प्राणोपासना-2
– तपेन्द्र कुमार
महर्षि दयानन्द जी महाराज ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि मुनष्य प्राण द्वार से प्राण को परमात्मा में युक्त करके तथा योगाभयास द्वारा प्राण नाड़ियों में ध्यान करके परमानन्द मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। महर्षि यह भी घोषणा करते हैं कि हृदय देश के अतिरिक्त दूसरा परमेश्वर के मिलने का कोई उत्तम स्थान व मार्ग नहीं है। पूर्व उल्लेख अनुसार प्राण अचेतन भौतिक तत्त्व है, शुद्ध ऊर्जा है तथा हृदय प्राण का केन्द्र है। यह हृदय स्थूल इन्द्रिय नहीं है। प्राणों में जीवात्मा प्रतिष्ठित है तथा परमात्मा हृदयाकाश में रहने वाले जीवात्मा के मध्य रहता है।
- श्वास-प्रश्वास एवं प्राण- जो वायु बाहर से भीतर को जाता है, उसको श्वास और जो भीतर से बाहर आता है, उसको प्रश्वास कहते हैं। परन्तु श्वास के द्वारा जो वायु शरीर में जाती है तथा जो वायु बाहर आती है, वह प्राण नहीं है। सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास प्राणाऽपान-निमेषजीवन………चात्मनो लिङ्गानि। (वैशेषिक) की व्याखया करते हुए महर्षि लिखते हैं, ‘‘(प्राण) जो भीतर से वायु को बाहर निकालना, (अपान) बाहर से वायु को भीतर लेना…….।’’ सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास में प्राणमय कोश के समबन्ध में लिखा है, ‘‘दूसरा’’ ‘प्राणमय’ जिसमें ‘प्राण’ अर्थात् जो भीतर से बाहर आता, ‘अपान’ जो बाहर से भीतर आता……प्रच्छर्दनविधारणायां वा प्राणस्य। योग के भाषार्थ में भी भीतर के वायु को बहार निकालकर सुखपूर्वक रोकने का अभयास बार-बार करने से प्राण उपासक के वश में होने जाने का उल्लेख महर्षि ने किया है। स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के अनुसार ये (श्वास-प्रश्वास की) क्रियाएँ शरीर में प्राणों का कथित ऊपर व नीचे की गति कराने का एक मात्र साधन है। जब प्राणी श्वास लेता है तो वायु शरीर में जाती है तथा शरीर की प्राण नाड़ियों में प्राण की गति नीचे की ओर हो जाती है- यह अपानन क्रिया है। जब प्राणी प्रश्वास लेता है, अर्थात् दूषित वायु बाहर निकालता है तो शरीर की प्राण नाड़ियों में प्राण की गति उर्ध्व गति होती है-यह प्राणन क्रिया है। इस प्रकार श्वास-प्रश्वास प्राण क्रियाओं का साधन है। श्वास-प्रश्वास में शरीर के भीतर जाने वाली वायु तथा बहार आने वाली वायु प्राण नहीं है, वह आक्सीजन आदि गैसों का मिश्रण है। प्राण किन्हीं गैसों आदि का मिश्रण नहीं है बल्कि शुद्ध ऊर्जा है।
- प्राण के पाँच भेद-एषोऽणुरात्मा चेतसा विदितव्यो यस्मिन्प्राणः पञ्चधा संविवेश। मुण्डकोपनिषद् 3.1.9 के भाषार्थ में पण्डित भीमसेन शर्मा लिखते हैं, ‘‘(यस्मिन्) जिस शरीर में (प्राणः) प्राण (पञ्चधा) प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान नाम पाँच प्रकार के भेदों से (संविवेश) अच्छे प्रकार प्रविष्ट हो रहा है…..।’’
यथा सम्राद्रेवाधिकृ तन्विनियुङ्क्ते एतान्ग्रामानेतान्ग्रामानधितिष्ठस्वेष्मेवैष प्राण इतरान्प्राणान्पृथक्पृथगेव संनिधत्ते। (प्रश्न 3.4) का अर्थ करते हुए डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार लिखते हैं, ‘‘जैसे सम्राट् अपने अधीन कर्मचारियों को अपने-अपने काम में नियुक्त करता है, किसी को इस तथा किसी को उस ग्राम में अधिष्ठाता बनाता है, इसी प्रकार यह प्राण अन्यप्राणों को पृथक्-पृथक् अपने-अपने काम में नियुक्त करता है।’’ स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के अनुसार जीवों के शरीरों में प्राणतत्त्व तो एक ही है, कार्य भेद से उसके अनेक नाम हो जाते हैं। -प्र+अन=प्राण, उप+अन=अपान, सम+आ+अन =समान, उद+आ+अन= उदान, वि+आ+अन= व्यान। इस प्रकार प्र, अप आदि उपसर्गों को ‘अन’ के साथ जोड़ने से प्राण, अपान, समान,उदान और व्यान शबद सिद्ध हो जाते हैं।
वृहदारण्यक उपनिषद् 1.5.3………प्राणोऽपानोव्यान उदानः समानोऽन इत्येत्सर्व प्राण एव…… का अर्थ करते हुए महात्मा नारायण स्वामी जी महाराज लिखते हैं, ‘‘(प्राणः अपानः व्यानः उदानः) प्राण, अपान, व्यान, उदान, (समानः अनः इति) और समान ‘अन’- प्राण है। (एतत् सर्वं प्राणः एव) ये सब (पाँचों) प्राण ही हैं।’’ इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राणतत्त्व एक ही है जो शरीर में अपने को पाँच भागों में विभक्त कर पाँच प्रकार के कार्यों को समपादित करता है। प्राण का शास्त्रीय नाम ‘अन’ ही है।
- प्राणों की स्थिति एवं कार्य- प्रश्नोपनिषद् त्रितीय प्रश्न में ‘‘पायूपस्थेऽपानं चक्षुः श्रोत्रेमुखनासिकायां प्राणः स्वयं प्रतिष्ठते मध्ये तु समानः। …….अत्रैतदेकशातं नाडीनां…… भवन्त्यासु व्यानश्चरति। अथैकयोर्ध्वम् उदानः पुण्येन पुण्यंलोकं नयति पापेन पापयुभायामेव मनुष्यलोकम्।।शांकरभाष्यार्थ में उक्त की व्याखया इस प्रकार है- यह प्राण अपने भेद अपान को पायूपस्थ में – पायु (गुदा) और उपस्थ (मूत्रेन्द्रिय) में मूत्र और पुरीष (मल) आदि को निकालते हुए स्थित यानी नियुक्त करता है तथा मुख नासिका इन दोनों से निकलता हुआ सम्राट् स्थानीय प्राणचक्षुः श्रोत्रे – चक्षु और श्रोत्र में स्थित रहता है। प्राण और अपान के स्थानों के मध्य नाभि देश में समान रहता है। ……..इस हृदय देश में एक शत यानी एक ऊपर सौ (एक सौ एक) प्रधान नाड़ियाँ हैं। उनमें से प्रत्येक प्रधान नाड़ी के उन सौ-सौ भेदों में से प्रत्येक से बहत्तर बहत्तर सहस्र अर्थात् दो ऊपर सत्तर सहस्र प्रतिशाखा नाड़ियाँ हैं। …..इन सब नाड़ियों में व्यान वायु संचार करता है तथा उन एक सौ एक नाड़ियों में से जो सुषुमणा नाम्नी एक उर्ध्वगामिनी नाड़ी है, उस एक के द्वारा ही ऊपर की ओर जाने वाला तथा चरण से मस्तक पर्यन्त सञ्चार करनेवाला उदान वायु (जीवात्मा को) पुण्य कर्म यानी शास्त्रोक्त कर्म से देवादि-स्थान रूप पुण्य लोक को प्राप्त करा देता है……।’’
महर्षि सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास में प्राणमय कोश के समबन्ध में लिखते हैं, ‘‘दूसरा ‘प्राणमय’ जिसमें ‘प्राण’ अर्थात् जो भीतर से बाहर जाता, ‘अपान’ जो बाहर से भीतर आता, ‘समान’ जो नाभिस्थ होकर सर्वत्र शरीर में रस पहुँचाता, ‘उदान’ जिससे कण्ठस्थ अन्न-पान खैंचा जाता और बल पराक्रम होता, ‘व्यान’ जिससे सब शरीर में चेष्ठा आदि कर्म जीव करता है।’’ महात्मा नारायण स्वामी जी अनुसार अपान नामक प्राण मल और मूत्रेन्द्रिय विभाग में रहकर अपना काम करता है। मुख, नासिका, आँख और कान के क्षेत्र में प्राण स्वयं रहकर उनके कार्यों का साधन बनता है। शरीर के मध्य नाभि क्षेत्रादि में समान नामक प्राण रहता है और खाये हुए अन्न को पचाता है। हृदय की प्राण नाड़ियों में व्यान नामक प्राण परिभ्रमण करता है तथा हृदय की एक सौ एक नाड़ियों में से एक के द्वारा ऊपर जानेवाले प्राण का नाम उदान है, जो मृत्यु समय जीव को कर्मानुसार भिन्न-भिन्न स्थानों को पहुँचाया करता है।
स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के शबदों में, ‘‘मुखय प्राण हृदय (यह हृदय रक्त प्रेषण करने वाले अवयव से भिन्न है) में स्थित होकर मुख नासिका पर्यन्त प्राण नाड़ियों में ऊर्ध्व गति करता है। ‘अपान’ पायु तथा उपस्थ इन्द्रियों में स्थित होकर नासिका, मुख, कण्ठ, हृदय, नाभि से लेकर पायु इन्द्रिय तक प्राण नाड़ियों में नीचे की ओर संचरण करता है। ‘नाभि जो प्राण और अपान का सन्धि स्थल है, में स्थित होकर भुक्त आहार के रस आदि धातुओं को शरीर के समस्त अवयवों में पहुँचाने का काम करता है। ‘उदान’ पाद तल से लेकर शिर के शीर्ष पर्यन्त नाड़ियों में उर्ध्व गति का हेतु है। ‘व्यान’ समस्त शरीर में नाड़ियों में व्याप्त पवन को कहते हैं।’’ उपरोक्त उद्धरणों से शरीर में प्राणों की स्थिति तथा कार्य स्पष्ट है। उदान प्राण के द्वारा, उदान वृत्ति होने पर आत्मा/परमात्मा का साक्षात्कार संभव है, अतः उदान प्राण के बारे में पृथक् से विचार किया जावेगा।
- प्राण की उत्पत्ति –
स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीमिन्द्रियम्।
मनोऽन्नमन्नाद्वीर्यं तपोमन्त्राः कर्मलोका लोकेषु च नाम च।।
– प्रश्न.6.4
परमेश्वर ने प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, इन्द्रियाँ, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्मलोक और नाम-इन सोलह कलाओं की रचना की।
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वोन्द्रियाणि च।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीविश्वस्य धारिणी।।
– मुण्डक 2.13
द्वितीय मुण्डक प्रथम खण्ड में चेतन सत्ता रूप विराट पुरुष की व्याखया करते हुए कहा गया है कि
प्राण, मन, सब इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, ज्योति, जल, विश्व को धारण करने वाली पृथिवी उसी से उत्पन्न होती है।
ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रपगस्यति।
मध्ये वामनासीनं विश्वे देवा उपासते।।कठो. 2.2.3
जो प्राण को ऊपर की ओर ले जाता है और अपान को नीचे की ओर ढकेलता है, हृदय के मध्य में हरने वाले उस वामन-भजनीय की सब देव उपासना करते हैं।
यः प्राणे तिष्ठन्प्राणादन्तरो यं प्राणो न वेदयस्य प्राणः शरीरं।
यः प्राणमन्तरोय मयत्येष स आत्मान्तर्यायमृतः।
– वृहद्. 3.7.16
जो प्राण में रहता हुआ भी प्राण से अलग है, जिसको प्राण नहीं जानता, परन्तु प्राण ही जिसका शरीर है, जो प्राण के भीतर रहता हुआ उसका नियमन कर रहा है, वही सर्वान्तर्यामी परमात्मा है।
इस प्रकार प्राण चेतन सत्ता नहीं है, अपितु भौतिक तत्त्व है जो परमात्मा से उत्पन्न होता है तथा परमात्मा ही जिसका नियमन करता है। परमात्मा प्राण में रहता हुआ भी प्राण से अलग है तथा प्राण उसको नहीं जानता है। प्राण पाँच प्रकार से विभाजित हो जिन क्रियाओं को करता है, उनका कराने वाला परमात्मा है। बाह्य प्राण जीवों को सूर्य रश्मियों के माध्यम से नेत्रों द्वारा प्राप्त होता है तथा सर्वत्र व्याप्त है । इसको विद्वान् आधिदैविक प्राण के नाम से कहते हैं। दूसरा- जीवों के शरीर में स्थित परमात्मा वैश्वानराग्नि रूप से अन्नपानादि आहार को पचाता है, जैसा कि वृहदारण्यक उपनिषद् 5.11 में कहा गया है-
अयमग्निवैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषेयेनेदमन्नं पच्यते सदिदमद्यते।।
परम पिता परमात्मा ही अन्न, जल और घृतादि तैजस् आहार के अणुतम भाग से मन, प्राण और वाग् बलों को उत्पन्न करता है।
अन्नमयं हि सोमय मन आपोमयः प्राणस्तेजोमयी वागिति।
– छान्दोग्य.6.5.4
अन्न से मन की शक्ति के अतिरिक्त स्थूल बल की भी प्राप्ति होती है जो प्राणबल का अधिष्ठान है-
प्राणः स्थूणाऽन्नं दाम। वृहद.2.2.1
इस प्राण को आध्यात्मिक प्राण भी कहा जाता है, यह प्राण ऊपर उठकर हृदय में आधिदैविक प्राण से मिल जाता है-
अपां सौमय पीयमानानां योऽणिमा स ऊर्ध्वः समुदिशति स प्राणो भवति।
इस प्रकार प्राण परमात्मा से ही उत्पन्न होता है तथा परमात्मा से ही इसका नियमन होता है।
– 53/203, वी.टी.रोड, मानसरोवर, जयपुर, राज.