हदीस : एक अप्रिय कर

एक अप्रिय कर

एक दिलचस्प हदीस है, जिससे पता चलता है कि सबसे सम्पन्न वर्ग में भी जकात देना अप्रिय था। उमर को ज़कात वसूल करने वाला (अधिकारी) नियुक्त किया गया था। जब उन्होंने रिपोर्ट दी कि खालिद बिन वलीद (जो बाद में एक प्रसिद्ध मुस्लिम सेनापति बने) और पैगम्बर के अपने चचाजान अब्बास तक ने कर देने से इन्कार कर दिया है, तो मुहम्मद ने कहा-”खालिद के प्रति तुम्हारा यह व्यवहार उचित नहीं, क्योंकि उसने अपने शस़्त्रास्त्र अल्लाह के वास्ते सँभाल कर रखे हैं। और जहाँ तक अब्बास की बात है, मैं उसका जिम्मेदार होऊंगा …… उमर ! ध्यान रहे, किसी का चाचा उसके पिता के समान होता है“ (2188)।

 

ज़कात के खिलाफ व्यापक नाराज़गी थी। गैर-मदीनी अरब कबीलों में वह नाराज़गी और भी प्रबल थी, क्योंकि उनके हिस्से इस कर बोझ ही आता था, इसके फायदे उन्हें नहीं पहुँचते थे। वद्दू लोगों ने पैगम्बर से शिकायत की कि ”सदका वसूल करने वाला हमारे पास आया और उसने हमसे अनुचित व्यवहार किया। इस पर अल्लाह के रसूल ने कहा-वसूल करने वाले को खुश रक्खो“ (2168)।

 

लेकिन हालात मुश्किल थे और इतनी आसानी से मुश्किलें हल नहीं होती थीं, जैसा कि यह हदीस इंगित करती है। मक्का-विजय के बाद, जब मुहम्मद की सत्ता सर्वोच्च हो उठी, दशमांश कर (ज़कात) की वसूली की वसूली आक्रामक तरीके से की जाने लगी। हिजरी सन् 9 की शुरूआत में, वसूली करने वालों की टुकड़ियां विभिन्न दिशाओं में भेजी गईं, ताकि किलाब, ग़िफार, असलम, फज़ार और अनेक अन्य क़बीलों से कर वसूला जा सके। ऐसा लगता है कि इस वसूली का वनू तमीम कबीले के एक वर्ग द्वारा कुछ कड़ा विरोध किया गया। इसीलिए मुहम्म्द ने पचास अरबी घुड़सवारों की एक सैनिक टुकड़ी उन्हें दंडित करने के लिए भेजी, जिन्होंने अचानक उस क़बीले को जा दबोचा और पचास औरत-मर्दों तथा बच्चों को बंधक बनाकर मदीना ले आये। उन्हें छुड़ाई देकर छुड़ाना पड़ा और तब से वसूली अपेक्षाकृत सुगम हो गई।

 

इस कर के खि़लाफ़ अरब लोगों की नाराज़गी की शब्द-चातुर्य से भरी एक गवाही खुद कुरान में मिलती है। अल्लाह मुहम्मद को सावधान करते हैं-”अरबी रेगिस्तान के कुछ लोग करों की अदायगी को जुर्माना मानते हैं और तुम्हारी किस्मत पलटने के इन्तजार में हैं। पर उनकी किस्मत ही बुरी बनेगी, क्योंकि अल्लाह सुनता भी है, और जानता भी है“ (9/98)।

 

दरअसल, नाराज़गी इतनी प्रबल थी कि मुहम्मद के मरते ही अरब कबीले उदीयमान मुस्लिम राज्य के विरुद्ध विद्रोह में उठ खड़े हुए और उन्हें दुबारा दबाना पड़ा। उनका विरोध तभी मिटा जब वे मुस्लिम साम्राज्य के विस्तार में साझेदार बने और ज़कात का भार, सैनिक विजय तथा उपनिवेशों से मिलने वाले प्रचूर माल की तुलना में, हल्का हो गया।

author : ram swarup

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