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प्रभु उपासना से शरीर दृढ व मस्तिष्क दीप्त होता है

प्रभु उपासना से शरीर दृढ व मस्तिष्क दीप्त होता है
डा. अशोक आर्य
जो जीव परमपिता परमात्मा की समीपता प्राप्त कर लेता है , उसके समीप बै़ठने का अधिकारी हो जाता है , वह जीव ज्ञानेन्द्रियो तथा कर्मेन्द्रियो का समन्वय कर ज्ञान के अनुसार कर्म करने लगता है । समाज के साथ सामन्जस्य स्थापित कर आपस मे मेलजोल बनाते हुए , विचार विमर्श करते हुए ज्ञान के आचरण से कर्म करता है । समाज के साथ सामन्जस्य स्थापित करते हुए कर्म करता है । उसका शरीर दृढ हो जाता है तथा उसका मस्तिष्क तेज हो जाता है , दीप्त हो जाता है । इस बात को ऋग्वेद के प्रथम अध्याय के सप्तम सूक्त के द्वितीय मन्त्र में इस प्रकार कहा गया है : –
इन्द्रइद्धर्योःसचासम्मिश्लआवचोयुजा।
इन्द्रोवज्रीहिरण्ययः॥ ऋ0 1.7.2 ||
ऋग्वेद का यह मन्त्र जीव को चार बातों के द्वारा उपदेश करते हुए बता रहा है कि :-
१. ग्यानेन्द्रियां तथ कर्मेन्द्रियों का समन्वय:-
प्रभु की उपासना से , पिता की समीपता पाने से , उस परमेश्वर के समीप आसन लगाने से जीव में शत्रु को रुलाने की शक्ति आ जाती है । एसा जीव निश्चय ही वेद के निर्देशों का , आदेशों का पालन करते हुए अपने कर्मों मे लग कर , व्यस्त हो कर अपनी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को समन्वित करने वाला होता है । वह कर्म व ज्ञान रुपि घोडों को साथ साथ लेकर चलता है । इस में से किसी एक को भी ढील नहीं देता , समान चलाता है , समान रुप से संचालन करता है ।
स्पष्ट है कि ज्ञानेन्द्रियां ज्ञान का स्रोत होने के कारण जीव की कर्मेन्द्रियों को समय समय पर विभिन्न प्रकार के आदेश देती रहती हैं तथा कर्मेन्द्रियां तदनुरुप कार्य करती हैं , कर्म करती हैं । यह ज्ञान इन्द्रियां तथा कर्मेन्द्रियां समन्वित रुप से , मिलजुल कर कार्य करती हैं । आपस में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं करतीं । इस कारण जीव को एसा कभी कहने का अवसर ही नहीं मिलता कि मैं अपने धर्म को जानता तो हूं किन्तु उसे मानता नहीं , उस पर चलता नहीं अथवा उसमें मेरी प्रवृति नहीं है । उस के सारे के सारे कार्य, सम्पूर्ण क्रिया – क्लाप ज्ञान के आधार पर ही , ज्ञान ही के कारण होते हैं ।
२. समाज में मेल से चलना :-
इस प्रकार ज्ञान व कर्म का समन्वय करके चलने वाला जीव सदा मधुच्छ्न्दा को प्राप्त होता है , मधुरता वाला होता है , सब ओर माधुर्य की वर्षा करने वाला होता है । वह अपने जीवन में सर्वत्र मधुरता ही मधुरता फ़ैलाता है । उतमता से सराबोर मेल कराने का कारण बनता है । समाज में एसा मेल कराने वाले जीव का किसी से भी वैर अथवा विरोध नहीं होता ।
३. दृढ शरीर :-
इस प्रकार समाज को साथ ले कर चलने वाला जीव , सब के मेल जोल का कारण बनता है , किन्तु यह सब कुछ वह तब ही कर पाता है , जब उसका शरीर दृढ़ हो , शक्ति से भरपूर हो । अत: प्रभु की समीपता पाने से जीव का शरीर अनेक प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न हो कर दृढ़ता भी पाता है , कठोरता को पा कर अजेय हो जाता है ।
४. मस्तिष्क दीप्त :-
प्रभु की समीपता पाने से जहां जीव का शरीर कठोर हो जाता है , वहां उसका मस्तिष्क भी दीप्त हो जाता है , तेज हो जाता है । यह तीव्र मस्तिष्क जीव की बडी बडी समस्याओं को , जटिलताओं को बडी सरलता से सुलझाने में सक्षम हो जाता है, समर्थ हो जाता है । उसे कभी किसी ओर से भी किसी प्रकार की चुनौती का सामना नहीं करना होता । यह मस्तिष्क की दीप्ति ही है जो उसे सर्वत्र सफ़लता दिलाती है ।
इस प्रकार उस परमपिता की समीपता पा कर जीव का शरीर वज्र के समान कठोर होने से तथा मस्तिष्क मे दीप्तता आने से वह जीव एक आदर्श पुरुष बनने का यत्न करता है , इस ओर अग्रसर होता है ।

डा. अशोक आर्य