hadees : THE KHWARIJ

THE KHWARIJ

�AlI sent some gold alloyed with dust from Yemen to Muhammad.  In its distribution, Muhammad showed favoritism.  When some people complained, Muhammad demanded: �Will you not trust me, whereas I am a trustee of Him Who is in the heaven?  The news comes to me from the heaven morning and evening.� This silenced the men, but one of them, a man with deep-sunken eyes, prominent cheekbones, thick beard, and shaven head, stood up, and said: �Messenger of Allah, fear Allah and do justice.� This angered Muhammad, and he replied: �Woe be upon thee, who would do justice if I do not do justice?� �Umar, who was present, said to Muhammad: �Messenger of Allah, permit me to kill this hypocrite.� Though the man was spared, he and his posterity were denounced.  Muhammad said: �From this very person�s posterity there would arise people who would recite the QurAn, but it would not go beyond their throat; they would kill the followers of Islam but would spare the idol-worshippers. . . . If I were to find them I would kill them like �Ad [a people who were exterminated root and branch]� (2316-2327).

These men, who later on were called the khwArij, took some of the slogans of Islam seriously.  It was about them, according to �AlI, that Muhammad said: �When you meet them, kill them, for in their killing you would get a reward with Allah on the Day of Judgment� (2328).  These were the anarchists and purists of the early days of Islam.  The injunction about them was: �Pursue them as they are routed and kill their prisoners and destroy their property.�

author : ram swarup

हदीस : एक अप्रिय कर

एक अप्रिय कर

एक दिलचस्प हदीस है, जिससे पता चलता है कि सबसे सम्पन्न वर्ग में भी जकात देना अप्रिय था। उमर को ज़कात वसूल करने वाला (अधिकारी) नियुक्त किया गया था। जब उन्होंने रिपोर्ट दी कि खालिद बिन वलीद (जो बाद में एक प्रसिद्ध मुस्लिम सेनापति बने) और पैगम्बर के अपने चचाजान अब्बास तक ने कर देने से इन्कार कर दिया है, तो मुहम्मद ने कहा-”खालिद के प्रति तुम्हारा यह व्यवहार उचित नहीं, क्योंकि उसने अपने शस़्त्रास्त्र अल्लाह के वास्ते सँभाल कर रखे हैं। और जहाँ तक अब्बास की बात है, मैं उसका जिम्मेदार होऊंगा …… उमर ! ध्यान रहे, किसी का चाचा उसके पिता के समान होता है“ (2188)।

 

ज़कात के खिलाफ व्यापक नाराज़गी थी। गैर-मदीनी अरब कबीलों में वह नाराज़गी और भी प्रबल थी, क्योंकि उनके हिस्से इस कर बोझ ही आता था, इसके फायदे उन्हें नहीं पहुँचते थे। वद्दू लोगों ने पैगम्बर से शिकायत की कि ”सदका वसूल करने वाला हमारे पास आया और उसने हमसे अनुचित व्यवहार किया। इस पर अल्लाह के रसूल ने कहा-वसूल करने वाले को खुश रक्खो“ (2168)।

 

लेकिन हालात मुश्किल थे और इतनी आसानी से मुश्किलें हल नहीं होती थीं, जैसा कि यह हदीस इंगित करती है। मक्का-विजय के बाद, जब मुहम्मद की सत्ता सर्वोच्च हो उठी, दशमांश कर (ज़कात) की वसूली की वसूली आक्रामक तरीके से की जाने लगी। हिजरी सन् 9 की शुरूआत में, वसूली करने वालों की टुकड़ियां विभिन्न दिशाओं में भेजी गईं, ताकि किलाब, ग़िफार, असलम, फज़ार और अनेक अन्य क़बीलों से कर वसूला जा सके। ऐसा लगता है कि इस वसूली का वनू तमीम कबीले के एक वर्ग द्वारा कुछ कड़ा विरोध किया गया। इसीलिए मुहम्म्द ने पचास अरबी घुड़सवारों की एक सैनिक टुकड़ी उन्हें दंडित करने के लिए भेजी, जिन्होंने अचानक उस क़बीले को जा दबोचा और पचास औरत-मर्दों तथा बच्चों को बंधक बनाकर मदीना ले आये। उन्हें छुड़ाई देकर छुड़ाना पड़ा और तब से वसूली अपेक्षाकृत सुगम हो गई।

 

इस कर के खि़लाफ़ अरब लोगों की नाराज़गी की शब्द-चातुर्य से भरी एक गवाही खुद कुरान में मिलती है। अल्लाह मुहम्मद को सावधान करते हैं-”अरबी रेगिस्तान के कुछ लोग करों की अदायगी को जुर्माना मानते हैं और तुम्हारी किस्मत पलटने के इन्तजार में हैं। पर उनकी किस्मत ही बुरी बनेगी, क्योंकि अल्लाह सुनता भी है, और जानता भी है“ (9/98)।

 

दरअसल, नाराज़गी इतनी प्रबल थी कि मुहम्मद के मरते ही अरब कबीले उदीयमान मुस्लिम राज्य के विरुद्ध विद्रोह में उठ खड़े हुए और उन्हें दुबारा दबाना पड़ा। उनका विरोध तभी मिटा जब वे मुस्लिम साम्राज्य के विस्तार में साझेदार बने और ज़कात का भार, सैनिक विजय तथा उपनिवेशों से मिलने वाले प्रचूर माल की तुलना में, हल्का हो गया।

author : ram swarup

hadees : MUHAMMAD RUFFLED

MUHAMMAD RUFFLED

According to another tradition, Muhammad gave a hundred camels each to AbU SufyAn, SafwAn, �Uyaina, and Aqra, but less than his share to �AbbAs b. MirdAs.  �AbbAs told Muhammad: �I am in no way inferior to anyone of these persons.  And he who is let down today would not be elevated.� Then Muhammad �completed one hundred camels for him� (2310).

In other cases when similar complaints were made, Muhammad could not always keep his temper.  One man complained that �this is a distribution in which the pleasure of Allah has not been sought.� On hearing this, Muhammad �was deeply angry . . . and his face became red�; he found comfort in the fact that �Moses was tormented more than this, but he showed patience� (2315).

author : ram swarup

हदीस : माफ़ी और मुनाफ़ा

माफ़ी और मुनाफ़ा

ज़कात से माफी देने की एक निचली मर्यादा-रेखा थी। ”खजूर या अनाज के पांच वस्कों (1 वस्क = लगभग 425 पौंड) तक, पांच से कम ऊंटों तक और 5 उकिया से कम चांदी तक (1 उकिया = लगभग 10 तोला या 1/4 पौंड) कोई सद़का (ज़कात) देय नहीं है“ (2134)। साथ ही, ”एक मुसलमान से उसके गुलाम या घोड़े पर कोई सद़का नहीं लिया जाता“ (2184)। जिहाद के लिए इस्तेमाल होने वाले घोड़ों पर कोई ज़कात नहीं थी। ”जिहाद में सवारी के काम आने वाला घोड़ा ज़कात के भुगतान से मुक्त होता है“ (टि0 1313)।

author : ram swarup

मैं दुःखी क्यों हूँ?

मैं दुःखी क्यों हूँ?

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा गया था। ये लेख अधूरा है, अगर पूरा होता तो स्वयं एक जीवन-शास्त्र होता। पर जितना भी है, उतना ही उपयोगी है, सारगर्भित है। इस लेख में आचार्य जी ने जीवन जीने की आदर्श शैली की ओर संकेत किया है। इससे पाठकों को अवश्य लाभ मिलेगा।

-समपादक

मुझे लगता है कि संसार में सबसे दुःखी व्यक्ति मैं ही हूँ। सब मुझे सदा दुःख ही देते रहते हैं। भगवान् भी मुझे दुःख ही देता है। मैं अपने माता-पिता से दुःखी हूँ, मुझे लगता है कि घर में मुझसे पक्षपात् होता है और सबकी सुनी जाती है, सबकी इच्छाएँ पूरी होती हैं। मुझे इच्छा करना ही अपराध लगने लगा है। मैं अच्छा करता हूँ, पूरा करने का प्रयत्न भी करता हूँ, पर पूरा न होने पर एक दुःख और अपने दुःख में जोड़ लेता हूँ। इच्छा पूरी न होने का एक दुःख था, उसमें असफलता का दुःख और जोड़ लिया। क्या संसार में मैं दुःख पाने के लिये ही आया हूँ?

मुझे लगता है कि संसार में मेरे चारों ओर मुझे दुःख देने वाले एकत्र हो गये हैं। मुझे लगता है ये लोग गलत हैं, ठीक नहीं हैं। ये सुधर जायें तो सब ठीक हो सकता है। ये बच्चे सुधर जाते तो सब ठीक हो जाता, परन्तु इनको मेरी बात समझ में ही नहीं आती। समझा-समझा कर दुःखी हो गया हूँ। पत्नी है कि सुनती नहीं है, बच्चों को बिगाड़ दिया है। मैं जो कहता हूँ उसका उल्टा करती है, बच्चों को उल्टा सिखाती है। मेरा पड़ौसी नालायक है, गन्दा है, कोई अच्छी आदत ही उसमें नहीं है। गन्दा रहता है, गन्दगी करता है, शराब पीता, गालियाँ देता है, समझाने पर भी समझता नहीं है। मेरे कार्यालय में मेरे साथी चापलूस और कामचोर हैं, अधिकारी रिश्वतखोर, पक्षपाती हैं। संसार में जिधर देखता हूँ, सब बिगाड़-ही-बिगाड़ है। उससे मैं बहुत दुःखी हो गया हूँ।

मुझे लगता है कि लोग मन्दिर जाते हैं, सत्संग करते हैं, प्रवचन सुनते हैं, क्या इनसे दुःख दूर होता है? यदि ऐसा करने से दुःख दूर होता है तो सारे मन्दिर जाने वाले सुखी हो जाते। सारे प्रवचन करने वाले क्या सुखी हैं? सत्संग में सुख होता तो सभी सत्संग करके सुखी हो चुके होते, परन्तु ऐसा लगता नहीं। फिर सोचता हूँ कि यदि इन सबसे सुख नहीं मिलता, तो इतने लोग सुख प्राप्त करने के लिये यहाँ की ओर क्यों दौड़ रहे हैं? सुनने में आता है कि सत्संग सुनकर डाकू सय मनुष्य बन गया, अंगुलीमाल डाकू भगवान् बुद्ध का भक्त बन गया। ये ठीक है, सब तो नहीं सुखी होते, परन्तु कुछ तो सुखी होते देखे जाते हैं। जैसे खेत में डाले गये सारे बीज नहीं उगते। कोई पत्थर पर गिरकर पड़ा सड़ जाता है। किसी को पक्षी खा लेता है, तो कोई कीड़े से नष्ट कर दिया जाता है, कोई उगकर पशु-पक्षियों द्वारा खा लिया जाता है, फिर भी खेती की जाती है और उसी से भूखे मनुष्यों को भोजन मिलता है। लगता है सत्संग की खेती का भी यही हाल है, जो बीज उर्वरा भूमि में गिर जाता है, उसमें बीज पौधा बनकर फल देने लगता है। प्रवचनकर्त्ता सभवतः यही उपदेश कर रहे थे कि दुःख दूर करने का सत्संग ही एक उपाय है।

संसार में दुःख है, लोग इसे दूर भी करना चाहते हैं तो इसका उपाय भी निश्चित होगा। सत्संग में दुःख दूर करने का उपाय बताते हुए यही तो कहा जा रहा था। दुःखी हम इसलिये हैं कि हम अपने से बाहर की वस्तुओं को दुःख का कारण समझ रहे हैं। जब तक मैं दूसरों को दुःख का कारण समझूँगा, तब तक मेरे दुःखों से मुझे छुटकारा नहीं मिलेगा, क्योंकि दुःख का कारण मेरे अन्दर  है। जिन बातों से, जिन वस्तुओं से, जिन व्यक्तियों से मैं दुःखी हूँ, उसका कारण है कि मैं उनसे असन्तुष्ट हूँ। मेरे असन्तोष का मूल मेरी उनसे अपेक्षा है, मैंने सबसे अपेक्षा पाल रखी है। जब मेरी इच्छा पूरी नहीं होती तो मेरे अन्दर असन्तोष जन्म लेने लगता है। यह असन्तोष ही मेरे दुःख का कारण है।

मेरे दुःख का दूसरा कारण है कि मैं सब व्यक्तियों को सुधारना चाहता हूँ। सभी वस्तुओं को अपने अनुकूल बनाना चाहता हूँ। ऐसा करना मेरे सामर्थ्य से परे है। मेरे लिये समभव नहीं है। मैं जिसे सुधारने का यत्न करता हूँ और जिसे मैं सुधार नहीं सकता, उन दोनों में अन्तर होता है। जिसे मैं पहले से सुधारने योग्य नहीं मानता, उनसे मैं दुःखी नहीं होता, उन्हें वैसा ही मानकर व्यवहार करता हूँ, जिनको सुधारने की इच्छा करता हूँ, उनके लिये प्रयत्न करता हूँ, फिर असफल होने पर दुःखी होता हूँ। सुधार का प्रयत्न करना अच्छी बात है, परन्तु असफलता पर दुःखी होना बुरी बात है, जब कोई नहीं सुधरता तो उसको भी उपेक्षा की कोटि में डाल दिया जाए, तो मेरा दुःख दूर हो सकता है।

मैंने दुःखों के नाम रख दिये हैं। ये सास है, ये बहू है, ये देवरानी या जेठानी है, इन नामों से दुःख लगने लगता है, यथार्थ तो यह है कि दुःख व्यवहार में है, संज्ञा में नहीं। दुःख तो बेटे-बेटी से भी होता है। माता-पिता, भाई से भी होता है। संसार में रक्त-समबन्ध को सुख का कारण तथा दूर को दुःख का कारण मानते हैं, परन्तु यथार्थ में जितना दुःख समबन्धियों में, सगे भाइयों में होता है, उतना दुःख किसी और से नहीं मिलता। जितने झगड़े, लड़ाई, मुकद्दमें भाइयों में परस्पर होते हैं, उतने दूसरों से तो नहीं होते। फिर दुःख का कारण व्यक्ति नहीं, विचार है। विचार ठीक न होने की दशा में कोई भी दुःख का कारण बन सकता है, परन्तु मैंने मान लिया कि सास दुःख ही देगी, बहु विरोध ही करेगी।

जिनको मैं बदल नहीं सकता, जिन्हें मैं छोड़ भी नहीं सकता, क्या उनसे लड़ाई, झगड़ा, तनाव करके मैं सुखी रह सकता हूँ? कदापि नहीं। फिर मैं क्या करूँ, जिससे मेरा दुःख दूर हो? इसलिये उनसे मेरा व्यवहार निष्पक्षता का हो, उदासीनता का हो। ………

– धर्मवीर

 

hadees : PACIFICATION

PACIFICATION

But this course was not without its problems.  It created quite a lot of dissatisfaction among some of his old supporters, and Muhammad had to use all his powers of diplomacy and flattery to pacify them.  �Don�t you feel delighted that [other] people should go with riches, and you should go back with the Apostle of Allah,� he told the ansArs with great success when, after the conquest of Mecca, they complained about the unjust distribution of the spoils.  They had grumbled: �It is strange that our swords are dripping with their blood, whereas our spoils have been given to them [the Quraish]� (2307).

Muhammad added other words of flattery and told the ansArs that they were his �inner garments� (i.e., were closer to him), while the Quraish, who had received the spoils, were merely his �outer garments.� To cajolery, he added theology, telling them that they �should show patience till they meet him at Hauz Kausar, � a canal in heaven (2313).  The ansArs were happy.

author : ram swarup

यहां ‘तहर्रुश गेमिया’ खेल के नाम पर लड़कियों से किया जाता है गैंग रेप

यहां ‘तहर्रुश गेमिया’ खेल के नाम पर लड़कियों से किया जाता है गैंग रेप

अरब देशों में ‘तहर्रुश गेमिया’ नाम का एक खेल खेला जाता है। इस खेल का नाम सुनते ही यह सामान्य बच्चों के खेल की तरह ही लगता है लेकिन इस खेल की पीछे की हकीकत हैरान करने वाली है।

यहां 'तहर्रुश गेमिया' खेल के नाम पर लड़कियों से किया जाता है गैंग रेप - India TV

परंपरा के नाम पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न सदियों से चला आ रहा है। आज के मॉडर्न समाज में भी कुछ ऐसे देश हैं जहां धर्म और परंपरा के नाम पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीडन हो रहा है। अरब जैसे कुछ देश ऐसे हैं जहां आज भी यह सब कुछ होता है। अरब देशों में ‘तहर्रुश गेमिया’ नाम का एक खेल खेला जाता है। इस खेल का नाम सुनते ही यह सामान्य बच्चों के खेल की तरह ही लगता है लेकिन इस खेल की पीछे की हकीकत हैरान करने वाली है। सार्वजनिक स्थलों पर खेले जाने वाले इस खेल में एक अकेली लड़की के साथ बाक़ायदा सामूहिक बलात्कार किया जाता है। ये एक ऐसी घिनौना परंपरा है जो अरब देशों से निकलर यूरोप में भी पैर पसार रही है।

क्या है ‘तहर्रुश गेमिया’?
‘तहर्रुश गेमिया’ अरबी शब्द है जिसका मतलब होता है ‘संयुक्त रुप से छेड़छाड़’। इस खेल में युवा सार्वजनिक स्थान पर अकेली लड़की को निशाना बनाते हैं। झुंड में ये लड़के या तो लड़की के साथ शारीरिक रुप से छेड़छाड़ करते हैं या फिर उसका बलात्कार करते हैं।

कैसे खेला जाता है ‘तहर्रुश गेमिया’?
सबसे पहले लड़के एक घेरा बनाकर अकेली लड़की को घेर लेते हैं फिर अंदर वाले घेरे में मौजूद लड़के लड़की का यौन शोषण करते हैं जबकि बाहरी घेरे वाले लड़के भीड़ को दूर रखते हैं।

ख़ौफ़नाक ‘तहर्रुश गेमिया’,की रिपोर्टर भी हुई थी शिकार

2011 में मिस्र में पहली बार ये घिनौना खेल देखा गया था। साउथ अफ़्रीका की रिपोर्टर लारा लोगन काहिरा के तहरीर स्क्वैयर से रिपोर्टिंग कर रही थी तभी लड़को के एक झुंड ने उन्हें घेर लिया और उनसे छेड़छाड़ की। लारा ने इस घटना के काफी बाद बताया हुए कहा था , “अचानक इसके पहले कि मुझे कुछ समझ में आए कुछ लोगों ने मुझे घेर लिया और मेरे शरीर पर जगह जगह छूने लगे। वो एक-दो नही की सारे थे। ये ऐसा सिलसिला था जो लगातार चल रहा था।

‘तहर्रुश गेमिया’ चला अरब से यूरोप की ओर
ये अमानवीय केल अब यूरोप में जड़े जमाने लगा है। नये साल पर जर्मनी में कई जगह ऐसी घटनाओं के होनी की ख़बर मिली है। बताया जाता है कि ये लोग जर्मनी के नहीं किसी अन्य देश के थे। पुलिस को अंदेशा है कि ये ‘तहर्रुश गेमिया’ ही था जो अब यहां भी शुरु होगया है। ये एक धटना कोलोन की है जहां भीड़ पर पहले पटाखे छोड़े गये फिर नशे में धुत्त अरब या उत्तरी अफ़्रीकी लोगों ने महिलाओं के साथ बदतमीज़ी की। आश्चर्य की हात ये है कि पुलिस मूकदर्शक बनकर तमाशा देखती रही। उसका कहना है कि भीड़ को संभालने के लिये पुलिस बल नाकाफी था। देखें किस तरह खेला जाता है ये खेल

source :  http://www.khabarindiatv.com/world/around-the-world-gang-rape-is-done-by-girls-in-the-name-of-taharrush-gamea-game-520425

नोट : यह खेल  भारत में भी धीरे धीरे अपनी पैर  जमा  रहा है | कर्णाटक के बंगलोर में यह एक बार खेली जा चुकी है | हो सकता  है कहीं  और भी भारत  में खेली गयी हो जिस बारे में हमें  ना मालुम हो |

हदीस : ज़कात-कोष का उपयोग

ज़कात-कोष का उपयोग

कुरान के अनुसार ज़कात-कोष उन लोगों के लिए है जो ”गरीब और मोहताज“ (फुकरा और मसकीन) हों, जो बँधुआ और कर्जदार हो, और जो राह चलते मुसाफिर हों।“ ये सब दान के परम्परागत पात्र हैं। इस कोष का उपयोग ”अल्लाह की सेवा“ (फीसबी लिल्लाह) और इस्लाम के वास्ते ”दिल जीतने (या अनुकूल बनाने अथवा झुकाव बढ़ाने) के लिए (मुअल्लफा कुलूबुहुम)“ भी किया जाता है (कुरान 960)।

 

इस्लाम की मज़हबी शब्दावली में, पहले मुहावरे अर्थात ”अल्लाह के रास्ते में या सेवा में“ का अर्थ है मज़हबी युद्ध या जिहाद। ज़कात-कोष को हथियार, सैनिक उपकरण और घोड़े खरीदने में खर्च किया जाता है। दूसरे मुहावरे अर्थात् ”दिल जीतने अथवा अपनी तरफ झुकाने“ का अलंकार-रहित अर्थ है ”घूस देना“। मतान्तरित नये लोगों के ईमान को उदार ”भेंटों“ की मदद से पक्का करना चाहिए और विरोधियों के ईमान को इसी माध्यम से उखाड़ना चाहिए। पैगम्बर के मज़हबी अभियान और उनकी कूटनीति का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग था और, जैसा कि कुरान की आयतें बतलाती हैं, इसके लिए पैगम्बर को वह दैवी स्वीकृति प्राप्त थी, जिसका दावा उनके अनुयायी आज भी करते हैं।

author : ram swarup

 

योग

योग

– डॉ. जगदेव विद्यालंकार

‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः’ योग दर्शन के अनुसार चित्त की वृत्तियों को रोकना ही योग कहलाता है। आयन्तर इन्द्रिय अर्थात् बुद्धि की उस स्थिरता को योग कहते हैं, जिसमें वह चेष्टा नहीं करती, उस अवस्था में परमात्मा में स्थिति होती है, इसलिए अगले सूत्र में कहा- ‘तदा द्रष्टुःस्वरूपेऽवस्थानम्’जब सर्ववृत्तियों का निरोध होकर चित्त अपनी कारण प्रकृति में लीन हो जाता है, उस अवस्था में वह अपने चेतन-स्वरूप से परमात्मा के आनन्द को भोगता हुआ उसी में स्थिर होता है। यही जीव का अन्तिम और चरम लक्ष्य है, इसी को मोक्ष कहते हैं।

प्रयत्न करना जीव का स्वभाव है। जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं होता, तब तक मनुष्य प्रयत्नशील रहता है। प्रयत्न भी शुभ कर्मों के लिये होना चाहिए। मनुष्य अशुभ कर्मों को छोड़कर शुभ कर्मों में जब-जब और जितना-जितना प्रवृत्त होता है, उतना ही वह मोक्ष-मार्ग पर आगे बढ़ता है अर्थात् सकाम-कर्म को छोड़कर निष्काम कर्म में मनुष्य जितना प्रवृत्त होता है, उतना ही वह मोक्ष प्राप्ति के निकट पहुँचता है।

मानव की आध्यात्मिक उन्नति तो पूर्ण रूप से योगसाधना पर आधारित है ही, भौतिक उन्नति में भी योगसाधना की आवश्यकता है। भौतिक-जीवन में भी योगायास से शान्ति मिलती है। योग के द्वारा मनुष्य भौतिकता और आध्यात्मिकता में सामंजस्य स्थापित कर सकता है।

महर्षि पतञ्जलि ने योग में सफलता प्राप्त करने के लिए योग के आठ अंगों का विधान किया है, जो निम्न प्रकार से हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

यम पाँच प्रकार के होते हैं

  1. अहिंसा-मन, वाणी और शरीर से कभी भी किसी को भी दुःख न देने का नाम अहिंसा है।
  2. सत्य-यथार्थ भाषण अर्थात् जैसा देखा वा अनुमान किया अथवा सुना, उसको वैसा ही कथन करने का नाम सत्य है।
  3. अस्तेय-चोरी न करना अर्थात् छल, कपट, ताड़नादि किसी प्रकार से भी अन्य पुरुष के धन को ग्रहण न करने का नाम अस्तेय है।
  4. ब्रह्मचर्य-सर्व इन्द्रियों के निरोधपूर्वक उपस्थ इन्द्रिय के निरोध का नाम ब्रह्मचर्य है।
  5. अपरिग्रह-दोष-दृष्टि से विषयों के परित्याग का नाम अपरिग्रह है।

नियम भी पांच प्रकार के होते हैं

  1. शौच- यह दो प्रकार का है-

– बाह्य-शौच-जल अथवा मिट्टी आदि से शरीर के और हित, मित तथा मेध्य अर्थात् पवित्र भोजन आदि से उदर के प्रक्षालन का नाम बाह्य शौच है।

– आयन्तर-शौच-मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा आदि भावनाओं से ईर्ष्या-द्वेष आदि चित्त के मलों के प्रक्षालन का नाम आयन्तर शौच है।

  1. सन्तोष-जो भोग के उपयोगी साधन अपने पास विद्यमान हैं, उनसे अधिक उपयोगी साधनों की लालसा न करना सन्तोष है।
  2. तप-सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी, लाभ-हानि, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को सहने और हितकर तथा परिमित आहार करना ही तप कहलाता है।
  3. स्वाध्याय-ओंकारादि ईश्वर के पवित्र नामों का जप और वेद, उपनिषद्, वेदांग, उपांग, आदि शास्त्रों के अध्ययन का नाम स्वाध्याय है।
  4. ईश्वर-प्रणिधान-फल की इच्छा छोड़कर केवल ईश्वर की प्रसन्नता के लिए वेदविहित कर्मों के करने को ईश्वर-प्रणिधान कहते हैं।
  5. आसन- ‘स्थिरसुखमासनम्’स्थिर तथा सुखदाई स्थिति का नाम आसन है। योगी सिद्धासन, पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, स्वस्तिकासन आदि जिस आसन में सुख से बैठकर ईश्वर का ध्यान लगा सके, वही आसन उचित है। आसन के सिद्ध हो जाने पर योगी को सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्व नहीं सताते।
  6. प्राणायाम- महर्षि मनु ने अपनी ‘मनुस्मृति’ में प्राणायाम की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है-

‘‘दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनांहि यथा मलाः।

तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्?’’

– 6.71

अर्थात् जैसे अग्नि में तपाने और गलाने से धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही प्राणों के निग्रह से मन आदि इन्द्रियों के दोष भस्मीभूत हो जाते हैं। पतञ्जलि मुनि ने प्राणायाम का लक्षण बताते हुए लिखा है ‘तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः’ अर्थात् आसन की सिद्धि होने पर श्वास-प्रश्वास की गति के  अभाव का नाम प्राणायाम है। उन्होंने प्राणायाम के चार प्रकार बतलाये।

  1. बाह्यवृत्ति- जिस प्राणायाम में प्रश्वासपूर्वक प्राणगति का अभाव होता है, उसका नाम बाह्यवृत्ति है, इसे रेचका भी कहते हैं, क्योंकि इसमें प्राणवायु को बाहर ही रोका जाता है।
  2. आयन्तरवृत्ति- जिस प्राणायाम में श्वासपूर्वक प्राणगति का अभाव होता है, उसका नाम आयन्तरवृत्ति है, इसे पूरक भी कहते हैं, क्योंकि उसमें प्राणवायु को भीतर ही रोका जाता है।
  3. स्तभवृत्ति- जिस प्राणायाम में श्वासप्रश्वासपूर्वक प्राणगति का अभाव होता है उसका नाम स्तभवृत्ति है, इसे कुभक भी कहते हैं, क्योंकि इसमें कुभस्थ जल की भांति देह के भीतर निश्चलतापूर्वक प्राण की स्थिति होती है। इसमें जहाँ का तहाँ प्राण को रोका जाता है।
  4. बाह्यायन्तर विषयाक्षेपी- इसमें प्राण की स्वाभाविक गति को विपरीत दिशा में बलपूर्वक धकेला जाता है। अर्थात् यदि प्राण बाहर आ रहा है तो भीतर की ओर तथा भीतर जा रहा है तो बाहर की ओर धकेला जाता है।

प्राणायाम के लाभ

1– प्राणायाम से आयु की वृद्धि होती है।

2– प्राणायाम से शारीरिक और मानसिक उन्नति होती है।

3– प्राणायाम से रोग दूर होते हैं।

4– प्राणायाम से कुत्सित मनोवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं।

5– प्राणायाम से चित्त का मल दूर होकर ज्ञान बढ़ता है।

6– प्राणायाम से प्राण वश में होने से इन्द्रियाँ और मन भी वश में हो जाते हैं।

7– प्राणायाम से धातुओं की पुष्टि होती है।

8– प्राणायाम से हृदय पर पड़े तम के आवरण का नाश होता है।

  1. प्रत्याहार- ‘स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः’।

अर्थात् अपने-अपने विषयों के साथ समबन्ध न होने के कारण इन्द्रियों की चित्तस्थिति के समान स्थिति का नाम प्रत्याहार है। इन्द्रियों का बाह्य विषयों में जाना सहज स्वभाव है, उस सहज स्वभाव के विपरीत अन्तर्मुख होने को प्रत्याहार कहते हैं।

  1. धारणा- ‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा’।

अर्थात् चित्त का देश-विशेष (शरीर के नासिकाग्र, जिह्वाग्र, हृदयकमल आदि अंग-विशेष) में स्थिर करना धारणा कहलाता है।

  1. ध्यान- ‘तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्’।

अर्थात् धारणा के अनन्तर ध्येय पदार्थ में होने वाली चित्तवृत्ति की एकतानता को ध्यान कहते हैं।

  1. समाधि- ‘तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशुन्यमिव समाधिः।

अर्थात् अपने ध्यानात्मक रूप से रहित केवल ध्येय रूप से प्रतीत होने वाले उक्त ध्यान का ही नाम समाधि है। चित्त की जिस एकाग्र अवस्था में ध्याता, ध्यान, ध्येयरूप त्रिपुटि का भान होता है, उसको ध्यान और केवल ध्येय के भान को समाधि कहते हैं।

उपर्युक्त अष्टांगयोग से योगियों की तो उन्नति होती ही है, सांसारिक मनुष्यों को भी इससे जीवन में बहुत लाभ होता है।

hadees : GAINING HEARTS� BY GIVING GIFTS

GAINING HEARTS� BY GIVING GIFTS

The principle of distribution was not always based on need, justice, or merit.  Muhammad had other considerations as well.  �I give [at times material gifts] to persons who were quite recently in the state of unbelief, so that I may incline them to truth,� says Muhammad (2303).

To gain hearts (mullafa qulUbhum) for Islam with the help of gifts is considered impeccable behavior, in perfect accord with QurAnic teaching (9:60).  Muhammad made effective use of gifts as a means of winning people over to Islam.  He would reward new converts generously but overlook the claims of Muslims of long standing.  Sa�d reports that �the Messenger of Allah bestowed gifts upon a group of people. . . . He however left a person and did not give him anything and he seemed to me the most excellent among them.� Sa�d drew the Prophet�s attention to this believing Muslim, but Muhammad replied: �He may be a Muslim.  I often bestow something on a person, whereas someone else is dearer to me than he, because of the fear that he [the former] may fall headlong into the fire� (2300), that is, he may give up Islam and go back to his old religion.  The translator and commentator makes the point very clear by saying that it was �with a view to bringing him nearer and making him feel at home in the Muslim society that material gifts were conferred upon him by the Holy Prophet� (note 1421).

There are other instances of the same type.  �Abdullah b. Zaid reports that �when the Messenger of Allah conquered Hunain he distributed the booty, and he bestowed upon those whose hearts it was intended to win� (2313).  He bestowed costly gifts on the Quraish and Bedouin chiefs, many of them his enemies only a few weeks before.  Traditions have preserved the names of some of these elite beneficiaries, like AbU SufyAn b. Harb, SafwAn b. Umayya, �Uyaina b. Hisn, Aqra� b. HAbis, and �Alqama b. Ulasa (2303-2314).  They received a hundred camels each from the booty.

Muhammad did the same with the booty of some gold sent by �AlI b. AbU TAlib from Yemen.  He distributed it among four men: �Uyaina, Aqra, Zaid al-Khail, �and the fourth one was either �Alqama b. �UlAsa or Amir b. Tufail� (2319).

author : ram swarup