महर्षि दयानन्द ने मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा व संसार का यथार्थ परिचय कराने सहित कर्तव्य और अकर्तव्य रूपी मनुष्य धर्म का बोध कराया’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

आज दीपावली का पर्व महर्षि दयानन्द जी का बलिदान पर्व भी है। कार्तिक मास की अमावस्या 30 अक्तूबर, 1883 को दीपावली के दिन ही सायंकाल  अजमेर में उनका बलिदान हुआ था। मृत्यु से कुछ दिन पूर्व महर्षि दयानन्द के जोधपुर में धर्म प्रचार से रूष्ट उनके विरोधियों ने उनको विष देकर व बाद में उनकी चिकित्सा में लापरवाही कर उनको स्वास्थ्य की ऐसी विषम स्थिति में पहुंचा दिया था जो उनके बलिदान का कारण बनी। आज दीपावली पर उनको याद करने के पीछे भी हमारा व मानव जाति का हित छिपा हुआ है। महर्षि दयानन्द के जीवन का मुख्य कार्य वेदों के ज्ञान को अर्जित करना और उसका देश व विदेश में प्रचार करना था। वेद ज्ञान का महत्व इस कारण है कि यह सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को प्रेरित व उनकी आत्माओं में स्थापित किया गया ज्ञान है जिसमें ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व सृष्टि का यथार्थ परिचय देकर कर्तव्य व अकर्तव्य अर्थात् मनुष्य धर्म का बोध कराया गया है। इस ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में जब हम मनुष्य जीवन के उद्देश्य पर विचार करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि मनुष्य के जीवन का उद्देश्य भी संसार के सभी पदार्थों को जानकर उनसे यथायोग्य उपयोग लेना, ईश्वर हमारा व सब प्राणियों का जन्मदाता है, सुखों का दाता व कर्मों का फल प्रदाता है, अतः उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर उससे जीवन के लक्ष्यों की सफलता के लिए उससे सहायता की विनती करना और वैदिक शिक्षाओं के अनुसार जीवन को बनाना व चलाना ही है। वैदिक पथ पर चलकर ही मनुष्य जीवन की उन्नति होकर जीवन के उद्देश्य व लक्ष्यों धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति होती है। मनुष्य के लिए जीवन के उद्देश्य व लक्ष्यों को प्राप्त करने का वैदिक जीवन पद्धति व वेद विहित कर्तव्यों का पालन करने के अलावा कोई मार्ग नहीं है। यदि संसार का कोई मनुष्य वेद मार्ग पर चलकर साधना व कर्तव्यों को पालन नहीं करेगा तो उसका यह जीवन उसे भविष्य में घोर दुःखों की ओर ले जायेगा जिसका सुधार अनेक जन्मों में भी कठिनता से हो सकेगा। इसका प्रमुख कारण जीवात्मा का अविनाशी, अमर, नित्य, जन्म मरण को प्राप्त होना, कर्मों का फल भोगना आदि हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में सत्य की खोज व अनुसंधान कर कठोर साधना की थी जिसके परिणाम स्वरुप उनको वेदों का ज्ञान व योग विद्या की प्राप्ति हुई थी। अपने गुरू की आज्ञा व अपनी प्रकृति व प्रवृत्ति के अनुसार भी उन्होंने वेद अर्थात् सत्य ज्ञान के प्रचार को ही अपने जीवन का उद्देश्य निर्धारित किया था। इसकी आवश्यकता इस लिए थी कि उनके समय में संसार से सत्य ज्ञान प्रायः लुप्त हो चुका था और सभी मनुष्य जो जीवन व्यतीत कर रहे थे वह जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति से कोसों दूर था। यदि महर्षि दयानन्द वेद व सद्ज्ञान के प्रचार का कार्य न करते तो मनुष्य इस सृष्टि की शेष अवधि भर भटकता रहता तथा उसे सत्य मार्ग प्राप्त नहीं हो सकता था। मत-मतान्तरों के अज्ञानी व स्वार्थी लोग उसका पूर्ववत् शोषण करते रहते जिससे दोनों की ही अवनति होकर संसार में दुःख व अशान्ति भरी हुई होती। महर्षि दयानन्द के द्वारा वेद प्रचार करने पर भी संसार अभी भी अज्ञान व स्वार्थों में फंसा हुआ है। ऐसा देखा जाता है कि लोगों में सत्य को जानने व उसका आचरण करने के प्रति जो दृणता होनी चाहिये, उसका उनमें नितान्त अभाव है। संसार के सभी मनुष्य जीवन की समस्याओं के सरल उपाय करना चाहते हैं। इसी कारण स्वार्थी लोग उनका शोषण करते हैं और दोनों ही अधर्म को प्राप्त होकर अपना भविष्य उन्नत करने के स्थान पर अवनत होकर सुदीर्घ काल तक उनका फल भोगते हैं।

 

महर्षि दयानन्द जी का योगदान यह है कि उन्होंने ईश्वर व जीवात्मा सहित सभी विषयों का सत्य ज्ञान प्राप्त कर, उसकी परीक्षा द्वारा उसे तर्क की कसौटी पर कस कर उसका प्रचार किया। उन्होंने बताया कि ईश्वर को ब्रह्म व परमात्मा आदि भी कहते हैं। यह ईश्वर सच्चिदानन्द आदि लक्षण युक्त है। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव पवित्र हैं। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता व सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणों से युक्त है। इसी ईश्वरीय सत्ता को सभी को परमात्मा जानना व मानना चाहिये।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों का परिचय कराते हुए बताया है कि विद्या व सत्य ज्ञान से युक्त ईश्वर प्रणीत जो मन्त्र संहितायें हैं, वह निभ्र्रान्त ज्ञान होने से स्वतः प्रमाण हैं। यह चारों वेद स्वयं प्रमाणस्वरूप हैं, कि जिनका प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं है। जैसे सूर्य वा प्रदीप अर्थात् दीपक अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं, वैसे ही चारों वेद हैं। चारों वेद और वैदिक साहित्य के अन्तर्गत सभी ब्राह्मण ग्रन्थ, 6 वेदांग और 6 वेदों के उपांग अर्थात दर्शन ग्रन्थ, चार उपवेद और 1127 वेदों की शाखायें यह सभी वेदों के व्याख्यानरूप ग्रन्थ हैं और इन्हें ब्रह्मा आदि अनेक ऋषियों ने बनाया है। यह सब परतः प्रमाण की कोटि में आते हैं। परतः प्रमाण का अर्थ है कि यदि यह वेदानुकूल हों तो प्रमाण और इनकी जो बात वेदानुकूल न हो वह अप्रमाण होती है। महर्षि दयानन्द जी ने अपने जीवन में सबसे बड़ा कार्य सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि व व्यवहार भानु सहित वेदों के भाष्य का लेखन, सम्पादन व प्रकाशन है। इसके अतिरिक्त वैदिक मान्यताओं के प्रचार हेतु उपदेश, प्रवचन, व्याख्यान, वार्तालाप, शास्त्र चर्चा तथा शास्त्रार्थ आदि हैं। उनके अनुयायी अन्य वैदिक विद्वानों के वेद भाष्य भी मानव जाति की सबसे बड़ी सम्पत्ति व सम्पदायें हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने बताया कि पक्षपात रहित न्याय का आचरण तथा सत्य भाषण आदि से युक्त ईश्वर की आज्ञा जो वेदों के अनुकूल हो, उसी को धर्म कहते हैं। और जो इसके विपरीत हो वह अधर्म होता है। हमारा जीवात्मा क्या है? इस पर महर्षि दयानन्द जी बताते हैं कि जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञान आदि गुणों से युक्त, अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञान वाला, नित्य पदार्थ व तत्व है, वही जीव कहलाता है। ईश्वर, वेद, धर्म, अधर्म और जीवात्मा का जो ज्ञान महर्षि दयानन्द जी ने दिया है, वह यथार्थ व पूर्ण सत्य है। अन्य मतों में समग्र रूप में इस प्रकार का ज्ञान उनके समय में उपलब्ध नहीं था। आज भी मत-मतान्तरों की पुस्तकें पढ़कर यह सत्य ज्ञान प्राप्त नहीं होता। इनमें अनेकानेक भ्रान्तियां भरी हुई हैं। इसलिए वैदिक धर्म और वेद आज भी सबसे अधिक पूर्ण प्रमाणिक एवं पठनीय ग्रन्थ हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने मनुष्यों को सच्ची ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना सिखाया। इसके लिए उन्होंने ब्रह्म यज्ञ अर्थात् वैदिक ईश्वरोपासना की विधि भी लिखी है जो एक प्रकार से योगदर्शन का निचोड़ है। इसका अभ्यास करने से जीवात्मा के सभी अवगुण दूर होकर उसमें सदगुणों का आविर्भाव होता है और आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि मृत्यु के समान दुःख प्राप्त होने पर भी वह घबराता नहीं है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने से मनुष्य जीवन की उन्नति होती है और मृत्यु के पश्चात उसको अच्छा देव कोटि का जन्म वा मुक्ति की प्राप्ति होती है। महर्षि दयानन्द ने अपने ज्ञान व पुरूषार्थ से सृष्टि के प्रति मनुष्य के कर्तव्य के निर्वाह हेतु ‘‘अग्निहोत्र, यज्ञ वा हवन का भी विधान किया है इसको करने से भी जीवनोन्नति सहित परजन्म सुधरता व उन्नत होता है व अभीष्ट इच्छाओं व आकांक्षाओं की पूर्ति होती है। इसके साथ ही मनुष्य स्वस्थ रहते हुए ईश्वर की सहायता से अनेक विपदाओं से सुरक्षित रहता है। अतः ईश्वरोपासना और दैनिक यज्ञ को सभी मनुष्यों को करके अपने जीवन को उन्नत व लाभान्वित करना चाहिये।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्य ज्ञान व वेदों का प्रचार ही नहीं किया अपितु समाज सुधार हेतु समाज में व्याप्त अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियों का खण्डन भी किया। मिथ्या मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद, सामाजिक विषमता, बाल विवाह, परतन्त्रता, गोहत्या आदि का खण्डन कर इसके विपरीत सच्ची ईश्वर उपासना, यज्ञ, जन्म से सभी मनुष्यों की समानता, सबको विद्याध्ययन के समान अवसरों को प्रदान किये जाने का समर्थन भी किया। उनपकी विचारधारा से लिगं भेद व रंग भेद आदि का भी निषेध होता है। उन्होंने स्त्रियों के प्रति किये जाने वाले सभी भेदभावों को दूर कर उन्हें शिक्षित करने सहित देशोन्नति के कार्य करने के लिए प्रोत्साहित व प्रेरित किया। उन्होंने मनुस्मृति के वचन उद्धृत कर बताया कि जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं। साथ हि जहां नारियों का सम्मान नहीं होता, वहां की जाने वाली सभी अच्छी क्रियायें भी व्यर्थ होती हैं।

 

वैदिक धर्म का अध्ययन कर सभी अध्येता इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वेद ही सारी मानव जाति के सुख व समृद्धि सहित धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की सिद्धि में सहायक है। इससे परजन्म भी सुधरता है और वर्तमान जीवन भी उन्नत व सुखी होता है। इन सब ज्ञानयुक्त बातों से परिचित कराने का श्रेय महर्षि दयानन्द जी को है। उन्होंने इन सभी सिद्धान्तों को अपने जीवन में चरितार्थ कर हमारा मार्गदर्शन किया। आज उनके बलिदान दिवस पर उनको सच्ची श्रद्धाजंलि यही हो सकती है कि हम उनके सभी विचारों का अध्ययन कर उनका मनन करते हुए उन्हें अपने जीवन में अपनायें और उन पर आचरण कर जीवन को अभ्युदय व निःश्रेयस के मार्ग पर आरूढ़ करें। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवनकाल में अपने वेद प्रचार कार्यों के अन्तर्गत मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा व संसार का यथार्थ परिचय कराने सहित कर्तव्य और अकर्तव्य रूपी मनुष्य धर्म का बोध कराया था। आज महर्षि दयानन्द जी के बलिदान दिवस पर हम उनको अपनी विनम्र श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं और सभी पाठको को दीपावली की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनायें भेंट करते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

फोनः09412985121

महर्षि दयानन्द के वेद प्रचार और सर्वांगीण धार्मिक व सामाजिक उन्नति के कार्यों से समस्त विश्व उनका ऋणी हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द के बलिदान दिवस दीपावली पर

मनुष्य को यदि अपना परिचय जानना हो तो वह वेद वा वैदिक साहित्य में ही मिलता है। परिचय से हमारा तात्पर्य मनुष्य वस्तुतः क्या है,  इसका सत्य ज्ञान का होना ही मनुष्य का परिचय है। महर्षि दयानन्द जी ने मनुष्य की परिभाषा करते हुए बताया है कि जो मननशील हो और स्व-आत्मवत अर्थात् जैसे मुझे सुख प्रिय व दुःख अप्रिय है इसी प्रकार से अपने हानि व लाभ की तरह दूसरों के सुख दुःख व हानि लाभ को समझता हो। यदि इतना ही जान लिया जाये और इसी पर आचरण किया जाये मनुष्य एक श्रेष्ठ मनुष्य बन सकता है। सभी मनुष्यों में कमी यह देखी जाती है कि वह अपने सुख व दुःख को ही अपना मानते हैं दूसरों के सुख व दुःख की परवाह नहीं करते और इस कारण हम कई बार दूसरों के सुखों की हानि व दुःखों की वृद्धि कर बैठते हैं। अतः हमें मननशील होना चाहिये और इसके लिए आवश्यक है कि हम सद्ग्रन्थों का नियमित स्वाध्याय व अध्ययन करें। इससे हमें सत्य और असत्य का ज्ञान होगा जिससे सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में हमें सहायता मिलेगी। जिस प्रकार से ज्ञानहीन मनुष्य पशु के समान होता है इसी प्रकार वेदादि सद्ग्रन्थों के अध्ययन से शून्य मनुष्य भी पशु के समान ही होता है।

 

आज से लगभग 140 वर्ष पूर्व न केवल भारत देश अपितु सारा विश्व ही अज्ञान व अन्धविश्वासों से भरा हुआ था। शायद ही तब किसी को अपवाद स्वरुप पता रहा हो कि ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का स्वरूप क्या है? मनुष्य के ईश्वर, अपने प्रति और संसार व समाज के प्रति कर्तव्य क्या हैं? यदि मनुष्यों को यह पता होते तो संसार में अन्याय, शोषण, पक्षपात, अभाव, रोग व शोक आदि न होते हैं। अज्ञान के कारण ही मनुष्य अपने कर्तव्यों के प्रति अनभिज्ञ व लापरवाह होता है, मिथ्या पूजा व उपासना प्रचलित होती है, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, गुरूडम, असत्य व मिथ्या ग्रन्थों का अध्ययन व उनकी मिथ्या शिक्षाओं का आचरण होता है। समाज में समरसता का स्थान विषमता लेती है और अज्ञान व अन्धविश्वासों के कारण ही लोग अपने स्वार्थों की पूर्ति व दूसरों के स्वार्थों की हानि कर उनका शोषण व उन पर अन्याय करते हैं। इन बुराईयों को दूर करने के लिए ज्ञान की सर्वाधिक आवश्यकता है। ज्ञान के द्वारा ही अपने कर्तव्य व पदार्थों के सत्यस्वरुप को समझा जा सकता है व दूसरों को भी समझाया जा सकता है। इस पर भी यदि कोई सत्य का आचरण न करें तो दण्ड के द्वारा उसका सुधार कर उसे सत्य मार्ग पर लाना होता है। आज भी सभी देशों में न्यूनाधिक यही परम्परा व व्यवस्था चल रही है। कहीं यह अधिक प्रभावशाली व कारगर है और कहीं यह कमजोर व प्रभावहीन है। इसको प्रभावशाली बनाने के लिए इसकी व्यवस्था करने वाले राज्याधिकारियों व न्यायव्यवस्था से जुड़े हुए व्यक्तियों को पूर्ण सत्य का आग्रही व सत्याचरण के आदर्श को धारण करना होता है। जहां ऐसा होता है वहां व्यवस्था उत्तम होती है।

 

महर्षि दयानन्द जी का जन्म आज से 190 वर्ष पूर्व  सन् 12 फरवरी, सन् 1825 को गुजरात के मोरवी जिले के टंकारा नामक ग्राम में हुआ था। उनका किशोरावस्था का गुण उनका मननशील होना था। यही कारण था कि जब पिता के कहने से उन्होंने शिवरात्रि का व्रतोपवास किया तो रात्रि में शिवलिंग पर चूहों को विचरण करता देखकर उनको शिवलिंग में एक सर्वशक्तिमान व दैवीय शक्ति के होने के विश्वास को ठेस लगी और उन्होंने निन्द्रासीन अपने पिता को उठाकर उनसे अनेक प्रश्न किये? पिता के पास उनके प्रश्नों का समाधान नहीं था, अतः उन्होंने उस व्रत को समाप्त कर दिया और सच्चे शिव को जानने का संकल्प लिया। कालान्तर में बहिन की मृत्यु होने पर उन्हें वैराग्य हो गया। अब मृत्यु से बचने और उस पर विजय पाने का एक और संकल्प उनके मन में उत्पन्न व धारण हो गया। जब तक माता पिता ने उन्हें अध्ययन करने की स्वतन्त्रता प्रदान की, वह घर पर रहे और अध्ययन करते रहे। जब उनके माता-पिता को उनके वैराग्य का ज्ञान हो गया और उन्होंने उनके विवाह का निश्चय कर दिया, तब उससे बचने के लिए और अपने संकल्पों को पूरा करने के लिए उन्होंने घर का त्याग कर दिया।

 

उन्होंने देश भर में घूम घूम कर ज्ञानी सत्पुरुषों, योगी, विद्वानों, महात्माओं और तपस्वियों की संगति की और उनसे जो भी ज्ञान प्राप्त हो सका या साधना का अभ्यास वह कर सकते थे, उसे उन्होंने जाना व प्राप्त किया। नर्मदा के तट व उसके उद्गम सहित वह उत्तराखण्ड के वन व पर्वतों के दुर्गम स्थानों में घूम घूम कर वह वहां विद्वानों और तपस्वी योगियों की तलाश करते रहे। ऐसा करके वह योग व ज्ञान में अन्यों की अपेक्षा से कहीं अधिक ज्ञानी हो गये। जितना ज्ञान वह प्राप्त कर सके थे, उससे उनका सन्तोष व सन्तुष्टि नहीं हुई। अभी भी उन्हें एक ऐसे गुरू की तलाश थी जो उनकी सभी शंकाओं व संशयों को दूर कर सके। उनकी यह तलाश भी मथुरा में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द सरस्वती को पाकर पूरी हुई जिनके सान्निध्य में लगभग 3 वर्ष रहकर उन्होंने अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त पद्धति से आर्ष व्याकरण, वेद व वेदादि साहित्य का अध्ययन किया। गुरु विरजानन्द ने उनकी सभी शंकाओं व संशयों की पूर्ण निवृत्ति कर दी। योग विद्या में वह पहले से ही योग गुरू शिवानन्द पुरी व ज्वालानन्द गिरी की शिक्षाओं व अभ्यास से निपुण हो चुके थे। गुरू विरजानन्द जी से विद्याध्ययन पूरा कर सन् 1863 में उन्होंने उनकी प्रेरणा से धार्मिक व सामाजिक जगत में वेदों वा सत्य के प्रचार को अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया। सन् 1863 से आरम्भ कर अक्तूबर, 1883 तक उन्होंने वेद एव वैदिक मान्यताओं का प्रचार किया। इसके लिए उन्होंने असत्य, अज्ञान व अन्धविश्वासों का खण्डन किया और सभी धार्मिक व सामाजिक प्रश्नों के वेदों के आधार पर सत्य समाधान प्रस्तुत किये। उनके प्रसिद्ध कार्यों में सन् 1869 में काशी में लगभग 30 विख्यात शीर्षस्थ पण्डितों से मूर्तिपूजा के वेदानुकूल होने पर शास्त्रार्थ था जिसमें प्रतिपक्षियों द्वारा मूर्तिपूजा वेदों के अनुकूल सिद्ध न की जा सकी। स्वामी जी ने वेदों के आधार पर मूर्तिपूजा सहित मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, बाल विवाह, सामाजिक विषमता वा जन्मना जाति-वर्ण व्यवस्था आदि का पुरजोर खण्डन किया। स्त्री व शूद्रों के लिए निषिद्ध वेदों के अध्ययन का उन्होंने उन्हें अधिकार दिया।

 

मुम्बई में 10 अप्रैल, 1875 को वेदों के प्रचार व असत्य के शमन के लिए स्वामी जी ने आर्यसमाज तथा सन् 1883 को अजमेर में परोपकारिणी सभा की स्थापना की। संस्कृत की पाठशालायें खोलकर उन्होंने वेदों के अध्ययन को प्रवृत्त किया। हिन्दी रक्षा व हिन्दी को सरकारी काम काज की भाषा बनाने के लिए हस्ताक्षर अभियान का श्री गणेश किया जिसे अंग्रेज सरकार द्वारा नियुक्त हण्टर कमीशन को प्रस्तुत किया गया। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, वेदभाष्य एवं अन्य सभी ग्रन्थ हिन्दी में लिखकर एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तंत किया। धर्म ग्रन्थ के रूप में सत्यार्थ प्रकाश तथा ईश्वरीय ज्ञान वेदों के भाष्य को हिन्दी में सर्वप्रथम प्रस्तुंत करने का श्रेय उन्हीं को है। गोरक्षा व गोवध रोकने की दिशा में भी उन्होंने गोकरूणानिधि पुस्तक लिखकर व अनेक राज्याधिकारियों से मिलकर इस दिशा में प्रशंसनीय कार्य किया। गोहत्या व गोमांस सेवन को उन्होंने महापाप की संज्ञा दी और गोरक्षा को राष्ट्र की आर्थिक उन्नति का आधार सिद्ध किया। सत्यार्थ प्रकाश, आर्याभिविनय तथा वेदभाष्य में स्वराज्य व सुराज्य की चर्चा कर तथा धार्मिक व सामाजिक जागृति उत्पन्न कर देश की आजादी के आन्दोलन के लिए भूमि तैयार की। रामायण, महाभारतकालीन और उसके बाद के पूवजों के उत्कृष्ट देशहित के कार्य करने के लिए उनको सम्मान व गौरव दिया। खण्डन-मण्डन, सभी मतों के ग्रन्थों का अध्ययन और समीक्षा, शास्त्रार्थ, वार्तालाप, उपदेश व प्रवचन द्वारा भी वैदिक सत्य मान्यताओं के प्रचार का ऐतिहासिक कार्य उन्होंने किया। उनके आविर्भाव से पूर्व हिन्दुओं का अन्य मतों में लोभ, बलप्रयोग, छल व कपट आदि से धर्मान्तरण होता था। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर हिन्दू धर्म को सत्य व ज्ञान पर प्रतिष्ठित किया तथा अन्य मतों की समीक्षा कर उनमें विद्यमान अज्ञान व अन्धविश्वासों की ओर ध्यान दिलाया जिससे एकपक्षीय धर्मान्तरण समाप्त हुआ और अन्य मत के लोग भी सहर्ष आर्य धर्म को स्वीकार करने लगे। भारतीय समाज से अज्ञान, अन्धविश्वास, सामाजिक विषमतायें दूर हुई जिससे मनुष्य परस्पर संगठित होकर वैदिक धर्म के अनुसार ईश्वरोपासना, यज्ञ हवन आदि करने लगे व माता-पिता-आचार्य आदि का सम्मान करने की प्रेरणा सबको प्राप्त हुई। मांसाहार के दुगुर्णों व हानियों से भी लोग परिचित हुए तथा बड़ी संख्या में लोगों ने इसे त्याग दिया। उनके प्रचार व प्रयत्नों से शाकाहार में वृद्धि हुई। गोदुग्ध व गोघृत की महिमा में भी वृद्धि हुई। भारतीयता व प्राचीन भारत का गौरव महर्षि दयानन्द के कार्यों से न केवल देश में ही अपितु विदेशों में भी बढ़ा। ऐसे अनेकानेक कार्य महर्षि दयानन्द जी ने किये जिससे देश को अपूर्व लाभ हुआ और उन्नति हुई।

 

महर्षि के प्रचार से सभी मतों के लोग उनके विरोधी व शत्रु बन गये थे। एक षडयन्त्र के अन्तर्गत जोधपुर में उनको विष देकर उनका जीवन समाप्त कर दिया गया। दीपावली के दिन अजमेर में सूर्यास्त के समय उन्होंने अपने प्राणों को ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना करते हुए स्वेच्छा से त्याग दिया।  महर्षि दयानन्द ने वेदों के ज्ञान को प्राप्त कर पुनः संसार को उपलब्ध कराया व ईश्वर तथा जीवात्मा आदि के सत्य स्वरूप से परिचय व ईश्वर उपासना की सच्ची पद्धति हमें बताई। दीपावली पर उनके बलिदान पर्व पर हम उनको अपनी हृदय के प्रेम से सिक्त श्रद्धाजंलि प्रस्तुत करते हैं। उनके अपूर्व कार्यों से मानवता लाभान्वित हुई है, अतः सारा संसार उनका ऋ़णी है। उनका यश व कीर्ति चिरस्थाई रहेगी।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

भक्ष्य व अभक्ष्य भोजन एवं गोरक्षा पर महर्षि दयानन्द के वेदसम्मत, देशहितकारी एवं मनुष्योचित विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

मनुष्य मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं, ज्ञानी व अज्ञानी। रोग के अनेक  कारणों में से मुख्य कारण भोजन भी होता है। रोगी व्यक्ति डाक्टर के पास पहुंचता है तो कुशल चिकित्सक जहां रोगी को रोग निवारण करने वाली ओषधियों के सेवन के बारे में बताता है वहीं वह उसे पथ्य अर्थात् भक्ष्य व अभक्ष्य अर्थात् खाने व न खाने योग्य भोजन के बारे में भी बताता है जिससे रोगी का रोग दूर हो जाता है। महर्षि दयानन्द वेद एवं वैदिक साहित्य सहित वैद्यक व चिकित्सा शास्त्र आयुर्वेद के भी विद्वान थे। उन्होंने धर्माधर्म व वैद्यक शास्त्रोक्त दृष्टि से भक्ष्य व अभक्ष्य पदार्थों पर अपने विचार सत्यार्थ प्रकाश में प्रस्तुत किये हैं। उनके विचार आज भी प्रासंगिक एवं अज्ञानियों के लिए मार्गदर्शक हैं। अतः उन्हें सबके लाभ हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि भक्ष्याभक्ष्य दो प्रकार का होता है। एक धर्मशास्त्रोक्त तथा दूसरा वैद्यकशास्त्रोक्त। जैसे धर्मशास्त्र में- अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च।। मनु.।। इसका अर्थ है कि द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को मलीन विष्ठा मूत्रादि के संसर्ग से उत्पन्न हुए शाक फल मूल आदि न खाना। इसका तात्पर्य है कि शाक, फल व अन्न आदि पदार्थ शुद्ध व पवित्र भूमि में ही उत्पन्न होने चाहिये तभी वह भक्ष्य होते हैं। मलीन विष्ठा मूत्रादि से दूषित भूमि में उत्पन्न खाद्य पदार्थ भक्ष्य श्रेणी में नहीं आते। महर्षि दयानन्द आगे लिखते हैं-वर्जयेन्मधुमांसं च।। मनु.।। अर्थात् जैसे अनेक प्रकार के मद्य, गांजा, भांग, अफीम आदि। बुद्धि लुम्पति यद् द्रव्यं मदकारी तदुच्यते।। वचन को उद्धृत कर वह कहते हैं कि जो-जो बुद्धि का नाश करने वाले पदार्थ हैं, उन का सेवन कभी न करें और जितने अन्न सड़े, बिगड़े दुर्गन्धादि से दूषित, अच्छे प्रकार न बने हुए और मद्य, मांसाहारी म्लेच्छ कि जिन का शरीर मद्य, मांस के परमाणुओं ही से पूरित है, उनके हाथ का (पकाया व बना) न खावें।

 

वह आगे लिखते हैं कि जिस में उपकारक प्राणियों की हिंसा अर्थात् जैसे एक गाय के शरीर से दूध, घी, बैल, गाय उत्पन्न होने से गाय की एक पीढ़ी में चार लाख पचहत्तर सहस्र छः सौ मनुष्यों को सुख पहुंचता है वैसे पशुओं को न मारें, न मारने दे। जैसे किसी गाय से बीस सेर और किसी से दो सेर दूध प्रतिदिन होवे उस का मध्यभाग ग्यारह सेर प्रत्येक गाय से दूध होता है। कोई गाय अठारह और कोई छः महीने दूध देती है, उस का भी मध्य भाग बारह महीने हुए। अब प्रत्येक गाय के जन्म भर के दूध से 24960 (चैबीस सहस्र नौ सौ साठ) मनुष्य एक बार में तृप्त हो सकते हैं। उसके छः बछियां छः बछड़े होते हैं उन में से दो मर जाये तो भी दश रहें। उनमें से पांच बछडि़यों के जन्म भर के दूध को मिला कर 124800 (एक लाख चैबीस सहस्र आठ सौ) मनुष्य तृप्त हो सकते हैं। अब रहे पांच बैल वे जन्म भर में 5000 (पांच सहस्र) मन अन्न न्यून से न्यून उत्पन्न कर सकते हैं। उस अन्न में से प्रत्येक मनुष्य तीन पाव खावे तो अढ़ाई लाख मनुष्यों की तृप्ति होती है। दूध और अन्न मिला कर 374800 (तीन लाख चैहत्तर हजार आठ सौ) मनुष्य तृप्त होते हैं। दोनों संख्या मिला के एक गाय की एक पीढ़ी से 475600 (चार लाख पचहत्तर सहस्र छः सौ) मनुष्य एक बार में पालित होते हैं और पीढ़ी परपीढ़ी बढ़़ा कर लेखा करें तो असंख्यात मनुष्यों का पालन होता है। इस से भिन्न बैलगांड़ी सवारी भार उठाने आदि कर्मों से मनुष्यों के बड़े उपकारक होते हैं तथा गाय दूध से अधिक उपकारक होती है परन्तु जैसे बैल उपकारक होते हैं वैसे भैंस भी है परन्तु गाय के दूध घी से जितने बुद्धिवृद्धि से लाभ होते हैं उतने भैंस के दूध से नहीं। इससे मुख्योपकारक आर्यों ने गाय को गिना है और जो कोई अन्य विद्वान होगा वह भी इसी प्रकार समझेगा।

 

बकरी के दूध से 25920 (पच्चीस सहस्र नौ सौ बीस) आदमियों का पालन होता है वैसे हाथी, घोड़े, ऊंट, भेड़, गदहे आदि से भी बड़े उपकार होते हैं । इन पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानियेगा।

 

देखो ! जब आर्यो (वेद के मानने वाले श्रेष्ठ मनुष्यों) का राज्य था तब ये महोपकारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे, तभी आर्यावर्त वा अन्य भूगोल देशों में बड़े आनन्द में मनुष्यादि प्राणी वर्तते थे। क्योंकि दूध, घी, बैल आदि पशुओं की बहुताई होने से अन्न व रस पुष्कल प्राप्त होते थे। जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आके गो आदि पशुओं के मारने वाले मद्यपानी राज्याधिकारी हुए हैं तब से क्रमशः आर्यों के दुःख की बढ़ती होती जाती है। क्योंकि नष्टे मूले नैव फलं पुष्पम्। जब वृक्ष का मूल ही काट दिया जाय तो फल फूल कहां से हों?

 

महर्षि दयानन्द एक काल्पनिक प्रश्न कि जो सभी अंहिसक हो जाये तो व्याघ्रादि पशु इतने बढ़ जायें कि सब गाय आदि पशुओं को मार खायें तुम्हारा पुरूषार्थ ही व्यर्थ जाय? का उत्तर देते हुए कहते हैं कि यह राजपुरुषों का काम है कि जो हानिकारक पशु वा मनुष्य हों उन्हें दण्ड देवें और प्राण भी वियुक्त कर दें। (प्रश्न) फिर क्या उन का मांस फेंक दें? (उत्तर) चाहें फेंक दें, चाहें कुत्ते आदि मांसाहारियों को खिला देवें वा जला देवें अथवा कोई मांसाहारी खावे तो भी संसार की कुछ हानि नहीं होती किन्तु उस मनुष्य का स्वभाव मांसाहारी होकर हिंसक हो सकता है।

 

जितना हिंसा, चोरी, विश्वासघात, छल व कपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है, वह अभक्ष्य और अहिंसा व धर्मादि कर्मों से प्राप्त होकर भोजनादि करना भक्ष्य है। जिन पदार्थों से स्वास्थ्य रोगनाश बुद्धि-बल-पराक्रम-वृद्धि और आयु-वृद्धि होवे उन तण्डुलादि, गोधूम, फल, मूल, कन्द, दूध, घी, मिष्टादि पदार्थों का सेवन यथायोग्य पाक मेल करके यथोचित समय पर मिताहार भोजन करना सब भक्ष्य कहाता है। जितने पदार्थ अपनी प्रकृति से विरुद्ध विकार करने वाले हैं, जिस-जिस के लिए जो-जो पदार्थ वैद्यकशास्त्र में वर्जित किये हैं, उन-उन का सर्वथा त्याग करना और जो-जो जिस के लिए विहित है उन-उन पदार्थों का ग्रहण करना यह भी भक्ष्य है।

 

गोकरुणानिधि पुस्तक में पशु हिंसक मनुष्य का काल्पनिक पक्ष प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि देखो ! जो शाकाहारी पशु और मनुष्य हैं वे बलवान् और जो मांस नहीं खाते वह निर्बल होते हैं, इसलिए मांस खाना चाहिये। इसका प्रतिवाद करते हुए महर्षि दयानन्द पशु रक्षक की ओर से कहते हैं कि क्यों ऐसी अल्प समझ की बातें मानकर कुछ भी विचार नहीं करते। देखो, सिंह मांस खाता और सुअर वा अरणा भैंसा मांस कभी नहीं खाता, परन्तु जो सिंह बहुत मनुष्यों के समुदाय में गिरे तो एक वा दो को मारता और एक दो गोली या तलवार के प्रहार से मर भी जाता है और जब जंगली सुअर वा अरणा भैंसा जिस प्राणि समुदाय में गिरता है, तब उन अनेक सवारों और मनुष्यों को मारता और अनेक गोली, बरछी तथा तलवार आदि के प्रहार से भी शीघ्र नहीं गिरता, और सिंह उस से डर के अलग सटक जाता है और वह अरणा भैंसा सिंह से नहीं डरता।

 

जिस देश में सिवाय मांस के अन्य कुछ नहीं मिलता, वहां आपत्काल अथवा रोगनिवृति के लिये क्या मांस खाने में दोष होता है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि यह कहना व्यर्थ है क्योंकि जहां मनुष्य रहते हैं, वहां पृथिवी अवश्य होती है। जहां पृथिवी है वहां खेती वा फल-फूल आदि होते हैं और जहां कुछ भी नहीं होता, वहां मनुष्य भी नहीं रह सकते। और जहां ऊसर भूमि है, वहां मिष्ट जल और फल-आहार आदि के न होने से मनुष्यों का रहना भी दुर्घट है। आपत्काल में भी मनुष्य अन्य उपायों से अपना निर्वाह कर सकते हैं जैसे मांस के न खाने वाले करते हैं। बिना मांस के रोगों का निवारण भी ओषधियों से यथावत् होता है, इसलिये मांस खाना अच्छा नहीं।

 

महर्षि दयानन्द ने मनुस्मृति के आधार पर लिखा है कि जो मनुष्य वेदोक्त धर्म और जो वेद से अविरुद्ध मनुस्मृति युक्त धर्म का अनुष्ठान करता है वह इस लेाक में कीर्ति और मर कर सर्वोत्तम सुख को प्राप्त होता है। यहां बताया गया है कि वेद और वेदानुकूल मनुस्मृति के वचनों का पालन करने पर इस लोक में उन्नति होती है और मर कर भी जीवात्मा को सर्वोत्तम सुखों की प्राप्त होती है। हमारे मांसाहारी भाई कभी यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि मरने के बाद आत्मा का अस्तित्व रहता है वा नहीं? यदि रहता है तो उसको सुख व दुःख क्यों, कैसे व किस प्रकार से प्राप्त होते हैं व उनका आधार क्या होता है। महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं कि जो विद्या नहीं पढ़ा है वह जैसा काष्ठ का हाथी, चमड़े का मृग होता है वैसा अविद्वान मनुष्य जगत् में नाममात्र मनुष्य कहलाता है। इसलिए वेदादि विद्या को पढ़, विद्वान्, धर्मात्मा होकर निर्वैरता से सब प्राणियों के कल्याण का उपदेश करे। और उपदेश में वाणी को मधुर और कोमल बोलें। जो सत्योपदेश से धर्म की वृद्धि और अधर्म का नाश करते हैं वे पुरुष धन्य हैं।

 

महर्षि गोकरुणानिधि पुस्तक में उपदेश करते हुए कहते हैं कि ध्यान देकर सुनिये कि जैसा दुःख-सुख अपने को होता है, वैसा ही औरों को भी समझा कीजिये। और यह भी ध्यान में रखिये कि वे पशु आदि और उन के स्वामी तथा खेती आदि कर्म करने वाले प्रजा के पशु आदि और मनुष्यों के अधिक पुरुषार्थ ही से राजा का ऐश्वर्य अधिक बढ़ता और न्यून से नष्ट होता जाता है, इसीलिये राजा प्रजा से कर लेता है कि उन की रक्षा यथावत् करे न कि राजा और प्रजा के जो सुख के कारण गाय आदि पशु हैं उनका नाश किया जावे। इसलिये आज तक जो हुआ सो हुआ आगे आंखे खोल कर सब के हानिकारक कर्मों को न कीजिये और न करने दीजिये। हां हम लोगों का यही काम है कि आप लोगों को भलााई और बुराई के कामों को जता देवें, और आप लोगों का यही काम है कि पक्षपात छोड़ सब की रक्षा और उन्नति करने में तत्पर रहें। सर्वशक्तिमान जगदीश्वर हम और आप पर पूर्ण कृपा करें कि जिस से हम और आप लोग विश्व के हानिकारक कर्मों को छोड़, सर्वोपकारक कर्मों को कर के सब लोग आनन्द में रहें। इन सब बातों को सुन मत डालना, किन्तु सुन कर उसके अनुसार आचरण करना। इन अनाथ पशुओं के प्राणों को शीघ्र बचाना। हे महाराजधिराज जगदीश्वर ! जो इन (गाय आदि पशुओं) को कोई न बचावे तो आप इन की रक्षा करने और हमसे कराने में शीघ्र उद्यत हुजिये।

 

लेख को विराम देने से पूर्व हम यह भी उल्लेख करना चाहते हैं कि वेद और महर्षि दयानन्द संसार के सभी मनुष्यों को एक ही ईश्वर की सन्तान के रूप में मानते हैं। वेद में किसी मत विशेष के मनुष्य के प्रति कोई पूर्वाग्रह व पक्षपात करने का विधान नहीं है जैसा कि अन्य मतों में देखा जाता है कि सब अपने अपने समुदाय के प्रति ही उन्नति आदि के इच्छुक होते हैं। इसी कारण महर्षि दयानन्द ने न केवल भारतीय आर्य-हिन्दू-बौद्ध-जैन आदि के हित व लाभ के लिए ही वैदिक धर्म का प्रचार किया अपितु संसार के अन्य मतों के अनुयायियों के प्रति भी अपनी शुभेच्छा का परिचय दिया। वह संसार के सभी लोगों का एक वैदिक सत्य धर्म, एक संस्कृति, एक मत, एक भाषा, एक सुख-दुख, समानता व निष्पक्षता के पक्षधर थे। उनकी यह विशिष्टता ही वैदिक विचारधारा के कारण थी। इसी विचारधारा को अपनाकर ही संसार में सभी विवादों का हल, शान्ति व सुख का वातावरण तैयार हो सकता है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

गोरक्षा   के   लिये   क्या   करना   चाहिये?

महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय, भारतरत्न।

यदि हम गौओं की रक्षा करेंगे तो गौएं भी हमारी रक्षा करेंगी। गांव की आवश्यकता के अनुसार प्रत्येक घर में तथा घरों के प्रत्येक समूह में एक गोशाला होनी चाहिये। दूध गरीबअमीर सबको मिलना चाहिये। गृहस्थों को पर्याप्त गोचरभूमि मिलनी चाहिये। गौओं को बिक्री के लिये मेलों में भेजना बिलकुद बंद कर देना चाहिये। क्योंकि इससे कसाइयों को गायें खरीदने में सुविधा होती है। किसानों की स्थिति के सुधार के लिये दिये जाने वाले इन सुझावों तथा अन्य ऐसे सुझावों को कार्यरूप में परिणत करने के लिये ग्रामपंचायतों का निर्माण होना चाहिये।

फोनः09412985121

 

मैं और मेरा देश’ -मन मोहन कुमार आर्य

 

मैं अपने शरीर में रहने वाला एक चेतन तत्व हूं। आध्यात्मिक जगत् में इसे जीवात्मा कह कर पुकारा जाता है। मैं अजन्मा, अविनाशी, नित्य, जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसा हुआ तथा इससे मुक्ति हेतु प्रयत्नशील, चेतन, स्वल्प परिमाण वाला, अल्पज्ञानी एवं ससीम, आनन्दरहित, सुख-आनन्द का अभिलाषी तत्व हूं। मेरा जन्म माता-पिता से हुआ है। मेरे माता-पिता व इस संसार को, जिसमें मुझे भेजा गया है, पहले से ही रचा व बनाया गया है। पहले सृष्टि की रचना किसी सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और चेतन सत्ता ने की, उसके पश्चात वनस्पति और पशु व पक्षी आदि प्राणियों की रचना करके मनुष्योत्पत्ति की। विगत 1,96,08,53,115 वर्षो से यह क्रम अनवरत जारी है। मुझे, मेरे माता-पिता को व इस सृष्टि को बनाने वाला कौन है? इसका उत्तर शास्त्रों के अध्ययन, चिन्तन-मनन व विवेक से मिलता है कि कोई सत्य, चेतन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, निराकार, कारण प्रकृति का स्वामी व नियंत्रक, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी, सर्व-अन्तर्यामी, सूक्षमातिसूक्ष्म तत्व है जिसे हम ईश्वर, परमात्मा, भगवान, सृष्टिकर्ता, गाड, खुदा, अल्लाह, रब, मालिक आदि नामों से जानते हैं। यह ईश्वर सत्ता एक ही हो सकती है, एक से अधिक नहीं, ऐसा सृष्टि को देखकर व विचार करने पर ज्ञात होता है। सृष्टि के आरम्भ से अब तक इस जगत में अनेक श्रेष्ठ पुरूषों ने जन्म लिया है जिनका यश व कीर्ति आज तक विद्यमान है। यह सभी सत्याचारी, अन्याय से पीडि़त लोगों की रक्षा करने वाले, त्यागी, तपस्वी, ईश्वरभक्त, वेदभक्त एवं वेदानुयायी, माता-पिता व आचार्यो के प्रति सेवा व भक्ति-भावना रखने वाले थे। इनमें से कुछ ज्ञात महापुरूष मनु, राम, कृष्ण, चाणक्य, दयानन्द, सरदार पटेल, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, राम प्रसाद बिस्मिल, चन्द्र शेखर आजाद, बन्दा बैरागी, भगत सिंह आदि हुए हैं। हमें महापुरूषों के जीवन से प्रेरणा लेकर उनके गुणों को धारण करना है, यही उन महापुरूषों की पूजा है एवं स्तुति-प्रार्थना-उपासना-ध्यान आदि केवल ईश्वर का ही करना है और यही ईश्वर की पूजा है।

वेदादि साहित्य का अध्ययन करने पर हमने पाया कि हमारा जन्म भोग व अपवर्ग के लिए हुआ है। भोग का अर्थ है कि हमने अपने पूर्व जन्मों में जो अच्छे-बुरे कर्म किये थे उन कर्मों में जिन कर्मों का भोग अभी तक हमें प्राप्त नहीं हुआ है, वह हमारा प्रारब्ध है। उसे हमें इस जन्म व अगले जन्मों में भोगना है। इन कर्मो के फलों को भोगने के साथ ईश्वर ने हमें एक सुविधा यह भी दी है कि यदि हम स्वाध्याय से अपने ज्ञान को बढ़ा कर एवं यथार्थ वेदोक्त स्तुति-प्रार्थना-उपासना से ध्यान व समाधि को सिद्ध कर ईश्वर का साक्षात्कार कर लेते हैं तो हमारी मुक्ति व हमें मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी। मुक्ति की अवधि एक परान्तकाल अर्थात् 31,10,40,00,00,00,000 वर्ष वा इकतीस नील दस खरब चालीस अरब वर्ष होती है। उसके बाद हमारा पुनः जन्म होगा। इस मुक्ति की अवधि में हमें किंचित भी दुःख की अवस्था से नहीं गुजरना पड़ेगा। यह उपलब्धि हमारे शास्त्राध्ययन एवं उसके अनुसार जीवन-यापन व योग साधना से प्राप्त होती है। यहां यह भी लिखना उचित होगा कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक और यहां से मध्य काल में बौद्ध मत के आरम्भ तक सारे विश्व में केवल वैदिक धर्म व संस्कृति का ही प्रचार-प्रसार-पालन व धारण सर्वत्र रहा है। महाभारत काल के पश्चात अज्ञानतावश बौ़द्ध, जैन, पौराणिक व अन्य दूरस्थ देशों में ऐसे ही भिन्न भिन्न मतों का प्रादुर्भाव हुआ। यदि सभी मतों के व्यक्ति मिल कर परस्पर मित्रता व निष्पक्षता से विचार-विमर्श कर मनुष्य धर्म का निर्धारण करें तो निश्चित रूप से वैदिक धर्म व मत को ही सर्वसम्मति से स्वीकार करना होगा और तब वेदेतर मत के लोगों को जीवन में ईश्वरीय आनन्द की उपलब्धि एवं उसके पश्चात मुक्ति प्राप्त हो सकेगी।

 

मेरा जन्म आज से लगभग 63 वर्ष पूर्व भारत में हुआ। तब से मैं यहां रह रहा हूं। शैषव अवस्था ने माता पिता ने धर्म व रीति रिवाज सम्बन्धी जो बातें बताई व समझाईं, उन्हें उसी रूप में बिना सोचे विचारे मैंने स्वीकार कर लिया और मानता रहा। विद्यालय की शिक्षा के समय एक पड़ोसी आर्य समाजी मित्र मिल गये, 18 वर्ष की आयु में उनके साथ सायंकाल भ्रमण की आदत पड़ गई। यदा-कदा वह यत्र-तत्र हो रहे प्रवचनों में ले जाया करते थे और आर्य समाजी दृष्टिकोण से उनकी समालोचना करते थे। आरम्भ में पौराणिक संस्कारों के कारण मुझे वह प्रायः उचित नहीं लगती थी। यदा-कदा आर्य समाज भी जाना होता था और वहां यज्ञ, भजन व विद्वानों के विचारों को सुना और पुस्तकें क्रय करके स्वाध्याय किया। धीरे-धीरे पता नहीं कब आर्य समाज के वेद संबंधी विचारों ने मेरे मन व मस्तिष्क पर अधिकार कर लिया और पौराणिक अज्ञान-अन्धविश्वास व कुरीतियों से युक्त बातें मन से दूर चली गईं। मेरा अब दृण विश्वास है कि ईश्वर की सगुण व निर्गुण भक्ति के स्थान पर पौराणिक रीति से मैं जो मूर्ति पूजा व कर्मकाण्ड आदि करता था, वह अधिकांश असत्य, अनावश्यक और अनुचित था। आज मैं आत्मिक सन्तोष का अनुभव करता हूं। यह सब मुझे सत्यार्थ प्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों के स्वाध्याय व विद्वानों के प्रवचनों तथा चिन्तन व मनन से प्राप्त हुआ है। आत्मा व मन इस बात से सन्तुष्ट हैं कि हमें इस संसार व ईश्वर के बारे में यथार्थ ज्ञान है।

 

जो ज्ञान व संस्कार अब हमारे हैं वह भारत के सभी लोगों व विश्व के लोगों के नहीं है। वहां इस प्रकार के सत्य व परम उपयोगी विचारों को जानने व उसके प्रचार प्रसार की किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं है। यदि समुचित व्यवस्था होती तो मुझे लगता है कि विद्यार्थी काल में जिस प्रकार से मेरा बौद्धिक मतान्तरण हुआ, उसी प्रकार शायद संसार के सभी लोगों का हो सकता था। मुझे इन विचारों को मानने या अपनाने के लिए किसी ने जोर-जबरस्ती नहीं की अपितु यह स्वतः हुआ और तब हुआ जब मेरी आत्मा ने उसे स्वीकार किया। मुझे लगता है और यह वास्तविकता है कि संसार में वैदिक विचारों, सिद्धान्तों व मान्यताओं का प्रचार नगण्य है एवं दूसरे मतानुयायी योजनाबद्ध रूप से वेद एवं पौराणिक लोगों को मतान्तरित कर उन्हें स्वमत में दीक्षित कर इस देश की राजनैतिक सत्ता को हथिया कर अपना छद्म उद्देश्य पूरा करना चाहते हैं। इसके लिए वह अन्दर ही अन्दर सब प्रकार के कुत्सित कार्य भी करते हैं परन्तु बाहर से स्वयं को बहुत ही अच्छा व मानवता का सेवक दिखाते हैं।

 

मुझे लगता है कि मेरा कर्तव्य है कि ईश्वर से प्राप्त वेद एवं वैदिक ज्ञान की रक्षा होनी चाहिये, कहीं यह विलुप्त न हो जाये। इसके लिए हमें हर सम्भव प्रयास करना है। अपनों को मनाना है व उन्हें इस विश्व-वरेण्य संस्कृति के महत्व को हृदयगंम कराना है। हमें विश्व के अन्य मतावलम्बी बन्धुओं को भी आमन्त्रित करना है कि वह भी ईश्वर, जीवात्मा के स्वरूप पर हमसे प्रेमपूर्वक संवाद व चर्चा करें। यदि उन्हें हमारे विचारों में कहीं कोई कमी दृष्टिगोचर होती है तो वह हमें बतायें, हम सदिच्छा से उसे समझ कर उसका समाधान व निराकरण करेंगे। यह तभी सम्भव होगा जब हम स्वामी दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द, स्वामी अमर स्वामी, पं. शान्तिप्रकाश, पं. गणपति शर्मा जैसा स्वयं को बनायें। इसके लिए हमें अपने गृहस्थ जीवन में भी और उसके पश्चात 50 या 60 वर्ष की आयु में गृहस्थ व व्यवसाय से सेवानिवृत्त होकर घर में रहते हुए या वानप्रस्थी की भांति इस कार्य में जुटना पड़ेगा। गृहस्थ व सेवाकाल व व्यवसाय के काल में भी इस कार्य को यथाशक्ति करना होगा तभी सेवा निवृत्ति के पश्चात यह काम कर सकेंगे। यदि इसकी उपेक्षा करेंगे तो वह दिन दोबारा आ सकता है जब बौद्धों के प्रचार की भांति हमारे सभी बन्धु भिन्न-2 मतों के अनुयायी बन जायेंगे और उन मतों के लोग हमारी वैदिक धर्म व संस्कृति को नेस्तनाबूद कर देंगे। ऐसा पहले भी करने के प्रयास हुए हैं, वह आंशिक सफल भी रहे हैं, जिससे हमें अपूर्व हानि हुई है अन्यथा आज का इतिहास कुछ और ही होता। इस बात की कोई गारण्टी नहीं है और न हो सकती है, कि ऐसा कभी नहीं होगा, अतः सावधान होकर अपने कर्तव्य का पालन जैसा कि हमारे पूर्व पुरूषों ने किया है, हमें भी करना है।

 

हमने इस लेख के शीर्षक में मैं और मेरा देश शब्दों का प्रयोग किया है। इन शब्दों से हमारा तात्पर्य वैदिक संस्कारों से युक्त मैं व मेरे देशवासी व विश्व-वासियों से है जो सत्य, यथार्थ, सृष्टि क्रम के अनुरूप सिद्धान्तों व मान्यताओं को जाने और अपने कल्याणार्थ उसे माने। जब हमारे देश के सभी या अधिकांश लोग वैदिक मतानुयायी हो जायेगें तब यह देश विश्व शान्ति का धाम बन जायेगा। इसके लिए हमें सत्य, प्रेम, सहयोग, परोपकार, सेवा, शिक्षा, वेद प्रचार का प्रयोग करना है। ईश्वर की शक्ति व प्रेरणा हमारे साथ है, अतः हमें चिन्ता नहीं करनी है। हमारी आत्मा अमर है, यह हमारा दृण विष्वास है, अतः भय का काई स्थान नहीं। सत्य व धर्म की रक्षा व प्रचार के मार्ग में चलकर यदि कुछ अप्रिय भी  होता है तो ईश्वर से हमें उसकी क्षतिपूर्ति ही नहीं होगी अपितु असीम सुख व आनन्द की उपलब्धि होगी। अतः आर्य समाज के सभी लेागों को अपने मतभेद भुलाकर विचार मन्थन कर वह योजना बनानी होगी जिससे हम देश के सभी मतों के विद्वानों को अपना सत्य-सन्देश देकर उन्हें आलोचना व समीक्षा का अवसर दें और निवेदन करें कि यदि वह आलोचना नहीं कर रहे हैं और उन्हें हमारी मान्यतायें सत्य लगती हैं तो वह उन्हें स्वीकार कर हमारे साथ मिलकर कार्य करें। ऐसा होने पर ही देश से भ्रष्टाचार, लूट, स्वार्थ का कारोबार, सामाजिक बुराईयां, आतंकवाद, अनाचार व दुराचार आदि समाप्त होगा। सामाजिक अन्याय दूर होगा, जातिवाद, ऊंच-नीच की भावना समाप्त होगी, शोषण व अन्याय समाप्त होगा और हमारा देश ऐसा होगा जिससे न केवल हम ही प्रसन्न

व सन्तुष्ट होगें अपितु समस्त देशवासी सुःख से अपना जीवन व्यतीत कर सकेंगे। आईये, इस विषय पर चिन्तन करते हैं और जिससे जो बन सकता है उसके लिए अपने जीवन से समय निकाल कर व अपनी सामथ्र्य के अनुसार धन का दान कर अपना कर्तव्य निभायें। हम सत्य पर हैं अतः ईश्वर हमारे साथ है, साथ रहेगा, साथ देगा, इसकी आशंका नहीं होनी चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

दूरभाषः 09412985121

 

गो-वध व मांसाहार का वेदों में कही भी नामोनिशान तक नहीं है: शिवदेव आर्य

 

प्रायः लोग बिना कुछ सोचे समझे बात करते हैं कि वेदों में गो-वध तथा गो-मांस खाने का विधान है। ऐसे लोगों को ध्यान में रखकर कुछ लिखने का यत्न कर रहा हूॅं, आज तक जो भी ऐसी मानसिकता से घिरे हुऐ लोग हो वे जरुर इसको पढ़ कर समझने का प्रयास करें। क्षणिक स्वार्थ व लाभ के लिए वेद व गोमाता का नाम अपवित्र करने की कोशिश न करें। यदि लेशमात्र भी संदेह है तो इन मन्त्रों को समझों-

प्रजावतीः सुयवसे रुशन्तीः शुध्द अपः सुप्रपाणे पिबन्तीः।

मा वस्तेन ईशत माघशंसः परि वो रुद्रस्य हेतिर्वृणक्तु।। (अथर्व.-7.75.1)

इस मन्त्र का देवता अघ्न्या’ है। जो कि वैदिक कोश के अनुसार गाय का मुख्य नाम है। इसका निर्वचन करते हुए लिखा है – न हन्तव्या भवति अर्थात् गाय इतना अधिक उपकारी पशु है कि इस का वध करना पाप ही नहीं अपितु महापाप है।

इस मन्त्र का अर्थ इस प्रकार होगा कि– हे मनुष्यो! तुम्हारे घरों में प्रजावतीः उत्तम सन्तान वाली, सुयवसे (जौ) के क्षेत्रों मे चरने वाली और शुध्द जलों को पीने वाली गौ हो और इसकी सुरक्षा ऐसी हो कि कोई चोर उन्हें चुरा न सके और पापी डाकू आदि गाय को अपने वश में न कर सके । रुद्र परमात्मा की हेति=वज्रशक्ति तुम्हारे चारों तरफ सदा विद्यमान रहे।

यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम्।

तं त्वा सीसेन विध्यामः।। (अथर्व.-1.16.4)

अर्थात् राजन्! यदि कोई मनुष्य हमारी गाय, अश्व आदि पशुओं को मारता है, उसे हत्यारे को (सीसेन) कारागार या कठोर दण्ड देकर हमारी रक्षा करो।

पयः पशूनां रसमोषधीनाम्।

बृहस्पतिः सविता मे यच्छतात्।। (अथर्व.-19.31.5)

अर्थात् हे सवोत्पदाक परमेश्वर! हम सब को जीवन निर्वाह के लिए गाय का दूध और औषधियों का रस भोजन के लिए प्रदान करो।

 

या वो देवाः सूर्ये रुचो गोष्वश्र्वेषु या रुचः।

इन्द्राग्नी ताभि सर्वाभी रुचं नो धत्तबृहस्पते।। (यजु.-13.23)

इस मन्त्र के माध्यम से कहने का यत्न किया गया है कि गो, अश्व आदि प्राणियों से सदैव प्रीति किया करें।

घृतं पीत्वा मधु चारु गव्यं पितेव पुत्रमभिरक्षताद् इमान् स्वाहा।। (यजु.-35.17)

अर्थात् हे (अम्बे) राजन्! जैसे पिता अपने पुत्रों की रक्षा करता है वैसे आप गाय के मधुर और रोगनाशक दूध घृत आदि की व्यवस्था कर हमारी रक्षा करें।

दोग्ध्री धेनुर्वोढाऽन…………जायताम्।(यजु.-22.22)

इस मन्त्र में राष्ट्रिय प्रार्थना है – हमारे देश में प्रचुर दूध देने वाली गोएॅं भार ढोने में समर्थ तथा कृषि के योग्य बैल और यानों में सक्षम और शीघ्रगामी घोड़े पैदा हों।

मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाॅं2ऽअस्तु सूय्र्यः।

माध्वीर्गावो भवन्तु नः।। (यजु.-13.29)

गाय से जैसी कल्याणकारी किरणें हम सब मनुष्य के लिए निकलती हैं, ठीक ऐसी ही कल्याणकारी किरणों को प्राप्त करने के लिए प्रशंसित कोमलता गुणयुक्त वनस्पतियों से होम करो।

इस मन्त्र से स्पष्ट प्रतीत होता है कि गाय के दुग्ध, मूत्र, मल आदि से उस गाय के अन्दर से कल्याणकारी किरणें निकलती हैं, जो हम सब के लिए अत्यन्त लाभप्रद हैं।

इमं मा हिंसीद्र्विपादं पशुं सहस्त्राक्षो मेधाय चीयमानः। मयुं पशुं मेधमग्ने जुषस्व तेन चिन्वानस्तन्वो निषीद। मयुं ते शुगृच्छतु यं द्विष्मस्तं ते शुगृच्छतु।। (यजु.-13.47)

इस मन्त्र के द्वारा परमपिता परमेश्वर मनुष्य को आदेश देता है कि सबके उपकार करने हारे गवादि पशुओं को कभी न मारें, किन्तु इनकी अच्छी प्रकार से रक्षा कर और इनसे उपकार लेके सब मनुष्यों को आनन्द देवे।

इमं साहस्त्रं शतधारमुत्सं व्यच्मानं सरिरस्य मध्ये।

घृतं दुहानामदिति जनायाग्ने मा हिंसी परमे व्योमन्।

गवयामारण्यमनु ते दिशामि तेन चिन्वानस्तन्वो निषीद।

मवयं ते शुगृच्छतु। यं द्विष्मस्तं ते शुगृच्छतु।। (यजु.-13.49)

इस मन्त्र में भी इसी प्रकार की चर्चा प्राप्त होती है। देव दयानन्द जी इस मन्त्र के भावार्थ में लिखते हैं कि- हे राजपुरुषों! तुम लोगों को चाहिए कि जिन बैल आदि पशुओं के प्रभाव से खेती आदि काम, जिन गौ आदि से दूध घी आदि उत्तम पदार्थ होते हैं कि जिन के दूध आदि से प्रजा की रक्षा होती है, उनको कभी मत मारो और जो जन इन उपकारक पशुओं को मारें, उनको राजादि न्यायाधीश अत्यन्त दण्ड देवें।

अक्षराजाय कितवं कृतायादिनदर्शं त्रेतायै द्वापरायाधिकल्पिनमास्कदाय सभास्थाणुं मृत्यवे गोव्यच्छमन्तकाय गोधातं  क्षुधे यो गां विकृन्तन्तं भिक्षमाणऽउप तिष्ठति दुष्कृताय चरकाचाय्र्यं पाप्मने सैलगम्।। (यजु.-30.18)

इस मन्त्र में कहा गया है कि जो समाज को चलाने वाले राजादि लोग हैं वे तभी सामथ्र्यशील हैं, जो गाय आदि पशुओं को मारने, काटने वाले मनुष्यों को कठोर से कठोर सजा देता हो किन्तु बड़ा दुर्भाग्य है कि हमारे समाज के राजादिगण लोग तो गो हत्या करने वालों को प्रोत्साहित करते, ये बडी दुःखद स्थिति है।

जो समाज को दिशा व दशा प्रदान करने वाले हैं, वे स्वयं ही गो-वध को कराने वाले हैं तथा गो-मांस का भक्षण करते हैं, और इसप्रकार लोगों को भी करने के लिए सदैव प्रेरित करते हैं। इससे राजनीति भी करते हैं। अभी कुछ समय पूर्व की घटनाओं से आप सभी सम्यक्तया परिचित ही है।

अपक्रीताः सहीयसीर्वीरुधो या अभिष्टुताः।

त्रायन्तामस्मिन्ग्रामे गामश्वं पुरुषं पशुम्।। (अथर्व.-8.7.11)

इस मन्त्र में कहा गया है कि रोगों का शमन करने वाली औषधियों से गौ, घोड़े, मनुष्य व पशुओं की रोग से रक्षा करें।

मधुममूलं मधुमदग्रमासां मधुमन्मध्यं वीरुधां बभूव। मधुमत्पर्णं मधुमत्पुष्पमासां मधोः संभक्ता अमृतस्य भक्षो घृतमन्नं दुह्रतां गोपुरोगवम।। (अथर्व.-8.7.12)

इस मन्त्र में ओषधियों का चित्रण करते हुए गो पुरो गवम्गाय को सर्व प्रथम स्थान पर रखा गया है। इस गाय के दूध व घी के साथ ओषधियों के सेवन से हमारा उत्तम स्वास्थ्य होवे।

गोरक्षा के लिए महार्षि दयानन्द का आन्दोलन:-

वेदों में कहा है – गोस्तु मात्रा न विद्यते।।(यजु.-23.48) अर्थात् गाय इतना अधिक महत्त्वपूर्ण पशु है जिसकी तुलना करना सम्भव ही नहीं है। गाय का दूध अमृत होता है और इसका मूत्र व गोबर भी रोग निवारक और सर्वोत्तम खाद है। कृषि प्रधान भारत के लिए तो इसका महत्त्व अत्यधिक हो जाता है। इसलिए दयार्द्र दयानन्द की दया गोकरुणा-निधिमें ही उजागर होती है। गायों की नृशंस हत्या को देखकर ऋषि दयानन्द के जीवन में कतिपय प्रसंग ही ऐसे आते हैं जिन अवसरों पर ऋषि दयानन्द के अश्रु बहते हुए देखे गये-

देश में बढ़ती हुई गोहत्या देखकर रोये थे स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

गोमाता के वध पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए दो करोड़ भारतवासियों के हस्ताक्षर कराकर ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को प्रतिवेदन करते हुए महर्षि ने कहा था- बड़े उपकारक गाय आदि पशुओं की हत्या करना महापाप है, इसको बन्द करने से भारत देश फिर समृध्दशाली हो सकता है। गाय हमारे सुखों का स्रोत है, निर्धन का जीवन और धनवान् का सौभाग्य है। भारत देश की खुशहाली के लिए यह रीढ़ की हड्डी है।

महारानी विक्टोरिया को भेजा प्रतिवेदन

‘‘ ऐसा कौन मनुष्य जगत् में है जो सुख के लाभ में प्रसन्न और दुःख की प्राप्ति में अप्रसन्न न होता हो। जैसे दूसरे के किये अपने उपकार में स्वयम् आनन्दित होता है वैसे ही परोपकार करने में सुखी अवश्य होना चाहिये। क्या ऐसा कोई भी विद्वान् भूगोल में था, है या होगा, जो परोपकार रूप धर्म और-परहानि स्वरूप अधर्म के सिवाय धर्म और अधर्म की सिध्दि कर सके। धन्य वे महाशयजन हैं जो अपने तन,मन और धन से संसार का उपकार सिध्द करते हैं। द्वितीय मनुष्य वे हैं जो अपनी अज्ञानता से स्वार्थवश होकर अपने तन,मन और धन से जगत् में परहानि करके बड़े लाभ का नाश करते हैं।

       सृष्टिक्रम में ठीक ठीक यही निश्चय होता है कि परमेश्वर ने जो जो वस्तु बनाया है वह पूर्ण उपकार के लिये है, अल्पलाभ से महाहानि करने के अर्थ नहीं। विश्व में दो ही जीवन के मूल हैं- एक अन्न और दूसरा पान। इसी अभिप्राय से आर्यवर शिरोमणि राजे महाराजे और प्रजाजन महोपकारक गाय आदि पशुओं को न आप मारते और न किसी को मारने देते थे। अब भी इस गाय,बैल,भैंस आदि को मारने और मरवाने देना नहीं चाहते हैं, क्योंकि अन्न और पान की बहुताई इन्हीं से होती है। इससे सब का जीवन सुखी हो सकता है। जितना राजा और प्रजा का बड़ा नुकसान इनके मारने और मरवाने से होता है, उतना अन्य किसी कर्म से नहीं। इस का निर्णय गोकरुणानिधिपुस्तक में अच्छे प्रकार से प्रकट कर दिया है, अर्थात् एक गााय के मारने और मरवाने से चार लाख बीस हजार मनुष्यों के सुख की हानि होती है। इसलिए हम सब लोग प्रजा की हितैषिणी श्रीमती-राजराजेश्वरी क्वीन महारानी विक्टोरिया की न्यायप्रणाली में जो यह अन्याय रूप बड़े-बड़े उपकारक गााय आदि पशुओं की हत्या होती है, इसको इनके राज्य में से छुड़वाके अति प्रसन्न होना चाहते है।

        यह हम को पूरा विश्वास है कि विद्या, धर्म, प्रजाहित प्रिय श्रीमती राजराजेश्वरी क्वीन महारानी विक्टोरिया पार्लियामेण्ट सभा तथा सर्वोपरि प्रधान आर्यावत्र्तस्थ श्रीमान् गवर्नर जनरल साहब बहादुर सम्प्रति इस बड़ी हानिकारक गाय, बैल तथा भैंस की हत्या को उत्साह तथा प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र बन्द करके हम सब को परम आनन्दित करें। देखिए कि उक्त गााय आदि पशुओं के मारने और मरवाने से दूध, घी और किसानों  की कितनी हानि होकर राजा और प्रजा की बड़ी हानि हो गई और नित्यप्रति अधिक-अधिक होती जाती है। पक्षपात छोड़के जो कोई देखता है तो वह परोपकार ही को धर्म और पर हानि को अधर्म निश्चित जानता है। क्या विद्या का यह फल और सिध्दान्त नहीं है कि जिस जिस से अधिक उपकार हो, उस उस का पालन वर्धन करना और नाश कभी न करना। परम दयालु, न्यायकारी, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान् परमात्मा इस समस्त जगदुपकारक काम करने में हमें ऐकमत्य करें।

                                                            हस्ताक्षर. दयानन्द सरस्वती

संसार के राजा, महाराजाओं से विनति करके महर्षि दयानन्द ने संसार के अधिपति परमेश्वर से भी प्रार्थना की-हे महाराजाधिराज जगदीश्वर! जो इनको कोई न बचावे तो आप उनकी रक्षा करने और हम से करानो में शीघ्र उद्यत हूजिए।

महर्षि दयानन्द और गोरक्षा के लाभ

  • गाय आदि पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का ही नाश हो जाता है।
  • वेदों में परमात्मा की आज्ञा है- कि अघ्न्या यजमानस्य पशून् पाहि।। यजु. हे पुरुष तू इन पशुओं को कभी मत मार और यजमान अर्थात् सब के सुख देने वाले जनों के सम्बन्धी पशुओं की रक्षा कर, जिनसे तेरी भी पूरी रक्षा होवे।
  • ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त आर्य लोग पशुओं की हिंसा में पाप और अधर्म समझते थे।
  • हे मांसाहारियो! तुम लोग जब कुछ काल के पश्चात् पशु न मिलेंगे तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे वा नहीं।
  • हे परमेश्वर! तू क्यों न इन पशुओं पर जो कि बिना अपराध मारे जोते हैं, दया नहीं करता । क्या उन पर तेरी प्रीति नहीं है। क्या उनके लिये तेरी न्याय सभा बन्द हो गई? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर ध्यान नहंी देता अैर उनकी पुकार नहीं सुनता। क्यों इन मांसाहारियों की आत्माओं में दया प्रकाश कर निष्ठुरता, कठोरता, स्वार्थपन और मूर्खता आदि दोषें को ूदर नहीं करता?
  • और इन की रक्षा में अन्न भी महंगा नहीं होता, क्योंकि दूध आदि के अधिक होने से दरिद्री को भी खान पान में मिलने पर न्यून ही अन्न खाया जाता है। और अन्न के कम खाने से मल भी कम होता है। मल के न्यून होने दुर्गन्ध भी न्यून होता है, दुर्गन्ध के स्वल्प होने से वायु और वृष्टिजल की शुध्दि भी विशेष होती है। उससे रोगों की न्यूनता से हाने से सब को सुख बढ़ता है।
  • देखो! तुच्छ लाभ के लिये लाखों प्राणियों को मार असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं।
  • जितना (लाभ) गाय के दूध और बैलों के उपयोग से मनुष्यों को सुखों का लाभ होता है उतना भैंषियों के दूध और भैसों से नहीं। क्योंकि जितने आरोग्य कारक और वृध्दिवर्धक आदि गण्ुा गाय के दूध और बैलों में होते हैं उतने भैंस के दूध और भैंसे के दूध और भैंसे आदि में नहीं हो सकते। (गोकरुणानिधि से)

गाय ही सर्वोत्तम क्यों!

गौ और कृषि अन्योन्याश्रित हैं। इसीलिए महर्षि ने गोकृष्यादिरक्षिणी सभा नाम रखा था। गाय का दूध सर्वोत्तम क्यों है? इसमें निम्नलिखित मुख्य विशेषताएॅं हैं-

  • गाय का दूध पीला और भैंस का सफेद होता है। इसीलिए इसके दूध के विशेषज्ञ कहते हैं कि गाय के दूध में सोने का अंश हेता है जो कि स्वास्थ्य के लिए उत्तम है और रोगनाशक है।
  • गाय का दूध बुध्दिवर्धक तथा आरोग्यप्रद है।
  • गाय का अपने बच्चे के साथ स्नेह होता है जबकि भैंस का बच्चे के साथ ऐसा नहीं होता है।
  • गाय के दूध में स्फर्ति होती है। इसीलिए गाय के बछडे़ व बछियाॅं खूब उछलते कूदते फिरते हैं। भैंस के दूध पीने से आलस्य व प्रमाद होता है।
  • गााय के बछड़े को 50 गायों या अधिक में छोड़ दिया जाय तो वह अपनी माता को जल्दी ही ढूॅंए लेता है। जबकि भैंस के बच्चों में यह उत्कृष्टता नहीं होती।
  • गाय का दूध तो सर्वाेत्तम होता ही है, साथ ही गाय का गोबर व मूत्र भी तुलना में श्रेष्ठ है। गाय का गोबर स्वच्छ व कीटनाशक होता है। गाय की खाद तीन वर्ष तक उपजाउळ शक्ति बढ़ाती रहती है किन्तु भैंस की खाद एक दो वर्ष के बाद ही बेकार हो जाती है। और गोमूत्र का स्प्रे करके कीड़ों के नाश में भी उपयोग लिया जाता है।
  • गोमूत्र उत्तम औषधि है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में पचास से भी अधिक रोगों में इसका उपयोग होता है।
  • कृषि के कार्यों के लिए गाय के बछड़े सर्वोत्तम हैं। भारतवर्ष में आज के मशीनीयुग में भी 5 प्रतिशत खेती बैलों से होती है।
  • गाय एक सहनशील पशु है। वह कड़ी धूप व सर्दी को भी सहन कर लेता है। इसीलिए गाय जंगल में घूमकर प्रसन्न रहती है।
  • गाय के दूध में सूरज की किरणों से भी नीरोगता बढ़ती है। इसीलिए वह अधिक स्वास्थ्यप्रद है।
  • गाय की अपेक्षा भैंस के बच्चे/भैंसा धूप में कार्य करने में सक्षम नहीं होते।
  • गाय की अपेक्षा भैंस के घी में कण अधिक होते हैं। जो कि सुपाच्य नहीं होते।
  • गाय का घी सुक्ष्मतम नाडि़यों में प्रवेश करके शक्ति देता है। मस्तिष्क व हृदय की सूक्ष्मतम नाडि़यों में पहुॅंच कर गोघृत शक्ति प्रदान करता है। आयुर्वेद में गोघृत का ही शारीरिक शोधन में प्रयोग होता है।
  • विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार भैंस के दूध में लांग चेन फैट की मात्रा अधिक होती है, जो कि नाडि़यों में जम जाती है। और हृदय के रोग पैदा हो जाते हैं। परन्तु हृदय के रोगियों के लिये भी गाय का दूध विशेष उपयोगी होता है।
  • गाय का दूध वात नाशक, पित्तशामक और कफनाशक भी है।
  • गाय का दही मधुर, रुचिकारक, अग्निप्रदीपक, हृद्य, प्रिय और पोषक होता है।
  • गाय का मक्खन हितकारक, रंग साफ करने वाला, बलवर्धक, अग्नि प्रदीपक और विभिन्न रोगों में रसायन व आयुवर्धक माना है।
  • गाय का मट्ठा ;छाछद्ध तो लाखों रोगों की एक अचूक दवा है।
  • गाय के दूध, मूत्र, गोबर, दही और घी से तैयार किया पंचगव्य तो असाध्य रोगों में अचूक दवा है। जिन रोगों में अन्य औषध्यिां काम नहीं कर पातीं उनमें पंचगव्य की मात्रा देने से आशतीत लाभ मिलता है। मानसिक उन्माद आदि रोगों में पंचगव्य रामबाण औषधि है।
  • नाडि़यों में अवरोध होने पर उत्पन्न विभिन्न रोगों में गाय का घी, गो-मूत्र और प´चगव्य रोगनाश में परम सहायक होते हैं।

महर्षि मनु महाराज भी गाय के महत्व से पूर्णरूपेण परिचित थे, जिसके कारण वे लिखते हैं कि-

नाकृत्वा प्राणिनां हिसा मांसमुत्पद्यते क्वचित्।

न प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान्मांसं विविर्जयेत्।।  (मनु॰ 5/48)

अर्थात् प्राणियों की हिंसा किये बिना मांस की प्राप्ति नहीं होती और प्रणियों का वध करना सुखदायक नहीं, इस करण माॅंस नहीं खाना चाहिये।

समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम्।

प्रसमीक्ष्य निवत्र्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्।।  (मनु॰ 5/49)

अर्थात् हमें मांस की उत्पत्ति में और प्राणियों की हत्या और बन्धन को देखकर सब प्रकार के मांस भक्षण का त्याग कर देना चाहिये।

अनुमन्ता विश्सिता निहन्ता क्रयविक्रयी।

संस्कर्ता चापहत्र्ता च खादकश्चेति घातकाः।।  (मनु॰ 5/59)

अर्थात् प्राणियों की हत्या में आठ व्यक्ति हत्या से होन वाले पापों के भागीदार होते हैं।1.पशुओं को मारने की आज्ञा देने वाला 2. मांस को काटने वाला। 3. पशुओं को मारने वाला। 4. पशु को खरीदने वाला। 5.पशु को बेचने वाला। 6. मांस पकाने वाला। 7. परोसने वाला और मांस को खाने वाला।

वर्जयेन्मधु मांसं च भौमानि कवलानि च।  (मनु॰ 6/94)

अर्थात् नशा करने वाले मद्य और मांस का परित्याग कर देना चाहिये।

हिंसारतश्च ये नित्यं नेहासौ सुखमेधते।।  (मनु॰ 4/170)

अर्थात् जो मनुष्य मांस प्राप्ति के लिए प्रतिदिन हिंसारत रहता है वह कभी सुख प्राप्त नहीं करता है।

गो-मांस व मांसाहार की बात करते हैं, उनके तर्कों का खण्डन

  • परमेश्वर ने मनुष्यों के दांत मासाहारी पशुओं की तरह बनाये हैं, अतः मनुष्यों को मांस खाना चाहिये। ऐसी बातों का उत्तर महर्षि ने यह दिया है-यह बात अपने पक्ष में कहते हैं किन्तु इससे उनका पक्ष सिध्द नहीं होता। क्योंकि मनुष्य पशुओं के तुल्य नहीं है। मनुष्य और पशुजाति भिन्न भिन्न हैं। मनुष्यों के दो पग और पशुओं के चार, मनुष्य विद्या पढ़कर सत्यासत्य का विवेक कर सकते हैं पशु नहीं। और बन्दर के दांत सिंह और बिल्ली आदि के समान हैं, किन्तु बन्दर मांस कभी नहीं खाते। बन्दर फलादि खाकर अपना निर्वाह करते हैं, वैसे मनुष्यों को भी करना चाहिये।
  • मांसाहारी पशु और मनुष्य बलवान् होते हैं, अतः मांस खाना चाहिये। यह बात भी सत्य नहीं। सिंह मांस खाता है और अरणा भैंसा नहीं खाता, परन्तु सिंह अरणा भैंसे से डरता है और सिंह मनुष्यो पर आक्रमण करे तो एक दो गोली या तलवार के प्रहार से मर भी जाता है। जबकि जंगली सुअर या अरणा भैंसा अनेक गोलियों अथवा तलवार आदि के प्रहार से भी शीघ्र नहीं मरता। और प्रत्यक्ष दृष्टांत देखना हो तो पूर्णरूप से शाकाहारी राममूर्ति, चन्दगी राम, गामा पहलवान, दारा सिंह, सतपाल पहलवान आदि ऐसे उदाहरण हैं, जो मांसाहार करने वाले हैं उनको नाम मात्र काल में ही परास्त कर देते थे। मांसाहार करना बलवर्धक न होकर हानिकारक, अधर्म एवं दुष्टकर्म हैं।
  • मांसाहारी व्यक्ति एक यह भी तर्क देते हैं- जो मांसाहार न किया जाये तो संसार में पशु इतने बढ़ जायें कि पृथिवी पर भी न समायें। इसीलिए पशुओं को खाना उचित है। परन्तु महर्षि ने इसका उपहास उड़ाते हुआ लिखा है- यह बुध्दि का विपर्यास मांसाहार ही से हुआ होगा? इसके विपरीत मनुष्य का मांस कोई नहीं खाता पुनः वे क्यों नहीं बढ़ गये। वास्तव में एक मनुष्य के पालन के लिए अनेक पशुओं की अपेक्षा होती है, अतः ईश्वर ने मनुष्य की अपेक्षा पशुओं को अधिक उत्पन्न किया है।
  • कुछ व्यक्ति कहते हैं कि पशुओं को मारकर अधर्म तो नहीं होता। जो अधर्म मानता है वह न खाये, हमारे मत में अधर्म नहीं होता। अतः मांसाहार करना अनुचित नहीं हैं। यह बात भी सत्य नहीं, क्योंकि धर्म-अधर्म किसी के मानने अथवा न मानने से नहीं होता। पर हानि अथवा हिसंा करना अधर्म और परोपकार करना धर्म होता है। चोरी जारी इसलिए अधर्म होता है कि इससे दूसरे की हानि होती है। अतः लाखों पशुओं के मारने में अधर्म और उन्हें सुख देने में धर्म क्यों स्वीकार नहीं करना चाहिए।
  • कुछ व्यक्ति ऐसा भी कहते हैं कि जो पशु काम में आते हैं उन्हें मारना अधर्म है परन्तु जब बूढ़े हो जायें अथवा स्वयं पर जायें तो उनका मांस खाने में तो दोष नहीं। क्या ऐसा करने से कृतघ्नता रूपी महापाप नहीं होगा। इसी प्रकार जिन गाय, बैल आदि पशुओं से जीवन भी लाभ लिया, उनसे अमृत जैसा दूध व अन्न प्राप्त किया, और इधर-उधर आने जाने में भार ढोने का काम लिया, क्या उनकी हत्या करने में पाप नहीं होगा और कृतघ्नता तो महापाप है, उससे बचा नहीं होता उनको मारकर खाने में तो कोई हानि नहीं होती। प्रथम तो ईश्वर ने किसी भी पशु को निरर्थक नहीं बनाया है, उससे लाभ होता है या नहीं, यह हम नहीं जानते हैं। किन्तु हम प्रयास कर उस वृद्ध गाय आदि पशुओं का उपयोग कर सकते हैं, गो-मूत्र, गो-गोबर आदि से। भारतवर्ष में आज भी ऐसी गोशालाएॅं हैं, जिनमें इसप्रकार के कार्य होते हैं, ऐसी गोशालाओं में जा कर हम सबको इससे सबक लेना चाहिए। दूसरी बात यह है कि मरने के बाद माॅंस खाने से माॅंसाहारी हिंसक स्वभाव अवश्य हो जायेगा, अतः माॅंसाहार करना सर्वथा अनुचित ही नहीं अपितु निषेधनीय है।

‘मनुष्य और उसका धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

संसार के सभी मनुष्य अपने-अपने माता-पिताओं से जन्में हैं। जन्म के समय वह शिशु होते हैं। इससे पूर्व 10 माह तक उनका अपनी माता के गर्भ में निर्माण होता है। मैं कौन हूं? यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न है। मैं वह हूं जो अपनी माता से जन्मा है और उससे पूर्व लगभग 10 माह तक गर्भ में रहा है। माता के गर्भ में यह कैसे आया यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।  इस प्रश्न के उत्तर को ढूढ़ने से पूर्व हम यह देखते हैं कि जब वृद्धावस्था आदि में मनुष्य की मृत्यु होती है तो वस्तुतः होता क्या है? पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश नामी पंच-भूतों से निर्मित उसका जड़ शरीर हमारे सामने होता है जिसका शास्त्रीय व लोक नियमों के अनुसार दाह संस्कार कर दिया जाता है। अनेक देशों में मृतक शव को दफनाने की प्रथा भी विद्यमान है। मृत्यु से पूर्व तक जड़ शरीर में एक चेतन तत्व भी होता है जो शरीर से निकल जाता है जिससे उस मनुष्य व उसके शरीर की मृत्यु कही जाती है। वह चेतन तत्व क्या है, आईये, विचार करते हैं। मृत्यु से पूर्व मनुष्य के शरीर में हम ज्ञान व क्रियाओं वा कर्मों की निरन्तरता को बना हुआ देखते हैं जो मृत्यु होने पर बन्द हो जाती है। शरीर की संवेदनायें समाप्त हो जाती है और वह पूर्णतः निष्क्रिय हो जाता है। अतः यह सिद्ध होता है कि जीवित अवस्था में शरीर में ज्ञान व क्रियायें किसी एक चेतन सत्ता की विद्यमानता के कारण हो रही थी जिसके न रहने, निकल जाने या शरीर छोड़ कर चले जाने पर वह पूर्णतः बन्द हो गई। अतः शरीर में दिखने वाला ज्ञान व क्रियायें एक चेतन तत्व अर्थात् जीवात्मा की उपस्थिति का प्रमाण होने के साथ यह दोनों ज्ञान व क्रियायें=कर्म, जीवात्मा का स्वभाव वा स्वाभाविक गुण हैं। जीवात्मा के स्वाभाविक ज्ञान व क्रियाओं को जानने के बाद आईये, जानते हैं कि जीवात्मा के अन्य गुण वा उसका स्वरूप कैसा है? हम सभी अनुभव करते हैं कि जीवात्मा शरीर तक ही सीमित है। अतः जीवात्मा अल्प परिमाण वाली एवं एकदेशी सत्ता है। अल्प परिमाण एवं एकदेशी सत्त अल्प शक्ति वाली ही हो सकती है। हम यह भी देखते हैं कि हम और अन्य सभी प्राणी दुःख, रोग व मृत्यु से भयभीत होते हैं। अतः यह हमारी अल्प शक्ति के साथ परतन्त्रता को भी सिद्ध करता है। प्रश्न उपस्थित होता है कि हमें दुःख, रोग व मृत्यु किससे मिलता है? उत्तर प्राप्त होता है कि इसका कारण हमारा अज्ञान व हमारे अज्ञान-जनित कर्म होते हैं। अज्ञान का कारण हमारी अल्पज्ञता है जिसे सर्वज्ञ ईश्वर एवं ज्ञानी गुरूओं का सान्निध्य प्राप्त कर दूर किया जा सकता है। मनुष्य जब सर्वज्ञ ईश्वर के सान्निध्य को प्राप्त करता है और स्तुति, प्रार्थना व उपासना करता है तो इसके प्रभाव से धीरे-धीरे उसकी आत्मा, मन, बुद्धि व अन्तःकरण के मल छटने वा दूर होने आरम्भ हो जाते हैं। निरन्तर अभ्यास से आत्मा आदि के मल दूर हो जाने से वह निर्मल होकर ईश्वर व आत्मा में स्थिति को प्राप्त करता है। इस अवस्था में पहुंचने पर उसे दुःख, रोग व मृत्यु आदि का भय समाप्त हो जाता है। संसार में जहां भी मनुष्य निवास करता है, वह किसी भी मत, सम्प्रदाय, मजहब का अनुयायी हो, परन्तु उसके समस्त दुःख व भय आदि केवल व केवल ईश्वर की उपासना से ही दूर हो सकते हैं। नान्यः पन्था विद्यते अयनायः अर्थात् इन मलों को दूर करने का अन्य कोई उपाय नहीं है।

 

उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि जीवात्मा, सत्य, चित्त, एकदेशी, अल्पज्ञ, कर्म करने में स्वतन्त्र व फल भोगने में परतन्त्र है। योग विधि से स्तुति, प्रार्थना व उपासना व वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन वा स्वाध्याय करके वह अपनी अज्ञानता व अविद्या को दूर करके विवेक को प्राप्त होकर दुःखों से मुक्त होता है। दुःखों के साथ-साथ वह जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष अर्थात् मुक्ति को भी प्राप्त हो जाता है और नियत अवधि तक मुक्ति का सुख भोगता है।

 

जीवात्मा का स्वरूप जान लेने के पश्चात प्रश्न आता है कि जीवात्मा अपनी उन्नति, प्रगति व उत्थान के लिए क्या करे? जीवात्मा को जब अपने स्वरूप का ज्ञान होता जाता है तो इसके साथ ही साथ परमात्मा का भी ज्ञान हो जाता है। कारण यह है कि ज्ञान प्राप्त होने पर जीवात्मा यह जान जाता है कि यह कार्य जगत अथवा विशाल सृष्टि उसे बनी बनाई मिली है जिसे संसार में विद्यमान दूसरी सर्वव्यापक चेतन सत्ता, ईश्वर ने बनाया है। ईश्वर व स्वयं को जानकर जीवात्मा को यह ज्ञान भी हो जाता है कि उसे भोगों का त्याग पूर्वक उपभोग करना है। इसके अतिरिक्त जो ज्ञान उसने गुरूओं, वृद्धों, सृष्टि के दर्शन व चिन्तन-मनन-ऊहा करके प्राप्त किया है उसे अज्ञानियों व अल्पज्ञानियों में फैलाना है। उसे इसकी प्रेरणा सूर्य, वायु, जल व नदी-समुद्र-वर्षा, वृक्ष आदि सभी से मिलती है। सूर्य के पास प्रकाश है, वह उसे अपने पास न रखके पूरे सौर्य मण्डल में फैला रहा है। नदिया व समुद्र अपना जल अपने पास नहीं रखते अपितु उसे वाष्प बना कर वायु में उड़ा देते हैं जो वर्षा के द्वारा असंख्य लोगों को लाभ पहुंचाता है। नदियों का जल किसानों द्वारा खेती में उपयोग किया जाता है व नदी के आस-पास बसे ग्राम व नगर के लोग, जल की अपनी भिन्न- भिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति में करते हैं। इसी प्रकार वृक्ष, ओषधियां, दुधारू पशु, भूमि आदि सभी परोपकार-यज्ञ कर रहे हैं जिससे संसार चल रहा है।  यह सब जीवात्मा को परोपकारमय जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देते हैं। इनका मनन कर मनुष्य अपने जीवन का उद्देश्य ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना, ध्यान, परोपकार एवं यज्ञ आदि करना निश्चित करता है। यही जीवात्मा वा मनुष्यों का कर्तव्य व धर्म भी है। इन कार्यो को करते हुए वह अपने पुर्व किये हुए कर्मो को भोगेगा व आगे के लिए नये कर्मों को करके प्रारब्ध तैयार करेगा। जड़ पदार्थ परोपकार कार्यो में संलग्न हैं तो बुद्धिमान जीवात्मा इस कार्य में पीछे कैसे रह सकता है?

 

इस संक्षिप्त लेख में जीवात्मा के स्वरूप व उसके कर्तव्य-धर्म का संक्षेप में विचार किया है। मनुष्य को अपने जीवन के सभी प्रश्नों के उत्तर व जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के साधनों एवं उपायों को जानने के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का आश्रय लेना चाहिये। इस ग्रन्थ में मनुष्य जीवन से सम्बन्धित सभी प्रश्नों का सत्य व यथार्थ समाधान विद्यमान है। विगत 140 वर्षों में संसार के करोड़ों लोगों द्वारा इस ग्रन्थ में प्रस्तुत विचारों से लाभ उठा कर अपने जीवनों को संवारा जा चुका है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2,

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

नेतृत्वहीन दिशाहीन आर्यसमाज

महर्षी दयानन्द सरस्वती ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में वेदों का भाष्य, सत्यार्थ प्रकाश जैसे कालजयी ग्रंथों की रचना के साथ साथ आर्य समाज की स्थापना करके देश को एक नई दिशा दी. ऋषी के दीवानों ने ऋषी की इस वाटिका को अपने रक्त से सींच कर नई उचाईयों पर पहुँचाया. ऋषी के आकस्मिक निधन की स्तिथी में इन ऋषी भक्तों ने बलिवेदी पर अपने प्राणों को न्योंछावर कर न केवल देश की स्वतन्त्रता संग्राम में अग्रिम भूमिका का निर्वाह किया अपितु सामाजिक सुधारों के लिए देश को जागृत करके  इन सामाजिक सुधारों को देशभर में लागू करने के लिए बलिदान देकर एक नई परम्परा का आगाज  किया . उस काल में प्रचलित और स्थापित हुए  और किसी संगठन में समाज सुधारों के लिए बलिदान देने के एक भी प्रमाण सामने नहीं आते चाहे वो विवेकानन्द द्वारा पोषित रामकृष्ण मिशन हो या ब्रह्म समाज.

वह समाज ऋषि दयानन्द की एक दूरगामी सोच का परिणाम था जो न केवल उस समय देश की  पराधीनता से मुक्ति व देश की संस्कृति सभ्यता को अपने पुराने गौरव प्रदान करने के लिए संघर्षरत था बल्कि देश में औद्योगीकरण व विदेशों में व्यापार करने  एवं इसके लिए विदेशी भाषाओँ को सीखने का भी पक्षधर रहा .

वह ऋषी दयानन्द की दूरगामी सोच ही थी जिसने विश्व का ध्यान ऋषी दयानन्द की तरफ खींचा और विश्व भर के अनेकों लोग ऋषी दयानन्द के मुरीद हो गए . यह हमारे लिए दुर्भाग्य का ही विषय रहा की वह नेतृत्वकारी पथ  प्रदर्शित करने वाली ज्योती अल्प समय में ही अदृश्य हो गयी. वह भी उस समय में जब संगठन अपनी शैशव अवस्था में ही था .

ऋषी दयानन्द के बाद की पीढी ने ऋषी दयानन्द की विचारधारा को न केवल पोषित किया बल्कि इसे अपने रक्त से सींचकर इसे प्रज्वलित रखने और इसको प्रभावी बनाए रखने के हरसंभव प्रयास किये . ऋषी के ये अनुयायियों ने  एक के बाद एक इसके लिए प्राणों को न्योंछावर करने की रीति की परिपाटी रख दी जो अपने आप में एक नई परंपरा का निर्माण थी

उसी आर्य समाज की स्तिथि आज कितनी दयनीय है. कोई एक सर्वमान्य नेत्रित्व नहीं है. सर्वमान्य संस्था नहीं है. एक कम्युनिस्ट भी आर्य समाज के प्रतिनिधित्व की बात करता हैं, अनैतिक आरोपों से घिरे हुए व्यक्ति भी, वैदिक सिद्धांतों के खिलाफ बोलने वाला भी समाज और संस्था कर प्रधान होता है और शराब पीने वाला भी . आइये ऐसे ही  कुछ अन्य  बिन्दुओं पर विचार करते हैं :

  • लेकिन उसी ऋषी दयानन्द द्वारा स्थापित आर्य समाज की वर्तमान स्तिथी का क्या ?उसका वर्तमान समय में देश और संस्कृति या किसी और क्षेत्र में क्या योगदान है?
  • देश और संस्कृति के उत्थान के लिए वह किस योजना पर कार्य कर रहा है यह किसे विदित है ? आर्य समाज के किस समाज सुधार को देश के मुखपत्रों पर जगह मिली ?
  • आज स्तिथी यह है कि  लोग स्वामी दयानन्द को नहीं स्वामी विवेकानन्द को अधिक जानते हैं . आर्य समाजों में ऋषी दयानन्द के साथ साथ मांस भक्षक वेद निंदक स्वामी विवेकानन्द के चित्र लगे हुए हैं . ऋषी के सच्चे भक्तों के ये वाक्य कटु लगें लेकिन सत्यता यही है.
  • आर्य समाज की अग्रिम संस्था होने का दावा करने वाली संस्थाओं के मंच से स्वामी दयानन्द के निर्वाण दिवस पर मुख्य अतिथी जनरल वी के सिंह  स्वामी विवेकानन्द  के ऊपर व्याख्यान  देकर निकल जाते हैं और श्रोता तालियाँ बजाते  हैं और मंच संचालक और अन्य समाजियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. किसी के खून में ये सुन कर उबाल नहीं आता की स्वामी दयानन्द का इस देश के लिए योगदान विवेकानन्द के बाद आता है .ऐसा प्रतीत हुआ वहां लोगों की रगों में खून नहीं पानी दौड़ रहा था . किसी में इतनी हिम्मत भी नहीं हुयी  कि वक्ता की बात का शालीनता से  प्रतिउत्तर तो दे सकें .
    आर्य समाज के कभी ऐसे भी दुर्बल प्रतिनिधि होंगे शायद ही किसी ने सोचा हो.
  • आर्य समाजों के इतिहास भी पुस्तकों में हवस के पोषक ओशो नास्तिक दलाई लामा के विचारों को स्थान मिलने लगा है और वो भी आर्य समाज के मंत्री आदि की प्रेरणा से लिखी जाती हैं और उन्हीं हो समर्पित की जाती हैं.
  • आर्य समाज के मन्दिर आज शादी कराने के अड्डे बन चुके हैं जहाँ ५००० रूपए आदि लेकर किसी की भी शादी कर दी जाती है चाहे वो आर्य समाज की विचार धारा से परिचित हो या न हो .इन्टरनेट पर आर्यसमाज खोजने पर आर्य समाज मैरिज ही लिखा सबसे पहले दिखाई देता है . मात्र २ ३ घंटे में शादी का प्रमाण पत्र देने वाले अनेकों विज्ञापन दिखाई देते हैं या यही ऋषी का सपनों का आर्य समाज है.
    बिग बॉस -९ की प्रतिभागी मंदाना करीमी की शादी कर प्रमाण पत्र ही इन ऋषी भक्त होने के दम्भ भरने वाली आर्य समाज साकेत नामक संस्था से प्रकाशित हुयी हैं. “कुछ दुष्ट लोगों द्वारा ये धंधा किये जाने का नाम लेकर” इस मुद्दे से हाथ झाड़ने वाले संस्थाओं के अधिकारी क्या यह बताएँगे की आर्य समाज साकेत जहाँ से यह सर्टिफिकेट जारी हुआ क्या उन्ही फर्जी संस्थाओं की सूची में शामिल है . यह सर्टिफिकेट पर डॉ. डबास के हस्थाक्षर हैं जिन्होंने आर्य समाज साकेत का इतिहास विनय आर्य की प्रेरणा से लिखा और उन्ही को समर्पित किया . यह वही पुस्तक है जिसमें ऋषी की सूक्तियों के स्थान पर ओशो और नास्तिक दलाई लामा की सूक्तियाँ दी गयी हैं . ये लोग जरा बताएं तो सही की आर्य समाज में की जा रही इन शादियों का आधार क्या होता है . ऋषी दयानन्द द्वारा बताये गए विवाहों के प्रकारों में से किस प्रकार के विवाह कराने में ये आर्य संस्थाएं संलग्न हैं  .
  • आर्य समाज के मंचों पर नर्तकियों द्वारा फ़िल्मी गानों पर नाच: जिस आर्य समाज के मंचों से वैदिक गान गुंजा करता था जहाँ वेद मन्त्रों की व्याख्याएँ और शाश्त्रार्थ हुआ करते थे उन्ही आर्य समाज के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में आज आर्य समाज के वर्तमान विद्वानों और तथाकथित नेत्रित्व्य की उपस्तिथी में नर्तकियों द्वारा “पीतल की तोरी गागरी और श्याम रंग बोमरो आदि गानों पर थिरकना आर्य समाज के पतन के साक्षात उदाहरण हैं.
  • नैतिक पतन : किसी प्रभावशाली नेतृत्व के अभाव का ही परिणाम है की आज इस संगठन के कई लोगों पर चारित्रिक हनन के मुकदमें चल रहे हैं. किन्चित जेल की हवा खा चुके और कुछ खा रहे हैं . कहाँ गया वह ऋषी द्वारा प्रतिपादित ब्रह्मचर्य का सिद्धांत और स्वामी स्वतान्त्रतानंद जी, स्वामी दर्शानानानंद जी जैसे ऋषी के परम भक्त जिन्होंने ऋषी के सिद्धांतों पर चलते ही अपनी जीवन की हवि दे दी.
  • गुरुकुलों और विद्वानों की दयनीय हालात : आजादी के इतने वर्षों बाद आज हालात ये है की ऋषी दयानन्द की पद्धिति को सरकारी माध्यम में प्रचलित करवाने के बजाय स्वयं आर्य समाज के गुरुकुलों ने सीबीएसई आदि के पाठ्यक्रमों को अपनाना आरम्भ कर दिया . ऋषी दयानन्द की शिक्षा पद्धिति से अध्यन अध्यापन करवाने वाले गुरुकुलों के संख्या २ अंकों में भी नहीं. क्या यही वो पद्धिती है जिससे हम विश्व को आर्य बनायेंगे . जिस गुरुकुल की स्थापना के लिए स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी संपत्ति और जीवन कुर्बान कर दिया उस गुरुकुल की हालत आज सर्व विदित है.
    आर्य समाज के विद्वान की हालत किसी पौराणिक अध् पढ़े पुजारी से भी गई गुज़री है . वह ऋषि दयानन्द का अनुयायी अपने निर्वाह के लिए दर दर की ठोकरें खाता है उसे  जीवन निर्वाह के लिए वह पौरानिकों के यहाँ पर पौराणिक कर्मकाण्ड कराने के लिए विवश है या  उस वर्ग की कृपा का पात्र बनने के लिए निर्भर होना पढता है जिसे ऋषी के सिद्धांत भी नहीं पता.
    आज देश में ऐसे गुरुकुलों का अभाव है जो क्षत्रियों का निर्माण करते हों  जो कर्मकारों का निर्माण करते हो जो व्यवसायियों का निर्माण करते हों . समाज की व्यवस्था चारों वर्णों के अधीन है क्या अन्य वर्गों का निर्माण करने के लिए कोई व्यवस्था की गयी ?
  • खाली पड़े समाज : आर्य समाज के नीरस होने के प्रत्यक्ष प्रमाण उसके खाली पढ़े भवन हैं . जिनमें रविवार के दिन कुछ वृध्द लोग दिख जाते हैं जो जीवन के अंतिम पढाव में हैं . पौराणिक पण्डित अपने मन्दिर में मूर्ति के पास बैठा मिल जाता है लेकिन आर्य समाज मन्दिर में जाने पर अधिकतर या तो ताले लगे मिलते हैं या फिर संचालक/पुरोहित मन्दिर में अपने कमरे में.
    आर्य समाज के भवनों पर ताले, उन पर किये गए कब्जे और दान के पैसे का उन मुकदमों पर खर्च सर्व विदित है . काश इन नेताओं ने विद्वानों का निर्माण किया होता जो अपने जीवन को आर्य सिद्धांतों के प्रचार प्रसार में लगाते.
  • विधर्मियों को पुरजोर जवाब देने की परम्परा: ऋषि दयानन्द के नाम पर करोड़ों का दान डकारने वाली संस्थाएं आज धर्म पर होने वाले आक्षेपों का जवाब देने तक में अपनी रूचि नहीं रखतीं. ऋषी दयानन्द के नाम पर भवनों का निर्माण और दान इकठ्ठा करना ही इनका परम ध्येय है लेकिन जिस वैदिक धर्म के लिए महर्षि दयानन्द ने अपने प्राणों का त्याग कर दिया उसी ऋषी दयानन्द और उसके वैदिक धर्म पर आक्षेप होने पर ऋषी दयानन्द के नाम पर ये दान इकट्ठे करने वाले और ऋषि भक्त होने का दावा करने वाले उनके ये अनुचर पता नहीं किन बिलों में चुप जाते हैं पता नहीं कौनसा सांप इन्हें सूंघ जाता है .
    इनकी नाक के नीचे जब ऋषी दयानन्द पर आक्षेप होते हैं ऋषी दयानन्द पर आक्षेप करती हुयी पुस्तकों का प्रकाशन होता है लेकिन इन आर्य समाजी नेताओं के काना पर जूं तक नहीं रेगती .
    सम्पूर्ण आर्य जगत में केवल ऋषी दयानन्द की स्थानापन्न  परोपकारिणी सभा ही इस परंपरा को जिन्दा रखे हुए हैं . उनका यह कदम अत्यंत ही सराहनीय है . कभी भी किसी भी पुस्तक, पत्रिका या किसी भी मंच से वैदिक धर्म या ऋषी दयानन्द पर आक्षेप हो तो ऋषी द्वारा स्थापित ये संस्था जवाब देने में कभी पीछे नहीं रहती . चाहे खुशवन्त सिंह द्वारा धर्म पर आक्षेप हो या जनरल वी के सिंह द्वारा ऋषी के योगदान को कम आंकने की कोशिश या हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ऋषी दयानन्द पर आक्षेप यही एक संस्था है जो आक्षेपों का न केवल जवाब देती है अपितु यह भी सुनिश्चित करती है कि वो जवाब आक्षेप करने वाले तक पहुंचे .
  • कुकुरमुत्ते की तरह उगते तथाकथित विद्वान और आर्य समाजी हदीसों की रचना :
    आर्य समाज में पुरोहितों/विद्वानों की दयनीय स्तिथी का एक कारण कुकुरमुत्ते की तरह उगते स्वघोषित विद्वान भी हैं. जो कार्य विद्वानों को करने चाहिए वो कार्य में ये स्वघोषित अपनी दक्षता प्रदर्शित कर न केवल पुरोहितों /विद्वानों के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैं, उनकी आजीविका के माध्यम पर चोट करते हैं अपितु  वैदिक सिद्धांतों के खिलाफ भी बोलते हैं. पण्डित राम चन्द्र देहलवी ,शाश्त्रार्थ महारथी शांती प्रकाश जी ने जीवन लगा कर वह योग्यता प्राप्त की थीं लेकिन ये बिना परिश्रम किये वह चाहते हैं>

यही कारण है की विधर्मियों से वार्तालाप में इनके ईश्वर को अनुमान भी हो जाता है.
इन स्वघोषितों की पत्नी माता पौराणिक तीर्थों की यात्रा में जाती हैं और ये विश्व को आर्य बनाने और शाश्त्रार्थ महारथी बनने का दम्भ भरते हैं.
आर्य समाज में इन अध् कचरे विद्वानों की वजह से अनेक हदीसों की रचना होने लगी है जो ऋषी के भक्तों जिनको तथ्यों का ज्ञान नहीं होता है बड़ी आसानी से प्रचारित हो जाती है.
यथा मंगल पांडे का ऋषी दयानन्द का भक्त होना, खुदी राम बोस के फांसी से पहले सत्यार्थ प्रकाश के दर्शन, सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर तांगे वाले के आर्य समाजी बनाना हो या लाठियां खाने  के समय लाला लाजपत राय के हाथों में सत्यार्थ प्रकाश का होना हो ये हदीसें इन तथाकथित स्वघोषित विद्वानों की ही देन हैं जो समाज की जड़ों में मट्ठा डालने का कार्य कर रहे  हैं

  • अवैदिक कार्यों का आर्य समाज में प्रचलन

जिन कार्यों का आर्य समाजी विद्वान विरोध करते हुए चले आये आज उन्हीं अवैदिक कर्मों को आर्य समाज में स्थान मिलने लगा है. चाहे वह एक आर्य संस्था के प्रधान द्वारा कौशाम्बी आर्य समाज के कार्यकर्म में करवा चौथ को वैदिक सिध्ध करना हो या सर्व मनोंकामना पूर्ण करने जैसे कार्यक्रम करना या फिर समाजों में बलि प्रथा के सांकेतिक प्रचलन के तहत यज्ञ की समाप्ति पर गोले को काट कर उसमें मखाने आदि भर उसके मुहं को बंद कर हवि के रूप में डालना.
ऋषी दयानन्द और वैदिक धर्म के अनुयायियों को चाहिए की समाज की वर्तमान स्तिथी और समाज के गौरवशाली अतीत का अवलोकन करें . आवश्यकता है कि पतन की वर्तमान स्तिथी का अध्ययन कर इससे उबरने के प्रयासों का निर्धारण कर समयबद्ध तरीके से उनको पूर्ण किया जाये. उन संस्थाओं को चिन्हित किया जाये जो ऋषि के सपनों के समाज और सिध्धातों का पालन करती हैं और उनके नेत्रित्व में अपने गौरवशाली अतीत के स्तर को प्राप्त कर ऋषी के कार्य को आगे बढ़ाने के मार्ग पर प्रशस्त किया  जाये .