ओउम
अमृत्व को पाने के लिए सदाचार के मार्ग पर चलें
डा. अशोक आर्य
प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा होती है की वह दु:खों से दूर रहे, सदा सुखों की छाया उस पर बनी रहे | वह ऐसे काम करे जिस से उसका नाम सर्वदिक हो | दुर्गुण उसके पास न आवें | सद्गुणों से निरंतर वह अपना जीवन सुखी बनाए तथा संसार को भी सुखी बनाने में उसकी भूमिका स्पष्ट दिखाई दे, एसा प्रयास उस का रहता है क्योंकि वह अमृत्व को पाने की अभिलाषा रखता है , उत्कृष्ट , सुन्दर व लम्बी आयु पाने की अभिलाषा के साथ वह निरंतर देवों की और बढ़ना चाहता है , अमृत्व को प्राप्त करना चाहता है | यजुर्वेद के अध्याय ४ के मन्त्र संख्या २८ में इस ओर ही संकेत किया गया है ,जो इस प्रकार है : –
परि माग्ने दुश्चरिताद बाधस्वा माँ सुचरिते भव |
उदायुषा स्वायुशोदस्थाममृतान्म अनु || यजु. ४.२८||
शब्दार्थ : –
हे अग्ने ) अग्नि स्वरूप परमात्मा (मा) मुझे (दुश्चरितात) दुर्गुणों से (परि बाधस्व ) हटाईये (मा ) मुझे (सुचरिते) सद्गुणों की ओर (आ भज ) स्थापित कीजिये (उदायुष) उतम गुणों से भरपूर आयु से (स्वायुषा ) सुन्दर आयु से ( अमृतान अनु ) उठूँ |
भावार्थ –
हे अग्नि स्वरूप परमात्मा ! मुझे दुर्गुणों से हटा कर सद्गुणों की ओर लगाईये |सुन्दर व उत्कृष्ट आयु से मैं देवत्व अर्थात अमृत्व की ओर उठूँ |
इस मन्त्र में यह प्रार्थना की गयी है कि वह हमें पापों से बचा कर , दुर्गुणों से बचाकर पुण्य मार्ग पर सद्गुणों के मार्ग पर प्रवृत करे | प्रत्येक व्यक्ति की यह कामना होती है कि उसका नाम संसार में सर्वत्र आदर व सन्मान से लिया जावे | जब अच्छे लोगों कि गणना हो तो उसका नाम सर्वोपरि हो | क्या यह दुर्गुणों से युक्त प्राणी के लिए संभव है ? दुर्गुणों से युक्त व्यक्ति तो कटुता से भरा होता है | ऐसे व्यक्ति को आदर, सन्मान कौन देगा ? कौन उसका नाम आदर से लेगा ? कोई नहीं | वह देवत्व को कभी प्राप्त नहीं कर सकता, उसका नाम अच्छे लोगों की सूची में कभी नहीं आ सकता सन्मान तो अच्छे लोगों का होता है अत: सन्मानित स्थान पाने के लिए काम भी ऐसे करने होंगे जिससे लोग सन्मान करें | इस लिए ही इस मन्त्र में अग्निरूप परमात्मा से प्रार्थना की गयी है कि हे प्रभु ! मैं दुर्गुणों को ,दुर्व्यसनों को पाप के मार्ग को छोड़ कर सद्गुणों को ग्रहण करूँ , सुखों के पुण्य के मार्ग को प्राप्त करूँ | यह सब आत्मिक शक्ति से ही संभव है | यह शक्ति परम पिटा परमात्मा की दया से ही प्राप्त होती है | यह आत्मिक शक्ति ही हमें दुगुनों व दुर्विचारों से रोकती है, इन से हमें बचाती है |
आत्मिक शक्ति कहाँ से आती है :-
आत्मिक शक्ति उसे ही मिलाती है, जिस पर उस परम पिता परमात्मा की कृपा हो | परमात्मा की दया दृष्टि के बिना हम आत्मिक शक्ति नहीं पा सकते | जब हम प्रभु की प्रार्थना करते हैं , उस की उपासना करते है , दूसरे शब्दों में जब हम प्रभु के गुणों को समझ कर उस के समीप बैठ कर उससे कुछ उपदेश लेते हैं तथा उस उपदेश के अनुरूप अपने आप को बनाते हुए अपने दुर्गुणों , दुर्विचारों, कुटिल विचारों व पापों को छोड़ देते हैं तो हम स्वयमेव ही सद्गुणों की ओर प्रवृत होते हैं , सद्गुण हमारे ह्रदय में अपना डेरा जमाते चले जाते हैं | इससे हमारा काया कल्प ही हो जाता है |
ईश्वर के आशीर्वाद से जिस मानव का कायाकल्प हो जाता है , वह फिर दुर्विचारों पर मंत्रणा कर ही नहीं सकता, दुर्विचार अब उस के अन्दर प्रवेश कर ही नहीं सकते | अब वह सदैव उत्तम चर्चा में ही लीन्र रहता है | उत्तम चर्चा से न केवल स्वयं ही उत्तम बनने का प्रयास करता है अपितु अन्यों को भी उत्तम मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है | इस प्रकार उसके प्रयास से न केवल अपना ही जीवन उन्नत होता है अपितु साथ ही साथ समाज भी उन्नति की ओर अग्रसर होता है | इस को ही उदायुषा तथा स्वायुषा कहा गया है | इसे ही उत्तम व सुन्दर आयु कहा गया है |
मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है मोक्ष की प्राप्ति | यह उत्तम आयु का ही फल होता है | जब मनुष्य सदैव उत्तम कर्म करता है तो उस को सर्वत्र यश व कीर्ति की प्राप्ति होती है , सर्वत्र उस का नाम सन्मान से लिया जाता है , यह यश कीर्ति व सन्मान ही तो उस के जीवन का सजीव समारक है , जिसे पा कर वह अपने आप को धन्य अनुभव करता है | यह सन्मान , यह , यश , यह कीर्ति अच्छे कर्मों से , अच्छे कामों से ही प्राप्त होती है | इस को ही मानव जीवन में अमृत्व का मार्ग बताया गया है | इस मार्ग को ही देवत्व का मार्ग बताया गया है | देवत्व की साधना के लिए हमें अमृतत्व की प्राप्ति करनी होगी | तब ही हम जीवन के अंतिम लक्ष्य को पा सकेंगे |
इस प्रकार मन्त्र हमें बताता है की हे मानव, यदि तू सद्गुणों को अपनावेगा तो तू अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को पा सकता है | मोक्ष को पाने के लिए तुझे देवत्व की प्राप्ति करनी होगी | देवत्व को पाने के लिए अमृत्व को पाना होगा तथा अमृत्व को पाने के लिए तुझे दुर्गुणों का त्याग कर अच्छे गुणों को , सद्गुणों को अपने अन्दर लाना होगा | अत: हे मानव तू अपने दुर्गुणों को, पापाचारों को छोड़ तथा सद्गुणों को अपना ताकि तुझे मोक्ष की प्राप्ति हो सके | मोक्ष प्राप्त करने के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है | अत: निरंतर इस मार्ग पर ही आगे बढ़ , सफलता निश्चित रूप से मिलेगी |
डा. अशोक आर्य
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प्रतिदिन प्रभु के चरणों में बैठ कर उसकी प्रार्थना करें
ओउम
प्रतिदिन प्रभु के चरणों में बैठ कर उसकी प्रार्थना करें
डा. अशोक आर्य
जिस परमपिता परमात्मा की असीम कृपा से हम इस संसार में आये हैं | उस प्रभु ने हमें ज्ञान का सागर दिया है | इस में हम डुबकी लगाकर प्रतिदिन मोती चुनने का प्रयास करते रहते हैं | इस प्रभु की ही अपार कृपा से हमें अनेक प्रकार की सुख सुविधाएं प्राप्त की हैं | जिस प्रभु ने हमें अपार धन – दौलत, सुख – शान्ति तथा बुद्धि दी है ,हमारा भी कर्तव्य है कि हम प्रतिदिन उस प्रभु के समीप बैठ कर उसकी प्रार्थना करें | यजुर्वेद के अध्याय ३ मन्त्र २२ में भी यही श्हिक्षा दी गयी है | मन्त्र इस प्रकार है : –
मन्त्र : –
उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयं |
नमो भरन्त एमसि || यजुर्वेद ३.२२ ||
शब्दार्थ : –
(अग्ने) हे अग्नि स्वरूप परमात्मा ( वयं) हम ( दिवे दिवे ) प्रतिदिन (दोषावस्त:) रात्री और दिन में (धिया) बुद्धि से (नाम: ) नमस्ते (भरन्त:) करते हुए ( त्वा) तेरे (उप) समीप (एमसि) आते हैं |
भावार्थ : –
हे अग्निरूप परमपिता परमात्मा ! हम प्रतिदिन प्रात: सायं अत्यंत श्रद्धा पूर्वक बुद्धि से आपको अभिवादन अर्थात नमस्ते करते हुए आपके समीप आवें |
मानव प्रतिक्षण उन्नति देखना चाहता है | वह जिस भी क्षेत्र में कार्यशील है, उस क्षेत्र में प्रति- दिन उन्नति चाहता है | वह आगे बढ़ने की अभिलाषा रखता है | वह दूसरों को अपना प्रतिद्वंद्वी समझता है तथा उसकी यह इच्छा रहती है कि वह अन्य सब लोगों से आगे निकल जावे | इस निमित उसे अत्यधिक परिश्रम की , पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है | अनेक बार केवल मेहनत, केवल पुरुषार्थ ही काम नहीं आता | असफलता की अवस्था में वह अपने आप को धिक्कारता है | उस में हीन भावना आ जाती है | इस हीन भावना के वशीभूत अनेक बार तो वह अपने आप को समाप्त तक करने की ठान लेता है | इस अवसर पर उसे आवश्यकता होती है किसी सहायक की, जो उसे इस संकट काल में दिलासा देकर पुन: परिश्रम की प्रेरणा दे |
आज का मानव इस बात को जानते हुए भी भूल गया है की जिस प्रभु ने हमें जन्म दिया है , वह प्रभु बड़ा महान है | उस की इच्छा के बिना तो किसी वृक्ष का पता भी नहीं हिल सकता | मानव को यह जानना होगा कि जिस प्रकार हम अपने जन्मदाता माता – पिता तथा बुद्धि के भंडार गुरुजनों के समीप बैठ कर ज्ञान को प्राप्त करते है , दिशा – निर्देश लेते हैं , ठीक उस प्रकार ही उस प्रभु के समीप बैठ कर उससे भी मार्ग – दर्शन व निर्देशन प्राप्त करें | प्रतिदिन प्रात: व सायं ईश्वर के समीप बैठकर उसकी उपासना करें | यह ही मानव की उन्नति का सर्वश्रेष्ठ साधन है | अत: जिस प्रकार माता पिता व गुरुजन के समीप बैठ कर हमें अपार आनंद मिलता है, स्नेह व ज्ञान मिलता है, ठीक उस प्रकार ही जब हम प्रभु के समीप अपना आसन लगा कर , उसके समीप बैठकर प्रतिदिन दोनों काल उसे स्मरण करेंगे तो वह प्रभु भी दयावान है | हमारे पर अवश्य ही दया करेगा, हमे अवश्य ही दिशा – निर्देश देगा , | इस प्रकार उस प्रभु के समीप बैठ कर उस की उपासना पूर्वक स्तुति करने से हमारा मनोबल बढेगा, आत्मिक शक्ति प्राप्त होगी , आत्मिक शक्ति मिलने से हम ज्ञान विज्ञान को बड़ी सरलता से प्राप्त करने में सफल होंगे | जब हम सब प्रकार के ज्ञान विज्ञान के अधिपति हो जावेंगे तो हमें अत्यंत हर्षोल्लास अर्थात आनंद मिलेगा |
इस संसार में आनंद का स्रोत यदि कोई है तो वह एक मात्र परमात्मा ही है | वह परमात्मा ही आनंद को देने वाला है , वह प्रभु ही सब प्रकार के ज्ञान का देने हारा है | इतना ही नहीं वह परमपिता परमात्मा ही हमें शक्ति देने वाला है | अत- अपने जीवन को सुखद बनाने के लिए , सब प्रकार की सम्पति, ज्ञान ,विज्ञान , मनोबल, आत्मिक शक्ति व आनंद को पाने के लिए हमें उस प्रभु की गोदी को पाना आवश्यक हो जाता है | उस परमात्मा के समीप बैठना आवश्यक हो जाता है | परमात्मा के समीप बैठने की भी एक विधि हमारे ऋषियों ने हमें दी है | इस विधि को संध्या कहा गया है | अत: यदि हम अपने जीवन में मधुरता भरना चाहते हैं , अपने जीवन को सुखमय बनाना चाहते हैं , अपने जीवन को आनंदित रखना चाहते है , आत्मिक शक्ति से भरपूर रखना चाहते हैं तथा प्रत्येक प्रकार के ज्ञान विज्ञान के स्वामी बन उन्नति पथ पर आगे बढ़ना चाहते हैं तो प्रतिदिन प्रात: व सायं संध्या काल में उस परम पिता परमात्मा की साधाना करने के लिए उस प्रभु के पास अपना आसन लगायें, उसके समीप बैठ कर उस से प्रार्थना करें तो हम अपने कार्य में सिद्ध हस्त हो कर अनेक सफलताएं पा कर उन्नति को प्राप्त होंगे | अत: प्रतिदिन दोनों काल ईश्वर के समीप बैठ कर उस का आराधन आवश्यक है |
डा. अशोक आर्य
स्वर्गिक आनन्द के लिए पति पत्नि क्रोधित न हों
ओ३म
स्वर्गिक आनन्द के लिए पति पत्नि क्रोधित न हों
डा. अशोक आर्य
पति पत्नि दोनों ही सपत्नक्षित अर्थात शत्रुओं का नाश करने वाले बनें । कभी तैश या गुस्से में न आवें । इससे घर स्वर्ग बन जाता है । इस बात को यजुर्वेद अध्याय १ का मन्त्र संख्या २९ इस प्रकार कह रहा है :-
प्रत्युष्ट ^M\ प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्ट्प्त ^M\ रक्शो निष्टप्ताऽअरातय: ।
अनिशितोऽसि सपत्नक्शिद्वाजिनं त्वा वाजेध्यायै सम्मार्ज्म ।
प्रत्युष्ट ^M\ रक्श:प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्ट्प्त ^M\रक्शोनिष्टप्ताऽ अरातय: |
अनिश्चिताऽअसि सपत्नक्शिद्वाजिनी त्वा वजेध्यायै सम्मार्ज्मि ॥
यजुर्वेद १.२९ ॥
इस मन्त्र में परमपिता परमात्मा तीन बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुए उपदेश करते हैं कि :-
१. हम सपत्न बनें :-
इस मन्त्र में शत्रुओं का नाश करने वाले पति पत्नि का , घर के दोनॊं मुखियाओं का उल्लेख किया गया है ।
हमारे घर में शत्रु कौन हो सकता है । मन्त्र कहता है कि कोई भी पत्नी नहीं चाहती कि उसकी कोई सौत हो । सौतिया डाह घर की बहुत बडी शत्रु होती है तथा नाश का कारण होती है । इस सौतिया विरोध से अनेक घरों का नाश होते देखा गया है । प्रत्येक क्षण घर में लडाई – झगडा कलह क्लेश मचा रहता है । कभी काम के नाम से , कभी बात चीत में मीन मेख निकालने से तो कभी वस्त्राभूषण आदि की इच्छा से यह झगडा निरन्तर होता ही रहता है । इस झगडे के कारण घर में कोई भी काम ठीक से सम्पन्न नहीं हो पाता और यदि कोई काम सम्पन्न हो भी जाता है तो भी उसमें अनेक प्रकार की कमियां रह जाती हैं इस लिए परिवार में सपत्नी ही होना चाहिये । एक से अधिक पत्नियों का रखना विनाश को निमन्त्रण देने के समान ही होता है । कुछ एसी ही अवस्था पुरूष की भी होती है । जो पुरुष स्पत्न होता है अर्थात जो पत्नि अनेक पतियों वाली होती है , उसके घर पर भी कभी शान्ति की आशा सम्भव नहीं होती । एक से अधिक पति होने से भी झगडे ही होते रहते हैं । इसलिए मन्त्र कहता है कि घर में पति पत्नि मिल कर शत्रुओं का नाश करें अर्थात एक पति तथा एक पत्नि व्रत लेकर घर के सब काम शान्ति से करने का संकल्प लें ।
२. एक पत्नि व्रत से शक्ति का दीपन :-
क).
मन्त्र कहता है कि हमें चाहिये कि हम अपनी सब राक्षसी प्रव्रितियां नष्ट करें , इन्हें जला दें, दग्ध करदें । इस के लिए हमें निरन्तर प्रयास रखना होता है ताकि हम एक एक कर इन्हें नष्ट करते चले जावें । राक्षसी प्रवृतियां क्या होती हैं ? , कौन सी होती है । हमारी जिस चेष्टा से किसी को हानि पहुंचे , किसी को दु:ख हो , किसी को क्लेष हो , इस प्रकार के सब कार्य राक्षसी प्रवृतियों के क्षेत्र में आते हैं । हमारे काम , क्रोध , मोह , लोभ , अहंकार आदि भी इन बुरी आदतों का ही भाग होते हैं । हम यत्न से इन सब को त्याग कर अपने घर को स्वर्ग बना सकते हैं ।
ख).
दान की वृति मानव के लिए दान की प्रवृति मुक्ति का उत्तम साधन है । अदानी अर्थात जो दान नहीं करते , वह अच्छे नहीं माने जाते । दान करने की ख्याति तो चतुर्दिक जाती ही है , उसका समाज में सम्मान भी बढता है । इस के साथ ही साथ ,जिनके पास साधन कम होते हैं , उनको भी सुख पूर्वक जीने का अवसर मिलता है । इस लिए हम एसा प्रयास करें कि हमारी अदान की वृतियां भी भस्म हो जावें , नष्ट हो जावें ।
घ).
हम प्रभु सेवा में रहें , कठोर तप करें । तप हमारी सब प्रकार की बुराईयों को दग्ध करने का कार्य करता है , हमारी बुराईयों को जलाने का कार्य करता है । इसलिए हम तप द्वारा भी धीरे धीरे अपनी अदानता की आदतों को नष्ट कर दें , भस्म कर दें , जला दें और फ़िर इस के स्थान पर दान की आदतों को ग्रहण करें ।
ड).
हम कभी भी अपने व्यवहारिक जीवन में तेजी न आने दें । क्रोध विनाश का कारण होता है । जब परिवार में क्रोध किया जाता है तो परिजनों का दिल दुखता है । दुखित दिल से कभी कोई उत्तम काम नहीं हो पाता । दु:खित मन से किया कार्य भी सुख देने वाला नहीं होता । सुख की कमना के लिए उतेजित जीवन , झगडालु वृति, बात बात पर तैश में आना उत्तम नहीं है । विशेष रुप से पत्नि से तो माधुर्य बना कर ही व्यवहार करना चहिये क्योंकि घर के अन्दर के सब व्यवहार पत्नि ही करती है । वह प्रसन्न होगी तो घर के अन्दर वह सुख पूर्वक हंसते हुए सब काम करेगी । ख़ुशी से सुखी रहते हुए बनाये गए पदार्थों का उपभोग करने वाले भी सुखी रहेंगे , प्रसन्न रहेंगे ।
च).
अनेक बार एसा होता है कि घर मे कभी कुछ मनमुटाव हुआ तो पति ने पत्नि से बोलना ही बन्द कर दिया तथा उसे दु:ख देने के लिए दूसरी पत्नी ले आये । यह विधि विनाश की होती है । कई बार पत्नि भी एसी ही भूल कर बैठ्ती है । इस से घर का झगडा और भी बढ जाता है । कभी तलाक तथा कभी आत्म हत्या अथवा हत्या का कारण बनती है । सप्तनियों का होना परिवार के लिए सदा हानि क कारणहोता है , दु:ख का कारण होता है , इससे सदा बचना चहिये । इसे परिवार में प्रवेश ही नहीं करने देना चाहिये ।
छ).
जब हम एक पत्नि तथा एक पति का व्रत लेते हैं तो हमारे चित मे खुशी की लहर रहती है , कुछ निर्माण की इच्छा होती है किन्तु अनेक पति या अनेक पत्नि से चित की शान्ति नष्ट हो जाती है । अनेक पति अथवा अनेक पत्नि शारीरिक दुर्बलता का कारण भी बनती है । कुछ तो कामुक वृतियों से तथा कुछ झगडों के कारण शक्ति क्षीण हो जाती है । अत: एक पत्नी व्रत ही सम्यक रूप से शुद्धि का कारक होता है । यह शक्ति को दीप्त करता है ।
३.
यह सब जो पति के लिए कहा गया है , पत्नि के लिए भी समान रूप से पालनीय होता है । यथा :-
क)
हे वधु !, हे पत्नि ! तेरे अन्दर जितनी भी दुष्ट प्रवृतियां हैं , जितनी भी बुरी आदतें है, जितने भी काम क्रोध आदि हैं , वह सब नष्ट हो जावे , वह सब जल कर समाप्त हो जावें , द्ग्ध हो जावें ।
ख)
नारी में तो वैसे ही दान की अत्यधिक भावना होती है तो भी हे गृह्पत्नि ! तेरे अन्दर कभी क्रपणता के दर्शन न हो , कभी अदान की व्रति न आवे , सदा दान शील ही बनी रह्रे , यज्ञय भावना हो , दूसरों की सेवा व सहायता की तूं देवी हो । इससे तेरी एश्वर्यता स्थापित होगी तथा सब लोग तेरा सम्मान करेंगे ।
घ). एक पति व्रत से सुख सम्रद्धि :-
यदि तेरे अन्दर अदान की वृति है तो इसे अत्यधिक सन्तप्त करो ताकि यह दूर हो जावें ।
ड).
तूं गृह लक्षमी है । इसलिए यह तेरा कर्तव्य है कि तूं कभी तेज मत बोल , तूं कभी क्रोध मत कर । एसे मीठे वचन बोलो कि जिससे सब का मन हर्षित हो , खुश हो । इस से सब लोग तेरी प्रशंसा करने वाले बनेंगे , तेरे प्रशंसक बनेंगे ।
च).
तूं सदा पतिव्रत धर्म का पालन करते हुए एक पति में ही प्रसन्न रह । अपने पति के अतिरिक्त किसी को सपत्न नहीं बनाना । एक पति व्रत से सदा खुश रहेगी तथा सब को खुश रखेगी भी । अन्यथा घर जो है , वह कलह , क्लेश का केन्द्र बन जावेगा ।
छ).
जब तूं पतिव्रत धर्म का पालन कर रही होगी तो तेरा जीवन स्वयमेव ही संयमी बन जावेगा । इस तथ्य को जान ले कि संयमी जीवन जीने वाले के शरीर में ही सब प्रकार की शक्तियों का निवास होता है । इस प्रकार प्रभु इस मन्त्र के माध्यम से कह रहे हैं कि हे शक्तिशालिनी देवी रुपा नारी ! मैं तुझे शक्ति की दीप्ति के लिए , शक्ति के अवतार स्वरुप , शक्ति की देवी स्वरुप शुद्ध करता हूं तथा तुझे शक्ति से दीप्त करता हूं । में तुझे शक्ति से सम्पन्न करता हूं । जहां वासना नहीं है , वहां शक्ति का निवास होता है । जब तेरा जीवन वासना शून्य होगा तो निश्चय ही इस जीवन में शक्ति होगी और तूं सब शक्तियों की स्वामी होगी । इस के उलट यदि तूं वासनाओं में लिप्त रहेगी तो तूं यह समझ ले कि तूं ने मृत्यु का मार्ग चुना है , विनाश का मार्ग चुना है । अत: तेरा नाश निश्चित है । इसलिए नाश से बचने के लिए वासना शून्य बनना ।
डा. अशोक आर्य
प्रेम से रहने से सुख , शान्ति व समृद्धि
ओउम
प्रेम से रहने से सुख , शान्ति व समृद्धि
डा. अशोक आर्य
जो लोग ज्ञान से युक्त होते हैं , वह अपने जीवन को यज्ञमय बनाते हैं तथा अन्य लोगों को लडाई आदि से दूर रखते हुए उन्हें प्रेम , शान्ति से रहने की शिक्षा देते हैं । इस प्रकार ही हमारी पृथ्वी शान्ति स्वरुप चन्द्र में स्थित होगी , यह सुख ,. शान्ति व समृद्धि से भर जावेगी । इस बात को मन्त्र इस प्रकार समझा रहा है :-
पुरा क्रूरस्य विस्रपो विरप्शिन्नुदादाय प्रथिम जीवदानुम । यमैरयंश्चन्द्रमसि स्वधाभिरस्ताम धीरासोऽअनुदिश्य यजन्ते प्रोक्शणीरासादय द्विषतो वधोऽसि ॥ यजु. १.२८ ॥
हम अपने जीवन में अनेक प्रकार के युद्ध करते हैं । वास्तव में हमारा जीवन है ही एक संग्राम । इस जीवन संग्राम में हम जो अनेक प्रकार के युद्ध करते हैं , उन युद्धों में कुछ तो अपने अन्दर के शत्रुओं यथा काम , क्रोध आदि से तथा कुछ बाहर के शत्रुओं , हमारे विरोधियों या देश व धर्म के शत्रुओं से होते हैं । मन्त्र कहता है कि हम इन युद्धों से दूर रखने के लिए अपने जीवन को यज्ञमय बनावें । इस से स्पष्ट होता है कि यज्ञमय जीवन हमें युद्धों से रोकता है , लडाई झगडे की और प्रवृत करने के स्थान पर इन से बचाता है । इसलिए हम, अपने जीवन को यज्ञ बनावें । मन्त्र के आलोक में जब हम विचार करते हैं कि अपने जीवन को यज्ञमय बनावें तो पहले हमे यह जानना आवश्यक हो जाता है कि यह यज्ञा है क्या ,जिसके समान हमें अपना जीवन बनाने के लिए यहां कहा गया है ?
यज्ञ क्या है ? :-
यज्ञ क्या है ?, इसे जानने के लिए हमें अग्निहोत्र की सब क्रियाओं को समझना होता है , जो कि इस यज्ञा का ही एक मुख्य स्वरुप है । जब हम नित्य प्रति हवन करते हैं तो हम जानते हैं कि इस हवन को भी वेद में यज्ञ कहा है । यह हवन भी देव है , देवता है । इस सब को देखते हुए , इस के भाव को समझते हुए हम कह सकते हैं कि जो देता है वह देव है अथवा वह देवता है । हम यज्ञ कुण्ड में समिधा रखते हैं । इन समिधाओं को जला कर इन पर अनेक प्रकार की आहुतियां देते हैं । यह आहुतियां घी , सामग्री , फ़ल , दूध या पौष्टिक पदार्थ हो सकते हैं । इसमें अनेक रोग नाशक , अनेक सुगन्धित व अनेक प्रकार के पौष्टिक पदार्थ डाले गये होते हैं । इन पदार्थों को डालने का उद्देश्य चाहे कोई भी रहा हो किन्तु एक बात स्पष्ट होती है कि इस में जो डाला गया है , वह तो यज्ञ कुण्ड ने लिया है , दिया कुछ भी नहीं , फ़िर यह देव कैसे हुआ ? देने वाला कैसे हुआ ? इसे जानने के लिए यज्ञ की , हवन की कुछ विषद व्याक्या को देखना आवश्यक हो जाता है ।
विज्ञान कहता है कि मैटर न तो कभी जलता है , न कभी सूखता है तथा न ही समाप्त होता है । इस आलोक में हम समझ जाते हैं कि जो कुछ भी हमने यज्ञ में डाला है , वह न तो जल कर नष्ट होता है , न गल कर तथा न ही किसी अन्य ढ̇ग से नष्ट होता है । तो फ़िर यह जाता कहां है ? इस के लिए हमें एक प्रयोग करना होगा । हम अग्नि में एक मिर्च का छोटा सा टुकडा डाल देवें । यह टुकडा डालने पर जितनी दूरी तक के लोगों को नीछें आने लगती हैं , कम से कम उतनी दूरी तक तो यज्ञ में डाले घी और सामग्री का प्रभाव तो जाता ही है । इतनी दूर तक के लोगों को यज्ञ के लाभ मिलते हैं , इसमें डाले पदार्थों का प्रभाव होता है तथा वह रोग रहित हो कर सुगन्ध व पौष्टिकता का लाभ उठाते हैं । इस प्रकार यज्ञ मे जो कुछ डाला गया उसे अग्नि ने स्वयं न खा कर सूक्षम करके वायु मण्डल को दे दिया तथा वायु मण्डल ने इसे दूर दूर तक के लोगों में बांट दिया , प्रसाद रूप में दे दिया । अत: यज्ञ का लाभ दूर दूर तक के लोगों को जाता है । अब हम इस स्थिति में हैं कि यज्ञ से लडाईयां कैसे रुकती हैं ?
मन्त्र कहता है कि अपने जीवन को यज्ञमय बना कर युद्धों को रोकें । जब हम यज्ञ करते हैं तो इससे हमारा बहुत सा समय यज्ञ में लग जाता है तथा लडाई – झगडे के लिए समय ही नहीं बचता । इस प्रकार यह एक विधि है , जिससे युद्ध रुकते हैं । दूसरे यज्ञ नाम है दान का । यज्ञ का भाव है दूसरों की सहायता करना , भूखे को रोटी देना , वस्त्र हीन को वस्त्र देना , अशिक्षित को शिक्षा देकर सहायता देना । अत: किसी भी प्रकार हम जब किसी दूसरे के काम आते हैं तो यह यज्ञ कहा जाता है । जब हम दान करते हैं , किसी को रोटी , कपडा या मकान आदि के लिए सहायता देते हैं तो इसका नाम भी यज्ञ है । अन्धे को सडक पार कराने का नाम यज्ञ है अर्थात वह सब कार्य जिससे दूसरे के लिए सहायता होती है, उसे सुपथ पर लाया जाता है , उसे जीवन दिया जाता है , तो उसे हम यज्ञ कह सकते हैं ।
इस प्रकार जो व्यक्ति दान देता है , दूसरे की सहायता करता है तो उसके विरोधी धीरे धीरे विरोध की भावना से दूर होते चले जाते हैं तथा एक दिन एसा भी आता है कि जिस दिन यह विरोधी ही उसकी रक्षा के लिए आगे आते हैं । जब विरोधी ही रक्षक बन जाते हैं तो युद्ध की तो सम्भावना ही नहीं रहती । इस प्रकार दूसरों की सहायता से हम अपने दुशमन को भी अपना बना लेते हैं तथा यज्ञ के कारण लडाई को हम रोक पाने में सफ़ल हो जाते हैं । इस सब के आलोक में मन्त्र के माध्यम से परम पिता परमात्मा हमें तीन बिन्दुओं के द्वारा इस प्रकार उपदेश कर रहे हैं :-
१. अंगभंग करने वाले युद्ध को दूर कर :-
हमारे युद्ध भी अनेक प्रकार के होते हैं । कुछ युद्ध तो गाली गलोच तक ही सीमित होते हैं तो कुछ एसे भयंकर होते हैं कि जिस से किसी का बाजू कट जाता है तो किसी का पैर कट जाता है या कोई शरीर के किसी अन्य स्थान से घायल हो जाता है | इस प्रकार के युद्ध प्राणी के लिए बहुत भयानक होते हैं । इससे बचना प्राणी मात्र के लिए अत्यन्त आवश्यक हो जाता है । आज तो एसे भयानक यन्त्र बन गये हैं , गये , जिनका प्रभाव आज भी जापान के लोगों को घेरे हुए है जब कि बम गिरे को पौन शताब्दी से भी अधिक समय निकल चुका है ।
इस लिए मन्त्र कह रहा है कि इस प्रकार के युद्धो के फ़ैलने से पूर्व ही इनका समाधान निकाल कर लोगों को इन से बचाओ । इन युद्धों से बचाने के लिए ज्ञान का उपदेश दो । शास्त्रों की चर्चा करो । कथा , कीर्तन करो । इन सब साधनों से लोगों के दिलों को ठीक दिशा में लाकर उनके दिल को जीतो और युद्ध के उन्माद से बचाओ । आप विशाल ह्रद्य वाले तथा ज्ञानी हो | अपने प्रयास से लडाईयों के बोझ से इस पृथ्वी को बचाओ । यह पृथिवि अन्न दान कर जीवन देने वाली है किन्तु जब इस पृथ्वी पर युद्ध के बादल छा जाते हैं तो उगी हुई फ़सलें भी नष्ट हो जाती हैं । जब फ़सल ही नहीं होगी तो भूख की तृप्ति कैसे होगी ? इस लिए अन्न के भण्डार भरने के लिए भी युद्ध से पृथ्वी को बचाओ । जब अन्न भरपूर होंगे तो लोगों की प्रसन्नता भी बढ जावेगी ।
हमारे पास हिमांशु , ओषधीश आदि है । जहां चन्द्र सुख शान्ति का प्रतीक है । जिस प्रकार चन्द्र्मा की चान्दनी शीतलता देने वाली होती है , प्रसन्नता देने वाली होती है , सुख देने वाली होती है । उस प्रकार ही ज्ञानी लोग भी सुख व शान्ति का साम्राज्य दूर दूर तक ले जाने वाले होते हैं । जब वह यत्न करते हैं , प्रयास करते हैं , तो कोई न कोई मार्ग निकल ही आता है ,कोई न कोई समाधान निकल ही आता है । इस लिए ज्ञानी लोगों को सदा इस प्रकार का प्र॒यास करते रहना चहिये कि किसी प्रकार की लडाई , युद्ध आदि न होने पावें । युद्धों से इस पृथिवी को बचाते हुए सब और सुख और शान्ति का प्रसार करना चाहिये । जब पृथिवी सब प्रकार के अन्न आदि देकर हमें जीवन देती है तो युद्ध के द्वारा इस पृथिवी को कष्ट न देना चाहिये कहीं एसा न हो कि युद्ध की विषम स्थिति में यह पृथिवी कुछ पैदा न कर सके तथा भोजन के अभाव में हमारा जीवन ही कठिनाई में पड जावे । इस के परिणाम स्वरूप अत्यधिक होने वाली महंगई से हमारी खरीद शक्ति प्रभावित हो और हम कुछ खरीद ही न पावें तथा हमारी आवश्यकताएं ही पूरा करना कठिन हो जावे ।
२. विद्वान लोग उपदेश से लडाई को रोकते हैं :-
यह ही कारण है कि विद्वान, स्वाध्याय शील , ज्ञानी लोग अपने जीवनों को वेदानुकूल बनाते हुए संसार में सुख व शान्ति स्थापित करते हुए इस पृथिवी को भी सुखी वा शान्तमयी बनाते हैं । इस प्रकार पृथिवी को वह अपना लक्षय बना कर इस पृथ्वी की रक्षा के लिए अपने जीवन को यग्यीय बनाते हैं । यह बुद्धिमान पुरुष, यह ज्ञानी लोग , यह धीर लोग सदा एसे कार्य करते हैं , जिस मे लोकहित छुपा हो , जो जनहित के हों , सर्वहितकारी कार्य ही उनके जीवन का ध्येय होता है । दूसरों की सेवा करने में तथा दूसरों को सुखी करने में उन्हें आनन्द आता है । यह सदा लोगों को ज्ञान का पाठ पढाते हैं , जीवन में सुख के साधन लोगों को बांटते रहते हैं तथा इस प्रकार की शिक्षा देते हुए यह लोगों को प्रेम से जीवन यापन करने की शिक्षा देते रहते हैं । इस प्रकार के उपदेशों के द्वारा उन्हें लडाई के उन्माद से बचाए रखते हैं ।
३. विद्वान लोगों को सन्मार्ग दिखावे:=
वेद का इस मन्त्र के माध्यम से उपदेश देते हुए परमपिता परमात्मा कहते हैं कि हे बुद्धिमान पुरुष ! तूं बुद्धि का स्वामी है , तेरे अन्दर धीरता है , तूं ज्ञान का भण्डार है , इस नाते तूं प्रकर्षेण ज्ञान का सेवन करने वाली क्रियाओं को , गतिविधियों को सेवन कर अर्थात प्रयोग में ला । इन्हें ग्रहण कर । यदि हम यज्ञ को एक चम्मच मानें तो उपदेश है कि यज्ञ के चम्मच को तूं मजबूती से अपने हाथ से पकड । लोगों के मनों में ज्ञान को दीप्त करना एक प्रकार का यज्ञ ही है । अत: जिस प्रकार इस चम्मच से यज्ञग्नि में घी डाला जाता है , उस प्रकार ही तूं लोगों के मनों में , लोगों के ह्रदयों में , लोगों के मस्तिष्क में ज्ञान की अग्नि को दीप्त करने के लिए अपने उपदेश रुपि घी से सेचन कर । हे ज्ञानी पुरुष ! तूं विनाशक प्रवृतियों व युद्धोन्मादी शत्रुओं का नाश करने वाला है । इतना ही नहीं तूं लोगों के ह्रदय के मनोमालिन्य को धोकर उनके अन्दर की द्वेष भावना को दूर करने वाला है । तूं अपने उपदेशों के द्वारा अज्ञानी लोगों में निरन्तर ज्ञान का उपदेश देता रह , ज्ञान की वर्षा करते रह , उनके मालिन्य को धोने का कार्य करता रह । लोगों पर एसी ज्ञान की वर्षा करते हुए उन सब मालिन्य , द्वेष की भावना रुपी अग्नि को बुझा दो और उसके स्थान पर लोगों को प्रेम की शिक्षा देकर , प्रेम का पाठ देकर उन्हें सन्मार्ग पर लाने का काम कर ।
डा. अशोक आर्य
वनस्पतिक भोजन व सूर्य किरणों का सेवन करें
वनस्पतिक भोजन व सूर्य किरणों का सेवन करें
डा. अशोक आर्य
हमारे पास सात्विक बुद्धि होगी तब ही हमारे सात्विक गुणॊं में, वृद्धि सम्भव है। इस सात्विक बुद्धि के लिए वनस्पतियों वाला भोजन उत्तम है । इसके साथ ही सूर्य की किरणों का सेवन भी लाभप्रद होता है | इस तथ्य को यजुर्वेद के प्रथम अध्याय का यह बीसवां मन्त्र इस प्रकार उपदेश करता है :-
धान्यमसि धिनुहि देवान प्राणय त्वोदानाय त्वा व्यानाय त्वा । दीर्घामनु प्रसितिमायुषे धां देवो व: सविता हिरण्यपाणि: प्रतिग्रभ्णत्वच्छिद्रेण पाणिना चक्शुषे त्वा महीनां पयोऽसि ॥ यजुर्वेद १.१.२० ॥
मन्त्र में यह बताया गया है कि प्रकाश की हमारे आधारभूत, जीवन में सद्गुण अर्थात उत्तम गुणों को पूर्ण करने वाली बुद्धि की आवश्यकता होती है । यह बुद्धि सात्विक आहार से ही बनती है यह सत्विक आहार क्या होता है ? आओ इस मन्त्र के पांच बिन्दुओं पर चिन्तन करते हुए सात्विक आहार के समबन्ध में जानने का यत्न करें :-
१. पौषण में उत्तम धान्य :-
मन्त्र में कहा गया है कि तूं धान्यम असि अर्थात तूं धान्य है अर्थात तूं वनस्पति है । वनस्पति होने के कारण तेरे अन्दर पौषण की अद्वितीय शक्ति है । इस पौषणीय शक्ति के कारण ही तूं मानव शरीर का बडी उत्तमता से पौषण करता है । तेरे सेवन से ही मानव का यह शरिर स्वस्थ बनता है , स्वस्थ शरीर से ही मन निर्मल होता है जब मानव का शरीर स्वस्थ तथा मन निर्मल हो तो उसकी बुद्धि भी तीव्र हो जाती है । जब खुशी की अवस्था हो तो बुद्धि तेजी से कार्य करती है किन्तु शरीर दुर्बल होने से मन की निर्मलता नही रहती । कष्ट – क्लेष बने रहते हैं, यह सब बुद्धि को तीव्र नहीं होने देते । इस लिए यह मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे प्राणी ! तेरे अन्दर बुद्धि की तीव्रता आवश्यक है । बुद्धि की तीव्रता के लिए मन को निर्मल बना । मन को निर्मल बनाने के लिए एसे उपाय कर कि तेरा यह शरीर स्वस्थ बन सके तथा शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है कि तूं वनस्पतियों से युक्त आहार का सेवन कर क्योंकि इन वनस्पतिक आहार से ही शरीर को पौषण मिलता है ।
क) इस प्रकार अपनी बुद्दि को तीव्र बना कर हे प्राणि! तूं अपने अन्दर दिव्य गुणों को प्रणीत कर , उत्पन्न कर । तूं जब अपने अन्दर सत्व की शुद्धि कर लेगा तब ही सात्विक गुणों का विकास होगा ।
ख) हे वनस्पतियो ! हम तुझे प्राण के विकास के लिए स्वीकार करते हैं । तेरे द्वारा हमारी प्राण शक्ति बढे । हम तुम्हारा सेवन इस लिए करते हैं कि हमारे प्राणों की शक्ति की वृद्धि हो , तेरे सेवन से ही तो हमारे प्राणॊं को गति मिलती है । तूं ही हमारी उदान वायु कॊ ठीक करने वाली है , इस लिए हम तेरा सेवन करते हैं । तेरे उपभोग से ही हमारे गले के अन्दर यह उदान वायु तीक से गति करने वाली होती है । जब हमारे शरर में यह उदान वायु संतुलित हो कर कार्य करती है , तब ही मानव की लम्बी आयु सम्भव हो पाती है ।
इसलिए हे वनस्पतियो ! हम तुझे ग्रहण करते हैं, पूरे शरीर में व्याप्त करते हैं क्योंकि तेरे प्रयोग से ही हमारे समग्र शरीर में व्यान वायु को पैदा करना होता है , जिसके निर्माण का आधार तेरे अन्दर ही होता है । हम जानते हैं कि वनस्पतियों के प्रयोग से हमारा सम्पूर्ण नस – नाडी का जो संस्थान है वह ठीक से कार्य करने लगता है । इससे ही मानवीय मस्तिष्क ठीक से कार्य करने की क्षमता पाता है , अर्थात ठीक बना रहता है ।
२. दीर्घायु के लिए वनस्पतिक भोजन करें :-
मानव को परम पिता परमात्मा ने सौ वर्ष की आयु देकर इस धरती पर भेजा है । इस के साथ ही यह भी आदेश दिया हे कि हे प्राणी ! मैं तुझे इस धरती पर भेज रहा हूं , इस आश्य से कि तूं इस धरती पर कम से कम एक सौ वर्ष तक का जीवन व्यतीत कर सके और वह जीवन भी एसा हो कि जो पूर्ण स्वस्थ रहते हुए हंसी – खुशी के साथ व्यतीत हो , कर्म करते हुए व्यतीत हो । स्पष्ट है कि प्रभु ने सौ वर्ष तक कर्म करने योग्य जीवन मानव को दिया है । इस लिए ही मानव इन वनस्पतियों को प्रयोग में लाता है ताकि उसका यह जीवन स्वस्थ रहते हुए कर्म करते हुए व्यतीत हो । मानव की कामना है कि वह जीवन पर्यन्त स्वस्थ रहते हुए कर्म करते हुए इस जीवन को व्यतीत करे । इसके लिए आवश्यक है कि वह वनस्पतिक भोजन करे । यह वनस्पतिक आहार ही है जो लम्बी आयु देने के साथ ही साथ जीवन को क्रियाशील भी रखता है । इसलिए मन्त्र वनस्पतियों से युक्त भोजन करने का आदेश देता है , सन्देश देता है , उपदेश देता है ।
३. हम प्रतिदिन प्रात: सूर्य किरणों का सेवन करें :-
मन्त्र में जो तीसरी बात कही गई है वह है कि हम मात्र वस्पतियों से युक्त भोजन करके ही सुखी नहीं रह सकते । इसके साथ ही साथ हम सूर्य की किरणॊं के साथ अपना सम्पर्क स्थापित कर अपने आप को स्वस्थ बनावें । इस पर हम विचार करें । प्रभु ने इस मन्त्र के माध्यम से हमें धान्य अर्थात वनस्पतियों के उपभोग की प्रेरणा करते हुए सूर्य किरणों के सम्पर्क में रहने का भी उपदेश किया है । जब तक सूर्य की किरणों का सम्पर्क नहीं हो पाता कोई वनस्पति तब तक पैदा ही नहीं हो सकती । आप अपने बन्द कमरे के अन्दर किसी भी वनस्पति के बीज डाल दीजिये । इन बीजों को उत्तम से उत्तम खाद भी दीजिये तथा प्रति दिन यथा आवश्यक जल भी दीजिये किन्तु आप देखेंगे कि इन बीजों का बडी कठिनाई से अंकुर फ़ूटता है । यह अंकुर भी मुरझाया सा ,टेढा मेढा सा होकर बडे धीरे से चलता है तथा कुछ दिनों के अन्दर ही मर जाता है , सूख जाता है । इससे यह तथ्य सामने आता है कि वनस्पतियों को पैदा करने , बढने व फ़ूलने फ़लने के लिए सूर्य की किरणों के दर्शन आवश्यक है । इसके बिना यह अपने जीवन के परिणाम तक नहीं पहुंच सकतीं ।
कुछ एसा ही मानव जीवन के साथ भी होता है । हम देखते हैं कि जब एक व्यक्ति को बन्द कमरे में रखा जाता है , जिसमें सूर्य की किरणें प्रवेश नहीं कर सकतीं तो यह व्यक्ति कुछ दिनों में ही कमजोर होते हुए पीला पड जाता है तथा धीरे धीरे इस के शरीर में रोग प्रवेश कर जाता है ,उसके अंग ढीले पडने लगते हैं तथा रोगी हो कर कुछ काल में ही उसकी मृत्यु हो जाती है । इसलिए मन्त्र कहता है कि हे प्राणी ! तूं अपने शरीर को सूर्य की किरणॊं के साथ जोड । जब तूं सूर्य के सामने जाता है तो यह सूर्य अपने किरण रुपी निर्दोष हाथों से ( सूर्य की किरणें सब प्रकार के दोषों को , रोगाणुओं को समेट कर नष्ट करने वाली होती हैं , इसलिए इसे निर्दोष हाथों वाली कहा गया है ) जो हितकारक तथा प्राणशक्ति दायी तत्वों को लिए हुए है , वह सब तुझे दे ।
इस प्रकार मन्त्र कहता है कि हे प्राणी ! तूं प्रात; उठ , प्रात; उठकर सुर्याभिमुख हो कर इस की किरणों को ग्रहण कर तथा परम पिता का ध्यान कर , उसका स्मरण । इन हितकारक किरणों से तेरा शरीर रोग मुक्त हो कर स्वस्थ हो जावेगा । स्वस्थ्य उत्तम होने से तूं खुश रहेगा तथा तेरी दीर्घायु होगी और प्रभु की समीपता भी मिलेगी । यह तो हम जानते हैं कि उदय हो रहे सूर्य की किरणों में सब प्रकर के रोगाणुओं का नाश करने की अत्यधिक शक्ति होती है । फ़िर हम निश्चय ही इन किरणों का सेवन करने के लिए प्रात: सूर्योदय के साथ ही अपनी शैय्या को छोड निकल जावें ।
४. हम प्रात: अपनी आंखों को सूर्य किरणें दिखावें :-
सूर्य की यह किरणें हमारी दृष्टी के लिए भी उत्तम होती हैं । इस लिए ही मन्त्र कह रहा है कि हे सूर्य देव ! मैं तुझे अपनी द्रष्टी शक्ति की रक्शा के लिए ग्रहण करता हूं । जब हम इस पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि वास्तव में सूर्य हमारी आंखों में ही निवास करता है । यह ही हमारी आंखों का स्वामी है । यदि सूर्य न हो तो हमारी आंखों का भी कोई प्रयोजन नहीं रह जाता क्योंकि हमारी आंख तब ही देख पाती है , जब प्रकाश हो । अन्धेरे में तो यह देख ही नहीं सकती । जब प्रात; काल की सूर्य की शीतल किरणें इन आंखों पर पडती हैं तो आंखों को भी शीतलता मिलती है । इन्हें भी आराम मिलता है तथा इन में देखने की शक्ति बढती है ।
सूर्य की किरणों से हमारी आंखों की देखने की शक्ति बढती है इसलिए ही मन्त्र के माध्यम से मैं यह कह रहा हूं कि जब मैं सूर्य की किरणों को देखता हूं तो मेरी आंखों की ज्योति बढती है। अत: मैं सूर्य की और मुंह करके बैठ जाता हूं तो सूर्य की यह निर्मल , पवित्र किरणें मेरी आंखों में मेरी दृष्टी शक्ति का प्रवेश करवाती हैं । जब हम ठीक प्रकार से अपनी आंखों को सूर्य की किरणों का प्रवेश कराते हैं तो हमारी आंख की सब निर्बलताएं , सब दोष , सब रोग दूर हो जाते हैं ।
५. सूर्य किरणों से हमारे सब अंगों में शक्ति आती है :-
यह सूर्य ही है , जो माननीय है , तूं पूजनीय है , तूं ही मानव की सब प्रकार की शक्तियों को बढाने वाला है ।
इन शब्दों में यह मन्त्र हमें बता रहा है कि सूर्य के माधयम से ही जीव मात्र जीवित है । जीव को जीव तब ही कहा जाता है क्योंकि उसमें जीवन है । यदि इस में जीवन न हो तो इसे जीव कह ही नहीं सकते । जीव में जो जोवनीय शक्ति है , उस शक्ति का प्रमुख आधार सूर्य ही है । इस लिए यहां कहा गया है कि तूं ही सब शक्तियों को देने वाला है ।
जब हम वेद के इस तथ्य पर विचार करते हैं तो हम पाते हैं कि हमारे जितने भी भोज्य पदार्थ हैं , जिन के उपभोग से हमारी क्षुधा शान्त होती है तथा हमारा जीवन आगे बढता है , उन सब की उत्पति इस सूर्य की किरणों ही के कारण होती है । हम जो प्रतिदिन अपनी दिनचर्या करते हैं , स्वाध्याय करते हैं , व्यापार करते हैं अथवा अपने जीवन का कोई भी व्यवसाय करते हैं तो वह भी इन किरणों के सहयोग से ही करते हैं । हम जो कुछ भी देखते हैं , वह सब भी सूर्य की इन किरणों का ही परिणाम है । इस सब से एक तथ्य जो सामने आता है , वह यह है कि सूर्य ही हमारे सब कार्यों का केन्द्र है । यदि सूर्य न होता तो हम अपने यह क्रिया क्लाप तो क्या , हम अपने जीवन के विषय में भी कुछ नहीं कह सकते , कुछ नहीं सोच सकते ।
सूर्य हमारी सब शक्तियों का अध्यापन करने वाला है । सूर्य ही हमारी सब शक्तियों को बढाने वाला है । इस की किरणों के सम्पर्क में आने से ही हमारे शरीर के सब अंग प्रत्यंग बढते हैं , फ़लते फ़ूलते हैं तथा टीठी क से कार्य करते हैं । इन को शक्ति मिलती है । इस लिए सूर्य का सेवन सूर्य का सम्पर्क हमारे लिए आवश्यक है ।
डा अशोक आर्य
स्वाध्याय व नियमित जीवन अपनायें
स्वाध्याय व नियमित जीवन अपनायें
डा. अशोक आर्य
मान्व को कभी भी अपने स्वरुप को तथ अपने झीअन के उद्देश्य को नहीं भूलना चाहिये । एसा करने से ही हम अपने जीवन्में स्वाध्याय को अपनाते हुए जीअन को एक नियम के अनुसार चलावेंगे । इस बात को मन्त्र इस प्रकार कह रहा है ।
इस मन्त्र में छ: बिन्दुओं पर विचार करते हुए परमात्मा इस प्रकार उपदेश दे रहे हैं :-
१. ग्यान उन्नति का मूल है :-
हे जीव ! तेरे अन्दर बुद्धि दी गयी है ताकि तूं सब प्रकार के ग्यान को प्राप्त कर सके । ग्यान सब प्रकार की उन्नति का मूल स्रोत है । इस लिए तूं उन्नतिशील कहा जाता है क्योंकि तेरे अन्दर ग्यान को प्राप्त करने और बटाने की इच्छा सदा बनी रहती है । अत: तूं निरन्तर ग्यान को प्राप्त करने के प्रयास में लगा रह ।
२. ध्रतिशील बन :-
हे जीव ! तूं अपने अन्दर ध्रति को धारण कर , धैर्य को बनाए रख । जब तक तेरे अन्दर धैर्य बना रहेगा, तब तक कोई विपति तुझे पथ-भ्रष्ट नहीं कर सकती । इस प्रकार तूं अपने जीवन के स्वपनों को साकार करने के लिए निरन्तर आगे बटता ही चला जावेगा । तूं धैर्यवान होने के कारण अपने ह्रदय रुप अन्तरिक्श में , अपने ह्रदय के अन्दर जो आकाश रुप खाली स्थान है ,उसको द्रट बना । हमारे अन्त:करण का सब से उतम , सब से महान गुण तो धैर्य ही है । यह धैर्य अर्थात यह ध्रति ही हमारे धर्म के अन्य सब अंगों का आधार है । इस से ही धर्म चलता है । इसके आधार पर ही धर्म खडा है । यह ही कारण है कि मनु महाराज ने इसे ( ध्रति को ) धर्म का प्रथम लक्शण कहा है ।
३. शत्रुओं के नाश में समर्थ बन :-
हे जीव ! तुं शत्रुओं के , (अपने अन्दर के तथा बाहर के शत्रुओं के) विनाश के लिए सामर्थ्य प्राप्त कर । यह कैसे सम्भव होगा ? इस निमित परम पिता परमात्मा उपदेश कर रहे हैं कि हे जीव ! तूं अपने अन्त: करण का स्म्पादन करने वाला है , अपने अन्त:करण को एक नियम से बांधने वाला है । तूं ही ग्यान का उपभोग करने वाला, सेवन करने वाला, उपयोग करने वाला होने के नाते सदा उत्तम ग्यान को संकलन कर , ग्रहण कर । तूं ही सब प्रकार के बलों को प्रयोग करने वाला है । इतना ही नहीं सब प्रकार के उत्तम यग्यों को करने वाला भी तूं ही है । इस प्रकार के गुणों से युक्त , सम्पन्न , तुझे मैं अपने समीप स्थान देता हूं ।
मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य परम पिता की समीपता को पाना है , वह सदा उस पिता के निकट अपना आसन लगाने की इच्छा रखता है । इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए वह उसका सदा स्मरण करता है , उसके गुणों का गान करता है । उस पिता ने ही उपर कुछ विधियां दी हैं , जिनके करने से उसकी समीपत मिलती है तथा जीव को पिता ने उपदेश किया है कि तूं यह सब कुछ कर । इससे ही मैं तुझे अपने समीप स्थान दूंगा । जब उस पिता की निकटता मिल जाती है , जब जीव प्रभु के निकट आसन प्राप्त कर लेता है तो उसमें इतनी शक्ति आ जाती है , वह इतनी शक्ति का स्वामी बन जाता है कि वह अपने सब प्रकार के शत्रुओं का नाश कर सके ।
४. शत्रु विनाश के लिए प्रभु की निकटता पा :-
हे प्रणी ! तेरे अन्दर अत्यधिक धारक शक्ति होने से तूं भरपूर स्मरण शक्ति का भी स्वामी बन गया है । स्मरण शक्ति मानव में तब तक ही रहती है , किसी विषय का स्मरण वह तब तक ही रख सकता है , जब तक उसमें धारण शक्ति है , इसे स्म्भालने की शक्ति है । इस लिए ही पभु कह रहे हैं कि तूं ने यत्न करके अपने अन्दर धारण शक्ति को बटाया है ,जिससे तेरी स्मरण शक्ति द्रट हो गयी है । इस स्मरण शक्ति के उपयोग से तूं अपने मस्तिष्क को भी मजबूत कर , प्रबल कर । यह मस्तिष्क प्राणी का द्युलोक ही होता है । यह ही सब प्रकार के ग्यान को एकत्र कर, उसे देने वाला होता है । जब यह द्रट होगा तो तेरे अन्दर की ग्यान शक्ति निरन्तर बनी रहे गी । तूं ने जो अपनी स्मरण शक्ति से ग्यान एकत्र किया है , धारण किया है , इस ग्यान से मस्तिष्क उज्ज्वल बनेगा ।
तेरे अन्दर ग्यान का सेवन कर इसे निरन्तर बटाने की अभिलाषा है , एसे अभिलाषी को ही मैं अपने निकट आसन देता हूं । इस लिए तूं आ मेरे निकट बैट । जब तूं मेरे निकट आसन लगा लेगा तो काम , क्रोध, मद, लोभ , अहंकार आदि शत्रु तेरे से भयभीत होंगे तथा तेरे अन्दर इतनी शक्ति आ जावेगी कि तुं इन सब का विनाश बडी सरलता से कर सकेगा ।
५. सब और से प्रभु ई समीपता बना :-
मन्त्र उपदेश कर रहा है कि जब प्रणी अपने शरीर , अपने ह्रदय तथा अपने मस्तिष्क आदि सब अंगों को मजबूत कर लेता है तो वह प्रभु के निकट आसन लगाने के पूर्णतया योग्य हो जाता है , पूर्णतया अधिकारी हो जाता है ओर इस अधिकार को प्राप्त करने के लिए ,इस अधिकार का प्रयोग करने के लिए तैयार भी हो जाता है । प्रभु कहते हैं कि जब तुझे मेरे निकट आने का अधिकार प्राप्त हो गया है तो मैं भी तुझे सब दिशाओं से अपने निकट स्थान देता हूं । तुं जिस दिशा से भी चाहे उस से ही मेरे समीप आसन लगा सकता है ।
इसका भाव यह है कि जीव की इन्द्रियां विभिन्न समय पर विभिन्न दिशाओं में भटकती रहती हैं । यह प्रतिक्शण अनेक प्रकार से हानि पहुंचाने का प्रयास करती रहती हैं । यह इन्द्रियां इधर – उधर किसी भी दिशा में भटक कर नाश का कार्य न कर सकें और तुं इनको पूरी भान्ति अपने वश में रख सके । इसलिए ही हमारे पिता कहते हैं कि मैं तुझे सब दिशाएं देता हूं , तुं किसी भी दिशा से मेरे निकट आ सकता है अर्थात सब दिशाओं से तुं अपने शत्रुओं का विनाश कर सकता है । बस तूं इन इन्द्रियों से उपर उट और अपने ध्यान को केवल मुझ में ही लगा कर मेरे निकट आसन लगा । सर्वत्र भटकने वाली इन इन्द्रियों को वश में करके अपने ध्यान को केन्द्रित कर ।
६.स्वाध्यायशील और तपस्वी बन :-
हे प्राणी! तूं चेतन है । इस्स्रष्ट में तेरे पास ही कर्म का अधिकार है अन्य किसी जीव को मैंने कर्म का अधिकार नहीं दिया है । वह तो सब भोग योनि में ही हैं । इस कारण्केवल भॊग का ही आर्य्करते हैं । बस तूं ही है , जो अर्म्कर सकता है । अपनी चेतनता के कारण तुम उत्क्रष्ट बन जाते हो । इस कारण ही तुम्हारे अन्दर इतनी शक्ति है कि तुम अपने हित तथा अहित को समझते हो । इसलिए अपने हित को समझते हुए तुम जानते हो कि तुमने क्या करना है तथ क्या नहीं करन । स धारणा के आधार पर ही तुम अपने शरीर को अत्यधिक लचक वाल बना कर शक्ति सम्पन्न करने की अपनी इच्छा को पूर्न्करने वाला बनाना चाहते हो । तुम्हारी यहिच्चा तब ही पूर्ण होगी ,जब तुम अपने शईर मेम लचक रखे वाले, निरन्तर आसन [प्राणा याम करने वाले तपस्वी गुणी जनों के पास जा अकर योगाभ्यास करो गे , योगादि को सिखोगे । इस्लिए एसे तपस्वी लोगों की शरण में जा कर यह सब सीख्ने का पुरुषार्थ करो । ताकि तुम्हारे अंगों में भी लचक आ सके। यह लचक आले बन सकेम ।
तप भी दो प्रकार का होता है :-
क) भ्रगुओं का तप ;_
इस तप को हम स्वाध्याय के नाम से जानते हैं । इस तप को प्राप्त करने का साधन है नित्य प्रति प्रात: उटकर वेदादि शास्त्रों को पटना तथा उनके उपदेशों को अपने जीवन में धारण करना ।
ख) अंगिरा का तप:-
इस प्रकार के तप को रित कहते हैं । इस तप से मानव पूर्ण स्वस्थ हो कर एक विशेष प्रकार की दीप्ति को, एक विशेष प्रकार के प्रकाश को प्राप्त करता है ।
परम पिता परमात्मा उपदेश करते हुए कह रहे हैं कि हे मानव ! अपने जीवन को एक निश्चित क्रम में बांध कर तुम इसे नित्य प्रति स्वाध्याय करने वाला बनाओ । यह निश्चित करो कि तुम्हारा प्रत्येक कार्य , प्रत्येक क्रिया एक निश्चित समय पर ही हो । न केवल टीक समय पर हो अपितु यह सब एक निश्चित स्थान पर भी हो अर्थात हमारी क्रियाओं का ,हमारे कार्यों का स्थान भी निर्धारित होना आवश्यक है । इससे तु भ्रगुओं की भान्ति बनेगा, जिन्होंने सब रसों का अंगीकार कर लिया होता है , ग्रहण कर लिया होता है , एसे अंगिरसों की भान्ति अपने स्वास्थ्य को एसी ही दीप्ति प्रदान करो , एसे ही प्रकश पुन्ज के समान बनाओ । ग्यान की द्रष्टि से तुम एसे रिषि बनो कि जो अपने विषय के सर्व गुण सम्पन्न हों तो बल का जब प्रश्न आवे तो तुम अपने आप को एक महान मल्ल के रुप में सिद्ध करो । जब बुद्धि और शक्ति दोनों आ जावेंगे तो तुम आदर्श पुरुष कहलाने के अधिकारी बनोगे ।
बस यह जानो कि जीवन की क्रियाओं में हम ने ध्रुवता को स्थिरता को लाना है । अपने स्वास्थ्य के लिए हमें ध्रति से सम्पन्न होना है अर्थात धैर्य से काम लेना है तथा मस्तिष्क की उज्जवलता के लिए हम ने धर्त्र को धारण करना है अर्थात प्राप्त ग्यान को सम्भालना है , स्मरण रखना है ।
, डा. अशोक आर्य
ज्ञान, बल व यग्य से प्रभु उपासना करें
ज्ञान, बल व यग्य से प्रभु उपासना करें
डा. अशोक आर्य
हम कच्ची वस्तुओं व मांस आदि के सेवन से रोगों व वासनाओं में फ़ंसते हैं , इन्हें त्याग दें । नियमित जीवन से शरीर को कटोर करें । ज्ञान ,बल व नियमित यज्ञ को कर परम पिता परमात्मा की समीपता प्राप्त करें तथा जितने भी काम आदि शत्रु हैं उन का नाश करें । यजुर्वेद का प्रथम अध्याय का यह १७वां मन्त्र इस तथ्य पर इस प्रकार प्रकाश डाल रहा है :-
ध्रष्टिरस्यपाऽग्नेऽअग्निमामादं जहि निष्क्रव्याद \^M सेधा देवयजंवह । ध्रुवमसि
प्रथिवी द्र \^M ह ब्रह्म्वनि त्वा क्शत्रनि सजातवन्युपदधामि भ्रात्रिव्यस्य वधार्य ॥
यजु.१.१७ ॥
शुद्ध मन्त्र पाठ के लिए नीचे हिन्दी आरती फ़ोन्ट के प्रयोग से देखें :-
QaRiYTrsyapaa # gnao # AignamaamaadM jaih inaYk `vyaad \^M saoQaa dovayajaं vah | Qa`uvamaisa
paRiqavaI dR \^Mh ba`+vaina tvaa Xa~avaina sajaatavanyaupadQaaima Ba`ataRvyasya vaQaaya- || yajua।.17||
इस मन्त्र में छ: बिन्दुओं पर प्र्काश डालते हुए मन्त्र उपदेश करता है कि :-
१. अग्नि के समान आगे बढ :-
हे जीव ! तूं अग्नि के समान सदा ऊपर उठ , निरन्तर आगे बढ । तेरे तेज से शत्रु कम्पित हों , शत्रु सदा भयभीत हों । तूं अपने अन्दर के शत्रुओं का यथा काम, क्रोध, मद , लोभ, अहंकार आदि का नाश करने वाला है । यह वह शत्रु हैं , जो तेरे जीवन के विनाश का कारण होते हैं , कभी आगे बढने ही नहीं देते , कभी उन्नति के मार्ग पर चलने ही नहीं देते किन्तु तूं पुरुषार्थ से इनका नाश करता है । निरन्तर इन से युद्ध करता रहता है ओर इन शत्रुओं को अपने शरीर से दूर ही रखता है । इन्हें अपने अन्दर प्रवेश करने ही नहीं देता । यह सब तब ही हो पाता है जब तूं शरीर में किसी भी प्रकार के रोग को तथा मन में कामादि किसी भी शत्रु को प्रवेश नहीं करने देता ।
तूं शरीर को विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाता है तथा मन को कामादि शत्रुओं से रक्षित रखता है , इससे तेरा यह शरीर अग्नि बन जाता है । इस अग्नि बने शरीर में किसी भी शत्रु को जलाने की शक्ति होती है , चाहे वह किसी प्रकार का रोग हो, चाहे काम, क्रोध, मद , लोभ या अहंकार रुपि शत्रु हो , अग्नि बना यह शरीर इन सब शत्रुओं को जला कर राख कर देता है , भस्म कर देता है । इस पर अग्नि के समान तूं निरन्तर आगे बढने वाला है , ऊपर उठने वाला है , उन्नति के मार्ग पर चलने वाला है ।
२. आअमाद अग्नि को पास न आने दें :-
हे जीव ! तूं अग्नि के समान सदा उन्नति के मार्ग पर आगे बढने वाला है । इस लिए तूं उस भोजन को अपने से दूर रख जो कच्ची वस्तुओं या कच्ची अग्नि से बना हो । तूं सदा पका हुआ भोजन ही खा , कभी कच्चा भोजन मत खा । पका हुआ भोजन जहां शरीर की व्रद्धि का , उन्नति का कारण होता है ,वहां कच्चा भोजन शरीर के ह्रास का , रोग का , दु:ख का ,क्लेष का कारण होता है । यह कच्चा भोजन भी दो प्रकार से हमें मिलता है ।
क) असावधानी या लापरवही से बच :-
कच्चे भोजन प्राप्ति के दो कारणो में से प्रथम है असावधानी या लापरवाही । हम जब अग्नि पर अपने भोजन , रोटी,दाल आदि को पकाते हैं तो कई बार असावधानी हो जाती है , कई बार प्रकाश की कमीं के कारण हमें पता नहीं चलता, कई बार हमें कुछ जल्दी होती है , इन में से किसी भी अवस्था में हमारा भोजन , हमारी रोटी पूरी तरह से पक नहीं पाती , यह आधी कच्ची ही होती है कि हम इस अधपके भोजन का उपभॊग कर लेते हैं , खा लेते हैं । एसा भोजन करनीय नहीं होता किन्तु तो भी यह भोजन किसी प्रकार हमारे पेट में प्रवेश कर जाता है । इसका ही परिणाम होता है कि यह हमारे लिए कई प्रकार के कष्टों का कारण बनता है । इस प्रकार का किया गया भोजन हमारे पेट आदि के दर्द के रुप में या किसी अन्य प्रकार की व्याधि के रुप में हमें कष्ट देने वाला ही सिद्ध होता है ।
ख) कच्चे फ़लों के रुप में :-
कच्चे या अधपके भोजन के रुप में जिस दूसरी वस्तु को हम जानते हैं , वह है फ़ल । वृक्षों पर लगे फ़लों को देख कर हम कई बार रह नहीं पाते ओर इन को तोड कर खाने लगते हैं । जब हम इन फ़लों को तोड रहे होते हैं तो टहनी का कुछ भाग भी टूट्कर साथ आ जाता है । यह टहनी हमें संकेत कर रही होती है कि यह फ़ल अभी पका नहीं है । यह अभी कच्चा है तथा खाने योग्य नहीं है । जब यह पूरा पक जावेगा तो हाथ लगाते ही टूट जवेगा । उस समय ही यह खाने के योग्य बनेगा । किन्तु हम है कि जो टहनी के इस सन्देश को समझ ही नहीं पाते , हमारे अन्दर लालच भरा होता है । इस लालच के कारण हम इस कच्चे फ़ल को खाने लगते हैं । परिणाम क्या होता है ?, वही जो कच्ची रोटी से हुआ था । हम कई प्रकार की व्याधियों के शिकार हो जाते हैं , जिह्वा छिल जाती है, गला बन्द हो जाता है ओर दर्द देने लगता है, जीभ कड्वाहट से भर जाती है तथा हमें कई प्रकार के कष्टों का सामना करना पडता है ।
इसलिए मन्त्र कहता है कि हे जीव ! तूं सदा पका हुआ भोजन ही करने वाला बन तथा पके हुए फलों का ही उपभोग कर । इस लिए आमाद अग्नि अर्थात वह अग्नि जिससे भोजन कच्चा रह जाता है , को सदा अपने से दूर रख , इसे कभी अपने पास मत आने दे । हमारे अन्दर जो जठर अग्नि है , वह इन सब चीजों को पचाने का कार्य करती है किन्तु जब हम कच्चा खाते हैं तो इस जठराग्नि को इन वस्तुओं को पचाने के लिए बहुत मेहनत करनी होती है । अनेक बार अत्यधिक मेहनत के पश्चात भी यह उस कच्चे भोजन को पचा नहीं पाती ओर वह भोजन कष्ट का कारण बन जाता है । इस लिए कभी भी जठराग्नि के सामने इस प्रकार का अध पका भोजन न आने दे । सदा सुपाच्य भोजन ही दें ।
३. मांसहार मत कर :-
परमपिता परमात्मा इस मन्त्र के माध्यम से अगला उपदेश करते हुए कहता है कि हे उन्नति पथ के पथिक जीव ! मांस खाने वाली अग्नि या मांस खाने की इच्छा को तो तूं कभी अपने पास भी न आने दे । तेरे मन में कभी मांस खाने का तो विचार भी नहीं आने देना । मांसाहारी व्यक्ति जिस क्रूरता से मांस प्राप्त करता है , वह क्रूर स्वभाव उसके जीवन का भाग बन जाता है । कोई भी क्रूर व्यक्ति मानव धर्म ( दूसरे की सहायता करना , दूसरे को कष्ट से बचाना , दूसरे पर दया करना आदि ) का ठीक प्रकार से निर्वहन नहीं कर पाता ।
४. सदा दूसरों को खिला कर खाना :-
ऊपर बताया गया है कि मानव के जीवन में जो अग्नि होती है । उसमें से आमाद अग्नि अपाच्य होती है । अपाच्य होने से यह हमारे शरीर में रोगादि ला कर कष्ट का कारण होती है । इस प्रकार की अग्नि से बचना , इस प्रकार की अग्नि को कभी अपने शरीर में प्रवेश न करने देना । इस क्रव्याद अग्नि को दूर करने से , नष्ट करने से , इस का संहार करने से ही मानव क्रूरता से ऊपर उठ सकता है । जब हम क्रूरता से ऊपर उठ जाते है , इस अवस्था में दूसरों की सहायता करने की ,दूसरों पर दया करने की भावना हमारे अन्दर पैदा होती है । इस अवस्था में हम देवयज्ञ के योग्य हो जाते हैं अर्थात हम प्रभु के समीप बैठकर उस का स्मरण करने के अधिकारी बन जाते हैं । यह देवयज्ञ क्य़ा है ? यह यज्ञ है दूसरों की सहायता करना ,दूसरों पर दया करना, दूसरों को खिला कर ही खाना । वेद तो कहता है कि केवलादि न बन । अर्थात केवल अपने लिए ही न जी । दूसरों को भी जीवन दे ।
५. जीवन को नियमित बना :-
इसके पश्चात उस पिता का आदेश है कि हे जीव ! तेरी लालसा है कि तूं सुखी रहे , तेरे सुखों में निरन्तर वृद्धि हो । इसके लिए यह आवश्यक है कि तूं अपने जीवन को एक नियम से बांध । जब तक तूं अपने जीवन को नियम से नहीं बांधता, जब तक तूं अपने जीवन को नियमित नहीं करता, तब तक सुख की कामना मत कर । अपना एक निश्चित कार्यक्रम बना ले । इस योजना के अनुसार प्रात; उठ ,स्नानादि कर ,प्रभु का स्मरण कर , निश्चित समय पर भोजन कर । इस प्रकार तूं कालभोजी बन । कालभोजी ही सुखी रह सकता है । जो सारा दिन पशु की भान्ती खाता रहता है , उसकी बुद्धि तो क्षीण होती ही है , उसका स्वास्थ्य भी क्षीण हो जाता है । अनेक प्रकार के रोग उसे ग्रस लेते हैं । समय पर भोजन करने वाले , एक निश्चित व्यवस्था में रहने वाले को इस प्रकार की व्याधियां कभी नहीं आती ।
६. स्वाध्याय से ग्यान को बढा :-
जब शरीर में कोई कष्ट क्लेष होता है तो हम अपना बहुत सा समय उस कष्ट से निवारण में लगा देते हैं । इस मध्य हम कुछ अन्य कार्य नहीं कर पाते किन्तु जब शरीर स्वस्थ होता है तो हमारी दिनचर्या के अतिरिक्त भी हमारे पास बहुत सा समय बच जाता है । इस समय को हम अन्य निर्माणात्मक कार्यों में लगाते है । इस लिए परमात्मा कहता है कि हे जीव ! तूं स्वस्थ है । इस कारण तेरे तन में , तेरे मन में कुछ ग्रहण करने की पिपासा है , उसे पूर्ण करने के लिए तूं उतम ज्ञान का संग्रह करने के लिए स्वाध्याय कर ।
आज कुछ भी पढने को लोग स्वाध्याय कहने लग गए हैं । उन्हें पता ही नहीं कि स्वध्याय किसे कहते हैं ? इस लिए स्वाध्याय का अर्थ जान लेना भी आवश्यक है । स्व कहते हैं अपने आप को तथा ध्याय कहते हैं मनन को , चिन्तन को । इस प्रकार स्वाध्याय का अर्थ हुआ अपने आप का मनन व चिन्तन । यह तो हुआ संक्षिप्त अर्थ किन्तु जब हम गहराई से देखें तो हम पाते हैं कि सृष्टी के आरम्भ में परम पिता परमात्मा ने हमारे जीवन यापन तथा क्रिया क्लाप की एक विधि दी है ,एक ज्ञान दिया है । इस विधि , इस ग्यान का नाम है वेद । जब हम प्रभु के दिये इस ज्ञान का अध्ययन करते हैं तो इसे ही स्वाध्याय कहते हैं इस से स्पष्ट है कि वेदादि शास्त्रों के अध्ययन को ही स्वाध्याय कहते हैं । इस मन्त्र में भी यह ही कहा गया है कि स्वस्थ रहते हुए हम वेद का स्वाध्याय करें ।
अत: हे यज्ञ का सेवन करने वाले प्राणी , हे अपने ज्ञान को बढाने वाले प्राणी, हे उत्तम यज्ञों द्वारा उत्तम कर्म करने वाले प्राणी , मैं तुझे अपने समीप स्थित करता हूं , अपने समीप बैठने का अधिकारी बनाता हूं । इस प्रकार तेरे अन्दर वह शक्ति आ जावेगी कि तूं अपने शत्रुओं को नाश कर सकेगा ।
मनुष्य प्रभु के समीप आसन लगाने में तब ही समर्थ होता है जब वह स्वस्थ रहते हुए उत्तम ज्ञान तथा शक्ति को प्राप्त कर अपने जीवन को यज्ञमय बना लेता है । जब उसे प्रभु की निकटता मिल जाती है तो यह जीव काम, क्रोध आदि अन्दर के शत्रुओं का कभी शिकार नहीं होता बल्कि उन शत्रुओं का नाशक बन जाता है ।
, डा. अशोक आर्य
हम प्रात: सूर्य व वायु सेवन से स्वास्थ्य व विवेक प्राप्त करें
हम प्रात: सूर्य व वायु सेवन से स्वास्थ्य व विवेक प्राप्त करें
डा. अशोक आर्य
हम सदा अस्तेय धर्म का पालन करते हुए वार्तालाप में मधुर शब्दों का प्रयोग करें । प्रात: भ्रमण के समय हम खुली वायु व धूप में विचरण कर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर उतम बुद्धि को पावें । यह बात यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के मन्त्र १६ में इस प्रकार बतायी गई है :-
कुक्कुटोऽसि मधुइजिह्वऽइष्मूर्जमावद त्वया वय तं जेष्म वर्ष्व्र्द्ध्मसि प्रति त्वा वर्षव्रद्धं वेत्तु परापूत रक्श:परापूता अरातयोऽपहत रक्शो वायुर्वो विविनक्तु देवो व: सविता हिरण्यपाणि: प्रतिग्रभ्णात्वैच्छ्द्रेण पाणिना ॥ यजुर्वेद १.१६ ॥
शुद्ध मन्त्र पाट के लिए आगे की पंक्तियां हिन्दी आरती फ़ोन्ट में देखें
k u@ku Tao # isa maQauuijaÒ # [YamaUja-maavad tvayaa vaya ^M\ saÈ\GaataM jaoYma vaYa-vaRwmaisa pa`ita tvaa vaYa-vaRwM vao<au parapaUta ^M\rXa: parapaUtaa Arataya o# pahta ^M\ à rXaao vaayauvaa- ivaivana>u dovaao va: saivataa ihrNyapaaiNa: pa`itagaRBNaatvaicCd`oNa paaiNanaa || yajuavao-d 1.16 ||
इस मन्त्र के माध्यम से आट बिन्दुओं के माध्यम से परम पिता परमात्मा प्रणी को इस प्रकार उपदेश कर रहे हैं :-
१. आदान व्रति को पास न आने देना :-
मन्त्र कह रहा है कि हे प्राणी ! तूं कभी दूसरे के धन पर ब्लात कब्जा करने वाला नहीं है । तूं कभी अदान की भावना से ग्रसित मत होना । किसी के धन को अधिग्रहण की इच्छा भी मत करना । इस प्रकार की भावना कभी तेरे अन्दर आवे भी नहीं । तेरे लिए दूसरे का धन एसे होना चाहिये कि जैसे मिट्टी का टेला होता है । जिस प्रकर मिट्टी के टेले को कहीं भी रख दो कभी इस के चोरी का भय नहीं होता , इस प्रकार ही तेरे लिये दूसरे का धन होता है ,तूं इसे पाने की कभी इच्छा नहीं रखता ।
२. मधुभाषी बन ग्यान बांट :-
मन्त्र आगे कहता है कि हे जीव ! तेरी वाणी मधुरता से टपकती हो । इसमें इतनी मधुरता हो, इतनी मिटास हो कि जब तूं बोले , जब तूं व्याख्यान करे तो सब लोग तुझे सुनने के लिए आगे आवें । तेरे द्वारा होने वाले ग्यान के प्रचार व प्रसार में अत्यन्त मिटास हो, श्लेक्शण इससे टपकती हो । जब इस प्रकार के गुणों से तूं युक्त होता है तो हम कह सकेंगे कि तूं पूर्ण जिह्वा वाला है अर्थात तेरी जिह्वा का अगला भाग ही नहीं बल्कि मूल भाग से भी सदा व सर्वत्र माधुर्य ही माधुर्य टपकता है , मीटे ही मीटे वचन निकलते हैं ।
३. प्रेरणा व शक्ति का आघान कर :-
हे अपनी जीह्वा की मिटास से सब का आह्लादित करने वाले प्राणी ! तूं सब के लिए प्रेरणा का पुंज बन । अपनी मीटी वाणी से अपने आस पास के सब लोगों को प्रेरित कर तथा उन्हें अपनी इस आकर्षक वाणी से शक्ति दे कि वह भी तेरा अनुसरण करें, अनुगमन करें । जब सब लोग इस प्रकार की मिटास बांटेंगे तो इस संसार में सब ओर स्वर्ग ही स्वर्ग दिखाई देगा ।
४. तुझ से प्रेरित हम वसनाओं को कुचलें :-
जब एक प्राणी अपनी मिटास से सब को प्रेरित करता है तथा शक्ति से भर देता है तो प्रत्युतर में श्रोता कहता है कि हम तेरे मीटे वचनों को सुन कर, इनके उपयोग व लाभ को समझ गये हैं तथा हम भी आप का ही अनुगमन करते हैं आप ही के साथ चलते हुए , आप जैसा ही बनने का प्रयास करते हैं । आप से हमें जो उत्साह मिला है तथा आप से हमें जो शक्ति मिली है , उस उत्साह , उस प्रेरणा तथा उस शक्ति के बल पर हम अपने अन्दर की दुर्वासनाओं को ,बुरी शक्तियों को पराजित कर आप ही के समान शुद्ध व पवित्र बननें का प्रयास करते हैं । आप हमारी प्रेरणा के स्रोत हो । इस से प्रेरित हो कर हम भी सदा मीटा बोलें , ग्यान का प्रसार कर अपने अन्दर की वसनाओं का हनन कर उतम बनें ।
५. प्रभु आप हमारे पथ दर्शक हो :-
वर्षों के द्र्ष्टी से अर्थात आयु क्रम से भी आप हमारे से बडे हो । इस कारण चाहे ग्यान का विषय हो , चाहे अनुभव का आप हमारे से आगे हो । मानव को जो ग्यान प्राप्त होता है तथा जीवन के जो अनुभव वह प्राप्त करता है , उस में समय की विशेष भूमिका होती है । जीवन का जितना काल होता है , उतने काल इस की प्राप्ति निरन्तर होती ही रहती है । इस लिए जब कभी कोई छोटी आयु का व्यक्ति कुछ काम करके उसे न्याय संगत टहराने का यत्न करता है तो सामने वाला व्यक्ति अनायास ही कह उतता है कि मैंने तेरे से अधिक दुनियां देखी है अर्थात मेरी आयु तेरे से बडी होने से मेरे अनुभव भी तेरे से अधिक हैं ।
इससे भी स्पष्ट होता है कि आयु ओर अनुभव का ग्यान के विस्तार में कुछ तो स्थान होता ही है । तब ही तो मन्त्र कह रहा है कि हे प्रभु ! आप ग्यान के साथ ही साथ अनुभव में भी हम से अधिक परिपक्व हो । एक परिपक्व का अनुगमन करने से , एक अनुभवी के पीछे चलने से हमारा कल्याण ही होगा,अर्थात हम अपने कार्य में निश्चित रुप से सफ़ल होंगे । हे वर्ष व्रद्ध ! हे आयु व अनुभव में हमारे मार्ग दर्शक ! आप के अनुभव का लाभ उटाने के लिए इस स्रश्टि का प्रत्येक प्राणी आप को पा सके , आप को टीक से जान सके, आप हम लोगों के लिए अगम्य हो , आप से हम कभी आगे नहीं निकल सकते । इस कारण ही आप हमारे पथ प्रदर्शक हो, मार्ग दर्शक हो ।
६. हमारी रक्शी व्रतियां दूर हों :-
हे पिता ! आपकी दया व आप की क्रपा से हमें आप ने जो आप से ग्यान का उपदेश , ग्यान का सन्देश मिला है , उस के प्रयोग करने से हमारी जितनी भी राक्शसी प्रव्रतियां है , जितनी भी बुराईयां है, वह सब धुलकर हम साफ़ व स्वच्छ हो जावें । इस प्रकार हमरी यह बुरी वासनाएं हम से छूट जावें , हमसे अलग हो जावें । इतना ही नहीं दूसरे को न देने की , दूसरे की सहायता न करने की अर्थात दान न देने की आदत बहुत गन्दी होती है । यह बुराई हम से दूर हो जावे तथा हम सदा दूसरे की सहायता के लिए तैयार रहें , एसा हम बन जावें । हम न केवल अपने रमण के लिए , अपने घूमने के लिए , अपने जीवन व्यापार को चलाने के लिए कभी दूसरों की हानि न करें , दूसरों क्शति न पहुंचावें अपितु हम सदा दान शील बनकर दूसरों को हाथ देकर उपर उटाने वाले भी बने रहें । हमारे अन्दर जितने भी राक्शसी भाव हैं जितनी भी बुरी व्रतियां हैं , आप के सहयोग से वह नष्ट हो जावें ।
७. पवित्र वायु का सेवन कर विवेकशील हों :-
प्रभु तो उपदेशकों के भी उपदेशक हैं । इस कारण वह उपदेश देने वाले तथा उपदेश लेने वाले दोनों को ही सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि वायु अत्यन्त गतिशील होता है इस लिए यह वायु देव अपनी गतिशीलता से सब बुराईयों का नाश करते हुए तुम्हें प्राप्त हो तथा तुमहारे अन्दर ग्यान का विस्तार करे । वायु को गति शील माना गया है । यदि वायु की गति रुक जाती है तो यह विनाशक हो जाती है । हम जानते हैं कि जब किसी भवन को बहुत देर बन्द रखा गया हो तो उसे खोलते समय कहा जाता है कि इस का दरवाजा खोल कर कुछ देर के लिए एक और हट जाना नहीं तो इस से निकलने वाली गन्दी वायु तुम्हारे स्वास्थ्य का नाश कर देगी । स्पष्ट है कि गन्दी वायु जहां हानि का कारण होती है , वहां स्वच्छ व शीतल वायु उतमता लाने वाली भी होती है । इस के सेवन से विवेक का जागरण भी होता है । तब ही तो मन्त्र कह रहा है कि यह निरन्तर विचरण करने वाली वायु तेरी सब बुराईयों का नाश कर तेरे अन्दर विवेक को , बुद्धि को , ग्यान को जाग्रत करे ।
मन्त्र इस के साथ ही प्रात: भ्रमण पर बल देते हुए कहता है कि प्रात: काल की उषा वेला में बडे ही शीतलता से वायु चलती है । यह वायु स्वास्थ्य के लिए अति उपयोगी होती है । इस वायु के सेवन से हमारा मस्तिष्क शुद्ध , पवित्र और कुषाग्र हो जाता है । इसलिए हम प्रात; शुभ मुहुर्त में , उषा वेला में उट कर इस पवित्र व शीतल वायु का सेवन कर अपने मस्तिष्क को शुद्ध पवित्र कर अपनी बुद्धि को कुशाग्र तथा तीव्र बनावें ।
८. प्रात: का सूर्य तेरे लिए हितकर हो :-
परम पिता परमात्मा जानता है कि हमारे लिए क्या क्या हितकर है । इस कारण प्रभु प्रत्येक कदम पर हमारा मार्ग दर्शक बनकर सदा हमें प्रेरित करता रहता है । ऊपर वायु के गुणों का वर्णन कर शीतल वायु के सेवन का उपदेश दिया था । यहां वह प्रभु हमें सूर्य के गुणों का वर्णन करते हुए उपदेश कर रहा है कि हे प्राणी ! यदि तुझे इन उत्तम गुणों को पाने की इच्छा है तो तूं नित्य प्रात: काल उटकर नगर से बाहर किसी खुले स्थान पर जा कर आसन प्राणायाम कर , प्रभु का स्मरण कर , उसकी निकटता को प्राप्त कर , इससे तेरा जीवन उत्तम बन जावेगा ।
प्रभु कहते हैं कि यह जो सूर्य है , यह सब प्राण दायी तत्वों से भरपूर होने से सदा इन प्राण शक्तियों को बांटता रहाता है । यह सूर्य सब प्रकार की दिव्य शक्तियों का कोश है , खजाना है । इस करण इस सूर्य से हमें यह सब प्राण देने वाली शक्तियां हमें देने के लिए सदा लालायित रहता है किन्तु देता उसको ही है जो प्रयास करता है ,पुरुषार्थ करता है । यह सूर्य प्रात: काल की उषा वेला में एसे हमारे सामने आता है , जैसे मानो स्वर्ण को अपने हाथ में लेकर आता है तथा यह स्वर्ण हमें बांटता है । यह स्वरर्ण उसे ही मिल पाता है , जो इस समय तक अपनी निद्रा को त्याग, बिस्तर को छोडकर भ्रमण को निकल जाते हैं । हम जानते हैं कि प्रात: का सूर्य लाल होता है तथा अपनी लाली से अनेक प्रकार के रोगों को दूर करता है । हमारी आंखों को इससे अत्यदिक लाभ होता है ।
जब हम प्रात:काल इस सूर्य के दर्शन करते हैं तो एसे लगता है कि यह सूर्य अपनी स्वर्ण मयी किरणॊ से हमें गुणों से भरे हुए टीके ( इन्जेक्शन ) लगा रहा हो । इस लिए मन्त्र कहता है कि यह सूर्य अपनी किरण रुपी हाथों से हे जीव ! तुम्हें ग्रहण करे । इस का भाव यह है कि सूर्य की यह किरणें तेरे अन्दर तक जा कर तेरे अन्दर के सब दोषों को दूर कर तुझे उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें । इस प्रकार तूं प्रात:काल की अम्रत वेला में इस सूर्य की किरणों के द्वारा उत्तम प्राण , उत्तम शक्ति तथा दिव्य गुणो को प्राप्त कराता है । इस प्रकार यह सूर्य तुम्हारे लिए अत्यन्त हितकर होता है अत्यन्त रमणीय होता है ।
, डा. अशोक आर्य
हम अपने जीवन की मलिनता हटाएं
हम अपने जीवन की मलिनता हटाएं
डा. अशोक आर्य
प्रभु की सहायता पाकर हम अपने अन्दर के काम , क्रोध आदि दुष्ट प्रव्रतियों को दूर करें । सदा दिव्य व उतम कर्मों में लगे रह कर जीवन को शुद्ध करें तथा जीवन में जो जो भी बुराईयां हों उन्हें दूर करने का सदा प्रयत्न करें । यजुर्वेद का यह मन्त्र इस पर ही प्रकाश डाल रहा है ।
युष्माऽव्रणीत व्रत्रतूर्ये युयमिन्द्र्मव्रणीध्वं व्रत्रतूर्ये प्रोशिता स्थ । अग्नये त्वा जुष्ट प्रोक्शाम्यग्नीषोमाभ्यां त्वा जुश्टं प्रोक्शामि । दैव्याय कर्मणे शुन्धध्वं देवयज्यायै यद्वोऽशुद्धा: प्राज्ध्नुरिदं वस्तच्छुन्धामि ॥यजु.१.१३॥
इस मन्त्र में सात बातें बताई गई हैं :=
१. हम अपने कामादि का नाश करें :-
इस मन्त्र में जिस प्रथम विष्य पर चर्चा की गई है, वह है कामादि का नाश । मानव जीवन में काम, क्रोध, मद, लोभ , अहंकार आदि अनेक शत्रु होते हैं । इन शत्रुओं के वश में रहने वाला जीव सदा ही विपतियों से घिरा रहता है । लडाई – झगडा, कलह – क्लेष उसके जीवन का आवश्यक अंग बन जाते हैं । उसका जीवन नरक के समान बन जाता है । इस लिए इन सब को जीवन के शत्रु माना गया है । यह मन्त्र अपने उपदेश के आरम्भ में यह ही कह रहा है कि हम इन शत्रुओं का नाश करें , इन का संहार करें । इन शत्रुओं को हम अपने जीवन में न आने दें ।
जब हम इन बुराऒयों का नाश करने के लिए इन से लड रहे होते हैं तो इस लडाई को मन्त्र तूर्य का नाम देता है तथा जब हम इस का संहार करते हैं तो मन्त्र इसे व्रत्रतूर्य का नाम देता है । मन्त्र कहता है कि हे जीव तू व्रत्रतूर्य बन । अपने अन्दर के शत्रुओं के साथ युद्ध करते हुए इन सब का संहार करदे । यह बुराईयों के संहार के रुप में तूं एक प्रकार का यग्य कर रहा है । इस यग्य की अग्नि कभी बुझने न दे । इस में सफ़लता प्राप्त कर ही विश्राम करना । जब तक सफ़लता नहीं मिलती, इस युद्ध को , इस यग्य को करते ही रहना ।
हे जीव ! प्रभु ने तुम्हें इस कामादि शत्रुओं को नष्ट करने के लिए चुना है क्योंकि तूंने विगत में उतम कर्म किये थे। जिन प्राणियों का विगत कर्मों का संग्रह उतम होता है , प्रभु उसे ही उतम कर्म करने का अधिकारी बनाता है । जिन के बैंक में कु्छ जमा ही नहीं , वह क्या कुछ बैंक से निकालेगा अर्थात कुछ भी नहीं । इस प्रकार ही जिस प्रणी ने अपने विगत जीवन को मौज मस्ती में बिताया था ,कुछ उतम किया ही न था । एसे प्राणियों को प्रभु ने भोग योनी में भेज दिया । उनका काम मात्र भोग ही रह गया किन्तु जिन प्राणियों ने कुछ उतम कार्य किये ,चाहे वह कर्म उनके मध्यम स्थिति में ही रहे , एसे प्राणियों को ही उस प्रभु ने मानव जीवन दिया । इस प्रकार के प्राणी को मानव जीवन तो दे दिया किन्तु वह सामन्य प्राणी ही बने रहते हैं । वह कामादि दोषों से प्रताडित ही रहते हैं ।
जिन प्राणियों ने यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के मन्त्र संख्या बारह के अनुरुप कार्य करते हुए अपने जीवन को उतम व पवित्र बनाया , एसे प्राणियों को प्रभु ने सात्विक श्रेणी , उतम श्रेणी दी । जिस प्रकार एक स्कूल की एक ही कक्शा को कई भागों में बांट कर अ , ब, स आदि विभाग किये ह्जाते हैं । अ भाग में सब से उतम , ब में मध्यम तथा स में निक्रष्ट प्रकार के बच्चों को रख दिया जाता है । इस प्रकार ही जो प्राणी अपने जीवन को पवित्र बनाने में सफ़ल रहते हैं , एसे प्राणियों को प्रभु कामादि शत्रुओं से लडने तथा उनका संहार करने की शक्ति देता है । एसे व्यक्ति ही सात्विक कहलाते है तथा एसे प्राणियों की श्रेणी का नाम ही सात्विक श्रेणी होता है । इस प्रकार के प्राणी कामादि से तब तक निरन्तर लडते रहते हैं, जब तक कि वह इन दोषों का नाश करने में सफ़ल नहीं होते ।
२. प्रभु की सहायता से ही हम सफ़ल होते हैं :-
हम कामादि शत्रुओं से लडने की शक्ति भी प्रभु से ही प्राप्त करते हैं । इस लिए उस परमैश्वर्य शाली पभु का वरण करना , उसका आशीर्वाद पाने का यत्न , उसकी निकटता पाने का प्रयास हम निरन्तर करते हैं और यह आवश्यक भी है , क्योंकि उसकी सहायता के बिना हम सफ़ल तो क्या होंगे ? कुछ कर भी न सकेंगे । हम जानते हैं कि केवल महादेव ही काम देव को भस्म कर सकते हैं , अन्य कोई नहीं । इस लिए हमें उस महादेव रुपि उस पिता से निकटता बना कर , इस कार्य की सफ़लता का उससे आशीर्वाद प्राप्त करना है ।
३. प्रभु क्रपा से ही हम शुद्ध होते हैं :-
कामादि शत्रुओं से लडने के लिए हमारे अन्दर शुद्धता का ,पवित्रता का होना आवश्यक है । जब हम स्वयं ही शुद्ध पवित्र नहीं हैं , जब हम स्वयं ही कलुषित कार्य कर रहे हैं तो हम कलुषित के साथ लड कर कैसे विजयी हो सकते हैं । इस लिए हमें पहले अपने जीवन को शुद्ध और पवित्र बनाना होता है तकि हमारी शक्ति हमारे शत्रु से अधिक हो सके तथा फ़िर जब हम इन शत्रुओं से लडेंगे तो निश्चय ही सफ़ल भी होंगे । कहा गया है अपने उपर जल छिडको , स्नान करो तो तुम शुद्ध हो जावोगे । जल शुद्धि का प्रतीक माना गया है । इस प्रकार ही प्रभु की समीपता को पाना, उस प्रभु का वरण करना , उसका आशीर्वाद प्राप्त करना भी शक्ति का प्रतीक है । जब तुम प्रभु का वरण करने में सफ़ल हो जाते हो तो तुम शक्तिशाली हो जाते हो , प्रत्येक अंग में शक्ति का संचार हो जाता है तथा इस युद्ध में तुम्हारी विजय निश्चित हो जाती है । इस लिए हम प्रभु की सहायता प्राप्त कर अपने जीवन को शुद्ध बनावें ।
४. हम केवल यग्य शेष का ही सेवन करें :-
मानव सदा पका हुआ भोजन ही करता है । कच्चा भोजन वह नहीं करता क्योंकि एसा भोजन इस के लिए सुपाच्य नहीं होता । कभी वह कच्चा भोजन कर भी लेता है तो उसको उल्टी. टट्टी या पेट दर्द आदि कई प्रकार की व्याधियां हो जाती है । यह क्यों होती हैं ?, क्योंकि उसने प्रभु के बनाए हुए नियम को तोडते हुए अपने शरिर का तनाशाह बनने का यत्न किया । इस दु:साहस के लिए साथ के साथ ही प्रभु ने उसे दण्डित करते हुए उसके पेट में दर्द आदि कुछ व्याधि पैदा कर दी । यह व्याधि उसे केवल कष्ट देने मात्र के लिए पैदा नहीं की अपितु इस लिए भी की कि उसे पता चले कि उसने गल्ती की है तथा भविष्य में इस प्रकार की गलती को पुन: नहीं करना ।
इसलिए प्रभु उपदेश करते हैं कि हे मानव ! यग्य की अग्नि को ही अपने में अवशिष्ट कर । अर्थात यग्य करने के पश्चात जो शेष बचता है , उसे ही तूं उपभोग कर । संसार की वस्तुओं पर आश्रित न रह कर यग्य शेष पर ही आश्रित रह । इस सब का भाव यह है कि हमारे पास जो कुछ भी है, उसे हम यग्य पर , परोपकार के कार्यों पर व्यय करें और इस प्रकार से दूसरों की सहायता करने के पश्चात ही शेष बचे पदार्थ को हम अपने हित के लिए प्रयोग करें । हम जानते हैं कि हमारी यह प्राचीन काल से ही परम्परा रही है कि हम भोजन बनाते समय या भोजन करते समय पहले गाय , फ़िर पशु , पक्शी आदि का भाग रखकर फ़िर ही भोजन को अपने पेट की भेंट करते हैं । इस का भाव यह ही है कि हम पहले यग्य करते हैं तथा फ़िर यग्य शेष को अपने लिए ग्रहण करते हैं ।
इस प्रकार जो पदार्थ अग्नि व सोम द्वारा सेवित होता है ,संस्कारित होता है , उसका ही मैं अपने लिए प्रयोग करता हूं अर्थात इस प्रकार से संस्कारित भोजन को ही हम ग्रहण करें क्योंकि एसा भोजन शन्ति देने वाला होता है, एसा भोजन शुद्धि देने वाला होता है, एसा भोजन पवित्रता व निरोगता देने वाला होता है , एसा भोजन शक्ति व स्वास्थ्य देने वाला होता है । इस प्रकार हमारा भोजन भी यग्य के रूप में बन जाता है । इस भोजन को करने का उद्देश्य एक मात्र यह ही होता है कि हमारा शरीर शक्ति सम्पन्न व शान्ति से भरपूर हो ।
५. हम शुद्ध हो प्रभु का संगतिकरण करें :-
मन्त्र का उपदेश है कि हम प्रभु से संगतीकरण करें , हम प्रभु का साथ बनावें , हम प्रभु से निकटता बनावें , किन्तु कैसे ? हम प्रभु का संगतिकरण किस प्रकार कर सकते हैं ?, इस पर भी मन्त्र प्रकाश डालते हुए हमें कुछ मार्ग बताता है ।
मन्त्र बता रहा है कि हम सर्व प्रथम अपने को अथवा अपनी आत्मा को शुद्ध करें ,पवित्र करें इस शुद्धता व पवित्रता लाने के लिए यह निश्चित है कि हम अपने प्रयोग में , उपभोग में आने वाले प्रत्येक पदार्थ के प्रयोग के लिए इस भावना को बनाए रखें कि पहले हम ने यग्य करना है तथा फ़िर यग्य शेष को ही अपने लिए प्रयोग करना है । एसा करने से ही तुम्हारी शुद्धि होगी ,एसा करने से ही प्रभु से संगतिकरण होगा । एसा करने से ही उस पिता की संगति , समीपता , निकटता व साथ प्राप्त होगा । हमारे इतिहास पुरुष सदा ही एसा ही करते आये हैं । हमें भी उनका अनुसरण करना है । इस प्रकार के साधनों को अपनाने से जनक ने अनेक सिद्धियां प्राप्त की थीं , हे जीव ! तुम भी एसे ही उपाय करो , जिन से उस प्रभु की निकटता तुम्हें मिल सके ।
६. आत्मशुद्धि के लिए कर्म करो :-
हम ने अपनी आत्म शुद्धि करना है क्योंकि आत्मशुद्धि के बिना प्रभु का सानिध्य प्राप्त नहीं हो सकता । हम जब प्रभु की निकटता पाने का यत्न कर रहे हैं तो हमारे लिए आत्म शुद्धि आवश्यक है । जब तक आत्मशुद्धि नहीं हो जाती, तब तक हम प्रभु के निकट नहीं जा सकते । इस लिए हम यत्न पूर्वक आत्मशुद्धि के कार्यों को , विधियों को , साधनों को अपनाते हैं । जब हम अपने आप को दिव्य कार्यों में लगा देंगे , उतम कार्यों के लिए अपने जीवन को अर्पित कर देंगे तो हमारे अन्दर की सब मलिनताएं , सब दोष , सब गन्दगी धुल जावेगी और हम शुद्ध व पवित्र हो प्रभु का आशीर्वाद पाने के अधिकारी बन जावेंगे । हम जानते हैं कि संसार के जितने भी योगी हुए हैं , वह सदा आत्म शुद्धि के लिए कर्म करते रहे हैं । हम भी इस प्रकार के कर्मों में ही लगें ।
७. प्रभु सब का शोधन करते हैं :-
जब हम प्रयत्न पूर्वक अपना शोधन करने में जुट जाते हैं , जब हम केवल यग्य शेष को ही ग्रहण करते हैं , जब हम परोपकार के कार्यों को अपनाते हैं तो प्रभु कहते हैं कि मेरे लिए फ़िर सम्भव ही नहीं है कि हे जीव ! मैं तुझे दोष मुक्त न कर सकूं अर्थात अब मैं तुझे शुद्ध करता हूं ,पवित्र करता हूं । अब तूं पूर्ण संस्कारित हो चुका है । अब मैं तुझे मेरी संगति में आने का ,मेरे निकट आने का अधिकार देता हूं ।
डा. अशोक आर्य
हम उत्तम मन वाले बनें
हम उत्तम मन वाले बनें
ड. अशोक आर्य
मानव जीवन में वायु , सूर्य तथा जल पवित्रता आने वाले हैं । इस पवित्रता के आरण ही हममएं यग्य की प्रव्रतियां आती हैं । इससे हम में उत्तम रुधिर्तथा रस आदि धातुएं बट कर शरीर को स्व्स्थ रखती हैं तथा हम दिव्य गुणों से युक्त होकर उतम मन वाले बनते हैं । इस व को यजुर्वेद के मन्त्र संख्य १२ में इस प्रकार कहा गया है :-
पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्व: प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण
सूर्यस्य रश्मिधि:। सेवीरापोऽअग्रेपुवोऽग्रंऽइम्म्द्य यग्यं नयताग्रे
यग्य्पति सुधातु यग्यपतिं देवयुवम । यजुर्वेद १.१२ ॥
इस मन्त्र में परमपिता परमात्मा पति और पत्नि को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार उपदेश कर रहे हैं कि :-
१. पवित्र झिवन वाले बनो :-
परिवार का मुक्य केन्द्र पति और पत्नि ही होते हैं । यह दोनों जैसे होंगे आगे आने वाली उनकी प्रजा भी वैसी ही होगी । उतम प्रजा के लिए माता पिता का भी उतम होना आवश्यक होता है । इस लिए मन्त्र यहां से ही अपने उपदेश का आरम्भ करते हुए कह रहा है कि हे इस परिवार के पति व पति ! अर्थात हे माता पिताओ ! तुम दोनों अपने जीवन को पवित्र बनाने वाले बनो । अपने जीवन को पवित्रता से भर लो ।
२.तुम मानस, बौद्धिक तथा शारीरिक उनति प्राप्त करो :-
प्रभु मानव को पवित्र बनने का उपदेश करते हुए दूसरे बिन्दु पर कह रहे हैं कि तुम दोनों विष्णु के उपासक बनो। अर्थात तुम व्यापक रुप से तथा उदार व्रति वाले बनें । जब तक मानव में व्यापकता से उदारता नहीं आती, तब तक वह विष्णु रुप ब्रह्म का उपासक बन ही नहीं सकता । इस लिए ही मन्त्र कह रहा है कि विष्णु की उपासना के लिए व्यापक उदारता अपने अन्दर लावो । विष्णु के समबन्ध मे मन्त्र उपदेश कर रहा है कि विष्णु उन लोगों का साथ देता है जो उसके साथ तीन कदम बटाते हैं । यह तीन कदम बटाने वाले विष्णु को साक्शात कर लेते हैं या यूं कहें कि विष्णु ही बन जाते हैं । यह तीन कदम कौन से हैं ? इन तीन कदमों में प्रथम कदम का नाम है शारीरिक उन्नति , दूसरे का नाम है मानस उन्नति तथा तीसरे कदम का नाम है बोद्धिक उन्नति । जो मानव शारीरिक रुप से स्वस्थ है , जो व्यक्ति मानसिक रुप से भी स्वस्थ है तथा जिसके पास तीव्र बुद्धि है , एसा व्यक्ति संसार के श्रेष्ट लोगों में गिना जाता है तथा उसके सब कार्य सरलता से सिद्ध होते हैं । इस लिए मानव के द्वारा विष्णु की और जाने वाले यह तीन कदम ही उसकी उतमता के , उसकी उन्नति के प्रतीक होते हैं ।
इस बिन्दु को ही आगे बटाते हुए मन्त्र कह रहा है कि तुम दोनों ने प्रयत्न पूर्वक अपने शरीर को स्वस्थ रखा है, अपने मन को निर्मल किया है तथा अपनी बुद्धि को प्रयत्न पूर्वक तीव्र व उज्ज्वल बनाया है । जब तुम ने यह सब करने में सफ़लता पा ली है तो इसका लाभ भी निश्चित रूप से आप को मिलने वाला है ।
३. पवित्र हो उन्नति पथ के पथिक बनें :-
इस मन्त्र में तीसरा उपदेश इस प्रकार दे रहे हैं कि वह प्रभु उत्पादक है । उस ही के कारण इस जगत की उत्पति हुई है । इस उत्पन्न हुए जगत मेम ही तुम भी एक हो । अत: मैं इस जगत के निवासी तु सब को पवित्र करके उन्नति के पथ पर अग्र्सर करता हूं ।
अब प्रश्न उटता है कि प्रभु हमें जो पवित्र करने के लिए , पवित्र बनने के लिए प्रेरित कर रहा है , वह कौन से साधन हैं , जिससे हम पवित्र होते हैं । इस सम्बन्ध में मन्त्र कह रहा है कि :-
क) वायु पवित्रता का साधन है :-
मन्त्र कहता है कि वायु पवित्र होती है क्योंकि अछिद्र व आकाश से रहित होती है प्रभु कहते हैं कि मैं तुझे इस वायु से पवित्र करता हूं । वायु समग्र आकाश में होने से आकाश में एसा कोई स्थान नहीं रहता जहां किंचित भी खाली स्थान हो , इस लिए इस वायु के कारण आकाश में कहीं कोई छिद्र नहीं रहता , तब ही तो यहां वायु को अछिद्र कहा गया है । इतना ही नहीं अपितु यह वायु ही है जो हमारे शरीर में प्रवेश कर हमारे अन्दर आक्सीजन के द्वारा हमारे रक्त को शुद्ध करने का कार्य करती है । जिस का रक्त शुद्ध होता है , वह ही स्वस्थ होता है । इस प्रकार वायु हमारे उतम स्वास्थ्य का साधन है ।
ख) सूर्य भी पवित्रता का साधन है :-
जिस प्रकार वायु हमारे अन्दर पवित्रता , शुद्धता ला कर हमें स्वस्थ करती है , उस प्रकार ही हमारे लिए पवित्रता का दूसरा साधन सूर्य होता है । वह पिता उपदेश करते हुए कह रहा है कि हे जीव ! मैं तुझे सूर्य की किरणों के द्वारा पवित्र करता हूं । सूर्य की किरणों में रोगाणुओं के नाश की अद्भुत शक्ति होती है । यह किरणें जब हमारी छाती पर पडती हैं तो हमारे शरीर में स्थित रोगाणु नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार हमारे अन्दर जो रोग की गन्दगी होती है , यह किरणें उसे धोकर शुद्ध कर देती हैं । इसलिए ही धूप स्नान का उपदेश चिकित्सक देते हैं तथा नवजात शिशु को भी प्रतिदिन धूप में कुछ समय रखने के लिए कहा जाता है ।
ग) जल भी पवित्रता का साधन है :-
जिस प्रकार वायु ओर सूर्य हमें पवित्र करने के साधन हैं , उस प्रकार ही जल भी हमारे लिए पवित्रता लाने का एक अन्य मुख्य साधन है । इस में इन दोनों से भी अधिक दिव्य गुणों से युक्त शक्ति होती है । जल का कार्य है ऊंचे से नीचे को चलना । इस कारण ही यह जल सदा समुद्र की और बटता रहता है । निरन्तर यात्रा में ही रहता है । इस कारण ही यह सब से अधिक पवित्रता लाने का कारण होता है । इस कारण यह जल सब प्रकार के रोगों का औषध होता है ।
इस जल को ही प्रेरित करते हुए प्रभु कहते हैं कि सब को पवित्र करने वाले इस जल से हमारे अन्दर यग्य की भावना बटे । जल का कार्य है पवित्रता लाना । जब हम जल के प्रयोग से अपने को शुद्ध पवित्र कर लेते हैं तो हमारे अन्दर परोपकार की , यग्य की भावना बलवती हो जाती है । अत: यह यग्यीय भावना को बटाने वाला होता है । इस लिए प्रभु कहता है कि इस जल के कारण जो लोग यग्यों को करते हैं , वह इस में जल के ही समान निरन्तरता बनाये रखें । यग्यों को किसी भी व्यवधान के आने पर भी न छोडें तथा यग्यीय जीव निरन्तर उन्नति को प्राप्त करे ।
यग्य में अभ्युदय व निश्रेयस की अपार शक्ति होती है । मन्त्र कहता है कि यह यग्य उसके अर्थात इसे अपनाने वाले जीव के अभ्युदय व नि:शेयस की शक्ति बने , साधक बने । इस यग्य से ही हमारी धातुएं भी पैदा होती हैं तथा बटती हैं । इसलिए कहा है कि यग्य हमारे शरीर की सब धातुओं को दोष रहित रखे , निर्दोष करे । धातुओं की निर्दोषता ही के कारण यह यग्य मनुष्य के जितने भी ग्यात ही नहीं अग्यात रोग हैं , उनसे भी मुक्त करता है । हम जानते हैं कि हमारे शरिर के अनेक रोग , जिनका हमें ग्यान होता है , उनसे मुक्ति के लिए हम तदानुरुप सामग्री आदि की आहुति देकर रोग मुक्त होते हैं किन्तु हमारे शरीर में कई एसे रोग भी विकसित हो रहे होते हैं ,जिन का अभी तक हमें पता ही नहीं होता ,जब तक हमें इन रोगों क पता चलता है तो यह विकराल हो चुके होते हैं । इस प्रकार के रोग , जिनका अभी हमें पता ही नहीं होता कि यह रोग हमारे शरीर में विक्सित हो रहे हैं , इन का भी यग्य के कारण हनन हो जाता है तथा हम रोग मुक्त हो जाते हैं । यह सब जल का ही प्रभाव होता है । इस लिए मन्त्र कह रहा है कि हे जलो ! तुम इस यग्यपति अर्थात प्रतिदिन यग्य करने वाले प्राणी को दिव्य गुणों से संयुक्त करदो , भर दो ।
डा. अशोक आर्य