‘गृहस्थ जीवन की उन्नति के 16 स्वर्णिम सूत्र’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

मनुष्य के वैदिक जीवन के चार सोपान है ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास  आश्रम। ब्रह्मचर्य आश्रम का काल आरम्भ के 25 वर्षों का होता है जिसमें 8 वर्ष की आयु तक गुरूकुल में जाकर वर्णोच्चारण शिक्षा से आरम्भ कर सम्पूर्ण वेद वा सम्पूर्ण विद्याओं का अध्ययन करना होता है। अध्ययन पूरा करने पर गृहस्थ जीवन धारण करने का विधान है जो विवाह संस्कार से आरम्भ होता हे। गृहस्थ जीवन के अपने कर्तव्य हैं जिनमें पंचमहायज्ञों का महत्वपूर्ण स्थान है। ये पंच महायज्ञ प्रातः व सायं वैदिक योग विधि से ईश्वरोपासना जिसमें सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय भी सम्मिलित है, प्रातः व सायं अग्निहोत्र यज्ञ का अनुष्ठान, पितृ यज्ञ जिसमें माता-पिता की सेवा श्रुशुषा कर उन्हें सन्तुष्ट व प्रसन्न करना होता है, चैथे कर्तव्य अतिथि यज्ञ में आचार्य, गुरूओं व आप्त संन्यासियों विद्वानों का सेवा सत्कार कर उन्हें प्रसन्न व सन्तुष्ट करना होता है। अन्तिम गृहस्थ का कर्तव्य पालतू पशुओं, कीट-पंतग व पक्षियों आदि के लिए होता है जिसमें अपने आहार के पदार्थों में से कुछ भाग उनके पोषण के लिए दिया जाता है। 50 से 75 वर्ष की आयु के बीच वानप्रस्थ तथा 75 वर्ष व उससे आगे संन्यास लेकर वेद व वैदिक शिक्षाओं व मान्यताओं का समाज व गृहस्थियों में प्रचार प्रसार करना होता है जिससे समाज में अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां आदि जन्म न ले सकें व यदि यह बुराईयां समाज में आ गई हों तो वह दूर हो जाएँ। गृहस्थ आश्रम अन्य तीन आश्रमों का मुख्य आधार है। यदि यह सुधर जाये तो सभी आश्रम अपनी उन्नत अवस्था में रहते हैं। इसके लिए वेद एवं वैदिक साहित्य में आवश्यक ज्ञान भरा हुआ है। उसका स्वाध्याय करने से मनुष्य अज्ञान तिमिर से दूर होकर सत्य ज्ञान को प्राप्त होकर जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति में सफल हो सकता है।

 

आर्य समाज में स्वामी विद्यानन्द सरस्वती नाम से एक विद्वान संन्यासी हुए हैं जिन्होंने तत्वमसि, वेद  मीमांसा, अनादि तत्व दर्शन, मैं ब्रह्म हूं, सृष्टि विज्ञान और विकासवाद, आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता, आर्ष दृष्टि, आर्य सिद्धान्त विमर्श, अद्वैतमत-खण्डन, सत्यार्थ भास्कर, भूमिका भास्कर, संस्कार भाष्कर, स्वराज्य दर्शन आदि बड़ी संख्या में अनेक महत्वपूर्ण व विद्वतापूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन व रचना की है। उनका समस्त जीवन वेदों की शिक्षाओं पर आधारित था। वह आदर्श शिक्षक, आदर्श गृहस्थी, आदर्श विद्वान और आदर्श संन्यासी रहे और उन्होंने समाज को श्रेयस्कर मार्गदर्शन एवं नेतृत्व प्रदान किया। हमारा यह सौभाग्य था कि हमें उनके दर्शन, वार्ता एवं संक्षिप्त संगति का अवसर मिला। सत्यार्थ प्रकाश महोत्सव में उनका अभिनन्दन कर 31 लाख रूपये की धनराशि समर्पित करने के अवसर पर उनका अभिनन्दन-पत्र तैयार करने का दायित्व महोत्सव के स्वागताध्यक्ष व स्त्यार्थ प्रकाश न्यास के न्यासी यशस्वी कैप्टेन देवरत्न आर्य द्वारा हमें दिया गया था जिसे हमने सामवेदभाष्यकार श्रद्धेय आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी के सहयोग से पूरा किया था। अपने ज्ञान व अनुभव के आधार पर वर्तमान आधुनिक समय में गृहस्थ जीवन को सफल व उन्नत करने के लिए स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने सोलह उपदेश व प्रमुख सूत्रों का संकलन किया। आज हम उनके द्वारा वैदिक ज्ञान का मन्थन कर दिये गये उपदेशों को पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

1             ईश्वर को सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् जानो और अपने समस्त कर्तव्य-कर्मों को करना ईश्वर की आज्ञाएं पालन करना समझो।

2             अपने कर्तव्यपालन में भी प्रमाद और आलस्य मत करो, प्रत्येक कर्म को समझ कर सचाई के साथ करो।

3             अपनी जीवनचर्या को नियमबद्ध बनाओं जिसमें सूर्योदय से पहले उठना आवश्यक नियम हो।

4             प्रत्येक कार्य के लिए समय नियत करो और प्रत्येक कार्य को उसके नियत समय पर करो।

5             प्रत्येक वस्तु के लिए स्थान नियत करो और प्रत्येक वस्तु को नियत स्थान पर रखो।

6             सबसे मीठे वचन बोलो, प्रेम रखो, ईष्र्या और द्वेष कभी मत करो।

7             दूसरों के सुख में सुखी तथा दुःख में दुःखी होने की भावना दृढ़ करो।

8             कभी किसी दूसरे की निन्दा और अपनी प्रशंसा मत करो।

9             अपनी योग्यता का कभी अभिमान मत करो, उसको बढ़ाने का सदैव प्रयत्न करो।

10           बच्चों को विनम्र, सुयोग्य, सदाचारी और कर्मशील बनाने के लिए बचपन में ही शिक्षा देना आवश्यक है और उसके लिए अपने-आपको उदाहरण बनाना अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है।

11           अपने व्यय को आय से कभी अधिक मत बढ़ने दो।

12           शुद्ध, सरल, पवित्र और सादा जीवन निर्वाह करो, बनावट और दिखावट से बचे रहो।

13           स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए आहार-विहार आदि में संयम रखो और व्यायाम अथवा आसन-प्राणायाम आदि नियमपूर्वक करते रहो।

14           गुरुजनों का आदर करो।

15           दुःखों और कठिनाइयों को धीरतापूर्वक सहन करो, कभी घबराओ नहीं, सदैव प्रफुल्लित रहो।

16           अपनी और कुटुम्ब की सेवा के साथ समाज की सेवा करना भी जीवन का उद्देश्य बनाओं।

 

इन उपदेशों को लिखकर स्वामीजी ने ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा है कि वह हमको ऐसी बुद्धि और शक्ति प्रदान करे कि हम इन नियमों को अपने आचरण में परिणत करके अपना जीवन सफल बनावें। हम अनुमान करते हैं कि यदि सभी मनुष्य इन सार्वदेशिक नियमों को अपना आदर्श बना लें तो इससे समाज व देश की उन्नति सहित मनुष्य जीवन उन्नत व सफल हो सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठक इन शिक्षाओं को अपने लिए उपयोगी पायेंगे और इससे लाभ उठायेंगे। हमारा निवेदन और सलाह है कि सभी गृहस्थियों को महर्षि दयानन्द लिखित सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ समुल्लासों सहित सप्तम् से दशम् समुल्लास भी अवश्य पढ़ने चाहियें और साथ हि संस्कार विधि में गृहस्थाश्रम प्रकरण को पढ़कर उससे गृहस्थ जीवन में सुख-शान्ति का लाभ लेना चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

स्तुता मया वरदा वेदमाता-21

सपञ्चोऽग्नि सपर्यत

प्रसंग है परिवार को एक सूत्र में बांधकर रखने के क्या उपाय हैं। मन्त्र कहता है- परिवार के लोग कहीं तो मिलकर बैठे। मिलकर बैठने का एक मात्र स्थान है- यज्ञ वेदि। यज्ञ जब भी करेंगे तब मिलकर बैठेंगे। यज्ञ करते हुए दोनों लोग परस्पर मिलकर कार्य सपादित करते हैं। इस समय ऋत्विज यज्ञ कराने वाले तथा यजमान यज्ञ करने वाले दोनों एक मत होकर यज्ञ करते हैं। ऋत्विज् यजमान का मार्गदर्शन करते हैं और यजमान ऋत्विज् के निर्देशों का पालन करते हैं। मन्त्र में निर्देश है। परिवार के लोग अग्नि की उपासना करो और कैसे करने चाहिये तो कहा गया – सयञ्च अर्थात् भलीप्रकार मिलकर सब लोग अग्नि की उपासना करें।

यज्ञ का स्थान विद्वानों का, बड़ों के निर्देश का पालन प्राप्त करने का स्थान है, यज्ञ की सफलता यज्ञ को श्रद्धापूर्वक सपन्न करने में है। यजमान आदरपूर्वक निर्देशों का पालन करते हुए यज्ञ सपादित करते हैं। जिस परिवार में प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक यज्ञ किया जाता है, वहाँ परस्पर प्रेमभाव बना रहता है। बड़ों व विद्वानों के प्रति आदर का भाव रहता है। यज्ञ करने से मनुष्य में उदारता का भाव उत्पन्न होता है। यज्ञ में मनुष्य देने का दान करने का सहयोग करने का भाव रखता है। यज्ञ से मन की संकीर्णता और स्वार्थ की वृत्ति समाप्त होती है। मनुष्य जब यज्ञ करने का विचार करता है, उसी समय उसके अन्दर सात्विक भाव उत्पन्न होते हैं। सात्विक विचारों का लक्षण यही बताया गया है। मनुष्य दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, परोपकार करना आदि विचार करता है, उस समय उसके मन में सतोगुण का उदय होता है। यज्ञ करने से मनुष्य की सात्विक वृत्ति का विस्तार होता है। यज्ञ से मन का विस्तार होता है। विस्तार खुलेपन का प्रतिक है। बन्धन है परोपकार मुक्ति है।

इसीलिये यज्ञ की भावना से कार्य करने का निर्देश किया है, श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं- इस संसार में यज्ञ भावना से रहित होकर कोई व्यक्ति बन्धन से  मुक्ति नहीं हो सकता। इसलिये मनुष्य को कोई भी कार्य यज्ञ भावना से युक्त होकर करना चाहिए। यज्ञ में समर्पण है, साथ है, साथ से संग को लाभ मिलता है तथा संवाद का अवसर भी प्राप्त होता है। समर्पण भी होता है, यही भाव परिवार में सब को एक साथ रखने के लिये आवश्यक है, उपयोगी है। मन्त्र कहता है- परिवार के लोग मिलकर यज्ञ करें, आदरपूर्वक यज्ञीय भावना से करें, इससे परिवार के सदस्यों के मन पवित्र और आदर की भावना से युक्त होते हैं। इसका परिणाम सब  परस्पर जुड़े रहते हैं।

मन्त्र का अन्तिम वाक्य है- आरा नाभिभिवामितः। जैसे यज्ञ करने वाले यज्ञ रूप नाभि से सभी बन्धे रहते हैं, उसी प्रकार परिवार के सदस्य भी केन्द्र से जुड़े रहते हैं। मन्त्र में उपमा दी गई है। जिस प्रकार गाड़ी आरे अक्ष से जुड़े रहते हैं और अपना-अपना कार्य करते हुए केन्द्र से बंधे रहते हैं। उसी प्रकार परिवार के सदस्यों का भी एक केन्द्र होना चाहिए, जिससे सभी सदस्य जुड़े रहें। जहाँ एक व्यक्ति के निर्देशन में परिवार चलता है, वहाँ सभी कार्य व्यवस्थित होते हैं, सभी एक दूसरे का ध्यान रखते हैं। जहाँ यज्ञीय भावना नहीं होती, वहां सब अपने-अपने बारे में ही सोचते हैं, वहां स्वार्थ बुद्धि होती है। स्वार्थ से मन में द्वेष भाव और अन्याय उत्पन्न होता है। अतः मन्त्र में दो बातों को एक साथ बताया है, घर में यज्ञ होना चाहिए, सभी लोग मिलकर श्रद्धा से यज्ञ करेंगे तो परिवार के लोग परस्पर आरे की भांति केन्द्र से जुडेंगे, बड़ों से सबन्ध बनाकर रखेंगे तभी परिवार एक होकर रह सकता है, परिवार में सुख, शान्ति बनी रह सकती है।

पृथिव्यादि भूतों के संयोग से शरीर में चेतनता उत्पन्न होती है: सत्येन्द्र सिंह आर्य

(वेदगोष्ठी 2013 के अवसर पर प्रस्तुत निबन्ध)

उपर्युक्त विषय चारवाक दर्शन का सिद्धान्त है। बौद्ध और जैन मतों की भांति चारवाक भी नास्तिक मत है। ये सृष्टिकर्त्ता ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने वैदिक धर्म के सिद्धान्तों की चर्चा अपने अमरग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में प्रथम दश समुल्लासों में की है। तथा वाममार्गियों  सहित आर्यावर्त्तीय (वेद विरुद्ध) मत पंथों की समालोचना एकादश समुल्लास में और बौद्ध, जैन व नास्तिक मतों की समालोचना द्वादश समुल्लास में है। महर्षि की यह मान्यता थी कि पाँच सहस्र वर्षों के पूर्व वेदमत से भिन्न दूसरा कोई भी मत न था क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने के कारण महाभारत युद्ध हुआ । इनकी अप्रवृत्ति से अविद्या अन्धकार के भूगोल में विस्तृत होने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिसके मन में जैसा आया, वैसा मत चलाया। उन सब मतों में चार मत अर्थात् जो वेदविरुद्ध पुराणी, जैनी, किरानी और कुरानी सभी मतों के मूल हैं, वे क्रम से एक के पीछे दूसरा-तीसरा-चौथा चला है। अब इन चारों की शाखा एक सहस्र (यह संया तो महर्षि जी के समय की है, अब तो लपट बापुओं, बाबाओं, व्यापारी गुरुओं और गुरुमाँओं की आई बाढ़ के कारण यह संया कई सहस्र हो गयी होगी) से कम नहीं है। उन्हीं में से एक यह चारवाक मत है।

चारवाक मत की चर्चा आरा करते हुए ऋषिवर लिखते हैं- ‘‘कोई एक बृहस्पति नामा’’ पुरुष हुआ था जो वेद, ईश्वर और यज्ञादि उत्तम कर्मों को भी नहीं मानता था। उनका मत –

यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।

(सर्वदर्शनसंग्रह चारवाकदर्शन)

कोई मनुष्यादि प्राणी मृत्यु के अगोचर नहीं है अर्थात् सबको मरना है इसलिए जब तक शरीर में जीव रहै, तब तक सुख से रहै। जो कोई कहे कि ‘‘धर्माचरण से कष्ट होता है, जो धर्म को छोड़ें तो पुनर्जन्म में बड़ा दुःख पावें।’’ उसको चारवाक उत्तर देता है कि अरे भोले भाई! जो मरे के पश्चात् शरीर भस्म हो जाता है कि जिसने खाया पिया है, वह पुनः संसार में न आवेगा। इसलिए जैसे हो सके वैसे आनन्द में रहो, लोक में नीति से चलो, ऐश्वर्य को बढ़ाओ और उससे इच्छित भोग करो। यही लोक समझो, परलोक कुछ नहीं । देखो! पृथिवी, जल, अग्नि, वायु इन चार भूतों के परिणाम से यह शरीर बना है, इसमें इनके योग से चैतन्य उत्पन्न होता है। जैसे मादक द्रव्य खाने-पीने से नशा उत्पन्न होता है, इसी प्रकार जीव शरीर के साथ उत्पन्न होकर शरीर के नाश के साथ आप भी नष्ट हो जाता है, फिर किसको पाप-पुण्य का फल होगा।

तच्चैतन्यविशिष्टदेह एव आत्मा

देहातिरिक्त आत्मनि प्रमाणाभावात्।।

– चारवाक दर्शन

इस शरीर में चारों भूतों के संयोग से जीवात्मा उत्पन्न होकर उन्हीं के वियोग के साथ ही नष्ट हो जाता है, क्योंकि मरे पीछे कोई भी जीव प्रत्यक्ष नहीं होता। हम एक प्रत्यक्ष ही को मानते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष के बिना अनुमानदि होते ही नहीं। इसलिए मुय प्रत्यक्ष के सामने अनुमानादि गौण होने से उनका ग्रहण नहीं करते। सुन्दर स्त्री के आलिङ्गन से आनन्द का करना पुरुषार्थ का फल है।

उपरिलिखित चर्चा से स्पष्ट है कि चारवाक मत नास्तिकता का पर्यायवाची है। नास्तिक तो बौद्ध और जैन भी हैं, क्योंकि चारवाकों के समान वे भी ईश्वर और वेद की निन्दा करते और जगद्रचना के लिए किसी चेतन सत्ता के अस्तित्व को नहीं मानते हैं। परन्तु वे जीवन, चेतन, पुनर्जन्म, परलोक और मुक्ति के साथ प्रत्यक्षादि प्रमाणों को भी मानते हैं।

वैदिक धर्म जहाँ त्रैतवाद (तीन अनादि नित्य सत्ताओं की अवधारणा) को मानता है, वहीं चारवाक ईश्वर की सत्ता को नकारता है, जीव को शरीर के साथ उत्पन्न होने वाला और शरीर के साथ ही नष्ट होने वाला मानता है। पुनर्जन्म और पाप-पुण्य , परलोक आदि के लिए वहाँ कोई स्थान नहीं है, प्रमाणों में केवल प्रत्यक्ष प्रमाण ही चारवाक को स्वीकार्य है। पंच महाभूतों में भी उसने आकाश को गायब कर दिया, विषयभोग को पुरुषार्थ का फल घोषित कर दिया। उसकी विचारधारा की नींव ‘खाओ, पियो और मौज करो’ श्वड्डह्ल, ष्ठह्म्द्बठ्ठद्म ्नठ्ठस्र क्चद्ग रूद्गह्म्ह्म्ब् की नीति पर टिकी है। यह सब बातें वेद की उस मान्यता के विपरीत बैठती हैं जहाँ कहा है-

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।

– यजुः 40/2

अर्थात् मनुष्य इस संसार में सौ वर्ष तक वेदोक्त, धर्मानुसार, निष्काम कर्म करते हुए जीने की इच्छा करे।

जिस यज्ञ को चारवाक नहीं मानता, वैदिक मान्यता के अनुसार जो धर्म के तीन स्कन्ध- विद्याध्ययन, यज्ञ और दान माने गए हैं, उनमें यज्ञ है। यहाँ तो पक्षपातरहित न्यायाचरण, सत्यभाषणादि ईश्वराज्ञा जो वेदों से अविरुद्ध है, उसी को धर्म की संज्ञा दी गयी है। यज्ञ उसका अङ्ग है।

चारवाक की बातों का ऋषिवर ने युक्तियुक्त उत्तर दिया है। वे लिखते हैं- ‘‘ये पृथिव्यादि भूत जड़ हैं, उनसे चेतन की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती। जैसे अब माता-पिता के संयोग से देह की उत्पत्ति होती है, वैसे ही आदि सृष्टि में मनुष्यादि शरीरों की आकृति परमेश्वर कर्त्ता के बिना कभी नहीं हो सकती। मद के समान चेतन की उत्पत्ति और विनाश नहीं होता, क्योंकि मद चेतन को होता है, जड़ को नहीं। पदार्थ ‘‘नष्ट’’ अर्थात् अदृष्ट होते हैं, परन्तु अभाव किसी का नहीं होता, इसी प्रकार अदृश्य होने से जीव कााी अभाव न मानना चाहिए। जब जीवात्मा सदेह होता है तभी उसकी प्रकटता होती है। जब शरीर को छोड़ देता है, तब वह शरीर जो मृत्यु को प्राप्त हुआ है, वह जैसा चेतनयुक्त पूर्व था वैसा नहीं हो सकता। इस बात की पुष्टि में महर्षि दयानन्द जी बृहदारण्यक का वह वचन उद्धृत करते हैं जिसमें याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी मैत्रेयि से कहते हैं कि ‘‘आत्मा अविनाशी है जिसके योग से शरीर चेष्टा करता है।’’ जब जीव शरीर से पृथक् हो जाता है तब शरीर में ज्ञान कुछ भी नहीं रहता। आत्मा देह से पृथक् है, इसी कारण शरीर में उसके संयोग से चेतनता और वियोग से जड़ता होती है।

महर्षि जी ने आगे स्पष्ट किया कि जो सुन्दर स्त्री के साथ समागम ही को पुरुषार्थ का फल मानो तो क्षणिक सुख और उससे दुःख भी होता है, वह भी पुरुषार्थ ही का फल होगा। जब ऐसा है तो स्वर्ग की हानि होने से दुःख भोगना पड़ेगा। इससे मुक्ति सुख की हानि हो जाती है, इसलिए यह पुरुषार्थ का फल नहीं।

चारवाक जो दुःख-संयुक्त सुख का त्याग करते हैं, वे मूर्ख हैं। जैसे धान्यार्थी धान्य का ग्रहण और भुस का त्याग करता है, वैसे इस संसार में बुद्धिमान् सुख का ग्रहण और दुःख का त्याग करें। क्योंकि इस लोक के उपस्थित सुख को छोड़ के अनुपस्थित स्वर्ग के सुख की इच्छा कर, धूर्तकथित वेदोक्त अग्निहोत्रादि कर्म, उपासना और ज्ञानकाण्ड का अनुष्ठान परलोक के लिए करते हैं, वे अज्ञानी है। जो परलोक है ही नहीं, तो उसकी आशा करना मूर्खता का काम है। क्योंकि-

अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्।

बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः।।

(चारवाक दर्शन)

चारवाक मत प्रचारक ‘बृहस्पति’ कहता है कि- ‘‘अग्निहोत्र, तीन वेद, तीन दण्ड और भस्म का लगाना बुद्धि और पुरुषार्थ रहित पुरुषों ने जीविका बना ली है।’’ किन्तु काँटे लगने आदि से उत्पन्न हुए दुःख का नाम ‘नरक’, लोकप्रसिद्ध राजा ‘परमेश्वर’ देह का नाश होना ‘मोक्ष’ है, अन्य कुछ भी नहीं है।

चारवाक की घोषणाका उत्तर देते हुए महर्षि जी ने कहा कि- ‘‘विषयरूपी सुखमात्र को पुरुषार्थ का फल मानकर विषयदुःख निवारणमात्र में कृतकृत्यता और स्वर्ग मानना मूर्खता है। अग्निहोत्रादि यज्ञों से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि द्वारा आरोग्यता का होना, उससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है, उसको न जानकर, वेद और वेदोक्त धर्म की निन्दा करना धूर्तों का काम है। जो त्रिदण्ड और भस्मधारण का खण्डन है, सो ठीक है।’’

‘‘यदि कण्टकादि से उत्पन्न ही दुःा का नाम नरक हो तो उससे अधिक महारोगादि नरक क्यों नहीं? यद्यपि राजा को ऐश्वर्यवान् और प्रजापालन में समर्थ होने से श्रेष्ठ मानें तो ठीक है परन्तु जो अन्यायकारी पापी राजा हो, जो उसको भी परमेश्वरवत्् मानते हो, तो तुहारे जैसा कोई भी मूर्ख नहीं। शरीर का विच्छेद होना मात्र मोक्ष है तो गदहे, कुत्ते आदि और तुममें क्या भेद रहा, किन्तु आकृति ही मात्र भिन्न रही।’’

द्वादश समुल्लास में निर्दिष्ट चारवाक और बौद्धमत का विवरण सायणाचार्य विरचित ‘सर्वदर्शन संग्रह’ पर ही प्रधान रूप से आश्रित है क्योंकि उस समय इन दोनों मतों के अन्य पुस्तक उपलध न थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने चारवाक दर्शन की मुय-मुय बातों को दर्शाने के लिए उनके निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किये हैं-

अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तथाऽनिलः।

केनेदं चित्रितं तस्मात् स्वभावात्तद्व्यवस्थितिः।। 1।।

न स्वर्गो नाऽपवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।

नैव वर्णाश्रमादीनां क्रि याश्च फलदायिकाः ।। 2।।

पशुश्चेन्निहतः स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति।

स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते।। 3।।

मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेतृप्तिकारणम्।

गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थं पाथेयकल्पनम्।। 4।।

स्वर्गस्थिता यदा तृप्तिं गच्छेयुस्तत्र दानतः।

प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते।। 5।।

यावज्जीवेत्सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।। 6।।

यदि गच्छेत्परं लोकं देहादेष विनिर्गतः।

कस्माद् भूयो न चायाति बन्धुस्नेहसमाकुलः।। 7।।

ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणैर्विहितस्त्विह।

मृतानां प्रेतकार्याणि न त्वन्यद्विद्यते क्वचित्।। 8।।

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्तनिशाचराः।

जर्फ रीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।। 9।।

(चारवाक दर्शन, श्लोक 1 से 9)

चारवाक, आभाणक, बौद्ध और जैन भी जगत् की उत्पत्ति स्वभाव से मानते हैं। जो-जो स्वाभाविक गुण हैं, उस-उससे द्रव्य संयुक्त होकर सब पदार्थ बनते हैं, कोई जगत् का कर्त्ता नहीं ।। 1।।

परन्तु इनमें से चारवाक ऐसा मानता है। किन्तु परलोक और जीवात्मा बौद्ध-जैन मानते हैं, चारवाक नहीं। शेष इन तीनों का मत कोई-कोई बात छोड़ के एक सा है।

न कोई स्वर्ग, न कोई नरक और न कोई परलोक में जाने वाला आत्मा है। और न वर्णाश्रम की क्रिया फलदायक है।। 2।।

जो यज्ञ में पशु को मार होम करने से वह स्वर्ग को जाता हो, तो यजमान अपने पिता आदि को मार यज्ञ में होम करके स्वर्ग को क्यों नहीं भेजता।। 3।।

जो मरे हुए जीवों को श्राद्ध और तर्पण तृप्तिकारक होता है तो परदेश में जाने वाले मार्ग में निर्वाहार्थ अन्न, वस्त्र, धन को क्यों ले जाते? क्योंकि जैसे मृतक के नाम से अर्पण किया हुआ स्वर्ग में पहुँचता है, तो परदेश में जाने वालों के लिए उनके सबन्धी घर में अर्पण कर देशान्तर में पहुँचा देवें । जो यह नहीं पहुँचता, तो स्वर्ग में क्यों कर पहुँच सकता है? ।। 4।।

जो मर्त्यलोक में दान करने से स्वर्गवासी तृप्त होते हैं, तो नीचे देने से घर के ऊपर स्थित पुरुष तृप्त क्यों नहीं होता? ।। 5।।

इसलिए जब तक जीवे, तब तक सुख से जीेवे। जो घर में पदार्थ न हो तो ऋण करके आनन्द करे,ऋण देना नहीं पड़ेगा। क्योंकि जिस शरीर में जीव ने खाया पिया है, उन दोनों का पुनरागमन न होगा, फिर किससे कौन माँगे और देवेगा?।। 6।।

जो लोग कहते हैं कि मृत्यु समय जीव शरीर से निकलके परलोक को जाता है, यह बात मिथ्या है, क्योंकि जो ऐसा होता, तो कुटुब के मोह से बद्ध होकर पुनः घर में क्यों नहीं आ जाता?।।7।।

इसलिए यह सब ब्राह्मणों ने अपनी जीविका का उपाय किया है। जो दशगात्रादि मृतक क्रिया करते हैं, यह सब उनकी जीविका की लीला है।।8।।

वेद के करने हारे भांड, धूर्त्त और राक्षस ये तीन हैं। ‘जर्फरी’ ‘तुर्फरी’ इत्यादि पण्डितों के धूर्त्ततायुक्त वचन हैं।। 9।।

इन सब बातों का बुद्धि संगत उत्तर ऋषिवर ने बिन्दुवार दिया है। इनमें जो कुछ बातें ठीक थीं, उनको अखण्डनीय कहा है, यह स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज का ऋषित्व है।

विना चेतन परमेश्वर के निर्माण किये जड़ पदार्थ आपस में स्वभाव से नियमपूर्वक मिलकर उत्पन्न नहीं हो सकते। इस वास्ते सृष्टि का कर्त्ता अवश्य होना चाहिए। जो स्वभाव से हों तो द्वितीय पृथिवी, सूर्य,चन्द्र आप से आप क्यों नहीं होते।। 1।।

‘स्वर्ग’ सुखभोग और ‘नरक’ दुःखभोग का नाम है। जो जीवात्मा न होता तो सुख-दुःख का भोक्ता कौन हो सके? जैसे इस समय सुख-दुःख का भोक्ता जीव है, वैसे परजन्म में भी होता है। क्या सत्य भाषणादि दया आदि क्रिया भी वर्णाश्रमियों की निष्फल होंगी? कभी नहीं।। 2।।

पशु मार के होम करना वेद में कहीं नहीं है, इसलिए यहाण्डन अखण्डनीय है और मृतकों का श्राद्ध भी कपोलकल्पित होने से वेद विरुद्ध पुराण मत-वालों का मत है।। 3,4,5।।

जो वस्तु है उसका अभाव कभी नहीं होता। तो विद्यमान जीव का अभाव कभी नहीं हो सकता। देह भस्म हो जाता है, जीव नहीं। जीव तो दूसरे शरीर में जाता है, इसलिए जो ऋणादि से सुख भोग करेगा, वह दूसरे जन्म में अवश्य भोगेगा।। 6।।

देह से निकल के जीव स्थानान्तर और शरीरान्तर को प्राप्त होता है। उसको पूर्वजन्म का ज्ञान कुछ भी नहीं रहता, इसलिए पुनश्च कुटुब में नहीं आता।। 7।।

हाँ ब्राह्मणों ने प्रेत का कर्म जीविका के लिए किया है, वेदोक्त नहीं।। 8।।

जो चारवाक आदि ने असल वेद देखे होते, तो वेद की निन्दा कभी न करते। भाँड, धूर्त्त और निशाचरवत् पुरुष टीकाकार हुए हैं, उन्हीं की धूर्त्तता है, वेद की नहीं। परन्तु शोक है चारवाक, आभाणक ,बौद्ध और जैनियों पर कि इन्होंने मूल वेद भी न सुने, न देखे और न किसी विद्वान् से पढ़े, इसलिए भ्रष्ट टीका और वाममार्गियों की लीला देख के वेदों से विरोध करके, नष्ट -भ्रष्ट बुद्धि होकर वेदों की निन्दा करने लगे हैं। यही वाममार्गियों की दुष्ट चेष्टा चारवाक, बौद्ध और जैनों के होने का कारण है, क्योंकि चारवाक आदि भी वेदों का सत्य अर्थ नहीं जान सके।। 9।।

ऋषिवर ने चारवाक शब्द का अर्थ किया है- जो बोलने में प्रगल्भ और विशेषातार्थ वैतण्डिक होता है। उनकी पहचान है नास्तिकता, वेद और ईश्वर की निन्दा पर मत द्वेष, यज्ञ का विरोध और जगत् का कर्त्ता कोई नहीं मानना आदि। चारवाक ने वर्णाश्रम व्यवस्था की भी निन्दा की है। जबकि सत्य यह है कि वर्णाश्रम व्यवस्था के बिना कोई समाज नहीं चल सकता। भले ही ब्राह्मण को बुद्धि जीवी, अध्यापक, विधायक, उपदेशक, पुरोहित । (ढ्ढठ्ठह्लद्गद्यद्यद्गष्ह्लह्वड्डद्यह्य, ञ्जद्गड्डष्द्धद्गह्म्ह्य, ष्टद्यद्गह्म्द्दब्, छ्वह्वस्रद्दद्ग, ष्ठशष्ह्लशह्म्) आदि नामों से पुकारा जाये, क्षत्रिय को पुलिस, सेना, सुरक्षाबल आदि नाम दे दिये जाएं, वैश्य को व्यापारी (क्चह्वह्यद्बठ्ठद्गह्यह्यद्वड्डठ्ठ, ञ्जह्म्ड्डस्रद्गह्म्, ढ्ढठ्ठस्रह्वह्यह्लह्म्द्बड्डद्यद्बह्यह्ल) आदि नामों से अभिहित किया जाए और शूद्र को श्रमिक, मजदूर या लेबरर (रुड्डड्ढशह्वह्म्द्गह्म्) कहा जाय। इसी प्रकार ब्रह्मचारी को विद्यार्थी, गृहस्थ को (॥शह्वह्यद्ग-॥शद्यस्रद्गह्म्) और वानप्रस्थ संन्यासी को अवकाश प्राप्त (क्रद्गह्लद्बह्म्द्गस्र शह्म् क्कद्गठ्ठह्यद्बशठ्ठद्गह्म्) जैसे नाम दिये जायें। प्राचीन ऋषियों ने इस प्रकार के विभाजन को ही वर्णाश्रम के रूप में व्यवस्थित कर दिया था। इनके पालन से होने वाले लाभों से कौन इनकार कर सकता है?

वेदों के कर्त्ता धूर्त्तयजुर्वेद के 23 वें अध्याय के 19से 31 तक के मन्त्रों का महीधर ने इतना अश्लील अर्थ किया है कि उसे देखकर कोई भी यही कहेगा कि ‘‘त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः।’’ वैसा करने पर महीधर स्वयं ग्लानि अनुभव कर 32 वें मन्त्र का अर्थ करते हुए कहते हैं- ‘‘अश्लील भाषणेन दुर्गन्धं प्राप्तानि अस्माकं मुखानि सुरभीणि करोत्वित्यर्थः।’’ अर्थात् इस अश्लील भाषण से जो हमारे मुख अश्लील हो गये हैं, उन्हें यज्ञ सुगन्धित कर दे। मन्त्रों में न अश्लील शब्द हैं और न मन्त्रार्थ में कोई अश्लीलता है। स्वयं ही पहले जानबूझकर अश्लीलता आरोपित कर दी और स्वयं ही उस अपराध के लिए प्रायश्चित की बात कह दी। महीधर का अर्थ मात्र इसलिए त्याज्य नहीं कि वह अश्लील और बेहूदा है अपितु इसलिए कि मन्त्रों का वह अर्थ है ही नहीं।

जर्फरी तुर्फरी- इन शदों से निर्दिष्ट मन्त्र इस प्रकार है-

सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका।

उदन्यजेव जेमना मदेरू ता मे जराय्वजरं मरायु।।

– ऋ ग्वेद 10/106/6

यह मन्त्र (13/5 निरुक्त में) इस प्रकार व्यायात है-

(सृण्या इव जर्भरी तुर्फरीतू) हे द्यावा पृथिवी के स्वामी जगदीश्वर। तू दात्री की तरह भर्त्ता और हन्ता है। (नैतोशा इव तुर्फरी पर्फ रीका) तू शत्रुहन्ता राजकुमार की तरह दुष्टों को शीघ्र नष्ट करने वाला और उन्हें फाड़ने वाला है, (उदन्यजा इव जेमना मदेरु) और तू चान्द्रमस अथवा सामुद्ररत्न की तरह मन को जीतने वाला अर्थात् अपनी ओर खींचने वाला तथा प्रसन्नताप्रद है, (ता मे मरायु जरायु) हे अश्वी! वह तू मेरे मरणधर्मा शरीर को (अजरम्) बुढ़ापे से रहित कर।

इससे स्पष्ट है कि वेदमन्त्रों के वास्तविक अर्थों को न जानने वाले ही वेदों के रचयिता को धूर्त्तादि नामों से पुकार सकते हैं। यदि चारवाक मत के संस्थापक ने वेदों का प्रामाणिक अर्थ शतपथब्राह्मणादि के आधार पर किया गया देखा होता तो वेदों के सबन्ध में उनकी विचारधारा इतनी दूषित न होती। वे बिना विचारे वेदों की निन्दा करने पर तत्पर हुए। उनमें इतनी विद्या ही नहीं थी जो सत्यासत्य का विचार कर सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन करते। वास्तव में वाममार्गियों ने मिथ्या कपोल कल्पना करके वेदों के नाम से अपना प्रयोजन सिद्ध करना अर्थात् यथेष्ट मद्यपान मांस खाने और परस्त्री गमन करने आदि दुष्ट कामों की प्रवृत्ति होने के अर्थ वेदों को कलङ्कित किया। इन्हीं बातों को देखकर चारवाक वेदों की निन्दा करने लगे और पृथक् एक वेद विरुद्ध अनीश्वरवादी अर्थात् नास्तिक मत चला दिया।

– जागृति विहार, मेरठ

‘‘ईश्वर की सिद्धि में प्रत्याक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं है’’ – की समीक्षा – डॉ. कृष्णपालसिंह

[वर्ष 2013 में ऋषि – मेले के अवसर पर आयोजित वेद-गोष्ठी में प्रस्तुत एवं पुरस्कृत यह शोध लेख पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है।]                                           -सपादक

त्रद्धि जैन सिद्धान्त एक ही है पृथक् नहींःमहर्षि दयानन्द ने सर्वदर्शनसंग्रह, राजाशिव प्रसाद कृत ‘इतिहास तिमिरनाशक’ ग्रन्थ के आधार पर बौद्ध और जैन मतावलबियों को एक ही माना है। चाहे बौद्ध कहो, चाहे जैन कहो एक ही बात है। एतद्विषयक कुछ सन्दर्भ प्रस्तुत हैं। राजा शिवप्रसाद जो जैन मत के अनुयायी और महर्षि के घोर विरोधी थे। उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘इतिहासतिमिरनाशक’ में लिखा है, कि इनके दो नाम हैं, एक जैन और दूसरा बौद्ध। ये पर्यायवाची शब्द हैं। परन्तु बौद्धों में वाममार्गी मद्यमांसाहारी बौद्ध हैं उनके साथ जैनियों का विरोध है परन्तु जो महावीर और गौतमगण धर हैं उनका नाम बौद्धों ने बुद्ध रखा है और जो जैनियों ने गणधर और ‘जिनवर’ इसमें इनकी परपरा जैन मत है।1 इसी ग्रन्थ के तृतीय भाग में राजा शिवप्रसाद ने लिखा है कि स्वामी शंकाराचार्य से पहले जिनको हुए कुल एक हजार वर्ष के लगभग गुजरे हैं सारे भारतवर्ष में बौद्धों अथवा जैन मत (धर्म) फैला हुआ था, इस पर नोटः- बौद्ध कहने से हमारा आशय उस मत से है जो महावीर के गणधर गौतम स्वामी के समय से शंकर स्वामी के समय तक वेदविरुद्ध सारे भारत वर्ष में फैल रहा था और जिसको अशोक सप्रति महाराज ने माना उससे जैन बाहर किसी तरह नहीं निकल सकते। ‘जिन’ जिससे जैन निकला और बुद्ध जिससे बौद्ध निकला दोनों पर्यायवाची शब्द हैं, कोश में दोनों का अर्थ एक ही लिखा  है और गौतम को दोनों ही मानते हैं, वर्ना दीपवंश इत्यादि पुराने बौद्ध ग्रन्थों में शाक्य मुनि गौतम बुद्ध को अक्सर महावीर ही के नाम से लिखा है। उनके समय में एक उनका मत रहा होगा। हमने जो जैन न लिखकर गौतम के मत वालों को बुद्ध लिखा उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि उनको दूसरे देशवालों ने बौद्ध ही के नाम से लिखा है।2 अमरकोश कार अमरसिंह ने भी अपने ग्रन्थ में ऐसा ही लिखा है।

सर्वज्ञः सुगतो बुद्धो धर्मराजस्तथागतः।

समन्तभद्रो भगवान।।3

स्वामी वेदानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के 12वें समुल्लास के ऊपर एक टिप्पणी में लिखा है कि ‘वैदिक धर्म के विरोध में उठे ये सप्रदाय मनुष्यों को ईश्वर मानने के कारण एक हैं। बौद्धों ने परमेश्वर की सत्ता को अस्वीकार तो किया किन्तु उसके स्थान में बुद्ध को लोकनाथ (परमेश्वर) तथा सर्वज्ञ मानकर उसकी उपासना आराधना करने लगे। जैन भी ईश्वर को न मान ऋषभदेव आदि 24 तीर्थकंरों को सर्वज्ञ मान कर उनकी पूजा अर्चना करते हैं। यतः बुद्ध तथा जिन वर्तमान में जब इनको उपास्य मानने की भावना का उदय हुआ प्रत्यक्ष नहीं है, अतः उनकी मूर्ति बनाकर पूजा प्रचलित हुई।’

ईश्वर को मानने वाले जो-जो गुण ईश्वर में मानते हैं, उन-उन सबका आरोप जैन, बौद्धों ने अपने सादि आराध्यों में किया। दोनों ने अपने -अपने आराध्यों को समन्तभद्र, अर्थात् सब प्रकार से निर्दोष कहा है किन्तु बुद्ध तथा महावीर रोगाक्रान्त हुए। रोगाक्रान्त दोष का भूल का फल है। अतः जहाँ उनके ‘समन्तभद्र’ पने का निरास होता है, वहाँ उनके सर्वज्ञ होने का भी खण्डन हो जाता है।4 ……..स्वामी वेदानन्द जी ने ब्र. शीतलप्रसाद जैन जो दिगबर जैन सप्रदाय के लध प्रतिष्ठित विद्वान् हैं उनकी ‘जैन बौद्धतत्वज्ञान’ नामक पुस्तक के अनेक उदाहरण देते हुए लिखा है कि जहाँ तक मैंने बौद्धों व निर्वाण और निर्वाण के मार्ग का अनुभव करके विचार किया तो उसका बिल्कुल मेलान जैनियों के निर्वाण और निर्वाण के मार्ग से हो जाता है…..हमें तो ऐसा अनुमान होता है कि जैसे जैनों में एक सिद्धान्त मानते हुए भी दिगबर व श्वेताबर दो भेद पड़ गये उसी तरह श्री महावीर स्वामी के समय में ही वस्त्र सहित साधु चर्या स्थापित करने से बौद्ध संघ जैन संघ से पृथक् होगया।………हमारी राय में जैन व बौद्ध में कुछ भी अन्तर नहीं है।5 चाहे बौद्ध धर्म प्राचीन कहें या जैन धर्म प्राचीन कहें एकही बात है।……गौतम बुद्ध ने साधु मात्र की चर्या सुगम की, सिद्धान्त वही रखा।…….इस तरह जैन तत्व ज्ञान में समानता है।6

उपर्युक्त दीर्घ चर्चा करने का हमारा उद्देश्य इतना ही है कि ये दोनों सप्रदाय एक ही हैं, भिन्न नहीं। अतः चाहे बौद्ध कहो या चाहे जैन कहो कोई भेद नहीं है। इन्होंने प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति तथा अनुपलधि रूप छः (6) प्रमाणों के आधार पर ईश्वर की असिद्धि करने का यत्न किया। परन्तु आचार्य उदयन ने स्वरचित न्यायकुसुमाञ्जलि के तृतीय स्तवक में इनके विचारों का प्रबल प्रत्ययान किया है। आचार्य विश्वेश्वर ने उक्त ग्रन्थ की टीका स्पष्ट एवं अति सरल संक्षिप्त रूप में की है। इस लेा में उनके विचारों का पुष्कल मात्रा में उपयोग किया गया है। महर्षि दयानन्द ने भी 12 वें समुल्लास में इनके विचारों तथा इनके सिद्धान्त, ग्रन्थों का उद्धरहण देते हुए सटीक समीक्षा की है। उन्होंने लिखा है कि ‘जिसलिये हम इस समय परमेश्वर को नहीं देखते इसलिये कोई सर्वज्ञ अनादि परमेश्वर प्रत्यक्ष नहीं है, जब ईश्वर में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं तो अनुमान भी नहीं घट सकता, क्योंकि एकदेश प्रत्यक्ष के बिना अनुमान नहीं हो सकता।जब प्रत्यक्ष, अनुमान नहीं तो आगम अर्थात् नित्य अनादि सर्वज्ञ परमात्मा का बोधक शब्द प्रमाण भी नहीं हो सकता। जब तीनों प्रमाण नहीं तो अर्थवाद अर्थात् स्तुति -निन्दा-परकृति अर्थात् पराये चरित्र का वर्णन और पुराकल्प अर्थात् इतिहास का तात्पर्य भी नहीं घट सकता। और अन्यार्थ प्रधान अर्थात् बहुब्रीहि समास के तुल्य परोक्ष परमात्मा की सिद्धि का विधान नहीं हो सकता। पुनः ईश्वर के उपदेष्टाओं से सुने बिना अनुवाद भी कैसे हो सकता है।’7

सत्यार्थ प्रकाश के उपर्युक्त सर्न्दा में छः (6) प्रमाणों द्वारा ईश्वर की सत्ता का निषेध किया गया है। महर्षि ने उसका समाधान उसी दार्शनिक परिपेक्ष में किया है। परन्तु हम यहाँ पर न्यायकुसुमाञ्जलि के तृतीय स्तवक के आधार पर समीक्षा करने का प्रयास करेंगे।

ईश्वर की अभावसिद्धि में अनुपलधि की समीक्षाः

इहभूतले घटाभाव वदीश्वर स्याप्यनुपलधेः अभावस्य ग्रहात्।8

अर्थात् इस भूतल में घटाभाव के समान ईश्वर की अनुपलधि से उसका भी अभाव ग्रहण होने से ईश्वर नहीं है। तात्पर्य यह है कि भूतल में घटाभाव जैसे अनुपलधि से सिद्ध होता है वैसे ही ईश्वर के प्रत्यक्ष न होने से उसका भी अनुपलधि से आाव ग्रहण नहीं होता तो प्रत्यक्ष के अयोग्य ‘शशशृण्ङ्ग का भी अभाव सिद्ध नहीं होगा।3 इस पूर्वपक्ष के समाधान में आचार्य उदयन का कहना है कि ‘प्रत्यक्ष के अयोग्य परमात्मा में योग्यनुपलधि कहाँ घटता है? जिससे ईश्वर का अभाव सिद्ध हो। और जो अनुपलधि पाई जाती है वह केवल अनुलधि रूप से अभाव साधिका नहीं है अन्यथा बौद्धाभिमत आकाश, धर्माधर्म आदि अप्रत्यक्ष पदार्थों का भी लोप हो जायेगा। अतः अनुपलधि मात्र से ईश्वर का अभाव सिद्ध नहीं होता है। और आपने जो यह कहा है कि योग्यानुपलधि को अभाव साधिका का मानने पर प्रत्यक्ष के अयोग्य होने से शशशृङ्ग का अभाव अनुपलधि से सिद्ध नहीं होगा । आपका यह प्रतिबन्ध भी कहाँ बनता है? क्योंकि प्रत्यक्ष के अयोग्य (शश) श्रृङ्ग का बाघ हम कहाँ करते हैं, हम तो शृङ्ग में शशीयत्व, शशसबन्ध का निषेध करते हैं, शशशृङ्ग नामक पदार्थ का निषेध नहीं करते हैं। श्रृङ्ग प्रत्यक्ष के योग्य ही है।9

अभिप्राय यह है कि अनुपलधि अभाव साधिका नहीं है अपितु प्रत्यक्ष योग्यानुपलधि अर्थात् प्रत्यक्ष योग्य पदार्थ की अनुपलधि उसकी अभाव साधिका है। यहाँ यह भी जानना चाहिये कि केवल अनुपलधि को यदि अभाव साधिका मान लिया जायेगा तब तो बौद्धाभिमत आकाश धर्माधर्म आदि पदार्थ भी दिखाई न देने के कारण अनुपलधि मात्र से अभाव सिद्ध हो जायेगा। परन्तु बौद्ध इन पदार्थों की सत्ता मानते हैं। इस कारण अनुपलधिमात्र को अभाव साधिका नहीं माना जा सकता अपितु योग्यानुपलधि ही अभाव साधिका है।

‘प्रत्यक्षयोग्य परमात्मा में योग्यानुपलधि कहाँ है, वही बाधिका है और जो केवल अनुपलधि मात्र पाई जाती है, वह अभाव साधिका मान लिया जाय तो बौद्धाभिमत आकाश, धर्माधर्म आदि का विलोप हो जायेगा।’

आकाशादि अप्रत्यक्ष अर्थों का भी अभाव मानना होगा, जो बौद्ध को अभिमत नहीं है। योग्यानुपलधि को अभाव साधक मानने में शशशृङ्ग का भी अभाव सिद्ध नहीं होगा यह जो प्रतिबन्ध दिया है उसका भाव अगर यह है कि हम प्रत्यक्ष के अयोग्य शशशृङ्गनामक किसी पदार्थ का निषेध नहीं करते हैं अपितु शशरूप आधार में प्रत्यक्ष योग्य शृङ्ग के संयोग सबन्ध का निषेध करते हैं। शृङ्ग तो प्रत्यक्ष के योग्य ही है इसलिये प्रतिबन्ध नहीं बन सकता।  अयोग्य शृङ्ग का निषेध नहीं करते हैं। तब उसकी सत्ता सिद्ध हो जायेगी यह शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि उसके विषय में साधक प्रभावों का अभाव ही है। इसलिये अनुपलधि ईश्वर के अभाव को सिद्ध नहीं करता। इस पर बौद्ध ने ईश्वर के अभाव सिद्धि के लिये एक अन्य अनुमान प्राप्त किया कि ‘ईश्वरः न क्षित्यादिकर्त्ता शरीर सबन्ध भावात प्रयोजना भावात च’10अर्थात् ईश्वर क्षित्यादिका न कर्त्ता हैं क्योंकि शरीर सबन्ध का अभाव होने से प्रयोजन के न होने के कारण। इस अनुमान वाक्य का अभिप्राय यह है कि परमात्मा के प्रत्यक्ष योग्य होने से उसके क्षिति कर्तृत्वादि कर्म भी प्रत्यक्ष के अयोग्य हैं। यहाँ जो अनुमान प्रयुक्त किया गया है उसका आधार शरीर सबन्ध और प्रयोजन ये दो कर्तव्य के व्यापक धर्म हैं।

‘यत्र यत्र कर्तृत्व तत्र तत्र शरीर सबन्धःप्रयोजन च’11 अर्थात् जहाँ जहाँ कर्त्ता होता है वहाँ वहाँ शरीर युक्त अवश्य होता है। और उस कार्य के करने में उसका कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होता है। परन्तु ईश्वर न शरीरी है और न ही सृष्टि के निर्माण में उसका अपना कोई स्वार्थ अथवा कारुण्यरूप प्रयोजन ही है। यदि उसका कोई स्वार्थ है तो वह पूर्ण काम नहीं रहेगा। अन्य आत्माओं के उद्धार की कारुण्य भावना इसलिये नहीं बनती है कि दुःखी प्राणी को देखने के बाद ही करुणा हो सकती है, उसके पूर्व नहीं। दुःख संसार काल में ही हो सकता है अतएवं करुणा भी संसार काल में ही हो सकती है, सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व नहीं।12इसलिए सृष्टि निर्माण में उसका कोई प्रयोजन भी नहीं है और शरीर सबन्ध भी नहीं है। अतः ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं हो सकता यह बौद्धों का पक्ष है।

इस पर नैयायिक आचार्य उदयन का कहना है कि बौद्धों ने जो अनुमान दिया है जिसे हम पहले भी दिखा चुके हैं विषय स्पष्टीकरणार्थ पुनः प्रस्तुत करने में कोई आपत्ति नहीं है-

ईश्वरः न क्षित्यादिकर्त्ता शरीरसबन्धावात् प्रयोजनाभावात् च।13

इस अनुमान वाक्य में ईश्वर पक्ष या आश्रय है, जब वही सिद्ध नहीं है तो यह हेतु ‘आश्रयासिद्ध हेत्वामास’ होने से साध्य को सिद्ध नहीं कर सकता है।14

आश्रयासिद्ध हेत्वाभासः इस हैत्वाभास को समझाने के लिये हेत्वाभास पद का अर्थ जानना भी आवश्यक है। ‘हेतुवद् आभासते इति हेत्वाभासः’ जो हेतु के समान भासित होता है वस्तुतः दोषयुक्त होने के कारण हेतु नहीं होता उसे हेत्वाभास कहते हैं। प्रकृत हेत्वाभास असिद्ध हेत्वाभास का एक वर्ग है। यह तीन प्रकार का होता है। (1) आश्रय सिद्ध (2) स्वरूपासिद्ध (3) व्याप्यत्वासिद्ध। प्रकृत स्थल पर आश्रयसिद्ध हेत्वाभास की ही चर्चा करेगें क्योंकि पूर्व पक्ष ने जो अनुमान दिया है वह आश्रयासिद्ध हेत्वाभास के अर्न्तगत आता है। इस का लक्षण है ‘आश्रयासिद्धो यथा, गगतारविन्दं सुरभिः अरविन्दत्वात् सरोजारविन्दवत्। अत्र गगनारविन्दं आश्रय सच नास्त्येव।15

जैसे आकाश कमल सुगन्धित होता है। यह प्रतिज्ञा क्योंकि वह कमल अथवा उसमें कमलत्व है (यह हेतु) सरोज में उत्पन्न कमल के समान (उदाहरण) यहाँ आकाश कमल आश्रय है वह होता ही नहीं है। बौद्धों ने जो अनुमान वाक्य दिया उसमें ईश्वर पक्ष या आश्रय हैं, जब वही सिद्ध नहीं है, इसलिये यह हेतु आश्रयासिद्ध हेतवाभास होने से साध्य को सिद्ध नही कर सकता है और यदि आश्रय सिद्धि से बचने के लिए ईश्वर की सत्ता मान लें तो जिस प्रमाण से उसकी सत्ता मानेंगे उसी धार्मिक ग्राहक प्रमाण से उसका क्षित्यादि कर्तव्य भी सिद्ध हो जायेगा। उस स्थिति में यह हेतु बाधित विषयत्व हेत्वाभास हो जायेगा। अतः एव दोनों प्रकार के हेत्वाभास होने से शरीर सबन्ध भावात् हेतु ईश्वर के अभाव का साधक नहीं हो सकता है।16

मिथ्याज्ञानवश ईश्वर की मान्यताः अब बौद्ध यह कहते हैं कि कुछ लोग मिथ्या ज्ञानवश ईश्वर को मानते हैं, उसका यह मिथ्याज्ञान, या भ्रम या असत्याति कहलाता है। इस असत्याति से ईश्वरवाद जिस परमात्मा को मानते हैं, उनको पक्ष बनाकर ‘ईश्वरः न क्षित्यादिकर्त्ता शरीर सबन्धाभावात् प्रयोजनाभावात् च’ यह अनुमान प्रस्तुत करते हैं अथवा ‘ईश्वरो नास्ति शरीरसबन्धाभावात् प्रयोजनाभावात्च’17यह अनुमान किया जा सकता है।

इसके समाधान में आचार्य उदयन का कहना है कि पहले अनुमान वाक्य में ईश्वर के कर्तव्य का अभाव सिद्ध किया जा रहा है। (क्षित्यादिकर्तृत्वाभाववानीश्वरः) उसमें ईश्वर विशेष्य और क्षित्यादि कर्तृत्वाभाव उसका विशेषण है। जबकि दूसरे अनुमान में ‘ईश्वर नास्ति’ में ईश्वर का अभाव प्रदर्शित किया जा रहा है। ‘यस्याभाव स तस्य प्रतियोगी इति नियमात्’ इस नियम के अनुसार जिसका अभाव होता है वह उस अभाव का प्रतियोगी कहलाता है। अतः ईश्वर अभाव का प्रतियोगी है, ‘विशेषता’ और ‘प्रतियोगिता’ दोनों ऐसे धर्म है जो किसी यथार्थ वस्तु में ही रह सकते हैं, मिथ्या या असत्याति से सिद्ध वस्तु में नहीं रह सकते क्योंकि विश्ेाष्यता का अर्थ वियोषणाश्रयता है, यह आश्रयता अभाव पदार्थ में नहीं रह सकती है और प्रतियोगिता अभाव विरोधी भावरूप ही होती है। अतः एवं प्रतियोगिता भी वस्तु में ही रह सकती है। इसलिये असत्याति से उपनीत ईश्वर न तो विशेष्य हो सकत है और न ही प्रतियोगी । अतः ईश्वर के अभाव साधक दोनों अनुमान नहीं बन सकते।18

योग्यानुपलधि ही अभावसाधिका है अनुपलधिमात्र नहींःजैसा कि हम यह बात पहले भी कह चुके हैं कि योग्यानुपलधि को अभाव साधिकमान से शशशृङ्ग का भी अभाव सिद्ध नहीं होगा क्योंकि वह प्रत्यक्ष के योग्य नहीं है, यह प्रतिबन्धक कहा गया है। यह पूर्वपक्ष का विचार है। अब सिद्धान्त पक्ष का इस विषय में यह कहना है कि हम अयोग्य शशशृङ्ग का अभाव सिद्ध नहीं करते हैं अपितु प्रत्यक्षयोग्य शृङ्ग का शश के साथ सबन्ध का निरास करते हैं, और शशशृङ्ग का निषेध न करने से उसका भाव सिद्ध नही हो सकता है क्योंकि उसका साधक कोई प्रमाण है ही नहीं। यदि आप शशशृङ्ग भी प्रत्यक्ष के योग्य है, और उसकी अनुपर्त्गव्ध योग्यानुपलधि ही है। अब यह प्रश्न उठता है कि यदि शशशृङ्ग प्रत्यक्ष के योग्य है तो उसका प्रत्यक्ष भी होना चाहिए, पर प्रत्यक्ष होता नहीं है। इस आशंका का समाधान करते हुए आचार्य उदयन का कहना है कि हाँ- जब उसके प्रत्यक्ष की सामग्री होगी तब उसका प्रत्यक्ष अवश्य होगा और यदि प्रत्यक्ष नहीं होता है तो यह मानना होगा कि उसके  प्रत्यक्ष की सामग्री ही नहीं है। शशशृङ्ग के प्रत्यक्ष की सामग्री दोषयुक्त इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष आदि हैं। जैसे पीलिया रोग के रोगी को (पीतः शङ्ख) की प्रतीति होती है। यहाँ इस प्रतीति में पित्तादि दोषयुक्त नेत्र कारण होते हैं। एवमेव शशश्रृङ्ग के प्रत्यक्ष में भी दुष्ट अर्थात् दोष धरित  प्रत्यक्ष, सामग्री होगी और उस सामग्री के होने पर शशशृङ्ग कााी प्रत्यक्ष हो सकता है। इसलिये शशशृङ्ग भी प्रत्यक्ष के योग्य हैं उसका अभाव योग्यानुपलधि से सिद्ध हो सकता है।19इस समीक्षा का निष्कर्ष यह है कि योग्यानुपलधि ही अभाव साधिका है, अनुपलधिमात्र नहीं।

आत्मा को पक्ष बनाकर बौद्धानुमान ईहाःइसके बाद अब बौद्ध आत्मा को पक्ष बनाकर अनुमान प्रस्तुत करने की ईहा  (चेष्टा) करता है कि ‘आत्मा न सर्वज्ञः आत्मत्वात्’ अथवा ‘आत्मा नक्षित्यादि कर्त्ता आत्मवात् अस्मदादिवत्’21 यह अनुमान प्रतिपादित किया है। इस अनुमान विषय पर आचार्य उदयन का कहना है कि पूर्व पक्षी बौद्ध किस आत्मा को पक्ष बनाकर यह अनुमान प्रदर्शित किया है। प्रसिद्ध आत्मा को अर्थात् जीवात्मा को अथवा अप्रसिद्धात्मा अर्थात् परमात्मा को यदि जीवात्मा को पक्ष बनाया गया है तो सिद्ध साधन या इष्टसिद्धि है, क्योंकि हम भी जीवात्मा को सर्वज्ञ या क्षित्यादि का कर्त्ता नहीं मानते हैं। और यदि अप्रसिद्ध आत्मा अर्थात् परमात्मा को पक्ष बनाया गया है तो उसके सिद्ध न होने से आश्रृ या सिद्धि हेत्वाभास तो पूर्ववत् है ही उसके अतिरिक्त ‘हेत्वसिद्धि अर्थात् स्वरूपासिद्धि भी हो जायेगी। पक्ष वृत्तिहोन हेतु का ज्ञान अनुमान का प्रयोजक होता है वह यहाँ पक्ष के न होने से पक्षवृत्तित्व विशिष्ट हेतु का ज्ञान भी अभाव होने से हेतु सिद्धि भी होगी।22

एवमेव बौद्धों द्वारा ईश्वर के निरासार्थ अनेक प्रमाणों, अनुमानों का प्रयोग किया गया परन्तु उन सभी अनुमानों में आश्रय सिद्धि या स्वरूपा सिद्धि हो जाने से अभीष्ट सिद्धि न हो पाई है। आचार्य उदयन ने यह सिद्ध किया कि अनुपलधि तथा अनुमान इन दोनों प्रमाणों से ईश्वर  का अभाव सिद्ध करने का प्रयास उनका असफल रहा क्योंकि अनुपलधि का अभाव सही मानने में तो आकाश, धर्माधर्मादि का भी विलोम हो जाता है जो बौद्ध को मान्य नहीं है। ये नित्य आत्मा तथा ईश्वर की सत्ता को तो नहीं मानते परन्तु आकाश, धर्माधर्मादि का अस्तित्व मानते हैं। इसलिये अनुपलधि को अभाव साधिका मानने से तो उक्त पदार्थों का निषेध होने लग जाता है तो बौद्धायभीत हो उठता है। इसी प्रकार अनुपलधि को अभाव साधिका मान लेने पर अनुमान प्रमाण का कोई उपयोग नहीं रहता है और उसके अनुमान का भी लोप हो जाता है, यह भी बौद्ध को अभीष्ट नहीं है क्योंकि बौद्ध प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अनुमानादि प्रमाण को मानता ही नहीं है। और जब आकाश, धर्माधर्मादि और अनुमान के लोप का अवसर आता है तब वह चुप हो जाता है फलस्वरूप वह अनुपलधि को अभाव साधिका भी नहीं मान सकता है। वस्तुतः यह उसके सिद्धान्त की बहुत बड़ी कमजोरी है इस कारण वह ईश्वर का अभाव सिद्ध करने में असमर्थ रहा है।

प्रत्यक्ष प्रमाण से ईश्वर सिद्धिः महर्षि दयानन्द प्रत्यक्ष प्रमाण से ईश्वर की सिद्धि करना अभीष्ट मानते हैं। वह यह जानते थे कि चार्वाक, जैन बौद्धादि नास्तिक मतानुयायी ईश्वर विषय में ईश्वर प्रत्यक्ष दिखाने पर बल देते हैं। परन्तु प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है। 1. बाह्य प्रत्यक्ष 2. आयन्तर प्रत्यक्ष प्रथम कोटि का प्रत्यक्ष चक्षुरादि इन्द्रिय जन्य होता है जो ईश्वर में नहीं घटता है क्योंकि ईश्वर सर्वातिसूक्ष्म होने के कारण चक्षुरादि स्थूल इन्द्रियों का विषय नहीं है। दूसरा अयन्तर प्रत्यक्ष है जो आत्मा द्वारा ही परमात्मा का साक्षात्कारात्मक ज्ञान प्राप्त करता है। जैसा कि प्राचीन ऋषियों ने आत्मा के द्वारा आत्मा (परमात्मा) को प्रत्यक्ष किया। इसलिये महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम पृष्ठ पर लिखा ‘नमो ब्राह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मवदिष्यामि’23

सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास जिसमें ईश्वर विषय तथा वेद विषय का निरूपरण किया है। इसमें ही ईश्वर सिद्धि के विषय में पूर्व प्रश्न उठाते हुए लिखा है कि ‘आप ईश्वर ईश्वर कहते हो उसकी सिद्धि किस प्रकार करते हो? (उत्तर) सब प्रत्यक्षादिप्रमाणों से (पूर्व) ईश्वर में प्रत्यक्षादिप्रमाण कभी नहीं घट सकते (उत्तर) इन्द्रियान सन्निकर्षोत्पन्न ज्ञानं अव्ययदेश्यं अव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्।’ यह गौतम महर्षि कृत न्याय दर्शन (1/1/4) का सूत्र है। जो श्रोत्रत्व चक्षु, जिह्वा, घ्राण और मन का शब्द, स्पर्श रूप, रस, गन्ध, सुख, दुःख, सत्य और असत्य विषयों के साथ सबन्ध होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं, परन्तु वह निर्भ्रम हो। अब विचारना चाहिये कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है गुणी का नहीं । जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस, गन्ध का ज्ञान होने से गुणी पृथिवी उसका आत्मयुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है वैसे इस प्रत्यक्ष के होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। जब आत्मा मन और मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता है वा चोरी आदि बुरी व परोपकार आदि अच्छी बाते करने में जिस क्षण में आरभ करता है उस समय जीव की इच्छा ज्ञान आदि उसी इच्छित विषय पर झुक जाती है, उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने  में भय, शंका और लज्जा तथा अच्छे काम करने में आय, निःशंकता और आनन्दोत्साह उठता है। वह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से है। और जब जीवात्मा शुद्ध हो के परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है उसको उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमानादि से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह है? क्योंकि कार्य को देखकर कारण का अनुमान होता है। (पूर्व.) ईश्वर व्यापक है वा किसी देश विशेष में रहता है? (उत्तर) व्यापक है, क्योंकि जो एक देश में रहता तो सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वनियन्ता सबका स्रष्टा, सबका धर्त्ता और प्रलय कर्त्ता नहीं हो सकता, अप्राप्तदेश में कर्त्ता की क्रिया का असभव है।24

उपदेश मंजरी के प्रथम उपदेश में ही ईश्वर सिद्धि का विषय है। यहाँ पर महर्षि ने कहा कि प्रथम हमें ईश्वर की सिद्धि करनी चाहिए उसके पश्चात् धर्मप्रान्ध का वर्णन करना योग्य है क्योंकि ‘सति कुडये चित्रम्’ इस न्याय से जब तक ईश्वर की सिद्धि नहीं हो जाती  तब तक धर्म व्यायान करने का अवकाश नहीं।25

क्या उपासनार्थ उपास्य के आकार की आवश्यकता है?ः-

भक्त लोग प्रायः यह कहा करते हैं कि परमेश्वर की उपासना करने के लिए उसके आकार की आवश्यकता महसूस होती है। ‘इसी प्रकार भक्तों को उपासना करने के लिये ईश्वर का कुछ आकार होना चाहिए, परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शरीरस्थ जो जीव है, वह भी आकार रहित है, यह सब कोई मानते हैं अर्थात् वैसा आकार न होते भी हम परस्पर एक दूसरे को पहचानते हैं, प्रत्यक्ष कभी न देखते हुए भी केवल गुणानुवादों ही से सद्भावना और पूज्यबुद्धि मनुष्यादि के विषय में रखते हैं। उसी प्रकार ईश्वर के सबन्ध में नहीं हो सकता, यह कहना ठीक नहीं है। इसके सिवाय मन का आकार नहीं है मन के द्वारा परमेश्वर ग्राह्य है, उसे जड़ इन्द्रिय ग्राह्यता लगाना यह अप्रयोजक है।’26 प्रमाण बहुत प्रकार के हैं यथा-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द…….परन्तु सब शास्त्रकार अपने शास्त्र के उपयोगी प्रमाण को मानते हैं। ‘सारे प्रमाणों का अन्तर्भाव करके तीन प्रमाण अपशिष्ट रहते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द। प्रत्यक्ष भी सविकल्प और निर्विकल्प होता है। अनुमान तीन प्रकार का होता है- पूर्ववत् शेषवत् और सामान्यतो दृष्ट। इन तीन प्रकार के प्रमाणों की व्यापिका ईश्वर सिद्धि विषयक प्रयत्न करते समय प्रत्यक्ष की व्यापिका (विचार) करने से पूर्व अनुमान की लापिका करनी चाहिये क्योंकि प्रत्यक्ष का ज्ञान बहुत संकुचित और शुद्र है’………इससे प्रत्यक्ष को एक ओर रखकर शास्त्रीय विषयों में अनुमान प्रमाण ही विशेष गिना गया है। व्यवहार के लिये अनुमान आवश्यक है। अनुमान के बिना भविष्य के व्यवहारों के विषय में हमारा  जो दृढ़ निश्चय रहता है, वह निरर्थक होगा। कल सूर्य उदय होगा यह प्रत्यक्ष नहीं है तथापि इस विषय में किसी के मन में तिलमात्र की भी शंका नहीं होती।27

अनुमान और प्रत्यक्ष से ईश्वर सिद्धिः ‘तीन प्रकार के अनुमान की लापिक करने से ईश्वर= परमपुरुष= सनातन ब्रह्म सब पदार्थों का बीज है, ऐसा सिद्ध होता है। रचना रूपी कार्य दिखता है, इससे अनुमान होता है कि इस सृष्टि को रचने वाला अवश्य कोई है। पंच महाभूतों की सृष्टि आप ही आप रची हुई नहीं है, क्योंकि व्यवहार में घर का सामान विद्यमान होने ही से केवल घर नहीं बन जाता, यह हमारा देाा हुआ अनुभव सर्वत्र है। साथ ही साथ पंच महाभूतों का मिश्रण नियमित प्रमाण से विशिष्ट उत्पन्न होने की ही सुगमता  के लिए कभी भी आप स्वयं घटित नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि सृष्टि की व्यवस्था जो हम देखते हैं, उसका उत्पादक और नियंता ऐसा कोई श्रेष्ठ पुरुष अवश्य होना चाहिये।’28

‘अब किसी को यह अपेक्षा लगे कि ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्ष प्रमाण होना चाहिए, उसका विचार यूँ है कि प्रत्यक्ष रीति से गुण का ज्ञान होता है। गुण का अधिकरण जो गुणी द्रव्य है उसका ज्ञान प्रत्यक्ष रीति से नही होता। इसी प्रकार ईश्वर सबन्धी गुण का अधिकरण जो ईश्वर है उसका ज्ञान होता है, ऐसा समझना चाहिए।’29 ‘हिरण्य र्गाः’ इस मन्त्र को प्रस्तुत करके लिखा है कि हिरण्यर्गा का अर्थ शालिग्राम की वटिया नहीं है, किन्तु हिरण्य अर्थात् ‘ज्योति जिसके उदर में है, वह ज्योति स्वरूप परमात्मा ऐसा अर्थ है।’

यत्र नान्यत् पश्यति नान्यत् शृणोति नान्यत्विजानाति स भूमा

यत्र अन्यत् पश्यति अयत् शृणोति, अन्यत् विजानति तत् अल्पभ। 

यो वैभूमा तदमृतमथ यदलयं तन्मर्त्यं स भगवः कस्मिन्

प्रतिष्ठितः इति स्वे महिति यदिवा न महिम्रीति।30

जब उपासक अन्य वस्तुओं को जानता नहीं। वह भूमा है। और जब उपासक अन्य वस्तु को देखता है। अन्य वस्तु को सुनता है। अन्य वस्तु को जानता है। वह अल्प है। जो भूमा है वही अमृत है। जो अल्प है वही मर्त्य मरण योग्य है। नारद- वह भूमा किसमें प्रतिष्ठित है? सनत्कुमार-निज महिमा में यह प्रतिष्ठित है।

एतदालबनं श्रेष्ठ एतदालंवनं परम्।

एतदालंवनं ज्ञात्वा स ब्रह्म लेके महीयते।।

टिप्पणियाँ

  1. सत्यार्थप्रकाश, पृ. 383
  2. सत्यार्थप्रकाश, पृ. 383-384
  3. अमरकोश 118
  4. सत्यार्थप्रकाश, 12वाँ समु., पृ. 384 पर स्वामी वेदानन्द की टिप्पणी
  5. वही देखें, पृ. 384
  6. वही देखें, पृ. 384
  7. न्याय कुसुमांजलि, तृतीयस्तबक, पृ. 101
  8. वही देखें, पृ. 101
  9. न्याय कुसुमांजलि, पृ. 101
  10. वही देखें, पृ. 103
  11. वही देखें, पृ. 102
  12. वही देखें, पृ. 102
  13. वही देखें, पृ. 103
  14. वही देखें, पृ. 103
  15. तर्कभाषा, पृ. 111
  16. वही देखें, पृ. 103
  17. वही देखें, पृ. 103
  18. वही देखें, पृ. 104
  19. वही देखें, पृ. 105
  20. वही देखें, पृ. 106
  21. वही देखें, पृ. 106
  22. सत्यार्थप्रकाश, प्रथम समु., पृथम पृथम पृष्ठ
  23. सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समु., पृ. 154-155
  24. उपदेश मंजरी, पृ. 2
  25. वही देखें, पृ. 3
  26. उपदेश मंजरी, पृ. 3
  27. वही देखें, पृ. 4
  28. छान्दोग्योपनिषद् 7/24/1

– ई-128, गोविन्दपुरी, सोडाला, जयपुर, राज.

‘इतिहास प्रदूषण’ पर आक्षेप: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

ः- एक लबे समय से आर्य समाज में इतिहास प्रदूषण के महारोग और आन्दोलन को गभीरता से जाना, समझा फिर इस नाम से एक पुस्तक लिखी। एक-एक बात का प्रमाण दिया। अपनी प्रत्येक पुस्तक के प्राक्कथन में यह लिखना इस लेखक का स्वभाव बन गया है कि यदि जाने, अनजाने से, अल्पज्ञता से, स्मृति दोष से पुस्तक में कोई भूल रह गई हो तो गुणियों के सुझाने पर अगले संस्करण में दूर कर दी जावेगी। परोपकारी में कई बार स्मृति दोष से किसी लेख में पाई गई भूल पर निसंकोच खेद प्रकट किया। यह पता ही था कि इस पुस्तक पर खरी-खरी लिखने पर भी कुछ कृपालु कोसेंगे, खीजेंगे। उनका तिलमिलाना स्वभाविक ही है। कुछ लोगों ने नर्िाय होकर स्वप्रयोजन से आर्य समाज के इतिहास को प्रदूषित किया है।

दर्शाई गई किसी भूल, गड़बड़, मिलावट, बनावट व गड़बड़ को तो कोई झुठला नहीं सका। लेखक की दो भूलों को खूब उछाला जा रहा है। सेाच-सोच कर हमारे परम कृपालु भावेश मेरजा जी ने एक प्रश्न भी पूछा है सेवा का एक अवसर देने पर अपने बहुत प्यारे भावेश जी का हृदय से आभार मानना हमारा कर्त्तव्य बनता है।

यह चूक आपने पकड़ी है कि देवेन्द्र बाबू के ग्रन्थ में भी एक स्थान पर प्रतापसिंह ने ऋषि से पूछा कि यदि आपको अली मरदान ने विष दिया हो तो…………………

दूसरी चूक यह बताई गई कि भारतीय जी ने अपने ग्रन्थ में एक स्थान पर नन्हीं को वेश्या लिखा है। मेरा यह लिखना कि उन्होंने कहीं भी उसे वेश्या नहीं लिखा ठीक नहीं।

मेरा निवेदन है कि ये दोनों भूलें असावधानी से हो गई। इसका खेद है। दुःख है। भूल स्वीकार है। प्राक्कथन में दिये आश्वासन को पूरा किया जाता है। क्या भावेश जीाी नैतिक साहस का परिचय दे कर पुस्तक में दर्शाई गई आपके महानायक की एक-एक भूल को स्वीकार कर इस पाप पर कुछ रक्तरोदन करेंगे? इतिहास प्रदूषण का दूसराााग भी अब छपेगा। उसमें महानायक जी के कुछ पत्र पढ़कर हमें कोसने वाले चौंक जायेंगे। बस प्रतीक्षा तो करनी पड़ेगी ।

प्रतापसिंह ने ऋषि से विष दिये जाने की बात कब की? यह तो बता देते। वह जोधपुर की राज परपरा के अनुसार विष दिये जाने के 27 दिन के पश्चात् ऋषि से मिलने आया। तब ऋषि क्या होश में थे? मूर्छा का उल्लेख बार-बार मिलता है। प्रतापसिंह ने केवल ऋषि का हालचाल ही पूछा था। विष की कतई कोई चर्चा नहीं हुई। वह बस पूछताछ करके चला गया। ऋषि का पता पूछने जोधपुर तो राजपरिवार आया नहीं। ये सारी जानकारी देवेन्द्र बाबू व भारतीय जी ने पं. लेखराम जी के ग्रन्थ से ली है। वही सबका स्रोत है। विष की बात तो जोड़ी गई है। यह गढ़न्त है। पं. लेखराम जी ने एक – एक दिन की घटना तत्कालीन ‘आर्य समाचार’ मासिक मेरठ का नाम लेकर अपने ग्रन्थ में दी है। ‘आर्य समाचार’ का वह ऐतिहासिक अंक आज धरती तल पर केवल जिज्ञासु के पास है। उसके पृष्ठ 213 पर प्रतापसिंह के दर्शनार्थ जाने का उल्लेख है। कोई बात हुई ही नहीं। हदीस गढ़ने वाला कोई भी हो, है यह हदीस। तब ठा. भोपाल सिंह व जेठमल तो वहीं थे। किसी ने कभी यह गढ़न्त न सुनाई । शेष चर्चा फिर करेंगे। जिसमें हिमत हो इसका प्रतिवाद करे।

एक नया प्रश्नः- भावेश जी इस समय अकारण आवेश में हैं। वह पूछते हैं यह कहाँ लिखा है कि माई भगवती लड़की नहीं बाल विधवा थी? श्रीमान् जी उत्तर दक्षिण के आर्य व अन-आर्य समाजी तो छोटी-छोटी घटनायें इस सेवक से पूछते रहते हैं और आप पंजाब में कभी घर-घर में चर्चित माई जी के बारे में इस साहित्यिक कुली से ‘‘कहाँ लिखा है?’’ यह पूछते हैं।

महोदय हमने माई जी के साथ वर्षों कार्य करने वाले मेहता जैमिनि जी (आर्य समाज के त्र.ह्र.रू.), दीवान श्री बद्रीदास, ला. सलामतराय जी, महामुनि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, महाशय कृष्ण जी, पूज्य ‘प्रेम’ जी के मुख से सुना। महोदय माई जी का एक साक्षात्कार लिया गया था। उसकी स्कैनिंग करके छपवा दी। ‘प्रकाश’ में छपे उस साक्षात्कार में माई जी को साक्षात्कार लेने वाला ‘माता भगवती’ लिखता है। उनका कभी फोटो छपा देखा उस पर भी ‘माई भगवती’ शीर्षक था। पंजाब में माई लड़की को कोई नहीं कहता। माई का अर्थ माता या बूढ़ी ही लिया जाता है फिर भी कहाँ लिखा का हठ है तो थोड़ा आप ही हाथ पैर मारकर देखें। स्वामी श्रद्धानन्द जी के आरभिक काल का साहित्य देखें। ‘बाल विधवा’ शब्द न मिले तो फिर लेखक की गर्दन धर दबोच लेना। जैसे भारतीय जी ने ‘कहाँ लिखा है’ की रट लगाकर जब हड़क प मचाया था तो हमने ‘लिखा हुआ’ सब कुछ दिखा दिया था- आपकोाी रुष्ट नहीं करेंगे। आप हमारे हैं, हम आपके हैं। आपको भी प्रसन्न कर देंगे।

विचित्र शंका समाधानः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री स्वामी विवेकानन्द जी रोजड़ का शंका समाधान पढ़ सुनकर कुछ स्वाध्याय प्रेमी उनके समाधान पराी प्रश्न उठाते हैं। उन पर कुछ टिप्पणी करने को कई कारणों से टाल देना उचित जाना। वह दर्शनों के पण्डित हैं अतः उन्हीं से उनके समाधान पर प्रश्न पूछने का परामर्श देना ठीक लगा। अब बहुत कहा गया तो उनके दो विचारों पर कुछ निवेदन किया जाता है। पाठक तथा विद्वान् इस पर गभीरता से विचारें।

एक प्रश्न के उत्तर में गऊ को कसाई से बचाने के लिए असत्य कतई न बोलने और ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र को आपने न्यारा-न्यारा उपाय करने का उपदेश दिया है। किसी भी अवस्था में असत्य न बोलने का आपका उपदेश है। गुप्तचर विभाग में कार्यरत व्यक्ति देश की रक्षा करने में लगे रहते हैं। वे झूठ बोलकर क्या पाप करते हैं? पं. रुचिराम जी ने श्याम भाई का शव क्या सत्य बोल कर प्राप्त किया। वीर भगतसिंह ने साण्डर्स को मारा तो पुलिस ने पं. भगवद्दत्त जी, पं. रामगोपाल जी वैद्य तथा ठाकुर अमरसिंह से पूछा, वे गोली चलाकर किधर को भागे? तीनों ने कहा, हमने तो किसी को इधर से भागते देखा ही नहीं। क्रान्तिकारी पुलिस के हाथ नहीं आए। क्या ये तीन असत्य बोलने के कारण पापी माने जायें?

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने शाही किला में जाँच करने वालो को कहा, ‘‘मैं भापडोद की पंचायत में आने वाले किसी भी व्यक्ति का नाम नहीं जानता।’’ वे जिसका भी नाम बताते सरकार उसे यातनायें देती। स्वामी जी ने झूठ बोलकर इतिहास बनाया। इसे आप पाप मानेंगे क्या?

रोजड़ में छपे एक बड़े ग्रन्थ में व उत्कृष्ट समाधान में मोक्ष प्राप्ति को ही सर्वोत्तम कर्म बताया गया है। जन्म लेने से दुःख भी भोगना पड़ता है सो जन्म लेना कोई बुद्धिमत्ता का कर्म नहीं। इस आाशय के वाक्य इस लेखक ने कई बार पढ़ें हैं। मोक्ष का महत्त्व सब जानते हैं परन्तु यह मत भूलिए कि ऋषि के पत्र-व्यवहार में ही समाधि का आनन्द छोड़कर लोकोपकार, वेद-प्रचार के लिए समर्पित होने की चर्चा पढ़ लीजिये। ऋषि दूसरों के बन्धन काटने के लिए बार-बार नरजन्म पाने की घोषणा या कामना करते हैं। ध्यान से ऋषि जीवन का पाठ कीजिये, मनन कीजिये। रोजड़ के कई महात्मा मोक्ष विषयक एकाङ्गी विचार देते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने प्राणोत्सर्ग से पूर्व धर्म प्रचार जाति रक्षा के लिए फिर से नर-जन्म पाने की कामना व्यक्त की थी। क्या यह वेद-विरुद्ध माना जावे?

शंका समाधान करते समय ऋषि के पत्र-व्यवहार तथा जीवन-चरित्र का भी गाीर ज्ञान होना चाहिये। वेद के सिद्धान्तों को, वैदिक दर्शन को समझने के लिए इनका भी उतना ही महत्त्व है जितना अन्य आर्ष ग्रन्थों का है। बुद्धि-भेद पैदा करने से हानि ही होगी। संगति का लगाना बहुत आवश्यक है।

लाला दीवानचन्द का महत्त्वपूर्ण लेखः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

डी.ए.वी. कालेज कानपुर के एक स्वर्गीय प्राचार्य ला. दीवानचन्द जी एक जाने माने शिक्षा शास्त्री तथा अनुभवी विचारक थे। लखनऊ से चलााष पर प्राप्त एक प्रश्न का उत्तर देते हुए इस सेवक ने प्रश्नकर्त्ता को ला. दीवानचन्द जी के कुछ वाक्य सुनाये तो उस विचारशील पाठक ने इस पर परोपकारी में कुछ विस्तार से लिखने की प्रेरणा दी। उस सुपठित युवक ने कहा, ‘‘मैंने तो कभी ला. दीवानचन्द जी का यहा कथन सुना व पढ़ा ही नहीं।’’

रोग यह है कि आर्य समाज में बड़े -बड़े नाम गिनाने व पुस्तकों की सूचियाँ बनाने को ही शोध व प्रचार माना जाने लगा है। पं. चमूपति जी, स्वामी वेदानन्द जी की पुस्तकों में लिखा क्या है? यह कौन पढ़ता व सुनता है। लखनऊ के उस युवक ने महर्षि दयानन्द जी के विषपान व कर्नल प्रतापसिंह पर एक प्रश्न पूछ लिया। उसे बताया गया कि डी.ए.वी. कालेज कमेटी के एक पूर्व प्रधान ला. दीवानचन्द जी का लबे समय तक प्रतापसिंह से सपर्क व सबन्ध रहा। मेल मिलापाी रहा। महर्षि को विष दिये जाने की घटना का वर्णन करते हुए ला. दीवानचन्द जी को यह कटु    सत्य लिखना पड़ा, ‘‘डॉ. अलीमर्दान खाँ की चिकित्सा होती रही और रोग बढ़ता गया। दिन में कई बार मूर्छा हो जाती। करवट लेने को दूसरे की सहायता की आवश्यकता पड़ने लगी। दर्द बहुत सत था, और मुँह में और शरीर पर छाले पड़ने लगे। यह अवस्था एक सप्ताह तक जारी रही।

‘‘महाराजा प्रतापसिंह और राव राजा तेजसिंह स्वामी जी के स्थान तक न पहुँचे।’’

सत्य को छिपाने की कला के कलाकारों ने कभी डा. दीवानचन्द के इन वाक्यों को उद्धृत ही नहीं किया। प्रताप सिंह की क्रूरता पर पर्दा डालना ही कुछ लोगों का धर्म कर्म रहा है। प्रश्न आया तो हमने यह साक्षी दे दी।

ऋषि के पत्रों में लुप्त इतिहास के स्रोतः- ऋषि जीवन पर लिखने व बोलने वालों ने ऋषि जीवन में चर्चित गोरे लोगों व उस काल के अंग्रेजी पठित भारतीयों, पादरियों व मौलवियों के नाम के साथ नये-नये विशेषण गढ-गढ़ कर जोड़े और उनको महिमा मण्डित व प्रचारित करके अपनी रिसर्च की तो धौंस जमा दी परन्तु ऋषि के भक्तों, समर्पित आर्य पुरु षों, आर्य समाज की नींव के पत्थरों की उपेक्षा से स्वर्णिम इतिहास का लोप हो गया। हमारे कुछ लोगों ने ए.ओ. ह्यूम, मैक्समूलर व वोमेशचन्द्र बनर्जी की तो बड़ी रट लगाई। परन्तु ठाकुराोपाल सिंह, ठाकुर मुन्नासिंह, ठाकुर मुकन्दसिंह, भाई ज्ञानसिंह, ला. मुरलीधर, ला. लक्ष्मीनारायण, राव युधिष्ठिरसिंह और पं. गोपाल शास्त्री, पं. भानुदत्त को विसार दिया। सर सैयद के बृहत जीवन चरित्र में ‘‘श्री स्वामी दयानन्द’’ बस यही तीन शब्द मिलते हैं।

भाई ज्ञानसिंह अग्नि-परीक्षा देने वाला एक प्रमुख आर्य था। शुद्धि-आन्दोलन का पंजाब में पहला कर्णधार था। पं. लेखराम जी ने उनकी प्रशंसा की है। पत्र व्यवहार में उनकी चर्चा है। पत्र व्यवहार में वर्णित आर्यों की सूची बनानी होगी। जितना बन सकेगा, यह सेवक उन सब का इतिहास खोद-खोद कर खोज देगा।

स्तुता मया वरदा वेदमाता-20 समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि।।

घर में सदस्यों के मध्य सौमनस्य कैसे बना रहे, इसके उपाय इस मन्त्र में बताये गये हैं, उनमें प्रथम है- सदस्यों का खानपान समान हो। भोजन आच्छादन के पश्चात् व्यवहार में आने वाले साधन और किये जाने वाले कार्य भी समान हों। इस मन्त्र में एक महत्त्वपूर्ण बात कही गई है, हमारे परिवार में सामान्य रूप से जिस प्रकार के कार्य होते हैं, उन्हें सपन्न करने के लिए उसी प्रकार के साधन भी अपनाये जाते हैं। आजकल साधन केवल सपन्नता के प्रतीक बनकर रह गये है। आपके घर में कैसे साधन हैं। वे कितने नये, कितने मूल्यवान हैं, यही बात महत्त्वपूर्ण हो गई है।

साधन आवश्यक तो हैं, साधनों की उपस्थिति मनुष्य को सपन्न बनाती है। साधन साध्य के लिये होते हैं। साध्य को सिद्ध करने के काम आते हैं। यदि ये साधन साध्य को सिद्ध करने में समर्थ नहीं हैं तो साधन व्यर्थ का बोझ बन जाते हैं। साधनों की जहाँ तक आवश्यकता होती है, उनका वहीं तक संग्रह उचित है परन्तु अधिक साधन मनुष्य को अपना सेवक बना लेते हैं। साधनों को संग्रह करने के लिये धन का संग्रह करना पड़ता है। यथाकथंचित् उतना धन संग्रह में लग जाता है। फिर उस संग्रह का उपयोग होने या न होने की दशा में उनके रख रखाव पर धन और समय का अपव्यय करना पड़ता है। हमारे जीवन में साध्य छूट जाता है। साधन ही साध्य का स्थान ले लेते हैं। कभी हमारे इन घर, वाहन, वस्त्र, आभूषण या धन आदि की जीवन को चलाने के लिये आवश्यकता होती है परन्तु जब साधन साध्य का स्थान लेने लगते हैं तो हमारी साधना व्यर्थ हो जाती है। हमारा साधनों के प्रति प्रेम इतना बढ़ जाता है कि हम इन वस्तुओं की सेवा में ही पूरा जीवन और सामर्थ्य समाप्त कर देते हैं, वेद कहता है- साधन आपके लिये हैं, आप साधनों के लिये नहीं। अतः मनुष्य को साधनों के आधीन नहीं होना चाहिए।

हमारे देश में साधन सपन्न दो ही वर्ण होते हैं- प्रथम क्षत्रिय और दूसरा वैश्य तथा आश्रम परपरा में तो केवल एक ही आश्रम साधनों की सपन्नता रखता है, शेष तीन तो इसी एक आश्रम पर नर्िार रहते हैं और इस परिस्थिति को ही आदर्श माना गया है। चार आश्रमों में केवल एक गृहस्थ को ही सपन्नता का अधिकार दिया गया है। शेष ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी व संन्यासी तीनों ही गृहस्थ पर सर्वथा निर्भर करते हैं। तो क्या शेष तीन आश्रमों के पास साधन नहीं होने चाहिएं। साधन तो चाहिए परन्तु इनके उपार्जन का सामर्थ्य उनके आश्रमवस्था में सिद्ध करने वाले प्रयोजनों को व्यर्थ कर देंगे। विद्यार्थी के पास न साधन हैं, न आवश्यकता है, उनकी चिन्ता तो माता-पिता को भी नहीं करनी। ब्रह्मचारियों की चिन्ता करना समाज और राज्य का विषय है। वानप्रस्थी और संन्यासी को साधनों की आवश्यकता अत्यन्त न्यून हो जाती है, उनका भार समाज पर है। इस प्रकार साधन सपन्न रहकर सभी आश्रमों की सेवा करना एक गृहाश्रमी का दायित्व है।

इसी प्रकार वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण को साधनों के संग्रह का निर्देश नहीं  है, उसे अपना जीवन ज्ञान की खोज, संग्रह और उसके प्रचार-प्रसार में लगाना है, यदि इसमें साधनों की आवश्यकता पड़े तो उसका उत्तरदायित्व समाज और राज्य का है। यहाँ ध्यान रखने की बात है, ये लोग साधन जुटाने का सामर्थ्य नहीं रखते, ऐसा नहीं है। परन्तु साधनों के उपार्जन करने में समय, धन और परिश्रम लगता है, यह सब ज्ञान की तुलना में तुच्छ है, अतः मुय विषय पर समय लगाने की बात शास्त्र करता है। शूद्र के पास सामर्थ्य का अभाव है, अतः उसे किसी प्रकार बाध्य नहीं किया गया।

मन्त्र में साधन को साध्य के लिये लगाने की बात कही है। हमारे पास हमारे जीवन के प्रयोजन को सिद्ध करने योग्य साधन होने चाहिये और साधनों को पूरा उपयोग धर्मार्थ की सिद्धि के लिये किया जाना उचित होगा तभी परिवार में विरोध का भाव उत्पन्न नहीं होगा। मनुष्य के आराम, विलास, आलस्य, प्रमाद की स्थिति में साधन अपव्यय और संघर्ष का कारण बनते हैं। अतः कहा है- समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि तुहें समान साधन देकर सत्कर्मो में लगाता हूँ।

चार्वाक दर्शन एवं वेद: – डॉ. वेद प्रकाश

(सत्यार्थप्रकाश के द्वादश समुल्लास के आलोक में)

– डॉ. वेद प्रकाश

[वर्ष 2013 में ऋषि – मेले के अवसर पर आयोजित वेद-गोष्ठी में प्रस्तुत एवं पुरस्कृत यह शोध लेख पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है।]                                           -सपादक

सृष्टि के प्रारभ से ही आर्यावर्त में वेद की प्रतिष्ठा रही है। ईश्वर द्वारा प्रदत्त तथा वैदिक ऋषियों द्वारा अनुभूत वेद ज्ञान सत्यासत्य के निर्णय का एक मात्र आधार रहा है। भारतीय चिन्तन में वैदिक ज्ञान की सर्वोत्कृष्टता इस बात से भी परिलक्षित होती है कि आस्तिकता और नास्तिकता का नियामक भले ही लोक में ईश्वर है, परन्तु शास्त्र की दृष्टि से वेद है। अर्थात् जो वेद को मानता है वह आस्तिक है तथा जो वेद को नहीं मानता , वह नास्तिक है। मनु के शदों में ‘नास्तिको वेदनिन्दकः’(मनुस्मृति 2.11)। परन्तु धीरे-धीरे भारत में वेद मन्त्रों के मनमाने अर्थ किये जाने लगे तथा वैदिक यज्ञों एवं कर्मकाण्ड में आडबर, हिंसा आदि अमानवीय भावनाओं का प्रभुत्व बढता गया। परिणामस्वरूप वेद विद्या के स्थान पर अविद्या का प्रसार होने लगा। इसी के परिणामस्वरूप भारत में चार्वाक, जैन एवं बौद्ध दर्शनों का प्रादुर्भाव हुआ। ये दर्शन वेद को प्रमाण नहीं मानते हैं, अतः इन्हें भारतीय दार्शनिक परपरा में नास्तिक दर्शन कहा जाता है।

चार्वाक दर्शन के सिद्धान्त अन्य दार्शनिक ग्रन्थों यथा ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्य, कमलशीलकृत तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, विवरणप्रणेयसंग्रह, न्यायमञ्जरी, सर्वसिद्धान्तसंग्रह, षड्दर्शनसमुच्चय, तर्करहस्यदीपिका, सर्वदर्शनसंग्रह आदि ग्रन्थों में पूर्वपक्ष के रूप में हुआ है। चार्वाक दर्शन का आधार मुय रूप से वेद-विरोध है, जैसा कि इनके वेदविषयक सिद्धान्तों से विदित होता है-

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भाण्डधूर्तनिशाचराः।

प्रस्तुत शोधपत्र में महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश के बारहवें समुल्लास में प्रस्तुत चार्वाक दर्शन के सिद्धान्तों को प्रस्तुत कर उनकी दार्शनिक ग्रन्थों के आधार पर प्रामाणिकता सिद्ध की गयी है। इसके पश्चात् महर्षि दयानन्द द्वारा चार्वाक दर्शन के सिद्धान्तों का खण्डन तथा उनकी वेदानुकूलता प्रस्तुत कर चार्वाक दर्शन के जो सिद्धान्त वेदानुकूल है, उनकी समीक्षा महर्षि दयानन्द द्वारा प्रस्तुत सत्यार्थप्रकाश के बारहवें समुल्लास के सन्दर्भ में की गयी है।

महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश के बारहवें समुल्लास में चार्वाक दर्शन के निम्नलिाित सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया गया है-

पुनर्जन्म का सिद्धान्त चार्वाक दर्शन पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता है। महर्षि दयानन्द ने इस कथन की पुष्टि के लिए 12 वें समुल्लास के प्रारभ में बृहस्पति नामक आचार्य का एक प्रसिद्ध पद्य प्रस्तुत किया है –

यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।

अर्थात् जब तक जीवन है, सुखपूर्वक जीयें। क्येांकि मृत्यु से कुछ भी अगोचर नहीं है। भस्मीभूत होने वाले इस शरीर का पुनः आगमन कहां होगा? अर्थात् मृत्यु के पश्चात् जीव पुनः संसार में नहीं आता है। अतः-

यावज्जीवेत्सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।3

अर्थात् सुखपूर्वक जीने के लिए ऋण लेकर भी घी पीना चाहिए।

महर्षि दयानन्द जीव को अनादि मानते हैं। परलोक के सबन्ध में उनका विचार है कि जैसे इस समय सुख दुःख का भोक्ता जीव है, वैसे ही परजन्म में भी होता है।4 वेद में पुनर्जन्म के समर्थन में अनेक मन्त्र प्राप्त होते हैं, जिनका सारांश निम्न प्रकार से है- सत्य के ज्ञाता और अहिंसक उन जीवों ने फिर प्राणधारण किया।5 किसने मुझे पुनः विशाल पृथिवी पर जन्म दिया।6 मैं पुनः जन्म लेकर माता-पिता के दर्शन करुँ।7 कठोपनिषद् का यह प्रसिद्ध वाक्य –

सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः।8 तथा-

योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः।

स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्।।9

अर्थात् जिसका जैसा कर्म होता है और शास्त्रादि के श्रवण के द्वारा जिसको जैसा भाव प्राप्त हुआ है, उन्हीं के अनुसार शरीर धारण करने के लिए कितने ही जीव अनेक प्रकार की योनियों को प्राप्त हो जाते हैं और अन्य कितने ही स्थावर भाव का अनुसरण करते हैं।

शरीर में चार महाभूतों के योग से चैतन्य-उत्पत्ति – चार्वाक की यह मान्यता है कि हमारा शरीर पृथिवी, जल, अग्नि तथा वायु इन चार महाभूतों के संयोग से बना है। चार्वाक चार ही महाभूत स्वीकार करता है।10 वह आकाश को स्वीकार नहीं करता। इस शरीर में इन चार महाभूतों के योग से चैतन्य उत्पन्न होता है। जैसे मादक द्रव्य खाने पीने से मद उत्पन्न होता है, इसी प्रकार जीव शरीर के साथ उत्पन्न होकर शरीर के नाश के साथ ही नष्ट हो जाता है।11 फिर किसको पाप-पुण्य का फल होगा? अर्थात् शरीर के नष्ट होने के साथ ही जीवन भी नष्ट हो जाता है। अतः पाप-पुण्य का भोक्ता कौन होगा अर्थात् कोई नहीं।

महर्षि दयानन्द इसके समाधान में कहते हैं कि पृथिव्यादि भूत जड़ हैं तथा जड़ पदार्थों से चेतन की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती। मद के समान चेतन की उत्पत्ति और विनाश नहीं होता, क्योंकि मद चेतन को होता है, जड़ को नहीं। पदार्थ नष्ट अर्थात् अदृष्ट होते हैं परन्तु अभाव किसी का नहीं होता। इसी प्रकार अदृश्य होने पर जीव का भी अभाव नहीं मानना चाहिए। जब जीवात्मा सदेह होता है तभी उसकी प्रकटता होती है। जब वह शरीर को छोड़ देता है, तब यह शरीर जो मृत्यु को प्राप्त हुआ है वह जैसा चेतनयुक्त पूर्व में था वैसा नहीं हो सकता।

महर्षि दयानन्द के उपरोक्त विचारों का वेद में समर्थन प्राप्त होता है। जैसा कि चार्वाक मानते हैं कि शरीर के नष्ट होने के साथ ही जीव भी नष्ट हो जाता है। परन्तु वेद कहता है कि – मर्तेष्वग्निरमृतो नि धायि।12 अर्थात् मनुष्यों में अमर जीवात्मा विद्यमान है। जहाँ तक जीवात्मा के पाप-पुण्य भोगने की बात है, वहाँ भी चार्वाक का मत वेद विरुद्ध है। वेद के अनुसार – जीवात्मा भोक्ता रूप में सांसारिक विषयों का भोग करता है।13 चार्वाक चार महाभूतों को ही स्वीकार करता है। वह प्रत्यक्ष न होने से आकाश को स्वीकार नहीं करता है। उपनिषद् का वचन है-

सर्वेषां वा एष भूतानामाकाशः परायणम् सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशाादेव जायन्ते।14

चैतन्यविशिष्टदेह ही आत्मा चार्वाकों का सिद्धान्त है कि –

तच्चैतन्यविशिष्टदेह एव आत्मा देहातिरिक्त आत्मनि प्रमाणाभावात्।15

अर्थात् चैतन्यविशिष्टदेह ही आत्मा है, देह से अतिरिक्त आत्मा के विषय में प्रमाण का अभाव होने से। इस शरीर में चारों भूतों के संयोग से जीवात्मा उत्पन्न होकर उन्हीं के वियोग के साथ ही नष्ट हो जाता है। क्योंकि मरने के बाद कोई जीव प्रत्यक्ष नहीं होता।

महर्षि दयानन्द इसके समाधान में कहते हैं कि जो देह से पृथक् आत्मा न हो तो जिसके संयोग से चेतनता और वियोग से जड़ता होती है, वह देह से पृथक् है। जैसे आँख सबको देाती है पर वह स्वयं को नहीं देख सकती। इसी प्रकार प्रत्यक्ष का करने वाला अपने ऐन्द्रिय का प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। जैसे आँख से सब घट-पटादि पदार्थ देखता है वेसे आँख को अपने ज्ञान से देखता है। जो दृष्टा है वह दृष्टा ही रहता है, दृश्य कभी नहीं होता। कठोपनिषद् से इस तथ्य की पुष्टि होती है –

एष सर्वेषु भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते।

दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः।।16    

पुरुषार्थ का फल चार्वाकों के अनुसार सुन्दर स्त्री से आलिङ्गन करना ही पुरुषार्थ का फल है।17

यदि इसे पुरुषार्थ का फल मानते हैं तो इससे क्षणिक सुख और दुःख भी होता है, वह भी पुरुषार्थ का ही फल होगा। जब ऐसा है तो स्वर्ग ही की हानि होने से दुःख भोगना पड़ेगा। जो कहो कि सुख के बढ़ाने और दुःख के घटाने में प्रयत्न करना चाहिए तो मुक्ति सुख की हानि हो जाती है। इसलिए वह पुरुषार्थ का फल नहीं।18

परलोक चार्वाक परलोक की धारणा को व्यर्थ मानते हैं। क्योंकि इस लोक के उपस्थित सुख को छोड़कर अनुपस्थित स्वर्ग के सुख की इच्छा कर धूर्त कथित वेदोक्त अग्निहोत्रादि कर्म, उपासना और ज्ञानकाण्ड का अनुष्ठान परलोक के लिए करते हैं, वे अज्ञानी हैं। जो परलोक है ही नही, उसकी आशा करना मूर्खता का काम है । क्योंकि-

यदि गच्छेत्परं लोकं देहादेष विनिर्गतः।

कस्माद् भूयो न चायाति बन्धुस्नेहसमाकुलः।।19

यदि इस देह से निकल कर जीव किसी अन्य लोक में जाता है तो वह अपने बन्धुओं के स्नेह के कारण पुनः अपने घर में ही क्यों नहीं आ जाता।

इस सर्न्दा में चार्वाकों की वेद विरुद्धता पुनर्जन्म के निरुपण के समय ही स्पष्ट कर दी गयी है। महर्षि दयानन्द इस विषयमें कहते हैं कि देह से निकल कर जीव स्थानान्तर और शरीरान्तर को प्राप्त होता है और उसको पूर्वजन्म तथा कुटुबादि का ज्ञान कुछ भी नहीं रहता, इसलिए वह पुनः कुटुब में नहीं आ सकता।20

अग्निहोत्र, वेद, त्रिदण्ड, भस्मगुण्ठन – चार्वाकों के अनुसार-

अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्।

बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः।।21

अग्निहोत्र, वेद, त्रिदण्ड, भस्मगुण्ठन ये सभी बुद्धि एवं पौरुषहीन व्यक्तियों की आजीविका के साधन हैं।

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भाण्डधूर्तनिशाचराः।

जर्फरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।।22

अर्थात् तीनों वेदों के कर्ता भाण्ड, धूर्त और निशाचर हैं तथा जर्फरी-तुर्फरी इत्यादि पण्डितों के धूर्ततायुक्त वचन हैं।

अश्वस्यात्र हि शिश्नन्तु पत्नीग्राह्यं प्रकीर्तितम्।

भण्डैस्तद्वत्परं चैव ग्राह्यजातं प्रकीर्त्तितम्।।23

तथा अश्व के शिश्न को यजमान की पत्नी ग्रहण करे।

मांसानां खादनं तद्वन्निशाचरसमीरितम्।।24

मांसाहार प्रतिपादन करने वाला वेद राक्षसों का बनाया हुआ है।

महर्षि दयानन्द के अनुसार अग्निहोत्रादि यज्ञों से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि द्वारा आरोग्यता का होना, उससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है।25 उपनिषद् का वाक्य है कि स्वर्ग की कामना के लिए अग्निहोत्र करें –

अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः।26 तथा –

यथेह क्षुधिता बाला मातरं पर्य्युपासते।

एवँ्सर्वाणि भूतान्यग्निहोत्रमुपासते।।27  

चार्वाकों द्वारा किया गया त्रिदण्ड तथा भस्मधारण का खण्डन ठीक है। क्योंकि सपूर्ण वैदिक वाङ्मय में स्तुति, प्रार्थना अथवा उपासना की पद्धति में कहीं भी त्रिदण्ड अथवा भस्मधारण क उल्लेख नहीं है। महर्षि दयानन्द कहते हैं कि जो चार्वाकादि ने वेदादि सत्यशास्त्र देखे, सुने वा पढ़़े होते तो वेदों की निन्दा कभी न करते कि वेद भांड, धूर्त और निशाचरवत्् पुरुषों ने बनाये हैं, ऐसा वचन कभी न निकालते हाँ। भांड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्त्तता है, वेदों की नहीं।28

जहाँ तक वेदों के निर्माण का प्रश्न है महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदोत्पत्ति विषय में शतपथ ब्राह्मण के याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद को प्रस्तुत किया है –

एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः।29

अर्थात् याज्ञवल्क्य कहते हैं कि हे मैत्रेयी! महान् आकाश से भी वृहद् परमेश्वर से ही ऋग्वेदादि वेद्चतुष्टय निःश्वास के समान सहज रूप से निकले हैं, ऐसा मानना चाहिए। जैसे शरीर से उच्छवास निकल कर पुनः शरीर में ही प्रवेश कर जाता है, वैसे ही ईश्वर से वेद का प्रादुर्भाव और तिरोभाव होता है, ऐसा मानना चाहिए।30

भला! विचारना चाहिए कि स्त्री से अश्व के लिङ्ग का ग्रहण कराके उससे समागम कराना और यजमान की कन्या से हाँसी ठट्ठा आदि करना सिवाय वाममार्गी लोगों से अन्य मनुष्यों का काम नहीं है। बिना इन महापापी वाममार्गियों के भ्रष्ट, वेदार्थ से विपरीत, अशुद्ध व्यायान कौन करता? और जो माँस खाना है यह भी उन्हीं वाममार्गी टीकाकारों की लीला है। वेदों में कहीं माँस का खाना नहीं लिखा।31

मोक्ष – चार्वाकों के अनुसार देह का नाश होना ही मोक्ष है।32

इस पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि- तो फिर गधे, कुत्ते आदि पशुओं और मनुष्यों में क्या अन्तर रहा।33 अर्थात् वैदिक और दार्शनिक ग्रन्थों में मोक्षप्राप्ति के यम-नियमादि मार्ग बतलाये गये हैं, उनकी कोई प्रासङ्गिकता न रहेगी।

जगत् स्वाभाविक है – चार्वाकों के अनुसार अग्नि उष्ण है, जल शीत है, तथा वायु स्पर्श में सम है। ऐसा इनको किसने बनाया है? अर्थात् किसी ने भी नहीं। इसलिए जगत् के समस्त पदार्थ स्वाभाविक हैं।

अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तथाऽनिलः।

केनेदं चित्रितं तस्मात्स्वभावात्तदव्यवस्थितिः।।34

महर्षि दयानन्द इसके समाधान में कहते हैं कि बिना चेतन परमेश्वर के निर्माण किये जड़ पदार्थ स्वयं आपस में स्वभाव से नियमपूर्वक मिलकर उत्पन्न नहीं हो सकते। इस वास्ते सृष्टि का कर्ता अवश्य होना चाहिए। यदि स्वभाव से ही होते तो द्वितीय सूर्य, चन्द्र, पृथिवी और नक्षत्रादि लोक आपसे आप क्यों नहीं बन जाते हैं।35 इस सन्दर्भ में वेद का कथन है कि वह ईश्वर सत् वस्तुओं का कारण तथा अमूर्त वायु आदि का प्रकाशक है।36

वर्ण एवं आश्रम चार्वाकों के अनुसार न कुछ स्वर्ग है, न अपवर्ग है तथा न ही यह आत्मा दूसरे लोक में जाता है तथा न ही वर्णाश्रम आदि की क्रियाएँ फल देने वाली हैं।

न स्वर्गो नाऽपवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।

नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः।।37

महर्षि दयानन्द कहते हैं कि स्वर्ग सुख भोग और नरक दुःख भोग का नाम है। जो जीवात्मा न होता तो सुख दुःख का भोक्ता कौन हो सके? जैसे इस समय सुख दुःख का भोक्ता जीव है वैसे परजन्म में भी होता है। क्या सत्यभाषण और परोपकारादि क्रिया भी वर्णाश्रमियों की निष्फल होगी? काी नहीं।38

सुख दुःख का भोक्ता जीव है, इस तथ्य की पुष्टि उपनिषद् इस प्रसिद्ध मन्त्र से हो जाती है –

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।39   

यज्ञ में पशुबलि चार्वाक कहते हैं कि ज्योतिष्टोम यज्ञ में मारा हुआ पशु यदि स्वर्ग में जायेगा, ऐसा मानकर यजमान यज्ञ में पशु की हिंसा करता है तो वह अपने पिता को मारकर स्वर्ग में क्यों नहीं भेज देता।

पशुश्चेन्निहतः स्वर्ग ज्योतिष्टोमे गमिष्यति।

स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते।।40

महर्षि दयानन्द इसके समाधान में कहते हैं कि पशु मार के होम करना वेदादि सत्यशास्त्रों में कहीं नहीं लिखा है।41

श्राद्ध एवं तर्पण चार्वाक कहते हैं कि यदि मृतक प्राणियों का श्राद्ध उन मरे हुए प्राणियों की तृप्ति का कारण है तो कहीं अन्य स्थान पर जाते हुए व्यक्तियों के लिए पाथेय अर्थात् मार्ग के लिए भोज्यादि सामग्री आदि की कल्पना व्यर्थ है। स्वर्ग में स्थित व्यक्ति जब दान से तृप्त हो जाते हैं तब प्रासाद के ऊपरि भाग में स्थित व्यक्ति को नीचे से भोजन क्यों नहीं पहुँचाया जा सकता है। अतः ब्राह्मणों के द्वारा अपनी जीविकोपार्जन के लिए ही मृतकों के लिए ये प्रेतक्रियाएँ बनायी गयी हैं।42

इस पर महर्षि दयानन्द का मन्तव्य है कि मृतकों का श्राद्ध, तर्पण करना कपोलकल्पित है क्योंकि यह वेदादि सत्यशास्त्रों के विरुद्ध होने से भागवतादि पुराणवालों का मत है। इसलिए इस बात का खण्डन अखण्डनीय है।43

नरक चार्वाकों के अनुसार काँटे आदि के लगने से होने वाले दुःख का नाम नरक है।44 इस पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि तो महारोगादि नरक क्यों नहीं।45 अर्थात् लोक में और भी बड़े-बड़े दुःख दिखायी देते हैं। उन सबको नरक मानना चाहिए।

परमेश्वर चार्वाकों की मान्यता है कि लोकसिद्ध राजा ही परमेश्वर है।46

इस पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि राजा को ऐश्वर्यवान् और प्रजापालन में समर्थ होने से श्रेष्ठ माने तो ठीक है, परन्तु जो अन्यायकारी और पापी राजा हो तो उसको भी परमेश्वर के समान मानते हो तो तुहारे जैसा कोईाी मूर्ख नहीं।47

अतः स्पष्ट है कि महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश के बारहवें समुल्लास में चार्वाक दर्शन के सपूर्ण सिद्धान्तों को स्पष्ट किया गया है तथा साथ ही प्रसिद्ध दार्शनिक गन्थ सर्वदर्शन संग्रह के उद्धरणों को प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत किया गया है। महर्षि दयानन्द द्वारा चार्वाक दर्शन के सिद्धान्तों के सबन्ध में दोनों ही प्रकार के विचार प्राप्त होते हैं। वे चार्वाक दर्शन के कुछ मतों का समर्थन करते हैं तथा कुछ मतों का विरोध भी। परन्तु यहाँ समर्थन अथवा विरोध का एकमात्र कारण चार्वाकों के सिद्धान्तों की वेदानुकूलता है। चार्वाकों के जो मत वेदानुकूल हैं, महर्षि दयानन्द उनका समर्थन करते हैं तथा जो वेदानुकूल नहीं हैं, उनका विरोध। चार्वाकों के त्रिदण्ड, भस्मगुण्ठन, यज्ञ में पशुबलि तथा श्राद्ध एवं तर्पण विषयक विचारों का महर्षि दयानन्द समर्थन नहीं करते हैं। वस्तुतः ये सभी मत वेदविरुद्ध हैं। त्रिदण्ड एवं भस्मगुण्ठन का विधान किसी भी वैदिक यज्ञ अथवा विधान में नहीं है तथा न ही इनकी दैनिक जीवन में कोई उपयोगिता दिखायी देती है। जहाँ तक यज्ञ में पशुबलि का प्रश्न है, इसका भी कहीं वेद में समर्थन नहीं मिलता। परन्तु कुछ वेद के भाष्यकार ऐसे भी हुए जिन्होंने वेदमन्त्रों से यज्ञ में पशुबलि को सिद्ध किया। अतः यह दोष उन तथाकथित वेदभाष्यकारों का है, न कि वेद का। यहीं स्थिति श्राद्ध एवं तर्पण के विषय में है। ये दोनों ही जीवित व्यक्तियों के सन्दर्भ में हैं। परन्तु कालान्तर में जनमानस पर पोराणिक प्रभाव के कारण कुछ कर्मकाण्डियों ने इन्हें अपनी जीविका का साधन बना लिया। चार्वाकों ने वेदों का अध्ययन तो किया नहीं, अपितु उन्होंने महीधरादि वेदभाष्यकारों तथा पौराणिकों द्वारा यज्ञादि के नाम से समाज में प्रचलित किये गये पाखण्ड को वेद से जोड़ दिया तथा वेद की निन्दा करने लगे।

इसके अतिरिक्त महर्षिदयानन्द ने चार्वाक दर्शन के पुनर्जन्म का सिद्धान्त, शरीर में चार महाभूतों के योग से चैतन्य-उत्पत्ति, चैतन्यविशिष्टदेह ही आत्मा, पुरुषार्थ का फल, परलोक, अग्निहोत्र, वेद, मोक्ष, जगत् स्वाभाविक है, वर्ण एवं आश्रम, नरक तथा परमेश्वर विषयक सिद्धान्तों का खण्डन किया है। खण्डन का सपूर्ण आधार वेद है, जैसा कि प्रस्तुत शोध-पत्र में प्रत्येक स्थल पर प्रदर्शित किया गया है। अन्त में महर्षि दयानन्द के ही शदों में- जो वाममार्गियों ने मिथ्या कपोलकल्पना करके वेदों के नाम से अपना प्रयोजन सिद्ध करना अर्थात् यथेष्ट मद्यपान, माँस खाने और परस्त्री गमन  करने आदि दुष्ट कामों की प्रवृत्ति होने के अर्थ वेदों को कलङ्क लगाया, इन्हीं बातों को देखकर चार्वाक, बौद्ध तथा जैन लोग वेदों की निन्दा करने लगे और पृथक् एक वेदविरुद्ध अनीश्वरवादी अर्थात् नास्तिक मत चला लिया। जो चार्वाकादि वेदों का मूलार्थ विचारते तो झूठी टीकाओं को देखकर सत्य वेदोक्त मत से क्यों हाथ धो बैठते? क्या करे बिचारे ‘विनाशकाले विपरीतबुद्धिः’। जब नष्ट भ्रष्ट होने का समय आता है तब मनुष्य की उल्टी बुद्धि हो जाती है।48

सर्न्दा

  1. चार्वाकसमीक्षा, पृ. 6
  2. सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 2, पंक्ति 17-18
  3. वही पृ. 14, पं. 122-123
  4. सत्यार्थ प्रकाश पृ. 291 आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली -6,65 वॉँसंस्करण, नवबर 2007
  5. असुं स ईयुरवृका ऋतज्ञाः। ऋग्वेद 10.15.1

6 को नो मह्या अदितये पुनर्दात्। वही 1.24.1

7 पितरं च दृशेयं मातरं च। वही 1.24.1

8 कठोपनिषद् 1.1.6

9 वही 2.4.7

10 अत्र चत्वारि भूतानि भूमिवार्यनलानिलाः। सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 7, पंक्ति 60

11 तत्र पृथिव्यादीनि भूतानि चत्वारि तत्त्वानि। तेय एव देहाकारपरिणतेयः किण्वादियो मदशक्तिवच्चैतन्य-मुपजायते। तेषु विनष्टेषु सत्सु स्वयं विनश्यति।

वही पृ. 2-3, पंक्ति 23-25

12 ऋग्वेद 10.45.7

13 अथर्ववेद 10.8.21

14 नृसिंहपूर्वतापिन्युपनिषद् 3.5

15 सर्वदर्शनसंग्रह पृ.3, पं. 27-28

16 कठोपनिषद् 3.12

17 अङ्गनाद्यालिङ्गनादिजन्यं सुखमेव पुरुषार्थः। सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 3, पं. 29-30

18 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

19 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 14, पं. 124-125

20 सत्यार्थप्रकाश, पृ.291

21 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 5, पं. 50-51

22 वही पृ. 14, पं. 128-129

23 वही पृ. 15, पं. 130-131

24 वही पृ. 15, पं. 132

25 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

26 मैत्रायण्युपनिषद् 6.36

27 छान्दोग्योपनिषद् 5.24.5

28 सत्यार्थप्रकाश पृ. 289

29 श. का. 14, अ. 5 (ब्रा. 4, क. 10)

30 याज्ञवल्क्योऽभिवदति – हे मैत्रेयी! महत आकाशादपि बृहतः परमेश्वरस्यैव          सकाशादृग्वेदादिवेदचतुष्टयं (निःश्वसित) निःश्वासवत्सहजतया                   निःसृतमस्तीति वेद्यम्। यथा शरीराच्छ्वासो निःसृत्य पुनस्तदेव प्रविशति         तथैवेश्वराद्वेदानां प्रादुर्भावतिरो-भावौ भवतः इति निश्चयः। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदोत्पत्तिविषय 3

31 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 291-292

32 देहोच्छेदो मोक्षः। सर्वदर्शनसंग्रह पृ.6,पं. 53

33 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

34 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 13,पं. 110-111

35 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 291

36 सतश्च योनिमसतश्च वि वः। यजुर्वेद 13.3

37 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 13, पं. 114-115

38 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 291

39 श्वेताश्वतरोपनिषद् 4.6

40 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 13, पं. 114-115

41 सत्यार्थप्रकाश पृ. 291

42 मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्।

गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थ पाथेयकल्पनम्।।

स्वर्गस्थिता यदा तृप्तिं गच्छेयुस्तत्र दानतः।

प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते।।

ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणैर्विहितस्त्विह।

मृतानां प्रेतकार्याणि न त्वन्यद्विद्यते क्वचित्।। सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 13-14,                पं. 116, 118, 120, 121, 126, 127

43 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 291

44 कण्टकादिजन्यं दुःामेव नरकः। सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 6, पं. 52

45 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

46 लोकसिद्धो राजा परमेश्वरः। वही पृ. 6, पं. 52-53

47 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

48 वही, पृ. 292

 

सन्दर्भ ग्रन्थ

1 अथर्ववेद, भाष्यकार – क्षेमकरणदास त्रिवेदी, आर्य प्रकाशन, दिल्ली, 2007

2 उपनिषद् संग्रह – सं. – पं. जगदीश शास्त्री, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1980

3 ऋग्वेद, भाष्यकार – महर्षि दयानन्द सरस्वती, आर्य प्रकाशन, दिल्ली, 2005

4 त्रग्वेदादिभाष्यभूमिका – महर्षि दयानन्द सरस्वती, दिल्ली

5 चार्वाकसमीक्षा – स्वामी कृष्णानन्द सरस्वती, विश्वेश्श्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर, 1964

6 सत्यार्थप्रकाश – महर्षि दयानन्द सरस्वती, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली, 65 वाँ संस्करण, नवबर 2007

7 सर्वदर्शनसंग्रह – सायण-माधव, प्राच्य विद्या संशोधन मन्दिर, पुना, 1924

8 यजुर्वेद, भाष्यकार – महर्षि दयानन्द सरस्वती, आर्य प्रकाशन, दिल्ली, 2006

– सहायक आचार्य, पंजाब विश्वविद्यालय, विश्वेश्वरानन्द विश्वबन्धु संस्कृत एवं भारत-भारती अनुशीलन संस्थान, होशियारपुर

 

आर्यों का समाज कहाँ है? – सोहनलाल कटारिया

लेखक पुराने आर्य समाजी हैं। संगठन की वर्तमान समय में शिथिलता एवं समय के साथ-साथ आई कुछ न्यूनताओं पर आपने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। ऐसा समय आर्यसमाज में कभी नहीं रहा कि जन्मना जाति को आधार बनाकर किसी को सदस्य न बनाया गया हो। समय-समय पर स्थान-स्थान पर आर्यसमाजें यह प्रयत्न करती रहीं कि इससे जुड़े लोग अपने नाम के साथ आर्य लगाये और (जन्मना) जाति-सूचक शब्द न लगायें। इस मिशन में पूर्ण सफलता नहीं मिली। व्यापक रूप में आर्यसमाज व्यक्तियों तक सबद्ध रहा, परिवारों तक (कुछ अपवादों को छोड़कर) नहीं पहुँच सका। लेखक के विचारों से सपादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। हम श्री सोहनलाल कटारिया जी का लेख पाठकों के लाभार्थ यहाँ मूल रूप में दे रहे हैं। -सपादक

‘कुछ तड़प-कुछ झड़प’ के स्तभ लेखक ने परोपकारी जुलाई (प्रथम) 2015 के अंक में लिखा है- ‘‘गंजोटी के इस कार्यक्रम में ‘दलित आर्य परिवारों ने सोत्साह बढ़-चढ़कर प्रत्येक घर से वेद प्रकाश हुतात्मा के नाम पर बिना माँगे दान दिया।’ यह प्रसंग आज भी वहाँ चर्चित है। यह आनन्द की बात है।’’

आर्य परिवार दलित है तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य भी होने ही चाहिये। मैंने पढ़ा है कि आर्यसमाज के संगठन में प्रारभिक काल में तथाकथित दलित वर्ग को सदस्य ही नहीं बनाया जाता था और जो व्यक्ति अपने नाम के साथ आर्य लिखता था, उसे ताना मारकर चिढ़ाते थे कि यह अपनी जात को छुपाता है, इससे बचने के लिये लोगों ने आर्य लिखना त्याग दिया (मनुस्मृति के उदाहरण देते थे, शर्मा, वर्मा, गुप्त, दास) यह ब्राह्मण धर्म की मानसिकता की गहरी पैठ है।

वर्तमान में आर्यसमाज के संगठन में अन्य संगठनों के अनुसार प्रवेश के लिये एक आवेदन भरना पड़ता है और अपनी आय का शंताश धन भी देना अनिवार्य है, यदि वह चन्दा नहीं देता है तो सदस्यता समाप्त हो जाती है, यही नहीं, यदि सदस्य संगठन के नियमों, सिद्धान्तों के विरुद्ध कार्य करने का दोषी  पाया जाता है तो उसे संगठन से निष्कासित भी कर दिया जाता है अर्थात् इस संगठन में जबतक व्यक्ति चन्दा देता है तबतक ही सदस्य रहता है- स्वयं भी संगठन को त्याग सकता है। इस प्रकार व्यक्ति के ‘सामाजिक’ संगठन से इसकी कोई निरन्तरता नहीं रहती है। लोगों को कहते सुन लेंगे कि ‘‘मेरे दादाजी आर्यसमाजी थे।’’

‘समाज’ का अर्थ है- व्यक्तियों का वह समूह जहाँ उनका आपस में खानपान, विवाह और दुःख-सुख में समिलित होना और एक दूसरे के कल्याण में तत्पर रहना होता हो। वर्तमान आर्यसमाज संगठन इन सामाजिक व्यवहारों को लेशमात्र भी नहीं निभाता है। यह भी ‘लॉयन, रोटेरी अथवा फिलेनथ्रफिक सोसायटी’ क्लब के समान ही कार्य कर रहा है। जब किसी समूह की सामाजिक आवश्यकतायें पूरी नहीं होगी तो उसके सदस्य-परिवार इस संगठन से क्यों जुड़ेंगे? दलित परिवारों का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

मानव समाज के समूह के निर्माण में विवाह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कड़ी है और इसके महत्व को समझकर सार्वदेशिक सभा के प्रयासों से आर्य विवाह एक विधान (अन्तरजातीय) पारित करवाया गया। इसका लाभ तो थोड़ा मिला परन्तु आज तो दुरुपयोग ही हो रहा है। आर्यों का सामाजिक समूह तो बना नहीं। प्रसिद्ध आर्यों की पुत्रियाँ इतर धर्मावलयिों में विवाही जा रही है और आर्यों से उनकी मूल जातीय समूह से युवतियाँ विवाही जा रही है, परिणाम आर्यों का समाज बनता ही नहीं है। एक आर्यसमाजी के देहान्त हो जाने पर उसके परिवार का कोई सदस्य आर्यसमाज के संगठन का सदस्य बने, यह अनिवार्य तो है नहीं, बाध्यता भी नहीं। मैं कितने ही प्रसिद्ध आर्यसमाजियों को जानता हूँ, जो महर्षि के जीवनकाल में, उनकी सेवा में रहे थे, आज उनके परिवार का कोई सदस्य आर्यसमाज का सदस्य नहीं है और न ही आर्यसमाज के नियमों, सिद्धान्तों का पालन करता है। अजमेर-मेरवाडा और मेवाड़ में कितने ही पौराणिकों, जैनियों को, जिन्हें स्वामी जी ने स्वयं यज्ञोपवीत धारण कराकर वैदिक धर्म आर्यसमाज में ही दीक्षित कराया, उनके वंशज अपने पूर्व धर्म समाज-जाति में ……. गये। आज से पचास-साठ वर्ष पूर्व के आर्य समाजियों (जिनका देहान्त हो गया है) के परिवार का कोई विरला ही सदस्य, वर्तमान आर्यसमाज संगठन का सदस्य है। बड़े-बड़े आर्यसमाज (अजमेर जैसे गढ़) की सभासदों की संया 15/20 भी नहीं है। साप्ताहिक सत्संग में यज्ञ पर बैठने के लिये चार व्यक्ति भी उपलध नहीं होते हैं।

आर्यसमाजी की परिभाषा, ‘आर्य विवाह एक्ट’ के अनुसार वह व्यक्ति – (क) किसी भी आर्यसमाज का सदस्य हो, (ख) खण्ड (क) में वर्णित व्यक्ति के कुटुब का सदस्य या आश्रित सबन्धी।

आर्य और आर्यसमाजी शब्द एक ही व्यक्ति के लिये प्रयुक्त होते हैं। वस्तुतः यह दोनों पर्यावाची शब्द है ‘‘आर्यसमाज’’ शब्द का शादिक अर्थ- ‘आर्यों का समाज’ है। और इस समाज वाले को आर्यसमाजी कहते हैं। भाषा और कानून दोनों ही दृष्टियों से इन दोनों शदों से एक ही व्यक्ति का बोध होता है। साधारण व्यवहार में व्यक्ति को अपना धर्म बताने के लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, केवल घोषणा पर्याप्त होती है। कोई कहे मैं हिदू हूँ, मुसलमान हूँ, आर्यसमाजी हूँ तो ऐसा ही मान लिया जाता है। बीसवीं शतादी के तीसरे दशक में आर्यसमाजी बनने और कहलाने में व्यक्ति शान गौरव समझताा था। जनगणना में भी आर्य समाजियों की अलग से गणना की गयी थी, 1931 की जनगणना के अनुसार राजपुताने में- आर्य 14073, सिक्ख 42943, जैन 320245, ईसाई 12725, हिन्दू 20606003, इनमें ब्राह्मण धर्म मानने वाले 9999142 थे परन्तु विडबना है कि काल के साथ हम अपनी संया गणना कराने से हट गये। तर्क हम ‘अल्पसंयक’ नहीं होना चाहते, हिन्दुओं के अन्तर्गत रहने में ही राष्ट्रहित होगा। यह नहीं मानते कि ‘हिन्दू’ ऐसा पौराणिक महासागर है, इसमें कितनी ही बाहर से आयी हुई जातियाँ- हूण, शक, यवन, सब इसमें डूब गये, आज उनका अस्तित्व नहीं रहा। इसी प्रकार आर्य भी इसी महासागर में बनते रहते हैं और डूबते रहते हैं– छटपटाते हुये, न इधर के न उधर के।

आर्यों के समाज के निर्माण के बारे में प्रसिद्ध आर्यसमाजी नेता यावर के श्री वैद्य रविदत्त जी कहा करते थे कि आर्यसमाज प्रवेश करने के पश्चात् उस व्यक्ति का, पिछला द्वार जहाँ से वह आता है, बन्द हो जाना चाहिये, तब ही आर्यसमाज बनेगा, अन्यथा पिछला द्वार खुला है, तो फिर उसे पुनः उसी द्वार से लौटने में विलब नहीं होगा। यद्यपि पं. भगवानस्वरूप जी न्यायूभूषण जैसे विद्वान् का मत सदा यही रहा कि आर्यसमाजियों केा अपने-अपने समाज-जाति में ही रहकर अपने समाज का सुधार करते रहना चाहिये। डॉ. धर्मवीर जी नेाी कितनी ही बार कहा है कि जातीय संगठन इतना मजबूत है कि इसे तोड़ना, असभव जैसा है जब महर्षि दयानन्द इसे नहीं तोड़ सके तो भविष्य में भी इसे तोड़ने वाला दिखायी नहीं देता। गुरुकुल विश्व विद्यालय में एक नरदेव को यज्ञोपवीत धारण कराया, स्नातकोत्तर भूषित करके पण्डित बनाया परन्तु सामाजिक व्यवहार में जब वह सांसारिक कर्म क्षेत्र में गृहस्थाश्रम जीवन यापन के लिये उतरता है तो उसी मूल दलित समाज में ही प्रवेश करना पड़ता है- राजनैतिक जीवन में लोकसभा की ‘दलित’ आरक्षित सीट से चुनाव लड़ता है और ललाट पर एक अमिट दलित की छाप लग जाती है। यज्ञोपवीत और स्नातक की उपाधि गौण, उसे ‘वर्तमान जाति’ से छुटकारा पाने के लिये दूसरा जन्म ही एक मात्र सपना रहता है।

परोपकारिणी सभा ने कुछ वर्ष पूर्व अन्तरजातीय विवाह के लिये ऋषि मेले के अवसर पर प्रयत्न किया था परन्तु निष्फल रहा- एक महिला ने कहा ‘‘मुझे ब्राह्मण लड़की ही चाहिये आर्यसमाज में तो नीच जाति के लोग भी आ जाते बताये जाते हैं।’’

अस्तु आर्यों को अपना सामाजिक संगठन करना होगा। अपनी अलग पहचान बनानी होगी ‘‘जातिवाद का अजगर देश को निगलने पर तुला बैठा, इसको समाप्त करना होगा।’’ पौराणिक सनातनी के अनुसार भेद नहीं होगा। तब ही हमारे स्त्संगों, उत्सवों, पर्वों के कार्यक्रमों में परिवार के सदस्य उपस्थित होंगे और महर्षि के उद्देश्यों को प्राप्त कर सकेंगे और आर्यसमाजी कहलाने में गौरव, शान का अनुभव कर सकेंगे। 95 वर्ष की आयु हो गयी है। आर्यसमाज में कई स्थानों में, सभासद, उपमन्त्री, मन्त्री, उपप्रधान, प्रधान और राजस्थान आर्य प्रतिनिधि सभा में उपमन्त्री रह चुका हूँ।

वर्तमान में तो आर्यों का समाज कहाँ है, ढूँढ़ता ही रहता हैं, कोई बतायेगा, कहाँ है?

– 89, पहाड़गंज, राजेन्द्र स्कूल के अजमेर, राज.