सघन-साधना-शिविर रोजड़ की मेरी अन्तर्यात्रा – ब्र. राजेन्द्रार्यः

योगे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे।

सखाय इन्द्रमूतये।।

– यजुर्वेद 11/14

आर्यावर्त की पवित्र भूमि गुजरात प्रान्त ने समय-समय पर राष्ट्र को अनेकों महापुरुष प्रदान किये हैं। यथा- विश्व गुरु महर्षि दयानन्द सरस्वती, सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी एवं देशभक्त श्याम जी कृष्ण वर्मा आदि। इन महापुरुषों ने राष्ट्रऋण से उऋण होने हेतु अपना सर्वस्व देश के लिए न्यौछावर कर दिया। उन्नीसवीं शतादी में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सच्चे शिव की प्राप्ति, योगायास एवं वेद विद्या के प्रचार के लिए अपने सपन्न माता-पिता का घर लगाग इक्कीस वर्ष की अवस्था में छोड़ दिया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गुरुवर्य विरजानन्द का ऋण बड़ी श्रद्धापूर्वक लगाग 20 वर्ष तक चुकाया। ऐसे गुरु दक्षिणा चुकाने का वर्णन हमें आी तक इतिहास में पढ़ने को नहीं मिला है। स्वामी दयानन्द सरस्वती के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए एक युवा संन्यासी स्वामी सत्यपति परिव्राजक ने गुजराता को अपनी कर्मभूमि बनाने का निश्चय किया तथा चैत्रशुक्ला प्रतिपदा (तद्नुसार 10 अप्रैल सन् 1985) गुरुवार के दिन आर्यवन विकास फार्म ट्रस्ट, जिला साबरकांठा के सहयोग से दर्शन-योग- महाविद्यालय, रोजड़ की स्थापना की। पूज्य स्वामी सत्यपति परिव्राजक के अथक परिश्रम, तप-साधना व पुरुषार्थ से विद्यालय ने लगाग 55 युवा दर्शनाचार्य विद्वान् राष्ट्र को प्रदान किये हैं। श्रद्धेय गुरुवर्य स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक के योग शिविरों में भाग लेने के कारण हमें मान्य आचार्य श्री ज्ञानेश्वरार्यः, आचार्य आनन्द प्रकाश जी, उपाध्याय श्री ब्र. विवेक भूषण आर्य (वर्तमान-स्वामी विवेकानन्द जी परिव्राजक), आचार्य सत्यजित् जी, स्वामी विष्वङ् जी परिव्राजक, आचार्य आशीष जी, ब्र. ईश्वरानन्द आदि से संस्कृत भाषा, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, यज्ञ, ध्यान योग एवं दर्शनों की सूक्ष्म विद्या का प्रशिक्षण (संक्षिप्त) प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दर्शन योग महाविद्यालय एवं वानप्रस्थ साधक आश्रम से प्रकाशित वैदिक साहित्य हमें सस्नेह प्रेषित किया जाता है। योगनिष्ठ पूज्य स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक के सान्निध्य में श्रेय मार्ग के पथ पर आगे बढ़ने वाले आध्यात्मिक सहचारी योग जिज्ञासुओं के लिए एक तीन मास का आषाढ़ शुक्ला द्वादर्शी वैक्रावाद  2060 से आश्विन शुक्ला 2060 तक तदनुसार 11 जुलाई 2003 से 8 अक्टूबर 2003 तक त्रैमासिक उच्चस्तरीय क्रियात्मक योग प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया था। क्रियात्मक योग प्रशिक्षण शिविर का वृतान्त संकलयित एवं सपादित युवा विद्वान् ब्र. सुमेरुप्रसाद जी दर्शनाचार्य ने किया था जिसे दर्शन योग महाविद्यालय की तरफ से बृहती ब्रह्ममेधा (तीन भाग) केरूप में सन् 2012 में प्रकाशित किया गया था। जिसे मान्य मित्र शुभहितैषी श्री ब्र. दिनेश कुमार जी ने मुझे प्रेषित किया था। एन.टी.पी.सी. लिमिटेड/ सिंगरौली भारत सरकार के उद्यम में अभियन्ता पद पर कार्यरत रहने के कारण व्यस्तता अधिक होने से इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का मैं अभी तक विधिवत अध्ययन नहीं कर सका। मई 2015 में मान्य भ्राता श्री ब्र. दिनेश कुमार जी ने मुझे चलभाष द्वारा दर्शन-योग-महाविद्यालय द्वारा आयोजित उच्च स्तररीय एक वर्षीय क्रियात्मक योग प्रशिक्षण (सघन-साधना-शिविर) की सूचना दी। शिविर का लाभ प्राप्त करना मेरे लिए एक सुनहरा अवसर था। इस शिविर में भाग लेने की अनुमति हेतु 3 जुलाई 2014 को पत्र प्रषित किया। विद्यालय के सहव्यवस्थापक श्री ब्रह्मदेव जी ने मुझे सहर्ष अनुमति प्रदान कर दी तथा चलभाष पर मुझसे कहा कि जब ट्रेन में दिल्ली से प्रस्थान करना हो, तब सूचित कर देना। मेरी आत्मिक उन्नति में विद्यालय परिवार के प्रत्येक सदस्य का सर्वदा सहयोग रहता है। पूज्य श्री स्वामी ध्रुवदेव जी परिव्राजक ने ऋषि मेला 2014, अजमेर में मुझसे कहा कि-‘‘क्या दर्शनों की विद्या पढ़ने की इच्छा नहीं होती है?’’ इस दृष्टि से यह सघन-साधना-शिविर का मेरा अल्पकालीन प्रवास दिनांक 17/7/2015 से 25/7/2015 तक मेरे जीवन के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा है। विद्यालय के सुरय प्राकृतिक एवम् आध्यात्मिक वातावरण में रहकर प्रशिक्षण काल में जो मुझे विशेष अनुभूतियाँ हुई उनमें से कुछ अन्तर्यात्रा के अनुभव प्रेरणा के लिए उद्धृत हैं-

  1. स्वाध्याय के काल में मैनें बृहती ब्रह्ममेद्या (प्रथम भाग) का स्वाध्याय करते समय मुझे ऐसा आभास होता था जैसे पूज्य गुरुवर श्री स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक की कक्षा में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहा हूँ तथा ऋषियों के सन्देश को श्रवण कर रहा हूँ। स्वाध्याय से मेरे इस सिद्धान्त में दृढ़ता आयी कि ‘‘मानव जीवन का चरम लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति ही है। ‘नान्यः पन्था विद्यतेऽनाय’ अर्थात् अन्य कोई मार्ग नहीं है।’’
  2. 2. यज्ञोपरान्त पूज्य श्री स्वामी ध्रुवदेव जी परिव्राजक से जब वेदोपदेश श्रवण करता था तब वेद स्वाध्याय, शतपथ ब्राह्मण एवं स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत आर्ष ग्रन्थों के अध्ययन की प्रेरणा मिलती थी तथा जब तक मानव अपने दुर्गुणों, दुर्व्यसनों का परित्याग नहीं करता है तब तक अयुदय एवं निःश्रेयस के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता। इसलिए मेरी दृष्टि में प्रत्येक आर्य समाज के सत्संग में ऋषि दयानन्द कृत वेदभाष्य, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, आर्याभिविनय जैसे उच्चकोटि के ग्रन्थों का स्वाध्याय अनिवार्य रूप से करना चाहिए। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी अपने वैचारिक क्रान्तिकारी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लासः में लिखा है- ‘‘आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि जैसा एक गोता लगाना बहुमूल्य मोतियों का पाना।’’
  3. 3. पूज्य आचार्य श्री ब्रह्मविदानन्द जी सरस्वती की ध्यान प्रशिक्षण, विवेक-वैराग्य प्रशिक्षण, न्याय दर्शन प्रशिक्षण एवम् आत्मनिरीक्षण कक्षाओं में जब मैं भाग लेता था तब पता चलता था कि हमारे जीवन में तो अभी अविद्या ही भरी पड़ी हुई। महर्षि पतञ्जलि के सूत्र-

अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मयातिरविद्या।

(योग दर्शन 2/5) को यथार्थ रूप में समझने के लिए मेरे लिए यह शिविर अत्यन्त उपादेय रहा।

  1. 4. ध्यान प्रशिक्षण की कक्षा में मुझे ऐसा अनुभव होता था कि चित्त की वृत्तियों के निरोध के लिए योगायास के किसी एक आसन (=पदमासन, सुखासन, स्वस्तिकासन) में बैठने का अयास कम से कम एक घण्टे का अवश्य रहना चाहिए। महर्षि पतञ्जलि महाराज उच्चकोटि के साधक थे इसीलिए उन्होंने ‘‘स्थिर सुखमासनम्’’ सूत्र (योग दर्शन 2/46) सत्य ही लिखा है। ऐसा निर्णय मैं निदिध्यासन काल मेंाी कर सका।
  2. 5. विवेक-वैराग्य, ध्यानादि के क्रियात्मक अयास के लिए मेरे विचार से ‘‘योगः कर्मसु कौशलम’’ में जो निष्णात योग साधक (सच्चे गुरु) हों उन्हीं से प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए तभी सच्चे योग मार्ग में सफलता मिलती है अन्यथा नहीं।
  3. 6. आत्म निरीक्षण ……….उत्कर्ष के मार्ग पर बढ़ने के लिए सर्वोत्तम साधन है। सुयोग्य विद्वान् व्यक्ति के समक्ष अपने दोष बताने से जहाँ दोषों को छोड़ने की विधि पता चलती है, वहीं पर तत्त्वज्ञान के द्वारा अनेक जन्मों के जो सूक्ष्म संस्कार= काम, क्रोध, लोा, राग, अंहकार आदि होते हैं, उन्हें हटाने में सहायता मिलती है।
  4. 7. उपासना काल में मन की सकाग्रता के लिए मुझे अनुभव हुआ कि दैनिक कार्यों को करते हुए जितना अधिक यम (=अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) तथा नियमों (=शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) अर्थात् योगायास के जो महाव्रत हैं उनका एवं मौनव्रत का पालन किया जावे उतना ही उपासना अच्छी होती है। सन्ध्योपासना के मन्त्रों एवं जप के वाक्यों के एक-एक शब्द का अर्थ जब कं ठस्थ रहता है तब आत्मा मन द्वारा बाह्यवृत्तियाँ उपासना काल में कम उठाता है।
  5. 8. योगायास का मार्ग कठ ऋषि के अनुसार- ‘क्षुरस्यधारा निशिता दुया दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति’ अर्थात् छूरे की धार पर चलने के समान अवश्य है लेकिन योग के मार्ग का जिन प्रतिभाओं ने आत्मसात किया हुआ है ऐसे योग के विशेषज्ञों से ‘‘समित्पाणि’’ की भावना के साथ तप, ब्रह्मचर्य, विद्या और श्रद्धापूर्वक योगायास करने में सफलता अवश्य मिलती है।

मेरी विद्यालय के निदेशक श्रद्धेय स्वामी विवेकानन्द जी परिव्राजक एवम् पूज्य आचार्यों से एक करबद्ध विनती है कि इस सघन-साधना-शिविर की वेद प्रवचन ध्यानयोग प्रशिक्षण, विवेक-वैराग्य प्रशिक्षण एवम् आत्मनिरीक्षण कक्षाओं के यदि संभव हो सके तो सी.डी. तैयार करके इन्टरनेट एवं यू ट्यूृब आदि पर डाला जावे, जिससे देश-विदेश में ऋषियों के सन्देश का अधिकतम प्रचार हो सके। आज इलेक्ट्रानिक एवं प्रिन्ट मीडिया का युग है। यदि इसे नहीं अपनाया गया तो आगे आने वाले समय में दर्शनों में विद्यमान विद्यायें धीरे-धीरे भौतिक चकाचौंध के कारण विलुप्त हो जाने की संभावना है।

इस प्रकार के सघन-स्वाध्याय-शिविर कन्याओं के आर्ष गुरुक्रुलों में कम से कम त्रैमासिक या 15 दिवसीय सत्र आयोजित करेंगे तो मेरी दृष्टि में अच्छा रहेगा।

राष्ट्रभक्त, भारतीय संस्कृति के सपोषक भारत के माननीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के सत्प्रयास से 21 जून 2015 को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस विश्व के लगभग 192 देशों द्वारा मनाया गया। यह अलग विषय है कि इस योग दिवस मनाने का लक्ष्य ‘‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः’’ नहीं था। योग भारत के लिए आने वाले दिनों में एक बड़ा बाजार साबित हो सकता है। आज का मानव जैसे-जैसे भौतिक उन्नति कर रहा है वैसे-वैसे तनावयुक्त जीवन के लिए मजबूर है। मेरा विश्वास है कि यदि आर्ष पद्धति के योग विज्ञान को जन-जन तक पहुँचाया जावे तो मानव को जहाँ तनावमुक्त सुख शान्ति प्राप्त होगी, वहीं विश्व से आतंकवाद को समाप्त करने में सफलता मिलेगी। भारत पुनः कम से कम योग विद्या के क्षेत्र में विश्व गुरु के आसन पर तो विराजमान हो ही सकता है।

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्वमानवाः

– मनुस्मृति

– आर्यसमाज, शक्ति नगर

 

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