श्रद्धेय भक्त फूल सिंह के आध्यात्मिक गुरु स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती – चन्दराम आर्य

 

हरियाणा प्रान्त आर्य समाज का गढ़ रहा है। इसके प्रचार-प्रसार का मुय कारण यहाँ के निवासियों का व्यवसाय रहा है, जिसमें एक कृषि करना तथा दूसरा युद्ध करना। इसका भी मुय कारण है- शहर की न्यूनता। यहाँ के लोग परिश्रमी, साहसी, सरलचित्त और भावुक हैं, अतः इनके लिए रूढ़ियों को तोड़ना बहुत सरल है। हरियाणे में आर्य समाज का प्रचार आरभ बहुत शीघ्रता से हुआ। रोहतक और हिसार आर्य समाज के प्रमुख के न्द्र रहे हैं। जब लाला लाजपतराय को 1909 में निर्वासन का दण्ड दिया गया तो उस समय हरियाणा के आर्य समाजियों में असन्तोष की लहर दौड़ गई। इस असन्तोष की लहर ने अंग्रेज शासकों को चौकन्ना कर दिया और वे आर्य जनता को अनेक प्रकार से तंग करने लगे। रोहतक जिले में सरकारी अधिकारियों ने जब आर्य समाजियों पर दमन चक्र चलाया तो उस समय वहाँ के प्रमुख आर्य समाजियों ने एक शिष्ट मण्डल महात्मा मुन्शीराम जी से मिलने के लिए गुरुकुल काँगड़ी भेजा। शिष्ट मण्डल ने महात्मा मुन्शीराम को अंग्रेज सरकार की दमनकारी नीति कह सुनाई। उस समय मुन्शीराम जी ने पं. ब्रह्मदत्त (स्वामी ब्रह्मानन्द) को रोहतक जिले में आर्य समाज के प्रचारार्थ भेजा।

जन्म-स्थान तथा कार्यक्षेत्र- स्वामी ब्रह्मानन्द जी का जन्म बिहार प्रान्त के आरा जिले के डुमरा ग्राम में सं. 1925 वि. (सन् 1868)माघ शुक्ला पंचमी को माता श्रीमती देवमूर्ति की कोख से श्री रामगुलाम सिंह के घर पर हुआ। ब्राह्मणों ने नामकरण संस्कार में आपका नाम ब्रह्मदत्त रखा जो बाद में संन्यास लेने के उपरान्त संन्यास गुरु स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती ने स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती रखा। आपके माता-पिता दोनों ईश्वरभक्त, धर्मपरायण एवं सद्विचारों के थे। स्नेहमयी माता की गोद में लोरी के साथ-साथ विशुद्ध धर्म-परायणता घुट्टी के रूप में मिली। यही कारण है जब आप आरा के हाईस्कूल में शिक्षा अर्जित कर रहे थे, तब आपको किसी आर्य विद्वान् से सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने को मिला। आपका मन सत्यार्थ प्रकाश को पढ़कर सत्य-असत्य का निर्णय करने में तल्लीन हो गया। तभी से आप वैदिक धर्म, महर्षि दयानन्द एवं आर्य समाज के दीवाने हो गए।

शिक्षा-अर्जित करने के उपरान्त सर्व प्रथम श्री ब्रह्मदत्त जी ने सन् 1890 ई. में ‘‘आर्यावर्त’’ नामक साप्ताहिक पत्र के सपादन का कार्य निर्भ्रान्त एवं सुचारु रूप सें किया। अपने सपादकत्व काल में आपने ‘‘आर्यावर्त’’ पत्र के द्वारा आर्य समाज के सिद्धान्तों का बहुत ही उत्कृष्टता से प्रचार-प्रसार किया और सामयिक परिस्थितियों पर लेख लिखकर पाठकों के हृदयों को उद्वेलित किया। जो भी लेख पढ़ता था, वह आपके अग्रिम लेखों का इन्तजार करता था। इसके उपरान्त आप कलकत्ते से निकलने वाले हिन्दी पत्र ‘‘भारत मित्र’’ के सपादक बन गये। इस पत्र को भी आपने आर्य सिद्धान्तों का संवाहक पत्र बना दिया। इसमें महर्षि दयानन्द के भी लेख छपते थे। आपके लेखों की माँग उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। हरियाणा के गुडियानी ग्राम (तब झज्जर) के निवासी बाबू बालमुकुन्द गुप्त को भी इस पत्र का सपादक रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। कलकत्ते में रहते हुए पं. ब्रह्मदत्त जी आर्य सिद्धान्तों की पुष्टि में व्यायान भी देते रहे। आपकी वाणी में मधुरता एवं गाभीर्य था। आपको इतिहास का काफी ज्ञान था।

दुर्भाग्य से उन दिनों पं. दीनदयाल व्यायान वाचस्पति के कुछ अनुयायी आपके साथ ‘‘भारत मित्र’’ में कार्य करने के लिए आ गये। उनके विचारों से आप सहमत नहीं हो सके, क्योंकि उन्होंने इस पत्र पर पौराणिक प्रभाव डालना चाहा। आप किसी भी कीमत पर आर्य सिद्धान्तों से समझौता नहीं करना चाहते थे। अन्त में आपने वहाँ से त्याग-पत्र दे दिया। आप वहाँ से गुरुकुल काँगड़ी हरिद्वार में महात्मा मुन्शीराम के पास आ गये। वहाँ से आर्य समाज का प्रचार-प्रसार करने के लिए पंजाब व हरियाणा में चले गये। हरियाणा प्रान्त में आपने पानीपत, रोहतक और हिसार में वैदिक धर्म और आर्य सिद्धान्तों का बहुत प्रचार किया। यहाँ पर आपने लगभग दस हजार नए आर्य समाजी बनाए। सन् 1918 में भक्त फूलसिंह पटवारी अपनी धर्मपत्नी श्रीमती धूपा देवी के साथ स्वामी ब्रह्मानन्द जी से वानप्रस्थाश्रम की दीक्षा लेने के लिए गए। वहीं से दीक्षित होकर भक्त फूलसिंह व माता धूपा देवी ने सर्वमेघ यज्ञ करके सपूर्ण जीवन गुरुकुल और गरीब जनता के लिए अर्पित कर दिया। आपने गुरुकुल भैंरुवाल, गुरुकुल झज्जर व गुरुकुल चित्तौड़ में मुयाधिष्ठाता एवं आचार्य पद पर अनेक वर्षों तक कार्य किया।

सन् 1925 में आपने स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती से संन्यास आश्रम की दीक्षा ली। उसके उपरान्त ही आप पं. ब्रह्मदत्त से स्वामी ब्रह्मानन्द नाम से वियात् हुए। आपकी कार्य-क्षमता बुद्धिमत्ता एवं बृहद्ज्ञान को देखकर रायबहादुर रामविलास शारदा ने आपको ‘‘वैदिक यन्त्रालय’’अजमेर के मैनेजर पद पर कार्य करने के लिए बुला लिया। आपने बड़ी निष्ठा एवं श्रद्धा से यहाँ कार्य किया।

महात्मा मुन्शीराम जी अपने साप्ताहिक पत्र ‘‘सद्धर्म प्रचारक’’ को उर्दू से बदलकर हिन्दी में निकालना चाहते थे। इस कार्य के सपादन के लिए आप अजमेर से जालन्धर चले गए। ‘‘सद्धर्म प्रचारक’’ पत्र थोड़े दिनों के उपरान्त जालन्धर से गुरुकुल काँगड़ी चला गया, अतः आप भी काँगड़ी पहुँचे, लगभग पाँच वर्ष तक आप गुरुकुल काँगड़ी में रहे। ‘‘सद्धर्म प्रचारक’’ पत्र ने आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में अपना अमिट योगदान दिया। जब आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब की बागडोर लाला मुन्शीराम के हाथों में आ गई, तब तो यह पत्र एक प्रकार से सभा का मुापत्र ही बन गया था। इस प्रकार लेखन क्षेत्र में जो योगदान स्वामी ब्रह्मानन्द जी का रहा, वह सार्वजनिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक क्षेत्र में भी कम नहीं रहा। आर्य समाज द्वारा उस काल में चलाये गये साी आन्दोलनों में आपकी अहम भूमिका रही। हैदराबाद सत्याग्रह के समय तो आपने भक्त फूलसिंह जी के साथ ग्राम-ग्राम में जाकर ऐसा माहौल बनाया कि हजारों की संया में सत्याग्रही आपके साथ रोहतक से हैदराबाद के लिए रवाना हुए। भक्त फूलसिंह जी ने जब मोठ ग्राम के दलितों (चमारों) के कुएँ के लिए नारनौद ग्राम में अनशन व्रत किया, तब आपने घूम-घूमकर अनशन व्रत के पक्ष में वातावरण तैयार किया। आपको अनेक कठिनाइयों, संकटों का सामना भी करना पड़ा, परन्तु आप अपने कर्त्तव्य से कभी विमुख नहीं हुए। आपका हरियाणा में प्रचार का इतना प्रभाव पड़ा कि वहाँ के आम जन आपको ‘‘जाट गुरु’’ कहते थे। आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब की ओर से आपने लगभग 12 वर्ष तक हरियाणा में वैदिक धर्म व आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। रोहतक जिले में तो आपने आर्य समाज की अमर बेल को उस समय सींचा, जबकि उसे विचार रूपी रस की सर्वाधिक आवश्यकता थी। लेखनी और वाणी के धनी स्वामी ब्रह्मानन्द जी जैसे-जैसे उमर ढलती गई, रुग्ण अवस्था के जाल में फँसते गये। इस प्रकार आयु के अन्तिम दिनों में आप आर्य समाज दीवानहाल में रहने लगे। आपका स्वास्थ्य वहाँ पर दिन प्रतिदिन गिरने लगा। मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। वहाँ से आपके सुयोग्य सुपुत्र डॉ. अनन्तानन्द जी, जो कि गुरुकुल काँगड़ी में आयुर्वेद महाविद्यालय के आचार्य थे, गुरुकुल में ले गये। वहाँ पर आपका काफी उपचार हुआ, परन्तु आप स्वस्थ नहीं हो सके। वहाँ सन् 1948 में 80 वर्ष की आयु में आपका देहावसान हो गया। आर्य जनता में शोक की लहर छा गई। महर्षि दयानन्द सरस्वती की आर्य समाज रूपी वाटिका का पुष्प और मुरझा गया, परन्तु यह वाटिका उनके त्याग-तप से और भी पल्लवित हुई है। मुझे यह लिखने में संकोच नहीं है कि आज जो आर्य समाज बचा हुआ है, वह ऐसे ही महापुरुषों के तप और त्याग का फल है। उनका यश रूपी शरीर हम सबके हृदयों में सुगन्धित है। यह सुगन्ध हम सबके लिये प्रेरणादायी बनी रहे। भगवान हम सब आर्यों को शक्ति व सद्बुद्धि दे कि हम अपने महापुरुषों के अधूरे कार्यों को पूरा कर सकें। अन्त में मैं डॉ. धर्मवीर कुण्डू रोहतक व श्री बलबीर शास्त्री भैंसवाल का आभारी हूँ कि आपने श्रद्धेय स्वामी ब्रह्ममानन्द का चित्र उपलध करवाने में सहयोग प्रदान किया, जिससे में दो शद स्वामी जी के बारे में लिख सका।

पवित्र अनशन की समाप्ति पर महात्मा गाँधी का जो धन्यवाद पत्र भक्त फूलसिंह को मिला, वह इस प्रकार था….

                        हरिजन सेवक 26/10/1940

मुझे श्री वियोगी हरि जी के पत्रों से भक्त फूलसिंह जी के पवित्र अनशन व्रत का समाचार मिला। भक्त जी के हृदय में हरिजनों के प्रति किए गये अन्याय का गहरा दुःख था। उन की दोनों पक्षों के प्रति शुभकामना थी। हरिजनों को पीने के पानी का बड़ा कष्ट था, इसे दूर करने के लिए उन्हें अनशन व्रत करना पड़ा।

इनका अनशन व्रत मोठ के मुसलमान रांघड़ों तथा जाटों को अपने पवित्र प्रेम से उन्हें सच्चा रास्ता दिखाने का था। यह व्रत केवल धर्म-बुद्धि से तथा ईश्वर विश्वास पर किया गया था। व्रत काल में अनेक बार असफलता के बादल मँडलाए, परन्तुाक्ति जी का धैर्य और ईश्वर विश्वास प्रबल था। भगवान की ज्योति में वे अपनी सफलता देखते थे। समय आया, वे अपने व्रत में सफल हुए। मेरे राजकोट के अनशन व्रत में विश्वास की कमी थी। प्रतिकूल स्थिति ने मेरे मन को हिला दिया, जिससे मैं अपने व्रत में असफल रहा।            –एम.के. गाँधी

– 1325/38, ‘ओ3म् आर्य निवास’,

गली नं. 5, विज्ञान नगर, आदर्श नगर, अजमेर

swami brahmanand ji

सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे ? मानव का प्रादुर्भाव कहाँ? – आचार्य पं. उदयवीर जी शास्त्री

 

सृष्टि का सर्वोत्कृष्ट प्राणी मानव है। मानव को अपनी इस स्थिति के विषय में कदाचित् अभिमान हो सकता है, पर अधिकाधिक उन्नति कर लेने पराी यह सृष्टि रचना में सर्वथा असमर्थ रहता है। इसका कारण है, मानव जब अपने रूप में प्रकट होता है, उससे बहुत पूर्व सृष्टि की रचना हो चुकी होती है, इसलिये यह प्रश्न ही नहीं उठता कि मानव सृष्टि रचना कर सकता है। तब यह समस्या सामने आती है कि इस दुनिया को किसने बनाया होगा?

भारतीय प्राचीन ऋषियों ने इस समस्या का समाधान किया है। जगत को बनाने वाली शक्ति का नाम ‘परमात्मा’ है, इसको ईश्वर, परमेश्वर, ब्रह्म आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। यह ठीक है कि परमात्मा इस पृथिवी, चाँद, सूरज आदि समस्त लोक-लोकान्तर रूप जगत् को बनाने वाला है, परन्तु जिस मूलतत्त्व से इस जगत् को बनाया जाता है, वह अलग है। उसका नाम प्रकृति है। प्रकृति त्रिगुणात्मक कही जाती है। वे तीन गुण हैं- सत्व, रजस् और तमस्। इन तीन प्रकार के मूल तत्त्वों के लिये ‘गुण’ पद का प्रयोग इसीलिये किया जाता है कि ये तत्त्व आपस में गुणित होकर, एक-दूसरे में मिथुनीभूत होकर, परस्पर गुँथकर ही जगद्रूप में परिणत होते हैं। जगत् की रचना पुण्यापुण्य, धर्माधर्म रूप शुभ-अशुभ कार्मों के करने और उनके फलों को भोगने के लिये की जाती है। इन कर्मों को करने और भोगने वाला एक और चेतन तत्त्व है, जिसको जीवात्मा कहा जाता है। ये तीनों पदार्थ अनादि हैं-ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति।

जगत उत्पन्न होता है या नहीं?

प्रश्न-यह जगत् कभी उत्पन्न नहीं होता, अनादि काल से ऐसा ही चला आता है और अनन्त काल तक ऐसा ही चला जायगा, ऐसा मान लेने पर इसके बनने-बनाने का प्रश्न ही नहीं उठता, तब इसको बनाने के लिए ईश्वर की कल्पना करना व्यर्थ है। यह चाहे प्रकृति का रूप हो या कोई रूप हो, अनादि होने से ईश्वर की कल्पना अनावश्यक है।

उत्तर-जगत् को जिस रूप में देखा जाता है, उससे इसका विकारी होना स्पष्ट होता है। यदि जगत् अनादि-अनन्त एक रूप हो, तो यह नित्य माना जाना चाहिये, नित्य पदार्थ अपने रूप में कभी परिणामी या विकारी नहीं होता, परन्तु जागतिक पदार्थों में प्रतिदिन परिणाम होते देखे जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों की दृश्यमान स्थिति अपरिणामिनी अथवा अविकारिणी नहीं है। इसमें परिणाम का निश्चय होने पर यह मानना पड़ेगा कि यह बना हुआ पदार्थ है, तब इसके बनाने वाले को भी मानना होगा।

प्रश्न-पृथिव्यादि को विकारी मानने पर भी बनाने वाले की आवश्यकता न होगी। जिन मूलतत्त्वों से इनका परिणाम होना है, वे स्वतः इस रूप में परिणत होते रहते हैं। संसार में अनेक पदार्थ स्वतः होते देखे जाते हैं। अनेक स्वचालित यन्त्रों का आज निर्माण हो चुका है।

उत्तर-पृथिव्यादि समस्त जगत् जड़ पदार्थ है, चेतना-हीन। इसका मूल उपादान तत्त्व भी जड़ है। किसीाी जड़ पदार्थ में चेतन की प्रेरणा के बिना कोई क्रिया होना संभव नहीं। चेतना के सहयोग के बिना किसी जड़ पदार्थ में स्वतः प्रवृत्ति होती नहीं देखी जाती। इसके लिये न कोई युक्ति है, न दृष्टान्त। स्वचालित यन्त्रों के  विषय में जो कहा गया, उन यन्त्रों का निर्माण तो प्रत्यक्ष देखा जाता है। उनको बनाने वाला शिल्पी उसमें ऐसी व्यवस्था रखता है, जिसे स्वचालित कहा जाता है। यन्त्र अपने-आप नहीं बन गया है, उसको बनाने वाला एक चेतन शिल्पी है और उस यन्त्र की निगरानी व साज-सँवार बराबर करनी पड़ती है, यह सब चेतन- सहयोग-सापेक्ष है, इसलिये यह समझना कि पृथिव्यादि जगत् अपने मूल उपादान तत्त्वों से चेतन निरपेक्ष रहता हुआ स्वतः परिणत हो जाता है, विचार सही नहीं है। फलतः जगत् के बनाने वाले ईश्वर को मानना होगा।

प्रकृति की आवश्यकता?

प्रश्न – आपने यह स्पष्ट किया कि ईश्वर को मानना आवश्यक है। यदि ऐसा है, तो केवल ईश्वर को मानने से कार्य चल सकेगा। ईश्वर को सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् माना जाता है, वह अपनी शक्ति से जगत् को बना देगा, उसके अन्य कारण प्रकृ ति की क्या आवश्यकता है? कतिपय आचायरें ने इस विचार को मान्यता दी है।

उत्तर- ईश्वर जगत् को बनाने वाला अवश्य है, पर वह स्वयं जगत् के रू प में परिणत नहीं होता। ईश्वर चेतन तत्त्व है, जगत् जड़ पदार्थ है। चेतना का परिणाम जड़ अथवा जड़ का परिणाम चेतन होना संभव नहीं। चेतन स्वरूप से सर्वथा अपरिणामी तत्त्व है। यदि चेतन ईश्वर को ही जड़ जगत् के रूप में परिणत हुआ माना जाय तो यह उस अनात्मवादी की कोटि में आजाता है, जो चेतन की उत्पत्ति जड़ से मानता है। कारण यह है कि यदि चेतन जड़ बन सकता है, तो जड़ को भी चेतन बनने से कौन रोक सकता है? इसलिये चेतन से जड़ की उत्पत्ति अथवा जड़ से चेतन की उत्पत्ति मानने वाले दोनों वादी एक ही स्तर पर आ खड़े होते हैं। फलतः यह सिद्धान्त बुद्धिगय है कि न चेतन जड़ बनता है और न जड़ चेतन बनता है। चेतन सदा चेतन है, जड़ सदा जड़ है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जड़ जगत् जिस मूल तत्त्व का परिणाम है, वह जड़ होना चाहिये, इसलिये चेतन ईश्वर से अतिरिक्त मूल उपादान तत्त्व मानना होगा, उसी का नाम प्रकृति है।

जब यह कहा जाता है कि सर्वशक्तिमान् ईश्वर अपनी शक्ति से जगत् को उत्पन्न कर देगा, उस समय प्रकृति को ही उसकी शक्ति के रूप में कथन कर दिया जाता है। वैसे सर्वशक्तिमान् पद के अर्थ में यही भाव अन्तर्निहित है कि जगत् की रचना करने में ईश्वर को अन्य किसी कर्त्ता के सहयोग की अपेक्षा नहीं रहती। वह इस कार्य के लिये पूर्ण शक्त है, अप्रतिम समर्थ है। फलतः यह जगत् परिणाम प्रकृ ति का ही होता है, ईश्वर केवल इसका निमित्त, प्रेरयिता,नियन्ता व अधिष्ठाता है। यही सत्य  स्वरूप प्रकृति सब जगत् का मूल घर और स्थिति का स्थान है।

इस प्रसंग में सत्यार्थप्रकाश [स्थूलाक्षर, वेदानन्द संस्करण, पृ. 191, पंक्ति 10-12] के अन्दर एक वाक्य है, जिसे अस्पष्टार्थ कहा जाता है। वह वाक्य है – ‘यह सब जगत् सृष्टि के पूर्व असत् के सदृश और जीवात्मा, ब्रह्म और प्रकृति में लीन होकर वर्त्तमान था, अभाव न था- इस वाक्य के अभिमत अर्थ को स्पष्ट करने व समझने के लिये इसमें से दो अवान्तर वाक्यांशों का विभाजन करना होगा। इस वाक्य में से ‘और जीवात्मा ब्रह्म’ इन पदों को अलग करके रख लीजिये फिर शेष वाक्य को पढ़िये, वह इस प्रकार होगा- ‘यह सब जगत् सृष्टि के पूर्व असत् के सदृश और प्रकृति में लीन होकर वर्त्तमान था, आाव न था।’ इतना वाक्य एक पूरे अर्थ को व्यक्त करता है। जगत् जो अब हमारे सामने विद्यमान है, यह सृष्टि के पूर्व अर्थात् प्रलय अवस्था में असत् के सदृश था, सर्वथा असत् या तुच्छ न था, कारण यह है कि यह प्रकृति में लीन होकर वर्तमान था, तात्पर्य यह कि कारण-रूप से विद्यमान था, इससे प्रतीत होता है कि ऋषि ने कार्य-कारणभाव में सत्कार्य सिद्धान्त को स्वीकार किया है। प्रलय अवस्था में जगद्रूप कार्य कारण रूप से विद्यमान रहता है, उसका सर्वथा अभाव नहीं हो जाता।

जो पद हमने उक्त वाक्य में से अलग करके रक्खे हैं, वे दो अवान्तर वाक्यों को बनाते हैं -1-‘और जीवात्मा वर्त्तमान था’। 2- ‘ब्रह्म वर्त्तमान था’ तात्पर्य यह कि प्रलय अवस्था में प्रकृति के साथ जीवात्मा और ब्रह्म भी वर्तमान थे। इस प्रकार उक्त पंक्ति से ऋषि ने उस अवस्था में तीन अनादि पदार्थों की सत्ता को स्पष्ट किया है तथा इस मन्तव्य का एक प्रकार से प्रत्यायान किया है, जो उस अवस्था में एक मात्र ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार करते हैं, जीव तथा प्रकृति की स्थिति को नहीं मानते, इनका उद्भव ब्रह्म से ही मान लेते हैं।

तीन अनादि पदार्थों के मानने पर जगद्रचना की व्याया सर्वाधिक निर्दोष की जा सकती है। कारण यह है कि लोक में किसी रचना के हेतु तीन प्रकार के देखे जाते हैं। प्रत्येक कार्य का कोई बनाने वाला होता है, कुछ पदार्थ होते हैं, जिनसे वह कार्य बनाया जाता है, कुछ सहयोगी साधन होते हैं। पहला कारण निमित्त कहलाता है, दूसरा उपादान और तीसरा साधारण। संसार में कोई ऐसा कार्य संभव नहीं, जिसके ये तीन कारण नहीं है। जब दृश्यादृश्य जगत् को कार्य माना जाता है तो उसके तीनों कारणों का होना आवश्यक है। इसमें जगत् की रचना का निमित्त कारण ईश्वर, उपादान कारण प्रकृति तथा जीवों के कृत शुभाशुभ कर्म अथवा धर्माधर्म आदि साधारण कारण होते हैं, इसलिये इन तीनों पदार्थों को अनादि माने बिना सृष्टि की निर्दोष व्याया नहीं की जा सकती।

ब्रह्म से ही जगत्-उत्पत्ति नहीं?

प्रश्न-वेदान्त दर्शन पर विचार करने वाले तथाकथित नवीन आचार्यों की यह मान्यता है कि एक मात्र ब्रह्म को वास्तविक तत्त्व मानने पर सृष्टि की व्याया की जा सकती है। उनका कहना है कि जगत् के निमित्त और उपादान कारण को अलग मानना आनावश्यक है। एक मात्र ब्रह्म स्वयं अपने से जगत् को उत्पन्न कर देता है, उसे अन्य उपादान की अपेक्षा नहीं। लोक में ऐसे दृष्टान्त देखे जाते हैं। मकड़ी अपने आप से ही जाला बुन देती है, बाहर से उसे कोई साधन-सहयोग लेने की अपेक्षा नहीं होती, ऐसे ही जीवित पुरुष से केश-नख स्वतः उत्पन्न होते रहते हैं। इसी प्रकार ब्रह्म अपने से ही जगत् को उत्पन्न कर देता है।

उत्तर – यह बात पहले कही जा चुकी है कि यदि ब्रह्म अपने से जगत् को बनावे तो वह विकारी या परिणामी होना चाहिये। ब्रह्म चेतन तत्त्व है, चेतन कभी विकारी नहीं होता। इसके अतिरिक्त यह बात भी है कि चेतन ब्रह्म का परिणाम जगत् जड़ कैसे हो जाता? क्योंकि कारण के विशेष गुण कार्य में अवश्य आते हैं। या तो जगत् भी चेतन होता, या फिर कार्य जड़-जगत् के अनुसार उपादान कारण ईश्वर या ब्रह्म को भी जड़ मानना पड़ता, पर न जगत् चेतन है, और न ईश्वर जड़, इसलिये ईश्वर को जगत् का उपादान कारण नहीं माना जा सकता।

ब्रह्म उपादान से जगत् की उत्पत्ति में मकड़ी आदि के जो दृष्टान्त दिये जाते हैं, उनकी वास्तविकता की ओर किसी ब्रह्मोपादानवादी ने क्यों ध्यान नहीं दिया, यह आश्चर्य की बात है। ये दृष्टान्त उक्त मत के साधक न होकर केवल बाधक हैं। मकड़ी एक प्राणी है, जिसका शरीर भौतिक या प्राकृतिक है और उसमें एक चेतन जीवात्मा का निवास है। उस प्राणी द्वारा जो जाला बनाया जाता है, वह उस भौतिक शरीर का विकार या परिणाम है, चेतन जीवात्मा का नहीं। यहाी ध्यान देने की बात है कि शरीर से जाला उसी अवस्था में बन सकता है, जब शरीर का अधिष्ठाता चेतन जीवात्मा वहाँ विद्यमान रहता है। वह स्थिति इस बात को स्पष्ट करती है कि केवल जड़ तत्त्व चेतन के सहयोग के बिना स्वतः विकृत या परिणत नहीं होता। दृष्टान्त से स्पष्ट है कि जाला रूप जड़ विकार जड़ शरीर का है, चेतन जीवात्मा का नहीं। इस दृष्टान्त का उद्भावन करने वाले उपनिषद् (यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च) वाक्य में यही स्पष्ट किया है कि जैसे मकड़ी जाला बनाती और उसका संहार करती है, उसी प्रकार अविनाशी ब्रह्म से यह विश्व प्रादुर्भूत होता है।

उपनिषद् के उस वाक्य में ‘यथा’ और ‘तथा’ शद ध्यान देने योग्य हैं। जैसे मकड़ी जाला बनाती और उपसंहार करती है- ‘तथाऽक्षरात्संभवतीह विश्वम्’, वैसे अविनाशी ब्रह्म से यहाँ विश्व प्रादुर्भूत होता है। अब देखना यह है कि जाला मकड़ी के भौतिक शरीर से परिणत होता है और बनाने वाला अधिष्ठाता चेतन आत्मा वहाँ इस प्रवृति का प्रेरक है, चेतन स्वयं जाला नहीं बनता, ऐसे ही ब्रह्म अपने प्रकृति रूप देह से विश्व का प्रादुर्भव करता है। समस्त विश्व परिणाम प्रकृति का ही है, प्रकृति से होने वाली समस्त प्रवृत्तियों का प्रेरक व अधिष्ठाता परमात्मा रहता है। वह स्वयं विश्व के रूप में परिणत नहीं होता, इसलिए वह विश्व का केवल निमित्त कारण है, उपादान कारण नहीं हो सकता।

जगत् का निर्माण क्यों?

प्रश्न- यह ठीक है कि सृष्टिकर्त्ता ईश्वर है और वह प्रकृति मूल उपादान से जगत् की रचना करता है, परन्तु प्रश्न है, जगत् की रचना में उसका क्या प्रयोजन है? जगत् की रचना किस लक्ष्य को लेकर की जाती है? यदि इसका कोई प्रयोजन ही नहीं, तो रचना व्यर्थ है, उसने क्यों ऐसा किया? वह तो सर्वज्ञ है, फिर ऐसी निष्प्रयोजन रचना क्यों?

शेष भाग अगले अंक में…..

Creation of life: Aachary Udayveer ji

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा – स्व. डॉ. रघुवंश

 

कीर्तिशेष डॉ. रघुवंश हिन्दी-जगत् के जाने-माने विद्वान् थे। वे हिन्दी-संस्कृत-अंग्रेजी के परिपक्व ज्ञाता तो थे ही, भारत की शास्त्रीयता और उसके इतिहास के अनुशीलन में भी उनकी विपुल रुचि और गति थी। उन्होंने साहित्य के विभिन्न पक्षों पर साहित्य-सर्जन कर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और समर्थ लेखक के रूप में वे सर्वमान्य रहे। अपने अग्रज श्रीमान् यदुवंश सहाय द्वारा रचित ‘महर्षि दयानन्द’ नामक ग्रन्थ की भूमिका-रूप में लिखे गए उनके इस लेख से हमारे ऋषिभक्त पाठक लाभान्वित हों, अतः इसे हम उक्त ग्रन्थ से साभार उद्धृत कर रहे हैं।     – सपादक

भारतीय पुनरुत्थान का आधुनिक युग उन्नीसवीं शती के दूसरे चरण से शुरू हुआ। इस युग का सही चित्र प्रस्तुत करते समय इस तथ्य को ठीक परिप्रेक्ष्य में सदा रखना होगा कि इस युग के मानस में पश्चिम का गहरा प्रभाव-संघात रहा है और पश्चिमी संस्कृति का सजग प्रयत्न रहा है कि यह मानस उससे अभिाूत रहे। पश्चिमी आधुनिक संस्कृति अन्य समस्त संस्कृतियों से इस माने में भिन्न है कि वह जागरूक और आत्मालोचन करने में समर्थ है। उसके  इतिहास-बोध ने उसे अपने विस्तार, आरोप और संरक्षण का अधिक सामर्थ्य दिया है। उसकी वैज्ञानिक प्रगति ने अपनी शक्ति-विस्तार की उसे अपूर्व क्षमता प्रदान की है। अनेक मानवीय शास्त्रों के वैज्ञानिक विकास में उसने अपना प्रभाव-क्षेत्र अनेक स्तरों और आयामों में फैला लिया है। इसका परिणाम यह हुआ कि पश्चिमी संस्कृति से पिछली पुरानी संस्कृति और परपरा वाले एशिया के राष्ट्रों और आदि (मैं आदिम कहना अनुचित मानता हूँ) संस्कृति वाले अफ्रीकी और अमरीकी समाजों और देशों को राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक प्रभावों में अपने उपनिवेश बने रहने के लिए विवश कर दिया है।

पुनरुत्थान युग से शुरू होकर स्वाधीनता प्राप्त होने के बाद तक के भारतीय मानस पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है। यहाँ इस समस्या का विस्तृत विवेचन-विश्लेषण करने के बजाय केवल ऐसे कुछ तथ्यों की और ध्यान आकर्षित किया जा सकता है। भारतीय बौद्धिक वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा यह मानता है कि भारत, वस्तुतः समस्त एशियाई देशों का आधुनिकीकरण तभी संभव हो सका है, जब यूरोप के देशों ने वहाँ उपनिवेश बनाये और वहाँ के निवासियों को पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा का अवसर प्रदान किया। भारत की राष्ट्रीय इकाई की परिकल्पना अंग्रेजी राज्य की देन है। भारतीय  संस्कृति, वस्तुतः समस्त एशियाई संस्कृतियाँ पिछड़ी हुई, मध्ययुगीन, प्रगति की सभावनाओं से शून्य, अन्धविश्वास और जड़ताओं से ग्रस्त हैं। इनके उद्धार का एक मात्र उपाय है कि ये पश्चिमी संस्कृति को अपना लें। और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पश्चिमी संस्कृति संसार की समस्त संस्कृतियों में श्रेष्ठ है, अन्य संस्कृतियाँ अपनी कमियों और कमजोरियों के कारण ह्नासोन्मुखी हुई और अन्ततः विनष्ट हो गई हैं, लेकिन पश्चिम की आधुनिक संस्कृति सबसे श्रेष्ठ और निरन्तर विकासशील है। इस प्रकार के चिन्तन को अग्रसर करने का पश्चिम के समस्त बौद्धिक वर्ग ने और उनके तथा कथित वैज्ञानिक तथा तटस्थ अध्ययनों ने निरन्तर प्रयत्न किया है। ऐसे पश्चिमी विद्वान् अपवाद ही माने जायँगे, जिन्होंने पश्चिमी संस्कृति की इस श्रेष्ठता और अन्य संस्कृतियों की हीनता के विचार को चुनौती दी हो। और मजे की बात है कि मानसिक रूप से पश्चिम के गुलाम भारत के बौद्धिक उनके विचारों को प्रामाणिकता तो नहीं देते, पर उनके आधार पर पश्चिमी संस्कृति की महनीयता का समर्थन अवश्य करते हैं।

भारत में अंग्रेजों के प्रभुत्व काल में प्रारभ से यह प्रयत्न रहा है कि राजसत्ता के क्रमशः बढ़ते हुए विस्तार के साथ इस देश के परपरित सामाजिक, प्रशासनिक और आर्थिक ढाँचे को छिन्न-भिन्न कर दिया जाय। इस प्रकार अंग्रेजी राजनीति और राजनय का सारा दृष्टिकोण यह रहा है कि यहाँ की पिछली संस्थाओं, व्यवस्थाओं और परपराओं को नष्ट कर देश की समस्त आन्तरिक शक्ति, आस्था तथा विश्वास को तोड़कर उसे नैतिक मेरुदण्ड-विहीन बना दिया जाय। भारतीय जन-समाज को उसके स्वीकृत आधार से उन्मूलित कर, ग्राम-समाज और पंचायतों के ढाँचों को विशृृंखल कर, धार्मिक आस्थाओं को खण्डित कर तथा उद्योग-धन्धों और व्यापार को विनष्ट कर अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान की दीक्षा देकर भारतीय मानस को यूरोपीय संस्कृति की महत्ता से इस प्रकार अभिभूत कर दिया कि अधिकांश शिक्षित वर्ग अपने देश के धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हीन भावना से भर गया। इसका सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि पुनरुत्थान युग के प्रारभ से उन्नति और विकसित होने के लिए पश्चिमीकरण पर बल दिया जाने लगा। यह पश्चिमीकरण अधिकांशतः अनुकरणमूलक ही रहा। कोई भी आरोप अनुकरणमूलक ही हो सकता है।

यह अवश्य हुआ कि अंग्रेजी राजनीति के परिणामस्वरूप भारत में उनके उपनिवेश की जड़ें काफी गहरी और मजबूत रहीं और इस प्रक्रिया में अर्थात् पश्चिमीकरण के दौरान भारत मध्ययुगीन संस्कारों तथा मनोवृत्तियों से अपने को मुक्त कर आधुनिक बन सका। यह बात संस्कारगत और परिवेशगत पक्षपात के कारण मार्क्स तथा ट्वायनवी जैसे यूरोपीय विचारकों ने भी कही है, अन्यों की तो बात अलग है। पश्चिम के मानस-पुत्र भारतीय तो यह राग अलापते कभी थकते नहीं। बुद्धदेव जैसे सुपुत्र तो कृतज्ञ भाव से यह मानकर अपना सन्तोष प्रकट करते हैं कि यह तो स्वाभाविक है,क्योंकि हम भारतीय यूरोप के ही आगत प्रवासी हैं। निश्चय ही यह हीन-भाव की उपज है। इस प्रसंग का अधिक विवेचन यहाँ नहीं करना चाहूँगा, क्योंकि अन्यत्र किया गया है, पर सिद्धान्त रूप में कहा जा सकता है कि गुलामी की हीन-भावना से क ोई व्यक्ति या राष्ट्र अपने निजी व्यक्तित्व के विकास की दिशा नहीं पा सकता है, क्योंकि व्यक्तित्व की स्वाधीनता तथा निजता का अनुभव विकास की पहली शर्त है। इसी प्रकार कोई भी प्राचीन संस्कृत समाज अपनी जड़ता और अवरुद्धता में भी अपने निजी व्यक्तित्व की खोज बिना किये आगे बढ़ने में समर्थ नहीं हो सकता। अन्ततः यहाी सही है कि अनुकरण किसी भी व्यक्ति या राष्ट्र को न गौरव प्रदान कर सकता है और न मौलिक सर्जनशीलता का मार्ग ही प्रशस्त कर सकता है, जिसके बिना किसी प्रकार की प्रगति संभव नहीं है। साथ ही दृष्टान्त रूप में जापान का उल्लेख करके कहा जा सकता है कि एशिया के सर्वाधिक उन्नत राष्ट्र जापान को न किसी यूरोपीय शक्ति के उपनिवेश होने का सौााग्य मिला और न किसी विदेशी भाषा के सहारे वहाँ ज्ञान-विज्ञान फैलाने का सुयोग हुआ।

पश्चिमी संस्कृति के रंग में रँगे हुए बौद्धिकों ने एक मिथ रचा है कि भारतीय जागरण अंग्रेजी भाषा और शिक्षा के प्रचार-प्रसार से ही संभव हुआ। पुनरुत्थान का नेतृत्व अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त महापुरुषों ने ही किया है। इस मिथ में तथ्यात्मक आधार जरूर है, पर यह सत्य नहीं है। यह संयोग था और इस संयोग के पीछे पश्चिमी उपनिवेशवाद की सारी विभीषिका थी, कि पश्चिम के सपर्क में भारत अंग्रेजों और अंग्रेजी के  माध्यम से आया तथा यहाी संयोग इसी से संभव हुआ कि भारत के इस नये पुनरुत्थान युग के नेता स्वामी दयानन्द को छोड़कर अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पश्चिम, विशेषकर इंग्लैण्ड से परिचित हुए थे।  उन्होंने यूरोप के आधुनिक मूल्यों-स्वतंत्रता, समता, प्रजातंत्र, समाजवाद, सायवाद आदि का परिचय अंग्रेजी शिक्षा के दौरान प्राप्त किया था। यहाँ तक कि उन्होंने अपने देश की परपरा, इतिहास, धर्म-दर्शन, समाज और संस्कृति के बारे में क्रमशः अंग्रेज लेखकों और अंग्रेजी के माध्यम से जाना। इस बात का उल्लेख पश्चिमी लेखकों के साथ हमारे भारतीय लेखक भी बड़े गौरव के साथ करते हैं। परन्तु यह सत्य वे नजर अन्दाज कर जाते हैं, सभवतः दृष्टिभ्रम के कारण उन्हें सही दिखाई ही नहीं पड़ता कि जिस चश्मे से वे पश्चिमी संस्कृति और सयता को देख रहे हैं, उससे उसका गौरवशाली और भव्य रूप सामने उभरता है, और जिस चश्मे से वे अपने देश को और उसकी संस्कृति को देखते हैं, उससे उसका बौना, कुरूप, विकृत रूप सामने आता है। परिणाम होता है कि इस वर्ग का मानस हीन-भाव से भरा हुआ है।

परन्तु यदि स्वामी दयानन्द को ही लिया जाय तो वे अकेले होकर भी अपवाद नहीं है, वरन् एक प्रतीक हैं। और इस एक  प्रतीक के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत के (एशिया को भी लिया जा सकता है) पुनरुत्थान के लिए न अंग्रेजी राज्य की अपेक्षा थी और न अंग्रेजी शिक्षा की। उसके लिए एक ऐसे व्यक्तित्व की आवश्यकता थी, जो सबसे पहले अपनी अन्तर्दृष्टि से अपने देश, समाज, जाति तथा राष्ट्र के व्यापक और सामूहिक जीवन की जड़ता, विडबना, गतिरुद्धता, उसके अन्याय और शोषण की गहराई देख सके, उनके कारणों की ऐतिहासिक, यथार्थ तथा सांस्कृतिक खोज करने में समर्थ हो सके और अन्ततः अपनी विवेक दृष्टि से गतिरोध को दूर करके समाज को मौलिक सर्जनशीलता से संचालित-प्रेरित करने में समर्थ हो सके। यह अवश्य है कि उसके लिए किसी न किसी प्रकार या स्तर का पश्चिमी आधुनिक संस्कृति के वातावरण का संस्पर्श सहायक था। इसी वातावरण में दयानन्द ने जन्म लिया था, यद्यपि यह भी नहीं क हा जा सकता कि अपनी पैंतीस-चालीस वर्ष की अवस्था तक उन्होंने वस्तुतः इस वातावरण का भी एहसास पाया था।

दयानन्द का जन्म गुजरात के टंकारा नामक नगर में सन् 1823 ई. में हुआ। यह वही समय है, जब बंगाल में राजा राममोहन राय भारतीय पुनरुत्थान में संलग्न थे। वे पश्चिमी संस्कृति से पूर्णतः प्रभावित और अंग्रेजी शिक्षा के समर्थक थे। उनके सामने देश का जो रूप था, वह अंग्रेजी राजनीति और राजनय के द्वारा सत्ता-संघर्ष में राजनीतिक तथा सांस्कृतिक औपनिवेशिक महत्त्वाकांक्षा को प्रतिफलित करने वाला रूप था। निश्चय ही भारतीय समाज कीअनेक जड़ताएँ, विकृतियाँ और नृशंस रीतियाँ उनके सामने थीं, परन्तु उनको देखने, समझने और व्यापक सन्दर्भों से जोड़कर लबी भारतीय संस्कृति की परपरा में उनके कारणों के विश्लेषण-विवेचन की दृष्टि उनके पास नहीं थी। और उसका कारण था कि  बंगाल और कलकत्ता में अंग्रेज पश्चिमी सयता का चमत्कारी प्रभाव डालने में समर्थ हो चुके थे और पढ़े-लिखे वर्ग के मानस को अपने ढंग से सोचने-समझने के लिए प्रेरित कर सके थे। उनकी नीति के अनुसाराारतीय शिक्षित वर्ग जितना प्रबुद्ध होता जा रहा था, उसका मानस पश्चिमी संस्कृति (प्रायः अंग्रेजी मानना चाहिए) से अभिभूत हो रहा था, अंग्रेजी शिक्षा और संस्कृति को अपनाने की उसकी आकांक्षा बढ़ती जा रही थी। इसका परिणाम यह हुआ कि अपने देश, धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हमारे बौद्धिक वर्ग में हीन-भाव उत्पन्न हुआ। हमारे अधिकांश बड़े नेताओं में भी एक स्तर पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है, जो उनकी इस कामना में परिलक्षित हुआ है किाारतीय समाज का नव-निर्माण पश्चिमीकरण के रूप में होना चाहिए। उनमें अपनेपन की गौरव-भावना की चेतना प्राचीन भारतीय संस्कृति के धर्म, दर्शन, अध्यात्म के कुछ प्रतीकों से सन्तोष ग्रहण करती रही है। इनकी अपेक्षा दयानन्द जिस पारिवारिक वातावरण में पले, सामाजिक वातावरण में बढ़े और उन्होंने जिस प्रकार की शुद्ध परपरित संस्कृत शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की, उनमें उनका पश्चिमीकरण से कोई सपर्क नहीं था, अतः उन पर पश्चिमी संस्कृति का सीधा कोई भी प्रभाव नहीं स्वीकार किया जा सकता।

दयानन्द राजा राममोहन राय से लेकर जवाहरलाल नेहरू तक ऐसे भारतीय नेताओं से बिल्कुल अलग थे, जो अपनी समस्त सद्भावनाओं और देश-कल्याण की भावनाओं के बावजूद भारतीय आधुनिकीकरण का रास्ता हर प्रकार से पश्चिमीकरण से होकर गुजरता पाते रहे हैं। और उनके  पीछे अधिसंयक भारतीय अंग्रेजी शिक्षित वर्ग रहा है, जो पश्चिमीकरण को पश्चिम के बाहरी या ऊपरी अनुकरण के स्तर पर स्वीकार कर अपने को सय मानकर असंय भारतीय जनता को उपेक्षा और अवहेलना के भाव से देखता रहा है। यहाँ इस बात के विवेचन का अवसर नहीं है, पर उल्लेख करना जरूरी है कि अंग्रेजी राजनीति के सही परिणाम के रूप में यह शिक्षित वर्ग अपने निहित स्वार्थों में संगठित होता गया है। स्वाधीनता के संघर्ष-काल में यह वर्ग अंग्रेजों के पक्ष में रह कर हर स्तर पर और हर प्रकार सेाारतीय जनता की स्वाधीनता की महत्त्वाकांक्षाओं के विरुद्ध कार्य करता रहा है। और उससे भी बड़े दुर्भाग्य की बात यह रही है कि अपनी मानसिक संस्कारगत एकता के कारण जवाहरलाल नेहरू स्वाधीनता-युग में इस वर्ग के अघोषित नेता बन गये। आगे चलकर अपने नेतृत्व को सुदृढ़ बनाने के लिए नेहरू ने इस निहित स्वार्थ के वर्ग से समझौता कर लिया। अनुकरणमूलक पश्चिमीकरण को प्रगतिशीलता उद्घोषित करते रहकर नेहरू ने इस वर्ग का अपने उन प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ इस्तेमाल किया है, जो मात्र पश्चिमीकरण के रूप में भारत के आधुनिकीकरण को स्वीकार नहीं करते रहे हैं। अन्ततः नेहरूऔर इस वर्ग का एक ही निहित स्वार्थ बन गया, क्योंकि नेहरू को उनसे शक्ति प्र्राप्त होती रही है। इस वर्ग के लोग ही क्रमशः भारतीय जीवन के सभी क्षेत्रों में शक्ति और प्रभाव की जगह पाते गये और नेहरूकी सत्ता की छत्र-छाया में यह वर्ग अधिकाधिक संगठित और गतिमान् होता गया है।

पुनरुत्थान युग के नेताओं में दयानन्द का स्थान अप्रतिम है, पर उनको विवेकानन्द, लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय और महात्मा गाँधी जैसे नेताओं का अग्रणी माना जा सकता है। इन नेताओं ने भारतीय समाज के पुनर्गठन, विकास और आधुनिकीकरण के लिए भारतीय संस्कृति के मूलाधार को आवश्यक माना है। उनके अनुसार पश्चिम से प्रेरणा पाना, पश्चिम से नया ज्ञान-विज्ञान सीखना एक बात है, पर उसका अन्धानुकरण न हमारे गौरव के अनुकूल है और न हमारी वास्तविक प्रगति के लिए ही उपयोगी है। यह अवश्य है कि इन नेताओं की पद्धति में भिन्नता रही है। कुछ नेता भारतीय प्राचीन गौरवशाली सांस्कृतिक परपरा के पुनरुत्थान में भारतीय समाज के विकास की संभावना देखते रहे हैं, यद्यपि उन्होंने यहाी स्वीकार किया है कि पश्चिम से हमको ज्ञान-विज्ञान सीखना है। इस दृष्टि से दयानन्द और गाँधी को उनके साथ रखा जा सकता है, क्योंकि दयानन्द ने यह स्वीकार किया है कि भारतीय पुनरुत्थान और आधुनिकीकरण भारत की प्राचीन वैदिक संस्कृति के आधार पर ही संभव है और गाँधी ने माना है कि हमारे सपूर्ण विकास की सभावनाएँ भारतीय व्यक्तित्व की खोज के आधार पर ही संयोजित की जा सकती हैं। एक स्तर पर ये दो व्यक्तित्व समान माने जा सकते हैं। इन दोनों ने भारतीय जन-समाज से गहरा और आन्तरिक तादात्य स्थापित किया था। उन्होंने भारतीय जीवन को उसके वर्तमान यथार्थ तथ्य में और सपूर्ण ऐतिहासिक सांस्कृतिक परपरा में आत्म-साक्षात्कार के स्तर पर ग्रहण किया था, परन्तु दयानन्द और गाँधी के युग, परिवेश, शिक्षा और संस्कार में अन्तर रहा है, और उसके कारण इन दोनों के आत्म-साक्षात्कार की प्रकृति में अन्तर पड़ गया है।

गाँधी भारतीय रंगमंच पर उस समय अवतरित हुए जब दयानन्द के द्वारा उठाये हुए, भारतीय समाज के सारे सवाल पूरी तरह शिक्षित समाज में चर्चा के विषय बन चुके  थे। अनेक दिशाओं में उसका मानस आन्दोलित हो चुका था, उसमें आत्म-गौरव और आत्म-विश्वास का भाव जा चुका था। गाँधी के समय तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत में राजनीतिक आन्दोलन का स्वरूप अधिक स्पष्टता के साथ उभर आया था, अतः गाँधी ने भारतीय समाज के पुनर्गठन और नवीकरण के प्रश्न को राजनीतिक स्वाधीनता के साथ जोड़ दिया। उनको यह लगना स्वाभाविक था कि पूर्ण स्वाधीनता पा लेने के बाद सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढंग से भारतीय जीवन को एक नया संरचात्मक रूप प्रदान करना सभव होगा। गाँधी की स्थिति इस दृष्टि सेाी विशिष्ट थी कि उनको पश्चिम की संस्कृति का गहरा परिचय था। दयानन्द को भी अन्ततः भारतीय जीवन के पुनर्गठन में पश्चिम की सांस्कृतिक चुनौती का सामना करना पड़ा था, पर उन्होंने उसका समुचित समाधान पश्चिमी संस्कृति के अन्तर्वर्ती तत्त्वों के माध्यम से प्रस्तुत नहीं किया, जैसी सुविधा गाँधी को प्राप्त थी। वस्तुतः किसी सशक्त और गतिशील संस्कृति के  संघात (ढ्ढद्वश्चड्डष्ह्ल) को सहने का सबसे दक्ष उपाय भी यही है कि गाँधी के समान उस संस्कृति के सबल तत्त्वों का विकास अपनी भूमिका पर करके उसका सामना किया जाय। दयानन्द के सामने चुनौती थी, पर उसकी शक्ति का और उसके सामर्थ्य के स्रोत का उन्हें ठीक अन्दाज नहीं था, अतः उनके  पास उस चुनौती का सामना करने के लिए अपनी ही सांस्कृतिक परपरा में अन्तर्निहित शक्ति और ऊर्जा के अनुसन्धान के अलावा कोई उपाय नहीं था।

शेष भाग अगले अंक में…….

contribution of Rishi Dayanand

आर्य समाज के वह निर्भीक निर्माताः-राजेन्द्र जिज्ञासु

आर्य समाज के वह निर्भीक निर्माताः

इतिहास लेखक कोई भी हो, उससे कोई-न-कोई महत्त्वपूर्ण घटना छूट जाती है। उसके पीछे आने वाले इतिहास गवेषकों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे ऐसी छूट गई महत्त्वपूर्ण सामग्री को प्रकाश में लायें। आर्य समाज में भी ऐसे कई गुणी, ज्ञानी, इतिहास प्रेमी हुए हैं, जिन्होंने समय-समय पर इतिहास के लुप्त गुप्त स्वर्णिम पृष्ठों का अनावरण करके अच्छा यश पाया, परन्तु आर्य समाज में इतिहास की स्वर्णिम, प्रेरक, गौरवपूर्ण सामग्री को छिपाने, लुकाने व हटाने (हटावट) का भी सुनियोजित प्रयास हुआ है। लोग मिलावट पर तो अश्रुपात करते हैं, स्वामी वेदानन्द जी महाराज को हमने मिलावट, बनावट के साथ हटावट पर भी अश्रुपात करते देखा था।

लाला लाजपतराय से हमारा कोई सबन्ध नहीं, यह आश्वासन देने एक टोली पंजाब के गवर्नर को कालका में मिली। महात्मा हंसराज जी इस शिष्ट मण्डल के मुखिया थे। बहुत लोग इसे जानते थे, परन्तु इस पर परदा डाला गया। वैद्य गुरुदत्त जी ने पर्दा उठाया तो एतद्विषयक नई-नई जानकारी हमें मिलती गई। स्वामी दर्शनानन्द राजनीति से कोसों दूर थे। हमें इसी सबन्ध में उनकी निडरता का प्रमाण हाथ लगा। जब लाला जी के सब साथी उन्हें छोड़ गये, तो आपने निर्भय होकर अपने साप्ताहिक ‘महाविद्यालय समाचार’ में श्री महाशय कृष्ण जी का संक्षिप्त लेख ‘ख़िताब और इताब’ अर्थात् समान व यातना छापकर लाला लाजपतराय के निष्कासन के समय उनको महिमा मण्डित करके अपनी प्रखर देशभक्ति व आर्यत्व का परिचय दिया। यह अंक हमारे पास है।

अभी लालाजी और आर्यसमाज सरकार के निशाने पर ही थे, दमन व दलन का चक्कर चल ही रहा था कि स्वामी दर्शनानन्द जी ने अपने ‘आर्य सिद्धान्त’ मासिक में लालाजी को खुलकर ‘‘पंजाब केसरी लोकमान्य लाला लाजपतराय’’ लिखकर उनके द्वारा दीन-दरिद्र, अनाथ-असहायजनों की सेवा व रक्षा के कार्यों की खुलकर भूरि-भूरि प्रशंसा की। हमने भी आर्य समाज के सात खण्डों के इतिहास पर बहुत थोड़ी, फिर भी एक विहंगम दृष्टि तो डाली, परन्तु हमें यह प्रसंग कहीं दिखाई न दिया और न ही मैक्समूलर रौमाँ-रोलाँ तथा  जवाहरलाल नेहरू की इतिहासज्ञता की माला फेरने वालों से महान साधु दर्शनानन्द की इस रूप की कुछ चर्चा सुनने को मिली। उलटा प्रतापसिंह की राजभक्ति के किस्से सुनाने लगे। जातियों, संस्थाओं व जन साधारण को उबारने में समय लगता है। रात-रात में ठाकुर रोशनसिंह व पं. नरेन्द्र का निर्माण नहीं हो सकता। भावना तो आर्यों की आरभ से ही यही रही। यही आर्य समाज की तान थी –

दयानन्द देश हितकारी। तेरी हिमत पै बलिहारी।।

बुद्धिमानों के लिए संकेत ही पर्याप्त है।

उत्तर प्रदेश के आर्यों का शौर्यः लाला लाजपतराय जी के निष्कासन के समय महात्मा मुंशीराम जब मैदान में उतर कर दहाड़ने लगे, तब पंजाब का सारा महात्मा दल लोहे की दीवार बनकर महात्मा जी के पीछे खड़ा था- ऐसा प्रसिद्ध क्रान्तिकारी आनन्दकिशोर जी मेहता ने अपनी पुस्तक में लिखा है। मेहता आनन्दकिशोर जी भी तब सताये जा रहे राष्ट्रभक्तों में से एक थे। मैंने इस इतिहास पर लिखते हुए उस समय के उत्तरप्रदेश के एक आर्यसमाजी को भी लाला जी के पक्ष में महात्मा मुंशीराम की आवाज में आवाज मिलाते दिखाया था।

एक लबे समय तक मैं ऐसे लेखों व प्रमाणों की खोज में रहा जिससे यह सिद्ध हो कि तब आर्य समाज के संन्यासी, विद्वान्, भजनोपदेशक, गृहस्थी, आबालवृद्ध सब महात्मा मुंशीराम जी के पीछे खड़े थे। बड़े लबे समय की प्रतीक्षा करने के पश्चात् एक ऐसा लबा लेख मिला है। प्रिय राहुल जी ने ‘आर्य समाचार’ मासिक का उस युग का एक सपादकीय मुझे उपलध करवा दिया है। इस लबे लेख की रंगत वही है, जो उन दिनों पूज्य महात्मा मुंशीराम जी के लेखों व व्यायानों की होती थी। मैंने इस फाईल की खोज में मेरठ, मुरादाबाद, प्रयाग व आगरा आदि कई नगरों की बार-बार यात्रायें कीं। पं. लेखराम वैदिक मिशन के सब आर्यवीरों का परोपकारिणी सभा, परोपकारी परिवार व सपूर्ण आर्य जगत् की ओर इस अविस्मरणीय सेवा के लिए कोटिशः धन्यवाद!

Stalwart of arya samaj

आलाराम स्वामी की पीड़ाः-राजेन्द्र जिज्ञासु

आलाराम स्वामी की पीड़ाः

स्वामी आलाराम नाम के एक बाबा जी ने उन्नीसवीं शताब्दी  के अन्तिम वर्षों में आर्य समाज में प्रवेश किया। वे किस प्रयोजन से आर्य समाज में आये- यह जानने का किसी ने तब यत्न नहीं किया। बाबा ने घूम-घूम कर आर्य समाज का अच्छा प्रचार किया। बोलने की कला में उन्हें सिद्धि प्राप्त थी, पर कुछ ही वर्षों में आर्य समाज के घोर विरोधी के रूप में सनातन धर्म के बहुत बड़े नेता व विचारक बन गये। ऋषि दयानन्द और आर्य समाज को कोसने से लीडर बनना व धन कमाना बड़ा अचूक नुस्खा आपके भी काम आया।

आप ही ने प्रयाग में सत्यार्थप्रकाश पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए एक प्रसिद्ध केस करके अपनी राजभक्ति की धूम मचा दी। सत्यार्थप्रकाश राजद्रोह फैलाने वाला ग्रन्थ है, इसलिए आप इसे जत करने पर तुल गये, परन्तु हाथ कुछ भी न लगा।

आर्य समाज में रहते हुए एक बार मेरे जन्म स्थान के समीप जफरवाल कस्बा में बाबा आलाराम ने आर्य समाज के प्रचार की धूम मचा दी। वे हास्यरस में बोलते हुए एक लावणी बहुत सुनाया करते थेः- ‘धौल दाहढ़े मरें पुत्र आरज बन जायेंगे।’ अर्थात् श्वेत दाढ़ी वाले वृद्धों के मर जाने पर इनके पुत्र आर्य बन जायेंगे। पौराणिक दल के नेता बनकर बाबाजी ने ‘दयानन्द मिथ्यात्व प्रकाश’ की एक पुस्तकमाला निकाली। इसके पाँच-छह भाग मेरे पुस्तकालय में हैं। यह पुस्तकमाला धर्म प्रचार के प्रयोजन से तो लिखी नहीं गई थी। इसका मुय प्रयोजन लोगों को राजभक्ति की घुट्टी पिलाना था। यह पुस्तकमाला के मुखपृष्ठ पर छपा करता था।

मैंने माननीय आचार्य सोमदेव जी से प्रार्थना की है कि वे बाबा आलाराम सागर की इस पुस्तकमाला पर एक 32 पृष्ठ की प्रामाणिक पुस्तक लिख दें। इससे महर्षि के व्यक्तित्व, उपकार, सुधार तथा वैदिक धर्म की विशेषताओं का नई पीढ़ी को ठोस ज्ञान होगा। ‘सत्यार्थप्रकाश’ का भयभूत विरोधियों पर ऐसा सवार हुआ कि बाबा आलाराम को अपनी पुस्तकमाला में ‘प्रकाश’ शद जोड़ना पड़ा। मौलवी सनाउल्ला को अपनी पुस्तक का नाम ‘हक प्रकाश’ रखना पड़ा। यह सत्यार्थप्रकाश का चमत्कार ही तो था।

 

Impact of Satyarth Prakash

आवागमन पर पं. लेखराम जी के अनूठे तर्कः: राजेन्द्र जिज्ञासु

आवागमन पर पं. लेखराम जी के अनूठे तर्कः- अमरोहा से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक आर्य सामाजिक -पत्र का एक अंक नजीबाबाद गुरुकुल में एक आर्य बन्धु ने दिखाया। उसमें पुनर्जन्म पर एक लेख का शीर्षक पढ़कर ऐसा लगा कि मेरे किसी प्रेमी ने मेरे पुनर्जन्म विषयक (परोपकारी में छपे) तर्कों पर कुछ प्रश्न उठाये होंगे, परन्तु बात इससे उलटी ही निकली। विचारशील लेखक ने परोपकारी में दिये गये मेरे विचारों व तर्कों को उजागर  करते हुए जोरदार लेख दिया। उस आर्य भाई को व सपादक जी को धन्यवाद!

उस लेख को पढ़ने से पूर्व ही मेरे मन में ‘तड़प-झड़प’ में पं. लेखराम जी का पुनर्जन्म विषयक मौलिक चिन्तन व प्रबल युक्तियाँ देने का निश्चय था। हमारे मान्य आचार्य सत्यजित् जी तथा आदरणीय आचार्य सोमदेव जी पाठकों का शंका-समाधान  करते हुए बड़े सुन्दर प्रमाण व तर्क देते रहते हैं। उनका परिश्रम वन्दनीय है। उनसे भी विनती की है कि हमें अपने पुराने दार्शनिक विद्वानों यथा- पं. लेखराम जी, पं. गुरुदत्त जी, पूज्य दर्शनानन्द जी, श्रद्धेय देहलवी जी के तर्क उनका नामोल्लेख करके देने चाहिये।

पं. लेखराम जी का पुनर्जन्म विषयक ग्रन्थ पढ़कर अनेक सुपठित हिन्दू युवक, जो ईसाइयों, मुसलमानों व ब्राह्म समाजियों के घातक प्रचार से भ्रमित तथा धर्मच्युत हो रहे थे, निष्ठावान् आर्य बन गये। किस-किसका नाम यहाँ दूँ? डी.ए.वी. के पूर्व प्राचार्य बशी रामरत्न, महात्मा विष्णुदास जी लताला वाले (स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी को आर्य बनाने वाले) ला. देवीचन्द जी एम. ए. इत्यादि सब पं. लेखराम जी को पढ़-सुनकर आर्य समाज से जुड़े।

  1. 1. पं. लेखराम जी का तर्क है कि पुराने भवन ढहते जाते हैं, नये-नये भवनों का निर्माण होता रहता है। सब नये-नये भवन इसी धरती पर विद्यमान पहले के ईंट, पत्थर, मिट्टी व गारे से ही बनाये जाते हैं। नई सामग्री कहीं से नहीं आती।
  2. 2. सब नदियाँ जो बह रही हैं, उनका जल कहाँ से आता है? सब जानते हैं, यह वही जल है, जो पहले सागर में गया था। वर्षा का जल, नदियों का जल कहीं परलोक से, अभाव से तो आता नहीं।
  3. 3. जितने पेड़, पौधे, वृक्ष उग रहे हैं, फल-फूल रहे हैं, ये सब धरती पर विद्यमान पहले की सामग्री से ही उपजते व फूलते-फलते हैं। अभाव से भाव यहाँ भी नहीं होता और न ही परलोक से इनके बीज आदि आते हैं।
  4. 4. सब प्राणियों के शरीर धरती पर विद्यमान सामग्री से (अन्न, जल आदि) से निर्मित व विकसित होते हैं। कहीं से नई-नई सामग्री नहीं आती। जब लाखों-करोड़ों शरीर उसी सामग्री से बनते हैं, जिससे पहले के शरीर बनते रहे हैं, इससे स्पष्ट है कि इस धरा पर नये-नये जीव भी उत्पन्न नहीं होते। जीवात्मायें भी वही हैं, जो इससे पूर्व किसी शरीर का परित्याग कर चुकी हैं। जैसे प्रकृति अनादि है, नई पैदा नहीं होती है, इसी प्रकार परमात्मा नये-नये जीव गढ़-गढ़ कर इस धरती पर नहीं भेजता। जैसे प्रकृति नई-नई नहीं पैदा होती, वैसे ही जीवात्मा भी वही-वही आते-जाते रहते हैं।

    Logic’s on rebirth by Pandit lekrham Ji

आर्यसमाज के गगन मण्डल में चमकते नक्षत्र पं. चमूपति

ओ३म्

जयन्ती पर

आर्यसमाज के गगन मण्डल में चमकते नक्षत्र पं. चमूपति

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द आर्यसमाज के संस्थापक व निर्माता हैं जिन्होंने ईश्वरीय ज्ञान वेदों की सत्य मान्यताओं, सिद्धान्तों व शिक्षाओं का  जनसामान्य में प्रचार करने के लिए 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। वस्तुतः आर्यसमाज संसार से अविद्या का नाश करने तथा विद्या की वृद्धि करने का संसार में अब तक का एक अभूतपूर्व आन्दोलन है। महर्षि दयानन्द अपने समय के एकमात्र वेदों के पारदर्शी मर्मज्ञ विद्वान थे और निजी स्वार्थों, पारिवारिक दायित्वों व चारित्रिक दुर्बलताओं से पूर्णतः मुक्त थे। अतः मानवजाति की उन्नति व देश के पुनरुत्थान के लिए उन्होंने वेद प्रचार के आन्दोलन आर्यसमाज को स्थापित किया और प्राणपण से उसका पोषण किया। उनके प्रयासों का सुप्रभाव देश, समाज व विश्व की मानव जाति पर हुआ। अपने आन्दोलन को गति प्रदान करने के लिए उन्हें जो प्रमुख प्रतिभावान् देशभक्त मिले उनमें शहीद स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, रक्तसाक्षी पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय, लाला साईंदास सहित पं. चमूपति, एम.ए. भी थे जिन्होंने आर्यसमाज आन्दोलन की सफलता के लिए अपने जीवन को समर्पित किया। आज के लेख में हम आर्यजगत के उच्च कोटि के वयोवृद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी के लेख के आधार पर पं. चमूपति जी के जीवन पर प्रकाश डाल रहे हैं। हम समझते हैं कि जीवित विद्वानों का सत्कार व संगति तो लाभदायक होती ही है, इसके साथ अपने पूर्वज विद्वानों, देशहित व धर्महित के लिए प्रमुख योगदान देने वालों महान पुरूषों का समय-समय पर स्मरण करना भी हमारे जीवन की उन्नति में सहायक होता है। इसी आशय से यह लेख प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

पं. चमूपति जी का जन्म आजादी से पूर्व भारत के एक पिछड़े मुस्लिम राज्य बहावलपुर, जो अब पाकिस्तान में है, वहां 15 फरवरी, सन् 1893 को हुआ था। श्री वसन्दाराम आपके पिता थे और माता थी श्रीमती लक्ष्मी दवी। माता पिता से आपको चम्पतराय नाम मिला। कालान्तर में जब आपकी प्रसिद्धि फैलने लगी तो आपने अपने नाम में संशोधन कर इसको चम्पतराय से चमूपति कर दिया। चमूपति का अर्थ सेनापति होता है। आपके दादा जी का नाम श्री दलपतराय था। बहावलपुर में पं. चमूपति जी का जन्म होने से यह स्थान वैदिक जगत में विख्यात हो गया और भविष्य में भी रहेगा। पं. चमूपति जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। बाल्यकाल से ही आप उर्दू में कविता करने लगे थे।  डा. राधाकृष्ण जी आपके सहपाठी थे। आपके अनुसार मैट्रिक करने के बाद कालेज में अध्ययन करते समय आप फारसी में कविता लिखा करते थे।

 

बहावलपुर एक मुस्लिम रियासत थी और वहां उर्दू फारसी का ही प्रभाव था। हिन्दी व संस्कृत का वहां शायद ही अपवादस्वरुप कोई विद्वान रहा हो। पं. चमूपति भी बी.ए. करने तक देवनागरी के अक्षरों से अपरिचित थे। सत्संग व संगति के प्रभाव से आपको आर्यसमाज का परिचय हुआ और महर्षि दयानन्द के एक प्रमुख ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का परिचय पाकर आपने इस ग्रन्थ के उर्दू अनुवाद को प्राप्त कर उसको पढ़ा। अनुवाद से आपकी सन्तुष्टि नहीं हुई अतः आपने एम.. संस्कृत विषय लेकर किया। बी.. तक देवनागरी अक्षरों वर्णमाला से अपरिचित व्यक्ति का संस्कृत में एम.. करना आश्चर्यजनक है और शायद ये अपने समय का शिक्षा जगत का रिकार्ड भी हो। इसे हम असम्भव को सम्भव करने वाले कार्य की उपमा दे सकते हैं। इस कार्य से आपकी विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न होने का ज्ञान होता है।

 

पं. चमूपति जी सात भाषाओं के विद्वान थे जिनमें संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, फारसी आदि भाषायें सम्मिलित हैं। उर्दू और हिन्दी में की गई आपकी कवितायें दैनिक, साप्ताहिक व मासिक रूप से प्रकाशित देश की विख्यात पत्र व पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ करती थीं। आपके समकालीन प्रायः सभी मूर्धन्य साहित्यकारों, कवियों व पत्रकारों ने आपकी रचनाओं की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। आपके प्रशंसक प्रतिष्ठित साहित्यकारों में महाकवि नाथूराम शंकर शर्मा, पं. पद्मसिंह शर्मा, डा. मोहम्मद इकबाल, प्रो. त्रिलोकचन्द ‘महरूम’, कहानीकार सुदर्शन, महाशय जैमिनी सरशार, पं. वितस्ताप्रसाद ‘फिदा’, श्री दत्तात्रय प्रसाद कैफी, महाशय कृष्ण, श्री मनोहरलाल ‘शहीद’ ‘सरोज’ आदि सम्मिलित हैं।  प्रो. त्रिलोकचन्द ‘महरूम’ ने आपसे अपनी एक पुस्तक की भूमिका भी लिखवाई थी। सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा के रचयिता डा. इकबाल ने आपको अपना गुरू समान मानकर कहा था कि पं. चमूपति को देख कर मुझे अपने गुरू की याद जाती है। पण्डितजी जब कविता पाठ करते थे तो श्रोता मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। इसका कारण आपकी रचना की श्रेष्ठता के साथ सुनाने का अपना मौलिक अन्दाज था जो कृत्रिमता से रहित सहज व स्वभाविक होता था। मौलाना आजाद भी आपकी प्रतिभा और लेखन क्षमता से परिचित थे। आपने दैनिक उर्दू पत्र ‘‘तेज में आपका एक लेख गीता और कुरान पढ़कर आपसे इसी लेख की शैली में सारे कुरान का भाष्य करने का अनुरोध किया था।

 

पं. चमूपति जी के गद्य में काव्य का सा रस पाठक को मिलता है। इस संबंध में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि आपके गद्य में भी पद्य का सा रस है। हिन्दी में आप द्वारा लिखित सोम सरोवर जीवन ज्योति ग्रन्थों को हम गद्यमय पद्य की संज्ञा दे तो यह कोई अत्युक्ति नहीं है। जवाहिरे जावेद, ‘वैदिक स्वर्ग, ‘मजहब का मकसद चौदहवीं का चांद सरीखी दार्शनिक पुस्तकें इतनी रोचक साहित्यिक भाषा में लिखी गई हैं कि लेखनी उनकी साहित्यिक प्रतिभा की प्रशंसा करने में अक्षम है। आपके साहित्य, गद्य पद्य दोनों में, कौन सा रस नहीं है? वीर रस, भक्ति रस, करूणा रस, हास्यसब कुछ आपको मिलेगा। पं. चमूपति जी ऐसे महामानव थे जिन्होंने स्वेच्छा से धन को धूल समझ कर अपने देश जाति की सेवा, धर्मप्रचार धर्मरक्षा के लिए फकीरी ग्रहण की थी। आप गृहस्थी थे, आपके पुत्र लाजपत जी से हम मिले भी हैं, तथापि आपने परिवार के आर्थिक हितों की उपेक्षा करके तप, त्याग का कांटों भरा मार्ग स्वेच्छा से चुना था। आपके इस जज्बे को हमारा नमन है।

 

आपकी एक उर्दू रचना दयानन्द आनन्द सागर है जिसमें आपने महर्षि दयानन्द के विभिन्न पहलुओं पर कविताओं की रचना कर प्रस्तुत किया है। उनकी इस रचना से बहावलपुर रियासत में विवाद व बवाल हो गया। मुसलिम रियासत होने के कारण स्वामी दयानन्द की शान में लिखे गये दो शब्दों पर रियासत के मुसलमानों ने आपत्ति की। रियासत के मुसलमान हाथ धोकर आपके पीछे पड़ गये। बवाल को शान्त करने के लिए रिसासत के नवाब की ओर से आपको अपने इन शब्दों पर खेद व्यक्त करने को कहा गया। पं. चमूपति का पक्ष था कि जब उन्होंने कुछ अनुचित लिखा ही नहीं है तो खेद प्रकट करने का कोई कारण नहीं। महर्षि दयानन्द, वेद और आर्यसमाज के प्रति अपनी निष्ठा के लिए आपने अपना परिवार, जन्मभूमि, सगे संबंधी और इष्ट मित्रों का त्याग कर दिया परन्तु झुके नहीं। आज बहावलपुर में उस समय जैसी असहिष्णुता की प्रवृति अनेक तथाकथित बुद्धिजीवियों में देश भर में देखने को मिल रही है। पं. चमूपति का यह त्याग विचारों की स्वतन्त्रता के लिए था। सत्य की वाणी मनुष्यों की हितकारी होती है और ब्राह्मण की गौ कहलाती है। उसे दबाने का मतलब होता है देश को अधोगति में ले जाना। चमूपति जी ने अपनी आत्मा की आवाज को दबने नहीं दिया और स्वयं एक प्रकार का देश निकाला ले लिया। यह भी बता दे कि पण्डित जी हिन्दी कविता में अपना उपनाम चातक और उर्दू रचनाओं में सादिक का प्रयोग करते थे। धर्म, दर्शन, इतिहास उनके मुख्य विषय थे। उन्होंने जो लिखा बहुत सुन्दर व प्रभावशाली लिखा। उनकी भाषा में सौन्दर्य था, ओज था, रस था और प्रवाह था। आपकी भाषा में श्रेष्ठता के सभी गुण थे। अंग्रेजी पर भी आपका अधिकार था। इस भाषा में भी आपने सैकड़ों पृष्ठों की सामग्री दी है।

 

प्रा. जिज्ञासु जी ने पं. चमूपति जी के जीवन की एक छोटी परन्तु सदाचार संबंधी एक बड़ी घटना प्रस्तुत की है। उनके अनुसार एक बार पण्डित जी सपरिवार रेल यात्रा कर रहे थे। आरक्षण करवा रखा था। टिकट चैकर आया। टिकट देखकर आगे चलने लगा तो पण्डित जी ने आधा टिकट बनाने के लिए कहा। उसने कहा, ‘‘आधा टिकट किसके लिए?’’ पण्डित जी ने अपने नन्हें पुत्र लाजपत की ओर संकेत किया। टीटी ने कहा, ‘‘इसकी क्या आवश्यकता, यह तो चलता है। पण्डित जी ने कहा, ‘‘यह कल तीन वर्ष का हो गया सो आज इसका आधा टिकट बनना ही चाहिए। तीन वर्ष से एक दिन ऊपर हो गया है। इस पर टीटी ने कहा, ‘‘लगता है कि आप आर्यसमाजी हैं। ऐसा सिद्धान्तवादी तो एक आर्य ही हो सकता है। पं. चमूपति जी बहावलपुर में कालेज में प्राध्यापक रहे। आप गुरुकुल मुलतान व गुरुकुल कांगड़ी में भी कुछ वर्ष तक विभिन्न पदों पर रहे। एक आदर्श आचार्य के रूप में आपने अपने शिष्यों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। हमने आपके जिन ग्रन्थों को पढ़ा है, उससे हम भी अपने आप को आपका शिष्य ही मानते हैं। आपका व्यक्तित्व कितना महान था, इसका उदाहरण है कि आपकी सरलता विनम्रता, योग्यता आत्मा की निर्मलता के कारण आपके समकालीन आर्यसमाज के मूर्धन्य नेता श्री महाशय कृष्ण जी दीवान बद्री दास जी खड़े होकर आपका अभिवादन करते थे। आपके निधन से पूर्व आपकी पत्नी ने आपके बारे में कहा था कि पण्डित चमूपति जी हंसी विनोद में भी कभी असत्य भाषण नहीं किया करते थे। सन् 1915 व उसके बाद जब एम.ए. पढ़े लोग उंगलियों पर गिने जाते थे, तब भी आपने अपने नाम के साथ इस उपाधि का प्रयोग नहीं किया जबकि अनेक विख्यात लोगों के नाम के साथ एम.एम. की तुलना में निम्न उपाधि बी.ए. लिखा जाता रहा। आप कहा करते थे कि लेाग मेरे लेख और साहित्य को मेरे नाम से पढ़े, मेरी उपाधि को देखकर नहीं। आपका यह गुण आपकी वैराग्य भावना और आत्मगौरव को पुष्ट करता है।

 

15 जून सन् 1937 को 44 वर्ष की आयु में आपने मृत्यु का वरण किया। आप देशभक्त, वैदिक विद्वान, कवि, लेखक, उपदेशक, प्रचारक, ईश्वर-वेद-दयानन्द-भारत भक्त, आचार्य, तपस्वी और सच्चे ईश्वर उपासक थे। आर्यजगत के महान संन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द आपको आर्यसमाज का दूसरा गुरुदत्त विद्यार्थी मानते थे। पण्डित जी की मृत्यु पर उर्दू के प्रसिद्ध कवि श्री रोशन पटियालवी ने साप्ताहिक उर्दू प़त्र आर्य  मुसाफिर में उन पर श्रद्धाभाव से परिपूर्ण यह पंक्तियां लिखी थीं-खुश बयां शीरीं दहन सैफ जबां हरदिल अजीज। अल्लाह अल्लाह खाक के पुतले में इतनी खूबियां।  प्रा. जिज्ञासु जी ने इनका अनुवाद कर लिखा वह सुवक्ता मधुरभाषी लौह लेखक पूज्यपाद। वाह ! वाह! इतना गुणी पंचतत्व का पुतला प्रभो। इन्हीं शब्दों के साथ पं. चमूपति जी की 123 वीं जयन्ती पर हम उन्हें अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि आर्यसमाज को एक और दयानन्द और चमूपति प्रदान करें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

अनादि अविनाशी जीवात्मा कर्मानुसार जन्म-मरण-जन्म के चक्र अर्थात् पुनर्जन्म में आबद्ध

ओ३म्

अनादि अविनाशी जीवात्मा कर्मानुसार जन्ममरणजन्म

 के चक्र अर्थात् पुनर्जन्म में आबद्ध

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य संसार में जन्म लेता है, अधिकतर 100 वर्ष जीवित रहता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जिस संसार व पृथिवी  पर हम रहते हैं उसे हमने व हमारे पूर्वजों ने बनाया नहीं है अपितु उन्हें यह सृष्टि बनी बनाई मिली थी। इस संसार को किसने बनाया, इसका शास्त्र व बुद्धि संगत वैज्ञानिक उत्तर है कि इसे एक अदृश्य, अनादि, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक सत्ता ईश्वर ने बनाया है। वह ईश्वर जो जीवात्माओं को मनुष्य आदि योनियों में जन्म देता है, उनका पालन-पोषण करता है और शरीर के निर्बल व वृद्ध हो जाने पर उसकी आत्मा को शरीर से निकाल कर पुनः व वारंवार मनुष्य आदि योनियों में नया जन्म देता है। यह ऐसा ही होता है जैसे कि हम पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करते हैं। साधारण मनुष्य जन्म लेकर व कुछ पढ़ाई लिखाई करके अपनी कुल व समुदाय की परम्परा व रीति-रिवाजों के अनुसार किसी मत व सम्प्रदाय की कुछ सत्यासत्य मान्यताओं के अनुसार कर्म करते हुए अपना जीवन व्यतीत कर स्वयं को धन्य समझ लेते हैं परन्तु कुछ प्रखर बुद्धि व बुलन्द जीवात्मा वाले लोग मैं कौन हूं, मैं कहां से आया हूं, मेरे जन्म का उद्देश्य क्या है? मरने के बाद लोग कहां जाते हैं, क्या गर्भवास, जीवन में आने वाले मृत्यु आदि के दुःखों से बचा जा सकता है? जैसे अनेकानेक प्रश्नों पर विचार करते हैं और इसके लिए अपनी समस्त सामर्थ्य को लगाते हैं। इससे उनको जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसी के अनुसार वह अपना जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे मनुष्यों में एक सर्वोपरि नाम है और वह है स्वामी दयानन्द सरस्वती। संसार के अनेक बुद्धिमान अपने गुरुओं से यह प्रश्न करते हैं व कुछ पुस्तकों एवं शास्त्रों आदि का अध्ययन करते हैं तो उन्हें इसका उत्तर मिलता है कि संसार में तीन सत्तायें हैं, ईश्वर, जीव व प्रकृति। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अमर आदि गुणों वाला है। वह सूक्ष्म जीवात्माओं को उनके जन्म-जन्मान्तरों के कर्मानुसार मनुष्य व अन्य योनियों में जन्म देकर उसके पूर्व कृत कर्मों का भोग कराता है। सिद्धान्त है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है। अतः हम मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों में जन्म लेकर उस योनि के शरीरों की अवधि पूरी होने पर मृत्यु को प्राप्त होते जाते हैं। शेष कर्मों का फल भोगने के लिए हमारा पुनः जन्म होता है। ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनको शास्त्रों व जन्म-मृत्यु विषयक ज्ञान तो होता नहीं, कुछ छोटी-मोटी बातों के आधार पर पुनर्जन्म का खण्डन कर देते हैं। वेदों का अध्ययन करने की उन्हें फुर्सत नहीं। वह समझते हैं कि वह जितना जानते हैं उतना ही पर्याप्त है और उनके अलावा सभी अज्ञानी व उनसे ज्ञानस्तर में निम्नकोटि के हैं।

 

जीवात्मा जन्म लेता है और माता-पिता बनकर अपनी सन्तानों को जन्म देता है। यह तथ्य है परन्तु जीवात्मा को मनुष्य जन्म ईश्वर से मिलता है। उसी ने इस सृष्टि को रचा है। अतः इन प्रश्नों का उत्तर उसी ईश्वर से मिल सकता है। उससे यदि उत्तर जानना है तो वह समाधि अवस्था में जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त ईश्वर ने ही सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया था। उससे भी सहायता ली जा सकती है। वेदों के अनुसार जीवात्मा को जन्म व मृत्यु ईश्वर के द्वारा प्राप्त होते हैं। पुनर्जन्म एक सत्य, तर्क संगत व वैज्ञानिक सिद्धान्त है। महर्षि दयानन्द वेदों के उच्च कोटि के विद्वान थे। उन्होंने चारों वेदों का भाष्य करने का उपक्रम किया था और सबसे पहले चारों वेदों की भूमिका ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नामक ग्रन्थ लिखकर वेदभाष्य कार्य को आरम्भ किया था। इस ग्रन्थ का उन्नीसवां अध्याय ‘पुनर्जन्मविषय’ है। आज इस अध्याय में लिखे उनके उपदेशों को ही प्रस्तुत कर हम पुर्नजन्म का स्वरूप पाठकों के समस्त प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने पुनर्जन्म विषयक ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद के मन्त्रों सहित निरुक्त व न्याय दर्शन आदि के वचन उद्धृत किये हैं। यहां हम केवल ऋग्वेद के दो मन्त्रों को देकर सभी वचनों का हिन्दी भावार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। ऋग्वेद के मन्त्र हैं असुनीते पुनरस्मासु चक्षुः पुनः प्राणमिह नो धेहि भोगम! ज्योक् पश्येम सूय्र्यमुच्चरन्तमनुमते मृळया नः स्वस्ति।। एवं दूसरा मन्त्र पुनर्नो असुं पृथिवी ददातु पुनद्र्यौर्देवी पुनरन्तरिक्षम्। पुनर्नः सोमस्तन्वं ददातु पुनः पूषा पथ्यां३ या स्वस्तिः।। इन मन्त्रों का तात्पर्य है कि हे सुखदायक परमेश्वर ! आप कृपा करके पुनर्जन्म अर्थात् परजन्म में हमारे बीच में उत्तम नेत्र आदि सब इन्द्रियां स्थापन कीजिये। प्राण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, बल, पराक्रम आदि युक्त शरीर पुनर्जन्म में दीजिये। हे जगदीश्वर ! इस संसार अर्थात् इस जन्म और परजन्म में हम लोग उत्तम उत्तम भोगों को प्राप्त हों तथा हे भगवन् ! आपकी कृपा से सूर्यलोक और आपको विज्ञान तथा प्रेम से हम सदा देखते रहें। हे अनुमते=सबको मान देने हारे सब जन्मों में हम लोगों को सुखी रखिये जिससे हम लोगों का कल्याण हो। दूसरे मन्त्र का अर्थ-हे सर्वशक्तिमन् ! आपके अनुग्रह से हमारे लिये वारंवार पृथिवी प्राण को, प्रकाश चक्षु को, और अन्तरिक्ष स्थानादि अवकाशों को देते रहें। पुनर्जन्म में सोम अर्थात् ओषधियों का रस हमको उत्तम शरीर देने में अनुकूल रहे तथा पुष्टि करनेवाला परमेश्वर कृपा करके सब जन्मों में हमको सब दुःख निवारण करनेवाली पथ्यरूप स्वस्ति को देवे।

 

महर्षि दयानन्द द्वारा यजुर्वेद के एक तथा अथर्ववेद के दो उद्धृत मऩ्त्रों का अर्थ इस प्रकार है। हे सर्वज्ञ ईश्वर ! जब जब हम जन्म लेवें, तब तब हमको शुद्ध मन, पूर्ण आयु, आरोग्यता, प्राण, कुशलतायुक्त जीवात्मा, उत्तम चक्षु और श्रोत्र प्राप्त हों। जो विश्व में विराजमान ईश्वर है, वह सब जन्मों में हमारे शरीरों का पालन करे। सब पापों के नाश करनेवाले आप हमको बुरे कामों और सब दुःखों से पुनर्जन्म में अलग रक्खें। हे जगदीश्वर आप की कृपा से पुनर्जन्म में मन आदि ग्यारह इन्द्रिय मुझ को प्राप्त हों अर्थात् सर्वदा मनुष्य देह ही प्राप्त होता रहे अर्थात् प्राणों को धारण करनेहारा सामथ्र्य मुझ को प्राप्त होता रहे जिससे दूसरे जन्म में भी हम लोग सौ वर्ष वा अच्छे आचरण से अधिक आयु तक भी जीवें। सत्यविद्यादि श्रेष्ठ धन भी हमें पुनर्जन्म में प्राप्त होते रहें। सदा के लिये ब्रह्म जो वेद है, उसका व्याख्यानसहित विज्ञान तथा आप ही में हमारी निष्ठा बनी रहे। सब जगत् के उपकार के अर्थ हम लोग अग्निहोत्रादि यज्ञ को करते रहें। हे जगदीश्वर ! हम लोग जैसे पूर्वजन्मों में शुभ गुण धारण करनेवाली बुद्धि से उत्तम शरीर और इन्द्रियों से युक्त थे, वैसे ही इस संसार में पुनर्जन्म में भी बुद्धि के साथ मनुष्य देह के कृत्य करने में समर्थ हों। ये सब शुद्ध बुद्धि के साथ मुझको यथावत् प्राप्त हों। हम लोग इस संसार में मनुष्य जन्म को धारण करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सदा सिद्ध करें और इस सामग्र से आपकी भक्ति को प्रेम से सदा किया करें। ऐसा करके किसी जन्म में हमको कभी दुःख प्राप्त न हो।

 

मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता है। अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त होता है। पूर्वजन्म में किये हुए पाप पुण्य के फलों का भोग करने के स्वभावयुक्त जीवात्मा है, वह पूर्व शरीर को छोड़़ के वायु के साथ रहता, पुनः जल ओषधि वा प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य्य में प्रवेश करता है, तदनन्तर योनि अर्थात् गर्भाशय में स्थिर होके पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनुदित वाणी अर्थात् जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्यभाषण करने की आज्ञा दी है वैसा ही यथावत् जान के बोलता है और धर्म ही में यथावत् स्थित रहता है, वह मनुष्ययोनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है। जो अधर्माचरण करता है, वह अनेक नीच शरीर अर्थात् कीट पतंग पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुःखों को भोगता है। इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य शरीर का धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष आदि का होना। इनमें मनुष्यशरीर के तीन भेद हैं-एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विद्याओं को पढ़के विद्वान होना, तीसरा मत्र्य अर्थात् साधारण मनुष्यशरीर का धारण करना। इनमें प्रथम गति अर्थात् मनुष्यशरीर पुण्यात्माओं और पुण्यपाप तुल्य वालों का होता है और दूसरा जो जीव अधिक पाप करते हैं उनके लिये है। इन्हीं भेदों से सब जगत् के जीव अपने अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं। जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्मधारण करना, पुनः शरीर को छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, वारंवार होता है।

 

जैसा वेदों में पूर्वापरजन्म के धारण करने का विधान किया है वैसा ही निरुक्तकार ने भी प्रतिपादन किया है। उनके अनुसार जब मनुष्य को ज्ञान होता है तब वह ठीक ठीक जानता है कि मैंने अनेक वार जन्ममरण को प्राप्त होकर नाना प्रकार के हजारों गर्भाशयों का सेवन किया है। अनेक प्रकार के भोजन किये हैं, अनेक माताओं के स्तनों का दुग्ध पिया, अनेक माता पिता और सुहृदों को देखा है। मैंने गर्भ में नीचे मुख ऊपर पग इत्यादि नाना प्रकार की पीड़ाओं से युक्त होके अनेक जन्म धारण किये। परन्तु अब इन महादुःखों से तभी छूटूंगा कि जब परमेश्वर में पूर्ण प्रेम और उसकी आज्ञा का पालन करूंगा, नहीं तो इस जन्मरणरूप दुःखसागर के पार जाना कभी नहीं हो सकता। योगशास्त्र में भी पुनर्जन्म का विधान किया है। हर एक प्राणी की यह इच्छा नित्य देखने में आती है कि मैं सदैव सुखी बना रहूं। मरूं नहीं। यह इच्छा कोई भी नहीं करता कि मैं न रहूं अर्थात् मर जाऊं। ऐसी इच्छा पूर्वजन्म के अभाव से कभी नहीं हो सकती। यह अभिनिवेशक्लेश कहलाता है जो कि कृमिपर्य्यन्त को भी मृत्यु का भय बराबर होता है। यह व्यवहार पूर्वजन्म की सिद्धि को जनाता है। न्यायदर्शन के वात्स्यायन भाष्य में भी कहा है कि जो उत्पन्न होता है अर्थात् शरीर को धारण करता है, वह मरण अर्थात् शरीर को छोड़ के, पुनरुत्पन्न दूसरे शरीर को भी अवश्य प्राप्त होता है।

 

अनेक मनुष्य ऐसा प्रश्न करते हैं कि जो पूर्वजन्म होता है, तो हमको उसका ज्ञान इस जन्म में क्यों नहीं होता? इसका उत्तर है कि आंख खोल के देखों कि जब इसी जन्म में जो जो सुख दुःख तुमने बाल्यावस्था में अर्थात् जन्म से पांच वर्ष पर्य्यन्त पाये हैं, उनका ज्ञान नहीं रहता अथवा जो कि नित्य पठन पाठन और व्यवहार करते है, उनमें से भी कितनी ही बातें भूल जाते हैं तथा निद्रा में भी यही हाल हो जाता है कि अब के किये का भी ज्ञान नहीं रहता। जब इसी जन्म के व्यवहारों को इसी शरीर में भूल जाते हैं, तो पूर्व शरीर के व्यवहारों का कब ज्ञान रह सकता है? ऐसा भी प्रश्न करते हैं कि जब हमको पूर्वजन्म के पाप पुण्य का ज्ञान नहीं होता और ईश्वर उनका फल दुःख वा सुख देता है, इससे ईश्वर का न्याय वा जीवों का सुधार कभी नहीं हो सकता। इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि ज्ञान दो प्रकार का होता है–एक प्रत्यक्ष व दूसरा अनुमान आदि से। जैसे कि एक वैद्य और दूसरा अवैद्य, इन दोनों को ज्वर आने से वैद्य तो इसका पूर्व निदान जान लेता है और दूसरा नहीं जान सकता। परन्तु उस पूर्व कुपथ्य का कार्य जो ज्वर है, वह दोनों को प्रत्यक्ष होने से वे जान लेते है कि किसी कुपथ्य से ही यह ज्वर हुआ है, अन्यथा नहीं। इसमें इतना विशेष है कि विद्वान् ठीक ठीक रोग के कारण और कार्य को निश्चय करके जानता और वह अविद्वान् कार्य को तो ठीक ठीक जानता है परन्तु कारण में उसको यथावत् निश्चय नहीं होता। वैसे ही ईश्वर न्यायकारी होने से किसी को विना कारण से सुख वा दुःख कभी नहीं देता। जब हम को पुण्य पाप का कार्य सुख और दुःख प्रत्यक्ष हैं, तब हमको ठीक निश्चय होता है कि पूर्वजन्म के पाप-पुण्यों के विना उत्तम मध्यम और नीच शरीर तथा बुद्धि आदि पदार्थ कभी नहीं मिल सकते। इससे हम लोग निश्चय करके जानते हैं कि ईश्वर का न्याय और हमारा सुधार ये दोनों काम यथावत् बनते हैं। प्रकरण की समाप्ति पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि उपर्युक्त विवेचन विश्लेषण से बुद्धिमान् लोग पुनर्जन्म विषयक सिद्धान्त उससे सम्बन्धित सभी  पहलुओं को अपने विचार चिन्तन से यथावत् जान लेवें।

 

हम अनुभव करते हैं कि इस लेख में पुनर्जन्म विषयक वेद व शास्त्रों में पुनर्जन्म के विधान सहित इसके सभी पहलुओं का युक्ति व तर्कों के आधार पर स्पष्टीकरण हो गया है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त मनुष्यों को पापकर्मों से दूर रखता है। यदि हम कोई भी बुरा काम करेंगे तो ईश्वर की व्यवस्था से उसका फल हमें अवश्य ही भोगना होगा। यदि बुरे काम अधिक होंगे तो हमें परजन्म में पशु, पक्षी, कीट, पतंग, सुअर, सर्प व गधा आदि भी बनना पड़ सकता है। यह भी विचारणीय है कि जीवात्मा और ईश्वर अनादि व नित्य हैं और यह सृष्टि भी अनन्त काल से बनती व बिगड़ती चली आ रही है। इस अनन्त काल में हम अनेकानेक बार सभी योनियों में रहकर अपने कर्मानुसार सुख व दुःख भोगते रहे हैं और आगे भी भोगेंगे। मनुष्यादि जन्म मरण सहित अनेक बार हम मुक्ति की अवस्था में भी गये व रहे हैं। क्या कोई मनुष्य परजन्म में पशु, घोड़ा व गधा बनना चाहेगा, यदि नहीं हो उसे सद्कर्म ही करने होंगे। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, इन दोनों का आपस में सबन्ध क्या है ।

अध्यात्मवाद

– कृष्णचन्द्र गर्ग

आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, इन दोनों का आपस में सबन्ध क्या है- इस विषय का नाम अध्यात्मवाद है । आत्मा और परमात्मा दोनों ही भौतिक पदार्थ नहीं हैं। इन्हें आँख से देखा नहीं जा सकता, कान से सुना नहीं जा सकता, नाक से सूँघा नहीं जा सकता, जिह्वा से चखा नहीं जा सकता, त्वचा से छुआ नहीं जा सकता।

परमात्मा एक है, अनेक नहीं । ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि उसी एक ईश्वर के नाम हैं। (एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति। ऋग्वेद – 1-164-46 ) अर्थात् एक ही परमात्मा शक्ति को विद्वान लोग अनेक नामों से पुकारते हैं। संसार में जीवधारी प्राणी अनन्त हैं, इसलिए आत्माएँ भी अनन्त हैं। न्यायदर्शन के अनुसार ज्ञान, प्रयत्न, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख- ये छः गुण जिसमें हैं, उसमें आत्मा है। ज्ञान और प्रयत्न आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं, बाकी चार गुण इसमें शरीर के मेल से आते हैं। आत्मा की उपस्थिति के कारण ही यह शरीर प्रकाशित है, नहीं तो मुर्दा अप्रकाशित और अपवित्र है। यह संसार भी परमात्मा की विद्यमानता के कारण ही प्रकाशित है।

आत्मा और परमात्मा- दोनों ही अजन्मा व अनन्त हैं। ये न कभी पैदा होते हैं और नही कभी मरते हैं, ये सदा रहते हैं। इनका बनाने वाला कोई नहीं है। आत्मा परमात्मा का अंश नहीं है। हर आत्मा एक अलग और स्वतन्त्र सत्ता है।

आत्मा अणु है, बेहद छोटी है। परमात्मा आकाश की तरह सर्व व्यापक है। आत्मा का ज्ञान सीमित है, थोड़ा है। परमात्मा सर्वज्ञ है, वह सब कुछ जानता है। जो कुछ हो चुका है और हो रहा है, सब कुछ उसके संज्ञान में है। अन्तर्यामी होने से वह सभी के मनों में क्या है- यह भी जानता है। आत्मा की शक्ति सीमित है, थोड़ी है, परन्तु परमात्मा सर्वशक्तिमान है। सृष्टि को बनाना, चलाना, प्रलय करना- आदि अपने सभी काम करने में वह समर्थ है। पीर, पैगबर, अवतार आदि नाम से कोई एजैंट या बिचौलिए उसने नहीं रखे हैं। ईश्वर सभी काम अपने अन्दर से करता है, क्योंकि उसके बाहर कुछ भी नहीं है। ईश्वर जो भी करता है, वह हाथ-पैर आदि से नहीं करता, क्योंकि उसके ये अंग है ही नहीं। वह सब कुछ इच्छा मात्र से करता है।

ईश्वर आनन्द स्वरूप है। वह सदा एकरस आनन्द में रहता है। वह किसी से राग-द्वेष नहीं करता। वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से परे है। ईश्वर की उपासना करने से अर्थात् उसके समीप जाने से आनन्द प्राप्त होता है, जैसे सर्दी में आग के पास जाने से सुख मिलता है। ईश्वर निराकार है। उसे शुद्ध मन से जाना जा सकता है, जैसे हम सुख-दुःख मन में अनुभव करते हैं।

यह आत्मा जब मनुष्य शरीर में होती है, तब वह कार्य करने में स्वतन्त्र रहती है। उस समय किए कार्यों के अनुसार ही उसे परमात्मा सुख, दुःख तथा अगला जन्म देता है। दूसरी योनियाँ या तो किसी दूसरे के आदेश पर चलती हैं या स्वभाव से काम करती हैं। उनमें विचार शक्ति नहीं होती, इसलिए उन योनियों में की गई क्रियाओं का उन्हें अच्छा या बुरा फल नहीं मिलता। वे केवल भोग योनियाँ हैं जो पहले किए कर्मों का फल भोग रही हैं। मनुष्य योनि में कर्म और भोग दोनों का मिश्रण है। मनुष्य स्वतन्त्र रूप से कर्म भी करता है और कर्मफल भी भोगता है।

मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं हूँ। शरीर मेरा संसार में व्यवहार करने का साधन है। कर्ता और भोक्ता आत्मा है। सुख-दुःख आत्मा को होता है।

जीवात्मा न स्त्रीलिंग है, न पुलिंग है और न ही नपुंसक है। यह जैसा शरीर पाता है, वैसा कहा जाता है। (श्वेताश्वतर उपनिषद्)

ईश्वर की पूजा ऐसे नहीं की जाती, जैसे मनुष्यों की पूजा अर्थात सेवा सत्कार किया जाता है। ईश्वर की आज्ञा का पालन अर्थात सत्य और न्याय का आचरण- यही ईश्वर की पूजा है।

कठोपनिषद में मनुष्य-शरीर की तुलना घोड़ागाड़ी से की गई है। इसमें आत्मा गाड़ी का मालिक अर्थात सवार है। बुद्धि सारथी अर्थात् कोचवान है, मन लगाम है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं। इन्द्रियों के विषय वे मार्ग हैं, जिन पर इन्द्रियाँरूपी घोड़े दौड़ते हैं। आत्मारूपी सवार अपने लक्ष्य तक तभी पहुँचेगा, जब बुद्धिरूपी सारथी मनरूपी लगाम को अपने वश में रखकर इन्द्रियाँरूपी घोड़ों को सन्मार्ग पर चलाएगा।

उपनिषद में घोड़ागाड़ी को रथ कहा जाता है और रथ पर सवार को रथी। मनुष्य शरीर में आत्मा रथी है। जब आत्मा निकल जाती है, तब शरीर अरथी रह जाता है।

परमात्मा हम सबका माता, पिता और मित्र है। हम सब प्राणियों का भला चाहता है। जब मनुष्य कोई अच्छा काम करने लगता है तो उसे आनन्द, उत्साह, निर्भयता महसूस होती है । वह परमात्मा की तरफ से होता है, और जब वह कोई बुरा काम करने लगता है, तब उसे भय, शंका, लज्जा महसूस होती है। वह भी परमात्मा की तरफ से ही होता है ।

 

– 831 सैक्टर 10, पंचकूला, हरियाणा।

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वेद में पशु हत्या निषेध, पशु रक्षा का विधान और मांसाहार

ओ३म्

वेद में पशु हत्या निषेध, पशु रक्षा का विधान और मांसाहार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

अनेक अज्ञानी व स्वार्थी लोग बिना प्रमाणों के प्राचीन आर्यों पर मांसाहार का मिथ्या आरोप लगाते हैं। वह स्वयं मांसाहार करते हैं अतः समझते हैं कि इस आरोप को लगाकार उनका मांसाहार करना उचित ठहरा दिया जायेगा और कम से कम वेदों के मानने वाले आर्य तो उनका विरोध नहीं कर सकेंगे। ईश्वर ने ही मनुष्यों सहित सभी प्राणियों व वनस्पति जगत को भी बनाया है। यदि ईश्वर के लिए मनुष्यों को पशुओं के मांस का आहार कराना ही अभिप्रेत होता तो फिर वह नाना प्रकार की खाद्यान्न की श्रेणी में परिगणित वनस्पतियां, अन्न, साग व सब्जिययों को शायद उत्पन्न ही न करता और पशुओं की संख्या को इतना बढ़ा देता कि मनुष्य केवल मांसाहार कर ही अपना जीवन व्यतीत करते। ईश्वर को ऐसा अभीष्ट नहीं था अतः उन्होंने किसी विशेष प्रयोजन के लिए पशुओं को बनाया और मनुयों के आहार के लिए पृथक से नाना प्रकार की वनस्पतियों एवं शाकाहार के अन्तर्गत आने वाले अनेकानेक अन्न, फल, साग-सब्जियां और गोदुग्ध आदि पदार्थों को बनाया है। हमें नहीं लगता कि संसार में कोई मांसाहारी ऐसा हो सकता है जो केवल मांस ही खाता हो तथा अन्न, फल, गोदुग्ध आदि पदार्थों का सेवन न करता हो। इस उदाहरण से अन्न, फल व गोदुग्धादि पदार्थ तो मनुष्यों का भोजन सिद्ध होते हैं परन्तु मांस मनुष्य का भोजन सिद्ध नहीं होता।

 

पशुओं व मनुष्यों मांस क्यों नहीं खाना चाहिये? इसलिए नहीं खाना चाहिये क्योंकि मांस हिंसा से प्राप्त होता है और निर्दोष प्राणियों की हिंसा करना मनुष्य के स्वभाव के विरुद्ध है। मनुष्य के स्वभाव में ईश्वर ने दया, करूणा, प्रेम, स्नेह, ममता, संवेदना, सहिष्णुता आदि अनेक गुणों को उत्पन्न किया है व स्वभाव इसमें सनातन से हैं। मांसाहार करने से इन मानवीय गुणों का न्यूनाधिक हनन होता है, अतः मांसाहार वर्जित व त्याज्य है। मांसाहार का आरम्भ किसी पशु को प्राप्त करना, किसी छुरे व तलवार आदि से उसका वध करना, उसके शरीर के एक-एक अंग प्रत्यंग को काटना, उसे रसोईघर में तेल, घृत, मसालों आदि में भूनना व उसका गेहूं आदि की रोटी, चावल व दही आदि मिलाकर सेवन करना होता है। स्वाभाविक है कि इतने पदार्थों के संयोग से जो पदार्थ बनेगा उसका अपना स्वाद होगा। कईयों को वह प्रिय हो सकता है और बहुतों को अप्रिय। हमने देखा है कि पहली बार जो व्यक्ति जाने व अनजाने मांसाहार करता है उसका शरीर उसको स्वीकार नहीं करता और वह उसे उगल देता है या उल्टी कर देता है। यह प्रकृति का वा ईश्वर का सन्देश होता है कि यह पदार्थ खाने योग्य नहीं है। बहुत से लोग मांसाहारियों की संगति में रहते हैं जिससे उन्हें यह दोष लग जाता है। ईश्वर एक, दो, तीन बार तो उसको उलटी आदि कराकर रोकता है परन्तु जब वह नहीं मानता तो ईश्वर भी उसे अपराधी मानकर उसका जीवन पूरा होने की प्रतीक्षा करता है जिससे उसे मृत्यु होने के बाद उसके अगले पुनर्जन्म में इन अमानवीय कार्यों के अनुरूप दण्ड दे सके। हमें लगता है कि बहुत से मनुष्य पुनर्जन्म पाकर पशु बनते होंगे जिनका मांस दूसरे मनुष्य व पशु आदि खाते होंगे। अतः मांसाहार का सर्वथा त्याग ही मनुष्य को सुखी, स्वस्थ, दीर्घायु बनाता है। शाकाहारी मनुष्यों में मांसाहारी मनुष्यों की तुलना में बल, शारीरिक सामथ्र्य, बौद्धिक व आत्मिक क्षमता, साहस, निर्भयता, सेवा, परोपकार व धर्म-कर्म की भावना अधिक होती है जिसे प्रमाणों व उदाहरणों से सिद्ध किया जा सकता है।

 

वेद संसार के सभी मनुष्यों का आदि ग्रन्थ है जिसमें धर्म व कर्म अर्थात् कर्तव्य, अकर्तव्य का विधि व निषेधात्मक ज्ञान है। विदेशियों ने अपने मांसाहार का दोष छिपाने वा अपनी बौद्धिक अक्षमता के कारण यह आरोप लगाया कि सृष्टि की आदि में हमारे पूर्वज आर्य व ऋषिगण पत्थरों के हथियार बनाकर पशुवध कर मांसाहार किया करते हैं। यह बात सर्वथा अनुचित व मिथ्या है। सृष्टि के आदि काल में हमारे व समस्त मानवजाति के पूर्वज फल, कन्द, मूल व गोदुग्धादि का आहार व भोजन किया करते थे। चारों वेदों के एक मन्त्र में भी मांसाहार करने का संकेत नहीं है अपितु पशुओं की रक्षा करने का विधान है जो स्पष्ट रूप से घोषणा करता है कि यजमान के पशु गाय, घोड़ा, बकरी, भेड़ आदि अवध्य=हत्या न करने व न मारने योग्य है जिनकी आर्यों व सभी मनुष्यों को अपने सुख व कल्याण के लिए रक्षा करनी है। इसका एक ठोस प्रमाण यह है कि हिरण सहित जितने भी शाकाहारी पशु हैं यह जंगल में शेर आदि हिंसक पशुओं को देख कर भाग जाते हैं। इन्हें ईश्वर ने गन्ध के आधार पर यह समझ प्रदान की हुई है कि कौन सा प्राणी हिंसक है और कौन अहिंसक, कौन इनका घातक है और कौन इनका रक्षक। इन शाकाहारी पशुओं के सम्मुख जब भी कोई हिंसक पशु, शेर, चीता आदि आते हैं तो यह दूर से ही उनके आने व होने की  गन्ध को भांप कर भाग खड़े होते हैं परन्तु मनुष्य को देखकर यह दूर भागने के स्थान पर उसके पास आकर उससे अपना प्रेम प्रदर्शित करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य शाकाहारी प्राणी है, मांसाहारी नहीं है तथा इसी कारण पशु मनुष्यों से डरते नहीं, दूर भागते नहीं व उसके समीप प्रसन्नता से आते हैं। अतः मनुष्यों द्वारा भोजन के लिए पशुओं की हत्या करना उसके ईश्वर व प्रकृति प्रदत्त स्वभाव व गुण के विरुद्ध होने से सर्वथा निन्दनीय है।

 

वेदों ने पशुओं की रक्षा व मांसाहार विषयक क्या विचार हैं, इसका संक्षेप में अवलोकन करते हैं। यजुर्वेद के 40/7 मन्त्र यस्मिनित्सर्वाणी भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः। तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः।। में कहा गया है कि जो व्यक्ति सम्पूर्ण प्राणियों को केवल अपने जैसी आत्माओं के रूप में ही देखता है (स्त्री, पुरुष, बच्चे, गौ, हरिण, मोर, चीते तथा सांप आदि के रूप में नहीं) उसे उनको देखने पर मोह अथवा शोक (ग्लानि वा घृणा) नहीं होता, क्योंकि उन सब प्राणियों के साथ वह एकत्व (समानता तथा साम्यता) का अनुभव करता है। इस मन्त्र में यह सन्देह दिया गया है शोक व मोह से बचने के लिए मनुष्य को सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान व रूप में ही देखना चाहिये। इससे वह शोक व मोह से बच सकते हैं। आर्यजगत के विद्वान श्री पं. सत्यानन्द शास्त्री अपनी प्रसिद्ध पुस्तक क्या प्राचीन आर्यलोग मांसाहारी थे?’ में लिखते हैं कि जो लोग आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म तथा एकत्व (समानता=साम्यता) के सिद्धान्तों में विश्वास रखते थे (जैसा कि आर्यों को समझा जाता है), वे अपने क्षणिक स्वाद की तृप्ति अथवा भूखे पेट की पूर्ति के लिये उन पशुओं को कैसे मार सकते थे जिनमें उन्हें अपने ही पूर्वजन्मों के प्रियजनों की आत्माओं के दर्शन होते थे? वास्तव में ऐसा कभी नहीं हो सकता। यजुर्वेद मन्त्र 36/18 में कहा गया है कि मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्। मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। इस मन्त्र का अभिप्राय है कि मुझे सब प्राणी अपना मित्र समझें तथा मैं भी उनसे अपने मित्रों जैसा व्यवहार करूं। हे परमात्मा ! कुछ ऐसी विधि मिलाओं कि हम सब प्राणी एक दूसरे से सच्चे मित्रों जैसा व्यवहार करें। प्राचीन आर्य लोग प्राणीमात्र के लिये अथाह मैत्री के उपर्युक्त वैदिक सिद्धान्त में न केवल आस्था ही रखते थे, अपितु इसे ईश्वर प्रदत्त धर्म का अंग जानकर अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न भी करते थे। उन आर्येां के सम्बन्ध में यह धारणा रखना कि वे अपनी जैह्विक लालसा की क्षणिक तृप्ति के लिये उन प्राणियों का, जिन्हें वे मित्रतुल्य प्रिय जानते थे, वध करते थे, अनर्गल नहीं तो और क्या है।

 

प्राणीमात्र के लिये अथाह मैत्री के इस वैदिक सिद्धान्त का पारिणााम यह निकला कि समाज में दोपायों (मनुष्यों) और चैपायों की हिंसा पूर्ण रूपेण निषिद्ध कर दी गई। यजुर्वेद मानव के प्रति अहिंसाभाव का कठोर आदेश देते हुए कहता है कि ‘…… मा हिंसीः पुरुषम् …’ (यजुर्वेद 16/3) अर्थात् पुरुष किसी भी प्राणी की  हिंसा न करे। यजुर्वेद पशुओं के मारे जाने पर कठोर प्रतिबन्ध लगाता है। वह कहता है कि ‘मा हिंसीस्तन्वा प्रजाः‘ (यजुर्वेद मन्त्र 12/32) तथा ‘इमं मा हिंसीद्विपाद पशुम् …’ (यजुर्वेद 13/47)। इसी प्रकार यजुर्वेद में गोवध का निषेध किया गया है क्योंकि मानव जाति के लिये गौ शक्तिवर्द्धक घी प्रदान करती है। ‘… गां मा हिंसीरदितिं विराजम्’ (यजुर्वेद 13/43 एवं ‘….. घृतं दुहानार्मादति जनाय …. मा हिंसीः’। (यजुर्वेद 13/49)। इसी प्रकार से अश्व, बकरी व भेड़ आदि पशुओं का वध न करने के प्रति भी वेद में अनेक आज्ञायें उपलब्ध हैं। इससे सिद्ध हो जाता है कि समस्त वैदिक साहित्य के प्रतिनिधि वेद पशुओं की हिंसा के सर्वथा विरोधी हैं, मांसाहार का तो प्रश्न ही नहीं होता। आर्य विद्वानों ने वेदों में पशुहत्या व मांसाहार पर अनेक ग्रन्थ लिखकर शास्त्रीय उदाहरण, युक्ति, तर्क आदि देकर वेदों में इनका विधान होने का प्रतिवाद किया है। आर्य संन्यासी स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती ने भी स्वास्थ्य के शत्रु अण्डे व मांस पुस्तक लिखकर इन पदार्थों का सेवन स्वास्थ्य के हानिकारक सिद्ध किया है। एक विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार बर्नाडशा के जीवन की एक घटना का उललेख कर हम इस लेख को विराम देंगे। बर्नाडशा को डाक्टरों ने मांस-सेवन की सम्मति दी थी जिसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था–“My situation is a solemn one. Life is offered to me on condition of eating beef steaks.  But death is better than cannibalism.  My will contains directions for my funeral, which will be followed not by mourning coaches, but by oxen, sheep, flocks of poultry and a small travelling aquarium of  live fish, all wearing white scarfs in honour of the man who perished rather than eat his fellow creatures. It will be with the exception of Noah’s ark, the most remarkable thing of the kind seen.” अर्थात् ‘‘मेरी स्थिति गम्भीर है। मुझे कहा जाता है कि गो-मांस खाओ तुम जीवित रहोगे। इस राक्षसपन की अपेक्षा मृत्यु अधिक उत्तम है। मैंने अपनी वसीयत लिख दी है। मेरी मृत्यु पर मेरी अरथी के साथ विलाप करती गाडि़यों की आवश्यकता नहीं है। मेरे साथ बैल, भेड़ें, मुर्गे और जीवित मछलियों का एक चलता-फिरता घर होगा। इन सभी पशु और पक्षियों के गले में सफेद दुपट्टे होंगे, उस मनुष्य के सम्मान में जिसने अपने साथी प्राणियों को खाने की अपेक्षा मरना उत्तम समझा। हजरत नूह की नौका को छोड़कर यह दृश्य सबसे अधिक उत्तम और महत्वपूर्ण होगा।”

 

लेख की समाप्ती पर निवेदन है कि वेदों व प्रमाणिक वैदिक साहित्य में मांसाहार का विधान नहीं है। यदि कहीं ऐसी प्रतीती होती है तो यह इंटरप्रीटेशन व मिलावट के कारण हो सकती है। मानवीय आधार पर भी पशु हत्या और मांसाहार दूषित व पाप कर्म है। इसका करना इस जीवन को कुछ समय के लिए स्वादयुक्त बना सकता है परन्तु मृत्यु के बाद के जन्मों में मांसाहारी मनुष्य को पशु बनाकर इस अपकार का बदला ईश्वर के द्वारा अवश्य चुकाया जायेगा। कोई इससे बच नहीं सकेगा। ईश्वर किसी की दलील भी नहीं सुनता क्योंकि वह मनुष्य के मन व आत्मा के विचारों व उसकी सभी क्रियाओं का साक्षी होने के साथ किसी बात व घटना को भूलने की प्रवृत्ति से रहित है। अतः सभी मनुष्य को मांसाहार के घृणित कार्य से स्वयं को दूर रखना चाहिये। यदि नहीं रख सकते तो ईश्वर की दण्ड व्यवस्था की प्रतीक्षा करें और जैसी करनी वैसी भरनी के सिद्धान्त के अनुसार अपने कर्मों का भोग करें।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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