आत्मा का स्थान-४

आत्मा का स्थान-४
– स्वामी आत्मानन्द
‘‘स य एषोऽन्तर्हृदय आकाशः। तस्मिन्नयं पुरुषो मनोमयः। अमृतो हिरण्मयः। अन्तेरण तालुके। य एष स्तन इवावलम्बते सेन्द्रयोनिः। यत्रासौ केशान्तो विवर्तते। व्यपोह्य शीर्षकपाले। भूरित्यग्नौ प्रतितिष्ठति। भुव इति वायौ। सुवरित्यादित्ये। मह इति ब्रह्मणि। आप्नोति स्वाराज्यम्। आप्नोति मनसस्पतिम्। वाक्पतिश्चक्षुष्पतिः श्रोत्रपतिः विज्ञानपतिः। एतत्ततो भवति। आकाशशरीरं ब्रह्म। सत्यात्मप्राणारामं मन इत्यानन्दम्। शान्तिसमृद्धममृतम्। इतिप्राचीन योग्योपास्स्व।’’ (तैत्तिरीय. शिक्षा. षष्ठ अनुवाक १, २)
अर्थात् (जो कि यह हृदय के अन्दर आकाश है। उस में यह पुरुष मनोमय हो कर प्रविष्ट है। अर्थात् जब यह अन्नमय कोश का विवेक कर, उस से ऊँचा उठ, प्राणमय कोश में प्रवेश करता है और उसका भी विवेक कर उस से भी ऊँचा उठ मनोमय सत्त्वप्रधान कोश में प्रतिष्ठित होता है तब इस हृदय में प्रवेश करता है। जब यह इस हृदय में प्रवेश करता है तो इसका स्वरूप प्रकाशमय होता है, और अमृत होता है अर्थात् अब यह अपने प्रकाशमय स्वरूप से च्युत नहीं होता। यह हृदय कहाँ है? इस का उत्तर महर्षि, चिन्हों का निर्देश करते हुए आगे चल कर देते हैं।)
हमारे तालु के अन्दर जो यह स्तन जैसा लटक रहा है। यह ही उस ऐश्वर्य सम्पन्न हृदय के निर्माण की आधार शिला है यह हृदय वहाँ ही है जहाँ शिर के कपाल स्थान को छोड़कर मुण्डन किया जाता है। यहाँ यह मनोमय विशिष्ट आत्मा ‘‘भूः’’ इस व्याहृति के द्वारा अग्नि के प्रकाश में, ‘‘भुवः’’ इस व्याहृति के द्वारा अग्नि के प्रकाश में, ‘‘भुवः’’ इस व्याहृति के द्वारा अन्तरिक्ष के विद्युत के प्रकाश में ‘‘स्वः’’इस व्याहृति के द्वारा द्युलोक में आदित्य के प्रकाश में प्रतिष्ठा पाकर- अर्थात् योग साधनों द्वारा इन सब प्रकाशों से क्रम से पार होता हुआ ‘‘महः’’ इस व्याहृति के द्वारा इस हृदय में ब्रह्म में प्रतिष्ठित होता है। तब यह स्वराज्य को प्राप्त होता है-अर्थात् मन, वाणी, श्रोत्र और विज्ञान का स्वामी बनता है। उस समय वह ऐसा प्रतीत करता है कि आकाश को शरीर बना कर ब्रह्म सर्वत्र फैला हुआ है। यह सत्य रूप है। जगत्प्राण इस के निमन्त्रण में है। इस का मनन आनन्द रुप है। यह शान्ति का भण्डार है। यह अमर है। हे! प्राचीन योग्य इस ब्रह्म की उपासना कर।
पाठक समझ गये होंगे कि जिस हृदय का इस प्रसङ्ग में व्याख्यान किया गया है, वह हमारे तालु के ऊपर के भाग में शिर में है। उसी का नाम शिर का लघु छिद्र है जहाँ वह विराजमान है। उसी में पहुँच कर आत्मा उस महान् प्रकाश के दर्शन करता है जो उन सब प्रकाश से श्रेष्ठ है जिन के वह दर्शन करता हुआ अन्त में यहाँ पर पहुँचा है।
इस प्रकार उपनिषदों के आधार पर हमारे शरीर में दो हृदय सिद्ध होते हैं। एक स्तन के नीचे छाती के वाम भाग में और दूसरा तालु के ऊपर शिर में।
इस प्रसंग से यह भी स्पष्ट हो गया कि आत्मा मन के ऊपर अधिकार करने के बाद ही विज्ञान और आनन्द की प्राप्ति के लिये इस हृदय में पहुँचता है। इस से पहिले वह दूसरे हृदय में ही रहता है। यहीं पहुँच कर उसे ब्रह्मज्ञान होता है।
इसी विषय को स्पष्ट करने वाला उपनिषद् का एक और प्रसङ्ग हम आगे उद्धृत करते हैं।
शतं चैका च हृदयस्य नाड्यास्तासां मूर्धानमभिनिः सृतैका।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विश्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति।।
(कठ. २/६/१६)
इस के साथ ही मिलता हुआ छान्दोग्य का यह प्रसङ्ग भी है।
शतं चैका च हृदयस्य नाड्यास्तासां मूर्धानमभिनिः सृतैका।
तयोर्ध्यमायन्नमृतत्वमेति विष्वङ्ङन्या उतक्रमणे भविन्त।
(छा. ८/६/३)
(हृदय की १०१ नाड़ियाँ हैं। उन में से एक मूर्धा की ओर गई है। उस के द्वारा आत्मा ऊपर जाकर अमृत को प्राप्त होता है। शेष सब नाड़ियाँ उस के उत्क्रमण में सहायक होती हैं।)
आचार्य यम और महर्षि याज्ञवलक्य के इन वचनों से स्पष्ट हो जाता है, कि एक ऐसी नाड़ी है जिस का छाती वाले हृदय और मूर्धा के हृदय दोनों से सम्बन्ध है। एक ऐसा अवसर आता है कि आत्मा का उस नाड़ी के द्वारा मूर्धा के हृदय में उत्क्रमण होता है। वह अवसर ऊपर आये प्रसङ्गों के अनुसार आत्मा का मन के ऊपर अधिकार होने के बाद ही आता है। इस प्रकार आत्मा का मन के ऊपर अधिकार होने से पहिले उस का नीचे के हृदय में ही निवास रहता है ऐसा मानना पड़ता है।
हृदय की इन नाड़ियों के रङ्ग रूप का वर्णन करते हुए महर्षि याज्ञवल्कय अन्यत्र लिखते हैं-
‘‘अथ या एता हृदयस्य नाड्यस्ताः पिङ्गलस्याणि- म्नस्तिष्ठन्ति शुक्लस्य नीलस्य पीतस्य लोहितस्येत्यसौ वा आदित्यः पिङ्गल एष शुक्ल एष नील एष पीत एष लोहितः’’।
– (छान्दोग्य ८/६/१)
(अब जो कि ये हृदय की नाडियाँ हैं, वे पिङ्गल वर्ण, शुक्ल वर्ण, नील वर्ण, पीत वर्ण और रक्त वर्ण की हैं, अत्यन्त सूक्ष्म हैं। यह सूर्य भी पिङ्गल, शुक्ल, नील, पीत और लाल रङ्ग का है। )
इस प्रसङ्ग में महर्षि ने नाड़ियों के रूप और उन की आकृति का वर्णन किया है। सूर्य को यहाँ दृष्टान्त के रूप मे उपस्थित किया गया है। इन्द्र धनुष में सूर्य की किरणों का जो रूप दृष्टिगोचर होता है, इन नाड़ियों में उसी रूप की झलक दिखलाई गई है। इन नाड़ियों को सूर्य की किरणों की उपमा इन की सूक्ष्मता को स्पष्ट करने के लिये भी दी गई है। इसी प्रसङ्ग में आगे चलकर मृत्यु के बाद सूर्य में ही इन नाड़ियों का लय भी कहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि जिन के बीच में आत्मा का निवास है वे हृदय की नाड़ियाँ सूर्य की किरणों के समान अत्यन्त सूक्ष्म है। चीर फाड़ में इसका पता ही नहीं लगता अतः शारीरिक में इन की गणना भी नहीं की जा सकी। जिन महर्षियों ने इन की गणना लिखी है उन्होंने योग समाधि में इनका प्रत्यक्ष किया होगा।
जिस प्रकार बाहर के जगत् में तीन लोक माने जाते हैं वैसे ही हमारे इस शरीर में भी तीन लोक हैं। छाती से नीचे पैरों तक का शरीर का भाग भूलोक है। छाती और उसके ऊपर का सारा धड़ अन्तरिक्ष लोक है। और गले से ऊपर का शिर का सारा भाग द्युलोक है। जिस बाहर के द्युलोक में सूर्य चमक रहा है और तीनों लोकों को प्रकाशित कर रहा है, इसी प्रकार हमारे अन्दर के द्युलोक में भी एक सूर्य चमक रहा है जो कि अन्दर के तीनों लोकों को प्रकाशित कर रहा है। वह सूर्य हमारे शरीर के हृदयाकाश में एक ज्योति पुञ्ज के रूप में चमक रहा है जिसका कि प्रसिद्ध नाम सहस्रार चला है। शरीर के सब विज्ञान तन्तुओं को इसी से प्रकाश मिल रहा है।
जिस प्रकार सूर्य एक प्रकाश पुञ्ज दृष्टिगोचर हो रहा है और उसके चुंधिया देने वाले प्रबल प्रकाश के अन्दर विभिन्न नील पीत आदि रंग देखने में नहीं आते, परन्तु उन विभिन्न रंगों को हम इन्द्रधनुष आदि में स्पष्ट देखते हैं, इसी प्रकार इस अपने हृदयाकाश के सूर्य में भी अभ्यासियों को एक पुञ्जित श्वेत प्रकाश ही दृष्टि गोचर होता है परन्तु सुषुम्णा आदि के विज्ञान तन्तुओं में यह विभिन्न रूपों में चमकता हुआ अभ्यासियों ने देखा है। इसलिये यह सूर्य ही हमारे बाहर के सूर्य का प्रतिनिधि है अथवा उसी के उपादान तत्त्व से इस का निर्माण हुआ है। हमारे हृदय की नाड़ियों में इसी सूर्य का प्रकाश विभिन्न रूपों में चमक रहा है।
इस प्रसङ्ग को पढ़ कर हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि हमारे हृदय की अनेक रंगों में चमकती हुई अत्यन्त सूक्ष्म नाड़ियाँ हैं।
यमाचार्य और महर्षि याज्ञवल्क्य ने हृदय की इन नड़ियों का वर्णन संक्षेप में किया है। प्रश्न उपनिषद् में महर्षि पिप्पलाद ने इन का व्याख्यान शाखा प्रशाखाओं में जाकर और भी विस्तार से किया है। वह प्रसङ्ग भी पाठकों के परिचय के लिये हम आगे उद्धृत करते हैं।
आत्मन एष प्राणो जायते यथैषा पुरुषे छाया एतस्मिन्नेतदातं। मनोकृतेनायात्यस्मिञ्छरीरे।।
(प्रश्न ३/३)
हृदि ह्येष आत्मा। अत्रैतदेकशतं नाडीनां तासां शतं शतमेकैकस्यां द्वासप्ततिर्द्वासप्ततिः प्रतिशाखा-नाड़ीसहस्राणि भवन्ति आसु व्यानश्चरति।(प्रश्न ३/६)
पायूपस्थेऽपानं चक्षुः श्रोत्रे मुखनासिकाभ्यां प्राणःस्वयं प्रातिष्ठते, मध्ये तु समानः (प्रश्न ३/५)
अथैकयोर्ध्व उदानः पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्। ’’
(प्रश्न ३/७)
(इस प्राण की आत्मा से उत्पत्ति होती है)(आत्मा यहाँ निमित्त कारण है उपादान नहीं) जैसे यह पुरुष की छाया सदा पुरुष के साथ ही रहती है इसी प्रकार यह प्राण भी छाया की तरह पुरुष के साथ ही एक योनि से दूसरी योनि में जाता है। यह प्राण इस आत्मा के ही आधीन है। इस शरीर में यह मन के नियन्त्रण में रहता हुआ आता है।
यह आत्मा हृदय में है। इस हृदय में एक सौ नाड़ियाँ हैं। फिर उनकी एक-एक शाखा में सौ-सौ नाड़ियाँ और हैं। और फिर उनकी एक-एक शाखा में बहत्तर-बहत्तर हजार नाड़ियाँ और हैं। इन सब नाड़ियों में प्राण के एक भाग व्यान का संचार रहता है।
मल स्थान और मूत्र स्थान में प्राण के दूसरे भाग अपान का, और चक्षुः श्रोत्र, मुख और नासिका में स्वयं प्राण का संचार रहता है। शरीर के मध्य भाग में प्राण के एक भाग समान का अधिकार है।
और एक नाड़ी जो ऊपर की ओर गई है उस पर उदान प्राण का अधिकार है। यह उदान ही अन्त में इस नाड़ी के द्वारा आत्मा के उत्क्रमण में सहायक होता है। यह आत्मा को पुण्य के प्रताप से पुण्य लोक में, (जहाँ सुख अधिक है ऐसी योनि में) पाप के प्रताप से पाप लोक में, (जहाँ दुःख अधिक है ऐसी योनि में)और पाप तथा पुण्य के समान होने पर मनुष्य लोक में (जहाँ सुख दुःख दोनों समान मिलें ऐसी योनि में) आत्मा को ले जाता है।
उत्क्रमण में सहायक सौ से भिन्न एक सौ एकवीं नाड़ी प्रथम दोनों प्रसङ्गों में भी थी, और इस प्रसङ्ग में भी है। इतना भेद है कि वहाँ आत्मा का मन के ऊपर अधिकार होने से उत्क्रमण ब्रह्मरन्ध्र की ओर हुआ था। और यहाँ अधिकारी न होने से उत्क्रमण किसी अन्य योनि के लिये है। यहाँ शाखा प्रशाखाओं की नाड़ियों की भी गणना की गई है और वहाँ नहीं की गई थी। और यहाँ इन नाड़ियों पर व्यान के संचार का भी निर्देश किया गया है, वहाँ नहीं किया गया था। उत्क्रमण नीचे के हृदय से ही हो सकता था अतः यहाँ भी आत्मा का स्थान नीचे वाला हृदय ही माना गया है।
‘अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः। तं स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुञ्जादिवेषीकां धैर्येण तं विद्याच्छुक्रममृतम्, तं विद्याच्छुक्रममृतमिति।’
(कठ. २/३/१७)
(अङ्गुष्ठ परिमाण वाला अन्तरात्मा प्राणियों के हृदय में सदा समीप है। उसे अपने इस शरीर से पृथक् करो। जैसे कि मूंज से सींक को पृथक् किया जाता है। अब उसे स्वच्छ और मरण के बन्धन से पृथक समझो।)
इस प्रसङ्ग में भी आत्मा को नीचे के हृदय में ही बतलाया गया है। उसने अभी अपने मन पर अधिकार कर आत्मा को शरीर से पृथक नहीं समझा। और इसलिये उसे ऐसा करने का उपदेश दिया जा रहा है। इस अनुष्ठान के बाद ही उसे उत्क्रमण का और ऊपर के हृदय में जाने का अधिकार होगा।
इस प्रसङ्ग में आत्मा का परिमाण अङ्गुष्ठ मात्र कहा है। परन्तु आत्मा का परिमाण अणु है जैसा कि हम आगे चल कर स्पष्ट करेंगे उस का आश्रय स्थान अङ्गुष्ठ जितना है, इसलिये उसे अङ्गुष्ठ मात्र कह दिया गया है।
अन्यत्र भी आया है-
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः।
हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।
(श्वेताश्वतर ३/१३)
(अङ्गुष्ठ जितना बड़ा अन्तरात्मा पुरुष प्राणियों के हृदय में सदा रहता है। मन पर अधिकार करने वाला आत्मा हृदय में रहने वाले मन से सावधान हो कर जब अपने आप को हृदय में जान लेता है अर्थात् हृदय से पृथक् समझ लेता है। तब वह अमर होने का अधिकारी होता है) यहाँ भी अङ्गुष्ठ मात्र परिमाण का वह ही भाव है। ब्रह्म को जानने से पहिले अपने स्वरूप को जाने यह निर्देश है।
क्रमश…….

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