वर्णव्यवस्था का ह्रास और जातिवाद का उद्भव काल: डॉ सुरेन्द्र कुमार

विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद से लेकर महाभारत (गीता) पर्यन्त वैदिक कर्माधारित वर्णव्यवस्था चलती रही है। गीता में स्पष्ट शदों में कहा गया है-

    ‘‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुण-कर्म-विभागशः’’    [4। 13]

    अर्थात्गुण-कर्म-विभाग के अनुसार चातुर्वर्ण्यव्यवस्था का निर्माण किया गया है। जन्म के अनुसार नहीं।’ इसका अभिप्राय यह हुआ कि तब तक वर्णों का निर्धारक तत्त्व ‘जन्म’ नहीं था। वर्णव्यवस्था के अर्न्तगत रहकर भारत ने विद्या, बुद्धि, बल में अद्भुत उन्नति की थी; किन्तु महाभारत के विशाल युद्ध ने भारत के सारे ढांचे को चरमरा दिया। सारी सामाजिक व्यवस्थाओं में अस्त-व्यस्त स्थिति बन गई। धीरे-धीरे लोगों में अकर्मण्यता, स्वार्थ एवं लोभ के भावों ने स्थान बना लिया। कर्म की प्रवृत्ति नष्ट हो गई किन्तु सुविधा-समान की प्रवृत्ति बनी रही। इस प्रकार धीरे-धीरे वर्णव्यवस्था में विकार आने लगा और जन्म को महत्त्व दिये जाने के कारण जातिव्यवस्था का उद्भव हुआ। पहले वर्णों में जन्म का महत्त्व प्रारभ हुआ फिर वर्ण- संकरता के नाम पर जन्माधारित जातियों का निर्माण हुआ। इसी प्रकार जातियों में उपजातियों का विकास हुआ और भारत में पूरा जातितन्त्र फैल गया। इस निर्माण के साथ जातिगत असमानता का भाव भी उभरने लगा। उसी भाव के कारण अन्तर-वर्ण विवाह और सहभोज भी समाप्त होते गये। लेकिन फिर भी व्यवहार में लचीलापन था।

ऐसा प्रतीत होता है कि ईसा से 185 वर्ष पूर्व पुष्यमित्र शुङ्ग नामक ब्राह्मण राजा के काल में, जो अपने राजा मौर्य सम्राट् बृहद्रथ की हत्या करके, वर्णव्यवस्था के नियमों को तोड़कर राजा बन बैठा था, राज्य की ओर से जातिव्यवस्था को बढ़ावा दिया गया, जन्माधारित भावनाओं को सुदृढ़ बनाया गया, जातिवाद का सुनियोजित रूप से प्रसार किया गया। तभी ब्राह्मणों को जन्म के आधार पर महिमामण्डित और सर्वाधिकार-युक्त घोषित किया गया तथा शूद्र आदि निन वर्गों पर अनेक अंकुश लगाये गये और उनके विरुद्ध कठोर नियम लागू किये गये।

यह भी अनुमान सही प्रतीत हाता है कि उसी काल में प्रायः समस्त वैदिक भारतीय वाङ्मय में सुनियोजित पद्धति से जातिवादी प्रक्षेप किये गये जिनमें ब्राह्मणों की पक्षपातपूर्ण पक्षधरता और शूद्रों की अन्यायपूर्ण उपेक्षा प्रमुख विषय रहे। इस प्रकार धीरे-धीरे जातिवाद का जाल फैलता चला गया। ब्राह्मणों का वर्चस्व एवं धार्मिक एकाधिकार जातिवाद के प्रचार-प्रसार में सबसे सशक्त कारण बना। जब से जातिवाद का उदय हुआ तब से भारत का भाग्य सो गया क्योंकि जातिवाद ने भारत का चहुंमुखी विनाश किया है और कर रहा है।

लगभग 140 वर्ष पूर्व आर्यसमाज के प्रवर्तक ऋषि दयानन्द ने जब भारतीय समाज की दयनीय स्थिति को देखा तो उन्होंने वैदिक वर्णव्यवस्था के वास्तविक स्वरूप को जनता के सामने स्पष्ट किया और मनु की मान्यताओं को सही अर्थ में समझाते हुए बताया कि ‘वर्ण’ कर्म से निर्धारित होते हैं, जन्म से नहीं; जातिवादी व्यवस्था वैदिक व्यवस्था नहीं है, आदि। उन्होंने मनुष्यमात्र के लिए शिक्षा का अधिकार घोषित किया और स्त्रियों तथा दलितों को समानशिक्षा और समानता का अधिकार घोषित करके एक नयी क्रान्ति का सूत्रपात किया। आज के ऊंच-नीच रहित समाज के निर्माण में महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने वैदिक प्राचीन वर्णव्यवस्था के वास्तविक स्वरूप को हमारे सामने रख कर जहां नये समाज का निर्माण किया, वहीं प्राचीन संस्कृति का भी पुनरुद्धार किया।

2 thoughts on “वर्णव्यवस्था का ह्रास और जातिवाद का उद्भव काल: डॉ सुरेन्द्र कुमार”

  1. सावरकर ने कहा है प्राचीन परं परा ,वेद,उपनिषद, गीता,रमायण ,महाभारत,मानस इत्यादि हमारे लिए सन्मानीय है,..पूजनिय है ,.. आदरणीय है पर
    अनुकरणीय , आचरणीय बिलकुल ही नही है इनकी सही जगह अलमारी मे है..

    1. थोडा प्रमाण भी देना जी | और यह कोई जरुरी नहीं की आप जैसे लोग ही इस तरह का विचार दे सकते हैं जो अंधभक्त हो और पूर्वाग्रह से ग्रसित हो | यदि पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हो तो वेद पढ़ो फिर वेद की शरण में आ जाओगे | मगर आप जैसे लोग पूर्वाग्रह से ग्रसित ही रहेंगे और सत्य को जानने की कोशिश नहीं करेंगे |

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