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अमर हुतात्मा श्रद्धेय भक्त फूल सिंह के 74 वें बलिदान दिवस पर – चन्दराम आर्य

 

पिछले अंक का शेष भाग…..

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उन्नीस दिन के अनशन से गोचर भूमि छुड़वानाः- आपको गोमाता से बड़ा प्यार था। सन् 1928 में गुरुकुल के लिए चन्दा करने के लिए जीन्द जिले के ललत खेड़ा गाँव में जाना पड़ा । वहाँ दिन में भी गायों को घरों में बन्धा देखा तो बड़े दुःखी हुए। गाँव वालों ने पूछने पर बताया कि गायों को घूमने के लिए गोचर भूमि नहीं है। आपने गाँव के व्यक्तियों को एकत्रित करके कहा कि ‘‘आप भूमि का लोभ न करें गायों के लिए गोचर भूमि छोडें, जिससे ये चल-फिरकर निरोग रह सकें। परन्तु लोग नहीं माने तो आपने पंचायत के सामने घोषणा की – सुनो, मेरे प्यारे भाइयों , तुम गोचर भूमि को नहीं छोड़ते हो तो मैं अपने जीवन को छोड़ने की तैयारी करता हूँ। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं तब तक अन्न ग्र्रहण नहीं करुंगा जब तक आप गायों के लिए गोचर भूमि नहीं छोड़ते हैं। आपका अनशन उन्नीसवें दिन पहुँच गया। ’’ शारीरिक रूप से अत्यन्त दुर्बल हो गये। आपको बेहोशी रहने लगी। गाँव के लोगों ने परस्पर समझाते हुए कहा ‘‘भाइयों , भक्त जी को बचाओ। अनशन के कारण भक्त जी की मृत्यु हो गई तो हम तो मुँह दिखाने के योग्य भी नहीं रहेंगे।’’ सबने मिलकर आपके पास आकर कहा ‘‘महाराज, दया करो, अपने इस व्रत को छोड़ो, गोचर के लिए आप जितनी जमीन कहेंगे उतनी जमीन छोड़ देगें। भक्त जी ने सबका धन्यवाद किया। गांव वालों ने गोचर केलिए जमीन छोड़ दी।

धर्म-विमुख बन्धुओं को हिन्दू धर्म में लाने के लिए ग्यारह दिन का अनशनः- जिसके धारण करने से मनुष्य जीवन प्रगति की ओर बढ़ता रहे उसे धर्म कहतेहैं। जो आत्मा से प्रतिकूल हो उसे दूसरे केलिए न करना धर्म है। जिस काम से अन्यों केा दुःख हो उसे अधर्म तथा पाप कहते हैं। संसार में वैदिक धर्म सबसे प्राचीन है। परन्तु इसमें शिथिलता आने के कारण अनेक सप्रदायों ने जन्म लिया। जो एक दूसरे को नीचा दिखाने लगे। गुडगांव जिले के होडल व पलवल गांव के जाट जो आर्य थे वे मुस्लिम धर्म में दीक्षित हो गये और मूले जाट कहलाये। आर्य समाज का प्रचार सुनकर वे पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित होना चाहते थे। परन्तु विवाह आदि सबन्ध भी आर्य जाट उनसे कर लें। आप अपने पण्डितों और साथियों समेत वहाँ पहुचे। परन्तु वहाँ का जैलदार नहीं माना। आपने उस बाधा केा रोकने केलिए 11 (ग्यारह) दिन का अनशन किया चौधरी छोटूराम जी के समझाने पर आपने अनशन समाप्त किया। परन्तु श्ुाद्धि का कार्य जारी रखा।

सबन्धी बनकर शुद्धि को प्रोत्साहनः- सन् 1929 में केहर सिंह नामक युवा को पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित किया गया। प्रसिद्ध आर्य समाजी श्री गिरधारी लाल जी मटिण्डू ने उस नवयुवक से अपनी पुत्री का वाग्दान किया। इस विवाह में गठवाला गोत भाती बनकर उपस्थित हुआ। इस सारे कार्य के सूत्रधार भक्त जी ही थे। गठवाला गोत के दादा चौधरी घासी राम जी हाथी पर सवार होकर भात के लिए 1600 रुपये लेकर दलबल सहित विवाह में धूमधाम से पहुँचे। वह दृश्य अद्भूत था और देखते ही बनता था। इससे सारी खापें प्रेम के कारण एक रूप बन गई थी।

जीवन त्याग की शिक्षा से दो कुटुबों की रक्षाः- जागसी गांव में एक बार दो कुटुबों में परस्पर विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ा कि एक कुटुब ने दूसरे कुटुब के आदमी को मार दिया। अब जिस कुटुब का व्यक्ति मारा गया वह भी बदला लेने का निश्चय कर चुका था। आषाढ़ी की खेती खेतों में पकी पड़ी थी। गाँव वाले अपनी-अपनी खेती काटकर खलिहानों में डाल चुके थे। परन्तु उन दोनों परिवारों की खेती उजड़ रही थी। किसी व्यक्ति ने आपको यह घटना सुनाई तो आप तो नर्म दिल थे। आप जागसी गाँव पहुँचे। जिस व्यक्ति ने दूसरे कुटुब का व्यक्ति मारा था आप उसके पास पहुँचे और पूछने लगे भाई-‘‘तुम अपना तथा अपने परिवार का सुख चाहते हो तो सब दुःख मुझे बताओ।’’ यह सुनकर उस व्यक्ति ने सारी घटित-घटना कह सुनाई। उसकी बात सुनकर आपने कहा ‘‘भाई मैं जो कहता हूँ वह सुनो और उस पर आचरण करो। वह यह है कि तुम मरने वाले के भाई के पास जाकर उससे कहो कि भाई, मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई है। अतः तुम अपने हाथों से मुझे मार डालो। यदि इससे तुमको सन्तोष न मिले तो हमारे जितने व्यक्तियों के मारने से तुझे आत्म सन्तोष हो उतने मैं आपके पास भेज दूँगा। उनको मारकर शान्ति लाभ करो। आपकी बात का इतना प्रभाव पड़ा कि वह अकेला उस मरने वाले के भाई के पास गया और उसके चरणों में गिरकर क्षमा याचना की। इसके  बाद उसने कहा भाई मुझ से भूल हो गई है तुम उस भूल का दण्ड मुझे मार कर दो। यदि इससे आपको सन्तोष न हो तो मेरा सारा परिवार आपके चरणों में है। यह कहकर वह बालक की तरह रोने लगा जब उसने अपने विरोधी के अहंकार विहीन, विनम्र शब्द सुने तो वह द्रवित हो गया। उसने उसे चरणों से उठाकर अपनी छाती से लगा लिया। वह उससे बोला भाई। मेरा सारा दुःख दूर हो गया। आज से तुम मेरे अपने भाई हो। दोनों कुटुब वालों ने आपके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की।

रोहतक में गोरक्षा समेलन में पं. मदनमोहन मालवीय जी के नेतृत्व में आर्य समाज की ओर से गोरक्षा का अद्भुत एवं सफल समेलन किया जिसके आप स्वागताध्यक्ष थे। आपको मालवीय जी के साथ हाथी पर बैठने का आग्रह मालवीय जी व आर्यजनों ने किया। परन्तु आप आर्य जनों के साथ पैदल ही चलते रहे।

यवनों से अपहृत कन्या को वापिस लानाः- एक दिन भक्त जी गुरुकुल में बैठे गुरुकुल की आर्थिक दशा को ठीक करने के विषय में गुरुकुल वासियों से मन्त्रणा कर रहे थे। उस समय घबराया हुआ एक व्यक्ति आपके पास आया। रोता हुआ वह आपके पाँवों में गिर पड़ा । उसको धैर्य बन्धाते हुए आपने कहा बताओं मुझसे क्या चाहते हो? मैं तुहारी यथाशक्ति सहायता करुँगा, उसने कहा मेरा नाम नेकीराम है। मै सिरसा जांटी गाँव का रहने वाला हूँ। मेरी पोती को मेरे विरोधियों ने उठवा लिया है। वह अब गूगाहेड़ी के मुसलमान राजपूतों के पास है। मैं कई बार लेने गया परन्तु उन्होंने नहीं दी। भक्त जी ने सारी बात सुनकर कहा तुम जाओ तुहारी पोती तुमको मिल जायेगी। इसके बाद आपने निदाना और फरमाना गाँव की पंचायत की तथा पंचायत में कहा, ‘‘भाइयो, गरीब जाट की लड़की यवन रांग्घड़ राजपूत जबरदस्ती अपने गाँव गुगाहेडी में रोके हुए हैं।’’ पंचायत के प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने दबाव देकर गुगाहेडी के रांग्घड़ राजपूतों से कहा यह जांटी गांव की लड़की वापिस कर दो नहीं तो अब तुम अपनी लड़कियों की खैर मनाना। इस धमकी के दबाव में आकर वह लड़की उस पंचायत को रांगघड राजपूतों ने सौंप दी और वह लड़की का दादा नेकीराम भक्त जी तथा उन सबका धन्यवाद करके अपनी पोती को प्रसन्नता पूर्वक साथ ले गया।

कन्या गुरुकुल खानपुर की 1936 में स्थापनाः- उस समय कन्याओं को पढ़ाना गांव वाले आवश्यक नहीं मानते थे। फिर भी भक्त जी ने घर-घर जाकर कन्याओं को पाठशाला में भेजने को कहना पड़ा। सत्रह छोटी-छोटी कन्याओं के साथ पाठशाला प्रारभ की अब तो महाविद्यालय के साथ-साथ विश्वविद्यालय बन गया है।

मानापमान का भाव न रखकर विरोधी की भी सेवा करनाः- भैंसवाल गाँव में आर्य समाज का उत्सव था। उसमें भक्त जी भी गुरुकुल के ब्रह्मचारियों व अध्यापकों सहित उपस्थित हुए। ग्राम वालों ने चौधरी लहरी सिंह को भी आमन्त्रित किया हुआ था। भक्त जी ने चुनाव में चौ. टीकाराम जी का साथ दिया था और चौ. लहरी सिंह का विरोध किया था। इससे चौ. लहरी सिंह भक्त जी को अपना विरोधी मानते थे। गर्मी के दिन थे। बहुत गर्मी थी सब पसीने से भीग रहे थे। चौ. लहरी सिंह भी गर्मी से परेशान थे। भक्त जी चौधरी लहरी सिंह के पास जाकर हाथ के पंखे से हवा करने लगे। पंखे की हवा से आनन्द की अनुभूति होने पर जब चौ. लहरी सिंह ने ऊपर क ी और देखा तो आश्चर्य में पड़ गये कि भक्त जी उन पर हवा कर रहे हैं । आपके हाथ से पंखा लेकर स्वयं हवा करते हुए कहने लगे, भक्त जी आप बहुत महान पुरुष है जो मानापमान को भुला देते हैं।

रोहतक में हैदराबाद सत्याग्रह समिति का प्रधान बन कर सफल नेतृत्वः- हैदराबाद निजाम की धर्मविरोधी नीतियों का प्रतिकार करने केलिए सार्वदेशिक सभा के तत्कालीन प्रधान महात्मा नारायण स्वामी के नेतृत्व में सन् 1939 में सत्यागृह का बिगुल बजा। हरियाणा में भी इस सत्याग्रह में समिलित होने केलिए उत्साही आर्य युवकों व पुरुषों ने रोहतक आर्य सत्याग्रह समिति का सर्वसमति से आपको प्रधान चुन लिया। आपने गुरुकुल के प्रथम शिष्य आचार्य हरीशचन्द्र के नेतृत्व में पहला जत्था भेजा। दूसरा जत्था स्वामी ब्रह्मानन्द जीके नेतृत्व में भेजा इसमें गुरुकुल के स्नातक, अध्यापक ब्रह्मचारियों व ग्रामीण तथा शहरी जनता ने अपना तन-मन-धन से पूर्ण सहयोग दिया यह युद्ध छः मास तक चला।

दलितों का कुआँ बनवाने केलिए 23 दिन का कठोर अनशनव्रतः- सन् 1940 की बात है कि आप एक दिन प्रातः काल के समय वट-वृक्ष के नीचे कन्या गुरुकुल खानपुर में समाधिस्थ हुए बैठे थे। ईश्वर का गुणगान करते हुए जब आपने आँखे खोली तो आपको सामने प्रतीक्षा करते हुए चार व्यक्ति दिखाई दिए। जब आपने उनकी और दृष्टि घुमाई तो उन चारों व्यक्तियों ने आपके चरण पकड़ कर रो-रोकर आँसुओं से आपके पाँव धो डाले। आपके पूछने पर उन्होंने बताया कि हम मोठ गाँव के  रहने वाले चमार हैं। हम कुएं के जल के बिना बड़े तंग हैं। हमने गाँव के  जमीदारों से इजाजत लेकर कुआं बनाना प्रारभ किया। कुएं में नीमचक भी डाल दिया। किसी के बहकावे में आकर मुसलमान रांघड़ों ने कूएं में डाला हुआ नीमचक निकाल कर बाहर फेंक दिया और हमको डराया धमकाया। हमने बार-बार हाथ जोड़कर  प्रार्थना की परन्तु वे टस से मस नहीं हुए। हमको किसी ने सुझाया कि आप हरियाणे के सन्त भक्त फूलसिंह जी के पास जाओ, वे तुहारे दुःख का निवारण करेंगे। अतः अब हम आपके श्री चरणों में उपस्थित हुए हैं। उनकी बात सुनकर उनको धैर्य बन्धाते हुए आप ने कहा मैने आपकी बात सुन ली, आपके  कष्ट को दूर करने का मैं यथोचित उपाय करुंगा। सोच विचार करने के बाद आप जीन्द से असेबली के सदस्य चौधरी मनसाराम जी को साथ लेकर मोठ गाँव में पधारे। आपने गांव की पंचायत बुलाई और उनके सामने चमारों के कुएं की बात करते हुए कहा ‘‘भाइयो मैं साधु आप लोगों से यह भिक्षा मागंने आया हूँ कि आप पहले की तरह इन भाइयों को कुअां बनाने की आज्ञा प्रदान करें। ये गरीब हैं आप मालिक है। आपकी दया से जब ये कूएं का जल पान करेंगे तो आपको आशीष देंगे। इस समय एक बूढ़े मुसलमान रांग्घड ने उन युवा यवनों की और संकेत करके कहा कि लड़कों तुम इस चमारों के बाबा को पकड़ो और दूर जंगल में छोड़ आओ यहाँ खड़ा-खड़ा तो यह यूं ही बक बक करता रहेगा।’’ वे नवयुवक आपको तथा आपके साथी मनसाराम जी को पकड़ कर अलग-अलग रास्तों से जंगल में दूर छोड़ आये। उस समय रात के ग्यारह बजे थे । वे आपको गालियाँ देते हुए घसीटते हुए मखौल उड़ाते हुए बाल नोचते हुए मारते -पीटते हुए अधमरा करके कहीं जंगल में पटक कर आये थे। गर्मी का मौसम था, भूख प्यास से संतप्त आप पृथ्वी पर पड़े जीवन  की अन्तिम घडियाँ गिन रहे थे तभी वहीं से होकर एक लालाजी दूसरे गाँव में जा रहे थे। तब उस लाला ने देखा कि एक साधु लबी-लबी श्वासें ले रहा है। वह आपके पास गया और आपको कहीं से लाकर पानी पिलाया आपकी दयनीय दशा को देखकर लाला जी ने हाथ का सहारा देकर आपको उठाया तथा पास की ढाणी गाँव में छोड़कर चला गया। गाँव वालों ने आपकी सेवा की और आपकी इच्छानुसार नारनौंद गाँव में पहुँचा दिया। उधर से श्री मनसाराम जी भी जंगल में आपको ढूंढते हुए नारनौंद गाँव में पहुँचे । आपने श्री मनसाराम जी के आते ही इतना कष्ट पाकरभी अनशन व्रत प्रारभ कर दिया । आपके इस अनशन की पांचवें दिन गुरुकुल भैंसवाल तथा कन्या गुरुकुल खानपुर में सूचना पहुँची। सूचना मिलते ही गुरुकुल से चौधरी स्वरूपलाल, आचार्य हरीशचन्द्रजी, आचार्य विष्णुमित्रजी, श्री अभिमन्यु जी बहन सुभाषिणी जी, गुणवती जी अपने छात्र-छात्राओं सहित नारनौद गाँव पहुँचे। इस अवसर पर आपके अनशन व्रत की समाप्ति के लिए आर्य समाज के सर्वस्व स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज, स्वामी ब्रह्मानन्दजी, सेठ जुगलकिशोर जी बिड़ला, श्री वियोगी हरि, चौधरी सूरज मल जी, हिसार, चौ. टीकारामजी सोनीपत, चौ. माडूसिंह जी रोहतक, चौधरी छाजूराम जी जज देहली, चौधरी अमीलालजी रईस सिसाह, चौ. शादीरामजी योगी सोनीपत, दादा घासीराम जी अहुलाना चौधरी जानमुहमद मेयर रोहतक नगर, चौधरी शाफे अली गोहना, चौ. मुत्यार सिंह जी पलवल आदि पहुँचे। अनशन व्रत को समाप्त करवाने के लिये सेठ छाजूराम जी अलखपुरा का कलकता से तार आया। महात्मा गाँधी का भी तार आपको मिला कि अनशन समाप्त कर दें। चौधरी छोटूराम जी ने भी पत्र द्वारा आपको अनशन व्रत तोड़ने की प्रार्थना की । आपको उपवास करते हुए जब 19 दिन हो गये बहुत समझाने पर भी दुराग्रह यवन नहीं माने और अनशन के कारण आपका शरीर बिल्कुल निर्बल हो गया, तब चौधरी छोटूराम जी मन्त्री पंजाब सरकार ने डी.सी. हिसार के नाम एक तार भेजा जिसमें चौधरी साहब ने लिखा कि तुरन्त मोठ में कुआं बनवाया जावे। कुआं भक्त जी की इच्छानुसार बने। जो इस कार्य में रुकावट डाले उसका कठोरता से दमन किया जाये। माननीय मन्त्री जी की आज्ञा मिलते ही डी.सी. ने भक्त जी के पास सूचना भेजी की आप कुआं बनवा लें। कोई भी इसमें रुकावट नहीं डालेगा। यह जिमेदारी मेरी है। आपकी इच्छानुसार तीन दिन में कुआं बनकर तैयार हो गया। जब कुआं बनकर तैयार हो गया तो आपको सूचना भेजी गई। आपने अपने परम विश्वासपात्र चौ. रामनाथ माजरा और चौ. नौनन्द सिंह जी को अपनी तसल्ली के लिए कुएं पर भेजा। उनके बताने पर कि कु आं तैयार हो गया तो आप बहुत प्रसन्न हुए। आपको कुएं पर ले जाने के लिए रथ सजाया गया। आर्य जयघोषों के साथ आपको उस रथ में बिठाया गया। आपके रथ के पीछे सहस्रों नर-नारियाँ पैदल चलकर जयघोषों के साथ आपको आनन्दित कर रहे थे। पतिव्रता देवियाँ दूर से ही सिर झुका-झुकाकर आपको प्रणाम कर रही थी। शरीर से निर्बल हुए जब आप शनैः शनैः लोगों का सहारा लेकर कुएं पर पहुँचे तो वह दृश्य रोंगटे खड़े करने वाला था। आपके शरीर की अतिक्षीणता को देखकर कतिपय भक्त तो वहाँ पर रोने लगे। कुएं पर पहुँचकर आपने एक हरिजन भाई से उसी कुएं का पानी खिंचवाया तथा उस जल का पान किया। उस समय हमारे चमार भाई कितनी कृतज्ञता भरी दृष्टि से आपको देख रहे थे, इसको तो वे ही समझ सकते हैं। जिस युवक ने आपको धक्का देते हुए मोठ गाँव से बाहर निकालते हुए दुःख दिया था वह अब आपका परम भक्त बन गया था, उसने स्वयं अपने हाथ से सन्तरे का रस निकाल कर आपको पिलाया। इतना ही नहीं वह आपके चरणों में गिरकर रोता हुआ क्षमा याचना करने लगा। आपने उसे चरणों से उठाकर अपने गले लगा लिया। इसके बाद स्वास्थ्य लाा के उपरान्त आर्य सार्वदेशिक सभा के तत्वाधान में दिल्ली में आपका भव्य स्वागत किया गया। ठीक ही कहा है-

‘‘सेवा धर्मः परम गहनो योगीनाममप्यगयः।’’

लोहारु काण्डः- सन् 1940 की घटना है। हैदराबाद के निजाम की तरह लोहारु का मुसलमान शासक हिन्दुओं पर तो अत्याचार करता थाऔर मुसलमानों को अधिक अधिकार देकर उनका साहस बढ़ाता था। लोहारु आर्य समाज के मन्त्री ठाकुर भगवान सिंह जी को तो उसने बहुत कष्ट दिये थे। ठाकुर जी आर्य नवयुवक थे। उन्होंने अपनी सहायता के लिए भक्त जी के पास जाना उपयुक्त समझा। समय निकालकर वह स्वयं भक्त जी के पास पहुंचा। भक्त जी ने सहानुभूतिपूर्वक उनकी सारी कष्ट कहानी सुनी। ठाकुर जी को आश्वस्त कर आप स्वयं नवाब से मिलने के लिए गये आपने नवाब को आर्य समाज के प्रचार की सपूर्ण समाज के हित की बातें प्रेम-पूर्वक समझाई। आपकी बातों के उत्तर में नवाब ने कहा कि आपकी बातों से मैं सहमत हूँ। आप आर्य समाज का उत्सव कीजिए उसमें मैं भी समिलित होऊँगा।

सन् 1941 के अप्रैल मास में आर्य समाज लोहारु का उत्सव रखा गया। यह उत्सव आर्य प्र्रतिनिधि सभा पंजाब की ओर से श्रीयुत स्वामी स्वतन्त्रानन्द के नेतृत्व में होना निश्चित हुआ। पण्डित समर सिंह जी वेदालंकार महोपदेदशक व चौ. नौनन्दसिंह अपनी-अपनी भजनमण्डली के साथ उत्सव में पधारे। आप सबके लोहारु पहुंचने पर सबसे पहले जलूस निकालने काआयोजन किया गया। आपने बहुत रोका परन्तु नवयुवकों के जोश के आगे आप चुप हो गये। जलूस में सबसे आगे पूज्य स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी, आप, चौ. नौनन्द सिंह व चौधरी गाहड़ सिंह थे। जलूस जैसे ही नगर के अन्दर पहुँचा तो वहाँ पहले से ही लड़ने के लिए नवाब के सिपाही तैयार खड़े थे। उन्होंने आप सब पर लाठियों से प्रहार करने शुरु कर दिये। प्रहारों से भक्त जी तथा नौनन्द सिंह जी वहीं मूर्छित होकर गिर पड़े आपको 24 घण्टे बाद होश आया। इतना ही नहीं नवाब ने आपको तथा नौनन्द सिंह जी को अपराधी बना दिया । जब यह सूचना गुरुकुल भैंसवाल पहुँची तो वहाँ के अधिकरी गण गुरुकुल से चलकर हिसार के डी.सी. महोदय का पत्र लेकर दादा घासी राम जी श्री स्वरूपलाल जी, श्री हरिशचन्द्र जी, श्री योगेन्द्र सिंह जी लोहारु स्टेट में पहुँचे। वहाँ वे नवाब से मिले और आपको मुक्त करा कर आपका इलाज कराने केलिए इरविन अस्पताल दिल्ली ले गये। आपको स्वास्थ्य लाभ करने में दो मास लग गये। तब आपकी वीरता, धीरता एवं निर्भयता की ूारि-भूरि प्रशंसा की गई।

बलिदानः- बार-बार के अनशनों, व्रतों जलूसों पर लाठी प्रहारों से आपका शरीर काफी दुर्बल होता जा रहा था। दोनों संस्थाओं के संचालन का भार भी काफी बढ़ रहा था। गुरुकुल खानपुर का अधूरापन भी आपको अखर रहा था। इसके अतिरिक्त आपके शुद्धि कार्य से मुसलमान भी आपसे अप्रसन्न हो कर आपके विरोधी बन गये थे। वे आपको मारने के अवसर की तलाश में थे। आपने अपने प्रेमियों से कहना प्रारभ भी कर दिया था कि आप मेरा सहारा छोड़कर इन संस्थाओें को सभालो। भक्त जी महाराज के ये आप्त शब्द थे। 14 अगस्त सन् 1942 तदनुसार श्रावण बदी द्वितीया सवत् 1999 को रात्रि के 9 बजे आप अपने श्रद्धालुओं के साथ भगवत् ध्यान में लीन थे। उस समय बैट्री हाथ में लिये 5 यवन घातक सिपाही के वेश में एक बन्दूक और दो पिस्तोलों के साथ आ धमके। उन नराधमों ने भक्त जी के मुख पर बैट्री से प्रकाश डालते हुए कड़ककर कहा, कि तुम यहाँ फौजी भगोड़ों को रखते हो, तुम सरकार से गद्दारी करते हो। उनकी बात सुनकर भक्त जी महाराज ने कहा, यहाँ कोई फौजी भगोड़ा नहीं है यह स्थान तो लड़कियों के पढ़ने का है। आप हम पर पूर्ण विश्वास करें। उन नराधमों ने भक्त जी क ो दाढ़ी से पहचान लिया फिर उनमें से एक ने आप पर बैट्री का प्रकाश डाला तथा दूसरे ने पिस्तौल के तीन फायर किये। गोली लगी। आपका सिर खाट के नीचे लटक गया। मानों मारने वाले शत्रु को भी प्रणाम कर रहा हो। मुख से ओ3म् निकला पास बैठे असहाय प्र्रेमियों के मुख से आह निकली। आप अपने शरीर का मोह त्याग कर परम पिता परमात्मा की सुन्दर गोद में जा विराजे। जैसा कि आपका जीवन वीरता से भरा था वैसे ही आपकी मृत्यु भी वीरता से हुई।

मरना भला है उसका जो जीता है अपने लिए,

जीता वह है जो मर चुका परोपकार के लिए,

हमदर्द बनकर दर्द न बांटा तो क्या जिए,

कुछ दर्द दिल भी चाहिये इंसान के लिए

अन्य भी कहा हैः-

जीने वाले ऐसे जी, मरने वाले ऐसे मर,

कुछ सबक दे जाय, तेरी जिन्दगी भी मौत भी।

– 1325/38, ‘ओ3म् आर्य निवास’, गली नं. 5, विज्ञान नगर, आदर्श नगर, अजमेर। दूरभाष-09887072505