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आर्य समाज के वह निर्भीक निर्माताः-राजेन्द्र जिज्ञासु

आर्य समाज के वह निर्भीक निर्माताः

इतिहास लेखक कोई भी हो, उससे कोई-न-कोई महत्त्वपूर्ण घटना छूट जाती है। उसके पीछे आने वाले इतिहास गवेषकों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे ऐसी छूट गई महत्त्वपूर्ण सामग्री को प्रकाश में लायें। आर्य समाज में भी ऐसे कई गुणी, ज्ञानी, इतिहास प्रेमी हुए हैं, जिन्होंने समय-समय पर इतिहास के लुप्त गुप्त स्वर्णिम पृष्ठों का अनावरण करके अच्छा यश पाया, परन्तु आर्य समाज में इतिहास की स्वर्णिम, प्रेरक, गौरवपूर्ण सामग्री को छिपाने, लुकाने व हटाने (हटावट) का भी सुनियोजित प्रयास हुआ है। लोग मिलावट पर तो अश्रुपात करते हैं, स्वामी वेदानन्द जी महाराज को हमने मिलावट, बनावट के साथ हटावट पर भी अश्रुपात करते देखा था।

लाला लाजपतराय से हमारा कोई सबन्ध नहीं, यह आश्वासन देने एक टोली पंजाब के गवर्नर को कालका में मिली। महात्मा हंसराज जी इस शिष्ट मण्डल के मुखिया थे। बहुत लोग इसे जानते थे, परन्तु इस पर परदा डाला गया। वैद्य गुरुदत्त जी ने पर्दा उठाया तो एतद्विषयक नई-नई जानकारी हमें मिलती गई। स्वामी दर्शनानन्द राजनीति से कोसों दूर थे। हमें इसी सबन्ध में उनकी निडरता का प्रमाण हाथ लगा। जब लाला जी के सब साथी उन्हें छोड़ गये, तो आपने निर्भय होकर अपने साप्ताहिक ‘महाविद्यालय समाचार’ में श्री महाशय कृष्ण जी का संक्षिप्त लेख ‘ख़िताब और इताब’ अर्थात् समान व यातना छापकर लाला लाजपतराय के निष्कासन के समय उनको महिमा मण्डित करके अपनी प्रखर देशभक्ति व आर्यत्व का परिचय दिया। यह अंक हमारे पास है।

अभी लालाजी और आर्यसमाज सरकार के निशाने पर ही थे, दमन व दलन का चक्कर चल ही रहा था कि स्वामी दर्शनानन्द जी ने अपने ‘आर्य सिद्धान्त’ मासिक में लालाजी को खुलकर ‘‘पंजाब केसरी लोकमान्य लाला लाजपतराय’’ लिखकर उनके द्वारा दीन-दरिद्र, अनाथ-असहायजनों की सेवा व रक्षा के कार्यों की खुलकर भूरि-भूरि प्रशंसा की। हमने भी आर्य समाज के सात खण्डों के इतिहास पर बहुत थोड़ी, फिर भी एक विहंगम दृष्टि तो डाली, परन्तु हमें यह प्रसंग कहीं दिखाई न दिया और न ही मैक्समूलर रौमाँ-रोलाँ तथा  जवाहरलाल नेहरू की इतिहासज्ञता की माला फेरने वालों से महान साधु दर्शनानन्द की इस रूप की कुछ चर्चा सुनने को मिली। उलटा प्रतापसिंह की राजभक्ति के किस्से सुनाने लगे। जातियों, संस्थाओं व जन साधारण को उबारने में समय लगता है। रात-रात में ठाकुर रोशनसिंह व पं. नरेन्द्र का निर्माण नहीं हो सकता। भावना तो आर्यों की आरभ से ही यही रही। यही आर्य समाज की तान थी –

दयानन्द देश हितकारी। तेरी हिमत पै बलिहारी।।

बुद्धिमानों के लिए संकेत ही पर्याप्त है।

उत्तर प्रदेश के आर्यों का शौर्यः लाला लाजपतराय जी के निष्कासन के समय महात्मा मुंशीराम जब मैदान में उतर कर दहाड़ने लगे, तब पंजाब का सारा महात्मा दल लोहे की दीवार बनकर महात्मा जी के पीछे खड़ा था- ऐसा प्रसिद्ध क्रान्तिकारी आनन्दकिशोर जी मेहता ने अपनी पुस्तक में लिखा है। मेहता आनन्दकिशोर जी भी तब सताये जा रहे राष्ट्रभक्तों में से एक थे। मैंने इस इतिहास पर लिखते हुए उस समय के उत्तरप्रदेश के एक आर्यसमाजी को भी लाला जी के पक्ष में महात्मा मुंशीराम की आवाज में आवाज मिलाते दिखाया था।

एक लबे समय तक मैं ऐसे लेखों व प्रमाणों की खोज में रहा जिससे यह सिद्ध हो कि तब आर्य समाज के संन्यासी, विद्वान्, भजनोपदेशक, गृहस्थी, आबालवृद्ध सब महात्मा मुंशीराम जी के पीछे खड़े थे। बड़े लबे समय की प्रतीक्षा करने के पश्चात् एक ऐसा लबा लेख मिला है। प्रिय राहुल जी ने ‘आर्य समाचार’ मासिक का उस युग का एक सपादकीय मुझे उपलध करवा दिया है। इस लबे लेख की रंगत वही है, जो उन दिनों पूज्य महात्मा मुंशीराम जी के लेखों व व्यायानों की होती थी। मैंने इस फाईल की खोज में मेरठ, मुरादाबाद, प्रयाग व आगरा आदि कई नगरों की बार-बार यात्रायें कीं। पं. लेखराम वैदिक मिशन के सब आर्यवीरों का परोपकारिणी सभा, परोपकारी परिवार व सपूर्ण आर्य जगत् की ओर इस अविस्मरणीय सेवा के लिए कोटिशः धन्यवाद!

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