पुनरुत्थान युग का द्रष्टा – स्व. डॉ. रघुवंश

 

कीर्तिशेष डॉ. रघुवंश हिन्दी-जगत् के जाने-माने विद्वान् थे। वे हिन्दी-संस्कृत-अंग्रेजी के परिपक्व ज्ञाता तो थे ही, भारत की शास्त्रीयता और उसके इतिहास के अनुशीलन में भी उनकी विपुल रुचि और गति थी। उन्होंने साहित्य के विभिन्न पक्षों पर साहित्य-सर्जन कर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और समर्थ लेखक के रूप में वे सर्वमान्य रहे। अपने अग्रज श्रीमान् यदुवंश सहाय द्वारा रचित ‘महर्षि दयानन्द’ नामक ग्रन्थ की भूमिका-रूप में लिखे गए उनके इस लेख से हमारे ऋषिभक्त पाठक लाभान्वित हों, अतः इसे हम उक्त ग्रन्थ से साभार उद्धृत कर रहे हैं।     – सपादक

भारतीय पुनरुत्थान का आधुनिक युग उन्नीसवीं शती के दूसरे चरण से शुरू हुआ। इस युग का सही चित्र प्रस्तुत करते समय इस तथ्य को ठीक परिप्रेक्ष्य में सदा रखना होगा कि इस युग के मानस में पश्चिम का गहरा प्रभाव-संघात रहा है और पश्चिमी संस्कृति का सजग प्रयत्न रहा है कि यह मानस उससे अभिाूत रहे। पश्चिमी आधुनिक संस्कृति अन्य समस्त संस्कृतियों से इस माने में भिन्न है कि वह जागरूक और आत्मालोचन करने में समर्थ है। उसके  इतिहास-बोध ने उसे अपने विस्तार, आरोप और संरक्षण का अधिक सामर्थ्य दिया है। उसकी वैज्ञानिक प्रगति ने अपनी शक्ति-विस्तार की उसे अपूर्व क्षमता प्रदान की है। अनेक मानवीय शास्त्रों के वैज्ञानिक विकास में उसने अपना प्रभाव-क्षेत्र अनेक स्तरों और आयामों में फैला लिया है। इसका परिणाम यह हुआ कि पश्चिमी संस्कृति से पिछली पुरानी संस्कृति और परपरा वाले एशिया के राष्ट्रों और आदि (मैं आदिम कहना अनुचित मानता हूँ) संस्कृति वाले अफ्रीकी और अमरीकी समाजों और देशों को राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक प्रभावों में अपने उपनिवेश बने रहने के लिए विवश कर दिया है।

पुनरुत्थान युग से शुरू होकर स्वाधीनता प्राप्त होने के बाद तक के भारतीय मानस पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है। यहाँ इस समस्या का विस्तृत विवेचन-विश्लेषण करने के बजाय केवल ऐसे कुछ तथ्यों की और ध्यान आकर्षित किया जा सकता है। भारतीय बौद्धिक वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा यह मानता है कि भारत, वस्तुतः समस्त एशियाई देशों का आधुनिकीकरण तभी संभव हो सका है, जब यूरोप के देशों ने वहाँ उपनिवेश बनाये और वहाँ के निवासियों को पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा का अवसर प्रदान किया। भारत की राष्ट्रीय इकाई की परिकल्पना अंग्रेजी राज्य की देन है। भारतीय  संस्कृति, वस्तुतः समस्त एशियाई संस्कृतियाँ पिछड़ी हुई, मध्ययुगीन, प्रगति की सभावनाओं से शून्य, अन्धविश्वास और जड़ताओं से ग्रस्त हैं। इनके उद्धार का एक मात्र उपाय है कि ये पश्चिमी संस्कृति को अपना लें। और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पश्चिमी संस्कृति संसार की समस्त संस्कृतियों में श्रेष्ठ है, अन्य संस्कृतियाँ अपनी कमियों और कमजोरियों के कारण ह्नासोन्मुखी हुई और अन्ततः विनष्ट हो गई हैं, लेकिन पश्चिम की आधुनिक संस्कृति सबसे श्रेष्ठ और निरन्तर विकासशील है। इस प्रकार के चिन्तन को अग्रसर करने का पश्चिम के समस्त बौद्धिक वर्ग ने और उनके तथा कथित वैज्ञानिक तथा तटस्थ अध्ययनों ने निरन्तर प्रयत्न किया है। ऐसे पश्चिमी विद्वान् अपवाद ही माने जायँगे, जिन्होंने पश्चिमी संस्कृति की इस श्रेष्ठता और अन्य संस्कृतियों की हीनता के विचार को चुनौती दी हो। और मजे की बात है कि मानसिक रूप से पश्चिम के गुलाम भारत के बौद्धिक उनके विचारों को प्रामाणिकता तो नहीं देते, पर उनके आधार पर पश्चिमी संस्कृति की महनीयता का समर्थन अवश्य करते हैं।

भारत में अंग्रेजों के प्रभुत्व काल में प्रारभ से यह प्रयत्न रहा है कि राजसत्ता के क्रमशः बढ़ते हुए विस्तार के साथ इस देश के परपरित सामाजिक, प्रशासनिक और आर्थिक ढाँचे को छिन्न-भिन्न कर दिया जाय। इस प्रकार अंग्रेजी राजनीति और राजनय का सारा दृष्टिकोण यह रहा है कि यहाँ की पिछली संस्थाओं, व्यवस्थाओं और परपराओं को नष्ट कर देश की समस्त आन्तरिक शक्ति, आस्था तथा विश्वास को तोड़कर उसे नैतिक मेरुदण्ड-विहीन बना दिया जाय। भारतीय जन-समाज को उसके स्वीकृत आधार से उन्मूलित कर, ग्राम-समाज और पंचायतों के ढाँचों को विशृृंखल कर, धार्मिक आस्थाओं को खण्डित कर तथा उद्योग-धन्धों और व्यापार को विनष्ट कर अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान की दीक्षा देकर भारतीय मानस को यूरोपीय संस्कृति की महत्ता से इस प्रकार अभिभूत कर दिया कि अधिकांश शिक्षित वर्ग अपने देश के धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हीन भावना से भर गया। इसका सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि पुनरुत्थान युग के प्रारभ से उन्नति और विकसित होने के लिए पश्चिमीकरण पर बल दिया जाने लगा। यह पश्चिमीकरण अधिकांशतः अनुकरणमूलक ही रहा। कोई भी आरोप अनुकरणमूलक ही हो सकता है।

यह अवश्य हुआ कि अंग्रेजी राजनीति के परिणामस्वरूप भारत में उनके उपनिवेश की जड़ें काफी गहरी और मजबूत रहीं और इस प्रक्रिया में अर्थात् पश्चिमीकरण के दौरान भारत मध्ययुगीन संस्कारों तथा मनोवृत्तियों से अपने को मुक्त कर आधुनिक बन सका। यह बात संस्कारगत और परिवेशगत पक्षपात के कारण मार्क्स तथा ट्वायनवी जैसे यूरोपीय विचारकों ने भी कही है, अन्यों की तो बात अलग है। पश्चिम के मानस-पुत्र भारतीय तो यह राग अलापते कभी थकते नहीं। बुद्धदेव जैसे सुपुत्र तो कृतज्ञ भाव से यह मानकर अपना सन्तोष प्रकट करते हैं कि यह तो स्वाभाविक है,क्योंकि हम भारतीय यूरोप के ही आगत प्रवासी हैं। निश्चय ही यह हीन-भाव की उपज है। इस प्रसंग का अधिक विवेचन यहाँ नहीं करना चाहूँगा, क्योंकि अन्यत्र किया गया है, पर सिद्धान्त रूप में कहा जा सकता है कि गुलामी की हीन-भावना से क ोई व्यक्ति या राष्ट्र अपने निजी व्यक्तित्व के विकास की दिशा नहीं पा सकता है, क्योंकि व्यक्तित्व की स्वाधीनता तथा निजता का अनुभव विकास की पहली शर्त है। इसी प्रकार कोई भी प्राचीन संस्कृत समाज अपनी जड़ता और अवरुद्धता में भी अपने निजी व्यक्तित्व की खोज बिना किये आगे बढ़ने में समर्थ नहीं हो सकता। अन्ततः यहाी सही है कि अनुकरण किसी भी व्यक्ति या राष्ट्र को न गौरव प्रदान कर सकता है और न मौलिक सर्जनशीलता का मार्ग ही प्रशस्त कर सकता है, जिसके बिना किसी प्रकार की प्रगति संभव नहीं है। साथ ही दृष्टान्त रूप में जापान का उल्लेख करके कहा जा सकता है कि एशिया के सर्वाधिक उन्नत राष्ट्र जापान को न किसी यूरोपीय शक्ति के उपनिवेश होने का सौााग्य मिला और न किसी विदेशी भाषा के सहारे वहाँ ज्ञान-विज्ञान फैलाने का सुयोग हुआ।

पश्चिमी संस्कृति के रंग में रँगे हुए बौद्धिकों ने एक मिथ रचा है कि भारतीय जागरण अंग्रेजी भाषा और शिक्षा के प्रचार-प्रसार से ही संभव हुआ। पुनरुत्थान का नेतृत्व अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त महापुरुषों ने ही किया है। इस मिथ में तथ्यात्मक आधार जरूर है, पर यह सत्य नहीं है। यह संयोग था और इस संयोग के पीछे पश्चिमी उपनिवेशवाद की सारी विभीषिका थी, कि पश्चिम के सपर्क में भारत अंग्रेजों और अंग्रेजी के  माध्यम से आया तथा यहाी संयोग इसी से संभव हुआ कि भारत के इस नये पुनरुत्थान युग के नेता स्वामी दयानन्द को छोड़कर अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पश्चिम, विशेषकर इंग्लैण्ड से परिचित हुए थे।  उन्होंने यूरोप के आधुनिक मूल्यों-स्वतंत्रता, समता, प्रजातंत्र, समाजवाद, सायवाद आदि का परिचय अंग्रेजी शिक्षा के दौरान प्राप्त किया था। यहाँ तक कि उन्होंने अपने देश की परपरा, इतिहास, धर्म-दर्शन, समाज और संस्कृति के बारे में क्रमशः अंग्रेज लेखकों और अंग्रेजी के माध्यम से जाना। इस बात का उल्लेख पश्चिमी लेखकों के साथ हमारे भारतीय लेखक भी बड़े गौरव के साथ करते हैं। परन्तु यह सत्य वे नजर अन्दाज कर जाते हैं, सभवतः दृष्टिभ्रम के कारण उन्हें सही दिखाई ही नहीं पड़ता कि जिस चश्मे से वे पश्चिमी संस्कृति और सयता को देख रहे हैं, उससे उसका गौरवशाली और भव्य रूप सामने उभरता है, और जिस चश्मे से वे अपने देश को और उसकी संस्कृति को देखते हैं, उससे उसका बौना, कुरूप, विकृत रूप सामने आता है। परिणाम होता है कि इस वर्ग का मानस हीन-भाव से भरा हुआ है।

परन्तु यदि स्वामी दयानन्द को ही लिया जाय तो वे अकेले होकर भी अपवाद नहीं है, वरन् एक प्रतीक हैं। और इस एक  प्रतीक के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत के (एशिया को भी लिया जा सकता है) पुनरुत्थान के लिए न अंग्रेजी राज्य की अपेक्षा थी और न अंग्रेजी शिक्षा की। उसके लिए एक ऐसे व्यक्तित्व की आवश्यकता थी, जो सबसे पहले अपनी अन्तर्दृष्टि से अपने देश, समाज, जाति तथा राष्ट्र के व्यापक और सामूहिक जीवन की जड़ता, विडबना, गतिरुद्धता, उसके अन्याय और शोषण की गहराई देख सके, उनके कारणों की ऐतिहासिक, यथार्थ तथा सांस्कृतिक खोज करने में समर्थ हो सके और अन्ततः अपनी विवेक दृष्टि से गतिरोध को दूर करके समाज को मौलिक सर्जनशीलता से संचालित-प्रेरित करने में समर्थ हो सके। यह अवश्य है कि उसके लिए किसी न किसी प्रकार या स्तर का पश्चिमी आधुनिक संस्कृति के वातावरण का संस्पर्श सहायक था। इसी वातावरण में दयानन्द ने जन्म लिया था, यद्यपि यह भी नहीं क हा जा सकता कि अपनी पैंतीस-चालीस वर्ष की अवस्था तक उन्होंने वस्तुतः इस वातावरण का भी एहसास पाया था।

दयानन्द का जन्म गुजरात के टंकारा नामक नगर में सन् 1823 ई. में हुआ। यह वही समय है, जब बंगाल में राजा राममोहन राय भारतीय पुनरुत्थान में संलग्न थे। वे पश्चिमी संस्कृति से पूर्णतः प्रभावित और अंग्रेजी शिक्षा के समर्थक थे। उनके सामने देश का जो रूप था, वह अंग्रेजी राजनीति और राजनय के द्वारा सत्ता-संघर्ष में राजनीतिक तथा सांस्कृतिक औपनिवेशिक महत्त्वाकांक्षा को प्रतिफलित करने वाला रूप था। निश्चय ही भारतीय समाज कीअनेक जड़ताएँ, विकृतियाँ और नृशंस रीतियाँ उनके सामने थीं, परन्तु उनको देखने, समझने और व्यापक सन्दर्भों से जोड़कर लबी भारतीय संस्कृति की परपरा में उनके कारणों के विश्लेषण-विवेचन की दृष्टि उनके पास नहीं थी। और उसका कारण था कि  बंगाल और कलकत्ता में अंग्रेज पश्चिमी सयता का चमत्कारी प्रभाव डालने में समर्थ हो चुके थे और पढ़े-लिखे वर्ग के मानस को अपने ढंग से सोचने-समझने के लिए प्रेरित कर सके थे। उनकी नीति के अनुसाराारतीय शिक्षित वर्ग जितना प्रबुद्ध होता जा रहा था, उसका मानस पश्चिमी संस्कृति (प्रायः अंग्रेजी मानना चाहिए) से अभिभूत हो रहा था, अंग्रेजी शिक्षा और संस्कृति को अपनाने की उसकी आकांक्षा बढ़ती जा रही थी। इसका परिणाम यह हुआ कि अपने देश, धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हमारे बौद्धिक वर्ग में हीन-भाव उत्पन्न हुआ। हमारे अधिकांश बड़े नेताओं में भी एक स्तर पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है, जो उनकी इस कामना में परिलक्षित हुआ है किाारतीय समाज का नव-निर्माण पश्चिमीकरण के रूप में होना चाहिए। उनमें अपनेपन की गौरव-भावना की चेतना प्राचीन भारतीय संस्कृति के धर्म, दर्शन, अध्यात्म के कुछ प्रतीकों से सन्तोष ग्रहण करती रही है। इनकी अपेक्षा दयानन्द जिस पारिवारिक वातावरण में पले, सामाजिक वातावरण में बढ़े और उन्होंने जिस प्रकार की शुद्ध परपरित संस्कृत शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की, उनमें उनका पश्चिमीकरण से कोई सपर्क नहीं था, अतः उन पर पश्चिमी संस्कृति का सीधा कोई भी प्रभाव नहीं स्वीकार किया जा सकता।

दयानन्द राजा राममोहन राय से लेकर जवाहरलाल नेहरू तक ऐसे भारतीय नेताओं से बिल्कुल अलग थे, जो अपनी समस्त सद्भावनाओं और देश-कल्याण की भावनाओं के बावजूद भारतीय आधुनिकीकरण का रास्ता हर प्रकार से पश्चिमीकरण से होकर गुजरता पाते रहे हैं। और उनके  पीछे अधिसंयक भारतीय अंग्रेजी शिक्षित वर्ग रहा है, जो पश्चिमीकरण को पश्चिम के बाहरी या ऊपरी अनुकरण के स्तर पर स्वीकार कर अपने को सय मानकर असंय भारतीय जनता को उपेक्षा और अवहेलना के भाव से देखता रहा है। यहाँ इस बात के विवेचन का अवसर नहीं है, पर उल्लेख करना जरूरी है कि अंग्रेजी राजनीति के सही परिणाम के रूप में यह शिक्षित वर्ग अपने निहित स्वार्थों में संगठित होता गया है। स्वाधीनता के संघर्ष-काल में यह वर्ग अंग्रेजों के पक्ष में रह कर हर स्तर पर और हर प्रकार सेाारतीय जनता की स्वाधीनता की महत्त्वाकांक्षाओं के विरुद्ध कार्य करता रहा है। और उससे भी बड़े दुर्भाग्य की बात यह रही है कि अपनी मानसिक संस्कारगत एकता के कारण जवाहरलाल नेहरू स्वाधीनता-युग में इस वर्ग के अघोषित नेता बन गये। आगे चलकर अपने नेतृत्व को सुदृढ़ बनाने के लिए नेहरू ने इस निहित स्वार्थ के वर्ग से समझौता कर लिया। अनुकरणमूलक पश्चिमीकरण को प्रगतिशीलता उद्घोषित करते रहकर नेहरू ने इस वर्ग का अपने उन प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ इस्तेमाल किया है, जो मात्र पश्चिमीकरण के रूप में भारत के आधुनिकीकरण को स्वीकार नहीं करते रहे हैं। अन्ततः नेहरूऔर इस वर्ग का एक ही निहित स्वार्थ बन गया, क्योंकि नेहरू को उनसे शक्ति प्र्राप्त होती रही है। इस वर्ग के लोग ही क्रमशः भारतीय जीवन के सभी क्षेत्रों में शक्ति और प्रभाव की जगह पाते गये और नेहरूकी सत्ता की छत्र-छाया में यह वर्ग अधिकाधिक संगठित और गतिमान् होता गया है।

पुनरुत्थान युग के नेताओं में दयानन्द का स्थान अप्रतिम है, पर उनको विवेकानन्द, लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय और महात्मा गाँधी जैसे नेताओं का अग्रणी माना जा सकता है। इन नेताओं ने भारतीय समाज के पुनर्गठन, विकास और आधुनिकीकरण के लिए भारतीय संस्कृति के मूलाधार को आवश्यक माना है। उनके अनुसार पश्चिम से प्रेरणा पाना, पश्चिम से नया ज्ञान-विज्ञान सीखना एक बात है, पर उसका अन्धानुकरण न हमारे गौरव के अनुकूल है और न हमारी वास्तविक प्रगति के लिए ही उपयोगी है। यह अवश्य है कि इन नेताओं की पद्धति में भिन्नता रही है। कुछ नेता भारतीय प्राचीन गौरवशाली सांस्कृतिक परपरा के पुनरुत्थान में भारतीय समाज के विकास की संभावना देखते रहे हैं, यद्यपि उन्होंने यहाी स्वीकार किया है कि पश्चिम से हमको ज्ञान-विज्ञान सीखना है। इस दृष्टि से दयानन्द और गाँधी को उनके साथ रखा जा सकता है, क्योंकि दयानन्द ने यह स्वीकार किया है कि भारतीय पुनरुत्थान और आधुनिकीकरण भारत की प्राचीन वैदिक संस्कृति के आधार पर ही संभव है और गाँधी ने माना है कि हमारे सपूर्ण विकास की सभावनाएँ भारतीय व्यक्तित्व की खोज के आधार पर ही संयोजित की जा सकती हैं। एक स्तर पर ये दो व्यक्तित्व समान माने जा सकते हैं। इन दोनों ने भारतीय जन-समाज से गहरा और आन्तरिक तादात्य स्थापित किया था। उन्होंने भारतीय जीवन को उसके वर्तमान यथार्थ तथ्य में और सपूर्ण ऐतिहासिक सांस्कृतिक परपरा में आत्म-साक्षात्कार के स्तर पर ग्रहण किया था, परन्तु दयानन्द और गाँधी के युग, परिवेश, शिक्षा और संस्कार में अन्तर रहा है, और उसके कारण इन दोनों के आत्म-साक्षात्कार की प्रकृति में अन्तर पड़ गया है।

गाँधी भारतीय रंगमंच पर उस समय अवतरित हुए जब दयानन्द के द्वारा उठाये हुए, भारतीय समाज के सारे सवाल पूरी तरह शिक्षित समाज में चर्चा के विषय बन चुके  थे। अनेक दिशाओं में उसका मानस आन्दोलित हो चुका था, उसमें आत्म-गौरव और आत्म-विश्वास का भाव जा चुका था। गाँधी के समय तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत में राजनीतिक आन्दोलन का स्वरूप अधिक स्पष्टता के साथ उभर आया था, अतः गाँधी ने भारतीय समाज के पुनर्गठन और नवीकरण के प्रश्न को राजनीतिक स्वाधीनता के साथ जोड़ दिया। उनको यह लगना स्वाभाविक था कि पूर्ण स्वाधीनता पा लेने के बाद सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढंग से भारतीय जीवन को एक नया संरचात्मक रूप प्रदान करना सभव होगा। गाँधी की स्थिति इस दृष्टि सेाी विशिष्ट थी कि उनको पश्चिम की संस्कृति का गहरा परिचय था। दयानन्द को भी अन्ततः भारतीय जीवन के पुनर्गठन में पश्चिम की सांस्कृतिक चुनौती का सामना करना पड़ा था, पर उन्होंने उसका समुचित समाधान पश्चिमी संस्कृति के अन्तर्वर्ती तत्त्वों के माध्यम से प्रस्तुत नहीं किया, जैसी सुविधा गाँधी को प्राप्त थी। वस्तुतः किसी सशक्त और गतिशील संस्कृति के  संघात (ढ्ढद्वश्चड्डष्ह्ल) को सहने का सबसे दक्ष उपाय भी यही है कि गाँधी के समान उस संस्कृति के सबल तत्त्वों का विकास अपनी भूमिका पर करके उसका सामना किया जाय। दयानन्द के सामने चुनौती थी, पर उसकी शक्ति का और उसके सामर्थ्य के स्रोत का उन्हें ठीक अन्दाज नहीं था, अतः उनके  पास उस चुनौती का सामना करने के लिए अपनी ही सांस्कृतिक परपरा में अन्तर्निहित शक्ति और ऊर्जा के अनुसन्धान के अलावा कोई उपाय नहीं था।

शेष भाग अगले अंक में…….

contribution of Rishi Dayanand

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