रही है | बीच में एक युग एसा आया जब वेद धर्म से विमुख हो कर कार्यों का प्रचलन आरम्भ हुआ तो संध्या को भी लोग भुलाने लगे किन्तु स्वामी दयानंद सरस्वती जी का हम पर महान् उपकार है , जो हम पुन: वेद धर्म के अनुगामी बने तथा संध्या से न केवल परिचित ही हुए अपितु संध्या करने भी लगे |
संध्या क्या है ?
सृष्टि क्रम में एक निर्धारित समय पर परम पिता परमात्मा का चिंतन करना ही संध्या कहलाता है | इससे स्पष्ट है कि दिन के एक निर्धारित काल में जब हम अपने प्रभु को याद करते हैं , उसका गुणगान करते हैं , उसके समीप बैठ कर उसका कुछ स्मरण करते हैं , बस इस का नाम ही संध्या है |
संध्या कब करें ?
ऊपर बताया गया है कि एक निश्चित समय पर प्रभु स्मरण करना ही संध्या है | यह निश्चित समय कौन सा है ? यह निश्चित समय कालक्रम से सृष्टि बनाते समय ही प्रभु ने निश्चित कर दिया था | यह समय है संधि काल
| संधिकाल से अभिप्राय: है जिस समय दिन व रात का मिलन होता है तथा जिस समय रात और दिन का मिलन होता है , उस समय को संधि काल कहते
हैं | इस से स्पष्ट होता है कि प्रात: के समय जब आकाश मे हल्के हल्के तारे दिखाई दे रहे हों, सूर्य निकलने की तैयारी में हो , इस समय को हम प्रात:कालीन संध्या काल कहते हैं | प्रात:काल का यह समय संध्या का समय माना गया है | इस समय ही संध्या का करना उपयोगी है |
ठीक इस प्रकार ही सायं के समय जब दिन और रात्री का मिलन होने वाला होता है , सूर्य अस्ताचाल की और गमन कर रहा होता है किन्तु अभी तक आधा ही अस्त हुआ होता है | आकाश लालिमा से भर जाता है | इस समय को हम सायं कालीन संध्या समय के नाम से जानते हैं | सायं कालीन संध्या के लिए यह समय ही माना गया है | इस समय ही संध्या के आसन पर बैठ कर हमें संध्या करना चाहिए |
गायत्री जप ही संध्या
वास्तव में गायत्री जप का ही दूसरा नाम संध्या है किन्तु इस गायत्री जप के लिए भी कुछ विधियां बनाई गई है ,जिन्हें करने के पश्चात् ही गायत्री का यह जप आरम्भ किया जाता है | गायत्री जप के लिए भी कुछ लोग यह मानते हैं कि यह जप करते हुए कभी उठना , कभी बैठना तथा कभी एक पाँव पर खडा होना , इस प्रकार के आसन बदलते हुए गायत्री का जप करने को कहा गया है | हम यह सब ठीक नहीं मानते | हमारा मानना है कि गायत्री जप के लिए हम एक स्थिर आसन पर बैठ कर गायत्री मन्त्र का जाप करें | यह विधि ही ठीक है अन्य सब विधियां व्यवस्थित न हो कर ध्यान को भंग करने वाली ही हैं |
संध्या के प्रकार
कुछ लोग कहते हैं कि ब्राह्मण की संध्या भिन्न होती है जबकि ठाकुर लोग कुछ अलग प्रकार की संध्या करते है | इन लोगों ने ऋग्वेदियों की संध्या अलग बना ली है तो सामवेदियों की संध्या कुछ भिन्न ही बना ली है | यह सब विचारशून्य लोग ही कर सकते हैं | परमपिता परमात्मा सब के लिए एक ही उपदेश करता है , सब के लिए उसका आशीर्वाद भी एक ही प्रकार का है तो फिर संध्या अलग अलग कैसे हो सकती है ? अत: संध्या के सब मन्त्र सब समुदायों , सब वर्गों तथा सब जातियों के लिए एक ही हैं |
जाप के पूर्व शुद्धि
ऊपर बताया गया है कि गायत्री जाप का नाम ही संध्या है किन्तु इस जाप से पूर्व शुद्धि का भी विधान दिया गया है | प्रभु उपदेश करते हैं कि हे जीव ! यदि तू मुझे मिलने के लिए संध्या के आसन पर आ रहा है तो यह ध्यान रख कि तूं शुद्ध पवित्र हो कर इस आसन पर बैठ | इस शुद्धि के लिए शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि, चित और अहंकार , यह छ: प्रकार की शुद्धि आवश्यक है | इस निमित आचमन से शरीर की शुद्धि , अंग स्पर्श से सब अंगों की शुद्धि, मार्जन से इन्द्रियों की शुद्धि, प्राणायाम से मन की शुद्धि, अघमर्षण से बुद्धि की शुद्धि ,मनसा परिक्रमा से चित की शुद्धि तथा उपस्थान से अहंकार की शुद्धि की जानी चाहिए |
शुद्धि कैसे ?
अब प्रश्न उठता है की यह शुद्धि कैसे की जावे ? इस के लिए बताया गया है कि हम प्रतिदिन दो काल स्नान करके अपने शरीर को शुद्ध करें | अपने अन्दर को शुद्ध करने के लिए राग, द्वेष, असत्य आदि दुरितों को त्याग दें | कुशा व हाथ से मार्जन करें | ओ३म् का उच्चारण करते हुए तीन बार लंबा श्वास लें तथा छोड़ें , यह प्राणायाम है | सब से अंत में गायत्री का गायन करते हुए शिखा को बांधें |

इस प्रकार यह पांच क्रियाएं करके मन व आत्मा को शांत स्थिति में लाया जावे | यह शांत स्थिति बनाने के पश्चात् संध्या के लिए छ: अनुष्ठान किया जावें ,जो इस प्रकार हैं :
संध्या के लिए छ: अनुष्ठान
१. शरीर को असत्य से दूर
शरीर को असत्य से दूर करने के लिए संध्या में बताये गए प्रथम मन्त्र ओ३म् शन्नो देवी रभिष्टये आपो भवन्तु पीतये शंयो राभिस्रवंतु न: का उच्चारण करने के पश्चात् तीन आचमन करें |
२. मार्जन पूर्वक इन्द्रियों की शुद्धि
ओ३म् वाक् वाक् ओ३म प्राण: प्राण: आदि मन्त्र से अंगों की शुद्धि करें | ओ३म भू: पुनातु शिरसि आदि मन्त्र से प्रभु के नामों का अर्थ करते हुए मार्जन पूर्वक इन्द्रियों की शुद्धि करें |
३. प्राणायाम से मन शांत
कम से कम तीन तथा अधिक से अधिक ग्यारह प्राणायाम कर अपने मन को शांत करें |
४. बुद्धि की शुद्धि तथा बोले मन्त्रों के अर्थ चिंतन
ओ३म् ऋतं च आदि इन तीन मन्त्रों से अपनी बुद्धि को समझाते हुए शुद्ध करें तथा पुन: शन्नो देवी मन्त्र को बोलते हुए अब तक जो मन्त्र हमने बोले हैं , उन सब के अर्थ को देखें तथा अर्थों पर चिंतन करें |
५. चित को सुव्यवस्थित करें
ओ३म् प्राची दिग अग्नि आदि इन छ: मन्त्रों का गायन करते हुए अपने चित को सुव्यवस्थित करें |
६. अहंकार तत्व
ओ३म् उद्वयं से ले कर ताच्च्क्शुर्देवहितं तक के मंत्रों का गायन करते हुए अहंकार तत्व से अपनी स्थिति का सम्पादन करें |
प्रधान जप
यह छ: अनुष्ठान करने के पश्चात् हम इस स्थिति में आ जाते हैं की अब हम प्रधान जप अर्थात गायत्री का जाप कर सकें | अत: अब हम गायत्री का जप करते हैं |
समर्पण
गायत्री का जप करते हुए हम स्वयं को उस पिता के पास पूरी तरह से समर्पित करने के लिए बोलते हैं , हे इश्वर दयानिधे भवत्क्रिप्यानेण जपोपास्नादि कर्मणा धर्मार्थ का मोक्षानाम सद्यसिद्धिर्भवेण | इस प्रकार हम समग्रतया उस प्रभु को समर्पित हो जाते हैं |
नमस्कार
अंत में हम उस परमात्मा को नमस्ते करते हुए अपने आज के कर्तव्य को पूर्ण करते हुए संध्या का यह अनुष्ठान पूर्ण करते हैं |
जाप की विधि
गायत्री का जाप एक आसन पर बैठ कर ऊँचे उच्चारण से किया जावे |
ध्यान के समय मौन जाप की प्रथा है किन्तु अकेले में जाप करते समय ऊँचे स्वर से किया जाता है | कुछ लोग मौन जाप का कहते है तो कुछ उच्च स्वर में जबकि कुछ का मानना है कि यह जाप इतनी मद्धम स्वर में किया जावे कि मुख से निकला शब्द केवल अपने कान तक ही जावे | इस सम्बन्ध में स्वामी जी ने संस्कार विधि में मौन जाप का विधान ही दिया है |
हम संध्या करते समय यह सब ध्यान में रखते हुए ऊपर बताये अनुसार ही संध्या करें तो उपयोगी होगा |
डा. अशोक आर्य

हदीस : शिकार

शिकार

एक मुहरिम (एहराम की दशा वाले व्यक्ति) के वास्ते शिकार भी वर्जित है। किसी ने मुहम्मद को जंगली गधे का गोश्त दिया। पर उन्होंने यह कहते हुए उसे मना कर दिया-”अगरहम एहराम की हालत में नहीं होते, तो इसे तुमसे कुबूल कर लेते“ (2704)। किन्तु यदि जानवर को किसी गैर-मुहरिम साथी द्वारा मारे गए जंगली गधे की टांग मुहम्मद को पेश की गई। ”रसूल-अल्लाह ने उसे कुबूल किया और खाया“ (2714)।

 

यद्यपि एक प्रकार का शिकार मुहरिम के वास्ते मना है, किन्तु इससे वह जैन या वैष्णव नहीं बन जाता। ”चार तरह के दुष्ट जानवरों“ को उसे तब भी मारना चाहिए-”चील, कौआ, चूहा और लालची कुत्ता।“ किसी ने पूछा-”मगर सांप ?“ मुहम्मद ने जवाब दिया-”उसे दुर्गत करके मारा जाय“ (2717)।

author : ram swarup