प्रभु उपासक को पोषण को,यशस्वी बनाने को तथा वीरता बढाने वाला धन मिलता है ,

ओउम
प्रभु उपासक को पोषण को,यशस्वी बनाने को तथा वीरता बढाने वाला धन मिलता है , जो मानव परमपिता के समीप बैठ कर उस प्रभु का स्मरण करता है , प्रभु उसे अनेक प्रकार के धनों को देता है । यह धन पोषण को बनाने वाला होता है , उसको यश दे कर यशस्वी बनाता है तथा उपासक में वीरता का संचार करता है । यह मन्त्र इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुये उपदेश करता है कि : –
अग्निनारयिमश्नवत्पोषमेवदिवेदिवे।
यशसंवीरवत्तमम्॥ ऋ01.1.3
यह मन्त्र अग्नि स्तवन पर बल देते हुये कहता है कि मनुष्य प्रभु की उपासना करने से कभी सांसारिक दृष्टि से असफ़ल नहीं होता । प्रभु स्तवन से ही वह निरन्तर आगे बढता है । वास्तव में प्रभु स्तवन से ही लक्षमी के दर्शन होते हैं । स्पष्ट है कि जहां प्रभु स्तवन है, वहां लक्ष्मी तो है ही, तब ही तो कहा जाता है कि मानव अग्नि से धन को प्राप्त करता है अर्थात जो प्रतिदिन यज्ञ करता है, उसे धन एश्वर्य के नियमित रुप से दर्शन होते रहते हैं ।
सामान्यत:; लोग इस बात को जानते हैं कि जिसके पास अपार धन सम्पदा होती है , उसके लिये अवनति का मार्ग खुला रहता है । इस धन की सहायता से वह अपनी इन्द्रियों को सुखी बनाने का यत्न करता है ,शराब, जुआ आदि अनेक प्रकार की बुराइयां उस में आ जाती हैं किन्तु जो धन प्रभु स्मरण से मिलता है,जो धन प्रभु स्तवन से मिलता है, जो धन अग्निहोत्र से मिलता है, जो धन यज्ञ से मिलता है, उस धन की एक विशेषता होती है , इस प्रकार से प्राप्त धन प्रतिदिन हमारे पोषण का कारण होता है । इससे हमारा किसी प्रकार का नाश, किसी प्रकार का ह्रास नहीं होता । इस प्रकार प्राप्त धन हमें कभी विनाश की ओर , मृत्यु की ओर नहीं ले जाता अपितु यह् तो हमें वृद्धि की ओर , उन्नति की ओर ले जाता है , जीवन को जीवन्त बनाने व उंचा उठाने की ओर ले जाता है ।
इस प्रकार यज्ञीय विधि से हमें जो धन मिलता है , यह धन हमें यश्स्वी बनाता है, यश से युक्त करता है । इस धन में परोपकार की भावना भरी होने से हम इसे दान में लगाते हैं , दूसरों की सहायता में लगाते हैं । इस कारण हम निरन्तर यशस्वी होते चले जाते हैं । हमारा यश व कीर्ति दूर दूर तक जाती है । मानव अनेक बार अपार धन सम्पदा पा कर इसके अभिमान में मस्त हो जाता है । इस मस्ती में वह अनेक बार एसे कार्य भी कर लेता है , जो उसे अपयश का कारण बनाते हैं । किन्तु यज्ञ आदि में धन का प्रयोग करने से उस का यश व कीर्ति बढते हैं ।
प्रभु उपासना से प्राप्त धन हमें अत्यधिक सशक्त करने वाला होता है, हमारी शक्ति बढाने वाला होता है । जब अत्यधिक धन के अभिमान में व्यक्ति अनेक नोकर – चाकरों को रख कर आलसी बन जाता है , कोइ कार्य नहीं करता, निठला हो जाता है तो स्वाभाविक रूप से शारीरिक कार्य वह स्वयं नहीं करता, इस कारण निर्बल हो जाता है । क्रिया अर्थात मेहनत ही सब प्रकार की शक्तियों का आधार होती है , जो व्यक्ति क्रियाशील रहता है , उसमें शक्ति की सदा वृद्धि होती रहती है, ह्रास नहीं होता । यह क्रियाशीलता ही शक्ति की जन्मदाता होती है । जब क्रिया का क्षय हो जाता है तो शक्ति का नाश होता है । हम अपने शरीर को ही देखे , हमारे दो हाथ हैं , एक दायां तथा दूसरा बायां । प्रत्येक व्यक्ति का बायां हाथ उसके अपने ही दायें हाथ से कमजोर होता है । एसा क्यों , क्योंकि मानव अपना सब काम दायें हाथ से ही करता है, बायें हाथ से वह बहुत कम कार्य करता है । इस कारण बायां हाथ दायें की अपेक्षा कमजोर रह जाता है । यही कारण है कि क्रियाशीलता के बिना तो प्रभु स्मरण भी नहीं होता । अत: प्रभु स्मरण हमें क्रियाशील बना कर बलवान बनाता है । क्रियाशील होने से हमारा शरीर पुष्ट होता है, पुष्टी से हम अधिक कार्य करने में सक्षम होते हैं, धनेश्वर्य के स्वामी बनते हैं। हमें यश व कीर्ति मिलतै हैं तथा हम में शक्ति का संचय होता है , जिससे हम वीर बनते हैं ।
डा. अशोक आर्य

प्रभु की समीपता से दिव्य गुणों की प्राप्ति

ओउम
प्रभु की समीपता से दिव्य गुणों की प्राप्ति
डा.अशोक आर्य
ज्ञानी, निरोग,निर्मल,मधुर्भाषी,क्रियाशील व्यक्ति प्रभु का स्मरण कर दिव्यगुण पाता है , ज्ञान प्राप्त करने का अभिलाषी ही पिता का सच्चा उपासक होता है, जो निर्मल रहते हुये निरोग रहता है, जो दूसरों की प्रशंसा करते हुये सदा मधुर ही बोलता है तथा सदैव क्रियमान रहता है । प्रभु के समीप रहने से दिव्यगुणों की वृद्धि होती है । इसे यह मन्त्र इस प्रकार स्पष्ट कर रहा है :-
अग्निःपूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्योनूतनैरुत।
सदेवाँएहवक्षति॥ ऋ01.1.2
विगत मन्त्र में बताया गया था कि तत्वदर्शी लोग ही प्रभु की समीपता पाते हैं । तत्वदृष्टा अपनी रक्षा स्वयं करते हैं । स्वयं को किसी प्रकार के रोग से आक्रान्त नहीं होने देते , रोगों का आक्रमण अपने आप पर नहीं होने देते । इस के साथ ही साथ अपने में जो कमियां हैं , जो न्यूनतायें हैं , उन्हें भी वह दूर करते ही रहते हैं । भाव यह है कि वह स्वयं को पूर्ण करने का यत्न सदा ही करते रहते हैं । वह जो भी शब्द बोलते हैं, वह प्रशंसात्मक ही होते हैं , दूसरे को प्रसन्न करने वाले ही होते है , एसे शब्द कभी नहीं बोलते, जिससे दूसरे को दु:ख हो । यह लोग दूसरों की निन्दा करने से सदा दूर रहते हैं , दूसरों की अच्छायियों का ही वर्णन करते हैं , उनकी कमियों का कभी वर्णन करना नहीं चाहते । यह लोग सदैव गतिशील ही रहते हैं । क्रियमान ही बने रहते हैं । आलस्य , प्रमाद से सदा दूर रहते हैं । इन का जीवन सदा क्रियाशील ही रहता है ।
इस सब का यदि संक्षेप में वर्णन करें तो हम कह सकते हैं कि जो परमपिता परमात्मा का स्तवन करते हैं, उसके उपासक बनकर स्तुति रुप प्रार्थना करते हैं वह सदा :-
( क ) तत्वदृष्टा होते हैं
( ख ) अपने शरीर में रोगों का प्रवेश नहीं होने देते ।
( ग ) अपने अन्दर जो कमियां है, जो नयूनतायें हैं , जो अभाव हैं , उन्हें दूर करने
का यत्न करते हैं ।
( घ ) जो कभी कटू, निन्दक,शब्द न बोल कर सदा प्रशंसा में ही शब्द प्रयोग करते
हैं ।
( ड ) जो लोग सदा अपना जीवन गतिमान रखते हैं ,क्रियात्मक रहते हैं ।
एसे लोग ही प्रभु के समीप रहने के बैठने के अधिकारी होते हैं ।
वह प्रभु एसे लोगों से उपासित हो कर , एसे लोगों की समीपता पा कर , इस मानव जीवन में इस प्रकार के लोगों को दिव्य गुण प्राप्त कराने का कार्य करते हैं । भाव यह है कि प्रभु प्राप्ति का सब से मुख्य तथा बडा लाभ यह ही है कि प्रभु की उपासना से, प्रभु के समीप आसन लगाने से, उसकी समीपता पाने से हममें दिव्यगुणों की बडी तेजी से वृद्धि होती है ।
डा. अशोक आर्य

सोम की रक्शा से हम इन्द्र व शक्त बनेंगे

औ३म
सोम की रक्शा से हम इन्द्र व शक्त बनेंगे
डा. अशोक आर्य
हम शत्रुओं का वारण करने वाले संहार करने वाले बनें । इनका वारण करते हुये हम अपने अन्दर सोम की रक्शा करें । यह सोम का रक्शण ही उस परमपिता को पाने का साधन होता है । जब हम सोम का रक्शन करते हैं तो हम भी इन्द्र बनते हैं , सशक्त बनते हैं । इस तथ्य को ही रिग्वेद के मण्डल संख्या ८ के सुक्त संख्या ९१ के प्रथम मन्त्र में इस प्रकार बताया गया है : –
कन्या३ वारवायती सोममपि स्त्रुताविदत ।
अस्तं भरन्त्यब्रवीदिन्द्राय सुनवै त्वाश्क्राय सुन्वै त्वा ॥ रिग्वेद *.९१.१ ॥
मन्त्र कहता है कि शत्रुओं का वारण करने वाली , शत्रुओं का नाश करने वाली यह कन्या ( कन दीप्तो ) अर्थात कणों को दीप्त करने वाली अथवा सोम कणों को बटाने वाली अथवा दैदिप्यमान जीवन वाली यह बनती है । यह सोम से सुरक्शित होने के कारण काम क्रोध आदि से,( गति करती हुइ ) दूर होती चली जाती है । काम क्रोध से यह सदैव दूर ही रहती है । यह सोम शक्ति काम क्रोध के साथ तो निवास कर ही नहीं सकती । इस कारण इन शत्रुओं से सदा ही दूर रहती है । जहां काम क्रोध आदि शत्रु निवास करते हैं, वहां सोम का सदा नाश ही होता रहता है । शक्ति आ ही नहीं सकती । इस कारण ही यह एसे शत्रुओं से सदा दूर रहती है । यह शक्ति निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर रहती है । इस कारण ही यह सोम को भी प्राप्त करने में सफ़ल हो जाती है । सोम नामक कणों को यह शक्ति अपने अन्दर रक्शित करती है ।
यह शरीर इस शक्ति का निवास है , घर है । अत: यह अपने इस घर रुपि शरीर को सोम कणों से निरन्तर पुशट करती रहती है । सोमकणों से शरीर को निरन्तर पुश्ट करती रहती है । अपने शरीर को इन सोम कणॊं की सहयता से सदा शक्तिशाली बनाते हुये यह सम्बोधन करते हुये कहती है कि हे सोम ! मैं परमएशवर्यशाली को पाना चाहती हूं । उसे पाने के लिये ही मैं तुझे पैदा करती हुं , उत्पन्न करती हुं । जब मेरे में सोम कण रम जावेंगे तो मुझे उस प्रभु को पाने में सरलता होगी । इस लिये मैं तुझे अपने शरीर में अभिशूत करती हू ताकि मुझे (तेरे इस शरीर में रमे होने के कारण ) वह सर्वशक्तिमान प्रभु मिल जावे ।

डा.अशोक आर्य

ऋग्वेद प्रथम अध्याय सूक्त सात के मुख्य आकर्षण

ऋग्वेद प्रथम अध्याय सूक्त सात के मुख्य आकर्षण
डा. अशोक आर्य
ऋग्वेद के प्रथम अध्याय के इस सप्तम सूक्त का आरम्भ प्रभु के स्तवन से , प्रभु की प्रार्थना से , उसकी स्तुति से आरम्भ होता है तथा यह स्तुति करते हुए यह सूक्त निम्न प्रकार से उपदेश कर रहा है :-
१. सूर्य व बादल प्रभु के अनुदान :-
परम पिता परमात्मा जो भी कर्य करता है वह अपने आप में अद्भुत ही होता है । उस प्रभु ने हमारे लिए बहुत से अनुदान दिए हैं । यह सब ही हमें अदभुत दिखाई देते हैं किन्तु इन में से दो अनुदान हमारे जीवन का आधार हैं । इन में से एक है सूर्य जिस की सहायता के बिना न तो हमारी आंख ही आंख कहलाने की अधिकारी है ओर न ही इस संसार का कोई काम ही हो सकता है । दूसरे हैं बादल । यह बादल भी हमरे जीवन का एक आवश्यक अंग हैं । इन के बिना हमारी वनस्पतियां , ऒषधियां उत्पन्न ही नहीं हो सकतीं , जलाश्य पूर्ण नहीं हो सकते । इस लिए हम मानते हैं कि यह दो तो उस पिता के दिए अनुदानों में सर्वश्रेष्ठ अनुदान हैं, अद्भुत विभुतियां हैं ।
२-३. प्रभु हमें विजयी कराते हैं :-
हम अपने जीवन में अनेक प्रकार के कार्य करते हैं किन्तु तब तक हम इन कार्यों में सफ़ल नहीं हो पाते , जब तक हमें उस प्रभु का आशीर्वाद न मिल जावे । इस लिए हम प्रति क्षण प्रभु की स्तुति करते हैं । प्रभु का आशिर्वाद मिलने के बाद ही हम सफ़लता पाते हैं । अत: स्पष्ट है कि हमें जो सफ़लताएं मिलती हैं , जीवन में जो विजयें मिलती है , उस का कारण भी वह प्रभु ही तो है ।
४. ज्ञान के दाता :-
वह प्रभु ज्ञान के देने वाले हैं । वह जानते हैं कि ज्ञान के बिना मानव कुछ भी नहीं कर सकता , उसकी सब उपलब्धियों का आधार ज्ञान ही होता है । इस लिए उन्होंने मानव मात्र के कल्याण के लिए वेद का ज्ञान उतारा, प्रकट किया , इस ज्ञान का अपावरण किया है ।
५-६. प्रभु के अनुदानों की गिनती सम्भव नहीं :-
प्रभु ने हमें अनन्त दान दिए हैं , असीमित अनुदान दिए हैं । हमारे अन्दर इतनी शक्ति नहीं कि हम प्रभु के सब अनुदानों की गिनती तक भी कर सकें । जब गिनती ही नहीं कर सकते तो उन सब अनुदानों की स्तुतियां कैसे कर सकते हैं ?, धन्यवाद कैसे कर सकते ? इससे स्पष्ट है कि हमारे लिए प्रभु ने असीमित अनुदान दिए हैं , यदि हम इन अनुदानों के लिए प्रभु को स्मरण करें , धन्यवाद करें तो भी हम सब अनुदानों का स्मरण मात्र भी इस जीवन में नहीं कर सकते । इस लिए प्रभु स्तुति कभी समाप्त ही नहीं होती ।
७. हम गॊवें ओर प्रभु गोपाल :-
इस सूक्त के अनुसार सत्य तो यह है कि हम तो प्रभु द्वारा जंगल में चराने को ले जा रही गऊएं हैं ओर वह प्रभु हमारा गोपाल है , चरवाहा है । वह जब तक चाहेगा हम अपना खाना खाते रहेंगे , ज्यों ही यह चरवाहा , यह प्रभु अपनी आंख फ़ेर लेगा , हमें लौटने का आदेश देगा, फ़िर हम एक क्षण के लिए भी इस जंगल में, इस चरागाह में , इस जगत में ठहर न पावेंगे ।
८. वह पालक ही हमारे दाता हैं :-
प्रभु हमारे पालक हैं । हमें विभिन्न प्रकार के अनुदान दे कर हमारा पालन करते हैं , हमारा लालन करते हैं तथा विभिन्न प्रकार कि वनस्पतियों , ऒषधियां एवं जीवनीय वस्तुएं हमें देने वाले हैं ।
९. प्रभु की प्रार्थना ही उत्तम है :-
जो प्रभु हमारे पालन करते हैं, लालन करते हैं तथा जीवन में विजयी करते हैं । इसलिए प्रभु की ही कामना , प्रार्थना , स्तुति ओर उपासना करना ही उतम है ।
१०. प्रभु ही सर्वोतम धनों के दाता हैं :-
जो प्रभु हमारी सब आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाले हैं , जो प्रभु हमारे लिए ज्ञान को बांटने वाले हैं । जो प्रभु हमें प्रत्येक संकट से निकाल कर अनेक प्रकार के अनुदानों से हमें लाभान्वित करते हैं , वह प्रभु ही हमें सब प्रकार के धनों को प्राप्त करावेंगे, इन धनों को प्राप्त कराने में हमें सहयोग देंगे , हमारा मार्ग दर्शन करेंगे ।
यही इस सूक्त का मुख्य उपदेश है, सार है ।

डा अशोक आर्य

हे पितृ तुल्य प्रभु ! आप हमें पिता सम उपलब्ध हों

औ३म
हे पितृ तुल्य प्रभु ! आप हमें पिता सम उपलब्ध हों
(सम्पूर्ण सूक्त )
डा.अशोक आर्य

ऋग्वेद का आरम्भ इस सूक्त से होता है ! यह इस वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त के रुप में जाना जाता है । इस सूक्त के मुख्य विषय है कि जीव सदा परमपिता की उपासना चाहता है, समीपता चाहता है, निकटता चाहता है,अपना आसन प्रभु के समीप ही रखना चाहता है । जीव यह भी इच्छा रखता है कि वह पिता उस के लिये प्रतिक्षण उलब्ध रहे तथा वह ठीक उस प्रकार प्रभु से सम्पर्क कर सके , उसके समीप जा सके, जिस प्रकार वह अपने पिता के पास जा सकता है । वह प्रभु से पिता- पुत्र जैसा सम्बन्ध रखना चाहता है । इस सूक्त के ऋषि मधुछन्दा: , देवता अग्नि: ,छन्द गायत्री तथा स्वर:षड्ज्क्रि हैं । आओ इस आलोक में हम इस सूक्त का वाचन करें तथा इसे समझने का यत्न करें ।
सबसे बडे दाता प्रभु का हम सदा स्मरण करें
परमपिता परमात्मा ने इस संसार की रचना की है। उस के ही आदेश से यह संसार चल रहा है । उसकी ही प्रेरणा से यह सूर्य , चन्द्र, तारे आदि गतिशील होकर सब प्राणियों की रक्षा करने व उन्हें पुष्ट करने का कार्य कर रहे हैं । इस परमपिता परमात्मा के दानों का वर्णन ऋग्वेद के प्रथम मण्ड्ल के प्रथम सुक्त के दस मन्त्रों में बडे ही उतम ढंग से किया गया है । प्रभु को हम प्रभु क्यों कहते हैं ?, उस पिता को हम दाता क्यों कहते हैं? तथा उस पिता का स्मरण करने के लिये , उस की उपसना करने के लिये हमें उपदेश क्यों किया जाता है ? इस सब तथ्य को इस ऋचा में बडे विस्तार से प्रकाशित किया गया है । ऋचा का प्रथम मन्त्र हमें इस प्रकार उपदेश दे रहा है : –
अग्निमीळेपुरोहितंयज्ञस्यदेवमृत्विजम्।
होतारंरत्नधातमम्॥ ऋ01.1.1||
मन्त्र में बताया गया है कि अग्नि रुप यज्ञ के देव , जो होता है तथा विभिन्न प्रकार के रत्नों को देने वाला है ,एसे प्रभु की हम सदा स्तुति किया करें ।
प्रभु के निकट अपना आसन लगावें
मन्त्र प्राणी मात्र को उपदेश कर रहा है कि वह परमपिता परमात्मा इस जगत को , इस ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने वाला है , इसे गति देकर इसे जगत की श्रेणी में लाने वाला है । वह प्रभु ही सब प्राणियों को उपर उठाने का कार्य भी करता है सब प्राणियों को उन्नत भी करता है , सब प्राणियों को आगे भी बढाता है । एसे साधक , जो हम सब का अग्रणी भी है , की हम सदा उपासना किया करें , उस प्रभु के चरणों में बैठा करें, उस के समीप सदा अपना आसन लागावें तथा उस प्रभु का स्तवन करें , स्तुति रुप प्रार्थना करें ।
२. वेदादेशानुसार दिनचर्या बनावें
हम जिस प्रभु की प्रार्थना करने के लिये इस मन्त्र द्वारा प्रेरित किये गये हैं , उस प्रभु के सम्बन्ध में भी इस मन्त्र में प्रकाश डालते हुये बताया है कि जो पदार्थ कभी बने नहीं अपितु पहले से ही प्रभु ने अपने गर्भ में रखे हुये हैं । इस का भाव यह है कि इस जगत की रचना से पूर्व भी यह सब विद्यमान थे तथा जो स्वयं ही होने वाले थे । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उस प्रभु का कभी निर्माण नहीं हुआ । वह प्रभु इस जगत की रचना से पूर्व भी विद्यमान था । स्वयं होने के कारण उसे खुदा भी कहा गया है । इतना ही नहीं वह प्रभु हम प्राणियों के सामने एक आदर्श के रुप में विद्यमान है । उस प्रभु में जो गुण हैं , उन्हें ग्रहण कर हमने स्वयं को भी वैसा ही बनाने का यत्न करना है । उस परम पिता परमात्मा ने हमारे सब कार्यों का , हमारे सब कर्तव्यों का , हमारे सब वांछित क्रिया कलापों का वेद में वर्णन कर दिया है, वेद में आदेशित कर दिया गया है । हमें उन के अनुसार ही अपना जीवन व दिनचर्या बनानी चाहिये ।
३. वद का स्वाध्याय नित्य करें
उस प्रभु ने ही हमारे कल्याण के लिये हमें वेद वाणी दी है , वेदों के रुप में ज्ञान का अपार भण्डार दिया है । वह प्रभु ही वेद में सब प्रकार के यज्ञों का प्रकाश करने वाले हैं । अर्थात उन्होंने वेद में विभिन्न प्रकार के यज्ञों का प्रकाश कर दिया है , विभिन्न प्रकार से दान करने की प्रेरणा दे दी है । मानव के जितने भी कर्तव्य हैं , उन सब का प्रतिपादन , उन सब का वर्णन उस पिता ने वेद मे कर दिया है ।
४. प्रभु स्मरण से शक्ति मिलाती है
हमारा यह परमपिता परमात्मा स्मरण करने के योग्य है , सदा स्मरणीय है । परमात्मा के स्मरण के लिये कहा गया है कि कोई समय एसा नहीं , जब उसे स्मरण न किया जा सके , कोई काल एसा नहीं जब उसे स्मरण न किया जा सके । इतना ही नहीं प्रत्येक ऋतु में ही उसे स्मरण किया जा सकता है तथा किया जाना चहिये । अत: मन्त्र कहता है कि उस दाता को हमें सदा स्मरण करना चाहिये , उस प्रभु को हमें सदा स्मरण करना चाहिये ,जो हमें सदा शक्ति देता है, जिसके स्मरण मात्र से , जिसके समीप बैठने से तथा जिसकी स्तुति करने से हमें अपार शक्ति मिलती है। शक्ति का प्रवाह हमारे शरीर में ओत – प्रोत होता है ।
५. सोते जागते सदा प्रभु स्मरण करें
मानव सदा विभिन्न कार्यो में उलझा रहता है । कभी उसे अपने व्यवसाय के लिये कार्य करना होता है तो कभी उसे अपने परिजनों का ध्यान करना होता है , उनकी देख रेख करनी होती है । परिवार की इन चिन्ताओं के कारण उस के पास समय का अभाव हो जाता है । समय के इस अभाव को वह साधन बना कर प्रभु चिन्तन से दूर होने का यत्न करता है किन्तु मन्त्र ने इस का भी बडा ही सुन्दर समाधान दे दिया है । मन्त्र कह रहा है कि हे मानव ! यह ठीक है कि तेरा जीवन अत्यन्त व्यस्त है । इस मध्य तूं ने अनेक समस्याओं के समाधान में अपना समय लगाना है इस कारण सम्भव है कि दैनिक कार्यों को पूरा करने के कारण तेरे पास प्रभु स्मरण का समय ही न रहे , जब कि प्रतिपल प्रभु को स्मरण करने के लिये कहा गया है, एसी अवस्था मे भी एक समय तेरे पास एसा होता है , जब तुझे किसी प्रकार का कोई काम नहीं होता । इस काल में तूंने केवल आराम , केवल विश्राम ही करना होता है । इस काल का , इस समय का नाम है रात्रि । यह रात्रि का समय ही तो होता है जब हमें कुछ सोचने , विचारने व स्मरण करने का अवसर देता है । रात्रि काल में जब हम अपने शयन स्थान पर जावें तो कुछ समय स्वाध्याय स्वरुप वेद का अध्ययन करें तथा फ़िर इस स्थान पर ही कुछ काल प्रभु का स्मरण करें । रात्री को सोते समय प्रभु स्मरण से प्रभु हमारा सहयोगी हो जाता है , पथ प्रदर्शक हो जाता है , मित्र हो जाता है । जब प्रभु हमारा सहायक हो जाता है तो रात्रि को जब हम निद्रा अवस्था में होते हैं तो वह प्रभु ही हमारा रक्षक होता है , चौकीदार का काम करता है तथा हमें किसी प्रकार का बुरा, भ्यावह स्वप्न तक भी हमारे पास नहीं आने देता । स्वप्न में भी हमें प्रभु ही दिखाई देता है । प्रभु की गोद में रहते हुये इस प्रकार शान्त निद्रा मिलती है , जैसी माता की गोदी में ही मिला करती है । अत; एसी अवस्था में प्रभु के ही स्वप्न आते हैं । स्वपन अवस्था में प्रभु ने जो पाठ हमें दिया होता है , उस उतम पाठ को हम जागृत अवस्था में भी कभी न भुलें । यह यत्न ही हमें करना है ।
६. सब से बड़ा दानी
इस जगत में सबसे बडा दानी प्रभु को ही कहा गया है । हम अपने जीवन में जिन जिन वस्तुओं का उपभोग करते , जिन जिन पदार्थों का सेवन करते हैं ,वह सब उस प्रभु की ही देन है । परमपिता परमात्मा ने हमारे जीवन को उत्तमता से भरकर प्रसन्नता से भर पूर बनाने के लिये यह फ़ल, यह फ़ूल ,यह वन्सपतियां, यह सूर्य, यह चन्द्र , यह वायु, यह जल दिया है । यदि पिता यह सब कुछ न देता तो हमारे जीवन का एक पल भी चल पाना सम्भव नहीं था । यह सब कुछ उस पिता ने दिया है । तब ही तो हम उसे सब से बडा दाता, सबसे बडा दानी कहते हैं । उस प्रभु ने इस संसार के प्राणियों को तो अपने अन्दर समेट ही रखा है किन्तु जब संसार समाप्त हो जाता है, जब प्रलय आ जाती है , तब भी प्रभु ही इस जगत को सम्भालता है । प्रलय के समय इस पूरे बर्ह्माण्ड को हमारा वह परम पिता अपने अन्दर समेट कर इस की रक्षा करता है ।
७. दाता बाँट कर देता हैं
परमपिता प्रभु ने मानव मात्र के , प्राणि मात्र के हित के लिये जितने भी पदार्थ आवश्यक थे, उन सब की रचना की है । जितनी भी आनन्द देने वाली ,सुख देने वाली, रम्नीक वस्तुएं हैं , उन सब को धारण करने वाले वह सर्वोतम प्रभु हैं तथा यह सब हमें बांटने क कार्य भी करते हैं ।
८. सप्त धातुओं कि रचना
प्रभु अनुभवी संचालक भी है , जो इस शरीर रुपि कारखाने के अन्दर बडी ही उतम व्यवस्था है । इस शरीर में अन्न देता है । अन्न से हमारा यह रक्त बनता है । रक्त से शरीर में मांस बनता है , मोदस बनता है , अस्थि व मज्जा बनते हैं तथा फ़िर इससे ही वीर्य बनता है , जो शरीर को शक्ति देकर बलिष्ठ बनाता है । इन सात धातुओं का निर्माण क्रमानुसार इस शरीर में ही करता है । इस सात धातुओं को ही सात रत्न कहा जाता है । जब हम शरीर शास्त्र का अध्ययन करते हैं तो इन सात धातुओं के समबन्ध में तथा इन के महत्व के समबन्ध में हमें ज्ञान होता है । इन सप्त धातुओं ने ही इस शरीर को रमणीक बना दिया है । । बस इस कारण ही इन धातुओं को रत्न का नाम दिया गया है । इस शरीर को उस पिता ने एक निवास का , एक घर क रुप देते हुये इस में ही इन सात रत्नों की स्थापना कर दी है, इनका निवास बना दिया है । एसे दयालु प्रभु का, एसे दाता प्रभु का, एसे सब याचकों की याचना को पूरा करने वाले प्रभु का हमें सदा ध्यान करना चाहिये, उसके पास बैठ कर उसकी स्तुति करनी चाहिये, उसकी प्रार्थना करनी चाहिये ।

डा. अशोक आर्य

ज्ञान से मानव क्रियमान बनता है

ज्ञान से मानव क्रियमान बनता है
डा. अशोक आर्य
हम सदा अभय रहें , हमारे में किसी प्रकार का उद्वेग न हो, किसी प्रकार का भय न हो । हमारे यज्ञ में कभी रुकावट न आवे । हम सदा अपने ज्ञान, अपनी भक्ति तथा अपने
कर्म का सदा विस्तार करें । हम जो ज्ञान पूर्वक कर्म करते हैं , वह ही भक्ति है तथा ज्ञान हम उसे ही मानते हैं , जो हमें सदा किसी न किसी क्रिया में लगाये रखते है । यजुर्वेद के इस प्रथम अध्याय का २३ वां मन्त्र हमें यह सन्देश इन शब्दों में दे रहा है :-
मा भेर्मा सविक्थाऽअतमेरुर्यग्योऽतमेरुर्यजमानस्य प्रजा भूयात त्रिताय
त्वा द्विताय त्वॆक्ताय त्वा ॥ यजु.१.२३ ॥
पूर्व मन्त्र में यह बताया गया था कि जिस व्यक्ति का सविता देव के द्वारा अच्छी व भली प्रकार से परिपाक हो जाता है , एसा व्यक्ति सदा ही किसी प्रकार से भी भयभीत नहीं होता । वह सदा निर्भय ही रहता है । एसे व्यक्ति में दॆवीय सम्पति अर्थात देवीय गुणों का विकास होता है , विस्तार होता है । यह विकास अभय अर्थात भय रहित होने से ही होता है । इस लिये यह मन्त्र इस बात को ही आगे बढाते हुए तीन बिन्दुओं पर विचार देते हुए उपदेश कर रहा है कि :-
१. प्रभु भक्त को कभी भय नही होता :-
मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे प्राणी ! तूं डर मत । तुझे किसी प्रकार का भय नहीं होना चाहिये । तूं प्रभु से डरने के कारण सदा प्रभु के आदेश का पालन करता है , प्रभु की शरण में रहता है । जो प्रभु की शरण में रहता है , प्रभु के आदेशों का पालन करता है , वह संसार में सदा भय रहित हो कर विचरण करता है । अन्य किसी भी सांसारिक प्राणी से कभी भयभीत नहीं होता ।
इसके उलट जो व्यक्ति उस परमपिता से कभी भय नही खाता , कभी भयभीत नहीं होता , एसा व्यक्ति संसार के सब प्राणियों से , सब अवस्था में भीरु ही बना रहता है , डरपोक ही बना रहता है , सदा सब से ही भयभीत रहता है , जबकि प्रभु से डरने वाला सदा निडर ही रहता है । इसलिए मन्त्र कह रहा है कि हे प्राणी ! प्रभु से लगन लगा ,किसी प्रकार के उद्वेग से तूं डर मत , कम्पित मत हो , भयभीत न हो । तूं ठीक मार्ग पर , सुपथ पर चलने वाला है । सुपथ पर जाने वाले को कभी किसी प्रकार का भय , कम्पन नहीं होता ।
२. अनवरत यज्ञ करें
हे प्राणी। तूं सच्चा प्रभु भक्त होने के कारण सदा यज्ञ करने में लगा रहता है किन्तु इस बात का स्मरण बनाये रखना कि तेरा यह यज्ञ कभी श्रान्त न हो , कभी बाधित न हो , कभी इस में रुकावट न आने पावे । इसे अनवरत ही करते रहना । इस सब का भाव यह है कि तूं सदा यज्ञ करने वाला है तथा तेरी यह यज्ञीय भावना सदा बनी रहे , निरन्तर यज्ञ करने की भावना तेरे में बनी रहे । तूं सदा एसा यत्न कर कि तेरी यह भावना कभी दूर न हो । इस सब का भाव यह ही है कि हम सदा यज्ञ करते रहें , परोपकार करते रहें , दूसरों की सहायता करते रहे । हमारी इस अभिरुचि में कोई कमीं न आवे । कभी कोई समय एसा न आवे कि हम इस यज्ञीय परम्परा को बाधित कर कुछ और ही करने लगें ।
३. प्रभु यग्यी व्यक्ति को चाहता है :-
हम यह जो यज्ञ करते हैं , इस कारण हम प्रभु की सच्ची सन्तान हैं । मन्त्र कह रहा है कि प्रभु यज्ञीय को ही पसन्द करते हैं । वह यज्ञीय व्यक्ति को पुत्रवत प्रेम करते हैं । वह नहीं चाहते कि उसकी सन्तान कभी उत्तम कर्म करते करते थक जावें । प्रभु अपनी सन्तान को सदा बिना थके कर्म करते हुए देखना चाहते हैं । निरन्तर कर्म में लिप्त रहना चाहते हैं । अकर्मा तो कभी होता देख ही नहीं सकते । इस के साथ ही मन्त्र यह भी कहता है कि जो व्यक्ति सदा कर्म करते हुए अपने सब यज्ञीय कार्यों को सम्पन्न करते हैं , एसे व्यक्तियों का समबन्ध परम पिता परमात्मा से सदा बना रहता है । वह कभी उस पिता से दूर नहीं होते । सदा प्रभु से जुडे रहते हैं । कभी थकते नहीं , कभी विचलित नहीं होते , कभी भयभीत नहीं होते । उनकी निरन्तरता कभी टूटती नहीं । जो लोग प्रभु के नहीं केवल प्रकृति के ही उपासक होते हैं , वह कुछ ही समय में थक जाते हैं , श्रान्त हो जाते हैं । एसे लोगों का जीवन विलासिता से भरा होता है । एसे लोग काम क्रोध , जूआ , नशा आदि के शिकार होने के कारण उनका शरीर जल्दी ही क्षीण हो जाता है , जल्दी ही कमजोर हो कर थक जाता है । अनेक प्रकार के रोग उन्हें घेर लेते हैं तथा अल्पायु हो जाते हैं ।
मन्त्र आगे कह रहा है कि मानव को ज्ञान का प्रधान होना चाहिये , वह कर्म मे भी कभी फीछे न रहे तथा प्रभु भक्ति से भी कभी मुख न मोडे । इस लिए ही मन्त्र उपदेश करते हुए कह रहा है कि प्रभु अपने भक्तों को , अपने पुत्रों को , अपनी उपासना करने वालॊं के ज्ञान , अपने कर्म तथा उनकी उपासना में कभी कमीं नहीं आने देते अपितु उन्हें अपने यह सब गुण बढाने के लिए प्ररित करते हैं । वह प्राणी के इन गुणों को बढाने के लिए सदा उसे उत्साहित करते रहते हैं । इस का कारण है कि जो भक्ति ज्ञान सहित की जावे , वह भक्ति ही भक्ति कहलाती है । इसे ही भक्ति कहते हैं । इसलिए मन्त्र यह ही उपदेश करता है कि तेरे ज्ञान तथा कर्म में निरन्तर विस्तार होता रहे , निरन्तर उन्नति होती रहे , निरन्तर आगे बढता रहे ।
मन्त्र यह भी कहता है कि हमारे जितने भी आवश्यक कर्म हैं , उन सब की प्रेरणा का स्रोत , उन सब की प्रेरणा का केन्द्र , उन सब की प्रेरणा का आधार ज्ञान ही होता है । इसलिए इस मन्त्र के माध्यम से परम पिता परमात्मा उपदेश करते हुए कह रहे हैं कि मैं तुझे ज्ञान के बढाने की और प्रेरित करता हूं , मैं तुझे अपने ज्ञान को निरन्तर बढाने के लिए आह्वान करता हूं । यह तो सब जानते हैं कि ब्रह्मज्ञानियों में भी जो क्रियमान होता है , वह ही उत्तम माना जाता है , श्रेष्ट माना जाता है । इस लिए हे प्राणी ! तूं निरन्तर स्वाध्याय कर , निरन्तर एसे कर्म कर , निरन्तर एसे कार्य कर कि जिससे तेरे ज्ञान का विस्तार होता चला जावे , कि जिससे तेरे ज्ञान को बढावा मिले ।
डा. अशोक आर्य

प्रभु सब का कल्याण करते हैं

प्रभु सब का कल्याण करते हैं
डा. अशोक आर्य
परमात्मा श्रमशील व्यक्ति , जो मेहनत करके अपना व्यवसाय चलाता है , को ही पसन्द करते हैं , उसकी ही सदा सहायता करते हैं । इस प्रकार का उपदेश इस मन्त्र में इस प्रकार दिया गया है :-
यएकश्चर्षणीनांवसूनामिरज्यति।
इन्द्रःपञ्चक्षितीनाम्॥ ऋ01.7.9 ||
इस मन्त्र में पभु ने तीन बिन्दुओं के माध्यम से जीव को इस प्रकार उपदेश किया है :-
१. श्रम से धन प्राप्त करें :-
परम पिता प्ररमात्मा की सदा यह ही इच्छा रही है कि मानव अथवा जीव सदा श्रम शील हो । वह चाहे कृषि करे या कोई भी अन्य व्यवसाय किन्तु यह सब कुछ वह मेहनत से करे , उद्योग से करे , पुरुषार्थ से करे । मेहनत से किया कार्य निश्चित ही कोई उतम फ़ल लेकर आता है । प्रभु जीव को पुरुषार्थी ही देखना चाहता है । जो लोग आलसी होते हैं , प्रमादी होते हैं , अन्यों पर आश्रित होते हैं , एसे जीवों को वह पिता कभी भी पसन्द नहीं करते । इस कारण ही इस मन्त्र में कहा गया है कि वह प्रभु श्रमशील व्यक्तियों तथा उनके निवास के लिए सब प्रकार के आवश्यक धनों के ईश होने के कारण वह उन जीवों की सहायता करके उन्हें अपना निवास बनाने के लिए तथा दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन आदि की व्यवस्था करने में सहयोग करते हैं किन्तु करते उसके लिए ही हैं , जो मेहनत करता है , जो श्रम करता है , जो पुरुषार्थ करता है ।
परमपिता परमात्मा सर्वशक्तिमान हैं । सब प्रकार की शक्तियां प्रभु में विद्यमान हैं । इन शक्तियों का संचालन , इन शक्तियों का प्रयोग भी वह स्वयं ही करते हैं । अपने कार्य करने के लिए उन्हें किसी अन्य की सहायता नहीं लेनी पडती । वह अपना काम स्वयं ही करते हैं । मानव को , जीव को तो अपने कार्य करने के लिए , अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सदा ही दूसरों पर आश्रित होना पडता है , दूसरों की सहायता लेनी पड्ती है । चाहे कृषि का क्षेत्र हो चाहे कोई व्यवसाय , उसे दूसरे की सहायता लेनी ही होती है । वह अकेले से अपने किसी भी कार्य की पूर्ति नहीं कर सकता । इसलिए उसे प्रबन्धन करना होता है , कुछ लोगों में काम बांट कर करना पडता है , तब ही उसके काम की पूर्ति होती है किन्तु वह सर्वशक्तिमान परमात्मा एसा नहीं करता ,। वह अपने सब काम ओर उन कामों के सब भाग वह स्वयं ही पूर्ण करता है ।
२. प्रभु श्रमशील को ही पसन्द करता है :-
प्रभु को श्रमशील मनुष्य , मेहनती मनुष्य , पुरुषार्थी मनुष्य ही पसन्द हैं । एसे जीव को ही वह अपना आशीर्वाद देते हैं , जो निरन्तर परिश्रम करते हैं । आलसी – प्रमादी को वह कभी पसन्द नहीं करते । जो अपना काम स्वयं करता है , एसे को ही वह पसन्द करते हैं । मन्त्र में एक शब्द आया है चर्षणीय । इस शब्द का स्थानापन्न कर्षणीय भी कहा गया है अर्थात कृषि आदि , वह कार्य जिन को करने के लिए मेहनत करनी होती है , पुरुषार्थ करना होता है । जो लोग इस प्रकार के मेहनत से युक्त , पुरुषार्थ से युक्त कार्यों में लगे रहते हैं , एसे व्यक्ति ही प्रभु को पसन्द हैं तथा प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं । इन्हें ही प्रभु अपनी कृपा का पात्र समझते हुए , इन पर कृपा करता है । एसे लोगों को वह पिता सब प्रकार के आवश्यक धन प्राप्त करने में सहाय होते हैं , सब एश्वर्यों के स्वामी बनाने में पथ प्रदर्शक का कार्य करते हैं । इस मन्त्र में चर्षणीय तथा वसूनां शब्दों का प्रयोग किया गया है । इन शब्दों के द्वारा यह भावना ही प्रकट होती है कि प्रभु की दया उसे ही मिलती है जो पुरुषार्थी है । जो मेहनत नहीं करता, आलसी है , प्रमादी है , एसे लोगों को प्रभु न तो पसन्द ही करते हैं तथा न ही उनकी किसी प्रकार की सहयता करते हैं । प्रभु उन पर अपनी दया दृष्टि कभी नहीं डालते । अत: प्रभु की दया पाने के लिए पुरुषार्थी होना आवश्यक है ।
३. प्रभु सब का कल्याण करते हैं ;-
परमपिता परमात्मा पांचों प्रकार के मनुष्यों के ईश हैं । इस वाक्य से एक बात स्पष्ट होती है कि इस संसार में पांच प्रकार के मनुष्य होते हैं । हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि प्रभु ने इस संसार के मानवों को पांच श्रेणियों में बांट रखा है । यह श्रेणियां उनकी योग्यता अथवा उनके गुणों के अनुसार बनायी गई हैं । जिस प्रकार एक विद्यालय में विभिन्न कक्षाएं होती हैं तथा प्रत्येक शिक्षार्थी को उसकी योग्यता के अनुसार कक्षा दी जाती है । जिस प्रकार हम देखते हैं कि इस विद्यालय में विभिन्न प्रकार के कर्मचारी होते हैं । प्रत्येक कर्मचारी को उसकी योग्यतानुसार चपरासी,लिपिक, अध्यापक अथवा मुख्याध्यापक का पद दिया जाता है। यह सब प्रभु की व्यवस्था की नकल मात्र ही है क्योंकि प्रभु ने इस जगत के मानवों को , उनकी योग्यता के अनुसार पांच श्रेणियों में बांट रखा है । यह पांच श्रेणियां इस प्रकार हैं :-
मानव – समाज =
(क) ब्राह्मण
(ख) क्षत्रिय
(ग) वैश्य
(घ) शूद्र
(ड.) निषाद ।
यह प्रभु की व्यवस्था है । जिस में जिस प्रकार के गुण हैं अथवा जिस में जिस प्रकार की योग्यता है , उसे उस प्रकार के वर्ग में ही प्रभु स्थान देते हैं । इस के साथ ही प्रभु उपदेश भी करते हैं कि हे मानव ! तेरी वर्तमान योग्यता को देखते हुए मैंने तुझे इस श्रेणी में रखा है , इस वर्ग में रखा है , यदि तूं पुरुषार्थ करके , मेहनत करके अपनी योग्यता को बढा लेगा तो तुझे सफ़ल मानकर उपर की श्रेणी में भेज दिया जावेगा ओर यदि तूं प्रमाद कर , आलसी होकर अपनी योग्यता को कम कर लेगा तो तुझे निरन्तर उस श्रेणी में ही रहना होगा जिस प्रकार एक असफ़ल बालक को अगले वर्ष भी उसी कक्षा में ही रहना होता है किन्तु तूंने फ़िर भी मेहनत न की तो तेरी श्रेणी नीचे भी की जा सकती है । इस प्रकार पांच श्रेणियां बना कर प्रभु ने मेहनत करने का मार्ग मानव मात्र के लिए खोल दिया है ।
वह परमात्मा तो सब मनुष्यों के ईश हैं । सब पर समान रूप से दया करते है । सब को समान रुप से धन देते हैं किन्तु देते उतना ही हैं जितना उसने पुरुषार्थ किया होता है । जिस प्रकार एक कपडे की मिल के सेवक को मालिक उतना ही धन प्रतिफ़ल में देता है , जितना उसने कपडा बनाया होता है , उससे अधिक नहीं देता । इस प्रकार ही वह प्रभु भी मानव को उतना ही धन देता है , जितना उस मानव ने मेहनत किया होता है , इस से अधिक कुछ भी नहीं देता । कपडे की मिल के मालिक से तो कई बार अग्रिम भी प्राप्त किया जा सकता है किन्तु परमात्मा किसी को अग्रिम धन नहीं देता । यह ही उस प्रभु की दया है , उस प्रभु की कृपा है । इस प्रकार प्रभु सब को धन देकर सब का कल्याण करते हैं क्योंकि वह ही क्ल्याणकारी हैं ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु हमारे एक मात्र ओर असाधारण मित्र हैं

प्रभु हमारे एक मात्र ओर असाधारण मित्र हैं
डा. अशोक आर्य
ज्यों ही प्रभु जीव का मित्र हो जाता है त्यो ही जीव को सब कुछ मिल जाता है । उस की सब अभिलाषाएं पूर्ण हो जाति हैं , सब इच्छाए पूर्ण हो जाती हैं , उसे किसी वस्तु की आवश्यकता ही नहीं रह जाती । इस तथ्य पर यह मन्त्र इस प्रकार प्रकाश डाल रहा है :-
इन्द्रंवोविश्व्तस्परिहवामहेजनेभ्य: ।
अस्माकमस्तुकेवल: ॥ ऋ01.7.10 ॥
इस मन्त्र में दो बिन्दुओं पर इस प्रकार प्रकाश डाला गया है :-
१. प्रभु सदा हमारा कल्याण चाहते हैं :-
इस चलायमान जगत में एक मनुष्य ही दूसरे मनुष्य की सहायता करता है । मानव में यद्यपि एक दूसरे से सदा ही प्रतिस्पर्द्धा रहती है । वह एक दूसरे से आगे निकलने का यत्न करता है , दूसरे से अधिक सुखी व सम्पन्न होने का प्रयास प्रत्येक मानव को इस दौड का प्रतिभागी बना लेता है । इतना होते हुए भी समय आने पर मानव ही मानव के काम आता है ।
हम इस जगत में अकेले नहीं हैं । हमारे बहुत से सम्बन्धी हैं । कोई हमारी माता है , कोई पिता है , कोई हमारा भाई है तो कोई चाचा , कोई मामा, कोई ताऊ या किसी अन्य सम्बन्ध में बन्धा है । यह सब लोग समय – समय पर हमारी अनेक प्रकार से सह्योग , सहायता व सुरक्षा करते हैं । इस कारण यह सब हमारे शुभ – चिन्तक हैं , हितैषी हैं , सहायक हैं अथवा मित्र हैं । जब भी हमारे पर कोई भी विपति आती है तो यह सहायक बन कर सामने खडे होते हैं तथा इस दु:ख के अवसर पर हमारा साथ देकर हमें इस से निकालने का यत्न करते हैं ।
यह हमारे मित्र ,यह हमारे सम्बन्धी क्या सदा सर्वदा हमारा सहयोग करेंगे ? , क्या सदा ही संकट काल में हमारे रक्षक बन कर सामने आवेंगे । नहीं यह एक सीमा तक ही हमारे मित्र , हमारे सहायक , हमारे रक्षक होते हैं । इस सीमा के पार यह लोग नहीं जा पाते । यह तब तक ही हमारे साथी हैं , जब तक हमारे कारण इन को कोई कष्ट नहीं अनुभव होता , यह तब तक ही हमारे साथी हैं , जब तक इन को कोई व्यक्तिगत हानि नहीं होती । ज्यों ही कभी हमारे कारण इन्हें कोई हानि होने की सम्भावना होती है तो यह हम से अलग हो जाते हैं | जब तक दोनों के हित – अहित एक से होते हैं तो सब साथ होते हैं किन्तु ज्यों ही एक दूसरे के हित अहित में अन्तर आता है तो यह अलग हो जाते हैं । जीवन में कई अफ़सर तो एसे आते हैं कि जिस समय निकट से निकटतम सम्बन्धी भी साथ छोड जाता है ।
जिस समय हमारे सब मित्र हमारा साथ छोड देते हैं, संकट के समय हमें मंझधार में डूबने के लिए छोडकर चले जाते हैं , एसी अवस्था में परम पिता पामात्मा हमारे सहायक बन कर आते हैं , हमारे असाधारण मित्र बन कर आते हैं , असाधारण सम्बन्धी बनकर आते हैं तथा हमारा हाथ पकड कर हमें संकट से निकाल कर ले आते हैं । यहां उस पिता को असाधारण मित्र तथा असाधारण सम्बन्धी कहा है । एसा क्यों ? क्या केवल मित्र या सम्बन्धी शब्द से काम नहीं चल सकता था ? जी नहीं ! केवल इस शब्द से काम कैसे चल सकता है ? यह शब्द तो हम पहले ही अपने व्यक्तिगत मित्रों व सम्बन्धियों के लिए प्रयोग कर चुके हैं , जो संकट काल में हमें छोड गये थे । जब हमारा कोई भी न था , एसे समय में उस पिता ने आकर हमें अपना मित्र , हमें अपना समन्धी मानकर हमारा हाथ पकडा | हमें उस संकट से निकाल कर लाए , फ़िर वह असाधारण क्यों नही हुआ ? इस कारण ही वेद के इस मन्त्र में उस प्रभु को असाधारण मित्र कहा गया है ।
मन्त्र कहता है कि जब हमारे मित्र हमारा साथ छोड जाते हैं , जब हमारे सब सम्बन्धी भी सब सम्बन्ध तोड कर चले जाते हैं , एसे समय हम उस प्रभु को ही अपने मित्र रुप में सामने खडा हुआ पाते हैं , उस प्रभु को ही हम अपने सम्बन्धी के रुप में सामने खडा हुआ पाते हैं । हम उसे सहायता के लिए पुकारते हैं । हम जानते हैं कि परम पिता सदा सब का कल्याण चाहते हैं , सदा सब को सुखी देखना चाहते हैं । इस लिए ही हम सहायता के लिए उसे पुकारते हैं । इस से स्पष्ट है कि जिस समय पूरे संसार में हमें अपना कोई भी सहायक दिखाई नहीं देता , उस समय यह प्रभु ही हमारा सहायक होता है , हमारा परम मित्र होता है , हमारा परम सम्बन्धी होता है ।
२. हम सदा प्रभु प्राप्ति की कामना करें :-
हम एसे कार्य करें कि जिससे हमारे रक्षक , हमारा कल्याण चाहने वाले वह प्रभु हमारे असाधारण मित्र बन जावें , हमारे असाधारण सम्बन्धी बन जावें । जब भी हम उसे पुकारें , वह दौडते हुए हमारी सहायता के लिए प्रकट हो जावें । इस लिए हम सदा ही अपने सांसारिक मित्रों से कहीं अधिक , हम अपने सांसारिक सम्बन्धियों से कहीं अधिक उस प्रभु को मित्र व सम्बन्धी के रुप मे देखें तथा उसे सर्वाधिक चाहें ।
यह प्रभु ही हमें आत्मतत्व के रुप में प्राप्त होते हैं । आत्म तत्व की प्राप्ति के लिए जीव सब कुछ त्यागने को तैयार हो जाता है , यहां तक कि वह इस पृथिवी , जो उसका निवास होती है , जिस के बिना वह एक क्षण भी इस संसार में रह नहीं सकता , इसे भी त्यागने को तैयार हो जाता है । यदि एक ओर इस जगत के , इस संसार के , इस ब्रह्माण्ड के सब पदार्थ हमें मिल रहे हों ओर एक ओर हमें केवल आत्म तत्व प्राप्त हो रहा हो तो हम सब कुछ को छोड कर आत्म तत्व को पाने का प्रयास करें । यही ही श्रेयस मार्ग है । जिस प्रकार कठोपनिष्द में बताया गया है कि नचिकेता ने संसार के सब प्रलोभनों को छोड दिया , उस ने इन प्रलोभनों की ओर देखा तक भी नहीं ओर आत्म तत्व पाने का यत्न किया । उस प्रकार ही हम भी इन सब भौतिक सुख सुविधाओं का त्याग करते हुए प्रभु को पाने का प्रयास करें , उसे वरण करने का यत्न करें ।
यह जितना कुछ हम जगत में देख रहे हैं , यह सब कुछ उस प्रभु के अन्दर ही विराजमान है । इसलिए जब वह पिता हमें मिल जावेंगे , हमें आशीर्वाद दे देवेंगे तो यह सब कुछ तो अपने आप ही हमें मिल जाने वाला है । फ़िर इस सब से अनुराग क्यों ?, इस सब से अनुराग हटा कर प्रभु से सम्बन्ध जोडने का यत्न करें ।
जब हम परम पिता विष्णु के अतिथि बन कर उसके द्वार पर जावेंगे तो वहां पर लक्ष्मी हमें भोजन कराने के लिए निश्चित रुप से प्रकट होगी । इस प्रकार विष्णु रुप प्रभु को पा कर , लक्ष्मी रुप प्रभु को पा कर हमें सब कुछ मिल जावेगा । इस लिए हमारे लिए यह प्रार्थाना , यह कामना , यह अभिलाषा करना ही सर्वश्रेष्ठ है कि हमें केवल ओर केवल वह पिता ,वह प्रभु , वह परम एश्वर्यशाली प्रभु हमें मिल जावें , प्राप्त हो जावें तथा उन्हें साक्षात करने का हम निरन्तर प्रयास करते रहें ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु के दरबार में सब प्रर्थनाएं स्वीकार होती हैं

प्रभु के दरबार में सब प्रर्थनाएं स्वीकार होती हैं
डा. अशोक आर्य
प्रभु सर्वशक्तिशाली है तथा हम सब का पालक है । वह हमारी सब प्रार्थनाओं को स्वीकार करता है । यह सब जानकारी इस मन्त्र के स्वाध्याय से मिलती है , जो इस प्रकार है :-
वृषायूथेववंसगःकृष्टीरियर्त्योजसा।
ईशानोअप्रतिष्कुतः॥ ऋ01.7.8 ||
इस मन्त्र में चार बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है ।:-
१. प्रभु प्रजाओं को सुख देता है :-
परम पिता परमात्मा सर्व शक्तिशाली है । उसकी अपार शक्ति है । संसार की सब शक्तियों का स्रोत वह प्रभु ही है । इस से ही प्रमाणित होता है कि प्रभु अत्यधिक शक्तिशाली है । अपरीमित शक्ति से परिपूर्ण होने के कारण ही वह सब को शक्ति देने का कार्य करता है । जब स्वयं के पास शक्ति न हो , धन न हो , वह किसी अन्य को कैसे शक्ति देगा , कैसे दान देगा । किसी अन्य को कुछ देने से पहले दाता के पास वह सामग्री होना आवश्यक है , जो वह दान करना चाहता हो । इस कारण ही प्रभु सर्व शक्तिशाली हैं तथा अपने दान से सब पर सुखों की वर्षा करते हैं ।
२. प्रभु सब को सुपथ पर ले जाते हैं :-
परम पिता परमात्मा हम सब को सुपथ पर चलाते हैं , जिस प्रकार गाडी के कोचवान के इशारे मात्र से , संकेत मात्र से गाडी के घोडे चलते हैं ,गति पकडते हैं , उस प्रकार ही हम प्रभु के आज्ञा में रहते हुए , उस के संकेत पर ही सब कार्य करते हैं । हम, जब भी कोई कार्य करते हैं तो हमारे अन्दर बैठा हुआ वह पिता हमें संकेत देता है कि इस कार्य का प्रतिफ़ल क्या होगा ?, यह हमारे लिए करणीय है या नहीं । जब हम इस संकेत को समझ कर इसे करते हैं तो निश्चय ही हमारे कार्य फ़लीभूत होते हैं । वेद के इस संन्देश को ही बाइबल ने ग्रहण करते हुए इसे बाइबल का अंग बना लिया । बाइबल में भी यह संकेत किया गया है कि भेडों के झुण्ड को सुन्दर गति वाला गडरिया प्राप्त होता है, उनका संचालन करता है , उन्हें चलाता है । भेड के लिए तो यह प्रसिद्ध है कि यह एक चाल का अनुवर्तत्व करती हैं । एक के ही पीछे चलती हैं । यदि उस का गडरिया तीव्रगामी न होगा तो भेडों की चाल भी धीमी पड जावेगी तथा गडरिया तेज गति से चलने वाला होगा तो यह भेडें उस की गति के साथ मिलने का यत्न करते हुए अपनी गती को भी तेज कर लेंगी । बाइबल ने प्रजाओं को भेड तथा प्रभु को चरवाहा शब्द दिया है , जो वेद में प्रजाओं तथा प्रभु का ही सूचक है ।
३. प्रभु से औज मिलता है : –
परम, पिता परमात्मा ओज अर्थात शक्ति देने वाले हैं । जो लोग कृषि अथवा उत्पादन के कार्यों में लगे होते हैं , उन्हें शक्ति की , उन्हें ओज की आवश्यकता होती है । यदि उनकी शक्ति का केवल ह्रास होता रहे तो भविष्य में वह बेकार हो जाते हैं , ओर काम नहीं कर सकते । शिथिल होने पर जब प्रजाएं कर्म – हीन हो जाती हैं तो उत्पादन में बाधा आती है । जब कुछ पैदा ही नहीं होगा तो हम अपना भरण – पोषण कैसे करेंगे ? इस लिए वह पिता उन लोगों की शक्ति की रक्षा करते हुए , उन्हें पहले से भी अधिक शक्तिशाली तथा ओज से भर देते हैं ताकि वह निरन्तर कार्य करता रहे । इस लिए ही मन्त्र कह रहा है कि जब हम प्रभु का सान्निध्य पा लेते हैं , प्रभु का आशीर्वाद पा लेते हैं , प्रभु की निकटता पा लेते हैं तो हम ( जीव ) ओजस्वी बन जाते है ।
४. प्रभु सबकी प्रार्थना स्वीकार करते हैं :
परमपिता परमात्मा को मन्त्र में इशान कहा गया है । इशान होने के कारण वह प्रभु सब प्रकार के ऐश्वर्यों के अधिष्ठाता हैं , मालिक हैं , संचालक हैं । प्रभु कभी प्रतिशब्द नहीं करते , इन्कार नहीं करते , अपने भक्त से कभी मुंह नहीं फ़ेरते । न करना , इन्कार करना तो मानो उन के बस में ही नहीं है । उन का कार्य देना ही है । इस कारण वह सबसे बडे दाता हैं । वह सब से बडे दाता इस कारण ही हैं क्योंकि जो भी उन की शरण में आता है , कुछ मांगता है तो वह द्वार पर आए अपने शरणागत को कभी भी इन्कार नहीं करते ,निराश नहीं करते । खाली हाथ द्वार से नहीं लौटाते । इस कारण हम कभी सोच भी नहीं सकते कि उस पिता के दरबार में जा कर हम कभी खाली हाथ लौट आवेंगे , हमारी प्रार्थना स्वीकार नहीं होगी । निश्चित रुप से प्रभु के द्वार से हम झोली भर कर ही लौटेंगे ।
डा. अशोक आर्य

आजकल आर्यसमाज के नए-नए विद्वान् नई-नई खोज कर रहे हैं। एक नई खोज सामने आयी है कि आत्मा साकार है और सत्यार्थप्रकाश का हवाला देते हुए बताते हैं कि स्वामी जी ने निराकार नहीं निराकारवत् लिखा। अब सही और गलत आप ही बताएँ।

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआजकल आर्यसमाज के नए-नए विद्वान् नई-नई खोज कर रहे हैं। एक नई खोज सामने आयी है कि आत्मा साकार है और सत्यार्थप्रकाश का हवाला देते हुए बताते हैं कि स्वामी जी ने निराकार नहीं निराकारवत् लिखा। अब सही और गलत आप ही बताएँ।

– यतीन्द्र आर्य, मन्त्री आर्यसमाज बालसमन्द, हिसार, हरि.

समाधानवैदिक सिद्धान्त त्रैतवाद को मानता है अर्थात् ईश्वर, जीव व प्रकृति इन तीनों की सत्ता है और वह सत्ता इन तीनों की अपनी पृथक्-पृथक् है। वेद व ऋषिकृत ग्रन्थों में इनका स्पष्ट वर्णन मिलता है। महर्षि दयानन्द ने अपने सिद्धान्त में इसी को रखा है। महर्षि ने इन तीनों स्वरूपों का वर्णन अपने ग्रन्थों, प्रवचनों व पत्र-व्यवहारों में अनेकत्र किया है। आर्य समाज के विद्वानों में महर्षि की मान्यता सर्वोपरि रहती है। वेद के आधार पर जिस बात को महर्षि मानते हैं उसी को आर्य विद्वान् स्वीकार करते हैं।

महर्षि दयानन्द ने जीवात्मा के स्वरूप विषय में जीवात्मा को स्पष्ट शब्दों में निराकार कहा है। महर्षि की इस स्पष्ट मान्यता की अवहेलना कर आर्य समाज में एक वर्ग विशेष चलाने वालें ने जीवात्मा को साकार कहना-बताना आरम्भ कर दिया है। यह ज्ञान  जिनके अन्दर उतरा है उनकी मान्यता है कि आज तक इनके अतिरिक्त यह बात किसी ने नहीं की, इसकी खोज तो मैंने ही की है। इनकी इस बात से हम सहमत हैं कि ये इलहाम इन्हीं को हुआ, अन्य किसी को नहीं। ये लोग तर्क देते हैं कि निराकार-निराकार में नहीं रह सकता अर्थात् निराकार ईश्वर में निराकार आत्मा वा अन्य कोई वस्तु नहीं रह सकती। इस तर्क को ये कथन मात्र में दोहराते हैं, सिद्ध नहीं करते। इसके लिए जहाँ तक हमारा अनुमान है कि इनके पास कोई शब्द प्रमाण नहीं है कि जीवात्मा साकार है।

हमने परोपकारी में जिज्ञासा-समाधान स्तम्भ के अन्तर्गत महर्षि दयानन्द के अनेक प्रमाण दिये। अब फिर उन प्रमाणों को देते हुए महर्षि का नया प्रमाण प्रस्तुत करते हैंः-

१. ‘‘बदला दिये जावेंगे कर्मानुसार, और प्याले भरे हुए, जिस दिन खड़े होंगे रूह और फरिश्ते सफ़ बांधकर’’ मं. ७/सि./३०/सू. ७८/आ. २६/३४/३८

समीक्षा-यदि कर्मानुसार फल दिया जाता है तो……….और रुह निराकार होने से वहाँ खड़ी क्योंकर हो सकेगी।’’ सत्यार्थप्रकाश समु. १४ (द. ग्रं. मा. भाग एक सं. १२९ वाँ बलिदान समारोह २०१२)

२. ‘‘इसी प्रकार भक्तों की उपासना के लिए ईश्वर का कुछ आकार होना चाहिए, ऐसा भी कुछ लोग कहते हैं, परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर स्थित जो जीव है वह भी आकार रहित है, यह सब कोई मानते हैं अर्थात् वैसा आकार न होते हुए भी हम परस्पर एक-दूसरे को पहचानते हैं और प्रत्यक्ष कभी न देखते हुए भी केवल गुणानुवादों ही से सद्भावना और पूज्य बुद्धि मनुष्य के विषय में रखते हैं।’’ (पूना प्रवचन व्या. १)े

प्रश्न- ‘‘मूर्त पदार्थों के बिना ध्यान कैसे बनेगा?

उत्तर- शब्द का आकार नहीं, तो भी शब्द ध्यान में आता है वा नहीं? आकाश का आकार नहीं तो भी आकाश का ज्ञान करने में आता है वा नहीं? जीव का आकार नहीं तो भी जीव का ध्यान होता है वा नहीं……।’’ (पूना. प्र. व्या. ४)

महर्षि दयानन्द का एक और प्रमाण सटीक व स्पष्ट रूप से देखिये-

यच्चेतनवत्वं तज्जीवत्वम्। जीवस्तु खलु चेतनस्वभावः।

अस्येच्छादयो धर्म्मास्तु निराकारोऽविनाश्यनादिश्च वर्त्तन्ते।

‘‘जो चेतन है, वह जीव है और जीव का चेतन ही स्वभाव है। उसके इच्छा आदि धर्म हैं तथा वह भी निराकार और नाश से रहित रहता है।’’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का पत्र व्यवहार भाग-१)

ये सभी शब्द प्रमाण हमने महर्षि दयानन्द के दिये हैं, इन आर्ष प्रमाणों को स्वीकार न कर अपनी काल्पनिक मिथ्या बात को सर्वोपरि रख उसको प्रचारित करना हठ-दूराग्रह ही हो सकता है।

अब इन आत्मा को साकार मानने वालों का जो कथन है कि निराकार परमात्मा में निराकार आत्मा कैसे रह सकता है? इनके इस कथन का उत्तर है कि जैसे साकार वस्तुएँ एकदेशीय होती हुईं निराकार परमात्मा में रहती हैं, वैसे ही एकदेशीय निराकार आत्मा भी निराकार परमात्मा में रहती है। यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि आत्मा और परमात्मा निराकार होते हुए भी दोनों सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म रूप से भेद रखते हैं। इस विषय में महर्षि दयानन्द प्रश्नोत्तर पूर्वक सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं-

प्रश्न जिस जगह में एक वस्तु होती है उस जगह में दूसरी नहीं रह सकती, इसलिए जीव और ईश्वर का संयोग सम्बन्ध हो सकता है, व्याप्य-व्यापक का नहीं?

उत्तरयह नियम समान आकार वाले पदार्थों में घट सकता है, असमान आकृति में नहीं।…….वैसे जीव परमेश्वर से स्थूल और परमेश्वर जीव से सूक्ष्म होने से परमेश्वर व्यापक और जीव व्याप्य है।’’ महर्षि के इन वचनों से यह बात स्पष्ट हुई कि ईश्वर और जीव इयत्ता की दृष्टि से दोनों परिमाण वाले हैं, एक सूक्ष्म है दूसरा सूक्ष्मतर है, इस आधार पर एक व्याप्य है और दूसरा व्यापक है, एक एकदेशीय है तो दूसरा सर्वदेशीय है। आत्मा परमेश्वर से कुछ स्थूल है। कुछ स्थूल होने से निराकार आत्मा निराकार परमात्मा में रहता है। आत्मा के इस प्रकार रहने में कोई विरोध नहीं आ रहा।

अब साकार-निराकार पर विचार कर लेते हैं कि साकार व निराकार कहते किसे हैं।

१. जो पदार्थ आँख से दिखाई दे, वह साकार और इसके अतिरिक्त निराकार।

२. जो पदार्थ इन्द्रियों से प्रतीत होवे वह साकार और जो इन्द्रियों से प्रतीत न होवे वह निराकार।

३. जो पदार्थ प्रकृति से बना हुआ है, वह साकार और जो प्रकृति से नहीं बना वह निराकार।

पाठक विचार करके देखें कि वैदिक सिद्धान्त के अनुसार जीवात्मा में कौन सी परिभाषा घट रही है? इन तीनों परिभाषाओं में से एक भी परिभाषा जीवात्मा में नहीं घटेगी। क्योंकि जीवात्मा आँखों से दिखाई नहीं देता, इन्द्रियों से प्रतीत नहीं होता और न ही प्रकृति के अवयवों से बना हुआ। जब इन सब साकार की परिभाषाओं में जीवात्मा का स्वरूप घट ही नहीं रहा, तब जीवात्मा निराकार न होकर साकार कैसे हुआ, हाँ हो सकता है इन साकार मानने वाले अवतारों का आत्मा साकार हो।

आत्मा को निराकार न मानने वालों का तर्क है कि महर्षि ने आत्मा को निराकार न कहकर परिच्छिन्न लिखा है, इसलिए आत्मा निराकार नहीं है। इनके इस तर्क में कितना दम-खम है वह देख लेते हैं। जहाँ महर्षि ने आत्मा को परिच्छिन्न कहा है, वह किस सन्दर्भ में कहा है, वह सन्दर्भ पाठकों के लिए ज्यों का त्यों यहाँ लिख रहे हैं कि पाठक स्वयं जान लें कि सन्दर्भ आत्मा को निराकार-साकार दर्शाने के लिए है या कुछ और जानने के लिए। लीजिए सन्दर्भ प्रस्तुत है-

‘‘प्रश्न- जीव शरीर में भिन्न विभु है, वा परिच्छिन्न?

उत्तर- परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जाग्रत, स्वप्न, मरण, जन्म,संयोग, वियोग, जाना, आना कभी नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प, अर्थात् सूक्ष्म है और परमेश्वर का अतीव सूक्ष्मात्सूक्ष्मतर, अनन्त, सर्वज्ञ और सर्वव्यापक स्वरूप है। इसलिए जीव और परमेश्वर का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है।’’ स.प्र.स.७

महर्षि के इन वचनों में आत्मा को निराकार कहने का कोई अवसर ही नहीं है। यहाँ तो महर्षि आत्मा के विभु अर्थात् सर्वव्यापक अथवा परिच्छिन्न अर्थात् एकदेशीय होने को लेकर चर्चा कर रहे हैं और इस चर्चा में महर्षि आत्मा को परिच्छिन्न=एकदेशीय युक्ति तर्क से सिद्ध कर रहे हैं। इस प्रकरण को न समझ समझाकर इससे अपनी काल्पनिक बात को प्रस्तुत कर जन सामान्य में मतिभ्रम फैलाना विद्वानों का कार्य नहीं हो सकता।

आओ साथ-साथ इस परिच्छिन्न और विभु शब्दों के अर्थों को और देख लेते हैं कि जिससे और स्पष्ट हो जाये कि यह सन्दर्भ आत्मा को निराकार न कहने के लिए है वा एकदेशीय।

‘‘प्रश्न- जीव शरीर में विभु है वा परिच्छिन्न?

उत्तर – परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मरण, जन्म, संयोग, वियोग, जाना, आना नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प अर्थात् सूक्ष्म है और परमेश्वर का अतीव सूक्ष्मात्सूक्ष्मतर, अनन्त, सर्वज्ञ और सर्वव्यापकस्वरूप है। इसलिए जीव और परमेश्वर का ‘व्याप्य-व्यापक’ सम्बन्ध है।’’ स.प्र.७

महर्षि ने यहाँ साकार-निराकार निरुपण किया ही नहीं, यहाँ तो विभु अथवा परिच्छिन्न की चर्चा की है, ऐसा होते हुए भी कुछ अतिविद्वान् इस प्रसंग से आत्मा को साकार अथवा निराकार न होना सिद्ध करते हैं। पाठक स्वयं विचार कर देखें कि ऋषि की आढ़ में अपने मन्तव्य परोसना चाह रहे हैं या……।

आत्मा के निराकार होने के अनेक प्रमाण हमने यहाँ महर्षि दयानन्द के दे दिये हैं। इतना होने पर भी महर्षि के मन्तव्य को कोई स्वीकार न करे तो इसको अपना दम्भ वा महत्वाकांक्षा ही कह सकते हैं।