कुरान समीक्षा : खुदा शैतान पीछे लगा देता है

खुदा शैतान पीछे लगा देता है

जब लोगों को गुमराह करने के लिए स्वयं खुदा उनके पीछे शैतान की तरह लगातार रहता है तो खुदा डबल शैतान हुआ या नहीं? गुनहगार दोनों में से कौन हुआ?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व मंय्यअ्-शु अन् जिक्रिर्-रह्मानि………..।।

(कुरान मजीद पारा २५ सूरा जुरूरूफ रूकू ४ आयत ३६)

और जो शख्स खुदा कृपालु की याद से बरगलाता है हम उस पर एक शैतान मुकर्रर कर दिया करते हैं और वह शैतान बरगलाने के लिए हमेशा उसके साथ रहता है।

व इन्नहुम् ल-य सुद्दूहुम्……….।।

(कुरान मजीद परा २५ सूरा जुरूरूफ रूकू ४ आयत ३७)

और शैतान पापियों को सीधी राह से रोकता है और वे समझते हैं कि हम सीधे रास्ते पर हैं। क्या तुमने नहीं देखा कि हमने शैतानों को काफिरों पर छोड़ रखा है कि वह उनको उकसाते रहें।

समीक्षा

गलत रास्ते पर चलने वालों को नेक रास्ता बताना खुदा को योग्य था। पर वह भला आदमी भूले भटके लोगों को गुमराह कराने के लिए उस बदमाश शैतान को उनके पीछे लगा देता है ताकि वह उन्हें हमेशा बुराई की ओर ही ले जाता रहे। अरबी खुदा इन्सान का पक्का दुश्मन था उसके काम सभी शरारत के ही रहे हैं कहीं खुदा लोगों को गुमराह बिना वजह करता है, कहीं शैतान से गुमराह कराता है। ऐसे खुदा को रक्षक मानना भी गलती की ही बात है।

कुरान समीक्षा : कुरान में झूठ का प्रवेश नहीं है

कुरान में झूठ का प्रवेश नहीं है

कुरान में झूठ का प्रवेश नहीं है यह दावा क्यों न गलत माना जावे? जबकि कुरान में-

आसमान में ओलों के पहाड़ जमे होने की बात

कागज की तरह आसमान का लपेटना

आसमान में बुर्ज है

आदि अनेक स्थल सर्वथा काल्पनिक लिखे हुए मिलते हैं?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

इन्नल्लजी-न क-फरू बिज्जिविर…….।।

(कुरान मजीद पारा २४ सूरा हामीम अस-सज्दा रूकू ५ आयत ४१)

यह कुरान एक बुलन्द मर्तबा अर्थात क्या अजीब किताब (कुरान) है।

ला यअ्तीहिल्-बातिलु मिम्बैनि……….।।

(कुरान मजीद पारा २४ सूरा हामीम अस-सज्दा रूकू ५ आयत ४२)

इसमें झूठ का न इसके आगे से और न इसके पीछे से दखल है । हिकमत वाले खुदा ने इसें सब खूबियों के सहारे से उतारी हुई है।

समीक्षा

इस किताब में पीछे जो भी अवैज्ञानिक बातों को कुरान से उल्लेख है उनसे कुरान की इस आयत के दावे का खण्डन स्वयं ही हो जाता हैं ।

कुरान समीक्षा : बुराई का बदला अच्छे बर्ताव से दो

बुराई का बदला अच्छे बर्ताव से दो

बुराई का बदला नेकी से देने की खुदा की बात, बुराई का बदला बुराई से देने के कुरान पारा ४ सूरे बकर रकू २२ आयत १७८ के आदेश के विरूद्ध क्यों है? दोनों में से कुरान की कौन सी बात सही व कौन सी गलत है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व ला तस्तविल्-ह-स-नतु व………….।।

(कुरान मजीद पारा २४ सूरा अस-सज्दा रूकू २२ आयत ३४)

नेकी और बदी बराबर नहीं हो सकती। बुराई का बदला अच्छे बर्ताव से दे तो तुझमें और जिस आदमी में दुश्मनी थी उसे तू पक्का दोस्त पावेगा।

नोट- यह उपदेश अति उत्तम है, किन्तु खुदा के हुक्म के बिल्कुल खिलाफ है जिसमें उसने कहा था-

या अय्युउल्लजी-न आमनू कुति-ब……….।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू २२ आयत १७८)

ऐ ईमान वालों! जो लोग मारे जावे उनमें से तुमको जान के बदले जान का हुक्म दिया जाता है । आजाद के बदले आजाद, गुलाम के बदले गुलाम, औरत के बदले औरत आदि-आदि।

‘‘लाजपत राय अग्रवाल’’

समीक्षा

एक जगह बुराई के बदले बुराई करने का हुक्म देना और दूसरी जगह बुराई का बदला भलाई से देना, इन दोनों में परस्पर विरोधी उपदेशों में से कौन सा माननीय है? खुदा को तो एक ही अच्छी बात कहनी चाहिये थी।

कुरान समीक्षा : खुदा का जमीन और आसमान से बाते करना

खुदा का जमीन और आसमान से बाते करना

साबित करें कि क्या बेजान पदार्थों से बातें करना सम्भव हो सकता है? जो कुछ चीज ही नहीं है जैसे आसमान, उससे बातें कैसे की जा सकती हैं और वह जवाब कैसे दे सकता है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

सुम्मस्तवा इलस्समा-इ व हि-य…………।।

(कुरान मजीद पारा २४ सूरा हामीम अस-सज्दा रूकू २ आयत ११)

जमीन और आसमान दोनों से कहा कि तुम दोनो आओ चाहे खुशी से या लाचारी से? दोनों ने कहा- हम खुशी से आये।

समीक्षा

खुदा का जमीन और आसमान से बातें करना और उनका जवाब देना असम्भव है?

अगर ठीक है तो भक्तों का अपनी बेजान मूर्तियों से बातें करना मनौती मांगना भी क्यों न ठीक माना जावेगा?

कुरान समीक्षा : कयामत के दिन फैसला किताबों से होगा

कयामत के दिन फैसला किताबों से होगा

बतावें कि ये किताबें कानून की होंगी, खुदा के याद्दाश्त की डायरियां होंगी या लोगों के कर्मों के रजिस्टर होंगे? यदि ये किताबें किसी तरह गुम हो जावें या शैतान मियाँ चुरा ले जावें तो खुदा कयामत के दिन फैसला कैसे करेगा? क्या खुदा भी फैसले के लिये किताबों का मोहताज है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व अश्-र-कातिल् अरजु बिनूरि………।।

(कुरान मजीद पारा २३ सूरा जुमर ७ आयत ६९)

और जमीन अपने परवर्दिगार से चमक उठेगी और किताबें रख दी जायेंगी और उनमें पैगम्बर गवाह हाजिर किए जायेंगे और उनमें इन्साफ के साथ फैसला कर दिया जायेगा और उन पर जुल्म न होगा।

समीक्षा

कयामत के दिन खुदा जिन किताबों को देखकर फैसला करेगा वे दीवानी की होंगी या जाब्ता फौजदारी की होंगी? वह किताबें अगर दुनियाँ में भी आ जावें तो सभी लोग खुदा के कानूनों को पढ़कर जान लेवें कि खुदा जो दफा लगावेगा वह ठीक होगी या गलत और हमारे वकील भी तैयारी कर लेवेंगे।

यज्ञाग्नि से रोगों का नाश होता है

ओउम्
यज्ञाग्नि से रोगों का नाश होता है
डा. अशोक आर्य
यज्ञ करने से ,वातावरण में विचरण कर रहे तथा छुपे हुए रोग के कीट नष्ट हो जाते हैं । इन जीवों के नष्ट होने से, इस से उत्पन्न होने वाले रोग भी नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार जो शक्ति रोग पैदा करने वाली होती है, वह नष्ट होने से रोग भी नष्ट हो जाते हैं । इस पर मन्त्र प्रकाश डालते हुए कह रहा है कि : –
विश्वाअग्नेऽपदहारातीर्येभिस्तपोभिरदहोजरूथम्।
प्रनिस्वरंचातयस्वामीवाम्॥ ऋ07.1.7
इस मन्त्र में प्रभु से प्रार्थना करते हुए यज्ञ की अग्नि को संबोधन किया गया है तथा प्रार्थना की गयी है कि
१. यज्ञ से कष्टों का नाश
मन्त्र उपदेश करते हुए कहता है कि हे यज्ञग्ने ! आप ही अपनी तेज अग्नि के बल पर, तेज गर्मी के बल पर सब कष्टों को दूर करते हैं ।
हम जानते हैं कि यज्ञ की अग्नि को तीव्र करने के लिए , अग्नि को प्रचंड करने के लिए इस में उतम घी तथा उतम औषधियों से युक्त सामग्री की आहुतियाँ दी जाती है | इन में पौष्टिकता होती है , यह सुगंध से भरपूर होती है , इस में उतम उतम रोग नाशक बूटियाँ डाली जाती हैं और इस के साथ ही साथ इसमें डाली जाने वाली घी व सामग्री में अग्नि को तीव्र करने की शक्ति भी होती है | यज्ञ करते समय हम कुछ वेद मन्त्रों का भी गायन करते हैं | यह मन्त्र गायन भी सुस्वास्थ्य के लिए उपयोगी होते है |
इस प्रकार मन्त्र के माध्यम से हम प्रभु से प्रार्थना है करते हैं कि हे प्रभु ! इस वायुमण्ड्ल में जितने भी प्राणी हमें हानि देने वाले हैं, जितने भी प्राणी हमें रोग देने वाले हैं, उन्हें भस्म कर दो, नष्ट कर दो । , उन्हें अपनी अग्नि में भस्म करदो । अर्थात् जब हम यज्ञ करते हैं तो इस में डाली जाने वाली सामग्री में एसे पदार्थ डाल कर इसे करते हैं, जिन की ज्वाला निकलने वाली गैसों से यह रोग के कीटाणु स्वयमेव ही नष्ट हो जाते हैं । यदि कोई कीटाणु बच भी जाता है तो यज्ञ की इस अग्नि में जल कर नष्ट हो जाता है ।
२. यज्ञ से तापक शक्ति का नाश
हमारे अन्दर समय समय पर अनेक कारणों से रोगाणु पैदा होते रहते हैं | जब यह रोगाणु हमारे शरीर की शक्तियों से कहीं अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं | इन की शक्ति हमारे अन्दर की शक्तियों से अधिक हो जाती हैं तो इस का परिणाम जो हम जानते हैं वही होता है अर्थात् हम रुग्ण हो जाते हैं |
हम जानते हैं कि शल्य सदा कमजोर पर अथवा शक्ति विहीन पर एसा भयंकर आक्रमण करता है , ( राक्षसी वृति के लोगों के सम्बन्ध में भी कुछ एसा ही कहा जाता है कि जब वह सामने वाले को कमजोर पाते हैं तो वह उस पर चारों और से एसा भयंकर आक्रमण करते हैं कि सामने वाला जब तक उसे कुछ समझ में आता है और वह संभलने की सोचता है तब तक वह राक्षसों से इस प्रकार घिर जाता है कि उससे निपट पाना उसके लिए कठिन हो जाता है , उनका प्रतिरोध उस की शक्ति में रहता ही नहीं | इस कारण वह या तो नष्ट हो जाता है और या फिर आत्म समर्पण कर देता है |)कि हमारा शारीर इस कष्ट से तप्त हो जाता है |
कुछ एसी ही अवस्था शरीर में पल रहे रोगाणुओं की , शरीर में पल रहे शल्य की होती है | ज्यों ही यह शरीर को कमजोर पाते हैं तो वह इस शरीर पर एसा आक्रमण करते हैं कि हम संभल ही नहीं पाते | इनके दिए ताप से तप्त होकर हम स्वयं को शक्ति विहीन सा अनुभव करते हैं और शीघ्र ही शिथिल होकर बिस्तर को पकड़ लेते है | अनेक बार तो यह रोग हमारी मृत्यु का कारण भी बनते हैं |
इसलिए रोग की जो तापक शक्ति होती है , उससे बचने के लिए जब हम यज्ञ करते हैं तो यज्ञ करते हुए इस के साथ हम यज्ञ देव से यह प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे अग्निदेव ! उस को तूं नष्ट करके हमें स्वस्थ कर अर्थात् हे यज्ञाग्नि इन रोगाणुओं की तापक शक्ति को नष्ट कर हमें स्वस्थ बना ।
इस सब का भाव यह है कि यह यज्ञ की अग्नि रोग की तापक शक्ति को नष्ट कर देता है । इस अग्नि के तेज से रोग के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं तथा जो जन प्रतिदिन दो काल यज्ञ करते हैं अथवा जो लोग यज्ञ स्थल के समीप निवास करते हैं , यह यज्ञ की अग्नि उनके अन्दर बस रहे रोग के कीटाणुओ का भी नाश कर देती है । इस प्रकार उसके शरीर के अन्दर के कीटाणुओं के नष्ट होने से वह निरोग हो जाता है । इस यज्ञ से उस के अन्दर इतनी प्रतिरोधक शक्ति आ जाती है कि रोग के कीटाणु भयभीत हो कर इस शरीर से दूर भागने लगते हैं और अब रोग के यह कीटाणु किसी रोग की उत्पति के लिए यज्ञकर्ता पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं कर पाते । इससे धीर धीरे यह रोग ओझल ही हो जाता है ।
इस सब से यह तथ्य सामने आता है कि यज्ञ और इसकी अग्नि हमारे शरीर को सदा स्वस्थ रखने का एक बहुत बड़ा साधन है | स्वास्थ्य लाभ के लिए हम प्रतिदिन दो काल उतम सामग्रियों से यज्ञ करें |

डा. अशोक आर्य

हे यज्ञ अग्नि ! हम सदा तुझे आहुति देते रहें

ओउम्
हे यज्ञ अग्नि ! हम सदा तुझे आहुति देते रहें
हम परमपिता से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! यह यज्ञ अग्नि हमारे घरों में सदा जलती रहे | हम इसे कभी मंद न होने दें तथा हम सदा इसे बढाने के लिये पुरुषार्थ करते हुए इस यज्ञ में आहुती देते रहें । इस तथ्य पर ऋग्वेद के इस तीसरे मन्त्र में विचार करते हुए इस प्रकार प्रकार प्रकाश डाला है : –
प्रेद्धोअग्नेदीदिहिपुरोनोऽजस्रयासूर्म्यायविष्ठ।
त्वांशश्वन्तउपयन्तिवाजाः॥ ऋ07.1.3
हे अग्नि ! खूब प्रकार से दीप्त होकर , अपनी लपटों को खूब उंचा उठा | इस प्रकार अत्यंत तेज होकर तू हमारे सामने प्रकट हो । हे अग्नि ! तूं सब प्रकार के रोगों को दूर करने वाली है , तूं सब प्रकार के रोगाणुओं को भस्म कर इन सब रोगाणुओं का नाश करने वाली है | तूं ही सब प्रकार की गन्दी वायु को शुद्ध कर वातावरण को शुद्ध करने वाली है , सम्पूर्ण पर्यावरण को तूं ही शुद्ध – पवित्र कराती है | एसी अत्यधिक पवित्र अग्नि ! तूं कभी भी क्षीण होने वाली नहीं है , कभी दुर्बल होने वाली नहीं है , कभी न बुझने वाली तेरी ज्वाला से हम निरन्तर दीप्त होते रहें, निरन्तर तेज होती रह, निरन्तर प्रचण्ड होती रह ।
हे अग्नि ! तुम्हें अनेक प्रकार की भोजन सामग्री मिलती है ( अग्नि का भोजन समिधा के रूप में लकड़ी होती है | इसे प्रचंड करने के लिए इस में घी डाला जाता है | इसे धित बनाने के लिए इस में सुगंदित पदार्थ डालते हैं | शक्ति वर्धन के लिए इस अग्नि में पुष्टिक पदार्थ यथा घी , मेवे आदि डालते हैं | यह रोगों का नाश करे इसलिए इस अग्नि में गुग्गल जैसी औषधियां डालते हैं ) , अनेक प्रकार के अन्न हवि रुप में , आहुति रुप में इस अग्नि को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार हे अग्नि ! तेरे में अनेक प्रकार के , विविध प्रकार के अन्नों की आहुतियां डाली जाती हैं । यह जो अनेक प्रकार की वस्तुओं की आहुतियां तुझ में डाली जाती हैं , इन को ही तूं ने बढाना है , इन सब को बड़ा कर आगे ले जाते हुए इसे हमारे ई पुरे वायु मण्डल में फ़ैलाना है ।
इन शब्दों से एक तथ्य जो सबके सामने आता है , वह यह कि यज्ञ की अग्नि प्रत्येक प्राणी के जीवन की रक्षा रक्षा करने वाली होती है क्योंकि इस अग्नि में वह लकड़ी समिधारूप में प्रयोग की जाती है जिस समिधा में कीटाणुओं का नाश करने की शक्ति होती है, जो समिधा सुगंध वाली होती है, जो शक्ति व पौष्टिकता लाने वाली होती है | हम इतने से ही शांत नहीं होते अपितु हम इस प्रकार के गुणों वाली और
भी वस्तुएं सामग्री स्वरूप इस अग्नि को भेंट करते हैं इस प्रकार की वस्तुओं में :
घी , बादाम ,किशमिश , अखरोट , काजू आदि सूखे मेवे , सेब ,केला आदि एक प्रकार के फल फूल , चन्दन जैसे सुगन्धित पदार्थ तथा अगर – तगर ,गुग्गल, गिलोय जैसे रोगनाशक बूटियाँ | इन सब के प्रयोग से हम सदा इस अग्नि को तीव्र करने का प्रयास करते हैं | इस यज्ञ की अग्नि को कभी मंद नहीं होने देते | जब यह यज्ञ की अग्नि अच्छे से प्रचंड रहती है तो इस का सेवन करने वाले किसी भी प्राणी को कोई कष्ट नहीं होता | इस प्रकार के प्राणी सदा रोगों से मुक्त रहते हैं | इन का शारीर पूर्णतया पौष्टिक तत्वों से भरा रहता है | इन प्राणियों की बुधि तीव्र होती है | पूर्णतया स्वस्थ रहते हुए यह प्राणी समाज के अन्य प्रणियों को भी सुखी, सुशल, पुरुषार्थी व परोपकारी बनाने का प्रयास करते हैं |
यह मन्त्र इस लिए ही उपदेश कर रहा है कि यज्ञ की अग्नि कभी भी बुझाने न पावे | यह अग्नि निरंतर ऊपर उठती रहे , सदा उन्नत रहे , प्रज्वलित रहे | यह जीतनी तीव्र होगी उतना ही अधिक हितकारक होगी | इस लिए हम इस अग्नि की सदा उपासना करते हुए इसे आगे बढाते जावें | इस में ही हम सब का हित है | इस में ही हम सबका कल्याण है |
डा. अशोक आर्य

हवियों से यज्ञ अग्नि को बढावें कभी बुझने न दें

ओउम॒
हवियों से यज्ञ अग्नि को बढावें कभी बुझने न दें
यज्ञकर्ता जिस यग्य अग्नि को जलाते हैं ,जिस को अपनी अनेक प्रकार की आहुतियां देकर बढाते हैं, वह यज्ञाग्नि हमारे परिवार से , हमारे घर से कभी बुझने न पावे । यह तथ्य ही इसके दूसरे मन्त्र का मुख्य विशय है , जो इस प्रकार है : –
तमग्निमस्तेवसवोन्यृण्वन्सुप्रतिचक्षमवसेकुतश्चित्।
दक्षाय्योयोदमआसनित्यः॥ ऋ07.1.2
अपने निवास को जो लोग उत्तम बनाना चाहते हैं, श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं , वह लोग इस यज्ञ की अग्नि को अपने निवास पर , अपने घर में स्थापित करते हैं । यज्ञ की यह अग्नि हम सब का पूरा ध्यान रखती है । यज्ञ की यह अग्नि हमारे संकटों को दूर करने का सदा यत्न करती रहती है । यदि हमारे घर में कहीं रोग के कीटाणु छुपे हैं , निवास कर रहे हैं , तो यह अग्नि उन किटाणुओं को नष्ट करके बाहर निकालने का कार्य करती है, यदि हमारे घर में दुर्गन्ध है तो यह अग्नि उसे दूर कर पवित्रता लाती है तथा यदि घर का वातावरण अशुद्ध है तो यह यज्ञ की अग्नि उसे शुद्ध कर वातावरण को शुद्ध , पवित्र करती है । घर में होने वाले सब प्रकार के भय को दूर कर हमें निर्भय बनाती है ।
यज्ञ की यह अग्नि हवियों से बढती है। हम जो आहुतियां इस आग मे देते हैं , वह आहुतियां इस अग्नि को तीव्र करती हैं । अग्नि की इस तीव्रता से हमारी रक्षा के कार्य, हमें निर्भय करने के कार्य, हमें रोगों से मुक्त करने के कार्य ओर भी तीव्रता से होते हैं ।
जिस यज्ञाग्नि के इतने लाभ हैं , जो यज्ञाग्नि हमें इतने लाभ देती है , वह यज्ञाग्नि हमारे घरों में निरन्तर जलती रहे , हम, कभी भी इसे बुझने न दें |

डा. अशोक आर्य

प्रभु हमें अक्षीण आयु तथा उत्तम सन्तान रुपी धन दे

ओउम
प्रभु हमें अक्षीण आयु तथा उत्तम सन्तान रुपी धन दे
(मण्डल ७ का सम्पूर्ण वर्णन )
डा, अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा ने वेद के इस सूक्त में उपदेश किया है कि हे पिता हमें वह धन दे जो हमे आक्षीण आयु वाला तथा उत्तम सन्तानों वाला बनावें । वह धन कौन सा है ?, इस की चर्चा इस सूक्त के इन पन्द्रह मन्त्रों में बडे ही सुन्दर ढंग से की गयी है , जो कि इस प्रकार है : –
यज्ञ की अग्नि से घर की रक्षा होती है
हम प्रतिदिन दो काल यज्ञ करें । यज्ञ भी एसे करें कि इस के लिए आग को दो अरणियों से रगड़ कर पैदा किया जावे । इस प्रकार की अग्नि से किया गया यज्ञ , इस प्रकार की प्रशस्त अग्नि से किया गया यज्ञ घर की रक्षा करता है । इस तथ्य का वर्णन ऋग्वेद के सप्तम मंडल के प्रथम सूक्त के प्रथम मंत्र में इस प्रकार मिलता है :

अग्निंनरोदीधितिभिररण्योर्हस्तच्युतीजनयन्तप्रशस्तम्।
दूरेदृशंगृहपतिमथर्युम्॥ ऋ07.1.1

मनुष्य सदा उन्नति को ही देखना चाहता है । अवन्ती को तो कभी देखना ही नहीं चाहता । मानव सदा आगे बढना चाह्ता है । पीछे लौटने की कभी उस की इच्छा ही नही होती । वह सदा ऊपर ही ऊपर उठना चाहता है नीचे देखना वह पसंद नहीं करता । इस लिए मन्त्र भी यह उपदेश करते हुए मानव को संबोधन कर रहा है कि हे उन्नति की इच्छा रखने वाले मानव ! तू अपने को आगे बढ़ने की चाहना के साथ अपनी अभिलाषा को पूरा करने के लिए , अपने हांथों को गति दे , इन्हें सदा गतिशील रख , कार्य में व्यस्त रख, इन्हें आराम मत करने दे , निरंतर कार्यशील रह ।
१ यज्ञ से रोगाणुओं का नाश
इस प्रकार अपने हांथों को गतिशील रखते हुए , क्रियाशील रखते हुए अपनी अंगुलियों से अरनियों अथवा काष्ठविशेषो में यज्ञ अग्नि को प्रदीप्त कर , यज्ञ को आरम्भ कर । यज्ञ की उस अग्नि को प्रदीप्त कर जो प्रशस्त हो , उन्नत हो अथवा उन्नति की और ले जाने वाली हो । । यह अग्नि इतनी तेजस्वी होती है कि इस के प्रकाश मात्र से , गर्मी मात्र से यह रोग के किटाणुओं के नाश का कारण बनती है अथवा युं कह सकते हैं कि यह अग्नि अपनी तेजस्विता से हानिकारक किटाणुओ का नाश कर देती है । यज्ञ की अग्नि से रोग के कीटो का अंत होता है । अत: यह यज्ञ रोग के कृमियों के संहार का कारण होता है ।
२. यज्ञ से वर्षा
यह यज्ञ वर्षा आदि लाभ देने का भी कारण होता है । वर्षा से ही हमारी वनस्पतियां बडी होती हैं तथा हमें फल देती हैं । यदि वर्षा न हो तो हमारी खेतियां लहलहा नही सकती । जब खेती ही नही रहेगी तो हम खावेंगे क्या ? हमारे वस्त्र कहा से आवेंगे ? हमारे जीवन की आवश्यकता कैसे पूर्ण होगी ? इस लिए जब हम यज्ञ करते है तो वर्षा समय पर होती है । अत: वर्षा आदि का कारण होने से भी यज्ञ प्रशंसनीय होते हैं ।
३ यज्ञ से घर की सुरक्षा
जब कहीं पर यज्ञ हो रहा होता है तो इसे बडी दूर के लोग भी होता हुआ देख लेते हैं । क्यों ? क्योंकि इस की लपटें ऊपर को अच्छी उंचाइयों तक उठती हैं । इस कारण यज्ञग्य स्थान से दूर निवास करने वाले लोग भी इस की अग्नि को देख सकते हैं । इस प्रकार दूर के लोग भी देखते हैं कि अमुक स्थान पर यज्ञ हो रहा है , जिससे उसे यह ज्ञान होता है कि इस स्थान पर निश्चित रूप से किसी का निवास है , निवास ही नही है , वहां निवास करने वाला व्यक्ति जागृत अवस्था में है , इस लिए ही यज्ञ की अग्नि जला रखी है ,। यह सब जानते हुए वह किसी दुर्भावाना से उस घर में प्रवेश करने का साहस नहीं करता ।
४ यज्ञ से उन्नति
इस सब से स्पष्ट होता है कि यह यज्ञ घर की रक्षा करने का साधन है, जहां यज्ञ होता है वह स्थान सदा सुरक्षित रहता है । उस स्थान पर , उस घर में सदा निरोगता बनी रहती है , कोई बीमारी उस घर में नहीं आती , इससे भी वह घर सुरक्षित हो जाता है । इस सब के साथ ही साथ यह घर गति वाला भी होता है । इस घर में सदा उन्नति होती रहती है । सीधी सी बात है , जिस घर में सुरक्षित वातावरण के कारण चोर आदि आने का साहस नहीं करता, रोग का प्रवेश नहीं होता, उस घर में धन का बेकार के कार्यों में प्रयोग नहीं होता , इस कारण इस घर में जीवन रक्षा के उपाय अर्थात रोटी , कपडा आदि की आवश्यकतायें थोड़े से धन से ही पूर्ण हो जाती हैं । शेष जो धन बच जाता है , वह परिवार की समृद्धि को बढाने का कार्य करता है । इससे परिजन उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, उत्तम वस्तुओ को खरीद सकते हैं तथा दान देकर अन्य साधनहीन लोगों की सहायता कर अपना यश व कीर्ति को बढा सकते हैं , सर्वत्र सम्मानित स्थान प्राप्त कर सकते हैं ।
अत: जिस यज्ञ के मानव जीवन में इतने लाभ हैं , उस यज्ञ को तो प्रत्येक मानव को अपने परिवार में प्रतिदिन दो काल अवश्य करना चाहिए तथा यश प्राप्त करना चाहिये ।

डा.अशोक आर्य

जीवन रक्षा के लिए आत्मबल को बनाए रखें

ओउम
जीवन रक्षा के लिए आत्मबल को बनाए रखें
डा. अशोक आर्य
जिस व्यक्ति का आत्मबल मजबूत है , उसे कोई पराजित नहीं कर सकता | आत्मबल ही सब सुखों का आधार है | जिस में आत्म बल नहीं, वह जीवित रहते हुए भी
मृतक के सामान है | कुछ लोग एसे होते हैं , जो प्रति क्षण अपनी ही निंदा करते दिखाईदेते हैं | उनका यह स्वभाव उनमें आत्मबल की कमीं ही दिखाता है | अपने पास
बलवान सेना होते हुए भी आत्मबल विहीन योद्धा रणक्षेत्र में विजयी नहीं होता , जब की आत्मबल का धनी कम सेना होते हुए भी विशाल सेना को नष्ट कर देता है | इस लिए जीवन की उन्नति के लिए , सफलता के लिए आत्म बल को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए | इस समबन्ध में यजुर्वेद तथा सामवेद में मन्त्र इस प्रकार हमें आदेश दे रहा है : –
योनःस्वोअरणोयश्चनिष्ट्योजिघांसति।
देवास्तंसर्वेधूर्वन्तुब्रह्मवर्मममान्तरम्॥ ऋ06.75.19
ऋग्वेद ६.७५.१९ सामवेद १८७२ ||
जब भी कोई हमारा अपना मित्र या कोई परकीय अथवा बाहरिय व्यक्ति हमें नष्ट करना चाहता है तो समस्त देवता उसे नष्ट करें | आत्मबल युक्त में सुरक्षित रहूँ |
ऊपर मन्त्र के भावार्थ से स्पष्ट होता है कि मन्त्र दो बातों की ओर संकेत करता है |
१) जो व्यक्ति दूसरों की हानि करते हैं अथवा दूसरों को मारते हैं , देवता एसे लोगों को नष्ट करें |
अपने स्वार्थ को सम्मुख रखते हुए तथा उसकी पूर्ति के लिए अनेक समय पराये तो पराये अपने भी हानि पहुँचाने के लिए क्रियमाण होते हैं | लोभ मनुष्य का सब से बड़ा शत्रु है | लोभ के कारण शत्रु तो प्राय: विनाश का खेल खेलते ही हैं , अनेक बार यह लोभ अपने मित्रों को , परिजनों को भी शत्रु बना देता है | परिवार की धन सम्पति के प्रश्न पर अनेक बार भाईयों को लड़ते व एक दूसरे को काटते देखा है | भारत में एक जाति तो माता पिता तक को भी नहीं छोड़ती | लोभ के ही कारण औरन्गजेब ने अपने ही जनक , अपने ही पिता बादशाह शाहजहाँ को बंदी बनाकर , उसकी सत्ता को छीन लिया | क्या कमीं थी सत्ता विहीन रहते हुए भी ? सब प्रकार क़ी सुख , संपदा , नौकर ,चाकर उसके पास थे | सब प्रकार के सुख उसे प्राप्त थे किन्तु फिर भी अपने ही पिता को जेल में डाल कर उससे सत्ता छीन कर अपना आधिपत्य स्थापित करने की | यह सब लोभ का ही तो परिणाम है | आज हमारे देश की भी यह ही अवस्था हो रही है | देश के उच्च स्थानों पर बैठे अनेक मंत्रीगण आज जेल की सींखचों में बंद हैं क्योंकि लोभ ने उनका पीछा नहीं छोड़ा | अपार धन के स्वामी होते हुए भी लोभवश धन को प्राप्त करने के लिए गलत मार्ग पर चले व चल रहे हैं | तभी तो माननीय अन्ना हजारे तथा बाबा रामदेव को सरकार के सम्मुख दीवार की भाँती खड़ा होना पड़ रहा है | श्री अरविन्द केजरीवाल जैसे लोगों को कहना पड़ता है कि जो संसद लोकतंत्र का मंदिर होनी चाहिए थी , वह आज भ्रष्टाचारियों का अड्डा बनती चली जा रही है , इसे रोकने का कर्तव्य (जिम्मा) जनता का है | जनता अपने अधिकारों का ठीक प्रयोग कर इसकी अस्मिता की रक्षा करे |
पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे के समय आज भाई अपने ही भाई के अधिकार पर कब्जा जमाने के लिए लड़ता हुआ देखा जा सकता है | इस अवसर पर अनेक संकट खड़े होते हैं | अनेक बार तो कुछ लोग इस अवसर पर अपने जीवन को भी खो बैठते हैं | यह सब क्या है ? यह हमारे अन्दर दुर्गुणों की , दुवासनाओं की सता का ही परिणाम है | जब हम दुर्गुणों को अपने जीवन का अंग बना लेते हैं तो हम उसके एसे ही परिणाम पाते हैं | इन दुर्गुणों के ही कारण हम अपने ही परिजनों के लिए कष्टों का कारण बनते हैं | जब पर्जन ही धन के लोभ में एक दूसरे के विनाश को तत्पर हो सकते हैं तो अन्यों की क्या चर्चा करें ?
अन्य तो होते ही अन्य हैं | वह तो प्रतिक्षण अवसर की ही खोजा में होते है | अवसर पाते ही महाविनाश का कारण बनते हैं | अत: अन्य लोग शत्रु भावना से अथवा लोभ की भावना से दूसरों की धन सम्पदा व भूमि पर बलात अधिकार कर उन्हें हानि पहुँचाने का यत्न करते हैं | मन्त्र कहता है कि जहाँ भी इर्ष्या – द्वेष की भावना है , जहाँ भी लोभ प्रभावी है , वहां एक मनुष्य दूसरे की हानि करने में कभी संकोच नहीं करता | जो व्यक्ति दुर्गुणों तथा दुर्व्यसनों से ग्रसित है , वह कभी दूसरे की सहायता नहीं कर सकता , वह तो दूसरे का विनाश कर उसकी धन सम्पदा का स्वामी बनने का प्रयास करता है | तभी ही तो प्रतिदिन लूटपाट , आगजनीं व कत्लेआम की घटनाएं हमें सुनने को मिलती हैं | कर्मों से नष्ट – भ्रष्ट एसा व्यक्ति ओर कर भी क्या सकता है ? विनाश ही उसका उद्देश्य होता है , विनाश ही उसका जीवन होता है तथा विनाश ही उसका कर्तव्य होता है |
२) ब्रह्म ही आतंरिक शक्ति है
मन्त्र का दूसरा भाग रक्षा का मार्ग बताते हुए कहता है कि वह प्यारा प्रभु ही मेरा आतंरिक कवच है | परमात्मा का अभिप्राय : उस महान प्रभु से है उस ज्ञान से है , उस सत्य से है , उस आत्मबल से है , उस आस्तिकता से है , जिस की शरण में रहते हुए हम अनेक सुखों के स्वामी बन अपने जीवन को रक्षित करते हैं | परमात्मा से रक्षित हो जब हम आत्मबल के स्वामी बन जाते हैं तो सब प्रकार की सम्पति की रक्षा की शक्ति हम में आ जाती है , जब कि आस्तक व्यक्ति सब प्रकार के पापों से स्वयं को रक्षित करने में सक्षम होता है | यह आत्मबल तथा आस्तिकता ही मनुष्य का आतंरिक बल है | जो मानव इन दो शक्तियों का धनी है , उसकी आतंरिक शक्तियां इतनी शक्तिशाली हो जाती हैं कि वह बड़े से बड़े संकट का सामना भी बड़ी सरलता से कर सकता है | जब इन दोनों के साथ ज्ञान और सत्य मिल जाते हैं तो सोने पर सुहागे का काम होता है | ज्ञान और सत्य मानव को बल प्रदान करने वाले होते हैं | इस प्रकार आत्मबल तथा
आस्तिकता के साथ जब सत्य व ज्ञान का मिश्रण हो जाता है तो यह मिल कर मानव का आतंरिक कवच बन जाता है | यह आतंरिक कवच मानव को अन्दर की अनेक बुराईयों से रक्षा का कार्य करता है |

इस प्रकार आतंरिक कवच को धारण कर मानव को उचित रूप से कर्तव्य का बोध होता है , कर्तव्यबोध से मानव सत्य व्यवहार को अपनाता है , सत्याचरण करता है | सत्याचरण से उसके अन्दर आस्तिकता का प्रवेश होता है | यह आस्तिकता ही है , जो मनुष्य को लोभ से बचाती है , यह आस्तिकता ही है जो मानव को द्वेष से रक्षित करती है तथा यह आस्तिकता ही है , जो मानव में लोभ की भावना को बलवती नहीं होने देती , इस कारण ही कहा गया है कि ज्ञान ओर सत्य आत्मा को बल देते हैं तथा यह आत्मबल मनुष्य को आस्तिक बनाता है | इस कारण ही इसे रक्षा कवच कहा गया है | अत: हम आतंरिक इर्ष्या, द्वेष से बचते हुए आत्मबल, आस्तिकता, ज्ञान व सत्य को धारण कर आत्मबल को बलवान बना कर सकल सुखों को प्राप्त करें |
डा. अशोक आर्य