जीवन रक्षा के लिए आत्मबल को बनाए रखें

ओउम
जीवन रक्षा के लिए आत्मबल को बनाए रखें
डा. अशोक आर्य
जिस व्यक्ति का आत्मबल मजबूत है , उसे कोई पराजित नहीं कर सकता | आत्मबल ही सब सुखों का आधार है | जिस में आत्म बल नहीं, वह जीवित रहते हुए भी
मृतक के सामान है | कुछ लोग एसे होते हैं , जो प्रति क्षण अपनी ही निंदा करते दिखाईदेते हैं | उनका यह स्वभाव उनमें आत्मबल की कमीं ही दिखाता है | अपने पास
बलवान सेना होते हुए भी आत्मबल विहीन योद्धा रणक्षेत्र में विजयी नहीं होता , जब की आत्मबल का धनी कम सेना होते हुए भी विशाल सेना को नष्ट कर देता है | इस लिए जीवन की उन्नति के लिए , सफलता के लिए आत्म बल को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए | इस समबन्ध में यजुर्वेद तथा सामवेद में मन्त्र इस प्रकार हमें आदेश दे रहा है : –
योनःस्वोअरणोयश्चनिष्ट्योजिघांसति।
देवास्तंसर्वेधूर्वन्तुब्रह्मवर्मममान्तरम्॥ ऋ06.75.19
ऋग्वेद ६.७५.१९ सामवेद १८७२ ||
जब भी कोई हमारा अपना मित्र या कोई परकीय अथवा बाहरिय व्यक्ति हमें नष्ट करना चाहता है तो समस्त देवता उसे नष्ट करें | आत्मबल युक्त में सुरक्षित रहूँ |
ऊपर मन्त्र के भावार्थ से स्पष्ट होता है कि मन्त्र दो बातों की ओर संकेत करता है |
१) जो व्यक्ति दूसरों की हानि करते हैं अथवा दूसरों को मारते हैं , देवता एसे लोगों को नष्ट करें |
अपने स्वार्थ को सम्मुख रखते हुए तथा उसकी पूर्ति के लिए अनेक समय पराये तो पराये अपने भी हानि पहुँचाने के लिए क्रियमाण होते हैं | लोभ मनुष्य का सब से बड़ा शत्रु है | लोभ के कारण शत्रु तो प्राय: विनाश का खेल खेलते ही हैं , अनेक बार यह लोभ अपने मित्रों को , परिजनों को भी शत्रु बना देता है | परिवार की धन सम्पति के प्रश्न पर अनेक बार भाईयों को लड़ते व एक दूसरे को काटते देखा है | भारत में एक जाति तो माता पिता तक को भी नहीं छोड़ती | लोभ के ही कारण औरन्गजेब ने अपने ही जनक , अपने ही पिता बादशाह शाहजहाँ को बंदी बनाकर , उसकी सत्ता को छीन लिया | क्या कमीं थी सत्ता विहीन रहते हुए भी ? सब प्रकार क़ी सुख , संपदा , नौकर ,चाकर उसके पास थे | सब प्रकार के सुख उसे प्राप्त थे किन्तु फिर भी अपने ही पिता को जेल में डाल कर उससे सत्ता छीन कर अपना आधिपत्य स्थापित करने की | यह सब लोभ का ही तो परिणाम है | आज हमारे देश की भी यह ही अवस्था हो रही है | देश के उच्च स्थानों पर बैठे अनेक मंत्रीगण आज जेल की सींखचों में बंद हैं क्योंकि लोभ ने उनका पीछा नहीं छोड़ा | अपार धन के स्वामी होते हुए भी लोभवश धन को प्राप्त करने के लिए गलत मार्ग पर चले व चल रहे हैं | तभी तो माननीय अन्ना हजारे तथा बाबा रामदेव को सरकार के सम्मुख दीवार की भाँती खड़ा होना पड़ रहा है | श्री अरविन्द केजरीवाल जैसे लोगों को कहना पड़ता है कि जो संसद लोकतंत्र का मंदिर होनी चाहिए थी , वह आज भ्रष्टाचारियों का अड्डा बनती चली जा रही है , इसे रोकने का कर्तव्य (जिम्मा) जनता का है | जनता अपने अधिकारों का ठीक प्रयोग कर इसकी अस्मिता की रक्षा करे |
पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे के समय आज भाई अपने ही भाई के अधिकार पर कब्जा जमाने के लिए लड़ता हुआ देखा जा सकता है | इस अवसर पर अनेक संकट खड़े होते हैं | अनेक बार तो कुछ लोग इस अवसर पर अपने जीवन को भी खो बैठते हैं | यह सब क्या है ? यह हमारे अन्दर दुर्गुणों की , दुवासनाओं की सता का ही परिणाम है | जब हम दुर्गुणों को अपने जीवन का अंग बना लेते हैं तो हम उसके एसे ही परिणाम पाते हैं | इन दुर्गुणों के ही कारण हम अपने ही परिजनों के लिए कष्टों का कारण बनते हैं | जब पर्जन ही धन के लोभ में एक दूसरे के विनाश को तत्पर हो सकते हैं तो अन्यों की क्या चर्चा करें ?
अन्य तो होते ही अन्य हैं | वह तो प्रतिक्षण अवसर की ही खोजा में होते है | अवसर पाते ही महाविनाश का कारण बनते हैं | अत: अन्य लोग शत्रु भावना से अथवा लोभ की भावना से दूसरों की धन सम्पदा व भूमि पर बलात अधिकार कर उन्हें हानि पहुँचाने का यत्न करते हैं | मन्त्र कहता है कि जहाँ भी इर्ष्या – द्वेष की भावना है , जहाँ भी लोभ प्रभावी है , वहां एक मनुष्य दूसरे की हानि करने में कभी संकोच नहीं करता | जो व्यक्ति दुर्गुणों तथा दुर्व्यसनों से ग्रसित है , वह कभी दूसरे की सहायता नहीं कर सकता , वह तो दूसरे का विनाश कर उसकी धन सम्पदा का स्वामी बनने का प्रयास करता है | तभी ही तो प्रतिदिन लूटपाट , आगजनीं व कत्लेआम की घटनाएं हमें सुनने को मिलती हैं | कर्मों से नष्ट – भ्रष्ट एसा व्यक्ति ओर कर भी क्या सकता है ? विनाश ही उसका उद्देश्य होता है , विनाश ही उसका जीवन होता है तथा विनाश ही उसका कर्तव्य होता है |
२) ब्रह्म ही आतंरिक शक्ति है
मन्त्र का दूसरा भाग रक्षा का मार्ग बताते हुए कहता है कि वह प्यारा प्रभु ही मेरा आतंरिक कवच है | परमात्मा का अभिप्राय : उस महान प्रभु से है उस ज्ञान से है , उस सत्य से है , उस आत्मबल से है , उस आस्तिकता से है , जिस की शरण में रहते हुए हम अनेक सुखों के स्वामी बन अपने जीवन को रक्षित करते हैं | परमात्मा से रक्षित हो जब हम आत्मबल के स्वामी बन जाते हैं तो सब प्रकार की सम्पति की रक्षा की शक्ति हम में आ जाती है , जब कि आस्तक व्यक्ति सब प्रकार के पापों से स्वयं को रक्षित करने में सक्षम होता है | यह आत्मबल तथा आस्तिकता ही मनुष्य का आतंरिक बल है | जो मानव इन दो शक्तियों का धनी है , उसकी आतंरिक शक्तियां इतनी शक्तिशाली हो जाती हैं कि वह बड़े से बड़े संकट का सामना भी बड़ी सरलता से कर सकता है | जब इन दोनों के साथ ज्ञान और सत्य मिल जाते हैं तो सोने पर सुहागे का काम होता है | ज्ञान और सत्य मानव को बल प्रदान करने वाले होते हैं | इस प्रकार आत्मबल तथा
आस्तिकता के साथ जब सत्य व ज्ञान का मिश्रण हो जाता है तो यह मिल कर मानव का आतंरिक कवच बन जाता है | यह आतंरिक कवच मानव को अन्दर की अनेक बुराईयों से रक्षा का कार्य करता है |

इस प्रकार आतंरिक कवच को धारण कर मानव को उचित रूप से कर्तव्य का बोध होता है , कर्तव्यबोध से मानव सत्य व्यवहार को अपनाता है , सत्याचरण करता है | सत्याचरण से उसके अन्दर आस्तिकता का प्रवेश होता है | यह आस्तिकता ही है , जो मनुष्य को लोभ से बचाती है , यह आस्तिकता ही है जो मानव को द्वेष से रक्षित करती है तथा यह आस्तिकता ही है , जो मानव में लोभ की भावना को बलवती नहीं होने देती , इस कारण ही कहा गया है कि ज्ञान ओर सत्य आत्मा को बल देते हैं तथा यह आत्मबल मनुष्य को आस्तिक बनाता है | इस कारण ही इसे रक्षा कवच कहा गया है | अत: हम आतंरिक इर्ष्या, द्वेष से बचते हुए आत्मबल, आस्तिकता, ज्ञान व सत्य को धारण कर आत्मबल को बलवान बना कर सकल सुखों को प्राप्त करें |
डा. अशोक आर्य

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