सघन-साधना-शिविर रोजड़ की मेरी अन्तर्यात्रा – ब्र. राजेन्द्रार्यः

योगे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे।

सखाय इन्द्रमूतये।।

– यजुर्वेद 11/14

आर्यावर्त की पवित्र भूमि गुजरात प्रान्त ने समय-समय पर राष्ट्र को अनेकों महापुरुष प्रदान किये हैं। यथा- विश्व गुरु महर्षि दयानन्द सरस्वती, सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी एवं देशभक्त श्याम जी कृष्ण वर्मा आदि। इन महापुरुषों ने राष्ट्रऋण से उऋण होने हेतु अपना सर्वस्व देश के लिए न्यौछावर कर दिया। उन्नीसवीं शतादी में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सच्चे शिव की प्राप्ति, योगायास एवं वेद विद्या के प्रचार के लिए अपने सपन्न माता-पिता का घर लगाग इक्कीस वर्ष की अवस्था में छोड़ दिया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गुरुवर्य विरजानन्द का ऋण बड़ी श्रद्धापूर्वक लगाग 20 वर्ष तक चुकाया। ऐसे गुरु दक्षिणा चुकाने का वर्णन हमें आी तक इतिहास में पढ़ने को नहीं मिला है। स्वामी दयानन्द सरस्वती के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए एक युवा संन्यासी स्वामी सत्यपति परिव्राजक ने गुजराता को अपनी कर्मभूमि बनाने का निश्चय किया तथा चैत्रशुक्ला प्रतिपदा (तद्नुसार 10 अप्रैल सन् 1985) गुरुवार के दिन आर्यवन विकास फार्म ट्रस्ट, जिला साबरकांठा के सहयोग से दर्शन-योग- महाविद्यालय, रोजड़ की स्थापना की। पूज्य स्वामी सत्यपति परिव्राजक के अथक परिश्रम, तप-साधना व पुरुषार्थ से विद्यालय ने लगाग 55 युवा दर्शनाचार्य विद्वान् राष्ट्र को प्रदान किये हैं। श्रद्धेय गुरुवर्य स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक के योग शिविरों में भाग लेने के कारण हमें मान्य आचार्य श्री ज्ञानेश्वरार्यः, आचार्य आनन्द प्रकाश जी, उपाध्याय श्री ब्र. विवेक भूषण आर्य (वर्तमान-स्वामी विवेकानन्द जी परिव्राजक), आचार्य सत्यजित् जी, स्वामी विष्वङ् जी परिव्राजक, आचार्य आशीष जी, ब्र. ईश्वरानन्द आदि से संस्कृत भाषा, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, यज्ञ, ध्यान योग एवं दर्शनों की सूक्ष्म विद्या का प्रशिक्षण (संक्षिप्त) प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दर्शन योग महाविद्यालय एवं वानप्रस्थ साधक आश्रम से प्रकाशित वैदिक साहित्य हमें सस्नेह प्रेषित किया जाता है। योगनिष्ठ पूज्य स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक के सान्निध्य में श्रेय मार्ग के पथ पर आगे बढ़ने वाले आध्यात्मिक सहचारी योग जिज्ञासुओं के लिए एक तीन मास का आषाढ़ शुक्ला द्वादर्शी वैक्रावाद  2060 से आश्विन शुक्ला 2060 तक तदनुसार 11 जुलाई 2003 से 8 अक्टूबर 2003 तक त्रैमासिक उच्चस्तरीय क्रियात्मक योग प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया था। क्रियात्मक योग प्रशिक्षण शिविर का वृतान्त संकलयित एवं सपादित युवा विद्वान् ब्र. सुमेरुप्रसाद जी दर्शनाचार्य ने किया था जिसे दर्शन योग महाविद्यालय की तरफ से बृहती ब्रह्ममेधा (तीन भाग) केरूप में सन् 2012 में प्रकाशित किया गया था। जिसे मान्य मित्र शुभहितैषी श्री ब्र. दिनेश कुमार जी ने मुझे प्रेषित किया था। एन.टी.पी.सी. लिमिटेड/ सिंगरौली भारत सरकार के उद्यम में अभियन्ता पद पर कार्यरत रहने के कारण व्यस्तता अधिक होने से इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का मैं अभी तक विधिवत अध्ययन नहीं कर सका। मई 2015 में मान्य भ्राता श्री ब्र. दिनेश कुमार जी ने मुझे चलभाष द्वारा दर्शन-योग-महाविद्यालय द्वारा आयोजित उच्च स्तररीय एक वर्षीय क्रियात्मक योग प्रशिक्षण (सघन-साधना-शिविर) की सूचना दी। शिविर का लाभ प्राप्त करना मेरे लिए एक सुनहरा अवसर था। इस शिविर में भाग लेने की अनुमति हेतु 3 जुलाई 2014 को पत्र प्रषित किया। विद्यालय के सहव्यवस्थापक श्री ब्रह्मदेव जी ने मुझे सहर्ष अनुमति प्रदान कर दी तथा चलभाष पर मुझसे कहा कि जब ट्रेन में दिल्ली से प्रस्थान करना हो, तब सूचित कर देना। मेरी आत्मिक उन्नति में विद्यालय परिवार के प्रत्येक सदस्य का सर्वदा सहयोग रहता है। पूज्य श्री स्वामी ध्रुवदेव जी परिव्राजक ने ऋषि मेला 2014, अजमेर में मुझसे कहा कि-‘‘क्या दर्शनों की विद्या पढ़ने की इच्छा नहीं होती है?’’ इस दृष्टि से यह सघन-साधना-शिविर का मेरा अल्पकालीन प्रवास दिनांक 17/7/2015 से 25/7/2015 तक मेरे जीवन के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा है। विद्यालय के सुरय प्राकृतिक एवम् आध्यात्मिक वातावरण में रहकर प्रशिक्षण काल में जो मुझे विशेष अनुभूतियाँ हुई उनमें से कुछ अन्तर्यात्रा के अनुभव प्रेरणा के लिए उद्धृत हैं-

  1. स्वाध्याय के काल में मैनें बृहती ब्रह्ममेद्या (प्रथम भाग) का स्वाध्याय करते समय मुझे ऐसा आभास होता था जैसे पूज्य गुरुवर श्री स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक की कक्षा में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहा हूँ तथा ऋषियों के सन्देश को श्रवण कर रहा हूँ। स्वाध्याय से मेरे इस सिद्धान्त में दृढ़ता आयी कि ‘‘मानव जीवन का चरम लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति ही है। ‘नान्यः पन्था विद्यतेऽनाय’ अर्थात् अन्य कोई मार्ग नहीं है।’’
  2. 2. यज्ञोपरान्त पूज्य श्री स्वामी ध्रुवदेव जी परिव्राजक से जब वेदोपदेश श्रवण करता था तब वेद स्वाध्याय, शतपथ ब्राह्मण एवं स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत आर्ष ग्रन्थों के अध्ययन की प्रेरणा मिलती थी तथा जब तक मानव अपने दुर्गुणों, दुर्व्यसनों का परित्याग नहीं करता है तब तक अयुदय एवं निःश्रेयस के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता। इसलिए मेरी दृष्टि में प्रत्येक आर्य समाज के सत्संग में ऋषि दयानन्द कृत वेदभाष्य, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, आर्याभिविनय जैसे उच्चकोटि के ग्रन्थों का स्वाध्याय अनिवार्य रूप से करना चाहिए। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी अपने वैचारिक क्रान्तिकारी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लासः में लिखा है- ‘‘आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि जैसा एक गोता लगाना बहुमूल्य मोतियों का पाना।’’
  3. 3. पूज्य आचार्य श्री ब्रह्मविदानन्द जी सरस्वती की ध्यान प्रशिक्षण, विवेक-वैराग्य प्रशिक्षण, न्याय दर्शन प्रशिक्षण एवम् आत्मनिरीक्षण कक्षाओं में जब मैं भाग लेता था तब पता चलता था कि हमारे जीवन में तो अभी अविद्या ही भरी पड़ी हुई। महर्षि पतञ्जलि के सूत्र-

अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मयातिरविद्या।

(योग दर्शन 2/5) को यथार्थ रूप में समझने के लिए मेरे लिए यह शिविर अत्यन्त उपादेय रहा।

  1. 4. ध्यान प्रशिक्षण की कक्षा में मुझे ऐसा अनुभव होता था कि चित्त की वृत्तियों के निरोध के लिए योगायास के किसी एक आसन (=पदमासन, सुखासन, स्वस्तिकासन) में बैठने का अयास कम से कम एक घण्टे का अवश्य रहना चाहिए। महर्षि पतञ्जलि महाराज उच्चकोटि के साधक थे इसीलिए उन्होंने ‘‘स्थिर सुखमासनम्’’ सूत्र (योग दर्शन 2/46) सत्य ही लिखा है। ऐसा निर्णय मैं निदिध्यासन काल मेंाी कर सका।
  2. 5. विवेक-वैराग्य, ध्यानादि के क्रियात्मक अयास के लिए मेरे विचार से ‘‘योगः कर्मसु कौशलम’’ में जो निष्णात योग साधक (सच्चे गुरु) हों उन्हीं से प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए तभी सच्चे योग मार्ग में सफलता मिलती है अन्यथा नहीं।
  3. 6. आत्म निरीक्षण ……….उत्कर्ष के मार्ग पर बढ़ने के लिए सर्वोत्तम साधन है। सुयोग्य विद्वान् व्यक्ति के समक्ष अपने दोष बताने से जहाँ दोषों को छोड़ने की विधि पता चलती है, वहीं पर तत्त्वज्ञान के द्वारा अनेक जन्मों के जो सूक्ष्म संस्कार= काम, क्रोध, लोा, राग, अंहकार आदि होते हैं, उन्हें हटाने में सहायता मिलती है।
  4. 7. उपासना काल में मन की सकाग्रता के लिए मुझे अनुभव हुआ कि दैनिक कार्यों को करते हुए जितना अधिक यम (=अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) तथा नियमों (=शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) अर्थात् योगायास के जो महाव्रत हैं उनका एवं मौनव्रत का पालन किया जावे उतना ही उपासना अच्छी होती है। सन्ध्योपासना के मन्त्रों एवं जप के वाक्यों के एक-एक शब्द का अर्थ जब कं ठस्थ रहता है तब आत्मा मन द्वारा बाह्यवृत्तियाँ उपासना काल में कम उठाता है।
  5. 8. योगायास का मार्ग कठ ऋषि के अनुसार- ‘क्षुरस्यधारा निशिता दुया दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति’ अर्थात् छूरे की धार पर चलने के समान अवश्य है लेकिन योग के मार्ग का जिन प्रतिभाओं ने आत्मसात किया हुआ है ऐसे योग के विशेषज्ञों से ‘‘समित्पाणि’’ की भावना के साथ तप, ब्रह्मचर्य, विद्या और श्रद्धापूर्वक योगायास करने में सफलता अवश्य मिलती है।

मेरी विद्यालय के निदेशक श्रद्धेय स्वामी विवेकानन्द जी परिव्राजक एवम् पूज्य आचार्यों से एक करबद्ध विनती है कि इस सघन-साधना-शिविर की वेद प्रवचन ध्यानयोग प्रशिक्षण, विवेक-वैराग्य प्रशिक्षण एवम् आत्मनिरीक्षण कक्षाओं के यदि संभव हो सके तो सी.डी. तैयार करके इन्टरनेट एवं यू ट्यूृब आदि पर डाला जावे, जिससे देश-विदेश में ऋषियों के सन्देश का अधिकतम प्रचार हो सके। आज इलेक्ट्रानिक एवं प्रिन्ट मीडिया का युग है। यदि इसे नहीं अपनाया गया तो आगे आने वाले समय में दर्शनों में विद्यमान विद्यायें धीरे-धीरे भौतिक चकाचौंध के कारण विलुप्त हो जाने की संभावना है।

इस प्रकार के सघन-स्वाध्याय-शिविर कन्याओं के आर्ष गुरुक्रुलों में कम से कम त्रैमासिक या 15 दिवसीय सत्र आयोजित करेंगे तो मेरी दृष्टि में अच्छा रहेगा।

राष्ट्रभक्त, भारतीय संस्कृति के सपोषक भारत के माननीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के सत्प्रयास से 21 जून 2015 को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस विश्व के लगभग 192 देशों द्वारा मनाया गया। यह अलग विषय है कि इस योग दिवस मनाने का लक्ष्य ‘‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः’’ नहीं था। योग भारत के लिए आने वाले दिनों में एक बड़ा बाजार साबित हो सकता है। आज का मानव जैसे-जैसे भौतिक उन्नति कर रहा है वैसे-वैसे तनावयुक्त जीवन के लिए मजबूर है। मेरा विश्वास है कि यदि आर्ष पद्धति के योग विज्ञान को जन-जन तक पहुँचाया जावे तो मानव को जहाँ तनावमुक्त सुख शान्ति प्राप्त होगी, वहीं विश्व से आतंकवाद को समाप्त करने में सफलता मिलेगी। भारत पुनः कम से कम योग विद्या के क्षेत्र में विश्व गुरु के आसन पर तो विराजमान हो ही सकता है।

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्वमानवाः

– मनुस्मृति

– आर्यसमाज, शक्ति नगर

 

हिन्दू कौन – हिन्दू की परिभाषा : डॉ. धर्मवीर

अक्टूबर मास के दिनांक 12 के दैनिक भास्कर अजमेर के संस्करण में एक समाचार छपा, जिसमें लिखा था- भारत सरकार को पता नहीं है, हिन्दू क्या होता है? एक सामाजिक कार्यकर्ता ने भारत सरकार के गृह मन्त्रालय से भारत के संविधान और कानून के सबन्ध में हिन्दू शब्द की परिभाषा पूछी। गृह मन्त्रालय के केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी ने कहा है कि इसकी उनके पास कोई जानकारी नहीं है। यह एक विडबना है कि दुनिया के सारे देशद्रोही मिलकर हिन्दू को समाप्त करने पर तुले हैं और इसमें देश में रहने वाले को पता नहीं है कि वह हिन्दू क्यों है और वह हिन्दू नहीं तो हिन्दू कौन है?

आज आप हिन्दू की परिभाषा करना चाहे तो आपके लिये असभव नहीं तो यह कार्य कठिन अवश्य है। आज किसी एक बात को किसी भी हिन्दू पर घटा नहीं सकते। हिन्दू समाज की कोई मान्यता, कोई सिद्धान्त, कोई भगवान् कुछ भी ऐसा नहीं है, सभी हिन्दुओं पर घटता हो और सभी को स्वीकार्य हो। हिन्दू समाज की मान्यतायें परस्पर इतनी विरोधी हैं कि उनको एक स्वीकार करना सभव नहीं है। ईश्वर को एक और निराकार मानने वाला भी हिन्दू है, अनेक साकार मानने वाले भी हिन्दू हैं। वेद की पूजा करने वाले हिन्दू हैं, वेद की निन्दा करने वाले भी हिन्दू। इतने कट्टर शाकाहारी हिन्दू हैं कि वे लाल मसूर या लाल टमाटर को मांस से मिलता-जुलता समझकर अपनी पाकशाला से भी दूर रखते हैं, इसके विपरीत काली पर बकरे, मुर्गे, भैसों की बलि देकर ही ईश्वर को प्रसन्न करते हैं। केवल शरीर को ही अस्तित्व समझने वाले हिन्दू हैं, दूसरे जीव को ब्रह्म का अंश मानने वाले अपने को हिन्दू कहते हैं, ऐसी परिस्थिति में आप किन शदों में हिन्दू को परिभाषित करेंगे।

आज के विधान से जहाँ अपने को सभी अल्पसंयक घोषित कराने की होड़ में लगे हैं- बौद्ध, जैन, सिक्ख, राम-कृष्ण मठ आदि अपने को हिन्दू इतर बताने लगे हैं फिर आप हिन्दू को कैसे परिभाषित करेंगे। परिभाषा करने का कोई न कोई आधार तो होना चाहिए। सावरकर जी ने जो हिन्दू आसिन्धू सिन्धु पर्यान्ता कह सिन्धु प्रदेश को अपनी पुण्यभूमि पितृभूमि स्वीकार किया है, वह हिन्दू है, ऐसा कहकर हिन्दू को व्यापक अर्थ देने का प्रयास किया है। हिन्दू महासभा के प्रधान प्रो. रामसिंह जी से किसी ने प्रश्न किया- हिन्दू कौन है? तो उन्होंने कहा हिन्दू-मुस्लिम दंगों में मुसलमान जिसे अपना शत्रु मानता है वह हिन्दू है। राजनेता न्यायालयों में भी हिन्दू शब्द को परिभाषित करते हुए एक जीवन पद्धति बताकर परिभाषित करने का यत्न किया था। यह भी एक अधूरा प्रयास है। हिन्दुओं की कोई एक जीवन पद्धति ही नहीं है। हिन्दू संगठन की घोषणा करने वालों ने कहा- अनेकता में एकता हिन्दू की विशेषता। इस आधार पर आप एकता कर ही नहीं सकते। हिन्दू एकता केवल देशद्रोही संगठनों की चर्चा में होती है। यदि अनेकता में एकता बन सकती तो आज मुसलमानों से भी अधिक संगठित होना चाहिए परन्तु हिन्दू नाम एकता का आधार कभी नहीं बन सका। हिन्दू-समाज में एकता की सबसे छोटी इकाई परिवार है, जिसमें व्यक्ति अपने को सुरक्षित मानता है। हिन्दू-समाज की सबसे बड़ी इकाई उसकी जाति है। वह जाति के नाम पर आज भी संगठित होने का प्रयास करते हैं। सामाजिक हानि-लाभ के लिये बड़ी इकाई जाति है, कोई भी जाति हिन्दू-समाज का उत्तरदायित्व लेने के लिये तैयार नहीं होती परन्तु हिन्दू कहने पर वे लोग अपने को हिन्दू कहते हैं। जाति हिन्दू-समाज की एक इतनी मजबूत ईकाई है कि व्यक्ति यदि दूसरे धर्म को स्वीकार कर लेता है तो भी वह अपनी जाति नहीं छोड़ना चाहता, जो लोग ईसाई या मुसलमान भी हो गये, यदि वे समूह के साथ धर्मान्तरित हुए हैं तो वहाँ भी उनकी जाति, उनके साथ जाती है। जाट हिन्दू भी है, जाट मुसलमान भी है, राजपूत हिन्दू भी है, राजपूत मुसलमान भी है। गूजर हिन्दू भी है, गूजर मुसलमान भी है। इस प्रकार आपको केवल जाति के आधार पर हिन्दू की परिभाषा करना कठिन होगा।

ऐसी परिस्थिति में हिन्दू की परिभाषा कठिन है परन्तु हिन्दू का अस्तित्व है तो परिभाषित भी होगा। हिन्दू को परिभाषित करने के हमारे पास दो आधार बड़े और महत्त्वपूर्ण हैं- एक आधार हमारा भूगोल और दूसरा आधार हमारा इतिहास है। हमारा भूगोल तो परिवर्तित होता रहा है, कभी हिन्दुओं का शासन अफगानिस्तान, ईरान तक फैला था तो आज पाकिस्तान कहे जाने वाले भूभाग को आप हिन्दू होने के कारण अपना नहीं कह सकते परन्तु हिन्दू के इतिहास में आप उसे हिन्दू से बाहर नहीं कर सकते। भारत पाकिस्तान के विभाजन का आधार ही हिन्दू और मुसलमान था। फिर हिन्दू की परिभाषा में विभाजन को आधार तो मानना ही पड़ेगा, उस दिन जिसने अपने को हिन्दू कह और भारत का नागरिक बना, उस दिन वह हिन्दू ही था, आज हो सकता है वह हिन्दू न रहा हो।

हिन्दू कोई थोड़े समय की अवधारणा नहीं है। हिन्दू शब्द से जिस देश और जाति का इतिहास लिखा गया है, उसे आज आप किसी और के नाम से पढ़ सकते हैं। इस देश में जितने बड़े विशाल भूभाग पर जिसका शासन रहा है और हजारों वर्ष के लबे काल खण्ड में जो विचार पुष्पित पल्लवित हुये। जिन विचारों को यहाँ के लोगों ने अपने जीवन में आदर्श बनाया, उनको जीया है, क्या उन्हें आप हिन्दू इतिहास से बाहर कर सकते हैं? उस परपरा को अपना मानने वाला क्या अपने को हिन्दू नहीं कहेगा। हिन्दू इतिहास के नाम पर जिनका इतिहास लिखा गया, उन्हें हिन्दू ही समझा जायेगा, वे जिनके पूर्वज हैं, वे आज अपने को उस परपरा से पृथक् कर पायेंगे? भारत की पराधीनता के समय को कौन अच्छा कहेगा। यह देश सात सौ वर्ष मुसलमानों के अधीन रहा, जो इस परिस्थिति को दुःख का कारण समझता है, वह हिन्दू है। यदि कोई व्यक्ति इस देश में औरंगजेब के शासन काल पर गर्व करे तो समझा जा सकता है वह हिन्दू नहीं है। इतिहास में शिवाजी, राणाप्रताप, गुरु गोविन्दसिंह जिससे लड़े वे हिन्दू नहीं थे और जिनके लिये लड़े थे वे हिन्दू हैं, क्या इसमें किसी को सन्देह हो सकता है?

देश-विदेश के जिन इतिहासकारों ने जिस देश का व जाति का इतिहास लिखा, उन्होंने उसे हिन्दू ही कहा था। यही हिन्दू की पहचान और परिभाषा है। आजकल के विद्वान् जिसको परम प्रमाण मानते हैं, ऐसे मैक्समूलर ने भारत के विषय में इस प्रकार अपने विचार प्रकट किये हैं- ‘‘मानव मस्तिष्क के इतिहास का अध्ययन करते समय हमारे स्वयं के वास्तविक अध्ययन में भारत का स्थान विश्व के अन्य देशों की तुलना में अद्वितीय है। अपने विशेष अध्ययन के लिये मानव मन के किसी भी क्षेत्र का चयन करें, चाहे व भाषा हो, धर्म हो, पौराणिक गाथायें या दर्शनशास्त्र, चाहे विधि या प्रथायें हों, या प्रारभिक कला या विज्ञान हो, प्रत्येक दशा में आपको भारत जाना पड़ेगा, चाहे आप इसे पसन्द करें या नहीं, क्योंकि मानव इतिहास के मूल्यवान् एवं ज्ञानवान् तथ्यों का कोष आपको भारत और केवल भारत में ही मिलेगा।’’

दिसबर 1861 के द कलकत्ता रिव्यू का लेख भी पठनीय है- आज अपमानित तथा अप्रतिष्ठित किये जाने पर भी हमें इसमें कोई सन्देह नहीं है कि एक समय था जब हिन्दू जाति, कला एवं शास्त्रों के क्षेत्र में निष्णात, राज्य व्यवस्था में कल्याणकारी, विधि निर्माण में कुशल एवं उत्कृष्ठ ज्ञान से भरपूर थी।

पाश्चात्य लेखक मि. पियरे लोती ने भारत के प्रति अपने विचार इन शदों में प्रकट किये हैं- ‘‘ऐ भारत! अब मैं तुहें आदर समान के साथ प्रणाम करता हूँ। मैं उस प्राचीन भारत को प्रणाम करता हूँ, जिसका मैं विशेषज्ञ हूँ। मैं उस भारत का प्रशंसक हूँ, जिसे कला और दर्शन के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। ईश्वर करे तेरे उद्बोधन से प्रतिदिन ह्रासोन्मुख, पतित एवं क्षीणता को प्राप्त होता हुआ तथा राष्ट्रों, देवताओं एवं आत्माओं का हत्यारा पश्चिम आश्चर्य-चकित हो जाये। वह आज भी तेरे आदिम-कालीन महान् व्यक्तियों के सामने नतमस्तक है।’’

अक्टूबर 1872 के द एडिनबर्ग रिव्यू में लिखा है- हिन्दू एक बहुत प्राचीन राष्ट्र है, जिसके मूल्यवान् अवशेष आज भी उपलध हैं। अन्य कोई भी राष्ट्र आज भी सुरुचि और सयता में इससे बढ़कर नहीं है, यद्यपि यह सुरुचि की पराकाष्ठा पर उस काल में पहुँच चुका था, जब वर्तमान सय कहलाने वाले राष्ट्रों में सयता का उदय भी नहीं हुआ था, जितना अधिक हमारी विस्तृत साहित्यिक खोंजें इस क्षेत्र में प्रविष्ट होती हैं, उतने ही अधिक विस्मयकारी एवं विस्तृत आयाम हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं।

पाश्चात्य लेखिका श्रीमती मैनिकग ने इस प्रकार लिखा है- ‘‘हिन्दुओं के पास मस्तिष्क का इतना यापक विस्तार था, जितनी किसी भी मानव में कल्पना की जा सकती है।’’

ये पंक्तियाँ ऐसे ही नहीं लिखी गई हैं। इन लेखकों ने भारत की प्रतिभा को अलग-अलग क्षेत्रों में देखा और अनुभव किया। भारतीय विधि और नियमों को मनुस्मृति आदि स्मृति ग्रन्थों में। प्रशासन की योग्यता एवं मानव मनोविज्ञान का कौटिल्य अर्थशास्त्र जैसे प्रौढ़ ग्रन्थों में देखने को मिलता है। यह ज्ञान-विज्ञान हजारों वर्षों से भारत में प्रचलित है। इतिहासकार काउण्ट जोर्न्स्ट जेरना ने भारत राष्ट्र प्राचीनता पर विचार करते हुए लिखा है- ‘‘विश्व का कोई भी राष्ट्र सयता एवं धर्म की प्राचीनता की दृष्टि से भारत का सामना नहीं कर सकता।’’

भारतीय इतिहास में, तुलामान, दूरी का मान, काल मान की विधियों को देखकर विद्वान् उनको देखकर दांतों तले उंगली दबा लेता है। आप सृष्टि की काल गणना से असहमत हो सकते हैं परन्तु भारतीय समाज में पढ़े जाने वाले संकल्प की काल गणना की विधि की वैज्ञानिकता से चकित हुए बिना नहीं रह सकते।

महाभारत, रामायण जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थ पुराणों की कथाओं के माध्यम से इतिहास की परपरा का होना। हिन्दू समाज के गौरव के साक्षी हैं। मनु के द्वारा स्थापित वर्ण-व्यवस्था और दण्ड-विधान श्रेष्ठता में आज भी सर्वोपरि हैं। संस्कृति की उत्तमता में वैदिक संस्कृति की तुलना नहीं का जा सकती। यहा का प्रभाव संसार के अनेक देशों द्वीप-द्वीपान्तरों में आज भी देखने को मिलता है। यहाँ के दर्शन, विज्ञान, कला, साहित्य, धर्म, इतिहास, समाजशास्त्र ऐसा कौनसा क्षेत्र है, जिस पर हजारों वर्षों का गौरवपूर्ण चिन्तन करना अंकित है। ये विचार जिस देश के हैं, उसे हिन्दू राष्ट्र कहते हैं और इन विचारों को जो अपनी धरोहर समझता है, वही तो हिन्दू है। कोई मनुष्य लंगड़ा, लूला, अन्धा होने पर व्यक्ति नहीं रहता, ऐसा तो नहीं है। नाम भी बदल ले तो दूसरा नाम भी तो उसी व्यक्ति का होगा। वह वैदिक था, आर्य था, पौराणिक हो गया, बाद में हिन्दू बन गया, सारा इतिहास तो उसी व्यक्ति का है। जिसे केवल अपने विचार, कला, कृतित्व पर ही गर्व नहीं, उसे अपने चरित्र पर भी उतना ही गर्व है। तभी तो वह कह सकता है, यह विचार उन्ही हिन्दुओं का है जो इस श्लोक को पढ़ कर गर्व अनुभव करते हैं, यही इसकी परिभाषा है-

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।

– धर्मवीर

अमर हुतात्मा श्रद्धेय भक्त फूल सिंह के 74 वें बलिदान दिवस पर – चन्दराम आर्य

 

पिछले अंक का शेष भाग…..

http://aryamantavya.in/bhakt-ful-singh/

उन्नीस दिन के अनशन से गोचर भूमि छुड़वानाः- आपको गोमाता से बड़ा प्यार था। सन् 1928 में गुरुकुल के लिए चन्दा करने के लिए जीन्द जिले के ललत खेड़ा गाँव में जाना पड़ा । वहाँ दिन में भी गायों को घरों में बन्धा देखा तो बड़े दुःखी हुए। गाँव वालों ने पूछने पर बताया कि गायों को घूमने के लिए गोचर भूमि नहीं है। आपने गाँव के व्यक्तियों को एकत्रित करके कहा कि ‘‘आप भूमि का लोभ न करें गायों के लिए गोचर भूमि छोडें, जिससे ये चल-फिरकर निरोग रह सकें। परन्तु लोग नहीं माने तो आपने पंचायत के सामने घोषणा की – सुनो, मेरे प्यारे भाइयों , तुम गोचर भूमि को नहीं छोड़ते हो तो मैं अपने जीवन को छोड़ने की तैयारी करता हूँ। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं तब तक अन्न ग्र्रहण नहीं करुंगा जब तक आप गायों के लिए गोचर भूमि नहीं छोड़ते हैं। आपका अनशन उन्नीसवें दिन पहुँच गया। ’’ शारीरिक रूप से अत्यन्त दुर्बल हो गये। आपको बेहोशी रहने लगी। गाँव के लोगों ने परस्पर समझाते हुए कहा ‘‘भाइयों , भक्त जी को बचाओ। अनशन के कारण भक्त जी की मृत्यु हो गई तो हम तो मुँह दिखाने के योग्य भी नहीं रहेंगे।’’ सबने मिलकर आपके पास आकर कहा ‘‘महाराज, दया करो, अपने इस व्रत को छोड़ो, गोचर के लिए आप जितनी जमीन कहेंगे उतनी जमीन छोड़ देगें। भक्त जी ने सबका धन्यवाद किया। गांव वालों ने गोचर केलिए जमीन छोड़ दी।

धर्म-विमुख बन्धुओं को हिन्दू धर्म में लाने के लिए ग्यारह दिन का अनशनः- जिसके धारण करने से मनुष्य जीवन प्रगति की ओर बढ़ता रहे उसे धर्म कहतेहैं। जो आत्मा से प्रतिकूल हो उसे दूसरे केलिए न करना धर्म है। जिस काम से अन्यों केा दुःख हो उसे अधर्म तथा पाप कहते हैं। संसार में वैदिक धर्म सबसे प्राचीन है। परन्तु इसमें शिथिलता आने के कारण अनेक सप्रदायों ने जन्म लिया। जो एक दूसरे को नीचा दिखाने लगे। गुडगांव जिले के होडल व पलवल गांव के जाट जो आर्य थे वे मुस्लिम धर्म में दीक्षित हो गये और मूले जाट कहलाये। आर्य समाज का प्रचार सुनकर वे पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित होना चाहते थे। परन्तु विवाह आदि सबन्ध भी आर्य जाट उनसे कर लें। आप अपने पण्डितों और साथियों समेत वहाँ पहुचे। परन्तु वहाँ का जैलदार नहीं माना। आपने उस बाधा केा रोकने केलिए 11 (ग्यारह) दिन का अनशन किया चौधरी छोटूराम जी के समझाने पर आपने अनशन समाप्त किया। परन्तु श्ुाद्धि का कार्य जारी रखा।

सबन्धी बनकर शुद्धि को प्रोत्साहनः- सन् 1929 में केहर सिंह नामक युवा को पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित किया गया। प्रसिद्ध आर्य समाजी श्री गिरधारी लाल जी मटिण्डू ने उस नवयुवक से अपनी पुत्री का वाग्दान किया। इस विवाह में गठवाला गोत भाती बनकर उपस्थित हुआ। इस सारे कार्य के सूत्रधार भक्त जी ही थे। गठवाला गोत के दादा चौधरी घासी राम जी हाथी पर सवार होकर भात के लिए 1600 रुपये लेकर दलबल सहित विवाह में धूमधाम से पहुँचे। वह दृश्य अद्भूत था और देखते ही बनता था। इससे सारी खापें प्रेम के कारण एक रूप बन गई थी।

जीवन त्याग की शिक्षा से दो कुटुबों की रक्षाः- जागसी गांव में एक बार दो कुटुबों में परस्पर विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ा कि एक कुटुब ने दूसरे कुटुब के आदमी को मार दिया। अब जिस कुटुब का व्यक्ति मारा गया वह भी बदला लेने का निश्चय कर चुका था। आषाढ़ी की खेती खेतों में पकी पड़ी थी। गाँव वाले अपनी-अपनी खेती काटकर खलिहानों में डाल चुके थे। परन्तु उन दोनों परिवारों की खेती उजड़ रही थी। किसी व्यक्ति ने आपको यह घटना सुनाई तो आप तो नर्म दिल थे। आप जागसी गाँव पहुँचे। जिस व्यक्ति ने दूसरे कुटुब का व्यक्ति मारा था आप उसके पास पहुँचे और पूछने लगे भाई-‘‘तुम अपना तथा अपने परिवार का सुख चाहते हो तो सब दुःख मुझे बताओ।’’ यह सुनकर उस व्यक्ति ने सारी घटित-घटना कह सुनाई। उसकी बात सुनकर आपने कहा ‘‘भाई मैं जो कहता हूँ वह सुनो और उस पर आचरण करो। वह यह है कि तुम मरने वाले के भाई के पास जाकर उससे कहो कि भाई, मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई है। अतः तुम अपने हाथों से मुझे मार डालो। यदि इससे तुमको सन्तोष न मिले तो हमारे जितने व्यक्तियों के मारने से तुझे आत्म सन्तोष हो उतने मैं आपके पास भेज दूँगा। उनको मारकर शान्ति लाभ करो। आपकी बात का इतना प्रभाव पड़ा कि वह अकेला उस मरने वाले के भाई के पास गया और उसके चरणों में गिरकर क्षमा याचना की। इसके  बाद उसने कहा भाई मुझ से भूल हो गई है तुम उस भूल का दण्ड मुझे मार कर दो। यदि इससे आपको सन्तोष न हो तो मेरा सारा परिवार आपके चरणों में है। यह कहकर वह बालक की तरह रोने लगा जब उसने अपने विरोधी के अहंकार विहीन, विनम्र शब्द सुने तो वह द्रवित हो गया। उसने उसे चरणों से उठाकर अपनी छाती से लगा लिया। वह उससे बोला भाई। मेरा सारा दुःख दूर हो गया। आज से तुम मेरे अपने भाई हो। दोनों कुटुब वालों ने आपके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की।

रोहतक में गोरक्षा समेलन में पं. मदनमोहन मालवीय जी के नेतृत्व में आर्य समाज की ओर से गोरक्षा का अद्भुत एवं सफल समेलन किया जिसके आप स्वागताध्यक्ष थे। आपको मालवीय जी के साथ हाथी पर बैठने का आग्रह मालवीय जी व आर्यजनों ने किया। परन्तु आप आर्य जनों के साथ पैदल ही चलते रहे।

यवनों से अपहृत कन्या को वापिस लानाः- एक दिन भक्त जी गुरुकुल में बैठे गुरुकुल की आर्थिक दशा को ठीक करने के विषय में गुरुकुल वासियों से मन्त्रणा कर रहे थे। उस समय घबराया हुआ एक व्यक्ति आपके पास आया। रोता हुआ वह आपके पाँवों में गिर पड़ा । उसको धैर्य बन्धाते हुए आपने कहा बताओं मुझसे क्या चाहते हो? मैं तुहारी यथाशक्ति सहायता करुँगा, उसने कहा मेरा नाम नेकीराम है। मै सिरसा जांटी गाँव का रहने वाला हूँ। मेरी पोती को मेरे विरोधियों ने उठवा लिया है। वह अब गूगाहेड़ी के मुसलमान राजपूतों के पास है। मैं कई बार लेने गया परन्तु उन्होंने नहीं दी। भक्त जी ने सारी बात सुनकर कहा तुम जाओ तुहारी पोती तुमको मिल जायेगी। इसके बाद आपने निदाना और फरमाना गाँव की पंचायत की तथा पंचायत में कहा, ‘‘भाइयो, गरीब जाट की लड़की यवन रांग्घड़ राजपूत जबरदस्ती अपने गाँव गुगाहेडी में रोके हुए हैं।’’ पंचायत के प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने दबाव देकर गुगाहेडी के रांग्घड़ राजपूतों से कहा यह जांटी गांव की लड़की वापिस कर दो नहीं तो अब तुम अपनी लड़कियों की खैर मनाना। इस धमकी के दबाव में आकर वह लड़की उस पंचायत को रांगघड राजपूतों ने सौंप दी और वह लड़की का दादा नेकीराम भक्त जी तथा उन सबका धन्यवाद करके अपनी पोती को प्रसन्नता पूर्वक साथ ले गया।

कन्या गुरुकुल खानपुर की 1936 में स्थापनाः- उस समय कन्याओं को पढ़ाना गांव वाले आवश्यक नहीं मानते थे। फिर भी भक्त जी ने घर-घर जाकर कन्याओं को पाठशाला में भेजने को कहना पड़ा। सत्रह छोटी-छोटी कन्याओं के साथ पाठशाला प्रारभ की अब तो महाविद्यालय के साथ-साथ विश्वविद्यालय बन गया है।

मानापमान का भाव न रखकर विरोधी की भी सेवा करनाः- भैंसवाल गाँव में आर्य समाज का उत्सव था। उसमें भक्त जी भी गुरुकुल के ब्रह्मचारियों व अध्यापकों सहित उपस्थित हुए। ग्राम वालों ने चौधरी लहरी सिंह को भी आमन्त्रित किया हुआ था। भक्त जी ने चुनाव में चौ. टीकाराम जी का साथ दिया था और चौ. लहरी सिंह का विरोध किया था। इससे चौ. लहरी सिंह भक्त जी को अपना विरोधी मानते थे। गर्मी के दिन थे। बहुत गर्मी थी सब पसीने से भीग रहे थे। चौ. लहरी सिंह भी गर्मी से परेशान थे। भक्त जी चौधरी लहरी सिंह के पास जाकर हाथ के पंखे से हवा करने लगे। पंखे की हवा से आनन्द की अनुभूति होने पर जब चौ. लहरी सिंह ने ऊपर क ी और देखा तो आश्चर्य में पड़ गये कि भक्त जी उन पर हवा कर रहे हैं । आपके हाथ से पंखा लेकर स्वयं हवा करते हुए कहने लगे, भक्त जी आप बहुत महान पुरुष है जो मानापमान को भुला देते हैं।

रोहतक में हैदराबाद सत्याग्रह समिति का प्रधान बन कर सफल नेतृत्वः- हैदराबाद निजाम की धर्मविरोधी नीतियों का प्रतिकार करने केलिए सार्वदेशिक सभा के तत्कालीन प्रधान महात्मा नारायण स्वामी के नेतृत्व में सन् 1939 में सत्यागृह का बिगुल बजा। हरियाणा में भी इस सत्याग्रह में समिलित होने केलिए उत्साही आर्य युवकों व पुरुषों ने रोहतक आर्य सत्याग्रह समिति का सर्वसमति से आपको प्रधान चुन लिया। आपने गुरुकुल के प्रथम शिष्य आचार्य हरीशचन्द्र के नेतृत्व में पहला जत्था भेजा। दूसरा जत्था स्वामी ब्रह्मानन्द जीके नेतृत्व में भेजा इसमें गुरुकुल के स्नातक, अध्यापक ब्रह्मचारियों व ग्रामीण तथा शहरी जनता ने अपना तन-मन-धन से पूर्ण सहयोग दिया यह युद्ध छः मास तक चला।

दलितों का कुआँ बनवाने केलिए 23 दिन का कठोर अनशनव्रतः- सन् 1940 की बात है कि आप एक दिन प्रातः काल के समय वट-वृक्ष के नीचे कन्या गुरुकुल खानपुर में समाधिस्थ हुए बैठे थे। ईश्वर का गुणगान करते हुए जब आपने आँखे खोली तो आपको सामने प्रतीक्षा करते हुए चार व्यक्ति दिखाई दिए। जब आपने उनकी और दृष्टि घुमाई तो उन चारों व्यक्तियों ने आपके चरण पकड़ कर रो-रोकर आँसुओं से आपके पाँव धो डाले। आपके पूछने पर उन्होंने बताया कि हम मोठ गाँव के  रहने वाले चमार हैं। हम कुएं के जल के बिना बड़े तंग हैं। हमने गाँव के  जमीदारों से इजाजत लेकर कुआं बनाना प्रारभ किया। कुएं में नीमचक भी डाल दिया। किसी के बहकावे में आकर मुसलमान रांघड़ों ने कूएं में डाला हुआ नीमचक निकाल कर बाहर फेंक दिया और हमको डराया धमकाया। हमने बार-बार हाथ जोड़कर  प्रार्थना की परन्तु वे टस से मस नहीं हुए। हमको किसी ने सुझाया कि आप हरियाणे के सन्त भक्त फूलसिंह जी के पास जाओ, वे तुहारे दुःख का निवारण करेंगे। अतः अब हम आपके श्री चरणों में उपस्थित हुए हैं। उनकी बात सुनकर उनको धैर्य बन्धाते हुए आप ने कहा मैने आपकी बात सुन ली, आपके  कष्ट को दूर करने का मैं यथोचित उपाय करुंगा। सोच विचार करने के बाद आप जीन्द से असेबली के सदस्य चौधरी मनसाराम जी को साथ लेकर मोठ गाँव में पधारे। आपने गांव की पंचायत बुलाई और उनके सामने चमारों के कुएं की बात करते हुए कहा ‘‘भाइयो मैं साधु आप लोगों से यह भिक्षा मागंने आया हूँ कि आप पहले की तरह इन भाइयों को कुअां बनाने की आज्ञा प्रदान करें। ये गरीब हैं आप मालिक है। आपकी दया से जब ये कूएं का जल पान करेंगे तो आपको आशीष देंगे। इस समय एक बूढ़े मुसलमान रांग्घड ने उन युवा यवनों की और संकेत करके कहा कि लड़कों तुम इस चमारों के बाबा को पकड़ो और दूर जंगल में छोड़ आओ यहाँ खड़ा-खड़ा तो यह यूं ही बक बक करता रहेगा।’’ वे नवयुवक आपको तथा आपके साथी मनसाराम जी को पकड़ कर अलग-अलग रास्तों से जंगल में दूर छोड़ आये। उस समय रात के ग्यारह बजे थे । वे आपको गालियाँ देते हुए घसीटते हुए मखौल उड़ाते हुए बाल नोचते हुए मारते -पीटते हुए अधमरा करके कहीं जंगल में पटक कर आये थे। गर्मी का मौसम था, भूख प्यास से संतप्त आप पृथ्वी पर पड़े जीवन  की अन्तिम घडियाँ गिन रहे थे तभी वहीं से होकर एक लालाजी दूसरे गाँव में जा रहे थे। तब उस लाला ने देखा कि एक साधु लबी-लबी श्वासें ले रहा है। वह आपके पास गया और आपको कहीं से लाकर पानी पिलाया आपकी दयनीय दशा को देखकर लाला जी ने हाथ का सहारा देकर आपको उठाया तथा पास की ढाणी गाँव में छोड़कर चला गया। गाँव वालों ने आपकी सेवा की और आपकी इच्छानुसार नारनौंद गाँव में पहुँचा दिया। उधर से श्री मनसाराम जी भी जंगल में आपको ढूंढते हुए नारनौंद गाँव में पहुँचे । आपने श्री मनसाराम जी के आते ही इतना कष्ट पाकरभी अनशन व्रत प्रारभ कर दिया । आपके इस अनशन की पांचवें दिन गुरुकुल भैंसवाल तथा कन्या गुरुकुल खानपुर में सूचना पहुँची। सूचना मिलते ही गुरुकुल से चौधरी स्वरूपलाल, आचार्य हरीशचन्द्रजी, आचार्य विष्णुमित्रजी, श्री अभिमन्यु जी बहन सुभाषिणी जी, गुणवती जी अपने छात्र-छात्राओं सहित नारनौद गाँव पहुँचे। इस अवसर पर आपके अनशन व्रत की समाप्ति के लिए आर्य समाज के सर्वस्व स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज, स्वामी ब्रह्मानन्दजी, सेठ जुगलकिशोर जी बिड़ला, श्री वियोगी हरि, चौधरी सूरज मल जी, हिसार, चौ. टीकारामजी सोनीपत, चौ. माडूसिंह जी रोहतक, चौधरी छाजूराम जी जज देहली, चौधरी अमीलालजी रईस सिसाह, चौ. शादीरामजी योगी सोनीपत, दादा घासीराम जी अहुलाना चौधरी जानमुहमद मेयर रोहतक नगर, चौधरी शाफे अली गोहना, चौ. मुत्यार सिंह जी पलवल आदि पहुँचे। अनशन व्रत को समाप्त करवाने के लिये सेठ छाजूराम जी अलखपुरा का कलकता से तार आया। महात्मा गाँधी का भी तार आपको मिला कि अनशन समाप्त कर दें। चौधरी छोटूराम जी ने भी पत्र द्वारा आपको अनशन व्रत तोड़ने की प्रार्थना की । आपको उपवास करते हुए जब 19 दिन हो गये बहुत समझाने पर भी दुराग्रह यवन नहीं माने और अनशन के कारण आपका शरीर बिल्कुल निर्बल हो गया, तब चौधरी छोटूराम जी मन्त्री पंजाब सरकार ने डी.सी. हिसार के नाम एक तार भेजा जिसमें चौधरी साहब ने लिखा कि तुरन्त मोठ में कुआं बनवाया जावे। कुआं भक्त जी की इच्छानुसार बने। जो इस कार्य में रुकावट डाले उसका कठोरता से दमन किया जाये। माननीय मन्त्री जी की आज्ञा मिलते ही डी.सी. ने भक्त जी के पास सूचना भेजी की आप कुआं बनवा लें। कोई भी इसमें रुकावट नहीं डालेगा। यह जिमेदारी मेरी है। आपकी इच्छानुसार तीन दिन में कुआं बनकर तैयार हो गया। जब कुआं बनकर तैयार हो गया तो आपको सूचना भेजी गई। आपने अपने परम विश्वासपात्र चौ. रामनाथ माजरा और चौ. नौनन्द सिंह जी को अपनी तसल्ली के लिए कुएं पर भेजा। उनके बताने पर कि कु आं तैयार हो गया तो आप बहुत प्रसन्न हुए। आपको कुएं पर ले जाने के लिए रथ सजाया गया। आर्य जयघोषों के साथ आपको उस रथ में बिठाया गया। आपके रथ के पीछे सहस्रों नर-नारियाँ पैदल चलकर जयघोषों के साथ आपको आनन्दित कर रहे थे। पतिव्रता देवियाँ दूर से ही सिर झुका-झुकाकर आपको प्रणाम कर रही थी। शरीर से निर्बल हुए जब आप शनैः शनैः लोगों का सहारा लेकर कुएं पर पहुँचे तो वह दृश्य रोंगटे खड़े करने वाला था। आपके शरीर की अतिक्षीणता को देखकर कतिपय भक्त तो वहाँ पर रोने लगे। कुएं पर पहुँचकर आपने एक हरिजन भाई से उसी कुएं का पानी खिंचवाया तथा उस जल का पान किया। उस समय हमारे चमार भाई कितनी कृतज्ञता भरी दृष्टि से आपको देख रहे थे, इसको तो वे ही समझ सकते हैं। जिस युवक ने आपको धक्का देते हुए मोठ गाँव से बाहर निकालते हुए दुःख दिया था वह अब आपका परम भक्त बन गया था, उसने स्वयं अपने हाथ से सन्तरे का रस निकाल कर आपको पिलाया। इतना ही नहीं वह आपके चरणों में गिरकर रोता हुआ क्षमा याचना करने लगा। आपने उसे चरणों से उठाकर अपने गले लगा लिया। इसके बाद स्वास्थ्य लाा के उपरान्त आर्य सार्वदेशिक सभा के तत्वाधान में दिल्ली में आपका भव्य स्वागत किया गया। ठीक ही कहा है-

‘‘सेवा धर्मः परम गहनो योगीनाममप्यगयः।’’

लोहारु काण्डः- सन् 1940 की घटना है। हैदराबाद के निजाम की तरह लोहारु का मुसलमान शासक हिन्दुओं पर तो अत्याचार करता थाऔर मुसलमानों को अधिक अधिकार देकर उनका साहस बढ़ाता था। लोहारु आर्य समाज के मन्त्री ठाकुर भगवान सिंह जी को तो उसने बहुत कष्ट दिये थे। ठाकुर जी आर्य नवयुवक थे। उन्होंने अपनी सहायता के लिए भक्त जी के पास जाना उपयुक्त समझा। समय निकालकर वह स्वयं भक्त जी के पास पहुंचा। भक्त जी ने सहानुभूतिपूर्वक उनकी सारी कष्ट कहानी सुनी। ठाकुर जी को आश्वस्त कर आप स्वयं नवाब से मिलने के लिए गये आपने नवाब को आर्य समाज के प्रचार की सपूर्ण समाज के हित की बातें प्रेम-पूर्वक समझाई। आपकी बातों के उत्तर में नवाब ने कहा कि आपकी बातों से मैं सहमत हूँ। आप आर्य समाज का उत्सव कीजिए उसमें मैं भी समिलित होऊँगा।

सन् 1941 के अप्रैल मास में आर्य समाज लोहारु का उत्सव रखा गया। यह उत्सव आर्य प्र्रतिनिधि सभा पंजाब की ओर से श्रीयुत स्वामी स्वतन्त्रानन्द के नेतृत्व में होना निश्चित हुआ। पण्डित समर सिंह जी वेदालंकार महोपदेदशक व चौ. नौनन्दसिंह अपनी-अपनी भजनमण्डली के साथ उत्सव में पधारे। आप सबके लोहारु पहुंचने पर सबसे पहले जलूस निकालने काआयोजन किया गया। आपने बहुत रोका परन्तु नवयुवकों के जोश के आगे आप चुप हो गये। जलूस में सबसे आगे पूज्य स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी, आप, चौ. नौनन्द सिंह व चौधरी गाहड़ सिंह थे। जलूस जैसे ही नगर के अन्दर पहुँचा तो वहाँ पहले से ही लड़ने के लिए नवाब के सिपाही तैयार खड़े थे। उन्होंने आप सब पर लाठियों से प्रहार करने शुरु कर दिये। प्रहारों से भक्त जी तथा नौनन्द सिंह जी वहीं मूर्छित होकर गिर पड़े आपको 24 घण्टे बाद होश आया। इतना ही नहीं नवाब ने आपको तथा नौनन्द सिंह जी को अपराधी बना दिया । जब यह सूचना गुरुकुल भैंसवाल पहुँची तो वहाँ के अधिकरी गण गुरुकुल से चलकर हिसार के डी.सी. महोदय का पत्र लेकर दादा घासी राम जी श्री स्वरूपलाल जी, श्री हरिशचन्द्र जी, श्री योगेन्द्र सिंह जी लोहारु स्टेट में पहुँचे। वहाँ वे नवाब से मिले और आपको मुक्त करा कर आपका इलाज कराने केलिए इरविन अस्पताल दिल्ली ले गये। आपको स्वास्थ्य लाभ करने में दो मास लग गये। तब आपकी वीरता, धीरता एवं निर्भयता की ूारि-भूरि प्रशंसा की गई।

बलिदानः- बार-बार के अनशनों, व्रतों जलूसों पर लाठी प्रहारों से आपका शरीर काफी दुर्बल होता जा रहा था। दोनों संस्थाओं के संचालन का भार भी काफी बढ़ रहा था। गुरुकुल खानपुर का अधूरापन भी आपको अखर रहा था। इसके अतिरिक्त आपके शुद्धि कार्य से मुसलमान भी आपसे अप्रसन्न हो कर आपके विरोधी बन गये थे। वे आपको मारने के अवसर की तलाश में थे। आपने अपने प्रेमियों से कहना प्रारभ भी कर दिया था कि आप मेरा सहारा छोड़कर इन संस्थाओें को सभालो। भक्त जी महाराज के ये आप्त शब्द थे। 14 अगस्त सन् 1942 तदनुसार श्रावण बदी द्वितीया सवत् 1999 को रात्रि के 9 बजे आप अपने श्रद्धालुओं के साथ भगवत् ध्यान में लीन थे। उस समय बैट्री हाथ में लिये 5 यवन घातक सिपाही के वेश में एक बन्दूक और दो पिस्तोलों के साथ आ धमके। उन नराधमों ने भक्त जी के मुख पर बैट्री से प्रकाश डालते हुए कड़ककर कहा, कि तुम यहाँ फौजी भगोड़ों को रखते हो, तुम सरकार से गद्दारी करते हो। उनकी बात सुनकर भक्त जी महाराज ने कहा, यहाँ कोई फौजी भगोड़ा नहीं है यह स्थान तो लड़कियों के पढ़ने का है। आप हम पर पूर्ण विश्वास करें। उन नराधमों ने भक्त जी क ो दाढ़ी से पहचान लिया फिर उनमें से एक ने आप पर बैट्री का प्रकाश डाला तथा दूसरे ने पिस्तौल के तीन फायर किये। गोली लगी। आपका सिर खाट के नीचे लटक गया। मानों मारने वाले शत्रु को भी प्रणाम कर रहा हो। मुख से ओ3म् निकला पास बैठे असहाय प्र्रेमियों के मुख से आह निकली। आप अपने शरीर का मोह त्याग कर परम पिता परमात्मा की सुन्दर गोद में जा विराजे। जैसा कि आपका जीवन वीरता से भरा था वैसे ही आपकी मृत्यु भी वीरता से हुई।

मरना भला है उसका जो जीता है अपने लिए,

जीता वह है जो मर चुका परोपकार के लिए,

हमदर्द बनकर दर्द न बांटा तो क्या जिए,

कुछ दर्द दिल भी चाहिये इंसान के लिए

अन्य भी कहा हैः-

जीने वाले ऐसे जी, मरने वाले ऐसे मर,

कुछ सबक दे जाय, तेरी जिन्दगी भी मौत भी।

– 1325/38, ‘ओ3म् आर्य निवास’, गली नं. 5, विज्ञान नगर, आदर्श नगर, अजमेर। दूरभाष-09887072505

‘प्रातः व सायं संन्ध्या करना सभी मनुष्यों का मुख्य धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

प्रतिदिन प्रातः व सायं सूर्योदय व सूर्यास्त होता हैं। यह किसके ज्ञान व शक्ति से होता है? उसे जानकर उसका ध्यान करना सभी प्राणियों मुख्यतः मनुष्यों का धर्म है। यह मनुष्य का धर्म क्यों है, इसलिए है कि सूर्याेदय व सूर्यास्त करने वाली सत्ता से सभी प्राणियों को लाभ पहुंच रहा है। जो हम सबको लाभ पहुंचा रहा है उसके प्रति कृतज्ञ होना निर्विवाद रूप से कर्तव्य वा धर्म है। यदि सूर्योदय व सूर्यास्त होना बन्द हो जाये तो हमारी क्या दशा व स्थिति होगी, इस पर हमें विचार करना चाहिये। ऐसा होगा नहीं, परन्तु यदि सूर्योदय होना बन्द हो जाये तो हमारा जीवन दूभर हो जायेगा। एक स्थान पर यदि दिन है तो वहां दिन ही रहेगा और रात्रि व सायं का समय है तो वहां हमेशा अर्थात् प्रलय काल तक वैसा ही रहेगा जिससे मनुष्यों का जीवन किंचित आगे चल नहीं सकता। वैज्ञानिक दृष्टि से ऐसा होने पर संसार की प्रलय हो जायेगी और सब कुछ नष्ट हो जायेगा। यह तो हमने एक ही दृष्टि से विचार किया परन्तु यदि हम सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर वनस्पति प्राणी जगत की उत्पत्ति तक के, सृष्टि के सभी अपौरूषेय कार्यों पर विचार करें तो हमें इस सृष्टि को बनाने, चलाने, वनस्पति प्राणी जगत को उत्पन्न करने, सृष्टि की आदि में वेद ज्ञान देने, समय पर ऋतु परिवर्तन करने, सृष्टि में मनुष्यों अन्य प्राणियों के नाना प्रकार के सुख वा भोग के पदार्थ बनाकर बिना किसी मूल्य के हमें देने के लिए हमें स्रष्टा ईश्वर का ऋणी तो होना ही है। इस ऋण को चुकाने के लिए हमारे पास अपनी कोई वस्तु नहीं है जिसे ईश्वर को देकर हम उऋण हो सकते हों। इसके लिए तो बस हमें ईश्वर की प्रतिदिन प्रातः व सायं स्तुति, प्रार्थना व उपासना ही करनी है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की सत्य व लाभकारी विधि चार वेद व वैदिक साहित्य में ही मिलती है जिसके आधार पर महर्षि दयानन्द ने ईश्वर उपासना के लिए ‘‘सन्ध्या पद्धति का निर्माण कर हमें प्रदान की है। यदि हम इस विधि से ईश्वर का ध्यान न कर अन्य प्रचलित पद्धतियों को अपनाते हैं, तो हमारा मानना है कि इससे हमें वह लाभ नहीं होगा जो कि वैदिक सन्ध्या पद्धति से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना उपासना करने से होता है। अतः अन्य पद्धतियां हमारे लिए लाभकारी कम हानिकारक अधिक सिद्ध होंगी।

 

सन्ध्या क्या है? यह ईश्वर के स्वरूप का चिन्तन करते हुए उसके द्वारा हमारे निमित्त किये गये सभी उपकारों को स्मरण करना और उसकी स्तुति अर्थात् उसके सत्य गुणों का वर्णन करते हुए उससे ज्ञान, सद्बुद्धि, सद्गुणों, स्वास्थ्य, बल, ऐश्वर्य आदि की प्रार्थना करना और साथ हि सभी उपकारों के लिए उसका धन्यवाद करना है। यह सन्ध्या व ईश्वर का सम्यक् ध्यान सूर्यादय से पूर्व व सायं सूर्यास्त व उसके बाद लगभग 1 घंटा व अधिक करने का विधान है। इसके लिए सभी दिशा निर्देश महर्षि दयानन्द ने पंचमहायज्ञ विधि पुस्तक में किये हैं। सन्ध्या में ईश्वर का ध्यान करने से मनुष्य की आत्मा व उसके स्वभाव के दोष दूर होकर ईश्वर के समान गुण, कर्म व स्वभाव सुधरते व बनते हैं। ईश्वर सकल ऐश्वर्य सम्पन्न है, अतः सन्ध्या करने से जीवात्मा वा मनुष्य भी अपनी अपनी पात्रता के अनुसार ईश्वर द्वारा ऐश्वर्यसम्पन्न किया जाता है। अतः ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिीए सभी मनुष्यों को प्रतिदिन सन्ध्या अवश्य ही करनी चाहिये। यदि सन्ध्या नहीं करेंगे तो हम कृतघ्न ठहरेंगे और यह कृतघ्नता महापातक वा महापाप होने से किसी भी अवस्था में मननशील व बुद्धिजीवी मनुष्य के लिए करने योग्य नहीं है। आप कल्पना कर सकते हैं कि यदि ईश्वर एक क्षण भी अपने कर्तव्य कर्मों में किंचित असावधानी व व्यवधान पैदा कर दे, तो सारे संसार में प्रलय की स्थिति आ जायेगी। ऐसी अवस्था में उस अपने प्रियतम ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्य ‘‘सन्ध्या का आचरण न करना घोर अवज्ञा, कृतघ्नता और दण्डनीय कार्य हो जाता है। इससे सभी को बचना चाहिये।

 

सन्ध्या के लिए यदि हमें किसी महापुरुष का उदाहरण लेना हो तो हम कौशल्या-दशरथ नन्दन मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, देवकी-वसुदेव नन्दन योगेश्वर श्री कृष्ण व कर्षनजी तिवारी के पुत्र महर्षि दयानन्द सरस्वती को ले सकते हैं। यह तीनों ईश्वर भक्त व उपासक थे। इनका जीवन पूर्णतया ईश्वरीय ज्ञान वेद की पालना में ही व्यतीत हुआ है। आज तक भी इनका यश है जबकि सृष्टि में विगत समय में अगणित मनुष्यों का जन्म व मृत्यु हो चुका है जिनका नाम किसी को स्मरण नहीं। हमें लगता है कि विस्मृत महापुरूषों के जीवनों के अतिरिक्त यह तीनों ही महापुरूष मानवता के सच्चे आदर्श व मुक्तिगामी महापुरूष थे। यदि हम इनका अनुकरण करेंगे तो हमारा जीवन भी इनके अनुरूप ही यशस्वी व सफल होगा अन्यथा हम भी एक सामान्य व साधारण मनुष्य की तरह कालकवलित होकर विस्मृत हो जायेंगे। इन महापुरूषों का अनुकरण करने के लिए हमें वेद व योगदर्शन सहित समस्त वैदिक साहित्य, बाल्मिकी रामायण, महाभारत, गीता, महर्षि दयानन्द जी के पं. लेखराम, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द रचित जीवन चरित्र व सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि उनके ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इस अध्ययन से मनुष्य ईश्वर व जीवात्मा का ज्ञान प्राप्त कर अभ्युदय व निःश्रेयस प्राप्त कराने वाली जीवन शैली को प्राप्त कर, निःशंक एवं निभ्र्रान्त होकर, मनुष्य जीवन को सफल कर सकता है।

 

जिस परिवार में वैदिक पद्धति से नियमित सन्ध्या होगी वह परिवार आजकल के प्रदूषित सामाजिक वातवारण में भी सच्चा आस्तिक परिवार होगा और उसमें अन्यों की तुलना में सुख, शान्ति व कल्याण की स्थिति अधिक अच्छी होगी। माता-पिता व वृद्ध जन अपने छोटो को सुशिक्षित करने के लिए प्रयत्नरत रहेंगे और इस प्रकार से निर्मित संस्कारित सन्तानें भी माता-पिता व परिवार के वृद्धों के प्रति अपने कर्तव्यों को जानकर उनकी सेवा श्रुशुषा करेंगीं। आजकल के समाज की भांति माता-पिता व सन्तानों के विचारों में जीवन शैली के प्रति मत-भिन्नता व बिखराव नहीं होगा। सन्ध्या के अन्त में उपासक ध्याता ईश्वर को समर्पण करते हुए कहता है कि हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः। अर्थात् हे परमेश्वर दयानिधे ! आपकी कृपा से जप और उपासना आदि कर्मों को करके हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को शीघ्र प्राप्त होवें। सन्ध्या करने से होने वाले अनेक लाभों में से एक लाभ आत्मा को ईश्वर का साक्षात्कार होना है। महर्षि दयानन्द ने स्वानुभूत विवरण देते हुए बताया है कि जब जीवात्मा शुद्ध (अविद्या, दुर्गुण दुव्यस्नों से मुक्त) होकर परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है, उस को उसी समय दोनों, ईश्वर आत्मा, प्रत्यक्ष होते है। सन्ध्या से हमारा जीवन व आचरण श्रेष्ठ बनेगा, हम आर्थिक रूप से सुखी व समृद्ध होंगे और इससे हम अपने सभी सत्य स्वप्नों, कामनाओं व इच्छाओं को पूर्ण कर सकेंगे, साथ ही मृत्यु के बाद बार-बार जन्म व मृत्यु के बन्धन से भी छूट जायेंगे।

 

वैदिक धर्म में मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। जीवात्मा के इस मोक्ष की किसी भी मत में तार्किक चर्चा नहीं है। यह केवल वैदिक व आर्य धर्म में ही है जिसे तर्क व युक्तियों से महर्षि दयानन्द सहित उनके पूर्ववर्ती दर्शनकारों ने सिद्ध किया है। वेदों में भी इसकी चर्चा है। मोक्ष का ही अन्य नाम ‘‘अमृत है। अमृत का अर्थ है मृत्यु को प्राप्त न होने वाला वा मृत्यु से छूट जाने वाला। वैदिक धर्म व जीवन पद्धति पर चलकर ही मनुष्य को अमृत व मोक्ष की प्राप्ति होती है जिससे वह सदा-सदा के लिए जन्म-मरण रूपी दुःखों व कर्मों के बन्धनों से छूट जाता है। आईये, वैदिक धर्म की शरण लें और ईश्वर की सन्ध्या सहित अन्य उपादेय यज्ञ आदि अनुष्ठानों को करके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कर उसे सिद्ध करें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

पं. पद्मसिंह शर्मा जी की दृष्टि में पं. लेखराम साहित्यः- प्रा लेखराम

आर्यसमाजी पत्रों के लेखकों का एक प्रिय विषय है ‘हिन्दी भाषा और आर्यसमाज परन्तु भूलचूक से भी कभी किसी ने यह नहीं लिखा कि आर्य विचारक, दार्शनिक, समीक्षक, पं. पद्मसिंह जी शर्मा सपादक परोपकारी के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें हिन्दी का सर्वोच्च पुरस्कार मंगलाप्रसाद सबसे पहले दिया गया। आप साहित्य समेलन प्रयाग के प्रधान पद को भी सुशोभित करने का गौरव प्राप्त कर पाये। जब ‘कुल्लियाते आर्य मुसाफिर’ के नये संस्करण को सपादित करने का गौरवपूर्ण दायित्व आर्यसमाज के मनीषियों ने मुझे सौंपा तो पं. लेखराम जी विषयक असंय लेख व अनगिनत पुस्तकें मेरे मस्तिष्क में घूमने लगीं।

मन में आया कि आचार्य उदयवीर जी तथा मुंशी प्रेमचन्द जी सरीखे विद्वानों व साहित्यकारों के निर्माता पं. पद्मसिंह जी शर्मा की पं. लेखराम के पाण्डित्य तथा साहित्य पर पठनीय गभीर टिप्पणी आर्य जनता की सेवा में रखी जाये। पं. शान्तिप्रकाश जी, पं. देवप्रकाश जी, ठाकुर अमरसिंह जी तथा शरर जी आदि के पश्चात् पूज्य पं. लेखराम जी के साहित्य का तलस्पर्शी ज्ञान रखने वालों का अकाल-सा पड़ गया है।

ऋषि के अन्तिम काल की चर्चा करते हुए पं. पद्मसिंह जी लिखते हैं कि इसके कुछ समय पश्चात् मिर्जा गुलाम अहमद ने हिन्दू धर्म पर और विशेष रूप से आर्यसमाज पर नये सिरे से आक्रमण करने आरभ किये। कादियानी मियाँ के आक्रमणों का समुचित उत्तर श्रीमान् पं. लेखराम जी ने दिया और ऐसा दिया कि बायद व शायद (जैसा देना चाहिये था- अनूठे ढंग से)।

फिर लिखा है, ‘‘पं. लेखराम जी के पश्चात् इस शान की, इस कोटि की यह एक ही पुस्तक (चौदहवीं का चाँद) निकली है, जिस पर अत्यन्त गौरव किया जा सकता है।’’

यह भी क्या अनर्थ है कि आर्यसमाज के बेजोड़ साहित्यकार का अवमूल्यन करने के लिए कुछ तत्त्व समाज में घुस गये हैं। उनके ऋषि जीवन को तो ‘विवरणों का पुलिंदा’ घोषित कर अपमानित किया और सहस्रों जनों को धर्मच्युत होने से बचाने वाले उनके साहित्य को अपने पोथी-पोथों से कहीं निचले स्तर का….। अधिक क्या लिखें।

परोपकारी के ऐसे-ऐसे कृपालु पाठकः- ‘परोपकारी’ पाक्षिक की प्रसार संया कभी कुछ सौ तक सीमित थी। आज देश के प्रत्येक भाग के यशस्वी समाजसेवी, जाति रक्षक, विचारक, वैज्ञानिक, गवेषक (अन्य-अन्य मतावलबी भी) सैंकड़ों की संया में परोपकारी के नये अंक की प्रतिक्षा में पोस्टमैन की राह में पलके बिछाये रहते हैं। इसके लिए सपादक जी तथा सभा का अधिकारी वर्ग बधाई का पात्र है। आचार्य धर्मेन्द्र जी, देश के गौरव युवा वैज्ञानिक डॉ. बाबूराव जी, डॉ. हरिश्चन्द्र जी, देश के वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध आयुर्वेद के उपासक, उन्नायक व रक्षक 92 वर्षीय डॉ. स.ल. वसन्त जी तो इस आयु में केवल गायत्री जप, उपासना व वेद का स्वाध्याय करते हैं। आप सोमदेव जी, धर्मवीर जी, स्वामी विष्वङ् जी तथा इस सेवक को पत्र लिखते ही रहते हैं। आपने अभी-अभी एक पत्र में लिखा है, ‘‘परोपकारी में आपके स्थायी स्तभ ‘कुछ तड़प-कुछ झड़प’ पढ़े बिना आनन्द नहीं आता।’’

पाठकों को बता दें कि डॉ. वसन्त जी गुजरात, म.प्र., राजस्थान, हरियाणा में ऊँचे पदों पर रहकर आयुर्वेद की सेवा कर चुके हैं। आप यशस्वी आर्य नेता, आर्य सपादक, तपस्वी स्वाधीनता सेनानी लाला सुनामराय जी के दामाद हैं। परोपकारी को ऐसा संरक्षक मिला है। यह बहुत गौरव का विषय है।

ऋषि ने तब क्या कहा था?ः- ईसाइयों, मुसलमानों से शास्त्रार्थ के लिए हिन्दुओं ने आमन्त्रित किया था। आत्म रक्षा के लिए तब हिन्दुओं को ऋषि की शरण लेनी पड़ी थी। मुसलमानों ने ऋषि के सामने प्रस्ताव रखा कि हम और आप दोनों मिलकर गोरे पादरियों से टक्कर लें। परस्पर की बातचीत फिर हो जायेगी, पहले इनको हराया जाये। महर्षि ने कहा कि सत्य न स्वदेशी है न विदेशी होता है। हम सत्यासत्य के निर्णय के लिए यहाँ शास्त्रार्थ करने आये हैं, हार-जीत के लिए नहीं।

पाखण्ड कहीं भी हो, पाखण्ड अंधविश्वास कोई भी व्यक्ति फैलावे उसका खण्डन करना आर्यत्व है। आर्यसमाज पर बाहर वाले प्रहार करें तो ‘तड़प-झड़प’ परमोपयोगी है और कोई नामधारी आर्यसमाजी वैदिक सिद्धान्त विरुद्ध कुछ लिखे व कहे तो उसे कुछ न कहो। इससे आर्यसमाज के उस व्यक्ति की अपकीर्ति होती है। यह क्या दोहरा मापदण्ड नहीं है? आर्यसमाज के अपयश व हानि की तो चिन्ता नहीं। अमुक व्यक्ति गुरुकुल का पढ़ा हुआ है। कोई बात नहीं शिवजी की बूटी आदि का पान करने का समर्थक है। यह क्या वैदिक धर्म प्रचार है? ऋषि दयानन्द सिद्धान्तों का बट्टा-सट्टा अदला-बदली नहीं जानते थे।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116

श्री डॉ. हेडगेवार की चेतावनीः- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ-तत्त्व और चिन्तन’ पुस्तक मेरे सामने है। इसके पृष्ठ 19 पर सिद्धान्त और व्यवहार के टकराव या दूरी पर डॉ. हेडगेवार जी की चेतावनी संघ को ही रास नहीं आ रही। ‘‘संसार असार है, यह जीवन मायामय है, आदि तात्त्विक बातें केवल पुस्तकों में ही शोभा देती है।’’ इस सोच को आप पतन का कारण मानते हैं। जगत् मायामय है, मिथ्या है। विवेकानन्द भी तो यही मानते थे। जगत् मिथ्या है तो फिर जगत्गुरु किसके गुरु हैं?

‘‘मुझे एक भी उदाहरण बतावें जहाँ कहीं किसी मनुष्य के केवल पूजा-पाठ करने से सौ रुपये उसके चरणों पर आ पड़े  हों। ऐसा तो कभी नहीं होता।’’ यह चिन्तन मनन ऋषि दयानन्द का है। शब्द डॉ. हेडगेवार जी के हैं परन्तु राष्ट्रधर्म ने तो तेलंग स्वामी के चमत्कारों की झड़ी-सी लगा दी थी।

अवतारवादी सोच पतन का एक कारणः इसी पुस्तक के पृष्ठ 45 से 47 तक पढ़िये। इसका बहुत थोड़ा अंश आज देंगे। विस्तार से फिर लिखेंगे। डॉ. हेडगेवार जी के घर एक अतिथि (सभवतः उनके मामाजी थे) पधारे। उनको पूजा-पाठ करते देखकर आपने एक प्रश्न पूछ लिया। वह भड़क उठे और बोले, ‘‘आप रामचन्द्र जी और भगवान् का उपहास करते हैं? भगवान् के गुण कभी मनुष्य में आ सकते हैं? हम लोग गुण ग्रहण करने की दृष्टि से नहीं, अपितु पुण्य-संचय और मोक्ष-प्राप्ति के लिए ग्रन्थ पाठ करते हैं।’’

इस पर डॉ. हेडगेवार जी ने यह प्रतिक्रिया दी, ‘‘जहाँ कहीं भी कोई कर्त्तव्यशाली या विचारवान् व्यक्ति उत्पन्न हुआ कि बस हम उसे अवतारों की श्रेणी में ढ़केल देते हैं, उस पर देवत्व लादने में तनिक भी देर नहीं लगाते।’’

संघ को डॉ. हेडगेवार जी का यह विचार भी रास नहीं आया। गुरु गोलवलकर जी ने उनकी भव्य समाधि बनवा दी और फिर गुरु जी की भी वैसी ही बनानी पड़ गई। डॉ. हेडगेवार जी ने छत्रपति शिवाजी व गुरु रामदास से प्रेरणा लेने को कहा। घिसते-घिसते वे सब घिस गये। सबका स्थान विवेकानन्द जी ने ले लिया। गुजरात के पड़ौस में जन्मे शिवाजी व गुजरात में जन्मे ऋषि दयानन्द को गुजरात से निष्कासित कर दिया गया है। जिस महर्षि दयानन्द पर भाव-भरित हृदय से सरदार पटेल ने अन्तिम भाषण दिया, उस पर अवतारवादियों की इस कृपा पर हम बलिहारी।

कावड़िये दुर्घटना ग्रस्तः हिन्दुओं के तीर्थ यात्री वर्षभर दुर्घटना ग्रस्त होते रहते हैं। जड़ बुद्धि, पाषण हृदय तथाकथित हिन्दू नेता इनके कारण और निवारण पर सोचते ही नहीं। परोपकारी में हर बार इन दुःखद घटनाओं पर हम रक्तरोदन करते रहते हैं। अभी दूरदर्शन पर बिहार के भोलेभाले काँवड़ियों के मरने का समाचार सुनकर हृदय पर गहरी चोट लगी। रो-रो कर हमारे नयनों में भी नीर नहीं। आर्यसमाज की तो यह अंधविश्वासी हिन्दू समाज सुनता नहीं। राजनेता ही अब तो हिन्दुओं के धार्मिक व्यायाकार बने बैठे हैं। हम किसको अपना रोना सुनावें। बाबा रामदेव ने भी कभी काँवड़ियों को महिमा मण्डित किया था। काँवड़ियों के काल कराल के गाल में विलीन होने पर बाबा रामदेव भी अभी तक तो मौन हैं।

आर्यसमाज के पाखण्ड खण्डन पर अंधविश्वासी खीजते हैं। अब पता लगा कि अंधविश्वास के पोषकों की कृपा से हिन्दू मरते रहते हैं। जब प्रत्येक कुरीति हिन्दू संस्कृति के नाम पर महिमा-मण्डित की जायेगी तो विनाश व पतन ही होगा।

 

पूर्वजों का मनन-चिन्तन व युक्तियाँः- राजेन्द्र जिज्ञासु

  माननीय आचार्य सोमदेव जी की पुस्तक ‘जिज्ञासा-समाधान’ के प्रथम भाग का प्राक्कथन लिखते हुए मैंने आर्यसमाज की शंका-समाधान की परपरा की ओर आर्यों का ध्यान खींचा है। इस परपरा के जनक महर्षि दयानन्द जी महाराज हैं। इस परपरा को अखण्ड बनाना हमारा पवित्र कर्त्तव्य है। पं. गुरुदत्त जी, पं. लेखराम जी, स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. गणपति शर्मा, पं. धर्मभिक्षु, पं. रामचन्द्र देहलवी, पं. नरेन्द्र जी आदि ने जान जोखिम में डालकर इस परपरा को अखण्ड बनाया है। इस स्वर्णिम इतिहास में हम भी नये-नये अध्याय जोड़ें।

मैंने प्राक्कथन में सुझाया है कि प्रत्येक आर्य वक्ता व लेखक को शंका-समाधान, प्रश्नोत्तर करते हुए पूर्वजों का नाम ले-लेकर महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उनके द्वारा दिये गये मौलिक उत्तर जोड़ने चाहिए। पूर्वजों के साहित्य की सूचियाँ देने से कुछ न बनेगा। बहुत प्रामाणिकता से उनके दिये उत्तर उद्धृत किये जायें। कुछ उदाहरण देते हैं-

  1. 1. पं. लेखराम जी ने शैतान द्वारा पाप करवाने पर लिखा है- ‘‘वास्तव में शैतान को पाचन वटी मानकर पापों से बचना छोड़ दिया।’’
  2. 2. ऋषि ने खाने-पीने से बहिश्ती मल विसर्जन करेंगे तो दुर्गंधि व प्रदूषण होगा तो गंदगी मल-मूत्र कौन उठायेगा? यह प्रश्न किया तो मौलाना सना उल्ला ने लिखा कि यह बेगार काफ़िरों से ली जायेगी। इस पर पं. चमूपति जी ने लिखा- ‘‘तो क्या दोज़ख (नरक) भी उनके साथ बहिश्त में जायेगा अथवा स्वल्प काल के लिये वे नरक से छुटकारा पायेंगे?’’
  3. 3. बहिश्त में जब सुख-सुविधायें, खाने के पदार्थ, संसार जैसे होंगे तो स्वास्थ्य रक्षा के लिए परिश्रम, पुरुषार्थ करने की क्या व्यवस्था होगी? पं. चमूपति जी का यह प्रश्न कितना स्वाभाविक व मौलिक है!

अपने सिद्धान्तों की पुष्टि मेंःहमारे विद्वान् अवैदिक मान्यताओं व पाखण्ड-खण्डन के लिए अच्छे-अच्छे लेख व पुस्तकें लिखते हैं परन्तु अब एक चूक हमारे लेखक कर रहे हैं। अन्य मतों की वेद विरुद्ध बातों की तो चुन-चुन कर चर्चा करते हैं, अवैदिक मतों के साहित्य में वैदिक सिद्धान्तों के पक्ष में लिखे गये प्रमाण अथवा वैदिक धर्म की मान्यताओं की जो रंगत बढ़ रही है, उसका प्रचार नहीं किया जाता। पुराने आर्य विद्वानों से हम यह भी सीखें यथा सर सैयद अहमद लिखते हैं-

(1) ‘‘पहले आदम को केवल वृक्षों के फल खाने की आज्ञा दी गई। पशुओं के मांस के खाने की अनुमति नहीं थी।’’

(2) ‘परोपकारी’ में ‘तड़प-झड़प’ में अमरीका से प्रकाशित नये बाइबिल से प्रमाण दिये गये थे कि सृष्टि की उत्पत्ति के वर्णन में अब शाकाहार का ही आदेश हैं। माँसाहार का हटा दिया गया है।

(3) आदि सृष्टि में अनेक युवा पुरुष व स्त्रियाँ पैदा की गई, बाइबिल में यह वर्णन पढ़कर ऋषि की जयकार क्यों नहीं लगाई जाती। ऐसे-ऐसे प्रमाण खोज-खोज कर हम सब दें।

(4) ब्रह्माकुमारी वाले बार-बार ईश्वर की सर्वव्यापकता का खण्डन करते हुए कई कुतर्क देते हैं। इससे ईश्वर मल-मूत्र में भी मानना पड़ेगा। जहाँ क्रिया होगी, वहाँ कर्त्ता होगा ही। जहाँ कर्त्ता होगा, वहीं क्रिया होगी। सृष्टि में कहाँ गति नहीं। परमाणु में भी विज्ञान गति मानता है। वेद भी डंके की चोट से यही कहता है। जगत् शब्द ही गति का बोध करवाता है फिर ईश्वर की सर्वव्यापकता में संशय क्या रहा? क्या गंदे नालों में कीड़े-मकोड़े पैदा नहीं होते? इन्हें क्या ईश्वर नहीं बनाता? ईश्वर का नाक ही नहीं, उसे दुर्गंधि क्यों आयेगी? उसका शरीर ही नहीं (अकायम) उसे मल क्यों चिपकेगा? ये कुछ संकेत यहाँ दिये हैं। मैं तो पूर्वजों की इस शैली को ध्यान में रखता हूँ। आगे कभी फिर इस पर लिखा जावेगा।

क्यों माने ईश्वर को?’  -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

ईश्वर को क्यों माने? यह प्रश्न किसी भी मननशील मनुष्य के मस्तिष्क में आ सकता है। वह अपनी बुद्धि के अनुसार विचार करेगा और हो सकता है कि उसे कोई सन्तोषजनक उत्तर प्राप्त न हो। यदि वह अपने परिवार व मित्रों से इसकी चर्चा करेगा तो सबके उत्तर अलग-अलग होंगे। सभी मतों व सम्प्रदायों के विचार व  उत्तर, परस्पर वैचारिक समानता न होने के कारण, अलग-अलग होंगे, यह निश्चित है। अब जिज्ञासु मनुष्य को उन सभी विचारों व मान्यताओं पर विचार कर निर्णय करना होगा। हमें लगता है कि उसे जो भी उत्तर प्राप्त होंगे या तो वह गलत होंगे या अधूरे होंगे जिससे जिज्ञासु प्रवृत्ति के विवेकशील मनुष्य का समाधान नहीं हो सकेगा। उसके पास एक ही मार्ग शेष रहता है कि वह किसी वेद या आर्य विद्वान की शरण ले और उससे इस प्रश्न की चर्चा करे, तो अनुमान है कि उसका पूरा समाधान अवश्य ही होगा। इसका कारण यह है कि वेद व आर्य विद्वानों के पास ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद का प्रकाश है। इन वैदिक आर्य विद्वानों में ईश्वर की विशेष कृपा भी होती है जो कि सम्भवतः अन्य मतों के विद्वानों व अनुयायियों में नहीं देखी जाती जबकि उनके दावे बड़े-बड़े होते हैं। विभिन्न मतों के आचार्यों व उनके अनुयायियों के ईश्वर सम्बन्धी किए जाने वाले दावो में उनकी अज्ञानता छिपी हुई दिखाई देती है। सत्य व असत्य का जैसा विश्लेषण व समीक्षा वेद व आर्य विद्वान करते हैं, वैसी समीक्षा व विश्लेषण अन्य किसी मत में नहीं किया जता है। यही कारण है कि वेदभक्त आर्यों को ईश्वर के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होने के साथ उन्हें ईश्वर के मानने से लाभ व न मानने से होने वाली हानियों का भी पूरा-पूरा ज्ञान होता है।

 

हम एक पौराणिक मान्यता व विश्वास वाले परिवार में जन्में और अपनी आयु के 18 से 20 वर्षों तक हम अपने सभी धामिऱ्क कार्य यथा पूजा-उपासना आदि पौराणिक रीति के अनुसार ही करते थे। एक युवा सज्जन विद्वान मित्र की प्रेरणा से हमें आर्यसमाज का परिचय मिला जो हमें रविवार के अवकाश के दिन खाली समय में वहां धुमाने ले जाने लगे। हमने वहां विद्वानों के प्रवचनों को सुना और समाज-मन्दिर में उपलब्ध सत्यार्थ प्रकाश आदि वैदिक साहित्य को लेकर पढ़ा। आर्यसमाज के विद्वानों के तर्क पूर्ण प्रवचनों और सत्यार्थप्रकाश की बुद्धि व तर्क पूर्ण मान्यताओं को पढ़कर उन विचारों व मान्यताओं का हमारे मन व मस्तिष्क पर धीरे-धीरे प्रभाव होने लगा। अब विचार करने पर हमें अपनी जन्मना पौराणिक मान्यताओं की सत्यता के सन्तोषप्रद समाधान नहीं मिले और आर्यसमाज की वेदमूलक मान्यताओं की सत्यता की साक्षी व पुष्टि हमारा मन-मस्तिष्क व हृदय करने लगा। फिर जो होना था वही हुआ। हमने आर्यसमाज की सदस्यता का फार्म लेकर भर दिया और आर्यसमाज के साप्ताहिक यज्ञ व सत्संगों में वहां जाने लगे। हर बार वहां से किसी नये धार्मिक विषय की पुस्तक ले आते जिसे पढ़कर उस विषय का ज्ञान हो जाता था। वेद व आर्यसमाज की मान्यताओं को हम अपने पौराणिक तर्कों से काटना चाहते थे, परन्तु हमारे पास तर्क होते ही नहीं थे। अतः वैदिक विचारों ने हमारे पौराणिक विचारों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली जिसका परिणाम है कि हम विगत 40 से 45 वर्षों से मन व आत्मा से आर्यसमाज की विचारधारा से जुड़े हुए हैं।

 

ईश्वर को मानना व न मानना हमारी निजी सोच पर निर्भर होता है। संसार में बहुत से लोग हैं जो ईश्वर को नहीं मानते। उन्हें साम्यवादी कह सकते हैं। यह बात अलग है कि बंगाल व अन्यत्र रहने वाले हमारे भारत के साम्यवादी व उनके कुटुम्बी दुर्गापूजा आदि जैसे नाना प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान भी करते हैं। जो लोग ईश्वर को बिल्कुल नहीं मानते और जो विदू्रप ईश्वर पूजा को मानते व करते हैं, उसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि वह न तो स्वयं आत्मचिन्तन करते हैं और न ही ईश्वर व जीवात्मा विषयक सर्वाधिक प्रमाणिक वैदिक साहित्य को पढ़ते हैं। यदि यह लोग उपनिषद ही पढ़ ले तो ईश्वर के स्वरूप से परिचित हो सकते हैं। उपनिषदें यद्यपि संस्कृत भाषा में है परन्तु इनके हिन्दी सहित अनेक भाषाओं में भाष्य व अनुवाद उपलब्ध हैं। ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप और संसार की रचना की पहेली के यथार्थ रहस्य को जानने के लिए ‘‘सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में ईश्वर की सत्ता को तर्क व युक्ति से समझाया गया है।

 

सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में महर्षि दयानन्द जी ने प्रश्न प्रस्तुत किया है कि आप ईश्वरईश्वर कहते हो, परन्तु उसकी सिद्धि किस प्रकार करते हो? इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से। फिर वह प्रश्न प्रस्तुत करते हैं कि ईश्वर में प्रत्यक्षादि प्रमाण कभी नहीं घट सकते। इसके उत्तर में वह न्यायदर्शन का सूत्र  ‘‘इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्। प्रस्तुत करते हैं और बताते हैं कि श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, घ्राण और मन का शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सुख, दुःख, सत्यासत्य विषयों के साथ जो सम्बन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं, परन्तु वह निर्भ्रम हो। अब विचारना चाहिये कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी उस का आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचनाविशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। और जब आत्मा, मन और इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता वा चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात के करने का जिस क्षण में आरम्भ करता है, उस समय जीव की इच्छा, ज्ञानादि उसी इच्छित विषय पर झुक जाते हैं। उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शंका और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभय, निःशकता और आनन्दोत्साह उठता है। वह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से (होता) है। और जब जीवात्मा शुद्ध होकर परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है, उस को उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का (शुद्ध हृदय से विचार ध्यान करने पर) प्रत्यक्ष होता है अनुमानादि से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह है? क्योंकि कार्य को देख के कारण का अनुमान होता है। हमने इन पंक्तियों में महर्षि दयानन्द के विचारों की कुछ झलक प्रस्तुत की है। विस्तार से जानने के लिए जिज्ञासुओं को सत्यार्थ प्रकाश का गहन अध्ययन करना चाहिये। हमारा अनुमान है कि बार-बार सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से अध्येता को ईश्वर के बारे में निभ्र्रान्त ज्ञान अवश्य हो जाता है।

 

ईश्वर है और उसी ने इस सृष्टि को बनाया है तथा वही इसका संचालन कर रहा है। उसी से, जन्म के बाद मृत्यु की भांति, संसार की प्रलय होती है व आगे चलकर इस सृष्टि की भी होगी। उसी परमात्मा से सभी प्राणी अस्तित्व में आते हैं और अपने कर्मानुसार सुख-दुःख रूपी फलों का भोग करते हैं। इस सन्दर्भ में हम यह निवेदन करना चाहते हैं कि संसार के किसी वैज्ञानिक, मत-पन्थ के आचार्य व अन्य के पास सृष्टि और सभी प्राणियों के जन्मदाता का बुद्धिसंगत निर्भान्त ज्ञान व उत्तर उपलब्ध नहीं है। यह केवल वेद और वैदिक साहित्य में ही उपलब्ध होता है। अभी तक ईश्वर व जीवात्मा विषयक वेद, दर्शन, उपनिषद व सत्यार्थ प्रकाश आदि किसी ग्रन्थ की मान्यताओं व सिद्धान्तों का किसी वैज्ञानिक व नास्तिक विद्वान ने युक्ति व तर्कपूर्वक खण्डन नहीं किया है। अतः ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व विषयक अन्य कोई सन्तोषजनक पक्ष न होने के कारण सभी मनुष्यों को वेदसम्मत ईश्वर को मानने में ही कल्याण है। ईश्वर है, यदि उसे मानेंगे तो ईश्वर को मानने से मिलने वाले लाभों से समृद्ध होंगे और यदि नहीं मानेंगे तो उन लाभों से वंचित हो जायेंगे। कुछ क्षण के लिए यदि इस मिथ्या मान्यता को भी स्वीकार कर लें कि ईश्वर नहीं है, तो भी ईश्वर को मानने से हमें कोई हानि नहीं होगी। क्योंकि जब वह है हि नहीं तो हानि होने का प्रश्न ही नहीं है। परन्तु यदि ईश्वर है और हम उसे नहीं मानेंगे तो हानि होना निश्चित है। अतः दोनों ही स्थितियों में ईश्वर को मानने में ही मनुष्य को लाभ है।

 

ईश्वर को मानने से क्या लाभ हैं? पहला लाभ तो यह है कि ईश्वर को जानने व मानने तथा उसकी स्तुति प्रार्थना व उपासना करने से जीवात्मा के बुरे गुण-कर्म-स्वभाव छूट कर ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुरूप, शुद्ध व पवित्र, हो जाते हैं। आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि जिससे दुःखों की निवृत्ति होने के साथ सभी प्रकार के भय दूर होते हैं। मृत्यु का भय भी समाप्त हो जाता है। अभ्युदय व निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। मनुष्य को स्वस्थ जीवन का लाभ होने के साथ सुख व समृद्धि सहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की उपलब्धि होती है। इसके विपरीत ईश्वर को न मानने पर मनुष्य इन अधिकांश लाभों से वंचित हो जाता है। उसे केवल अपने सत्यासत्य कर्मों के फल ही ईश्वर की व्यवस्था से प्राप्त होते हैं। ईश्वर से जो सत्प्रेरणायें जीवात्माओं कों प्राप्त होती है उसका अनुभव अधार्मिक नास्तिक लोग नहीं कर पाते। असली सहिष्णुता ईश्वर को मानने वाले धार्मिक लोगों में ही पायी जाती है। ईश्वर के सच्चे स्वरूप को न जानने व मानने वाले लोग सहिष्णुता का दिखावा करते हैं, वह सहिष्णुता के मूल स्वभाव व चरित्र से कोशों दूर होते हैं। जीवात्मा अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अविनाशी व अमर है। इसका पुनर्जन्म सुनिश्चित व अवश्यम्भावी है जो जीवात्मा के कर्मानुसार ईश्वर द्वारा दिया जाता है। यदि ईश्वर को नहीं मानेंगे तो हमारा आगामी जीवन बिगड़ेगा अर्थात् निम्न व नीच योनियों में जन्म लेकर दीर्घ अवधि तक दुःखों को भोगना ही होगा। ईश्वर को मान कर और उसकी वैदिक विधि से स्तुति-प्रार्थना उपासना कर नास्तिकों व अर्धनास्तिक मत-पन्थ के अनुयायियों को होने वाली हानियों से बचा जा सकता है। हम आशा करते हैं कि यह लेख पाठकों को उपयोगी होगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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सृष्टि की उत्पत्ति किससे, कब व क्यों? -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

हम जिस संसार में रहते हैं वह हमें बना बनाया मिला है। हमारे जन्म से पूर्व इस संसार में हमारे माता-पिता व पूर्वज रहते आयें हैं। न तो हमें हमारे माता-पिता से और न हमें अपने अध्यापकों व विद्यालीय पुस्तकों में इस बात का सत्य ज्ञान प्राप्त हुआ कि यह संसार कब, किसने व क्यों बनाया है। क्या यह प्रश्न महत्वहीन है, या फिर इसका ज्ञान संसार में किसी को है ही नहीं? हमें दूसरा प्रश्न ही कुछ सीमा तक उचित प्रतीत होता है। यदि इन प्रश्नों के उत्तर हमारे वैज्ञानिकों, विद्वानों वा अध्यापकों आदि के पास होते तो वह निश्चय ही इसका प्रचार करते। अध्ययन करने पर इसका मुख्य कारण ज्ञात होता है कि विगत 5 हजार वर्षों में हमारे देश के लोगों ने वेद और वैदिक साहित्य का सत्य वेदार्थ प़द्धति से अध्ययन करना छोड़ दिया जिस कारण मनुष्य न केवल इन प्रश्नों के उत्तर से ही वंचित व अनभिज्ञ हो गया अपितु ईश्वर व जीवात्मा आदि के सच्चे ज्ञान से भी दूर होकर अज्ञान, अन्धविश्वासों और कुरीतियों से ग्रसित हो गया। यही स्थिति महर्षि दयानन्द के 12 फरवरी, 1825 को गुजरात के टंकारा नामक स्थान पर जन्म के समय भी थी परन्तु उनमें इन प्रश्नों को जानने की जिज्ञासा थी और इसके लिए अपना जीवन लगाने का जज्बा भी उनमें था। उन्होंने घर के सभी सुखों का त्याग कर इस संसार के सत्य रहस्यों को जानने का निश्चय किया और विद्वानों की संगति व सेवा में जाकर जिससे जितना व जो भी ज्ञान प्राप्त हो सकता था, उसे प्राप्त किया। स्वामी दयानन्द ने किसी एक ही व्यक्ति को अपना गुरू बनाकर सन्तोष नहीं किया अपितु देश में सर्वत्र घूम कर जिससे जहां जो भी ज्ञान मिला उसे अपनी बुद्धि व स्मृति में स्थान दिया जिसका परिणाम हुआ कि अनेक विद्वानों के सम्पर्क में आकर वह शून्य से आरम्भ होकर अनन्त ज्ञान वेद व ईश्वर तक पहुंचे और सभी जिज्ञासाओं, प्रश्नों, शंकाओं व भ्रान्तियों के उत्तर प्राप्त किये और उससे सारे संसार को भी आलोकित व लाभान्वित किया। मथुरा के गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द का तीन वर्ष शिष्यत्व प्राप्त कर उनसे पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर वह सन्तुष्ट हुए थे।

 

सृष्टि की रचना व उत्पत्ति के प्रसंग में यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि संसार में कोई भी रचना व उत्पत्ति बिना कर्त्ता के नहीं होती। इसके साथ यह भी महत्वपर्ण तथ्य है कि कर्ता को अपने कार्य का पूर्ण ज्ञान होने के साथ उसको सम्पादित करने के लिए पर्याप्त शक्ति वा बल भी होना चाहिये। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यह सृष्टि एक कर्ता जो ज्ञान व बल से युक्त है, उसी से बनी है। वह स्रष्टा कौन है? संसार में ऐसी कोई सत्ता दृष्टिगोचर नहीं होती जिसे इस सृष्टि की रचना का अधिष्ठाता, रचयिता व उत्पत्तिकर्ता कहा व माना जा सके। अतः यह सुनिश्चित होता है कि वह सत्ता है तो अवश्य परन्तु वह अदृश्य सत्ता है। क्या संसार में कोई अदृश्य सत्ता ऐसी हो सकती है जिससे यह सृष्टि बनी है? इस पर विचार करने पर हमारा ध्यान स्वयं अपनी आत्मा की ओर जाता है। हम एक ज्ञानवान चेतन तत्व वा पदार्थ है जो शक्ति वा बल से युक्त हैं। हमने स्वयं को आज तक नहीं देखा। हम जो, इस शरीर में रहते हैं व इस शरीर के द्वारा अनेक कार्यों को सम्पादित करते हैं, वह आकार, रंग व रूप में कैसा है? हम अपने को ही क्यों ले, हम अन्य असंख्य प्राणियों को भी देखते है परन्तु उनके शरीर से ही अनुमान करते हैं कि इनके शरीरों में एक जीवात्मा है जिसके कारण इनका शरीर कार्य कर रहा है। इस जीवात्मा के माता के गर्भ में शरीर से संयुक्त होने और संसार में आने पर जन्म होता है और जिस चेतन जीवात्मा के निकल जाने पर ही यह शरीर मृतक का शव कहलाता है। हम यह भी जानते हैं कि सभी प्राणियों के शरीरों में रहने वाला जीवात्मा आकार में अत्यन्त अल्प परिणाम वाला है। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण इसका अस्तित्व होकर भी यह दिखाई नहीं देता है। अतः संसार में हमारी इस आत्मा की ही भांति जीवात्मा से सर्वथा भिन्न एक अन्य शक्ति, निराकार स्वरूप और सर्वव्यापक, चेतन पदार्थ, आनन्द व सुखों से युक्त, ज्ञान-बल-शक्ति की पराकाष्ठा से परिपूर्ण, सूक्ष्म जड़ प्रकृति की नियंत्रक सत्ता ईश्वर वा परमात्मा हो सकती है। ऐसी ईश्वर नामी सत्ता से ही सूर्य, चन्द्र, ग्रह-उपग्रह, नक्षत्र, असंख्य सौर मण्डलों से युक्त यह संसार, सृष्टि, ब्रह्माण्ड व जगत अस्तित्व में आ सकता है, इसमें सन्देह का कोई कारण नहीं। यही एक मात्र विकल्प हमारे सामने हैं। अन्य कोई दूसरा विकल्प है ही नहीं। अब इस अनुमान का प्रमाण प्राप्त करना है जोकि वेद व वैदिक साहित्य के गहन व गम्भीर अध्ययन तथा ईश्वरोपासना, विचार, चिन्तन, मनन, ध्यान व समाधि के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

 

अब हमें यह भी विचार करना है कि वस्तुतः वेद और वैदिक साहित्य है क्या? इसको जानने के लिए हमें इस सृष्टि के आरम्भ में जाना होगा। जब सुदूर अतीत में यह सृष्टि उत्पन्न हुई तो अन्य प्राणियों को उत्पन्न करने के बाद मनुष्यों को भी उत्पन्न किया गया होगा। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों की उत्पत्ति माता-पिता से न होकर अमैथुनी विधि से परमात्मा व सृष्टिकर्ता करता है। इसका भी अन्य कोई विकल्प नहीं है, अतः ईश्वर द्वारा अमैथुनी सृष्टि को ही मानना हमारे लिए अनिवार्य व अपरिहार्य है। सृष्टि, सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि तथा पृथिवी पर अग्नि, वायु, जल व प्राणी जगत सहित मनुष्य भी उत्पन्न हो जाने पर मनुष्यों को ज्ञान की आवश्यकता होती है जिससे वह अपने दैनन्दिन कार्यों का सुगमतापूर्वक निर्वाह कर सके। यह ज्ञान भी उसे यदि मिल सकता है वा मिला है तो वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर से ही मिला है। इसके अनेक प्रमाण हमारे पास हैं। पहला प्रमाण तो परम्परा का है। भारत में विपुल वैदिक साहित्य है जिसमें सर्वत्र वेदों को ईश्वरीय ज्ञान अर्थात् ईश्वर से प्रदत्त ज्ञान बताया गया है। वेद संसार में सबसे प्राचीनतम होने के कारण भी ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होता है। मनुष्य अपने सारे जीवन में ज्ञान की उत्पत्ति नहीं करता, वह तो ज्ञान की खोज करता है जो इस सृष्टि में पहले से ही सर्वत्र विद्यमान है। यह ज्ञान ईश्वर का स्वाभाविक गुण है और उसमें सदा सर्वदा व सनातन काल से है और शाश्वत व नित्य भी है। ईश्वर ने अध्ययन, ध्यान व चिन्तन आदि से ज्ञान को उत्पन्न नहीं किया अपितु यह उसमें स्वतः अनादि काल से चला आ रहा है। परिमाण की दृष्टि से पूर्ण होने के कारण इसमें न्यूनाधिक नहीं होता और यह अनादि काल से ही एकरस व एक समान बना हुआ है और आगे भी इसी प्रकार का बना रहेगा। वेदों का अध्ययन कर भी वेद ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होते हैं क्योंकि वेदों में ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व संसार विषयक पूर्ण मौलिक ज्ञान बीज रूप में विद्यमान है जिसका समर्थन ज्ञान व विज्ञान से भी होता है। वेदों का ज्ञान पूर्णरूपेण सृष्टि-क्रम के अनुकूल होने से विज्ञान का पोषक है। वेदों की सभी मान्यतायें ज्ञान, बुद्धि, तर्क, ऊहा व वाद-विवाद कर सत्य सिद्ध होती हैं। सृष्टि के आदि से महर्षि दयानन्द पर्यन्त कोटिशः सभी ऋषियों ने वेदों का अध्ययन कर यही निष्कर्ष निकाला है। अतः वेद ज्ञान ईश्वर प्रदत्त आदि ज्ञान सिद्ध होता है जो सभी सत्य विद्याओं सहित सभी प्रकार के आधुनिक ज्ञान व विज्ञान का भी एकमात्र व प्रमुख आधार है। यदि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से  मनुष्यों को ज्ञान न मिलता तो यह संसार आगे चल ही नहीं सकता था। वही वैदिक ज्ञान काल के प्रवाह व भौगोलिक कारणों से आज अनेक भाषाओं में न्यूनताओं को समेटे हुए हमें सर्वत्र प्राप्त होता है। सृष्टि के आरम्भ में वेदों की उत्पत्ति व ऋषियों को उसकी प्राप्ति के पश्चात समय-समय पर ऋषियों ने लोगों के हितार्थ विपुल वैदिक साहित्य की रचना की। संक्षेप में कहें तो वैदिक आर्ष व्याकरण, निरुक्त, वैदिक ज्योतिषीय ज्ञान, कल्प ग्रन्थ, 6 दर्शन, उपनिषद, प्रक्षेपों से रहित शुद्ध मनुस्मृति और वेदों की शाखायें हमारे ऋषियों ने अल्पबुद्धि वाले हम मनुष्यों के लिए बना दी जिससे मनुष्य जाति का उपकार व हित हो सके।

 

यह सिद्ध हो गया है कि सृष्टि उत्पत्ति विषयक सभी प्रश्नों का सत्य उत्तर हमें वेद और वैदिक साहित्य से ही प्राप्त होगा। सृष्टि की उत्पत्ति किससे हुई प्रश्न का उत्तर है कि यह सृष्टि ईश्वर कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षण युक्त है, उसी से ही यह सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। सृष्टि कब उत्पन्न हुई, का उत्तर है कि एक अरब छियानवें करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ पन्द्रह वर्ष पूर्व। यह काल गणना भी वैदिक परम्परा ज्योतिष आदि शास्त्रों के आधार पर है। सृष्टि की रचना क्यों हुई का उत्तर है कि जीवात्माओं को उनके जन्म जन्मान्तरों के कर्मों के सुख दुःख रूपी फलों वा भोगों को प्रदान करने के लिए परम दयालु परमेश्वर ने की। सृष्टि रचना संचालन का कारण जीवों के कर्म उनके सुखदुःख रूपी फल प्रदान करना ही है। जीवात्मा को उसके लक्षणों से जाना जाता है। उसके शास्त्रीय लक्षण हैं, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, ज्ञान, कर्म, अल्पज्ञता नित्यता आदि।

 

हमने अपने विगत 45 वर्षों में जो अध्ययन किया है उसके अनुसार हमें यह ज्ञान पूर्णतयः सत्य, बुद्धि संगत व विज्ञान की आवश्यकताओं के अनुरुप लगता है। हमारे वैज्ञानिक अनेक कारणों से ईश्वर व धर्म को नहीं मानते। आने वाले समय में उन्हें इस ओर कदम बढ़ाने ही होंगे अन्यथा उनकी सत्य की खोज अधूरी रहेगी। इन्हीं शब्दों के हम लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘सब सत्य विद्याओं एवं उससे उत्पन्न किए व हुए संसार व पदार्थों का मूल कारण ईश्वर’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

हम कोई भी काम करते हैं तो उसमें विद्या अथवा ज्ञान का प्रयोग करना अनिवार्य होता है। अज्ञानी व्यक्ति ज्ञान के अभाव व कमी के कारण किसी सरल कार्य को भी भली प्रकार से नहीं कर सकता। जब हम अपने शरीर का ध्यान व अवलोकन करते हैं तो हमें इसके आंख, नाक, कान, श्रोत्र, बुद्धि, मन व मस्तिष्क आदि सभी अवयव किसी महत् विद्या के भण्डार व सर्वशक्तिमान सत्ता रूपी कर्ता का ही कार्य अनुभव होतें हैं। बिना विद्या के कोई भी कर्ता कुछ कार्य नहीं कर सकता और बिना कर्ता के भी कोई कार्य नहीं होता। इससे यह सिद्ध है कि हमारे शरीर व इस सृष्टि के सभी पदार्थों का कर्ता व रचयिता एक निराकार, सर्वविद्या व ज्ञान से पूर्ण सूक्ष्मातिसूक्ष्म अदृश्य सत्ता व उसका अस्तित्व है। उस सत्ता के आंखों से न दिखने के अनेक कारण हो सकते हैं जिनमें से एक कारण उसका अति सूक्ष्म होना भी व ही है। यह सारा ब्रह्माण्ड उस ईश्वर की रचना है और इस रचना से ही इसके कर्त्ता ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है। संसार में आज तक ऐसी रचना देखने को नहीं मिली जो स्वमेव, बिना किसी बुद्धिमान-ज्ञानी-चेतनसत्ता के उत्पन्न हुई हो और जो मनुष्यों व प्राणियों के उपयोगी वा बहुपयागी हो जैसी कि हमारी यह सृष्टि व इसके पदार्थ सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, जल, वायु, हमारे व अन्य प्राणियों के शरीर, वनस्पति जगत आदि हैं।

इससे यह निर्विवाद रुप से सिद्ध होता है कि यह संसार एक निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनादि, नित्य, अमर सत्ता की रचना है। रचना को देखकर इसमें प्रयुक्त ज्ञान से ईश्वर का सर्वज्ञ अर्थात् सर्वज्ञान व विद्याओं का भण्डार होना भी सिद्ध होता है। इस निष्कर्ष पर पहुंच कर हमें सभी विद्याओं की प्राप्ति के लिए ईश्वर की शरण में ही जाना आवश्यक हो जाता है। ईश्वर की शरण में कैसे जा सकते हैं? इसका उपाय सद्ग्रन्थों का अध्ययन वा स्वाध्याय, ज्ञानीनिर्लोभीनिरभिमानीअनुभवी गुरूओं का शिष्यत्व सहित बुद्धि को शुद्ध, पवित्र सात्विक बनाकर उससे ईश्वर के स्वरुप का चिन्तन मनन करना है। किसी विषय का गहन चिन्तन व मनन करना ही ध्यान कहलाता है। जब एक ही विषय यथा ईश्वर के स्वरुप का नियमित रूप से निश्चित समय पर लम्बी अवधि तक मनुष्य चिन्तन व मनन करते हैं तो वह ध्यान की अवस्था ही कालान्तर में समाधि का रूप ले लेती है। इस अवस्था में एक समय वा दिवस ऐसा आता है कि जब ध्याता को ध्येय ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है। यह साक्षात्कार मनुष्य वा योगी में यह योग्यता उत्पन्न करता है कि जिससे वह जब जिस विषय का अध्ययन व चिन्तन करता है, कुछ ही समय में उसका उसको साक्षात ज्ञान हो जाता है। यह सफलता ईश्वर द्वारा प्रदान की जाती है। इसी लिए हमारे देश में जितने भी ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न ऋषि व मुनि हुए हैं, वह सभी योगी ही हुआ करते थे। यदि हम आजकल के वैज्ञानिकों व उच्च श्रेणी के ज्ञानियों की स्थिति पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि यह सभी भी विचारक, चिन्तक, इष्ट वा अभीष्ट विषय का निरन्तर ध्यान करने वाले व समाधि की स्थिति व उससे कुछ पूर्व की स्थिति तक पहुंचे हुए व्यक्ति ही प्रायः होते हैं। अतः ज्ञान की प्राप्ति विचार, चिन्तन व ध्यान से ही होती है। यह भी स्पष्ट है कि इस प्रक्रिया को अपनाकर बुद्धि में प्राप्त ज्ञान ईश्वर से ही प्रेरित वा प्राप्त होता है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि हमारे आज के वैज्ञानिक व इंजीनियर बन्धुओं को जो उच्च ज्ञान विज्ञान की उपलब्धि हुई है वह, कोई माने या न माने, ध्यान व किंचित समाधि की अवस्था आने पर ईश्वर के द्वारा ही सुलभ हुई है।

 

संसार को समझने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है और ज्ञान के रूप में सृष्टि के सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद हमें उपलब्ध है। प्रमाण, परम्परा, तर्क व विवेचन से यह सिद्ध होता है कि चारों वेदों का ज्ञान सृष्टि की आदि में चार ऋषियों को ईश्वर द्वारा प्रदत्त ज्ञान है। इस बारे में गहन स्वाध्याय व अध्ययन न करने वालों को अनेक प्रकार की भ्रान्तियां हैं जिसका कारण उनका इस विषय का अध्ययन न करना ही मुख्य है।  यदि वह इसका अध्ययन करें तो उनकी सभी शंकाओं व भ्रान्तियों का निवारण हो सकता है जिस प्रकार से सृष्टि के आदि काल से महाभारत काल पर्यन्त ऋषियों सहित महर्षि दयानन्द सरस्वती और पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी आदि का हुआ था। महर्षि दयानन्द जी और उनके अनुवर्ती आर्य विद्वानों का वेदभाष्य इस बात का प्रमाण है कि वेद परा और अपरा विद्या का आदि स्रोत व भण्डार होने के साथ पूर्णतया सत्य ज्ञान है। महर्षि दयानन्द की यह घोषणा भी हमें ध्यान में रखनी चाहिये कि ‘‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इस लिए वेदों का सभी आर्यों वा मनुष्यों को पढ़ना व पढ़ाना परम धर्म है। इससे यह सिद्ध हो रहा है कि मनुष्य धर्म वेदों अर्थात् सत्य ज्ञान का अध्ययन आचरण करना ही है। हमारे वैज्ञानिकों ने बहुत सी अपरा विद्याओं को खोज कर अपूर्व कार्य किया है। वह विश्व मानव समुदाय की ओर से अभिनन्दन के पात्र हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि हमारे वैज्ञानिक बन्धु परा विद्या वा ईश्वर-जीवात्मा के सत्य ज्ञान से बहुत दूर हैं। इसकी पूर्ति वैज्ञानिक विधि से रिसर्च व अनुसंधान से नहीं होगी। इसका उपाय तो वेद और वैदिक साहित्य का अध्ययन, योगाभ्यास, ध्यान व समाधि को सिद्ध कर ही प्राप्त होगा। जिस दिन हमारे वैज्ञानिक विज्ञान के शोध व उपयोग के साथ वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन सहित योगाभ्यास में अग्रसर होंगे, तभी उनका अपना जीवन भी पूर्णता को प्राप्त होगा और इससे मानवता का भी अपूर्व हित व कल्याण होगा। हमें लगता है कि महर्षि दयानन्द सहित सभी प्राचीन ऋषियों में ईश्वर विषयक ज्ञान व आधुनिक वा भौतिक विज्ञान दोनों का ही समन्वय था जिससे संसार में सुख अधिक और दुःख कम थे और आज की परिस्थितियों में स्थिति सर्वथा विपरीत है। अध्यात्मिक ज्ञान से ही मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियों बुरे आचरण पर नियन्त्रण किया जा सकता है।

 

इस लेख में हमने यह समझने का प्रयास किया है कि संसार की विद्याओं व ज्ञान की उत्पत्ति का आदि स्रोत ईश्वर है और उसी से सभी विद्यायें इस सृष्टि की रचना, इसके पालन व वेदों के माध्यम से प्रकट हुई है। हमें चिन्तन, मनन व ध्यान आदि की क्रियाओं से उसे और अधिक उन्नत करना होता है। यदि ईश्वर यह संसार न बनाता और वेदों का ज्ञान न देता तो हम और हमारे विचारकों, चिन्तकों व वैज्ञानिकों को करने के लिए कुछ न होता। अतः सबको कल्पित ईश्वर नहीं अपितु सच्चे ईश्वर की शरण में जाना आवश्यक है जिससे जीवन के उद्देश्य वा लक्ष्य धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष की प्राप्ति हो सके। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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