प्रभु हमारे सब मनोरथ पूर्ण करते हैं

प्रभु हमारे सब मनोरथ पूर्ण करते हैं
डा. अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा दयालु हैं । हम सदा उन की दया पाने के लिए यत्न करते हैं । जब उनकी हम पर दया हो जाती है तो वह पिता हम पर अपना अपार स्नेह करते हुए , हमारा ज्ञान का कोष , ज्ञान का खजाना भर देते हैं । इस ज्ञान के खजाने के मिलते ही हमारे सब मनोरथ, सब कामनाएं पूर्ण हो जाते हैं । इस बात को यह मन्त्र इस प्रकार बता रहा है :-
सनोवृषन्नमुंचरुंसत्रादावन्नपावृधि।
अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः॥ ऋ01.7.6
इस मन्त्र में दो बिन्दुओं पर विचर किया गया है :-
१. ज्ञान के भण्डार को खोलो ;-
मन्त्र आरम्भ में ही कह रहा है कि हे प्रभु ! आप हमें वाज व सह्स्रधन अर्थात आप हमें भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार की विजयें , दोनों प्रकार की सफ़लताएं दिलाने का कारण हैं क्योंकि आप हमारे मित्र हो । मित्र सदा अपने मित्र के सुख दु:ख का ध्यान रखता है , उसे सब प्रकार की वह सुख – सुविधायें दिलाता है , जिन की उसे आवश्यकता होती है । यह आप ही हैं , जिसकी मित्रता के कारण हम यह सब प्राप्त कर पाते हैं । इसलिए हम सदा आप का साथ , सदा आप का सहयोग , सदा आप की मित्रता बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं ।
हे सब प्रकार के सुखों को देने वाले मित्र रुप प्रभो ! हे सदा , सर्वदा सब प्रकार के उतम फ़लों – प्रतिफ़लों के देने वाले प्रभो ! आप हमारे लिए उस ज्ञान के कोष को , उस ज्ञान के भण्डार को खोलिए ।
ब्रह्मचर्य का भाव होता है ज्ञान को चरना , ज्ञान में घूमना , ज्ञान में विचरण करना । इस ब्रह्मचारी को आचार्य लोग विविध विषयों का , अनेक प्रकार के विषयों का ज्ञान कराते हैं , ज्ञान का उपभोग कराते हैं , ज्ञान का भक्षण कराते हैं , ज्ञान में घुमाते हैं , इस ज्ञान की सैर कराते हैं । जिस भी वस्तू का भक्षण या चरण किया जाता है जीव उसका चरु बन जाता है । मानव मुख्य रुप से ज्ञान का भक्षण करने के लिए आचार्य के पास जाता है । जब वह इसे पुरी तरह से , समग्र रुप में चरण कर लेता है तो वह ज्ञानचरु हो जाता है , वहां से ज्ञानचरु बन कर निकलता है । जब हम इसे विशालता से देखते हैं , जब हम इसे बढा कर देखते हैं , जब हम इस का अपावरण करके देखते हैं तो इस का प्रकट करना ही वेद ज्ञान का कोश है , वेद ज्ञान का भण्डार है ।
प्रभु क्रपा ही इस ज्ञान के भण्डार को खोलने की चाबी है , कुंजी है । जब तक हमें उस पिता की दया नहीं मिलती , तब तक हम इस ज्ञान का ताला नहीं खोल सकते । इस लिए हम सदा ही उस पिता की दया रुपी वरद ह्स्त पाने का प्रयास करते रहते हैं । ज्यों ही हम उस प्रभु का आशीर्वाद पाने में सफ़ल होते हैं त्यों ही हम इस ज्ञान के भण्डार का ताला खोल कर इसे पाने में सफ़ल हो पाते हैं । हम इसे खोल कर ज्ञान का विस्तार कर पाते हैं ।
२. प्रभु कभी इन्कार नहीं करता ;_
परम पिता परमात्मा प्रतिशब्द से रहित है । वह अपने भक्त के लिए , अपने मित्र के लिए न नामक शब्द अपने पास रखता ही नहीं । उसके मुख से अपने मित्र के लिए , अपने उपासक के लिए , अपने निकट बैठने वाले के लिए सदा हां ही निकलता है , सहयोग ही देता है , मार्ग – दर्शन ही देता है , ज्ञान ही बांटता है , कभी भी नकारात्मक भाव प्रकट नहीं करता । भाव यह है कि जीव प्रभु की प्रार्थना करता है तथा चाहता है कि वह पिता सदा उसको सकारात्मक रुप से ही देखे , कभी नकारात्मक उतर न दे । वह प्रभु हमारी प्रार्थना को सदा ध्यान से सुने ।
परम पिता परमात्मा को सत्रादावन कहा गया है । इसका भाव है वह पिता सदा देने ही वाले हैं , सदा दिया ही करते हैं , बांटते ही रहते हैं किन्तु देते उसे हैं जो नि:स्वार्थ भाव से मांगता है , जो देने के लिए मांगता है । जो दूसरों की सहायता के लिए मांगता है , एसा व्यक्ति ही प्रभु के दान के लिए सुपात्र होता है , एसा व्यक्ति ही प्रभु से कुछ पाने के लिए अधिकारी होता है , एसा व्यक्ति ही उस पिता की सच्ची दया का अधिकारी होता है । यदि पिता की दया प्राप्त हो गयी तो उसे सब कुछ ही मिल गया । अत: मन्त्र के इस अन्तिम चरण में जीव प्रभु से याचना करता है कि हे प्रभो ! हम सदा आप से यह ज्ञान का कोष पाने के अधिकारी बने रहें ।

डा. अशोक आर्य

आत्मा का स्थान-४

आत्मा का स्थान-४
– स्वामी आत्मानन्द
‘‘स य एषोऽन्तर्हृदय आकाशः। तस्मिन्नयं पुरुषो मनोमयः। अमृतो हिरण्मयः। अन्तेरण तालुके। य एष स्तन इवावलम्बते सेन्द्रयोनिः। यत्रासौ केशान्तो विवर्तते। व्यपोह्य शीर्षकपाले। भूरित्यग्नौ प्रतितिष्ठति। भुव इति वायौ। सुवरित्यादित्ये। मह इति ब्रह्मणि। आप्नोति स्वाराज्यम्। आप्नोति मनसस्पतिम्। वाक्पतिश्चक्षुष्पतिः श्रोत्रपतिः विज्ञानपतिः। एतत्ततो भवति। आकाशशरीरं ब्रह्म। सत्यात्मप्राणारामं मन इत्यानन्दम्। शान्तिसमृद्धममृतम्। इतिप्राचीन योग्योपास्स्व।’’ (तैत्तिरीय. शिक्षा. षष्ठ अनुवाक १, २)
अर्थात् (जो कि यह हृदय के अन्दर आकाश है। उस में यह पुरुष मनोमय हो कर प्रविष्ट है। अर्थात् जब यह अन्नमय कोश का विवेक कर, उस से ऊँचा उठ, प्राणमय कोश में प्रवेश करता है और उसका भी विवेक कर उस से भी ऊँचा उठ मनोमय सत्त्वप्रधान कोश में प्रतिष्ठित होता है तब इस हृदय में प्रवेश करता है। जब यह इस हृदय में प्रवेश करता है तो इसका स्वरूप प्रकाशमय होता है, और अमृत होता है अर्थात् अब यह अपने प्रकाशमय स्वरूप से च्युत नहीं होता। यह हृदय कहाँ है? इस का उत्तर महर्षि, चिन्हों का निर्देश करते हुए आगे चल कर देते हैं।)
हमारे तालु के अन्दर जो यह स्तन जैसा लटक रहा है। यह ही उस ऐश्वर्य सम्पन्न हृदय के निर्माण की आधार शिला है यह हृदय वहाँ ही है जहाँ शिर के कपाल स्थान को छोड़कर मुण्डन किया जाता है। यहाँ यह मनोमय विशिष्ट आत्मा ‘‘भूः’’ इस व्याहृति के द्वारा अग्नि के प्रकाश में, ‘‘भुवः’’ इस व्याहृति के द्वारा अग्नि के प्रकाश में, ‘‘भुवः’’ इस व्याहृति के द्वारा अन्तरिक्ष के विद्युत के प्रकाश में ‘‘स्वः’’इस व्याहृति के द्वारा द्युलोक में आदित्य के प्रकाश में प्रतिष्ठा पाकर- अर्थात् योग साधनों द्वारा इन सब प्रकाशों से क्रम से पार होता हुआ ‘‘महः’’ इस व्याहृति के द्वारा इस हृदय में ब्रह्म में प्रतिष्ठित होता है। तब यह स्वराज्य को प्राप्त होता है-अर्थात् मन, वाणी, श्रोत्र और विज्ञान का स्वामी बनता है। उस समय वह ऐसा प्रतीत करता है कि आकाश को शरीर बना कर ब्रह्म सर्वत्र फैला हुआ है। यह सत्य रूप है। जगत्प्राण इस के निमन्त्रण में है। इस का मनन आनन्द रुप है। यह शान्ति का भण्डार है। यह अमर है। हे! प्राचीन योग्य इस ब्रह्म की उपासना कर।
पाठक समझ गये होंगे कि जिस हृदय का इस प्रसङ्ग में व्याख्यान किया गया है, वह हमारे तालु के ऊपर के भाग में शिर में है। उसी का नाम शिर का लघु छिद्र है जहाँ वह विराजमान है। उसी में पहुँच कर आत्मा उस महान् प्रकाश के दर्शन करता है जो उन सब प्रकाश से श्रेष्ठ है जिन के वह दर्शन करता हुआ अन्त में यहाँ पर पहुँचा है।
इस प्रकार उपनिषदों के आधार पर हमारे शरीर में दो हृदय सिद्ध होते हैं। एक स्तन के नीचे छाती के वाम भाग में और दूसरा तालु के ऊपर शिर में।
इस प्रसंग से यह भी स्पष्ट हो गया कि आत्मा मन के ऊपर अधिकार करने के बाद ही विज्ञान और आनन्द की प्राप्ति के लिये इस हृदय में पहुँचता है। इस से पहिले वह दूसरे हृदय में ही रहता है। यहीं पहुँच कर उसे ब्रह्मज्ञान होता है।
इसी विषय को स्पष्ट करने वाला उपनिषद् का एक और प्रसङ्ग हम आगे उद्धृत करते हैं।
शतं चैका च हृदयस्य नाड्यास्तासां मूर्धानमभिनिः सृतैका।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विश्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति।।
(कठ. २/६/१६)
इस के साथ ही मिलता हुआ छान्दोग्य का यह प्रसङ्ग भी है।
शतं चैका च हृदयस्य नाड्यास्तासां मूर्धानमभिनिः सृतैका।
तयोर्ध्यमायन्नमृतत्वमेति विष्वङ्ङन्या उतक्रमणे भविन्त।
(छा. ८/६/३)
(हृदय की १०१ नाड़ियाँ हैं। उन में से एक मूर्धा की ओर गई है। उस के द्वारा आत्मा ऊपर जाकर अमृत को प्राप्त होता है। शेष सब नाड़ियाँ उस के उत्क्रमण में सहायक होती हैं।)
आचार्य यम और महर्षि याज्ञवलक्य के इन वचनों से स्पष्ट हो जाता है, कि एक ऐसी नाड़ी है जिस का छाती वाले हृदय और मूर्धा के हृदय दोनों से सम्बन्ध है। एक ऐसा अवसर आता है कि आत्मा का उस नाड़ी के द्वारा मूर्धा के हृदय में उत्क्रमण होता है। वह अवसर ऊपर आये प्रसङ्गों के अनुसार आत्मा का मन के ऊपर अधिकार होने के बाद ही आता है। इस प्रकार आत्मा का मन के ऊपर अधिकार होने से पहिले उस का नीचे के हृदय में ही निवास रहता है ऐसा मानना पड़ता है।
हृदय की इन नाड़ियों के रङ्ग रूप का वर्णन करते हुए महर्षि याज्ञवल्कय अन्यत्र लिखते हैं-
‘‘अथ या एता हृदयस्य नाड्यस्ताः पिङ्गलस्याणि- म्नस्तिष्ठन्ति शुक्लस्य नीलस्य पीतस्य लोहितस्येत्यसौ वा आदित्यः पिङ्गल एष शुक्ल एष नील एष पीत एष लोहितः’’।
– (छान्दोग्य ८/६/१)
(अब जो कि ये हृदय की नाडियाँ हैं, वे पिङ्गल वर्ण, शुक्ल वर्ण, नील वर्ण, पीत वर्ण और रक्त वर्ण की हैं, अत्यन्त सूक्ष्म हैं। यह सूर्य भी पिङ्गल, शुक्ल, नील, पीत और लाल रङ्ग का है। )
इस प्रसङ्ग में महर्षि ने नाड़ियों के रूप और उन की आकृति का वर्णन किया है। सूर्य को यहाँ दृष्टान्त के रूप मे उपस्थित किया गया है। इन्द्र धनुष में सूर्य की किरणों का जो रूप दृष्टिगोचर होता है, इन नाड़ियों में उसी रूप की झलक दिखलाई गई है। इन नाड़ियों को सूर्य की किरणों की उपमा इन की सूक्ष्मता को स्पष्ट करने के लिये भी दी गई है। इसी प्रसङ्ग में आगे चलकर मृत्यु के बाद सूर्य में ही इन नाड़ियों का लय भी कहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि जिन के बीच में आत्मा का निवास है वे हृदय की नाड़ियाँ सूर्य की किरणों के समान अत्यन्त सूक्ष्म है। चीर फाड़ में इसका पता ही नहीं लगता अतः शारीरिक में इन की गणना भी नहीं की जा सकी। जिन महर्षियों ने इन की गणना लिखी है उन्होंने योग समाधि में इनका प्रत्यक्ष किया होगा।
जिस प्रकार बाहर के जगत् में तीन लोक माने जाते हैं वैसे ही हमारे इस शरीर में भी तीन लोक हैं। छाती से नीचे पैरों तक का शरीर का भाग भूलोक है। छाती और उसके ऊपर का सारा धड़ अन्तरिक्ष लोक है। और गले से ऊपर का शिर का सारा भाग द्युलोक है। जिस बाहर के द्युलोक में सूर्य चमक रहा है और तीनों लोकों को प्रकाशित कर रहा है, इसी प्रकार हमारे अन्दर के द्युलोक में भी एक सूर्य चमक रहा है जो कि अन्दर के तीनों लोकों को प्रकाशित कर रहा है। वह सूर्य हमारे शरीर के हृदयाकाश में एक ज्योति पुञ्ज के रूप में चमक रहा है जिसका कि प्रसिद्ध नाम सहस्रार चला है। शरीर के सब विज्ञान तन्तुओं को इसी से प्रकाश मिल रहा है।
जिस प्रकार सूर्य एक प्रकाश पुञ्ज दृष्टिगोचर हो रहा है और उसके चुंधिया देने वाले प्रबल प्रकाश के अन्दर विभिन्न नील पीत आदि रंग देखने में नहीं आते, परन्तु उन विभिन्न रंगों को हम इन्द्रधनुष आदि में स्पष्ट देखते हैं, इसी प्रकार इस अपने हृदयाकाश के सूर्य में भी अभ्यासियों को एक पुञ्जित श्वेत प्रकाश ही दृष्टि गोचर होता है परन्तु सुषुम्णा आदि के विज्ञान तन्तुओं में यह विभिन्न रूपों में चमकता हुआ अभ्यासियों ने देखा है। इसलिये यह सूर्य ही हमारे बाहर के सूर्य का प्रतिनिधि है अथवा उसी के उपादान तत्त्व से इस का निर्माण हुआ है। हमारे हृदय की नाड़ियों में इसी सूर्य का प्रकाश विभिन्न रूपों में चमक रहा है।
इस प्रसङ्ग को पढ़ कर हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि हमारे हृदय की अनेक रंगों में चमकती हुई अत्यन्त सूक्ष्म नाड़ियाँ हैं।
यमाचार्य और महर्षि याज्ञवल्क्य ने हृदय की इन नड़ियों का वर्णन संक्षेप में किया है। प्रश्न उपनिषद् में महर्षि पिप्पलाद ने इन का व्याख्यान शाखा प्रशाखाओं में जाकर और भी विस्तार से किया है। वह प्रसङ्ग भी पाठकों के परिचय के लिये हम आगे उद्धृत करते हैं।
आत्मन एष प्राणो जायते यथैषा पुरुषे छाया एतस्मिन्नेतदातं। मनोकृतेनायात्यस्मिञ्छरीरे।।
(प्रश्न ३/३)
हृदि ह्येष आत्मा। अत्रैतदेकशतं नाडीनां तासां शतं शतमेकैकस्यां द्वासप्ततिर्द्वासप्ततिः प्रतिशाखा-नाड़ीसहस्राणि भवन्ति आसु व्यानश्चरति।(प्रश्न ३/६)
पायूपस्थेऽपानं चक्षुः श्रोत्रे मुखनासिकाभ्यां प्राणःस्वयं प्रातिष्ठते, मध्ये तु समानः (प्रश्न ३/५)
अथैकयोर्ध्व उदानः पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्। ’’
(प्रश्न ३/७)
(इस प्राण की आत्मा से उत्पत्ति होती है)(आत्मा यहाँ निमित्त कारण है उपादान नहीं) जैसे यह पुरुष की छाया सदा पुरुष के साथ ही रहती है इसी प्रकार यह प्राण भी छाया की तरह पुरुष के साथ ही एक योनि से दूसरी योनि में जाता है। यह प्राण इस आत्मा के ही आधीन है। इस शरीर में यह मन के नियन्त्रण में रहता हुआ आता है।
यह आत्मा हृदय में है। इस हृदय में एक सौ नाड़ियाँ हैं। फिर उनकी एक-एक शाखा में सौ-सौ नाड़ियाँ और हैं। और फिर उनकी एक-एक शाखा में बहत्तर-बहत्तर हजार नाड़ियाँ और हैं। इन सब नाड़ियों में प्राण के एक भाग व्यान का संचार रहता है।
मल स्थान और मूत्र स्थान में प्राण के दूसरे भाग अपान का, और चक्षुः श्रोत्र, मुख और नासिका में स्वयं प्राण का संचार रहता है। शरीर के मध्य भाग में प्राण के एक भाग समान का अधिकार है।
और एक नाड़ी जो ऊपर की ओर गई है उस पर उदान प्राण का अधिकार है। यह उदान ही अन्त में इस नाड़ी के द्वारा आत्मा के उत्क्रमण में सहायक होता है। यह आत्मा को पुण्य के प्रताप से पुण्य लोक में, (जहाँ सुख अधिक है ऐसी योनि में) पाप के प्रताप से पाप लोक में, (जहाँ दुःख अधिक है ऐसी योनि में)और पाप तथा पुण्य के समान होने पर मनुष्य लोक में (जहाँ सुख दुःख दोनों समान मिलें ऐसी योनि में) आत्मा को ले जाता है।
उत्क्रमण में सहायक सौ से भिन्न एक सौ एकवीं नाड़ी प्रथम दोनों प्रसङ्गों में भी थी, और इस प्रसङ्ग में भी है। इतना भेद है कि वहाँ आत्मा का मन के ऊपर अधिकार होने से उत्क्रमण ब्रह्मरन्ध्र की ओर हुआ था। और यहाँ अधिकारी न होने से उत्क्रमण किसी अन्य योनि के लिये है। यहाँ शाखा प्रशाखाओं की नाड़ियों की भी गणना की गई है और वहाँ नहीं की गई थी। और यहाँ इन नाड़ियों पर व्यान के संचार का भी निर्देश किया गया है, वहाँ नहीं किया गया था। उत्क्रमण नीचे के हृदय से ही हो सकता था अतः यहाँ भी आत्मा का स्थान नीचे वाला हृदय ही माना गया है।
‘अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः। तं स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुञ्जादिवेषीकां धैर्येण तं विद्याच्छुक्रममृतम्, तं विद्याच्छुक्रममृतमिति।’
(कठ. २/३/१७)
(अङ्गुष्ठ परिमाण वाला अन्तरात्मा प्राणियों के हृदय में सदा समीप है। उसे अपने इस शरीर से पृथक् करो। जैसे कि मूंज से सींक को पृथक् किया जाता है। अब उसे स्वच्छ और मरण के बन्धन से पृथक समझो।)
इस प्रसङ्ग में भी आत्मा को नीचे के हृदय में ही बतलाया गया है। उसने अभी अपने मन पर अधिकार कर आत्मा को शरीर से पृथक नहीं समझा। और इसलिये उसे ऐसा करने का उपदेश दिया जा रहा है। इस अनुष्ठान के बाद ही उसे उत्क्रमण का और ऊपर के हृदय में जाने का अधिकार होगा।
इस प्रसङ्ग में आत्मा का परिमाण अङ्गुष्ठ मात्र कहा है। परन्तु आत्मा का परिमाण अणु है जैसा कि हम आगे चल कर स्पष्ट करेंगे उस का आश्रय स्थान अङ्गुष्ठ जितना है, इसलिये उसे अङ्गुष्ठ मात्र कह दिया गया है।
अन्यत्र भी आया है-
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः।
हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।
(श्वेताश्वतर ३/१३)
(अङ्गुष्ठ जितना बड़ा अन्तरात्मा पुरुष प्राणियों के हृदय में सदा रहता है। मन पर अधिकार करने वाला आत्मा हृदय में रहने वाले मन से सावधान हो कर जब अपने आप को हृदय में जान लेता है अर्थात् हृदय से पृथक् समझ लेता है। तब वह अमर होने का अधिकारी होता है) यहाँ भी अङ्गुष्ठ मात्र परिमाण का वह ही भाव है। ब्रह्म को जानने से पहिले अपने स्वरूप को जाने यह निर्देश है।
क्रमश…….

अकबर की औछी हरकत

अकबर की महानता का गुणगान तो कई इतिहासकारों ने किया है लेकिन अकबर की औछी हरकतों का वर्णन बहुत कम इतिहासकारों ने किया है
अकबर अपने गंदे इरादों से प्रतिवर्ष दिल्ली में नौरोज का मेला आयोजित करवाता था जिसमें पुरुषों का प्रवेश निषेध था अकबर इस मेले में महिला की वेष-भूषा में जाता था और जो महिला उसे मंत्र मुग्ध कर देती थी उसे दासियाँ छल कपटवश अकबर के सम्मुख ले जाती थी एक दिन नौरोज के मेले में महाराणा प्रताप की भतीजी छोटे भाई महाराज शक्तिसिंह की पुत्री मेले की सजावट देखने के लिए आई जिनका नाम बाईसा किरणदेवी था जिनका विवाह बीकानेर के पृथ्वीराज जी से हुआ
बाईसा किरणदेवी की सुंदरता को देखकर अकबर अपने आप पर काबू नही रख पाया और उसने बिना सोचे समझे दासियों के माध्यम से धोखे से जनाना महल में बुला लिया जैसे ही अकबर ने बाईसा किरणदेवी को स्पर्श करने की कोशिश की किरणदेवी ने कमर से कटार निकाली और अकबर को ऩीचे पटकर छाती पर पैर रखकर कटार गर्दन पर लगा दी और कहा नींच… नराधम तुझे पता नहीं मैं उन महाराणा प्रताप की भतीजी हुं जिनके नाम से तुझे नींद नहीं आती है बोल तेरी आखिरी इच्छा क्या है अकबर का खुन सुख गया कभी सोचा नहीं होगा कि सम्राट अकबर आज एक राजपूत बाईसा के चरणों में होगा अकबर बोला मुझे पहचानने में भूल हो गई मुझे माफ कर दो देवी तो किरण देवी ने कहा कि आज के बाद दिल्ली में नौरोज का मेला नहीं लगेगा और किसी भी नारी को परेशान नहीं करेगा अकबर ने हाथ जोड़कर कहा आज के बाद कभी मेला नहीं लगेगा उस दिन के बाद कभी मेला नहीं लगा
इस घटना का वर्णन गिरधर आसिया द्वारा रचित सगत रासो मे 632 पृष्ठ संख्या पर दिया गया है बीकानेर संग्रहालय में लगी एक पेटिंग मे भी इस घटना को एक दोहे के माध्यम से बताया गया है
किरण सिंहणी सी चढी उर पर खींच कटार
भीख मांगता प्राण की अकबर हाथ पसार
धन्य है किरण बाईसा उनकी वीरता को कोटिशः प्रणाम

विज्ञान और परमात्मा

विज्ञान और परमात्मा

-डॉ. स्वामी सत्यप्र्रकाश ‘सरस्वती’

प्रस्तुत लेख श्री क्षितीश वेदालंकार जी की पुस्तक ‘‘ईश्वर’’ में स्वामी सत्यप्रकाश जी द्वारा लिखित भूमिका से लिया गया है, इस भूमिका में लेखक ने ईश्वर की सत्ता को बड़े ही दार्शनिक और वैज्ञानिक तथ्यों से सिद्ध किया है। ‘‘परोपकारी’’ के सुधी पाठक भी इसका लाभ ले सकें, एतदर्थ यह भूमिका लेख के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है।  -सम्पादक

हम सब एक बृहद् सृष्टि के  परिवार हैं। बसे हमने आँखें खोलीं, हमने अपने शारीरिक तन्त्र को रचा हुआ पाया, और जिस वातावरण में हमने अपने पहले श्वास लिये, उसे भ्ज्ञी पहले से विद्यमान पाया। हमारे अवतरण से पूर्व हमारे ही ऐसे अनेक सदस्य इस संसार में थे-हम अकेले न थे। जिस सृष्टि में हम आये वह भी बदलती हुई एक सत्ता थी, और हमारे शरीर का समस्त तन्त्र भ्ज्ञी बदलता हुआ एक यथार्थ, भावपूर्ण तथ्य था। हमारा समस्त परिवार एक-दूसरे के साथ ग्रथित था। यदि हमारे शरीर पर दो छोटी-सी आँखें थीं, तो उन आँखों को सार्थकता प्रदान करने वाला लाखों मील दूर हमारा सूर्य था, और उससे भी कहीं दूर टिमटिमाते हुए तोर थे, जिन्हें हमने अपनी छोटी-छोटी आँखाों से देखा हमारे शरीर के दायें-बायें दो कान थे, जिन्हें सार्थक करने के लिए दूर-दूर से आती हुई हमें ध्वनि सुनाई पड़ने लगी-मानों जिसने हमारे कानों को रचना है, उसकी ने धवनि-उत्पादक स्रोतों में ध्वनि के आविर्भाव की क्षमता भी दी हो। हमारे पास एक जिह्वा थी, जिसकी चमत्कारी रचना उन स्वादों से सम्बद्ध थी, जो वृक्षों के फलों में विद्यमान थे। ऐसा लगता है कि जिस सत्ता के कारण स्वादों का निर्माण हुआ, उसी सत्ता ने इन स्वादों की स्पष्ट अनुभूति के लिए यह रसनेन्द्रिय बनाई हो। यही अवस्था हमारे घ्राणेन्द्रिय की थी। इस इन्द्रिय की सार्थकता के लिए गुलाबादि में सुगन्ध और अनेक पदाथर्ों में दुर्गन्ध अभिव्यक्त हुई। माता के जिस गर्भ में अन्धकार ही अन्धकार था उसमें बैठा हुआ कोई कुशल तत्वदर्शी इन इन्द्रियों का निर्माण कर रहा था। और स्पष्ट है कि उस कलाकार को बाहर के जगत् का पूर्ण या पर्याप्त परिचय प्राप्त था। क्यों न हम यह कहें कि जिसने बाहर के जगत् में हमारे अवतरसण से पूर्व विविध संवेदनाओं को झंकृत करने की सामर्थ्य रखने वाली भावपूर्ण सृष्टि का निर्माण किया हो, उसी कुशली ने इन संवेदनाओं को अभिव्यक्ति करने वाली हमारी इन्द्रियों को भी जन्म दिया।

विज्ञान का मूलबिन्दू हम स्वयं हैं। न जाने किसके अनुग्रह से हम ज्ञाता बन गए, और समस्त सृष्टि ज्ञेय बन गयी। जिसके ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, वह पशु है-जो देखे सो पशु है-पशुः पश्यतेः (निरुक्त, ३.१६), पदपश्यत् तस्मादेते पशवस्तेष्वेतमवश्यत् तस्मादधेवैते पशवः (शत. ६.२.१.४), पश् धातु का अर्थ देखना है, अतः जो देखे सो पशु। समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ हमें दिखााती हैं अर्थात् बताती हैं कि कौन चीज कैसी है और कहाँ है। समस्त इन्द्रियों के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान का नाम प्रत्यक्ष है। आँखाते इस इन्द्रियों में सबसे प्रधान है। अतः सभी पशु अपनी ज्ञानेन्द्रियों से काम लेते हैं, इस अर्थ में वे सब ज्ञाता हैं, और उनके लिए भी यह जगत् कुछ अर्थों में ज्ञेय है।

किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्यको ही-केवल मनुष्य को-यह गौरव प्राप्त है कि उसका ज्ञान ‘‘ज्ञान, तत्वज्ञान या विज्ञान’’ कहलावे, और एक मात्र मनुष्य ही ‘‘ज्ञानी, तत्वदर्शी और वैज्ञानिक’’ कहला सकता है। मनुष्य जाति के सभी मनुष्य ज्ञानेन्द्रियों का सम्यक् प्रयोग करते हुए भी ज्ञानी या वैज्ञानिक नहीं हैं-लाखों में दो-चार ही व्यक्ति कठिनता से ऐसे निकलेंगे जिन्हें हम यथार्थता से वैज्ञानिक कह सकते हें। ज्ञानेन्द्रियों की सहायात से कुछ अनुभूमितयों या संवेदनाओं केा प्राप्त कर लेना ही ज्ञान नहीं है, ज्ञान में एक सम्यक् दृष्टि होती है, सम्न्वयात्मक, ऊहापोह से परिपुष्ट, कृति के भीतर छिपी हुई कला केा कलाकार तक प्रेरित करने वाली। ऐसी ही दृष्टि मनुष्य को वास्तविक अर्थ में द्रष्टा या तत्वदर्शी बनाती है। कला की जो विवेचना विवेचक को कलाकार तक न पहुँच सके, वह अधूरी या एकांगी है। इसी प्रकार सृष्टि का जो विवेचन या अध्ययन सृष्टि कर्त्ता तक हमको न पहुँचा सके वह भी एकांगी है। ऋषि, दार्शनिक, वैज्ञानिक या तत्ववेत्ता वस्तुतः वही है जो सृष्टि के सौन्दर्य से, उसके भीतर छिनपी गम्भीर कला से परिचित होने का प्रयास करे और कला के निमित्त-कारण-परम कलाकार या सृष्टि-रचियता-से हमारा परिचय करावे जिस सृष्टि में हम रहते हें वह प्रत्येक विभा या आयाम (डाइमेंसन) में महीयसी है, सृष्टि से भी महीयसी वह कला हे जो सृष्टि की नियामिका है, और इस कला से भी अधिक महान् वह कलाकार है जिसने प्रकृति कू उपादानत्व पर इस महीयसी रचना की अभिव्यक्ति की है। वैज्ञानिक की आस्था ऐसी ही आस्तिकता में है। पूर्व के समस्त ऋषि और आज के भी वैज्ञानिक इसी आस्था का सहारा लेकर नये-नये रहस्यों का उद्घाटन करते आ रहे हैं।

वैज्ञानिक आस्तिकता ही आस्तिकता है, शेष आस्तिकतायें अन्धविश्वास हैं। हमने अभी कहा कि प्रकृति की उपादनता पर सृष्टि-रचयिता की कला का अध्ययन करने वाला व्यक्ति वैज्ञानिक है। सीमित क्षेत्र में यह वैज्ञानिक साधारण जिज्ञासु की संज्ञा प्राप्त करताहै। उसके लिए सृष्टि ज्ञेय है, यह सत् है। इसी भ्ज्ञावना से प्रेनिरत होकर वह जिज्ञासा के क्षेत्र में अवतरित होता है। उसकी परम आस्था है कि सृष्टि में क्रम है, सम्बद्धता है, सृष्टि रचना में अभिप्राय भी है और प्रयोजन भ्ज्ञी। सृष्टि उन नियमों से सञ्चालित होती है, जिनमें देश और काल का बाँध नहीं है। वैज्ञानिक अपनी समस्त सीमाओं, और निर्बलताओं केा लेकर सृष्टि का अध्ययन आरम्भ करता है, सृष्टि भी वैज्ञानिक की तपस्या और आस्था पनर विभोर होकर धीरे-धीरे अपने समस्त गुह्य रहस्य वैज्ञानिक के समक्ष अभिव्यक्त करने लग जाती है, हरण्यमय पात्र ढँका हुआ सत्य नग्न रूप में वैज्ञानिक से प्रति अनवृत होने लगता है। ऋषियों ने भ्ज्ञी तपस्या, सत्य, श्रद्धा और दीक्षा द्वारा इन रहस्यों का साक्षात्कार किया। वे आदि वैज्ञानिक थे और उनकी परम्परा में आज के वैज्ञानिक भी सृष्टि-सम्बन्धी जिज्ञासाओं के समाधान में लगे हुए हैं। इस श्रृंखला का अन्तिम छोर कभी नहीं मिलेगा- सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। ब्रह्म सत्यस्वरूप है, जो सत्य है वही ज्ञान है, वही विज्ञान है, और यह ज्ञान अनन्त है, असीम है, ओर सृष्टि का आदि कारण प्रभु इसी अर्थ में अनन्त है, और ब्रह्म है। प्रभु के असीम, अनन्त और ब्रह्म (या बृहत्) होने का अनुमान करना हो, तो विज्ञान की उपलब्धियों को देखिए। विज्ञान ने ज्ञानोपार्जन के अनेक युगों में जो कुछ थोड़ी-सी उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं (अणु और महान् दोनों की दिशाओं में), वे प्रभु रचना के विराट् भाव का कुछ भी आभास कराती हैं। कितनी दूर तक हमने आँखों से देखा, आँखों से भी अधकि दूर हमने दूरबीनों से देखा, दूरबीनों की विमाओं से भी अधिक दूर हमने अपने अत्याधुनिक यन्त्रों से देखा, सब जगह एक-से ही नियमों श्पर आधारित प्रभु की कला को पाया, और प्रभु के असीम और अनन्त होने की छोटी-सी झांकी हमने ली। वैज्ञानिक जिन-जिन क्षेत्रों में आगे बढ़ता गया, वहाँ उसने प्रभु के सत्य-समीचीन नियमों और प्रयोजनों को पहले से ही विद्यमान पाया। सूक्षमता के क्षेत्र में भ्ज्ञी कपिल और कणाद से लेकर आज तक के वैज्ञानिक ने जो कुछ पता लगाया है, वह भी उतना ही विस्मसयकारक है, जितना कि बृहद् परिणाम के  जगत् के सम्बन्ध में। किसी युग में कहा जाता था कि ‘‘जहाँ न जाय रवि, वहाँ जाय कवि’’ पर कवि की कल्पनाओं के भी पार आज का क्रान्तिदर्शी तत्वदर्शी वैज्ञानिक पहुँच गया है।

विज्ञान की यह उपलब्धियाँ यदि किसी को प्रभु का साक्षात् नहीं करा सकतीं,ाते ऐसे नादान व्यक्तियों को मनुष्य की रची मूतियों और चित्रकारों के चित्र कैसे दर्शन करायेंगे, और उनकी किसी तर्क से सन्तुष्टि होगी।

अंकुरण, विकास, उत्सर्ग और लय इन चार की श्रृंखलाओं का नाम हीतो सृष्टि है। इसी अर्थ में सृष्टि गतिशील या परिवर्तनशील है-पैदा हुई, बढ़ी, और फिर नष्ट हुई (इनिशिएशन, ग्रोथ एण्ड डिके), यह प्रतिक्षण की घटना है, और चेतन जगत् में प्रति कण की, अर्थात् सृष्टि का प्रत्येक कण प्रतिक्षण परिवर्तनशील, अस्थिर या गतिमान है। सृष्टि के प्रवाह में ये तीन चरण हैं, तीनों का परस्पर सम्बन्ध है। बीज बोया गया, कुछ उसमें से नष्ट हुआ, कुछ उसमें निकला और बढ़ा, और यही बीजांकुरण से लेकर विशाल वृक्ष तक के जीवन का इतिहास है। अन्त में यह विशाल वृक्ष भी कारणभाव में आकर विलुप्त हो गया।

संसार परिवर्तनशील है, इसकी उत्पत्ति हाती है, फिर विकास और फिर विनाश, और इसीलिए यह ज्ञेय है, यह वैज्ञानिक की आस्था है। वैज्ञानिक इन परिवर्तनों का ही अध्ययन करता है, चाहे वह रसायनज्ञ हो, या भौतिकी-विद्, चाहे वह प्राणिशास्त्री हो, और चाहे ज्योतिर्विद। वह ऐसी नियामक सत्ताा में विश्वास करता है, जो समस्त परिवर्तनों को एक सूत्र में बाँधती है-‘‘सूत्रं सूत्रस्य यो विद्यात् स विद्यात् ब्राह्मणं महत्’’ (अथर्व. १०.८.३७)। वह सृष्टिरचना को भी प्यार करता है और उसका यह प्यार आकस्मिक नहीं है, भावुकता से भ्ज्ञी उत्पन्न नहीं। यह प्यार उसके निरन्तर अध्ययन का परिणाम है। यही उसकी आस्तिकता है।

संसार परिवर्तनशील है, इसीलिए उसकी अनुभूति हो सकती है। जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न हो, वह इन्द्रियों की अनुभूति से परे है। हम देखते या सुनते ही तब हैं, जब अणु में से ऊर्जा का विसर्जन होता है, और यह विर्सजन तब ही होगा, जब परिवर्तन होगा।

वैज्ञानिक की आस्था इन्द्र में भी है, इन्द्रिय में भी, और इन्द्रियजन्य ज्ञान में भी। इन्द्रियजन्य ज्ञान का आधार परिवर्तन है। वैज्ञानिक के लिए परिवर्तन परमात्मा की परम चेतना से ही अनुप्राणित होते हैं। उस प्रेरणा की ओर ही छोटा-सा संकेत ‘केन उपनिषद्’ में प्रश्नों की सुन्दर श्रृंखला में घोषित किया गया है-‘केनेषितं पंतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः’ पुराने ऋषियों की आस्तिकता भी ‘जगत्यां जगत्’के अध्ययन पर अवलम्बित थी।

अद्वैतवादियों या नवीन वेदान्तियों का यह तर्क है कि जो परिवर्तनशील है, वह मिथ्या है, तुच्छ है, हेय है। वैदिक तत्त्वज्ञान की यह आस्था नहीं है। यह सृष्टि-रचना अभ्यास, या स्वप्न नहीं है यह यथार्थ सत्य है, इसका प्रयोजन है, प्रभु द्वारा प्रदत्त ये इन्द्रियाँ भ्रमोन्मूलक नहीं हैं, इनके द्वारा भी तत्वज्ञान प्राप्त करना है, और यह तत्वज्ञान आस्तिकता से परिपुष्ट होने पर हमें बन्धन से मुक्ति दिलाने में सहायक और श्रेष्ठ कारण बनेगा। वेद का समस्त ज्ञान ‘‘इहलोक’’ में रहने वाले बुद्ध प्राणि के लिए ही है, और अन्ततोगत्वा मानव-शरीर का यह बन्धन ही परम पद की प्राप्ति और मुक्ति में सहायक बनेगा। वैज्ञानिक भी अपने-अपने क्षेत्र में प्रभु के इस रहस्यमय ज्ञान को समझने का छोटा-सा प्रयास कर रहा है।

वैज्ञानिक इस सृष्टि को व्यवहारलोक और परमार्थलोक-इन दो वर्गों में विभाजित नहीं करता है। ज्ञान-विज्ञान का कितना भी विकास क्यों न हो, वह ज्ञाता और ज्ञेय के सापेक्ष्य से ऊपर नहीं उठ सकता। यह सापेक्षता ‘‘ज्ञेय’’ के अभाव को सिद्ध नहीं करती-यह ज्ञाता, ज्ञेय और एक तीसरी सत्ता जिसने ज्ञाता को ज्ञज्ञ्क्न के परिमित साधन दिए हैं- इन तीनों के सत्य अस्तित्व पर निर्भर है। समस्त वैज्ञानिक और इसी प्रकार प्राचीन-अर्वाचीन सभी ऋषि कितने  बड़े ज्ञानी क्यों न हों, पूर्णता के सापेक्ष में छोटा-सा ही (अपूर्ण और अपरिमित) व्यक्तित्व रखते हैं-इन्हीं की शास्त्र में आत्मा या जीव संज्ञा है। प्रकृति के उपादानत्व पर परमस्रष्टा प्रभु की अभिव्यक्ति अनन्त एवं अपरिमित कला का नाम ही सृष्टि है, और प्रभु ही वह परम सत्ता है, जिसने जीव ऐसी लघु चेतनता को ज्ञान के इन्द्रियादि साधन (इन्द्रियों पर निर्भर प्रत्यक्षादि प्रमाण और अन्तःकरण की परिमित अनुभूतियाँ) प्रदान किये हैं। जीवन अपनी अल्प चेतना और परिमित साधनों से देश और काल की परिमित सीमाओं के भीतर ब्रह्म के अपरिमित ज्ञान की अति अल्पांश ही प्राप्त कर सकता है। प्रभु (परमात्व तत्व) के तारतम्य में जीव की पूर्णता का कोई भी अर्थ नहीं है। चाहे वह समाधि अवस्था में हो अथवा चाहे शरीर के बन्धन से मुक्त होकर। वह अल्पकालीन मोक्ष या मुक्ति ही क्यों न प्राप्त कर ले। न तो पुराने ऋषियों को पूर्ण पुरुष होने का अभिमान था, और न आज के वैज्ञानिक को।

आज के वैज्ञानिक और तत्वदर्शी पूर्व-ऋषियों में बड़ी समानता है-

(१) दोनों का सदा विश्वास रहा है, कि संसार में जिस तत्व की मीमांसा करनी है या जिज्ञासा करनी है, वह तत्व ‘‘सत्य’’ है।  (२) सत्य और केवल सत्य की उपलब्धि ही ज्ञान का ध्येय है। (३) सत्य सर्वकालीन और सर्वदशीय तत्व है। (४) सत्य की जिज्ञासा और इसके  सम्बन्ध में ऊहापोह की श्रृंखला मनुष्य की कोटि के व्यक्तियों के लिए एक परम वरदान है। (मनुष्येतर पशुओं के लिए ऐसा हम नहीं कह सकते)। (५) मनुष्य को ऐसे साधन प्राप्त हैं, जिनसे अपनी कुछ सीमाओं के भीतर वे इस सत्य की उपलब्धि कर सकते हैं। (६) समस्त सृष्टि ऋत या सतत सत्य के द्वारा आबद्ध है, सत्य द्वारा ही यह प्रतिभासित है, इस सत्य में देश काल, ज्ञाता और ज्ञान साधनों की अपेक्षा से एकरूपता है, अतः ज्ञान में अपवाद नहीं है। जो अपवाद प्रतीत होते हैं, वे हमारे अपर्याप्त और परिमित प्रयासों के कारण हैं, (७) सत्य का अनुशीलन आत्म-संतोष के लिए परम आवश्यक है, और जीवन का लक्ष्य ही इस आत्म-संतुष्टि की प्राप्ति है- ज्ञानोपार्जन के प्रयासों का अन्तिम लक्ष्य ज्ञान की उपलब्धि ही है, इस उपलब्धि में ही परम सन्तुष्टि है, अथवा दूसरे शब्दों में ज्ञानान् मुक्तिः, यह ज्ञानोपलब्धि ही मुक्ति या मोक्ष का साधन है। ज्ञान, ज्ञान के  निमित्त (नॉलेज फार द सेक ऑफ नॉलेज)। ऋषि या वैज्ञानिक के हाथ में छोटा-सा भी तथ्य प्राप्त हो गया, तो वह प्रसन्न हो उठता। (८) सत्य की प्राप्ति ही ज्ञान का परम प्रयोजन है। किन्तु इतना ही नहीं। यह तत्वज्ञान व्यक्ति और समाज दोनों के लिए समान हितकर है यदि विवेकपूर्ण इस ज्ञान का उपयोग किया जाय।

प्रभु उपासना से शरीर दृढ व मस्तिष्क दीप्त होता है

प्रभु उपासना से शरीर दृढ व मस्तिष्क दीप्त होता है
डा. अशोक आर्य
जो जीव परमपिता परमात्मा की समीपता प्राप्त कर लेता है , उसके समीप बै़ठने का अधिकारी हो जाता है , वह जीव ज्ञानेन्द्रियो तथा कर्मेन्द्रियो का समन्वय कर ज्ञान के अनुसार कर्म करने लगता है । समाज के साथ सामन्जस्य स्थापित कर आपस मे मेलजोल बनाते हुए , विचार विमर्श करते हुए ज्ञान के आचरण से कर्म करता है । समाज के साथ सामन्जस्य स्थापित करते हुए कर्म करता है । उसका शरीर दृढ हो जाता है तथा उसका मस्तिष्क तेज हो जाता है , दीप्त हो जाता है । इस बात को ऋग्वेद के प्रथम अध्याय के सप्तम सूक्त के द्वितीय मन्त्र में इस प्रकार कहा गया है : –
इन्द्रइद्धर्योःसचासम्मिश्लआवचोयुजा।
इन्द्रोवज्रीहिरण्ययः॥ ऋ0 1.7.2 ||
ऋग्वेद का यह मन्त्र जीव को चार बातों के द्वारा उपदेश करते हुए बता रहा है कि :-
१. ग्यानेन्द्रियां तथ कर्मेन्द्रियों का समन्वय:-
प्रभु की उपासना से , पिता की समीपता पाने से , उस परमेश्वर के समीप आसन लगाने से जीव में शत्रु को रुलाने की शक्ति आ जाती है । एसा जीव निश्चय ही वेद के निर्देशों का , आदेशों का पालन करते हुए अपने कर्मों मे लग कर , व्यस्त हो कर अपनी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को समन्वित करने वाला होता है । वह कर्म व ज्ञान रुपि घोडों को साथ साथ लेकर चलता है । इस में से किसी एक को भी ढील नहीं देता , समान चलाता है , समान रुप से संचालन करता है ।
स्पष्ट है कि ज्ञानेन्द्रियां ज्ञान का स्रोत होने के कारण जीव की कर्मेन्द्रियों को समय समय पर विभिन्न प्रकार के आदेश देती रहती हैं तथा कर्मेन्द्रियां तदनुरुप कार्य करती हैं , कर्म करती हैं । यह ज्ञान इन्द्रियां तथा कर्मेन्द्रियां समन्वित रुप से , मिलजुल कर कार्य करती हैं । आपस में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं करतीं । इस कारण जीव को एसा कभी कहने का अवसर ही नहीं मिलता कि मैं अपने धर्म को जानता तो हूं किन्तु उसे मानता नहीं , उस पर चलता नहीं अथवा उसमें मेरी प्रवृति नहीं है । उस के सारे के सारे कार्य, सम्पूर्ण क्रिया – क्लाप ज्ञान के आधार पर ही , ज्ञान ही के कारण होते हैं ।
२. समाज में मेल से चलना :-
इस प्रकार ज्ञान व कर्म का समन्वय करके चलने वाला जीव सदा मधुच्छ्न्दा को प्राप्त होता है , मधुरता वाला होता है , सब ओर माधुर्य की वर्षा करने वाला होता है । वह अपने जीवन में सर्वत्र मधुरता ही मधुरता फ़ैलाता है । उतमता से सराबोर मेल कराने का कारण बनता है । समाज में एसा मेल कराने वाले जीव का किसी से भी वैर अथवा विरोध नहीं होता ।
३. दृढ शरीर :-
इस प्रकार समाज को साथ ले कर चलने वाला जीव , सब के मेल जोल का कारण बनता है , किन्तु यह सब कुछ वह तब ही कर पाता है , जब उसका शरीर दृढ़ हो , शक्ति से भरपूर हो । अत: प्रभु की समीपता पाने से जीव का शरीर अनेक प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न हो कर दृढ़ता भी पाता है , कठोरता को पा कर अजेय हो जाता है ।
४. मस्तिष्क दीप्त :-
प्रभु की समीपता पाने से जहां जीव का शरीर कठोर हो जाता है , वहां उसका मस्तिष्क भी दीप्त हो जाता है , तेज हो जाता है । यह तीव्र मस्तिष्क जीव की बडी बडी समस्याओं को , जटिलताओं को बडी सरलता से सुलझाने में सक्षम हो जाता है, समर्थ हो जाता है । उसे कभी किसी ओर से भी किसी प्रकार की चुनौती का सामना नहीं करना होता । यह मस्तिष्क की दीप्ति ही है जो उसे सर्वत्र सफ़लता दिलाती है ।
इस प्रकार उस परमपिता की समीपता पा कर जीव का शरीर वज्र के समान कठोर होने से तथा मस्तिष्क मे दीप्तता आने से वह जीव एक आदर्श पुरुष बनने का यत्न करता है , इस ओर अग्रसर होता है ।

डा. अशोक आर्य

टी.वी. चैनलों की मनमानी राष्ट्र के लिये घातक

टी.वी. चैनलों की मनमानी राष्ट्र के लिये घातक

प्रस्तुत सम्पादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-सम्पादक

सामान्य रूप से कोई किसी के देश में घुस नहीं सकता। सीमा पर सेना की कड़ी सुरक्षा रहती है। यात्रियों को आने-जाने के लिये अनुमति लेनी पड़ती है। वायुयान, जलयान भी एक-दूसरे की अनुमति के बिना किसी दूसरे की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकते, परन्तु इस विज्ञान के युग में आकाश से होने वाले आक्रमण को हम नहीं रोक पा रहे हैं।

दूरदर्शन विज्ञान का वरदान है, समस्त ज्ञान-विज्ञान मनुष्य के लिये है, परन्तु उसका सदुपयोग या दुरुपयोग मनुष्य की इच्छानुसार होता है। अतः समाचार की यह नवीन विधा भी प्रयोगकर्त्ता की इच्छा पर निर्भर करती है।

आज भारत में एक हजार के लगभग टी.वी. चैनल हैं, इनका वर्गीकरण किया जाय तो मुख्य रूप से समाचार प्रसारित करने वालों की संख्या अधिक है। इसके अतिरिक्त सिनेमा, खेल, मनोरञ्जन, धार्मिक, वैज्ञानिक, मार्केटिंग, इन सभी चैनलों में विज्ञापन की भरमार रहती है। इनके द्वारा भारी आय, इनके संचालकों को होती है। संचालक अधिक से अधिक विज्ञापन प्रसारित करने का प्रयास करते हैं। जो कार्यक्रम जितने लोकप्रिय होते हैं, उनको उतने ही अधिक विज्ञापन मिलते हैं। फिर अधिक से अधिक लोग किस समय, कौन-सा कार्यक्रम देखते हैं, उस समय अधिक विज्ञापन प्रसारित होते हैं। इस प्रकार कभी कोई व्यक्ति कोई विशेष कार्यक्रम या समाचार देखना चाहे तो उसे पहले अधिक से अधिक विज्ञापन देखने होंगे। जैसे समाचार दर्शक को प्रभावित करते हैं, उसी प्रकार विज्ञापन भी देखने वाले को प्रभावित करते हैं। जैसे व्यापार के विस्तार के लिये विज्ञापन सशक्त माध्यम है, वैसे ही विचारों के प्रचार-प्रसार के लिये भी टी.वी. चैनल सशक्त माध्यम हैं। इनके प्रभावकारी होने का कारण ये है कि अन्य सब माध्यम केवल पढ़ने या सुनने तक ही सीमित थे, परन्तु इसमें पढ़ना, सुनना, देखना, इन सबके साथ सक्रिय भागीदारी भी दिखाई देती है, जिससे दर्शक तत्काल प्रभावित होता है।

दृश्य मनुष्य के मन को सीधे प्रभावित करते हैं। घटना का प्रत्यक्ष घटित होना दीखता है। अतः उसे व्यक्ति सहज स्वीकार कर लेता है। इस कारण जो बात चैनल पर दिखाई जा रही है या बोली जा रही है, मनुष्य उससे प्रभावित होकर अपना विचार उसके अनुकूल बना लेता है। यह टी.वी. का तात्कालिक लाभ है। इस पर कही गई बात यदि गलत और तथ्यहीन है तो उसके चैनल पर आने तक पहली घटना का प्रभाव परिणाम में बदल चुका होता है।

इसके उदाहरण के रूप में उन छोटी-छोटी घटनाओं को ले सकते है, जिनका स्थानीय प्रभाव तो बहुत थोड़ा या छोटा सा है, परन्तु टी.वी. चैनलों के समाचार के रूप में उसका प्रभाव अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाता है। बंगाल के किसी निजी विद्यालय में व्यक्तिगत राग-द्वेष के कारण किसी ईसाई साध्वी से दुर्व्यवहार होता है, परन्तु टी.वी. पर देश देखता है कि भारत में ईसाई समुदाय प्रताड़ना और आतंक का शिकार हो गया है। किसी पागल ने चर्च की खिड़की पर पत्थर मारकर काँच तोड़ दिया और संवाददाता ने इसे समाचार बना दिया। जैसे ही ये घटना नमक-मिर्च लगाकर टी.वी. पर प्रसारित होती है तभी अमेरिकन चर्च से घोषणा होती है- ‘भारत में चर्च पर आक्रमण हो रहे हैं।’ इस प्रकार के उदाहरण हम प्रतिदिन देख सकते हैं।

रोहित वेमुला की घटना- उसकी आत्महत्या उसकी व्यक्तिगत निराशा का परिणाम था, परन्तु टी.वी. के समाचारों ने उसे साम्प्रदायिक रूप देकर देश तथा समाज में भय और आतंक का वातावरण बनाने का प्रयास किया।

इसी प्रकार मुरादाबाद में एक मुस्लिम को मारने की घटना। देश में प्रतिदिन के घटनाक्रम में ऐसी अनेक घटनाएँ घटित होती हैं। किसी की हानि, हत्या अनुचित है, परन्तु एक हत्या को साम्प्रदायिक बताकर दूसरे पर मौन रहना कहाँ का न्याय है? हमारे विचारों की बेईमानी की इसमें बड़ी भूमिका रहती है।  गोधरा काण्ड के बाद मुसलमानों की हत्या को तो बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है, परन्तु रेल के डिब्बे को जलाकर जिनको मारा गया, उनकी चर्चा पर इन समाचार दिखाने वालों की जीभ हिलती भी नहीं थी।

हिन्दू एकत्र होकर उत्सव करते हैं, तो अल्पसंख्यकों पर आतंक स्थापित करना माना जाता है और अल्पसंख्यकों द्वारा नारा लगाने और शस्त्र दिखाने में सहनशीलता की बात की जाती है। एक अल्पसंख्यक बीमारी या नशे में मर जाय तो सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों की उपेक्षा माना जाता है, परन्तु केदारनाथ जैसी दुर्घटना में पन्द्रह हजार लोग मारे गये, तब किसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था ने सहायता पहुँचाने का विचार नहीं किया। हिन्दू यदि कहता है कि देश के प्रति अल्पसंख्यकों को निष्ठावान होना चाहिए, तो इसे हिन्दुओं के कड़वे बोल कहा जाता है और मुसलमान, ईसाई देश-विरोधी बात करता है तो उसे अपनी परम्परा का पालन करना बताया जाता है।

इस प्रकार के अनर्गल मिथ्या विचारों के द्वारा दृश्य-तन्त्र जन मानस को प्रभावित करते हैं। इन समाचार संस्थाओं द्वारा राजनैतिक पार्टी, किसी विचारधारा या किसी व्यक्ति विशेष को इस तरह प्रचारित किया जाता है कि उसकी वास्तविकता का दर्शक को पता ही नहीं चल पाता।

दृश्य समाचारों पर जो समाचार दिखाये जाते हैं, उनका चयन उनकी इच्छा से होता है। जो समाचार इनकी रीति-नीति के अनुकूल नहीं होते, वे कितने भी महत्त्वपूर्ण हों, उनको चैनल पर नहीं दिखाया जाता। इसको बहुत बार फेसबुक, व्हाट्सैप, ट्विटर आदि के माध्यम से जाना जा सकता है। इसके साथ इन चैनलों पर होने वाले साक्षात्कार और संवाद भी प्रायोजित ही होते हैं तथा अपने विचारों को प्रस्तुत करने वाले और उन विचारों का समर्थन करने वाले लोगों को ही इसमें भाग लेने के लिये बुलाया जाता है। इन समाचार चैनलों का अधिकांश नियन्त्रण विदेशी व्यक्ति या विदेशी संस्थाओं के हाथ में है। वे जैसा चाहते हैं, वैसी बातों को प्रसारित करते हैं। जिन्हें अपना विरोधी समझते हैं, उनकी बातों को दबा देते हैं या दूसरा रंग देकर प्रस्तुत करते हैं। दृश्य समाचारों ने छपे समाचार पत्रों को पीछे छोड़ दिया है। या तो उन तक समाचार समय पर पहुँचते नहीं हैं और यदि पहुँचते हैं तो देर से पहुँचते हैं। टी.वी. पर समाचार घटते हुए दीखते हैं या घटने के तुरन्त बाद दीख जाते हैं, पर समाचार पत्र में तो अगले दिन आयेंगे। इस कारण दृश्य समाचारों का प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है।

दृश्य समाचार-तन्त्र की बढ़ती व्यापकता को देखते हुए इनकी प्रामाणिकता बनाये रखने और इनके दुरुपयोग को रोकने के लिये नियम बनाने और नियन्त्रण रखने की आवश्यकता है, जिससे उस माध्यम से देश की सुरक्षा पर किसी प्रकार का संकट न हो तथा देश की सामाजिक एकता का ताना-बाना छिन्न-भिन्न न हो।

इस सन्दर्भ में हमें ध्यान रखना चाहिये कि जब इन्हीं चैनलों ने समाचार दिखाने के नाम पर भारतीय सेना की कार्यवाही को प्रसारित किया, जिससे देश की सेना को कार्यवाही करने में अधिक कठिनाई आई और हमारे लोगों को अधिक संख्या में प्राण भी गंवाने पड़े, क्योंकि हमारी सैन्य योजना का शत्रु को समाचार के माध्यम से तत्काल पता चल जाता था और शत्रु अपने बचाव और लड़ने वालों पर आक्रमण करने में प्रभावी रहता था। समाचार के नाम पर ऐसी मूर्खता करने की अनुमति कोई सरकार और देश नहीं दे सकता, परन्तु हमारे यहाँ इसको रोकने का प्रयास नहीं होने से देश और समाज की बहुत हानि हो रही है। अतः जैसे दैनिक, साप्ताहिक, मासिक पत्रों के लिये नियम और नीति बनी हुई है, वैसा ही प्रभावी नियम दृश्य संस्थानों के लिये बनाने की आवश्यकता है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर इनकी स्वेच्छाचारिता को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।

संचार माध्यमों से निम्नलिखित कार्य होते हैं-

प्रथम समाचार हमारी जानकारी बढ़ाते हैं। इस जानकारी से मनुष्य अपने को अद्यतन करता है। घटना की जानकारी प्रत्येक मनुष्य को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करती है। वर्तमान घटनाक्रम आगे बनने वाले इतिहास का वर्तमान होता है। जैसे सत्य इतिहास उज्ज्वल भविष्य का आधार होता है, उसी प्रकार वर्तमान सत्य समाचार, सत्य इतिहास का आधार होता है। समाचारों की अप्रामाणिकता जहाँ इतिहास को भ्रष्ट करती है, वहाँ वर्तमान को भी दिग्भ्रमित करती है।

आजकल समाचार जानने के साधन जिस तीव्रता से क्रियाशील हैं, उनका प्रभाव भी उतना ही गहरा पड़ रहा है। इस महत्त्व को समझकर प्रत्येक समर्थ, राजनीतिक व्यक्ति, व्यवसायी और विचारों से समाज को प्रभावित करने वाले वर्ग समाचार साधनों का भरपूर उपयोग करते हैं। समाचार पत्र से आगे आज दूरदर्शन के माध्यम आ गये हैं। इनको लगाने चलाने में समाचार पत्रों से भी अधिक व्यय आता है, इनसे उत्पन्न प्रभाव को पाने के लिये धन व्यय करना पड़ता है, इस कारण यह एक बड़ा और प्रभावशाली व्यवसाय बन गया है। बड़े-बड़े व्यवसायी घराने राजनैतिक दल और नेताओं ने अपने-अपने टी.वी. संचार प्रभाग बनाये हुए हैं।

२०१३ के अध्ययन के अनुसार हमारे देश में प्रसारित होने वाली टी.वी. चैनल संस्थाओं में महत्त्वपूर्ण सात टी.वी.  चैनल संस्थान राजनेताओं के अधिकार में हैं। पहले समाचार पत्रों के विषय में ही समझा जाता था कि कौनसा समाचार-पत्र किस राजनीतिक दल का पक्ष लेता है। अब समाचार चैनलों का हाल उससे बहुत आगे है। पहले राजनीतिक दल अपने समाचार प्रकाशित करने के लिये टी.वी. संस्थाओं को विज्ञापन के रूप में बहुत धन देते थे, इन विज्ञापन देने वालों को लगा कि विज्ञापन में धन व्यय करने से अधिक लाभदायक है- स्वयं टी.वी. चैनल चलाना, इसका प्रमाण है कि आज अधिकांश राजनैतिक दल और राजनेताओं के स्वयं के दूरदर्शन संस्थान हैं।

– ‘न्यूज लाइव रेग’ संस्था की अध्यक्ष हैं रिणिकी भूपान, जो उस समय कांग्रेस के स्वास्थ्य मन्त्री की पत्नी है।

– कर्नाटक का जनश्री समाचार-पत्र तथा अन्य समाचार-पत्र तत्कालीन पर्यटन मन्त्री जनार्दन रेड्डी तथा स्वास्थ्य मन्त्री श्रीरामुलु रेड्डी के स्वामित्व में है।

कस्तूरी न्यूज-२४ के स्वामी हैं पूर्व मुख्यमन्त्री एच.डी. कुमार स्वामी।

– सुवर्ण चैनल के स्वामी संस्था प्रधान हैं, राज्य सभा सदस्य- राजीव चन्द्रशेखर।

– साक्षी चैनल, एन. टी.वी., टी.वी ५- इनके स्वामी हैं आन्ध्र प्रदेश के जगनमोहन रेड्डी।

– एन. स्टूडियो के स्वामी नारंने श्रीनिवास राव हैं- जो चन्द्रबाबू नायडू के सम्बन्धी हैं।

– ओडिशा टी.वी. के स्वामी वैजयन्त पण्डा ‘बीजू जनता दल’ के हैं। ओडिशा के अन्य चैनल भी राजनेताओं के हैं।

– इण्डिया विजन टी. वी. के स्वामी मुस्लिम लीग के सचिव एम.के. मुनीर हैं।

– टी.वी.-२४ घण्टे साम्यवादी मार्क्सवादियों के नियन्त्रण में है।

– कोलकाता टी.वी. तृणमूल कांग्रेस के अधीन है।

– पीटीसी, पीटीसी न्यूज, पीटीसी पंजाबी, पीटीसी चकदे का स्वामित्व सुखबीर सिंह बादल के पास है।

बड़े टी.वी. चैनल संस्थानों में –

. जया टीवी, जया मैक्स, जया प्लस, जे मूवी- ये सब जयललिता की कम्पनी मैविस सतकॉम लिमिटेड के स्वामित्व में हैं। तमिलनाडू में ही कांग्रेस के दो अन्य चैनल- मैगा टी.वी. और वसन्त टी.वी. भी हैं, जबकि ए.डी.एम.के. पार्टी के विजयकान्त ‘कैप्टन टी.वी.’ के मालिक हैं।

. सन टी.वी. तमिलनाडु के डी.एम.के. पार्टी के चीफ करुणानिधि के भतीजे कलानिधि मारन का है।

इसके अतिरिक्त सन न्यूज, सन म्युजिक, के. टी.वी., छुट्टी टीवी, सुमंगली केबल, आदित्य टीवी, चिन्टू टीवी, किरन टीवी, खुशी टीवी, उदय कॉमेडी, उदय म्युजिक, जैमिनी टीवी, जैमिनी कॉमेडी, जैमिनी मूवी, करुणानिधि के स्वामित्व में कालाईगनर टी.वी. उनके निकट व्यक्ति एम. राजेन्द्रन् के स्वामित्व में राज टी.वी. और राज डिजिटल प्लस हैं।

. आई.बी.एन. लोकमत- का स्वामित्व कांग्रेस सरकार में स्कूली शिक्षा के मन्त्री राजेन्द्र दर्डा और उनके भाई राज्यसभा के सदस्य विजय दर्डा के पास है। महाराष्ट्र में सर्वाधिक प्रसार वाला मराठी समाचार ‘लोकमत’ तथा ‘टीवी १८’ ग्रुप भी इन्हीं का है।

. इण्डिया न्यूज- इसके स्वामी विनोद शर्मा के पुत्र कार्तिकेय शर्मा हैं, जिनके भाई मनु शर्मा को जेसिका लाल की हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। इसके अतिरिक्त आई. टी.वी. मिडिया ग्रुप के अनेक प्रसारण जिनमें न्यूज एक्स भी सम्मिलित है, इनका स्वामित्व भी कार्तिकेय शर्मा के पास है।

. न्यूज २४- इसका स्वामित्व कांग्रेस सरकार में केन्द्रीय मन्त्री रहे राजीव की पत्नी अनुराधा प्रसाद शुक्ला के पास है। इसके अतिरिक्त आपनो-२४ तथा ई-२४ का स्वामित्व भी इन्हीं के पास है, इसमें रोचक तथ्य यह है कि अनुराधा प्रसाद भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद की बहन हैं।

. एन.डी. टीवी- का स्वामित्व पत्रकार प्रणव राय के पास है। इसी के साथ एन.डी. टीवी ग्रुप के पास एन.डी. टी.वी. इण्डिया, एन.डी. टी.वी. गुड टाइम्स, एन. डी. टी.वी. २४×७, एन.डी. टी.वी. प्रॉफिट व और भी अनेक संस्थान इससे जुड़े हैं। एन.डी. टी.वी. साम्यवादी विचारधारा से जुड़ा संस्थान है। प्रणव राय की पत्नी राधिका राय है। राधिका राय पूर्व राज्यसभा सदस्य वृन्दा कारत की बहन हैं, जो साम्यवादी मार्क्सवादी दल के महासचिव प्रकाश करात की पत्नी हैं।

.  टाइम्स नाओ- बहुत बड़े संचार संस्थान टाइम्स ऑफ इण्डिया का है। इसमें- मिड डे, नवभारत टाइम्स, स्टार डस्ट, फेमिना, विजय टाइम्स, विजय कर्नाटक और टाइम्स नाओ, ये सब समाचार-पत्र इसी संस्थान के हैं। इस संस्था का स्वामित्व बैनेट एण्ड कोलमैन कम्पनी के पास है। इसकी भागीदारी सोनिया गांधी के नजदीकी सम्बन्धी इटली के रॉबर्ट मिन्डो के पास है।

एक अध्ययन के अनुसार राजनेताओं ने संचार-तन्त्र में अपनी पूंजी लगाकर इन पर पकड़ बनाई हुई है। वहाँ व्यवसायी लोगों ने अपने माल के प्रचार और बिक्री के लिये इन माध्यमों पर अधिकार किया हुआ है।

इस सारे तन्त्र का दुःखद और चिन्तनीय पक्ष यह है कि इन पर तथ्यहीन, निराधार, मिथ्या समाचार, सूचनाएँ, परामर्श दिये जाते हैं, जिससे पाठक भ्रमित होता है और उसकी हानि होती है। इसका उदाहरण- सभी टी.वी. चैनल  स्टॉक बाजार के लिये अपने-अपने परामर्श देते हैं, वे इतने असत्य होते हैं कि सरकार को इनके लिए चेतावनी देनी पड़ी कि ग्राहक इनकी सूचनाओं पर विश्वास न करें, इनमें धोखा हो सकता है। इन टी.वी. चैनल संस्थाओं की असत्यता के समाचार आज सामाजिक संचार के साधनों- ब्लॉग, ट्विटर, आदि से सीधे और वास्तविक रूप में पाठक को मिलते हैं। अतः दृश्य संचार माध्यमों की विश्वसनीयता कम हुई है।

सामान्य जन इन्ळीं संचार माध्यमों के आधार पर निर्णय लेते हैं, अतः इनको विश्वसनीय बनाना आवश्यक है। सामाज के प्रतिनिधि तत्व ठीक हों, अतः योगेश्वर कृष्ण गीता में कहते हैं-

यदिह्यहं न वर्तेयं जातुः कर्मण्यतन्द्रितः।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।

– धर्मवीर

 

सूर्य तथा मेघ प्रभु की अदभुत विभूतियां हैं

सूर्य तथा मेघ प्रभु की अदभुत विभूतियां हैं
डा. अशोक आर्य
हम प्रतिदिन आकाश में चमकता हुआ सूर्य देखते हैं , यह सूर्य समस्त जगत को प्रकाशित करता है । यहां तक कि हमारी आंख भी इस सूर्य के कारण ही देख पाने की शक्ति प्राप्त करती है । यदि सूर्य न हो तो हमारी आंख का कुछ भी उपयोग नहीं हो सकता । इस प्रकार ही आकाश में मेघ छा जाते हैं । इन मेघों से होने वाली वर्षा से हम आनन्दित होते हैं । हम केवल आनन्दित ही नहीं होते अपितु हमारे उदर पूर्ति के लिए सब प्रकार की वनस्पतियां भी इन मेघों का ही परिणाम है । यदि यह बादल पृथिवी पर वर्षा न करें तो इस पर कोई भी वनस्पति उत्पन्न न होगी । जब कोई वनस्पति न होगी तो हम अपना उदर पूर्ति भी न कर सकेंगे । इस सब तथ्य को वेद का यह मन्त्र इस प्रकार बता रहा है :-
इन्द्रो दीर्घाय चक्शस आ सूर्य रोहयद दिवि ।
वि गोभिरद्रिमैरयत ॥ रिग्वेद १.७.३ ॥
इस मन्त्र में मुख्य रुप से तीन बातों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि :-
१. प्रभु ने हमारे देखने के लिए सूर्य को बनाया है :-
प्रभु का उपासक यह जीव उस प्रभु के समीप बैठकर उस प्रभु के उपकारों को स्मरण कर रहा है । वह इन उपकारों को स्मरण करते हुए कहता है कि हमारे वह प्रभु सब प्रकार की आसुरी वृतियों वालों का संहार करने वाले हैं , उनका नाश करने वाले हैं , उन्हें समाप्त करने वाले हैं । हमारा वह प्रभु अपने भक्तों की रक्षा करते हैं । फ़िर वह इन आसुरों से भक्तों की रक्षा तो करेगा ही । इस कारण जब जब भी इस भुमि पर आसुरि प्रवृतियां बढती हैं तो वह पिता उन असुरों का नाश करने का साधन भी हम को देते हैं , जिस की सहायता से हम उन असुरों का नाश करते हैं । यह सब उस पिता के सहयोग व मार्ग दर्शन का ही परिणाम होता है ।
इन असुरों का नाश हम आंख की सहायता से करते हैं । यह आंख ही है जो हमें दूर दूर तक देखने में सक्षम करती है , दूर तक देखने की शक्ति देती है । यदि आंख न होती तो हमें इन असुरों की स्थिति का पता ही न चल पाता । जब उनकी स्थिति का पता ही न होगा तो हम उन का संहार , उनका अन्त कैसे कर सकेंगे ? यह आंख भी अपना क्रिया क्लाप सूर्य की सहायता के बिना नहीं कर सकती । जब तक यह जगत प्रकाशित नहीं होता , तब तक इस आंख में देखने की शक्ति ही नहीं आ पाती । इस कारण परम पिता परमात्मा ने आंख बनाने से पहले इस संसार को सूर्य का उपहार भी दिया है । इसे द्युलोक में स्थापित किया है । यह ही कारण है कि द्युलोक की मुख्य देन यह सूर्य ही है । यह सूर्य समग्र संसार को प्रकाशित करता है । सूर्य के इस प्रकाश से ही हमारी आंख अपने सब व्यापार ,सब क्रिया – क्लाप करने में सक्षम हो पाती है । इस प्रकाश के बिना इस आंख का होना व न होना समान है। सूर्य ही इस आंख को देख पाने की शक्ति देता है , जिस का निर्माण भी इस सृष्टि के साथ ही साथ उस पिता ने ही किया है ।
२. प्रभु ने ही जल के साधन मेघों को बनाया है :-
परम पिता ने हमारे देखने के लिए आंख का निर्माण तो कर दिया किन्तु हमारी नित्य प्रति की क्रियाओं की पूर्णता जल के बिना नहीं हो पाती । जल से ही सब प्रकार की वनस्पतियों का जन्म व विकास होता है , जल से ही यह वन्सपतियां बढती हैं , फ़लती व फ़ूलती हैं और पक कर हमारे लिए अन्न देने का कारण बनती हैं । इतना ही नहीं हमें अपना भोजन पकाने के लिए भी जल की ही आवश्यकता होती है । हमें अपने शरीर की गर्मी को दूर करने , स्वच्छता रखने तथा प्यास को शान्त करने के लिए भी जल की ही आवश्यकता होती है । यदि जल न हो तो हम एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते । इस कारण ही उस पिता ने जलापूर्ति के लिए मेघों को प्रेरित किया है । मेघों का निर्माण किया है ।
यदि वह प्रभु मेघों की व्यवस्था न करता , वर्षा का साधन न बनाता तो निश्चय ही इस धरती का पूरे का पूरा जल बह कर समुद्र में जा मिलता । इस प्रकार यह जल मानव के लिए दुर्लभ हो जाता , अप्राप्य हो जाता । इससे मानव का जीवन ही असम्भव हो जाता । अत: यह मेघ ही हैं जो समुद्र आदि स्थानों का जल अपने में खेंच लेते हैं । इसे भाप के रूप में उडाकर अपने साथ ले जाकर पर्वतों की उंचाई पर जा कर वर्षा देते हैं , जिस से नदियां लबालब भर जाती हैं । नदियों में प्रवाहित यह जल हमारी वनस्पतियों की सिंचाई से इन का रक्षक बनता है , हमारी सफ़ाई करता है तथा हमारी प्यास को भी शान्त करने का कारण बनता है । इससे ही अन्न की उत्पति होती है । इस कारण ही प्रभु की यह अद्भुत कृति मेघ भी मानव निर्माण में विशेष महत्व रखती है ।
३.हम मस्तिष्क में ज्ञान का सूर्य ओर हृदय में प्रेम के मेघ पैदा करें :-
मानव को अध्यात्म क्षेत्र में पांव रखते हुए चाहिये कि वह अपने अन्दर ज्ञान रुपि सूर्य का उदय करे । हमारा वह पिता अनेक प्रकार की वस्तुओं का जन्म देकर अध्यात्मिक रुप से हमें उपदेश दे रहा है कि हे मानव ! जिस प्रकार मैंने सूर्य आदि की उत्पति करके तुझे प्रकाशित किया है , इस प्रकार ही तुं भी अपने अन्दर ज्ञान का प्रकाश करके स्वयं को भी प्रकाशित कर तथा अन्यों को भी प्रकाशित कर । ज्ञान मानव जीवन का निर्माता है । अपने जीवन को निर्माण करने के लिए स्वयं को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करना आवश्यक होता है । जब स्वयं हम कुछ भी ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तो इस ज्ञान के प्रकाश से अन्यों को भी प्रकाशित करें यह ही उस प्रभु का आदेश है , सन्देश है , उपदेश है ।
उस प्रभु ने हमें अपना सन्देश देते हुए , आदेश देते हुए आगे कहा है कि हे जीव ! तुझे प्रेम की आवश्यकता है , स्नेह की आवश्यकता है किन्तु इसे पाने के लिए तुझे अपने हृदय मन्दिर में प्रेम का दीप जलाना होगा , प्रेम के मेघ पैदा करने होंगे । जिस प्रकार मेघ सब ओर शान्ति का कारण होते हैं , उस प्रकार तेरे हृदय रूपी आकाश में पैदा हुए यह मेघ भी तुझे तथा तेरे साथियों , सम्बन्धियों , पडौसियों , क्षेत्र, देश सहित विदेश के निवासियों के अन्दर प्रेम का स्फ़ुरण कर शान्ति का कारण बनेगा । इस लिए तुं सदा अपने हृदय में प्रेम रुपि मेघों को पैदा करने तथा उन्हें बढाने का यत्न करता रह ।
ईश्वर हमें उपदेश कर रहे हैं कि हे जीव ! जिस प्रकार सूर्य की गर्मी से उडकर यह पार्थिव जल अन्तरिक्ष मे पहुंच जाता है । पहाडों की चोटियों को छू लेता है तथा उपर जाकर मेघों का रुप धारण कर लेता है तथा वर्षा करके इस धरती को सब ओर से स्वच्छ कर देता है , सब प्रकार की धूलि को धो देता है । सब ओर सब कुच्छ स्वच्छ व साफ़ सुथरा कर देता है , जिससे यह जगत सुन्दर व आकर्षक लगता है , उस प्रकार ही अध्यात्म मे ज्ञान का सूर्य चमकने से पार्थिव वस्तुओं के प्रति हमारा प्रेम हृदय रुपि अन्तरिक्ष में जा कर सब प्राणियों पर फ़िर से बरस कर सब प्राणियों तथा वनस्पतियों को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर उन्हें पवित्र करता है , शुद्ध करता है , स्वच्छ करता है तथा प्रसन्न करता है , सबके मनोमालिन्यों को धो डालता है ।

डा. अशोक आर्य

ईश्वरीय नववर्ष

ईश्वरीय नववर्ष
आज आर्य समाज गोर गाँव मुंबई के साप्ताहिक सत्संग में पंडित सत्यपाल पथिक जी के मधुर भजनों से वैदक वेदी में उपस्थित आर्य जनों में भारी आध्यात्मिक उत्साह देखने को मिला तत्पश्चात डा. अशोक आर्य ने अपने प्रवचन के माध्यम से बताया कि नव वर्ष का आरम्भ उस समय से होता है जिस समय इस सृष्टि के प्रथम जीव ने प्रथम बार आँख खोलते हुए वेद के इस मन्त्र का गायन किया :
ओउम प्रात: अग्नि प्रात: इन्द्रं ………
हम अपने परिवारों में साधारणतया अपने बच्चों को यह उपदेश करते हैं कि प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में उठो | वास्तव में यह ब्रह्म मुहूर्त क्या है ? साधारनतया प्रात: चार बजे के समय को ब्रह्म मुहूर्त कहा जाता है किन्तु क्यों क्योंकि यह वह समय है कि जब इस समय अर्थात सूर्य कि परहम किरण इस सृष्टि को अन्धकार से निकाल के लिए ही समय ही प्रथम जीव समूह उपरोक्त मन्त्र को बोलते हुए उठ खड़े हुए थे | इस कारण ही इस समय को ब्रह्म मुहूर्त कहा गया और आज भी इस समय को ब्रह्ममुहूर्त कहते हैं तथा यही वह दिन था जिस दिन से वर्ष का आरम्भ होता है |
जिस मन्त्र को गुनगुनाते हुए यह जिव उठाते उस के अनुसार प्रात: अग्निं अर्थात होतिकग्नी यज्ञ कि अग्नि जिस प्रकार स्वयं सहित अपने साथ उन सब पदार्थों को ही ऊपर को ले जात है जो कुछ इस में डाला जाता है | प्रभु भी अग्नि स्वरूप है जो जीव उस प्रभु का साथ जुड़ता है वह भी निरंतर आगे बढ़ता जाता है ऊपर उठाता जाता है उन्नत होता जाता है
इस प्रकार ही कोई विद्यार्थी , कोई व्यापारी , कोई कार्यालय कर्मचारी अथवा किसी भी क्षेत्र का व्यक्ति जब प्रभु बनने का प्रयास करते हुए आगे उठाने का यां अरता है तो उस के व्यापार , शिक्षा व जिस भी क्षेत्र में वह कार्य शील होता है उस में निरंतर उन्नति कि और बढ़ता है | आगे कहा है प्रातर इन्द्रं हवामहे अर्थात वह प्रभु सम्पूर्ण है अपने प्रत्येक गुण में वह सम्पूर्ण है | इस प्रकार का यत्न कोई विद्यार्थी करता है तो वह पी एच दी या दी लिट् जैसी उपाधि को प्राप्त कर अपने विषय का इंद्रan जाता है | वह प्रभु मित्रके रूप में भी जाना जाता है | इस लिए वह हमें डांटने व कष्ट देने कि भी शक्ति रखता है | इस प्रकार ही हमारे प्रत्येक प्रकार के कार्यों में हमारे मित्र लोग समय समय पर हमें सलाह देते हैं हमारा मार्ग दर्शन करते हैं मित्रों कि उतम सलाह को हम उस प्रकार ही मानते हैं जिस प्रकार उस पिटा कि सलाह को मानते हैं और इस प्रकार हम निरानर उन्नति के पथ पर आगे बढ़ाते हैं |
इस प्रकार कि चर्चा के साथ दा. अशोक आर्य ने आज का प्रवचन छोड़ते हुए कहा कि इस मन्त्र कि शेष व्याख्या अगले प्रवचन में करेंगे जो कि अगले रविवार प्रात: आठ से दस बजे तक आर्य समाज गोर गाँव में ही होगा |

सब प्रकार से विजयी हो नि:श्रेयस को पावें

सब प्रकार से विजयी हो नि:श्रेयस को पावें
डा. अशोक आर्य
हम परम पिता की अपार क्रिपा से वाजों में विजयी हों, एसे विजेता बनकर हम अभ्युदय को पावें तथा सहस्रप्रधनों में भी हम विजय पा कर नि:श्रेयस को पावें । इस बात को रिग्वेद का यह मन्त्र इस प्रकार प्रकट कर रहा है :-
इन्द्र वाजेषु नोऽव सहस्रप्रधनेषु च । उग्र उग्राभिरुतिभि:॥रिग्वेद १.७.४॥
इस मन्त्र में तीन बातों पर प्रकाश डालते हुए पिता उपदएश कर रहे हैं कि :-
१.हम हमारे छोटे छोटे युद्धो में विजयी हों :-
वैदिक साहित्य में प्रत्येक शब्द क अर्थ कुछ विशेष ही होता है । हम अपने जीवन में सदा संघर्ष करते रहते हैं , हम सदा किसी न किसी प्रकार के युद्ध में लडाई में लगे रहते हैं किन्तु इस मन्त्र में जिस युद्ध को वाज कहा गया है , वह युद्ध कौन सा होता है ? इसे जाने बिना हम आगे नहीं बध सकते । वैदिक सहित्य में हम जो छोटे छोटे युद्ध लडते हैं , उन को वाज का नाम दिया गया है ।
जो लडाईयां , जो युद्ध , जो संघर्ष शक्ति की प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , धनादि कि प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , उन्हें हम वाज की श्रेणी में रखते हैं । इतिहास की जितनी भी लडाईयां हुई हैं , चाहे वह राम – रावण युद्ध हो अथवा महाराणा प्रताप तथा अकबर का युद्ध हो , यह सब वाज ही कहे जावेंगे । प्रभु भक्त इस मन्त्र के माध्यम से पिता से प्रार्थना करता है कि हे शत्रुओं को रुलाने वाले प्रभो !, हे शत्रुओं का नाश करने वाले , संहार करने वाले प्रभो ! आप हमें धन आदि की प्राप्ति के लिए हमारे जीवन के इन छोटे छोटे संग्रामों में हमें विजेता बनावें । आप ही की क्रिपा से हम धनों के स्वामी बन कर , विजेता बनकर अभ्युदय को , उन्नति को प्राप्त करें ।
२. हम अपने अन्दर के युद्ध में विजयी हों :-
ऊपर बताया गया है कि जो युद्ध धन एश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , वह वाज की श्रेणी में आते हैं । इससे स्पष्ट है कि यह युद्ध किसी अन्य प्रकार के भी होते हैं । इस मन्त्र में दूसरी प्रकार के युद्ध को सहस्रप्रधन का नाम दिया गया है । मन्त्र इस शब्द के अर्थ रुप में बता रहा है कि जीव अपने अध्यात्मिक जीवन को सुन्दर बनाने के लिए , आकर्षक बनाने के लिए अपने अन्दर के शत्रुओं के साथ भी युद्ध करता रहता है । जब मानव अपने बाहर के शत्रुओं के साथ लडता है तो उसे वाज कहा जाता है किन्तु जब वह अपने अन्दर के शत्रुओं के साथ लडता है तो इस लडाई का नाम सहस्रप्रधन होता है । सहस्रप्रधन नामक युद्ध में हम अपने अन्दर के काम , क्रोध, मद , लोभादि आदि शत्रुओं से लडाई करते हैं ।
प्रार्थना की गयी है कि हम अपने इन आध्यात्मिक युद्धों में भी विजयी होते हुए काम का नाश कर प्रेम रुपि धन को प्राप्त करें , क्रोध रुपि शत्रु को मार कर दया रुपि धन को पावें , हम लोभ रुपि शत्रु पर भी विजयी होवें तथा दान रुपि धन की प्राप्ति करें । इस प्रकार हम आनन्द रुप प्रक्रिष्ट धनों के स्वामी बनें । इस प्रकार हे प्रभो ! इन संसाधनों को पाने के लिए आप हमारे सहयोगी बनें, रक्शक बनें ।
३. प्रभो इन युद्धो में हमें विजयी बनावें :-
मानव का काम है यत्न करना , पुरुषार्थ करना । जब हम यत्न करते हैं , परिश्रम करते हैं , पुरुषार्थ करते हैं तो इस पुरुषार्थ का उतम फ़ल प्रभु हमें देता है क्योंकि उस ने जीव को कर्म करने में स्वतन्त्र किया है किन्तु किये गये कर्म का फ़ल वह प्रभु अपनी व्यवस्था के आधीन ही रखे हुए है । इस कारण हम कर्म करते हुए भी सदा उतम फ़ल की प्रार्थना उस पिता से करते रहते हैं । हम अपने पुरुषार्थ द्वारा जीवन में सब प्रकार से विजयी होने की कामना के साथ ही परमपिता परमात्मा से फ़िर प्रार्थना करते हैं कि हे तेजस्वी पिता ! आप तेज से परिपूर्ण हैं,आप प्रबल रक्शक हैं । अपने तेज व रक्शण से हमें हमारे जीवन में होने वाले सब प्रकार के युद्धों में विजेता बनावें । हम अकेले इन कामादि शत्रुओं को नहीं जीत सकते । इसलिए आप का सहयोग , आपकी सहायता हमारे लिए आवश्यक हो जाती है । अत: हमें एसी शक्ति दें कि हम इन युद्धों में सदा विजयी होते रहें तथा उन्नति की ओर सर्वदा अग्रसर रहें ।
डा. अशोक आर्य