Category Archives: वेद मंत्र

प्रभु दान देने वाले का कल्याण करते हैं

प्रभु दान देने वाले का कल्याण करते हैं
डा.अशोक आर्य
परम पिता परमात्मा सदा ही दानदाता का कल्याण करते हैं , जो देता है, जो देव है , उसका वह प्रभु कल्याण करते हैं । यह ही प्रभु क सत्य है , यह ही प्रभु का व्रत है , यह ही प्रतिज्ञा है । इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुये मन्त्र उपदेश कर रहा है : _
यदन्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत सत्यमन्गिर: ॥ रिग्वेद १.१.६ ॥
हे सब व्स्तुओं के दाता, सब वस्तुओं को प्राप्त कराने वाले पिता,सब के अग्रणी, सब से आगे रहने वाले प्रभु ! धन देव तथा आप की प्रार्थना एक साथ नहीं की जा सकती । यह नियम तो आप ही ने बनाया है कि दाता की सदा प्रार्थना करो । प्रार्थना से ही दाता देता है । जब हम दाता से कुछ मांगते हीनहीं तो दाता को क्या पता की आप को किस वस्तु की इच्छा है , वह आप की इच्छा कैसे पूरा करेगा ? अत: आप के बनाये गये नियम के अनुरूप हम दाता से , दाश्वान से मांगते है, कुछ पाने के लिये प्रार्थना करते हैं । दात, देव अथवा दान देने वाला भी हमारे लिये दाता है तथा आप सब से बडे दाता है । हम किस को अपना अर्पण करें ? जो धन देने वाला दाता है, उसे अथवा आप के प्रति अपना अर्पण करें । दोनों के समीप एक साथ तो बैठा नहीं जा सकता । एसा सम्भव ही नहीं है ।
हे पिता ! आप कल्याण करने वाले हैं । आप ही हमारे लिये वित की व्यवस्था करने वाले हैं , आप ही हमारे लिये घर की , निवास की व्यवस्था करते हैं , आप ही हमारे लिये पशु आदि, धनादि रुप में सब प्रकार के भद्र पदार्थ देने वाले हैं । इस प्रकार आप का यह नियम निश्चय ही सत्य है , आप के इस नियम के द्वारा हमारे उन दाश्वान् के अंगों में मधुर रसों का संचार करने वाले आप ही तो हैं । सब अंग – प्रत्यंगों में जीवनीय शक्ति, जीवनीय रसों का संचार करते हुये आप ही वास्तव में इन अंगों में सब रसों का संचार करने वाले , प्रवाह करने वाले हैं । अत: आप ही जीवन दाता हैं, जीवन देने वाले हैं ।
जब एक नन्हा सा बालक अपने आपको पूरी तरह से अपने ही माता पिता के अर्पण कर देता है , अपनी इच्छाओं को अपने माता पिता की इच्छाओं से मिला लेता है । अब माता पिता की इच्छा ही उस बालक की इच्छा बन जाती है । एसी अवस्था में एसे बालक का माता पिता अपने से भी अधिक अपने इस बालक का ध्यान रखते हैं । इस प्रकार की उत्तम भावना से वह अपने इस बालक का उत्तम निर्माण करते हैं । ठीक इस प्रकार ही जब एक दश्वान व्यक्ति उस पिता के प्रति स्वयं को समर्पित कर देता है ,अर्पण कर देता है तो बालक के माता पिता के ही समान प्रभु भी उसे अत्यधिक प्रिय मानते हैं । अत:वह पिता भी हमें सब प्रकार की अभ्युदय कारक , आगे बढाने वाली वस्तुएं, उन्नत कराने वाली वस्तुएं स्वयमेव ही उपलब्ध कराते हैं ।
जीव अल्पबुद्धि होता है । जीव की इस अल्पज्ञता के कारण जीव अपने द्वारा धारण किया कोइ व्रत भूल भी जावे ,उससे कोई व्रत टूट भी जावे तो भी परम पिता का व्रत उसके पूर्ण ग्यान के कारण टूट नहीं पाता । यह तो हम जानते हैं कि जीव अल्पज्ञ है । इस अल्पज्ञता के कारण अनेक बार कोई गल्त वस्तु भी दे देता है किन्तु हमारा वह प्रभु तो पूर्ण है । अपनी पूर्णता के कारण उससे कभी कोई भूल सम्भव ही नहीं है । अत: वह सदैव ठीक ही करता है तथा ठीक वस्तु ही देता है ।

डा.अशोक आर्य

हम प्राण – अपान की साधना से सुरूप बनें

हम प्राण – अपान की साधना से सुरूप बनें
डा. अशोक आर्य
रिग्वेद के प्रथम मण्डल का दूसरा सूक्त मित्रा वरुणा की आराधना के साथ समाप्त होता है । मित्रा से भाव प्राण अथवा प्राणशक्ति तथा वरुणा से भाव अपानशक्ति होने से यह सूक्त प्राण अपान अर्थात प्राणायाम अर्थात सांस की क्रिया से सम्बन्ध रखता है तथ्गा नित्य प्राणायाम करने की प्रेरणा देते हुए समाप्त होता है।
जिस मनुष्य में प्राण शक्ति है , वह ही जीवित माना जाता है किन्तु मन्त्र की भावना है कि प्राणशक्ति होन पर मनुश्य मित्र व स्नेह की व्रिति वाला होता है । यह सत्य भी है , जिसमं जीवन है , वह किसी स स्न्ह भी कर्गा तथा मित्रता भी कर्गा किन्तु यै जीवनीय शक्ति ही नहीं है क्वल शरीर
मात्र है , लाश्मात्र है तो वह्न तो किसी स स्न्हिल व्यवहार ही कर सकता ह तथा न ही किसी स मैत्री की ही क्शमता उस मं होती है ।
जब मानव की अपान शक्ति टीक से कार्य करती है तो मानव के अन्दर से दूसरों क प्रति जो द्वेष की भावना होती है , वह उससे निकल कर दूर हो जाती है । कोष्ट्बधता की व्रितिवाले लोग ईर्ष्यालु , द्वेषी तथा चिडचिडे स्वभाव वाले हो जाते हैं । साधारण भाषा में कोष्ट्बद्धता को हम कब्ज के रूप में जानते हैं । जिस व्यक्ति को कब्ज होती है , उसका व्यवहार इन सब दोषों को अपने अन्दर स्मेट लेता है । न तो उसे भूख ही लगती है न ही बातचीत अथवा लोक व्यवहार की कोई क्रिति वह कर पाता है । बस प्रत्येक क्शण उसके अन्दर दूसरों से द्वेष , बात बात पर चिटना तथा इर्ष्या की सी भावना उसमें दिखाई देती रहती है । जब उसकी यह कब्ज दूर हो जाती है तो हंस मुख चेहरे के साथ दूसरों का शुभचिन्तक हो कर खुश रहता है ।
अत: जब मानव निरन्तर अपने प्राण तथा अपान की साधना करता है तो उसमें शुभ व्रितियों का उदय होता है । अब वह सब का भला चाहने वाला बन जाता है । स्वयं भी खुश रहता है तथा अन्यों के लिए भी खुशी का कारण बनता है । इस लिए प्राणापान की निरन्तर साधना से मानव में शुभ व्रितियों का उदय होता है ।
प्राणापान साधना के जो फ़ल हमें दिखाई देते हैं , विभिन्न मन्त्रों के माध्यम से वह इस प्रकार हैं :-
१.
प्राणापान की साधना से हमारे अन्दर की सब अशुभ वासनाएं , अशुभ व्रित्तियां दूर हो जाती हैं तथा हम स्वच्छ , पवित्र हो जाते हैं ।
३.
पवित्र मानव ही प्रभु से साक्शात्कार करने के योग्य बनता है । अत: अशुभ व्रितियों के दूर होने से उसे प्रभु से साक्शात करने की शक्ति आ जाती है ।
४.
पवित्र व्यक्ति अपनी पवित्रता को बनाए रखने के लिए व्यर्थ के कार्यों में अपना समय नष्ट नहीं करना चाहता ,एसा करने से तो उसकी पवित्रता के ही समाप्त होने का खतरा बना रहता है । जब वह अपने समय को व्यर्थ के कार्यों में नष्ट नहीं करता तो इस समय का कहीं तो सदुपयोग करना
ही होता है । अत: वह दिव्यगुणों को पाने व बटाने में इस समय का सदुपयोग करता है , जिससे उसमें दिव्यगुण का ओर भी आधिक्य हो जाता है ।
७.
अब उसको इन दिव्यगुणों की प्राप्ती की एक ललक सी ही लग जाती है , वह इन्हें पाने का ओर अधिक यत्न करना चाहता है ताकि वह निरन्तर अपने इन गुणॊं को बटाता रह सके । इस निमित वह ग्यान पाना चाहता है , सरस्वती का आराधक बन जाता है । अब वह ग्यान का सच्चा पुजारी बन जाता है तथा अपने जो भी कार्य वह करता है , वह उसके ग्यान पाने के साधक ही होते हैं ।
१०.
जब वह सरस्वती की निरन्तर आराधना करने लगता है तथा वह उस ग्यान स्वरुप परम एश्वर्य से युक्त प्रभु की उपासना करता है , उससे समीपता बनाता है , उसके पास बैटने लगता है तो वह सुरूप हो जाता है , सुरुपता के सब गुण उस में आ जाते हैं ।
सूक्त संख्या तीन में बताए कार्यों को कर सके । अत: आओ हम रिग्वेद के प्रथम मण्ड्ल के इस सूक्त तीन पर चिन्तन करें, विचार करे इसका स्वाध्याय करें |

डा. अशोक आर्य

हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें

हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें
परम पिता परमात्मा होता, कविकृतु , सत्य तथा चित्रश्रवस्तम व देव हैं । उन्हें प्राप्त करने के लिये हमें दिव्यगुणों को ग्रहण करना होता है । जैसे जैसे तथा जितना जितना हम प्रभु को , उस पिता को धारण करने का यत्न करते हैं , उतना उतना ही हम दिव्यगुणों वाले होते चले जाते हैं । इस मन्त्र में इस बात पर ही प्रकाश डालते हुये इस प्रकार व्याख्यान किया है : –
अग्निर्होता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: ।
देवो देवेभिरा गमत । ऋग्वेद १.१.५ ॥
१. गत मन्त्र की भावना अनुरूप ही यह मन्त्र भी कहता है कि संसार में जितने प्रकार के भी यग्य आदि कार्य होते हैं , उनको करने वाले वह देव ही होते हैं , जो सब को गति देने वाले हैं, जिन्हें हम प्रभु के नाम से जानते हैं । हम तो मात्र इन यग्यों को करने के माध्यम मात्र ही होते हैं , वह भी तब जब हम पर उस प्रभु की क्रिपा हो जाती है, उस प्रभु का जब हमें आशीर्वाद मिल जाता है , तब ही तो हम इन सब यग्यों को पूर्ण होता हुआ देख पाते है । यह स्रिष्टि भी एक प्रकार का यग्य ही तो है । इस यग्य के होता, इस यज्ञ को करने वाले तो स्वयं वह पिता ही हैं , इस तथ्य को तो हम सब लोग भली प्रकार से जानते हैं , इस सब से तो हम स्पष्ट रूप से तथा भली भान्ति से परीचित हैं ।
२. यह मन्त्र जो दूसरा उपदेश हमें दे रहा है , वह है – वह पिता कविकृतु हैं अर्थात वह पिता क्रान्तदर्शी हैं । क्रान्तदर्शी होने के कारण वह प्रभु सब कामों को करने वाले हैं । चाहे हम कविकृतु कहें, चाहे हम क्रान्तदर्शी कहें , भाव यह ही है कि वह पिता सब प्रकार के कामों को करने वाले हैं , कारण हैं क्योंकि वह पिता ही सब कामों को करने वाले होते है , इस कारण ही सृष्टी आदि कार्य जिन्हें उस पिता ने किया है , उनमें कहीं कोइ न्यूनता नहीं दिखाई देती , यह सब कार्य कहीं अपूर्ण नहीं होते , पूर्णतया पूर्ण ही होते है । जब हमारे वह पिता पूर्ण हैं तो उनके द्वारा ही किया गया यह कार्य , जिसे हम स्रिष्टी कहते हैं, वह अपूर्ण कैसे हो सकती है ? अत: यह सृष्टी रुपी यह यज्ञ भी पूर्ण है ।
अनेक बार हमें अपनी ही अज्ञानता के कारण इस सृष्टी में कुछ न्यूनतायें दिखाई देती हैं , एसा हम अनुभव करते हैं । जैसे अनेक बार जब हम भूकम्पों का प्रकोप देखते हैं , तो उस पिता को कोसने लगते हैं । हमारे शरीर में अनेक प्रकार की अनेक ग्रन्थियां हैं । उस पिता ने इन का निर्माण किसी विशेष प्रयोजन से किया होगा किन्तु हम अपने ज्ञान की कमी से इन में से कुछ ग्रन्थियों को निष्प्रयोजन मान लेते हैं । इस संसार में अनेक प्राणी एसे हैं , जिनके विषय में हमें कुछ भी जानकारी नहीं है , अनेक वनस्पतियां एसी हैं , जिनके उप्योग के सम्बन्ध में हम कुछ भी ग्यान नहीं रखते । हम अपने बचपन में जो थोडा सा जानते थे, वह बटते बटते , आज हम काफ़ी आगे निकल गये हैं । आज हमे अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर हमारे अपने ही बाल्यकाल से कहीं अधिक ज्ञान है । अत: हम यह नहीं कह सकते कि जिसे हम नहीं जानते, वह ह ही नहीं । जैसे जैसे हम इन सब को जानते जावेंगे, इनके उपयोग को समझते जावेंगे, त्यों त्यों ही हमारा ज्ञान भी बढता ही चला जावेगा । जितना हम जान लेंगे, उतना संसार हमें पूर्ण दिखायी देगा, शेष को हम जानने का यत्न करते रहेंगे ।
हमारे परमपिता परमात्मा सत्य हैं । उन्हें हम सत्य स्वरूप के रुप में जानते हैं । हम यह भी मानते हैं कि जितने भी सज्जन लोग हैं , उनमें उस पिता का ही निवास है । सर्व व्यापक होने के नाते वह पिता सब जगह रह्ते हैं किन्तु फ़िर भी मन्त्र बता रहा है कि वह पिता सज्जनों के ह्रिदय में निवास करते हैं । भाव यह है कि वह पिता सर्व व्यापक होते हुये भी सज्जन लोगों के ह्रिदय को प्रकाशित करते हैं , सज्जन लोगों के अन्दर ही ज्ञान का प्रकाश वह प्रभु करते हैं ।
उस पिता द्वारा जब सृष्टी की उत्पति की जाती है तो आरम्भ मे प्राणी को ग्यान की आवशकता होती है क्योंकि इस समय उसे ज्ञान देने वाला अन्य कोइ नहीं होता । अत: उस परमपिता परमात्मा ने स्रिष्टी के आरम्भ मे प्राणी को वेद का ग्यान दिया । जिस प्रकार हम आज स्कूल , कालेज अथवा गुरूकुल ,में जा कर ज्ञान प्राप्त करते हैं , प्रभु उस प्रकार से ग्यान नहीं देता । उसका ग्यान देने का ढग भी अद्भुत ही है । हम जानते हैं कि वह सर्वव्यापक प्रभु सर्वव्यापक होने के कारण ही हमारे अन्दर ही नहीं हमारे हृदय में भी निवास करता है । इस प्रकार हृदयस्त होने से , बिना किसी अन्य यत्न के हमारे पवित्र हृदयों को प्रकाशित कर देते हैं । अपने ज्ञान के कारण वह प्रभू अत्यन्त कीर्तिमान से युक्त हैं । दूसरे श्ब्दों में वह प्रभु सर्वाधिक ज्ञान वाले हैं , ग्यान के भण्डारी हैं । इस लिये ही तो उन्हें निरतिशय ज्ञान के अधिष्ठाता माना गया है ।
(क) पभु गुणों के साथ आते हैं :-
वह प्रभु सब देवताओं के,जो सब गुणों के पुन्ज रुप होते हैं , के साथ हमारे पास आते हैं । इसका भाव यह है कि उस प्रभु का निवास हमारे ह्रिदयों में होता है । उस प्रभु का निवास होने के कारण हृदय में ही बैठे हुये वह प्रभु हमे सब प्रकार के दिव्यगुणों से स्वयमेव ही भरता चला जाता है । इस प्रकार यह दिव्य गुण हममें स्वय्मेव ही प्रादुर्भूत हो जाते हैं ।
(ख) प्रभु दिव्य गुणों वालों का साथी :-
अथवा हम यूं भी कह सकते हैं कि इन दिव्यगुणों के कारण ही वह पिता हम मे आते हैं । इस सब का भाव यह ही है कि उस पिता को पाने के लिये हम अपने आचरण को देवों के समान उत्तम बनावे , हमारे व्यवहार भी देवों के समान ही हों, आसुरी प्रव्रिति हमारे व्यवहार में किन्चित भी न हो । प्रभु दिव्य गुणों वालों के पास ही रहता है, निवास करता है । अत: हम जितना जितना दिव्यता को दिव्य गुणॊं को अपनायेंगे, उतना उतना ही उस पिता के समीप होते चले जावेंगे । दाश्वान का कल्याण ही प्रभु का सत्य व्रत है |

डा.अशोक आर्य

प्रभु का दर्शन कैसे करें

ओ३म
प्रभु का दर्शन कैसे करें
डा. अशोक आर्य
संसार का पत्येक प्राणी अपना जीवन सुखी बनाने के लिये प[रभु को पाना चाहता है । वह जानता है कि सुखुस को ही मिलता है , जो प्रभु का आशिर्वाद प्राप्त कर ले, प्रभु का साक्शात्कार कर ले । प्रभु को पाने का सही साधन यह है कि ग्यानि लोग चिन्तन करके स्वयं को प्रक्रिति कि उलझनों से ऊपर उथा कर , उस पर्मपिता पर्मात्मा क न केवल स्वयं डाशःआण कर पाने मेइन सफ़लता पाते हैं अपितु दूसरों को भी प्रभु के दर्शन करवाते हैं , दुसरों क जीवन भी सुखी बनाते हैं । इस तथ्य को सामवेद के मन्त्र संख्या ३१ मेइन इस्प्रकार स्पश्ट किया गया है : –
उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतव: ।
दृशे विश्वाय सुर्यम ॥सामवेद ३१ ॥
मानव जीवन में अनेक कर्म करता है । इन में कुछ कर्म उत्तम होन्गे तो अधिकांश प्तित होंगे । यह पतित कर्म ही होते हैं , जिनके कारण मानव को जीवन मेइन अनेक रकार के कश्टों क सामना कराना पड्ता है । यह्कश्ट ही( उसे इस्वर की शर्ण मेइण ले जाते हैं । खा भी है कि : –
दु:ख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे , दु:ख काहे को होय।॥
जीव प्रभु के पास स्वयं को अर्पण करना चाहता है किन्तु कैओसे करे अर्पण तो उसी को ही किया जा सकता है, जो दिखायी दे, जो दिखायी ही न दे , उसे कैसे अर्पण करें ? जब प्रभु दिखेगा, तब ही तो उसे अपने कश्ट अर्पण करेगा । अत: प्रभु क दर्शन , उसे कुछ भी अर्पित करने केलिये आवशय्क है ।
मानव तुं उपर उठ : –
प्रकृतिक भोगों में उलझी अवस्था में जीव प्रभु के दर्शन कभी नहीं कर सकता । हम जानते हैं कि जीव सुख चाह्ता है किन्तु उसने प्रक्रितिक भोगों को ही सुख का साधन समझ रखा है , इस कारण वह सद इन भोगों में ही सदा उलझा रहता है , इस कारण प्रभु दर्शन से निरन्तर दूर होता चला जा रहा है । जब तक हमें दुनियां के रंगओं में हमारी आंखें उलझ रही हैं तब तक हमें प्रभु दर्शन क प्रभु कथा का कोई भी प्रसंग हमारे कानों में नहीं पड सकता । हम भोगों में लिप्त हैं । हमारे पास प्रभु स्मरण का समय ही नहीं तो फ़िर प्रभु दर्शन की अभिलाशा ही क्यों रखते हैं ? सांसारिक रंगों में उलझने से तो हम सांसारिक वस्तुएं ही पा सकते हैं । यदि प्रभु के दर्शन करने हैं तो उपाय भी तो प्रभु स्तुति के ही करने होंगे । अन्यथा उसके दर्शन कैसे मिलेंगे । इस लिये हम अपने जीवन में एक बार यह निर्णय कर लें कि प्रभु के दर्शन राग – द्वेश से होंगे या फ़िर किसी अन्य उपाय से । एक बार पूर्ण ग्यान पुर्वक विचार कर कुछ निर्णय लेने के पशचात फ़िर बेकार के राग द्वेश से परिपुर्ण विषयों पर समय नष्ट करना अथवा अपनी शक्ति लगाने क कुछ भी प्रयोजन नहीं रह जाता । जिस दिन हम इस भ्रान्ति से उपर उथ जावेंगे , जिस दिन हम गल्तियां छोड्कर ऊपर उठ जावेंगे, जिस दिन प्रभु दर्शन के लिये हम गम्भीर विचार कर लेंगे तथा जिस दिन हम प्रकृति कि उलझनों से निकल जावेंगे , उस दिन से ही हम उस दूर दिखाई देने वाले , सब स्थानों पर विद्यमान , प्रत्येक वस्तु के प्रत्येक कण में विद्यमान , ज्ञान की अग्नि से प्रकाशित तथा सब को प्रकाशित करने वाले को ज्ञानी लोग विचारशील हो कर धारण करते हैं ।
परमपिता परमात्मा संसार के कण कण में होने के कारण हमारे हृदयों में भी निवास करता है । , परन्तु ज्ञान के अभाव में उस की सत्ता को हम समझ नहीं पाते , उसके दर्शन नहीं कर पाते । हाँ जब हम अपने अन्दर ज्ञान की ज्योति जगा लेते हैं , ज्ञानशील बन जाते हैं तथा ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं तो हमुस प्रभु को अपने अन्दर धारण करते हैं स्थापित करते हैं ।
प्रभु ज्ञान को अन्यों में भी बांटते हैं : –
ज्ञानी विद्वान लोग अपनी ज्ञान की ज्योति के माध्यम से प्रभु के दर्शन कर लेते हैं , उसे पा लेते हैं तो वह इतने स्वार्थी नहीं होते कि इस रस क पान वह अकेले ह्जी कर लें अपितु अन्यों में भीइओसे बांट्ने क सुप्रयास आर्म्भ कर देते हैं । संसार के जीव इस प्रकार भटक रहे होते हैं जिस प्रकार जंगल में हिंसक पशु । इन्हें सुपथ पर लाने के लिये , इन्हें भी प्रभु के दर्शन कराने का यत्न ज्ञानी लोग करते हैं । इस प्रकार परमानन्द की प्राप्ति के पश्चात भी वह स्वार्थ भावना से ऊपर उठ कर अन्यों का मार्ग द्र्शन भी करते हैं । इस से यह प्र\मानित होता है कि यह सब लोग स्वार्थ भावना से बहुत दूर होते हैं । इस कारण ही यह लोग मूर्खता से अथवा मूर्खतापूर्ण कार्यो से भी दूर होते हैं ।

ड. अशोक आर्य

हे प्रभु ! हमारी बुद्धि सन्मार्ग पर चला

ओउम
हे प्रभु ! हमारी बुद्धि सन्मार्ग पर चला
डा. अशोक आर्य
संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है | प्रत्येक प्राणी अपने में ज्ञान का भंडार भरना चाहता है | अच्छा व्यवहार चाहता है | अपना कल्याण चाहता है | यह सब परम पिता परमात्मा के आशीर्वाद से ही संभव है | पिता के इस आशीर्वाद को ही प्राप्त , करना मानव जीवन में सब का प्रयास रहता है | इस के लिए सन्मार्ग पर चलना आवश्यक है जो सन्मार्ग पर चलता है , उसे प्रभु का आशीर्वाद अवश्य ही मिलता है | चारों वेद के विभिन्न गायत्री मन्त्र में इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए इस प्रकार कहा गया है : –
॥ओउम॥ भूर्भुव:स्व: | तत सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि |
धियो यो न प्रचोदयात || : ऋग.३.६२.१० , यजु .३६.३,३.३५, ३०.२,२२.९ साम . १४६२ तथा तैति आर. १.११.२ तैति .१.५.६.४ , ४.१.११.१ ||
जो सच्चिदानंद स्वरूप , संसार के उत्पादक ,देव, परमात्मा का सर्वोत्कृष्ट तेज है उसे हम धारण करते हैं | वही परमात्मा हमारी बुद्धि को उतम कर्मों में प्रेरित करे |
आस्तिकता तथा बुधि की शुद्धता इन दो बातों की आस्तिक होने के लिए आवश्यकता होती है | दोनों की ही सिद्धि गायत्री मन्त्र करता है | गायत्री का अर्थ गय और गाय दिया गया है जिसका भाव है – प्राण | शत पथ ब्राह्मण में इस प्रकार दिया है : -प्राणा वै गया: ( श.ब्रा.१४.८.१५.७ ) गया: प्राणा: ,गया: एव गाया: तान त्रायते इति गायत्री | इसमें गाय या प्राणों की रक्षा करने वाले को गायत्री बताया है | यही कारण है कि गायत्री मन्त्र के जप से प्राणशक्ति बढती है | इस के साथ ही गायत्री के जप से शारीरिक व बौद्धिक दुर्बलता भी दूर होती है | इतना ही नहीं गायत्री को सावित्री भी कहा है | सावित्री का सविता arthat सूर्य या ब्रह्मा से संबध होने से ही यह सावित्री कहलाया है क्योंकि इस मन्त्र के जप से सौर शक्ति उत्पन्न होती है |
इतने से ही सपष्ट होता है कि जो व्यक्ति अपने अन्दर बौधिक विकास की अभिलाषा रखता है , जोव्यक्ति अपने शरीर को सशक्त रखना चाहता है , जो अपने में सूर्यवत तेजस्विता चाहता है , उसके लिए गायत्री का जप अत्यंत उपयोगी है | बिना गायत्री जप के इस सब में से कुछ भी प्राप्त कर पाना संभव नहीं है |
तैतिरीय ब्राम्हण में तो गायत्री को ब्रह्म वर्चस भी बताया है | इस का भाव है कि गायत्री ही ब्रह्मतेज है | अत: जो व्यक्ति गायत्री का नियमित जप करता है वह ब्रह्मतेज को भी पा लेता है | यह ब्रह्म वर्चस ही है , जिससे व्यक्ति संयमी ,मनोंइग्रही तथा जितेन्द्रिय बनता है | अत: जिसने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने की इच्छा सिंजो रक्खी है , जो अपने जीवन में संयम को धारण करना चाहता है अथवा जो मनोनिग्रह की कामना रखता है , उसके लिए गायत्री का जाप आवश्यक व उपयोगी है | तभी तो तान्द्य ब्राह्मण में ” वीर्यं वै गायत्री ” कहा गया है |
यदि हम गायत्री मन्त्र की पंक्तियों को देखते हैं तो हमें स्पष्ट दिखाई देता है कि गायत्री के तीन भाग हैं :-
(१) महाव्याह्रति :-
गायत्री में ओउम भूर्भुव: स्व: | , यह प्रथम पंक्ति है | इसे ही इस मन्त्र का प्रार\थम भाग कहा गया है | इस भाग मैं परमात्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में बताया गया है | मन्त्र का यह भाग बताता है कि हमारा उत्पादक परमात्मा सत, चित और आनंद स्वरूप है | यह आनन्द ही तो है जिस को प्राप्त करने का प्रयास मानव जीवन भर करता रहता है यह ही उस का ध्येय है , अन्तिम लक्ष्य है |
(२) तत से लेकर धीमहि तक के गायत्री खंड को मन्त्र के दूसरे भाग स्वरूप लिया जाता है | इस का भाव है कि जो आनन्द का वर्णन प्रथम भाग में किया है , उस आनन्द को पाने के लिए परमात्मा के तेज को , परमात्मा की ज्योति को ह्रदय में धारण करना होगा | इस ज्योति को जब तक हम अपने ह्रदय में धारण नहीं करते तब तक ज्ञान की शक्ति ही उद्बुद्ध नहीं होगी , ज्ञान की शक्ति का हमारे अंदर यदि है ही नहीं तो आनन्द ,सुख कैसे होगा | बुद्धि तब ही शुद्ध होती है जब हमें पिता पर पूर्ण विशवास हो ,जिसे आस्तिकता कहा गया है , हम आस्तिक हों, ईश विश्वासी हों और ईश की सर्वव्यापकता पर विशवास रखते हों | इस प्रकार मन्त्र का यह दूसरा भाग आत्मिकता और आत्मिक शक्ति को उत्पन्न करने का साधन है | जब तक हम यह शक्ति उदित नहीं कर लेते तब तक प्रभु का स्नेह नहीं पा सकते |
(३) मन्त्र का शेष भाग – धियो ……….. दयात ,इस| के तृतीय भाग स्वरूप है | इस भाग में मन्त्र जप का फ़ल बताया गया है | यह भाग हमें बताता है कि पिता को ह्रदय में धारण करने से उस प्रभु का प्रकाश बुद्धि को शुद्ध करता है | शुद्ध बुद्धि स्वयं ही उतम मार्ग की अनुगामी होने से सन्मार्ग पर चलती है | बुद्धि कुमार्ग को , अकर्तव्य पथ को त्याग कर सन्मार्ग या सुपथ या कर्तव्य पथ पर चलने लगती है | जब बुद्धि सन्मार्ग पर चलती है तो मानव जीवन सुखों से भर जाता है | अत: सुखों के अभिलाषी प्राणी के लिए आवश्यक है कि वह सन्मार्ग पर चले ,जिसे पाने के लिए गायत्री का निरन्तर जाप करे |
डा. अशोक आर्य

प्रभु स्मरण के सात लाभ होते हैं

ओउम
प्रभु स्मरण के सात लाभ होते हैं
डा अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा हम सब का ,जन्मदाता है वही हम सब का पालन करता है , वही हम सब का पौषण करता है तथा वह प्रभु ही हम सब का संहार अर्थात मोक्षदाता है । भाव यह है कि हमारे जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत हमारा सब कुछ करने वाला वह प्रभु ही है । हम उसके आदेश के एक कदम भी अलग से नहीं चल सकते । जब हम उस प्रभु के आदेशके बिना
चार साधन है मोक्ष पाने के लिए
संसार का प्रत्येक प्राणी मोक्ष पाने की इचछ रखता है । यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है कि प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है । परंम सुख है जन्म मरण के बंधन से मुक्ति । इस बंधन से छुटने पर ही परम सुख मिलता है । इसलिए सब प्राणी जन्म मरण के बंधन से छुट कर मुक्ति पाने की कामना करते है । कामना तो सब करते हैं किन्तु इस मुक्ति के मार्ग को पाने के लिए जो उपाय बताये गए हैं , उनको करने का यत्न नहीं करते , उन पर चलने की प्रेरणा भी उनमें नहीं होती । परमपिता परमात्मा ने जीव को कर्म करने की स्वतंत्रता दी है । अत: कुछ कर्म हैं जिन के किये बिना मुक्ति का मार्ग नहीं मिल सकता । यह कर्म कौन से हैं , इन का वर्णन सामवेद के मन्त्र संख्या 51 में विस्तार से किया गया है । जो इस प्रकार है : –
प्र दैवोदासो अग्निर्देव इन्द्रो न मज्मना ।
अनु मातरं पृथिवी वि वाव्रते तस्थो नाकस्य शर्मणि ।।सामवेद 51 ।।
मानव अथवा जीव इस धरती पर जन्म लेकर अनेक प्रकार के कर्म करता है । अपने कर्म करने के पश्चात वह मृत्यु को प्राप्त होकर यहाँ से लौट जाता है । यहं से लौटने के पश्चात वह मोक्ष में जा कर वहां के सुखमय जीवन को प्राप्त करता है ।
मन्त्र का अंतिम भाग अथवा उतरार्ध भाग ऊपर वर्णित के अनुरूप स्पष्ट करते हुए कहता है कि इस पृथ्वी पर जीव का निवास कभी भी स्थायी न हो कर सदा अस्थायी ही होता है । अत: यहाँ से उसे निश्चित रूप से लौटना ही होता है । जैसे कोई मनुष्य प्रात:काल उठकर स्कुल पढ़ने को जाता है , तो कोई पढाने को, कोई कार्यालय में काम करने को जाता है तो कोई कार्यालय से अपना काम निकलवाने को । इस प्रकार संसार के सब प्राणी अपने निश्चित कार्य के लिए घर से बाहर जाते है । यदि किसी को कोई अन्य कार्य नहीं है तो वह भ्रमण के लिए ही चला जाता है किन्तु अपने निर्धारित कार्य की पूर्ति के पश्चात वह अपने घर अथवा अपने निवास पर लौट आते हैं , बाहर ही नहीं रह जाते । ठीक इस प्रकार ही परमपिता परमात्मा ने हमें इस पृथ्वी पर भेजा है । यह हमारा अस्थायी निवास है । परमात्मा ने हमें यहाँ कुछ समय के लिए अस्थायी रूप से भेजा है । इस लिए यहाँ से हमारा लौटना निश्चित है । हमारा स्थायी निवास तो उस पिता के चरणों में है, जिसे ब्रह्मलोक कहते हैं । हम ने जो यात्रा की है , जो कर्म किये हैं , उनके परिणाम स्वरूप हम यात्रा के, कर्म के कष्टों को सहने के परिणाम स्वरूप मोक्ष पाते हैं तथा फिर पूर्ण सुख व आनंद से रहते हैं ।
यह जीवन एक यात्रा है तथा यात्रा के भी अपने कुछ नियम होते हैं, कुछ सिद्धांत होते हैं , यात्री को इन नियमों का , इन सिद्धांतों का यात्रा के समय ध्यान रखना होता है । यह नियम दो प्रकार के होते हैं : –
!) यात्रा पर निकलने वाले व्यक्ति को यह ध्यान रखना होता है कि किस प्रकार से वह निकले कि उसकी यात्रा सरल , सुगम व सफल हो । इस के लिए उसे देखना होता है कि वह किस प्रकार के साधन अपना कर यात्रा करे कि उसे मार्ग में कम से कम कष्ट हों तथा मार्ग सफलता से कट जावे । उसे पता होना चाहिए कि अत्यधिक बोझ उसे थका देगा , वह सरलता से नहीं चल पावेगा । यह भी हो सकता है कि अति बोझ के कारण उसे मार्ग से ही लौटना पड जावे अथवा मार्ग में रुक रुक कर यात्रा करनी पड़े , जिस से यथा समय वह अपने गंतव्य पर न पहुँच सकेगा । इसलिए वह अपनी यात्रा में कम से कम बोझ अथवा सामान रखने का यत्न करता है । हमारा जीवन भी एक यात्रा है । अत: यह यात्रा भी कर्म के ताने बाने में बंधी है । इस यात्रा के मार्ग में हमारी आसुरी प्रवृतिया , काम , क्रोध आदि दुरित वासनाएं आदि बोझ हैं जो हमें इस जीवन यात्रा पर सुगमता से आगे नहीं बढ़ने देते । इन सब प्रकार के बोझों को अपने कर्मों के द्वारा कम करते हुए हम तेजी से अपने गंतव्य अर्थात मोक्ष मार्ग पर बढें । यह मोक्ष ही हमारा स्थायी निवास है , जहाँ हमें लौटना है ।
2) यात्रा में सदा आराम नहीं होता, अनेक प्रकार के कष्ट भी इस यात्रा में सहन करने होते हैं । कहीं स्नान की व्यवस्था नहीं तो कहीं नाश्ता नहीं मिलता, कहीं भोजन नहीं तो कहीं जलपान के बिना ही रहना होता है । इस प्रकार यात्रा में कई प्रकार की कठिनाईयों का सामना यात्री को करना होता है । तो भी यात्री किसी प्रकार अपना गुजारा करते हुए अपनी यात्रा की पूर्ति करता है । इस प्रकार ही हमारी जीवन यात्रा में हमारा ध्येय आराम न हो कर कर्म होना चाहिए । वास्तव में ध्येय तो हमारा मोक्ष है , ध्येय के साधन हैं कर्म । अत: अपने जीवन में हम सदा निर्माणात्मक कर्म करते हुए निरंतर मोक्ष मार्ग पर चलते चलें , तब तक चलते चलें , जब तक कि हमें हमारे ध्येय अर्थात मोक्ष को न पा लें । हमारा मोक्ष स्थान तो ब्रह्मलोक ही है । यही हमारा अंतिम निवास है । इस स्थान पर पहुँचने के निर्धारित साधन निम्न हैं , जिन साधनों को अपना कर ही हम इस उद्देश्य की पूर्ति कर सकते हैं : –
क ) प्रभु का सेवक बनकर : –
ख ) आगे ले जाने वाला बने : –
ग ) खेल भावना से कर्म करें : –

कुछ भी नहीं कर सकते तो हमारे भी उस प्रभु के प्रति कुछ कर्त्तव्य बनते हैं । उन कर्तव्यों का पालन करना हमारा पुनीत कर्तव्य होता है । यदि हम अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते तो हम प्रभु के पुत्र कहलाने का अधिकार भी नहीं रखते । इन कर्तव्यों में प्रभु की स्तुति करना, प्रभु की प्रार्थना करना तथा प्रभु की उपासना करना मुख्य हैं । प्रभु स्तुति के अनेक प्रकार हैं, जिन में से सात प्रकार की स्तुति अथवा स्तुर्ती से होने वाले सात प्रकार के लाभ का वर्णन सामवेद के मन्त्र संख्या 45 में इस प्रकार किया गया है । : –
एना वो अग्निं नमसोर्जो नपातमा हुवे ।
प्रियं सतिष्ठमरतिन स्वध्वरं विश्वस्य दुतममृतम ।। सामवेद 45 ।।
मन्त्र में कहा गया है कि हे प्रभो ! आप अग्नि के सामान सब को आगे ले जाने वाले
हैं ।मैं आप को नम्रता से पुकारता हूँ क्योंकि प्रभु की आराधना नम्रता से ही संभव है । ज्ञान , धन व बल का गर्व करने वाला व्यक्ति कभी भी उस परम्पिर्ता परमात्मा का सच्चा आराधक नहीं बन सकता । प्रभु का आराधक बनाने के लिए गरव् को छोड़कर
नम्रता को ग्रहण करना होगा । अन्याथा हम केवल भटकते रहेंगे , प्रभु से नहीं मिला
सकेंगे ।

जब हम परमपितापरमात्मा की इस प्रकार की आराधना करते हैं तो हमें प्रभु के कुछ विशेषणों के रूप में कुछ लाभ प्राप्त होते हैं । मन्त्र में इस प्रकार के लाभों की संख्या सात बतायी गयी है । जो इस प्रकार है : –
1) आराधक में शक्ति का प्रवाह निरंतर चलता है : –
जिस प्रभु ने हमें इस संसार में भेजा है , वह प्रभु शक्ति को कभी गिरने नहीं देता, नष्ट नहीं होने देता । जब मनुष्य उस प्रभु से संपर्क करता है , उसकी आराधना करता है , उसकी स्तुति , उपासना करता है तो मनुष्य का संपर्क शक्ति के स्रोत उस प्रभु से जुड़ जाता है , जुड़ता ही नहीं उससे यह संपर्क निरंतर बना रहता है । जिस से किसी का संपर्क होता है , उसमें जैसी शक्तियां होती हैं , वैसी ही शक्तियां ( जो बुरी भी हो सकती हैं तथा लाभकारी भी ) ,उपासक को मिलती हैं । इस प्रकार जब मानव प्रभु की आराधना करता है , उसके संपर्क में आता है तो जिस प्रकार की शक्तियां उस प्रभु में होती हैं , वैसी ही ईश्वरीय शक्तियों का प्रवाह मानव में हो जाता है ।
2) आराधक का मन सदा प्रसन्न रहता है :-
ऊपर बताया गया है की प्रभु आराधना से ईश्वरीय शक्तियां मिलाती है । ईश्वरीय शक्तियों को पा कर मानव अपने आप को धन्य समझता है तथा प्रसन्नता से भाव विभोर हो उठाता है । इससे स्पष्ट होता है की प्रभु आराधक सदा प्रसन्न रहता है । यह तो सब जानते ही हैं की प्रसन्न व्यक्ति सदा स्वस्थ रहता है तथा धन धान्य से उसके कोष सदा भरे रहते हैं । इससे उसकी प्रसन्नता और भी बढाती है ।
3) आराधक को उत्कृष्ट ज्ञान मिलता है : –
परमपिता परमात्मा सब प्रकार के ज्ञान का आदि स्रोत होता है । जब हम परमपिता की प्रार्थना, उपासना पूर्वक स्तुति करते हैं तो वह प्रभु हमें अपनी गोदी में स्थान देकर हमें उत्तम ज्ञान देता है । इस प्रकार प्रभु आराधक को उत्तम से उत्तम ज्ञान देता है ।
4) आराधक को ब्रह्मानंद मिलता है : –
प्रभु भक्ति से आराधक को ब्रह्मानंद की प्राप्ति होती है । जब प्रभु भक्त अपनी आराधना के बल से प्रभु के साथ साक्षात्कार कर लेता है , प्रभु का साथ उसे मिल जाता है तो उसे असीम आनंद की अनुभूति होती है । अब उसके लिए प्रभु भक्ति के आनंद के सामने अन्य सब प्रकार के आनंद फीके दिखाई देते हैं । यह ही कारण है कि अब वह विषयों की और आकर्षित नहीं होता । ब्रह्मानंद के सामने उसे अन्य सब आनंद तूचछ दिखाई देते हैं । अत: वह विषयों से मिलने वाले रस से प्रीति को समाप्त कर ब्रह्मानंद में लीन होने का यत्न करता है क्योंकि अब उसे विषयों से मिलने वाला आनंद ब्रह्मानंद की प्रतिस्पर्धा में कुछ भी दिखाई नहीं देता ।
5) आराधक सदा उत्तम कर्मों में लग जाता है : –
जब आराधक को ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो जाती है तो उसे किसी पर हिंसा करने की आवश्यकता नहीं रहती , सब कुछ उसे उस प्रभु की शरण मात्र से ही मिल जाता है । अत: वह हिसा रहित हो कर उत्तमोत्तम कर्मों में लीन हो जाता है । इससे संसार का उपकार होता है तथा उसे और भी अधिक प्रसन्नता तथा आनंद मिलता है ।
6) आराधक के पास असुर प्रवृतियां नहीं आतीं : –
मानव की शरीर रूपी देवनगरी में जब आराधक की तपशचर्या से देवगण इस नगरी के अन्दर घुस कर इसे सप्त -ऋषियों का आश्रम बना देते हैं तो असुर प्रवृतियाँ बलात रूप से इस में घुस नहीं सकतीं क्योंकि असुर प्रवृतियों का उत्पातक प्रभु उन्हें सदा इस देवग्रह से दूर भगाता है , उन्हें पास नहीं आने देता ,अन्दर घुसने देने का तो प्रशन ही नहीं उठता । तभी तो सातवें लाभ के रूप में प्रभु आराधक को सब से बड़ा विजेता कहा गया है।
7 आराधक सब से बड़ा विजेता होता है : –
परमपिता परमात्मा मोक्ष का साधक होता है । वह अपने भक्तों को जन्म मरण के बंधनों से मुक्त कर मोक्ष में ले जाता है । इस प्रकार यह आराधक मृत्यु के भय से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । यह जो मुक्ति का मार्ग है , यह प्रभु आराधना से ही प्राप्त होता है । हम ऊपर बता चुके हैं कि प्रभु की आराधना नम्रता से होती है , अभिमान से नहीं । नम्रता से अभिमानादि दुष्ट वृतियों को पूर्णतया अपने वश में कर लेने से प्राप्त होती है । हम मन्त्र की भावना को तब ही आत्मसात कर यह सात लाभ पा सकते हैं जब हम नम्रता को ग्रहण कर स्वयं पर विजेता बनकर प्रभु आराधना में नम्रता के साथ निराभिमान हो कर जुटे रहेंगे । शत्रुओं पर तो अनेक लोग विजय कर लेते हैं किन्तु अपने आप पर विजय कोई ही पा सकता है , जो अपने आप पर विजय पा लेता है , वह सब से बड़ा विजेता होता है । यह विजय प्रभु आराधना से ही संभव होती है ।
अत: आओ हम प्रभु भक्ति के इन सात लाभों से साक्षात्कार करने के लिए सप्तारिशियों को पाने के लिए तथा प्रभु शरण के अधिकारी बनने के लिए नम्रता पूर्वक प्रभु की आराधना करें ।
डा अशोक आर्य

किस प्रभु की उपासना करें हम

औ३म
किस प्रभु की उपासना करें हम
डा. अशोक आर्य
प्रभु हमारे गन्तव्य है , प्रभु की प्राप्ति ही हमारा अन्तिम लक्श्य है। इस गन्तव्य को , इस लक्शय को हम अपना ग्यान बदाकर तथा प्रजा का पालन करने से ही प्राप्त किया जा सकता है । मानवीय वीरता किस बात में है ? यह अन्यों के दु:ख दूर करने में है, उन्हें सुखी करने में है। मानव मात्र को अग्नि की भान्ति बन कर स्वयं भी आगे बदना चाहिये तथा दूसरों को भी , उन के पथ प्रदर्शक बनकर , मार्ग दर्शक बनकर उन्हें भी आगे बटाना चाहिए । यह सब तब ही सम्भव है , जब मानव त्याग की भावना से कार्य करता है । इस तथ्य को सामवेद के मन्त्र संख्या २६ में इस प्रकार स्पश्ट किया गया है : –
नि त्वा नक्श्य विश्पते द्युमन्तं धीमहे वयम ।
सुदीरमग्न आहुत ॥ साम. २६॥
मानव जीवन का अन्तिम लक्श्य परमपिता परमात्मा की प्राप्ति है । परमपिता परमात्मा को पाने के लिये हमें अपने में ही प्रमपिता परमात्मा के समान गुणों को पैदा करना होता है यथा सर्वकल्याण की भावना, दूसरों का सहयोग , मार्गदर्शन करना आदि । इस ल्क्शय को ही सम्मुख रख हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं की हे प्रभो ! हम आपका ध्यान करते हुये आपको धारण करते हैं । आप ही हमारे गन्तव्य हो, हमारे अन्तिम लक्शय हो । जिस प्रकार अपने लक्श्य को पाने के लिये प्राणी हजारों यत्न करता है , उस प्रकार ही हम भी आप तक पहुंचने के लिये निरन्तर यत्न करते रहते हैं ।
परमात्मा ही हमारा अन्तिम लक्श्य है । उसकी प्राप्ति के मार्ग पर चलने से मानव को सन्तो्ष नहीं मिलता । मानव शक्तियों को जीर्ण करने का कमजोर करने का कारण भी अपार सम्पति तथा त्याग योग्य अनेक प्रकार के भोग्य पदार्थ होते हैं । इस ओर जाने से मानव का कल्याण सम्भव नहीं ।
जब प्रक्रति में स्वयं में ही आनन्द नहीं तो वह दूसरों को आनन्दित कैसे कर सकती है ? अर्थात प्रकर्ति से कोयी भी आनन्दित नहीं हो सकता । जब मानव आनन्द प्राप्त करना चाहता है तथा प्रक्रति आनन्द दे नहीं सकती फ़िर एकमात्र प्रभु ही आनन्द का स्रोत है , तो ही तो हम प्रभु की ओर जाते हैं तथा उसे ही अपना लक्श्य , उसे ही अपना अन्तिम गन्तव्य बनाते हैं । वह प्रभु सब प्रजाओं क पालक है, पित्रवत सब का पालन करता है । इस चल संसार में भी जो व्यक्ति पालन का कार्य करता है , उसे सब दु:खी लोग सम्मान की द्रिश्टी से देखते हैं । जब बिना किसी स्वार्थ के वह दु:खियों की सहायता करता है तो दु:खी लोग तो उससे प्राप्त दया के लिये उसके उपासक बनते ही हैं , अन्य लोग भी उसे सम्मान देने लगते हैं ।
परमपिता परमात्मा को पालक कहा गया है । पिता पालक क्यों है ? कैसे है ? परमपिता पर्मात्मा ज्योतिर्मय है , सब को ज्योति देने वाला है , ग्यान बांटने वाला है , प्रकाश फ़ैलाने वाला है । इस कारण उसे पालक कहा गया है क्योंकि वह ग्यान का प्रकाश देकर हमारा पालन करता है । इस प्रकार ही जो प्राणि ग्यान के मार्ग पर सेवा के मार्ग पर , दान के मार्ग पर जितना ही अग्र्सर होगा , उतना ही वह स्वार्थ से दूर होता चला जावेगा । जब स्वार्थ से दूर होगा तो परार्थ के कार्य करेगा, परोपकार करेगा , दूसरों की सहायता करते हुये प्रभु के से ही कार्य करेगा ।
परमात्मा सुवीर है
परमपिता परमात्मा हमें शोभन गति को प्राप्त कराने वाला होने के कारण उत्तम वीर भी है । उत्तम वीर किसे कहते हैं ? जो सदा दूसरे का हित देखे , दूसरे का हित चाहे, दूसरे के हित की बात करे, उसे उत्तमवीर कहा जाता है । परम पिता परमात्मा सदा दूसरों का , प्राणी मात्र का हितचिन्तक होने के कारण उत्तम वीर कहा जाता है । उपर कहा गया है कि परमात्मा के गुणों को अपनाना ही जीव को उत्तम बनाता है । अत: दूसरों की सहायता करना, दूसरों का मार्गदर्शन आदि करना भी मानव को उस पिता की ओर ले जाता है । ओरों का हित करने से परमपिता परमात्मा सुवीर है तो हम भी उसका अनुकरण करते हुये सुवीर बनने का यत्न करें ।
परमात्मा सब को आगे की ओर ले जाता है
परमपिता परमात्मा सब प्राणियों को सदा आगे की ओर ले कर चलता है । सब की उन्नति चाहता है । सबकी प्रगति चाहता है । सबका कल्याण चाहता है । इसलिये वह परमात्मा आहुत कहलाता है । उस परमात्मा ने हमारे चारों ओर उत्तम पदार्थों को हमारे उपभोग के लिये निर्माण कर रखा है । इतना ही नहीं हमारे उत्कर्श के लिये, हमारे उत्थान के लिये जितने भी आवश्यक पदार्थ होते हैं ,उन सब को हमारे लिये जुटा कर दिया है । यदि हमारे में ग्यान है तो हम इन पदर्थों का उपयोग करते हैं, यदि हमारे में ग्यान का अभाव है , जिस कारण हम इन पदार्थों का सदुपयोग नहीं कर पाते, यह एक भिन्न बात है । परमपिता ने तो हमारे लिये सब साधन बना दिये । अब हमारे अन्दर इतनी बुद्धि होनी चाहिये कि हम इन पदार्थों को अपने जीवन को सुखी बनाने के लिये कैसे प्रयोग करें । यदि हमारे पास एसा ग्यान ही नहीं है कि हम इन वस्तुओं के प्रयोग को समझ कर इन्हें उपयोग में ला ही न सकें तो इस में परमात्मा का क्या दोश है ? हम अपने ग्यान को बदायें तथा इन सब साधनों का सदुपयोग करें ।
वास्तव में जो व्यक्ति प्रभु का ध्यान करता है , प्रभु के बताये मार्ग पर चलता है, उस के आदेश में रहता है वह कभी भी अपने आप को भोगवाद के मोह में नहीं जाने देता, कभी भोगवाद का शिकार नहीं होता । उस प्रभु की छाया में रहने वाला व्यक्ति सदा अपने को काबू में रखता है , अपने आप पर अंकुश लगाये रखता है । इस प्रकार वह अपने आप को साधारण नहीं विशिस्ट व्यक्तित्व का धनी बनाता है तथा संसार एसे व्यक्ति का आदर करता है , मान देता है, उसकी यश व कीर्ति को दूर दूर तक ले जाता है ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु के समीप बैठने का अधिकार केवल तीन प्रकार के लोगों को

ओउम
प्रभु के समीप बैठने का अधिकार केवल तीन प्रकार के लोगों को
डा अशोक आर्य
संसार का प्रत्येक प्राणी परमपिता परमात्मा की गोदी चाहता है । माता की गोदी से उत्तम स्थान बालक के लिए कोई अन्य हो भी नही सकता । परमा[पिता परमात्मा हम सब की माता है , इस कारण हम सब प्राणी उस की गोदी पाने के अधिकारी हैं । वह प्रभु हम सब का पिता भी है , इस कारण भी हम सब उस की गोदी में बैठने के अधिकारी हैं । अधिकारी होते हुए भी परमात्मा सब प्राणियों को समान रूप से अपनी गोदी में नहीं लेता अपितु कुछ विशेष प्रकार के गुणों से युक्त प्राणियों को ही अपनी समीपता प्रदान करता है । सामवेद के मन्त्र संख्या 18 में इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए बताया गया है कि केवल ती न प्रकार के ही प्राणी हैं, जिन्हें वह प्रभु अपने समीप आसन लगाने की अनुमति देता है , इन तीन प्रकार के प्राणियों को ही वह अपनी गोदी में स्थान देता है यथा : –
और्वभ्रिगुवचछूचिम्प्नवानवदा हुवे ।
अग्निं समुद्रवाससम ।। साम 18 ।।
इस मन्त्र में कहा गया है कि मैं अपने प्रभु को और्व के सदृश , भृगु की भांति तथा अपनावान की तरह शुचि , अग्नि तथा समुद्रवासस उस प्रभु को पुकारता हूँ , आह्वान करता हूँ , स्मरण करता हूँ । यह हमारी वैदिक संस्कृति का एक नियम है कि हम जिसे पुकारते हैं, जिस की उपासना करते हैं, स्तुति करते हैं, प्रार्थना करते हैं , हम उस जैसा बनने का प्रयास करते हैं , यह ही उपासना का ठीक व सही मार्ग है । यदि हम उस के गुणों को ग्रहण ही नहीं करना चाहते तो हम उसकी उपासना ही क्या करेंगे ? यदि हम विष्णु की उपासना करने की इच्चा रखते हैं तो हमें सर्वप्रथम विष्णु के गुणों को समझ कर धारण करना होगा, तब ही हम विष्णु की उपासना के अधिकारी बनते हैं ।
1) प्रभु की उपासना के लिए ह्रदय का निर्मल व विशाल होना आवश्यक : –
इस नियम के आलोक मैं मन्त्र में जिन तीन विषयों की चर्चा की गयी है , उनमें से प्रथम विषय है प्रभु के स्वरूप का । हमारे वह प्रभु निर्मल हैं । यदि हमुस निर्मल प्रभु की उपासना करने के अभिलाषी हैं तो हम स्वयं को भी निर्मल बनावें । हम उस और्व प्रभु की उपासना करना चाहते हैं तो हम स्वयं को भी और्व अर्थात उरु की संतान के सदृश्य विशाल बनावें । उदार हृदय बनावें । विशालता का सम्बन्ध पवित्रता से होता है जबकि संकोच में अपवित्रता आती है । उस शुची अर्थात विशाल प्रभु की उपासना का अधिकारी तो वह प्राणी ही हो सकता है जिसमें विशालता के गुण हों । यूँ भी कह सकते हैं की जो अपकारियों के लिए , हनी करने वालों के लिए भी विशाल ह्रदय रखता हो वह ही उस विशाल व शद्ध स्वरूप प्रभु की उपासना का अधिकारी है ।
मन्त्र के इस प्रथम विषय के आधार पर ही कहा जाता है कि प्रभु भक्त सदा निर्मल व विशाल ह्रदय होता है । प्रभु की उपासना के लिए बैठने से पूर्व इस कारण ही शाब्दिक आर्थ के अनुसार प्राणी स्नानादि करने के पश्चात ही आराधना पर बैठता है किन्तु मन्त्र इस शाब्दिक अर्थ को नहीं लेता । मन्त्र का भाव है कि हम अपने ह्रदय की शुद्ध , पवित्र व निर्मल कर विशालता को ग्रहण कर प्रभु की उपासना करें । प्रभु चिंतन के समय किसी प्रकार की चिंता, शौक हमारे अन्दर न हों , इस लिए जिसने हमारा अपकार भी किया हो , उसे भी अपने ह्रदय में न रखें । हमारा वह प्रभु पवित्र है, हम भी पवित्र हों , हमारा वह प्रभु क्षमाशील है , हम भी क्षमाशील बनें । प्रभु के गुणों को अपनाये बिना उसके समीप जाना तथा उसकी आराधना करने का कोई लाभ नहीं । इस लिए प्रभु की उपासना, आराधना करते समय हम भी उस प्रभु जैसा बनने का यतना करें । यही ही हमारी निर्मलता है , यही है हमारी विशालता है ।
2) प्रभु को पाने के लिए तप्श्कार्या से परिपाक करो : –
मन्त्र में जो दूसरी बात पर प्रकाश डाला गया है वह है कि प्रभु का जो उपासक है , वह भृगु है , जो अग्नि की उपासना करता है । अग्नि ज्ञान को भी कहते हैं । इस आलोक से स्पष्ट होता है कि हमारा वह पिटा ज्ञानाग्नि का पूंजा है , केंद्र है । उस प्रभु की उपासना किसी आचार्य के समीप रह कर ही की जा सकती है । इतना ही नहीं आचार्य के समीप रहते हुए तपश्चर्या की अग्नि में स्वयं को परिपाक कर कुंदन बनाकर ग्यानी बनाने का यत्न किया जाता है ।
मन्त्र के इस भाग के आलोक में ही हमारे संतों ने गुरुकुल परम्परा का आरम्भ किया था , जहाँ ज्ञान के अभिलाषी प्राणियों को एकत्र कर उन्हें तपश्चर्या पूर्ण जीवन बिताने का ढंग बताया जाता था । कठिन तपस्वी जीवन व्यतीत करते हुए उन्हें ज्ञान का दान दिया जाता था । आज जो ज्ञान हम स्कूलों , कालेजों में ले रहे हैं , उसमें किसी प्रकार की तपश्चर्या न होने से ही विद्यार्थी विकृत हो रहे हैं । हमारा उद्देश्य तो है उस ज्ञानस्वरूप प्रभु को पाने का किन्तु हम वासनाओं को छओड ही नहीं रहे उस ज्ञान स्वरूप प्रभु जैसा बनने का यत्न ही नहीं कर रहे तो ज्ञान कैसे पा सकते है ? अत: पहले हमें तपोमय जीवन बनाकर ही उपासना करनी होगी तब ही ज्ञान के अधिकारी बनेंगे ।
3) जीवन को कर्म के ताने बाने में बुनें : –
मन्त्र में जो तीसरी बात प्रकाशित की गयी है ,वह है उपासक ,प्रभु को पाने का अभिलाषी अप्नवान ।अप्नवान भी एसा,जो समु-द्रवासस को उपास्य बनाता है । अपन से भाव होता है कर्म तथा वान का भाव है जीवन । इससे स्पष्ट होता है जीवन को कर्मों से भरपूर बनाना तथा सदा किसी न किसी कर्म में लिप्त रहना ही इस अर्थ में आता है । अत: जो व्यक्ति सदा अपने जीवन में कर्म करता रहता है वह अप्नवान होने से प्रभु का प्यारा है । जो आलसी है, निठल्ला है , कभी कुछ करता ही नहीं , एसे व्यक्ति को प्रभु कभी पसंद नहीं करता । इस मैं भी वानं शब्द का अर्थ होता है बुनना । जिस प्रकार ताने बाने के बिना वस्त्र नहीं बुना जा साकारता , उस प्रकार ही जीवन भी किसी विशेष ताने बाने से बुने गए व वस्त्र के सामान ही है । कुछ विशेष नियमों के अंतर्गत ही चलता है ।
मन्त्र में एक अन्य बात की और ध्यान दिलाते हुए बताया गया है कि वह प्रभु समुद्रवासस होता है । वह अर्थात वह ही उस प्रभु का उपासक हो सकता है जो समुद्रवासस हो । का भाव है जिसका निवास आनंद के साथ है । प्रभु तो वास्तव में ही आन्दमय होता है । सदा क्रियाशील रहना प्रभु का स्वभाव होने से यही उसकी आनंदमयिता का रहस्य है । क्रियाशीलता के बिना तो आनंद मिल ही नहीं सकता । जो व्यक्ति पूरा दिन निठल्ला रहता है, पूरा दिन सोया ही रहेगा, उसे सांसारिक दू:ख , क्लेश घेर लेते हैं , वह शोक , कष्ट में ही रहता है । उसे कभी आनंद का आभास भी नहीं होता ।
अत; क्रियाशीलता के बिना आनंद मिल ही नहीं सकता । जब हम ग्यानी बनकर कर्म करते हैं , ज्ञानपूर्वक कर्म करते हैं तो हम आनंद प्राप्ति के साधन को अपना रहे होते हैं , परिणाम स्वरूप हमें आनंद मिलता है । यह ही आनंद प्राप्ति का साधन होता है । जब हम इस भावना से कर्म करते हैं तो हमारे सब कर्म पवित्र होते हैं , पवित्र भावना से जो किये जाते हैं । पवित्र व उदार कर्मों में ही शुचिता होती है , इन सब का परिणाम भी आनंद कारक व लाभदायक ही होता है ।
डा अशोक आर्य

अच्छे कम करने से आयु लम्बी होती है

ओउम
अच्छे कम करने से आयु लम्बी होती है
डा. अशोक आर्य
प्रत्येक प्राणी की अभिलाषा होती है कि वह लम्बी, अत्यंत लम्बी आयु प्राप्त करे | आयु लम्बी ही नहीं सुखमय भी हो | दु:खों से भरी छोटी सी आयु भी जीवन को जीने का आनंद प्राप्त करने नहीं देती | दु:खों से भरा प्राणी सदा इस संसार से छुटकारा पाना चाहता है | जब आयु सुखों से भरी हो तो कितनी भी लम्बी हो , इस में प्राणी प्रसन्न ही रहता है | इस लिए ही वह सुखों से भरपूर दीर्घ आयु की कामना करता है | दीर्घ आयु के अभिलाषी को कर्म भी ऐसे ही करने होते हैं , जिस से वह प्रसन्न चित रह सके , द्रश्य भी ऐसे देखने होते हैं , जो उस की प्रसन्नता को बढ़ा सके | संवाद भी ऐसे सुनने होते हैं , जो उस की खुशियों को बढ़ा सकें | बोलना भी एसा होता है, जो अच्छा हो ताकि प्रतिफल में उसके कानों में संवाद भी अच्छे ही पड़ें | इस निमित ऋग्वेद के मन्त्र १.८९.८ तथा यजुर्वेद के मन्त्र २५.२१ ; सामवेद के मन्त्र १८२४ ; तैतिरीय ; आर. १.१.१ में बड़ा सुन्दर उपदेश किया गया है : –
भद्रं कर्नेभी: श्रुणुयाम देवा ,
भद्रं पश्येमाक्श्भिर्यजत्रा |
स्थिरैरंगेर्स्तुश्तूवान्सस्तानुभी –
व्यशेमही देवहितं यदायु: || ऋग्वेद १.८९.८ ; यजुर्वेद २५.२१;
सामवेद १८२४ ;तैतिरीय ;आर.१.१.१ .||
शब्दार्थ : –
(यजत्रा:) हे पूजनीय ( देवा: ) देवो ! ( कर्नेभी:) हमारे कानों में (भद्रं) मंगल (स्रुनुयाम) सुनें (अक्षभि:) आँखों से (भद्रं) अच्छा (पश्येम) देखें (स्थिरे) पुष्ट (अन्गई) अंगों से (तुश्तुवान्सा) स्तुति कर्ता (तनुभी:) अपने शरीरों से (देवहितं) देवों के हितकर (यात आयु:) जो आयु है उसे (व्यशेमही ) पावें |
भावार्थ : –
यह मन्त्र दो बातों पर विशेष बल देता है | यह दो बातें ही मानव जीवन का आधार है | यह दो अंग ही मानव का कल्याण कर सकते हैं तथा यह दो अंग ही मानव को विनाश के मार्ग पर ले जा सकते हैं | यदि हम इन दोनों को अच्छे मार्ग पर ले जावेंगे , सुमार्ग पर लेजावेंगे , अच्छे कार्यों के लिए प्रयोग करेंगे तो हम जीवन का उद्देश्य पाने में सफल होंगे | अन्यथा हम जीवन भर भटकते ही रहेंगे , कुछ भी प्राप्त न कर सकेंगे | यह दो विषय क्या हैं , जिन पर इस मन्त्र में प्रकाश डाला गया है , यह हैं : –
१. हम अपने कानों से सदा अच्छा ही सुनें
२. हम अपनी आँखों से सदैव अच्छा ही देखें
विश्व का प्रत्येक सुख इन दो विषयों से ही मिलता है | हमारी शारीरिक पुष्टि भी इन दो कर्मों से ही होती है | हम यह भी जानते हैं कि इस सृष्टि का प्रत्येक प्राणी सुख की खोज मैं भटक रहा है किन्तु वह जानता नहीं की सुख उसे कैसे मिलेगा ? | हम यह भी जानते हैं कि इस सृष्टि का प्रत्येक प्राणी सदा प्रसन्न रहना चाहता है किन्तु वह यह नहीं जानता की प्रसन्न रहने का उपाय क्या है ? जीवन पर्यंत वह इधर से उधर तथा उधर से इधर भटकता रहता है किन्तु न तो उसे सुख के ही दर्शन हो पाते हैं तथा न ही प्रसन्नता के | हों भी कैसे ? जहाँ पर सुख से रहने का , प्रसन्नता से रहने का साधन बताया गया है , वहां तो जा कर खोजने का उस ने उपाय ही नहीं किया | वेदों के अन्दर यह सब उपाय बताये गए हैं किन्तु इस जीव ने वेद का स्वाध्याय तो दूर उसके दर्शन भी नहीं किये | किसी वेदोपदेशक के पास बैठ कर शिक्षा भी न पा सका | फिर उसे यह सब कैसे प्राप्त हो ? वेद कहता है कि हे मानव ! यदि तू सुखों की कामना करता है , यदि तू जीवन में प्रसन्नचित रहना चाहता है , यदि तू हृष्ट पुष्ट रहना चाहता है , यदि तू दीर्घ आयु का अभिलाषी है तो वेद की शरण में आ | वेद तुझे तेरी इच्छाएं पूर्ण करने का उपाय बताएगा | प्रस्तुत मन्त्र में भी मानव को सुखमय , संपन्न व प्रसन्न – चित रहने के उपाय बताये हैं |
यदि मानव आजीवन सुखी रहना चाहता है , यदि मानव आजीवन प्रसन्न रहना चाहता है , यदि मानव आजीवन निरोग व स्वस्थ रहना चाहता है तो उसे अपने आप को कुछ सिद्धांतों के साथ जुड़ना ही होगा , कुछ नियमों के बंधन में बंधना ही होगा | बिना नियम बध हुए कोई भी कार्य सफल नहीं होता , संपन्न नहीं होता | कर्तव्य परायण व्यक्ति , दृढ प्रतिज्ञ व्यक्ति के लिए यह नियम अत्यंत ही सरल होते हैं किन्तु कर्म से जी चुराने वाले के लिए , पुरुषार्थ से भागने वाले आलसी के लिए यही नियम ही कठोर बन जाते हैं , जिन्हें करने से वह जी को चुराता है | किसी को चाहे यह नियम कठोर लगें या किसी को सरल किन्तु सुख की कामना के लिए,, प्रसन्नता पूर्ण जीवन की प्राप्ति के लिए , निरोग शरीर को पाने के लिए तथा लम्बी आयु के लिए इन नियमों का पालन आवश्यक है | इसके बिना कोई अन्य मार्ग उसके पास नहीं है | बस इस के लिए अपने पास अच्छे व सुलझे हुए विचारों का स्वामी होकर मन को अपने वश में रखना होगा ,इन्द्रियों को वश में करना होगा तथा अपने में सात्विक भाव जगा कर कर्मशील होना आवश्यक है | यदि हम स्वयं को इस प्रकार चला पाने में सफल होते हैं तो मन्त्र में वर्णित नियम हमें सरल ही लगेंगे | यदि हमारा मन ही हमारे वश में नहीं है , यदि हमारे विचार ही विश्रन्खल हैं , यदि हमारा अपनी इन्द्रियों पर ही अधिकार नहीं है तथा हम में कोई सात्विक भाव ही नहीं है तो सुखों की आराधना के लिए जो नियम बनाए गए हैं, वह अत्यंत कठोर लगेंगे | जो इन नियमों को अपने जीवन में अंगीकार कर लेगा , वह सुखी व प्रसन्न होगा, धन ऐश्वर्यों का स्वामी होगा तथा लम्बी आयु पाने का अधिकारी होगा अन्यथा भटकता ही रहेगा |
कठोर अनुशासन के बंधन में बंधे बिना कभी कोई उपलब्धि नहीं मिला करती | सफलता सदा उसी को ही मिलती है जो कठोरता से नियमों के पालन का व्रत लेता है | अत- स्पष्ट है की जीवन में कठोर अनुशासन लाये बिना , नियमों का कठोरता से पालन किये बिना न तो सुख मिल सकता है न ही समृद्धि | यदि सुख , समृद्धि ही नहीं पा सके तो प्रसन्नता कहाँ से होगी | फिर प्रसन्नता के बिना लम्बी आयु भी संभव नहीं | अत: लम्बी आयु की कामना करने वालों को कठोर नियमों के बंधन में बंधना ही होगा | प्रस्तुत मन्त्र भी इन दो बातों पर ही प्रकाश डालता है | मन्त्र कहता है कि : –
१. हम अपने कानों से सदा अच्छी बातें ही सुनें | अच्छी चर्चा से मन प्रसन्न होता है | प्रत्येक मानव जो भी कार्य करना चाहता है , वह अपनी प्रसन्नता के लिए ही करता है | अत: अपनी प्रसन्नता के लिए अच्छी चर्चाओं को ही सुनना चाहिए | अच्छी चर्चा को सुनकर मन को प्रसन्नता मिलेगी | प्रसन्न मन सदा राग – द्वेष से दूर रहता है | अत: राग – द्वेष के रोग से भी छुटकारा मिलेगा | ह्रदय के शांत बनने से जीवन में पवित्रता आवेगी | जिस का जीवन पवित्र है उसको सदा अच्छे मित्र अथवा सहयोगी मिलते हैं , जिससे उसकी ख्याति सर्व दिशा में फ़ैल जाती है |
२. मन्त्र कहता है कि हम यदि सुखी, संपन्न व प्रसन्न और स्वस्थ रह कर लम्बी आयु पाना चाहते हैं तो आँखों से सदा अच्छे दृश्य ही देखें | अच्छे दृश्य देखने की अभिलाषा रखने वाले की आँख कभी कुवासना , दूषित मनोवृति के दृश्य देखना पसंद ही नहीं करेगी | दूसरे शब्दों में एसा व्यक्ति स्वयमेव ही कुवासना तथा दूषित मनोवृति को अपने पास आने ही नहीं देगा | जब हम कुवासना से रहित होंगे | गंदे व दूषित वातावरण से दूर रहेंगे तो हमें मित्र , सहयोगी व प्रिय लोगों के ही दर्शन होंगे | ऐसे सहयोगी मिलेंगे , ऐसे मित्र मिलेंगे जो इन दु:खो क्लेशों से दूर रहते हुए शुद्ध मन के निर्माण के लिए शद्ध भावना रखते होंगे | जब हमारा अनुगमन व मार्ग दर्शन ऐसे स्वच्छ साथियों के हाथ में होगा तो हमारे में घृणा व कटुता की कोई भावना आ ही नहीं सकेगी | मात्सर्य तथा मनोमालिन्य के अवसर कभी आवेंगे ही नहीं | उत्तम मित्रों में बैठ कर प्रत्येक क्षण उत्तम चर्चाएँ होने से कानों में सदैव मधुर स्वर ही पडेंगे ऐसे मित्रों के साथ यात्रा भी करेंगे तो आँखें भी सदा सुन्दर दृश्य ही देख पावेंगी क्योंकि सद्मित्र कभी बुरा नहीं देखते |
स्पष्ट है की इन दोनों नियमों के पालन से हमारे संयम को पुष्टि मिलेगी | संयम पुष्ट होने से शरीर स्वस्थ रहेगा | जब शारीर स्वस्थ व निरोग होगा तो मन प्रसन्न रहेगा | स्वस्थ शरीर व प्रसन्न मन ही दीर्घ आयु का आधार होते हैं | इस प्रकार इन दो नियमों के पालन का परिणाम ही दीर्घ आयु की प्राप्ति है | जब मात्र दो नियमों के पालन से हमें सुख , समृद्धि , पुष्टि , संयम , स्वास्थ्य , निरोगता , प्रसन्नता व दीर्घायु के साथ ही साथ अच्छे मित्र व सहयोगी भी मिलेंगे , यश व कीर्ति भी मिलेगी तो इन्हें अपनाने से कौन इंकार करेगा | जब एक साथ इतना कुछ मिलेगा तो इस नियम पालन से हम परहेज कैसे कर सकते हैं ? निश्चय ही पाल करेंगे | – डा. अशोक आर्य

सुखी होने के लिए बुराईयों को छोडें

ओउम
सुखी होने के लिए बुराईयों को छोडें
डा. अशोक आर्य
मानव प्रतिक्षण बुराईयों से घिरा रहता है . बुरा मार्ग जीवन का एक सरल मार्ग होता है , जिस प्र चलाकर वह शीघ्र ही धनपति बनाना चाहता है क्योंकि वह जानता है की सुखों की प्राप्ति धन से होती है . जब धन की प्राप्ति ताप से, पुरुषार्थ से होती है . ताप व पुरुषार्थ से उतना धन नहीं मिलता, जितना पाने की वह अभिलाषा रखता है , इसलिए उसे बुराई का मार्ग पकड़ना होता है . बुरे मार्ग से वह शीघ्र ही अपार धनो का स्वामी हो जाता है किन्तु यह अपार धन भी उसे सुखी नहीं होने देता . उसका मन उसे प्रत्येक समय धिक्कारता रहता है की तुने यह धन किसी से छिना है, किसी को दुःख देकर पाया है, यह किसी दुसरे का अधिकार था जिसे तुने ले लिया, इससे आशीर्वाद नहीं मिला सकता, यह धन कभी अपमान का , कभी तिरस्कार का कारण बन सकता है . इन विषयों को मन में ला कर वह सदा दुखी रहता है , रुग्न हो जाता है . चिकित्सक उसे दूध घी आदि पदार्थों के सेवन से ओकते हैं . इस प्रकार द्वार प्र कड़ी सैंकड़ों गाय धन के होते हुए भी वह दूध, घी, मक्कन आदि का उपभोग नहीं कर सकता . इसलिए ही कहा गया है की हम अपने अन्दर से बुराईयों को निकल बाहर करें. यजुर्वेद में भी इस विषय में ही चर्चा करते हुए इस प्रकार कहा गया है :-
माँ भेर्मा संचिक्या उर्ज घत्स्व ,
घिषने विड्वी सति विड्येथाम ,
उर्ज दधाथाम .
पाप्मा हटो न सोमा .. यजुर्वेद ६ .३५ ..
मन्त्र का भाव है कि : –
हे मानव ! तुम न तो डरो और न ही कांपो . अपने अंदर साहस ( शक्ति विशेष ) ग्रहण करो . हे द्युलोक और पृथ्वीलोक ! जिस प्रकार तुम दोनों दृढ हो, उस प्रकार हमें भी दृढ़ता दो .हमें शक्ति दो ताकि हमारे पाप नष्ट हों किन्तु सद्गुण नष्ट न हों .
यह मन्त्र हमें दो उत्तम शिक्षाएं देता है : –
१). हम कभी दरें नहीं : –
मन्त्र सर्वप्रथम यह उपदेश देता है कि हम कभी डरें नहीं तथा हम साहसी हों . स्प्सष्ट है कि जहाँ डर नहीं , वहां साहस ही काम करता है . जब तक डर है , जब तक भय है , तब तक साहस को ह्रदय मंदिर का प्रवेश द्वार बंद ही मिलता है, इस कारण वह मनुष्य के हृदयों में प्रवेश कर ही नहीं सकता . ज्यों ही भय बाहर आता है तो प्रवेश द्वार खुल जाता है तथा साहस तत्काल इसमें प्रवेश कर जाता है . इस लिए ही मानव को कहा गया है कि हे मानव ! तुम डरो नहीं सदा साहसी बने रहो. जिस प्रकार भयभीत व्यक्ति के अन्दर साहस प्रवेश नहीं कर सकता, उस प्रकार ही साहसी के अंदर भय भी प्रवेश नहीं कर सकता .
डरपोक व भीरु व्यक्ति तो प्रतिक्षण भय से ही भयभीत रहता है . जो दुःख आ गया, जो कष्ट आ गया, उस से तो प्रत्येक व्यक्ति ही डरता है, उसके भय से बचने का यत्न करता है किन्तु जो भयभीत व्यक्ति होता है, वह न आये कष्ट से ही भयभीत होता रहता है . उसे इस बात का कष्ट होता है कि कहीं उसे हानि न हो जावे, कहीं कोई चोर उसकी सम्पति का न उडा ले जावे, कहीं कोई उसको चोट न पहुंचा देवे , इस प्रकार के भय से वह प्रति घड़ी भयभीत रहता है . इस का कारण भी है , उसके पास जो भी आकूत धन वैभव होता है वह दूसरे से छीना होता है, दूसरे के अधिकार पर अतिक्रमण कर पाया होता है, दूसरे के कष्टों का परिणाम होता है . स्वयं का इसमें कुछ भी पुरुषार्थ नहीं होता. अत: जिस प्रकार उसने यह धन अर्जित किया होता है, कोई अन्य उससे भी अधिक शक्तिशाली व्यक्ति उससे भी छीन सकता है, यह भय ही उसे सदा सताता रहता है . जो अभी जीवन में देखा नहीं , कहीं वह सामने न आ जावे , इस अनागत भय से वह भयभीत रहते हुए धीरे धीरे रोग ग्रस्त हो जाता है तथा कई बार तो अपनी जीवन लीला भी इस कारण समाप्त कर बैठता है .
इस लिए वेद मन्त्र कहता है कि हे मानव ! तू जीवन में ऐसे काम कर कि भय तेरे पास न आवे . यदि तू अच्छे साधन अपनावेगा तो सदा सुखी रहेगा, किसी प्रकार का भय तेरे पास तक भी न आवेगा, अच्छे काम करने से सब लोग तेरे बताये मार्ग पर बढेंगे , तेरी मित्र मंडली में भी अच्छे लोगों की वृद्धि होगी, जो तेरे यश व कीर्ति को दूर दूर तक ले जाने का कारण बनेंगे . इस लिए बुराईयों को छोड़ तथा साहसी बन .
२). पापों को नष्ट करें :-
मनुष्य जो प्रति क्षण अनागत भय से सदा कांपता रहता है, अनागत भय से ही सदा भयभीत रहता है , उसका कारण होता है उसका अपना ही पाप से भरपूर आचरण . वह अपने आचरण को पाप पूर्ण मार्ग पर चलाता है ,प्रति घडी वह दूसरों का अहित सोचता रहता है . वह स्वयं तो पुरुषार्थ करता नहीं, स्वयं तो मेहनत करता नहीं किन्तु अत्यधिक धन वैभव को प्राप्त करने के लिए दूसरों के पुरुषार्थ से प्राप्त धन को बलात छीनने का यत्न करता है . दूसरे की सम्पति को स्वयं पाने के लिए गलत मार्ग पर चलता है. इस निमित लुट – पाट तथा मार – काट तक की चिंता नहीं करता. अनेक बार तो वह अपने ही सगे – सम्बन्धियों की सम्पति पाने के लिए उनका बध तक करने में भी संकोच नहीं करता . अर्थात रिश्तों से अधिक वह संपत्ति को , धन को अधिमान देने लगता है . इस प्रकार से हस्तगत हुयी सम्पति ही उसकी चिंता का कारण बन जाती है .एसा कोई क्षण नहीं होता, जब उसको यह चिंता न सता रही हो कि उसने जो सम्पति दूसरे से अर्जन की है, वह अपनी इस सम्पति को वापस पाने के लिए अपने आप को सशक्त कर अथवा किसी शक्तिशाली का सहयोग ले उसे भी हानि न पहुंचा देवें, उससे अपनी सम्पति पुन: वापिस न छीन लेवें, उसका किसी सभा मैं अपमान न कर देवें . यह चिंता उसे अन्दर ही अंदर खाते हुए रोगी कर देती है, अन्दर से खोखला कर देती है ,जिस कारण वह खाना पीना तक छोड़ देता है . फिर इस प्रकार से अर्जित की संपत्ति का उसे क्या लाभ .?
जब वह इस सम्पति को बिना पुरुषार्थ के प्राप्त करता है तो अनेक प्रकार के दुर्व्यसन भी उसे घेर लेते हैं . भयभीत अवस्था में रहने के कारण वह इस भय से मुक्त होने के लिए प्रयास करता है किन्तु भय है कि उसका पीछा ही नहीं छोड़ता . इस भय से बचने के लिए तथा उडी हुयी नींद को पाने के लिए उसे अनेक प्रकार की बुराईयों का सहारा लेने के लिए बाधित होना पड़ता है . इन बुराईयों में जो बुराई उसे सबसे सरल लगती है ,सर्वप्रथम उसे अपने जीवन का अंग बना लेता है , इस बुराई का नाम है नशा. वह नशा करने लगता है . नशा में वह आरम्भ तो शराब व तम्बाकू से करता है किन्तु धीरे धीर सब प्रकार के नशों का वह आदि हो जाता है . उसकी मित्र मण्डली में भी इस प्रकार के लोग ही आ जाते हैं जो तम्बाकू, शराब, स्मैक का नशा लेते हैं तथा जुआ व वेश्यागमन भी करते हैं , वह भी उन सब का साथ बखूबी निभाने लगता है, जिससे उसके अन्दर से दया की भावना चली जाती है तथा जो धन उसने दूसरे पर क्रूरता करके छीना था , वह भी धीरे धीरे लुप्त होने लगता है. उसके परिवार व मित्रों में भी उसके साथ लडाई -झगडा व कलह होने लगती है . परिवार की शान्ति भी नष्ट हो जाती है . शान्ति के नष्ट होने का प्रभाव स्वास्थ्य पर भी पड़ने लगता है, स्वास्थ्य भी धीरे धीरे गिरने लगता है , इन्द्रियां शिथिल होने लगती हैं तथा चारपाई ही उसका सहारा बन जाती है .
जब वह दुर्व्यसनों में फंस जाता है तो उसकी सात्विक वृति नष्ट हो जाती है . जिससे उसका ह्रदय निर्बल हो जाता है . उसका मनोबल भी धीरे धीरे गिरता ही चला जाता है . इतना ही नहीं उसके शरीर के मुख्य अंग कांपने लगते हैं . जिसमें मनोबल ही नहीं रहा , शरीर के सब बल , सब शक्तियां निश्चित रूप से ऐसे व्यक्ति का साथ छोड़ जाती हैं . इस लिए यह मन्त्र शिक्षा देता है कि : –
यदि अपने ह्रदय को साहस से भरपूर रखोगे , अपने शरीर में शक्ति तथा उत्साह बनाए रखोगे तथा आने वाली विपत्ति का प्रतिकार करने के लिए तैयार रहोगे , तो तुम्हारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता . कहा भी है कि जब मनुष्य में साहस आ जाता है, जब मानुष में शौर्य आ जाता है, जब उसमें वीरता आ जाती है तो उसका सब भय स्वयं ही काफूर हो जाता है . इसलिए नीतिशास्त्र यह शिक्षा देता है कि भय से तब तक ही डरो , जब तक वह दूर है . किन्तु भय के समीप आने पर उससे छुपने से वह हमारे नाश का कारण होता है अत: भय समीप आने पर उसका तत्काल प्रतिकार करो . प्रतिकार के लिए हमारी बुद्धि तत्काल जो भी उपाय बताये , उस पर चलते हुए उसका प्रतिकार करो , उसका मुकाबला करो . साहसी बन कर जब मुकाबला करोगे तो भय टिक न पावेगा तथा आपसे दूर भाग जावेगा .
आचार्य विष्णु शर्मा ने एक राजा के बिगड़े हुए राजकुमारों को शिक्षित करने के लिए एक नीति ग्रन्थ की रचना की थी, जिसका नाम रखा था हितोपदेशे . संस्कृत में लिखे इस ग्रन्थ में उसने पशुओं व पक्षियों की कहानियों के माध्यम से नीति के गहन विषयों को बड़ी सरल भाषा से समझाया है . इस ग्रन्थ में ही एक स्थान पर लिखा है :
तावद भयस्य भेतव्यं , यावत् भायामानागातम
जागतं तू भयं बिक्ष्य , नर , कुर्याद यशोचितम . .,हितोपदेशे मित्र . .. ५६..
मन्त्र जो अन्य शिखा देता है , वह है :-
पाप नष्ट हों : –
मन्त्र कहता है कि मानव के सुखी जीवन के लिए उसे पापमुक्त होना आवश्यक है . हमने देखा है कि पापपूर्ण आचरण ही उसके दुखों का कारण होता है जबकि सद्गुण उसके धन एश्वर्य व कीर्ति को बढाने वाला होता है . इसलिए मन्त्र कहता है कि हे प्रभु ! हमारे पापाचरण को दूर कर हमारे सद्गुणों को बढाईये . ताकि हम सब प्रकार के भय से मुक्त हो निर्भय हो जावें . हम जानते हैं क़ि पाप का भय से सीधा सम्बन्ध होता है . हम देखते हैं कि एक कुते को भी जब हम रोटी डालते हैं तो वह दुम हिलाते हुए हमारे समीप बैठ कर बड़े चाव से उस रोटी को खाता है किन्तु वही रोटी जब वह् पाप पूर्ण आचरण को अपनाते हुए कहीं से चुरा कर लाता है तो वह रोटी को उठा कर कही दूर किसी कोने में छुप कर खाता है क्योंकि वह जानता है कि यदि पकड़ा गया तो मार पड़ेगी . एक कुता जब पाप के मार्ग से इतना भयभीत है तो मनुष्य क्यों न होगा . इसलिए प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि वह हमें पाप के मार्ग से हटा कर सद्मार्ग पर लावे , हमें निर्भय बनावे. पापों को नष्ट करने से ही मानव निर्भय होता है . हम अपने जीवन से पाप पूर्ण आचरण को निकाल कर निर्भय हो कर जब जीवन व्यापार करेंगे तो हम मन्त्र की धारणा के अनुसार जीवन यापन कर सुखों को पाने में सफल होंगे .
डा. अशोक आर्य