स्वर्गिक आनन्द के लिए पति पत्नि क्रोधित न हों

ओ३म
स्वर्गिक आनन्द के लिए पति पत्नि क्रोधित न हों
डा. अशोक आर्य
पति पत्नि दोनों ही सपत्नक्षित अर्थात शत्रुओं का नाश करने वाले बनें । कभी तैश या गुस्से में न आवें । इससे घर स्वर्ग बन जाता है । इस बात को यजुर्वेद अध्याय १ का मन्त्र संख्या २९ इस प्रकार कह रहा है :-
प्रत्युष्ट ^M\ प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्ट्प्त ^M\ रक्शो निष्टप्ताऽअरातय: ।
अनिशितोऽसि सपत्नक्शिद्वाजिनं त्वा वाजेध्यायै सम्मार्ज्म ।
प्रत्युष्ट ^M\ रक्श:प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्ट्प्त ^M\रक्शोनिष्टप्ताऽ अरातय: |
अनिश्चिताऽअसि सपत्नक्शिद्वाजिनी त्वा वजेध्यायै सम्मार्ज्मि ॥
यजुर्वेद १.२९ ॥
इस मन्त्र में परमपिता परमात्मा तीन बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुए उपदेश करते हैं कि :-
१. हम सपत्न बनें :-
इस मन्त्र में शत्रुओं का नाश करने वाले पति पत्नि का , घर के दोनॊं मुखियाओं का उल्लेख किया गया है ।
हमारे घर में शत्रु कौन हो सकता है । मन्त्र कहता है कि कोई भी पत्नी नहीं चाहती कि उसकी कोई सौत हो । सौतिया डाह घर की बहुत बडी शत्रु होती है तथा नाश का कारण होती है । इस सौतिया विरोध से अनेक घरों का नाश होते देखा गया है । प्रत्येक क्षण घर में लडाई – झगडा कलह क्लेश मचा रहता है । कभी काम के नाम से , कभी बात चीत में मीन मेख निकालने से तो कभी वस्त्राभूषण आदि की इच्छा से यह झगडा निरन्तर होता ही रहता है । इस झगडे के कारण घर में कोई भी काम ठीक से सम्पन्न नहीं हो पाता और यदि कोई काम सम्पन्न हो भी जाता है तो भी उसमें अनेक प्रकार की कमियां रह जाती हैं इस लिए परिवार में सपत्नी ही होना चाहिये । एक से अधिक पत्नियों का रखना विनाश को निमन्त्रण देने के समान ही होता है । कुछ एसी ही अवस्था पुरूष की भी होती है । जो पुरुष स्पत्न होता है अर्थात जो पत्नि अनेक पतियों वाली होती है , उसके घर पर भी कभी शान्ति की आशा सम्भव नहीं होती । एक से अधिक पति होने से भी झगडे ही होते रहते हैं । इसलिए मन्त्र कहता है कि घर में पति पत्नि मिल कर शत्रुओं का नाश करें अर्थात एक पति तथा एक पत्नि व्रत लेकर घर के सब काम शान्ति से करने का संकल्प लें ।
२. एक पत्नि व्रत से शक्ति का दीपन :-
क).
मन्त्र कहता है कि हमें चाहिये कि हम अपनी सब राक्षसी प्रव्रितियां नष्ट करें , इन्हें जला दें, दग्ध करदें । इस के लिए हमें निरन्तर प्रयास रखना होता है ताकि हम एक एक कर इन्हें नष्ट करते चले जावें । राक्षसी प्रवृतियां क्या होती हैं ? , कौन सी होती है । हमारी जिस चेष्टा से किसी को हानि पहुंचे , किसी को दु:ख हो , किसी को क्लेष हो , इस प्रकार के सब कार्य राक्षसी प्रवृतियों के क्षेत्र में आते हैं । हमारे काम , क्रोध , मोह , लोभ , अहंकार आदि भी इन बुरी आदतों का ही भाग होते हैं । हम यत्न से इन सब को त्याग कर अपने घर को स्वर्ग बना सकते हैं ।
ख).
दान की वृति मानव के लिए दान की प्रवृति मुक्ति का उत्तम साधन है । अदानी अर्थात जो दान नहीं करते , वह अच्छे नहीं माने जाते । दान करने की ख्याति तो चतुर्दिक जाती ही है , उसका समाज में सम्मान भी बढता है । इस के साथ ही साथ ,जिनके पास साधन कम होते हैं , उनको भी सुख पूर्वक जीने का अवसर मिलता है । इस लिए हम एसा प्रयास करें कि हमारी अदान की वृतियां भी भस्म हो जावें , नष्ट हो जावें ।
घ).
हम प्रभु सेवा में रहें , कठोर तप करें । तप हमारी सब प्रकार की बुराईयों को दग्ध करने का कार्य करता है , हमारी बुराईयों को जलाने का कार्य करता है । इसलिए हम तप द्वारा भी धीरे धीरे अपनी अदानता की आदतों को नष्ट कर दें , भस्म कर दें , जला दें और फ़िर इस के स्थान पर दान की आदतों को ग्रहण करें ।
ड).
हम कभी भी अपने व्यवहारिक जीवन में तेजी न आने दें । क्रोध विनाश का कारण होता है । जब परिवार में क्रोध किया जाता है तो परिजनों का दिल दुखता है । दुखित दिल से कभी कोई उत्तम काम नहीं हो पाता । दु:खित मन से किया कार्य भी सुख देने वाला नहीं होता । सुख की कमना के लिए उतेजित जीवन , झगडालु वृति, बात बात पर तैश में आना उत्तम नहीं है । विशेष रुप से पत्नि से तो माधुर्य बना कर ही व्यवहार करना चहिये क्योंकि घर के अन्दर के सब व्यवहार पत्नि ही करती है । वह प्रसन्न होगी तो घर के अन्दर वह सुख पूर्वक हंसते हुए सब काम करेगी । ख़ुशी से सुखी रहते हुए बनाये गए पदार्थों का उपभोग करने वाले भी सुखी रहेंगे , प्रसन्न रहेंगे ।
च).
अनेक बार एसा होता है कि घर मे कभी कुछ मनमुटाव हुआ तो पति ने पत्नि से बोलना ही बन्द कर दिया तथा उसे दु:ख देने के लिए दूसरी पत्नी ले आये । यह विधि विनाश की होती है । कई बार पत्नि भी एसी ही भूल कर बैठ्ती है । इस से घर का झगडा और भी बढ जाता है । कभी तलाक तथा कभी आत्म हत्या अथवा हत्या का कारण बनती है । सप्तनियों का होना परिवार के लिए सदा हानि क कारणहोता है , दु:ख का कारण होता है , इससे सदा बचना चहिये । इसे परिवार में प्रवेश ही नहीं करने देना चाहिये ।
छ).
जब हम एक पत्नि तथा एक पति का व्रत लेते हैं तो हमारे चित मे खुशी की लहर रहती है , कुछ निर्माण की इच्छा होती है किन्तु अनेक पति या अनेक पत्नि से चित की शान्ति नष्ट हो जाती है । अनेक पति अथवा अनेक पत्नि शारीरिक दुर्बलता का कारण भी बनती है । कुछ तो कामुक वृतियों से तथा कुछ झगडों के कारण शक्ति क्षीण हो जाती है । अत: एक पत्नी व्रत ही सम्यक रूप से शुद्धि का कारक होता है । यह शक्ति को दीप्त करता है ।
३.
यह सब जो पति के लिए कहा गया है , पत्नि के लिए भी समान रूप से पालनीय होता है । यथा :-
क)
हे वधु !, हे पत्नि ! तेरे अन्दर जितनी भी दुष्ट प्रवृतियां हैं , जितनी भी बुरी आदतें है, जितने भी काम क्रोध आदि हैं , वह सब नष्ट हो जावे , वह सब जल कर समाप्त हो जावें , द्ग्ध हो जावें ।
ख)
नारी में तो वैसे ही दान की अत्यधिक भावना होती है तो भी हे गृह्पत्नि ! तेरे अन्दर कभी क्रपणता के दर्शन न हो , कभी अदान की व्रति न आवे , सदा दान शील ही बनी रह्रे , यज्ञय भावना हो , दूसरों की सेवा व सहायता की तूं देवी हो । इससे तेरी एश्वर्यता स्थापित होगी तथा सब लोग तेरा सम्मान करेंगे ।
घ). एक पति व्रत से सुख सम्रद्धि :-
यदि तेरे अन्दर अदान की वृति है तो इसे अत्यधिक सन्तप्त करो ताकि यह दूर हो जावें ।
ड).
तूं गृह लक्षमी है । इसलिए यह तेरा कर्तव्य है कि तूं कभी तेज मत बोल , तूं कभी क्रोध मत कर । एसे मीठे वचन बोलो कि जिससे सब का मन हर्षित हो , खुश हो । इस से सब लोग तेरी प्रशंसा करने वाले बनेंगे , तेरे प्रशंसक बनेंगे ।
च).
तूं सदा पतिव्रत धर्म का पालन करते हुए एक पति में ही प्रसन्न रह । अपने पति के अतिरिक्त किसी को सपत्न नहीं बनाना । एक पति व्रत से सदा खुश रहेगी तथा सब को खुश रखेगी भी । अन्यथा घर जो है , वह कलह , क्लेश का केन्द्र बन जावेगा ।
छ).
जब तूं पतिव्रत धर्म का पालन कर रही होगी तो तेरा जीवन स्वयमेव ही संयमी बन जावेगा । इस तथ्य को जान ले कि संयमी जीवन जीने वाले के शरीर में ही सब प्रकार की शक्तियों का निवास होता है । इस प्रकार प्रभु इस मन्त्र के माध्यम से कह रहे हैं कि हे शक्तिशालिनी देवी रुपा नारी ! मैं तुझे शक्ति की दीप्ति के लिए , शक्ति के अवतार स्वरुप , शक्ति की देवी स्वरुप शुद्ध करता हूं तथा तुझे शक्ति से दीप्त करता हूं । में तुझे शक्ति से सम्पन्न करता हूं । जहां वासना नहीं है , वहां शक्ति का निवास होता है । जब तेरा जीवन वासना शून्य होगा तो निश्चय ही इस जीवन में शक्ति होगी और तूं सब शक्तियों की स्वामी होगी । इस के उलट यदि तूं वासनाओं में लिप्त रहेगी तो तूं यह समझ ले कि तूं ने मृत्यु का मार्ग चुना है , विनाश का मार्ग चुना है । अत: तेरा नाश निश्चित है । इसलिए नाश से बचने के लिए वासना शून्य बनना ।

डा. अशोक आर्य

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