स्वाध्याय व नियमित जीवन अपनायें

स्वाध्याय व नियमित जीवन अपनायें
डा. अशोक आर्य
मान्व को कभी भी अपने स्वरुप को तथ अपने झीअन के उद्देश्य को नहीं भूलना चाहिये । एसा करने से ही हम अपने जीवन्में स्वाध्याय को अपनाते हुए जीअन को एक नियम के अनुसार चलावेंगे । इस बात को मन्त्र इस प्रकार कह रहा है ।

इस मन्त्र में छ: बिन्दुओं पर विचार करते हुए परमात्मा इस प्रकार उपदेश दे रहे हैं :-
१. ग्यान उन्नति का मूल है :-
हे जीव ! तेरे अन्दर बुद्धि दी गयी है ताकि तूं सब प्रकार के ग्यान को प्राप्त कर सके । ग्यान सब प्रकार की उन्नति का मूल स्रोत है । इस लिए तूं उन्नतिशील कहा जाता है क्योंकि तेरे अन्दर ग्यान को प्राप्त करने और बटाने की इच्छा सदा बनी रहती है । अत: तूं निरन्तर ग्यान को प्राप्त करने के प्रयास में लगा रह ।
२. ध्रतिशील बन :-
हे जीव ! तूं अपने अन्दर ध्रति को धारण कर , धैर्य को बनाए रख । जब तक तेरे अन्दर धैर्य बना रहेगा, तब तक कोई विपति तुझे पथ-भ्रष्ट नहीं कर सकती । इस प्रकार तूं अपने जीवन के स्वपनों को साकार करने के लिए निरन्तर आगे बटता ही चला जावेगा । तूं धैर्यवान होने के कारण अपने ह्रदय रुप अन्तरिक्श में , अपने ह्रदय के अन्दर जो आकाश रुप खाली स्थान है ,उसको द्रट बना । हमारे अन्त:करण का सब से उतम , सब से महान गुण तो धैर्य ही है । यह धैर्य अर्थात यह ध्रति ही हमारे धर्म के अन्य सब अंगों का आधार है । इस से ही धर्म चलता है । इसके आधार पर ही धर्म खडा है । यह ही कारण है कि मनु महाराज ने इसे ( ध्रति को ) धर्म का प्रथम लक्शण कहा है ।
३. शत्रुओं के नाश में समर्थ बन :-
हे जीव ! तुं शत्रुओं के , (अपने अन्दर के तथा बाहर के शत्रुओं के) विनाश के लिए सामर्थ्य प्राप्त कर । यह कैसे सम्भव होगा ? इस निमित परम पिता परमात्मा उपदेश कर रहे हैं कि हे जीव ! तूं अपने अन्त: करण का स्म्पादन करने वाला है , अपने अन्त:करण को एक नियम से बांधने वाला है । तूं ही ग्यान का उपभोग करने वाला, सेवन करने वाला, उपयोग करने वाला होने के नाते सदा उत्तम ग्यान को संकलन कर , ग्रहण कर । तूं ही सब प्रकार के बलों को प्रयोग करने वाला है । इतना ही नहीं सब प्रकार के उत्तम यग्यों को करने वाला भी तूं ही है । इस प्रकार के गुणों से युक्त , सम्पन्न , तुझे मैं अपने समीप स्थान देता हूं ।
मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य परम पिता की समीपता को पाना है , वह सदा उस पिता के निकट अपना आसन लगाने की इच्छा रखता है । इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए वह उसका सदा स्मरण करता है , उसके गुणों का गान करता है । उस पिता ने ही उपर कुछ विधियां दी हैं , जिनके करने से उसकी समीपत मिलती है तथा जीव को पिता ने उपदेश किया है कि तूं यह सब कुछ कर । इससे ही मैं तुझे अपने समीप स्थान दूंगा । जब उस पिता की निकटता मिल जाती है , जब जीव प्रभु के निकट आसन प्राप्त कर लेता है तो उसमें इतनी शक्ति आ जाती है , वह इतनी शक्ति का स्वामी बन जाता है कि वह अपने सब प्रकार के शत्रुओं का नाश कर सके ।
४. शत्रु विनाश के लिए प्रभु की निकटता पा :-
हे प्रणी ! तेरे अन्दर अत्यधिक धारक शक्ति होने से तूं भरपूर स्मरण शक्ति का भी स्वामी बन गया है । स्मरण शक्ति मानव में तब तक ही रहती है , किसी विषय का स्मरण वह तब तक ही रख सकता है , जब तक उसमें धारण शक्ति है , इसे स्म्भालने की शक्ति है । इस लिए ही पभु कह रहे हैं कि तूं ने यत्न करके अपने अन्दर धारण शक्ति को बटाया है ,जिससे तेरी स्मरण शक्ति द्रट हो गयी है । इस स्मरण शक्ति के उपयोग से तूं अपने मस्तिष्क को भी मजबूत कर , प्रबल कर । यह मस्तिष्क प्राणी का द्युलोक ही होता है । यह ही सब प्रकार के ग्यान को एकत्र कर, उसे देने वाला होता है । जब यह द्रट होगा तो तेरे अन्दर की ग्यान शक्ति निरन्तर बनी रहे गी । तूं ने जो अपनी स्मरण शक्ति से ग्यान एकत्र किया है , धारण किया है , इस ग्यान से मस्तिष्क उज्ज्वल बनेगा ।
तेरे अन्दर ग्यान का सेवन कर इसे निरन्तर बटाने की अभिलाषा है , एसे अभिलाषी को ही मैं अपने निकट आसन देता हूं । इस लिए तूं आ मेरे निकट बैट । जब तूं मेरे निकट आसन लगा लेगा तो काम , क्रोध, मद, लोभ , अहंकार आदि शत्रु तेरे से भयभीत होंगे तथा तेरे अन्दर इतनी शक्ति आ जावेगी कि तुं इन सब का विनाश बडी सरलता से कर सकेगा ।
५. सब और से प्रभु ई समीपता बना :-
मन्त्र उपदेश कर रहा है कि जब प्रणी अपने शरीर , अपने ह्रदय तथा अपने मस्तिष्क आदि सब अंगों को मजबूत कर लेता है तो वह प्रभु के निकट आसन लगाने के पूर्णतया योग्य हो जाता है , पूर्णतया अधिकारी हो जाता है ओर इस अधिकार को प्राप्त करने के लिए ,इस अधिकार का प्रयोग करने के लिए तैयार भी हो जाता है । प्रभु कहते हैं कि जब तुझे मेरे निकट आने का अधिकार प्राप्त हो गया है तो मैं भी तुझे सब दिशाओं से अपने निकट स्थान देता हूं । तुं जिस दिशा से भी चाहे उस से ही मेरे समीप आसन लगा सकता है ।
इसका भाव यह है कि जीव की इन्द्रियां विभिन्न समय पर विभिन्न दिशाओं में भटकती रहती हैं । यह प्रतिक्शण अनेक प्रकार से हानि पहुंचाने का प्रयास करती रहती हैं । यह इन्द्रियां इधर – उधर किसी भी दिशा में भटक कर नाश का कार्य न कर सकें और तुं इनको पूरी भान्ति अपने वश में रख सके । इसलिए ही हमारे पिता कहते हैं कि मैं तुझे सब दिशाएं देता हूं , तुं किसी भी दिशा से मेरे निकट आ सकता है अर्थात सब दिशाओं से तुं अपने शत्रुओं का विनाश कर सकता है । बस तूं इन इन्द्रियों से उपर उट और अपने ध्यान को केवल मुझ में ही लगा कर मेरे निकट आसन लगा । सर्वत्र भटकने वाली इन इन्द्रियों को वश में करके अपने ध्यान को केन्द्रित कर ।
६.स्वाध्यायशील और तपस्वी बन :-
हे प्राणी! तूं चेतन है । इस्स्रष्ट में तेरे पास ही कर्म का अधिकार है अन्य किसी जीव को मैंने कर्म का अधिकार नहीं दिया है । वह तो सब भोग योनि में ही हैं । इस कारण्केवल भॊग का ही आर्य्करते हैं । बस तूं ही है , जो अर्म्कर सकता है । अपनी चेतनता के कारण तुम उत्क्रष्ट बन जाते हो । इस कारण ही तुम्हारे अन्दर इतनी शक्ति है कि तुम अपने हित तथा अहित को समझते हो । इसलिए अपने हित को समझते हुए तुम जानते हो कि तुमने क्या करना है तथ क्या नहीं करन । स धारणा के आधार पर ही तुम अपने शरीर को अत्यधिक लचक वाल बना कर शक्ति सम्पन्न करने की अपनी इच्छा को पूर्न्करने वाला बनाना चाहते हो । तुम्हारी यहिच्चा तब ही पूर्ण होगी ,जब तुम अपने शईर मेम लचक रखे वाले, निरन्तर आसन [प्राणा याम करने वाले तपस्वी गुणी जनों के पास जा अकर योगाभ्यास करो गे , योगादि को सिखोगे । इस्लिए एसे तपस्वी लोगों की शरण में जा कर यह सब सीख्ने का पुरुषार्थ करो । ताकि तुम्हारे अंगों में भी लचक आ सके। यह लचक आले बन सकेम ।
तप भी दो प्रकार का होता है :-
क) भ्रगुओं का तप ;_
इस तप को हम स्वाध्याय के नाम से जानते हैं । इस तप को प्राप्त करने का साधन है नित्य प्रति प्रात: उटकर वेदादि शास्त्रों को पटना तथा उनके उपदेशों को अपने जीवन में धारण करना ।
ख) अंगिरा का तप:-
इस प्रकार के तप को रित कहते हैं । इस तप से मानव पूर्ण स्वस्थ हो कर एक विशेष प्रकार की दीप्ति को, एक विशेष प्रकार के प्रकाश को प्राप्त करता है ।
परम पिता परमात्मा उपदेश करते हुए कह रहे हैं कि हे मानव ! अपने जीवन को एक निश्चित क्रम में बांध कर तुम इसे नित्य प्रति स्वाध्याय करने वाला बनाओ । यह निश्चित करो कि तुम्हारा प्रत्येक कार्य , प्रत्येक क्रिया एक निश्चित समय पर ही हो । न केवल टीक समय पर हो अपितु यह सब एक निश्चित स्थान पर भी हो अर्थात हमारी क्रियाओं का ,हमारे कार्यों का स्थान भी निर्धारित होना आवश्यक है । इससे तु भ्रगुओं की भान्ति बनेगा, जिन्होंने सब रसों का अंगीकार कर लिया होता है , ग्रहण कर लिया होता है , एसे अंगिरसों की भान्ति अपने स्वास्थ्य को एसी ही दीप्ति प्रदान करो , एसे ही प्रकश पुन्ज के समान बनाओ । ग्यान की द्रष्टि से तुम एसे रिषि बनो कि जो अपने विषय के सर्व गुण सम्पन्न हों तो बल का जब प्रश्न आवे तो तुम अपने आप को एक महान मल्ल के रुप में सिद्ध करो । जब बुद्धि और शक्ति दोनों आ जावेंगे तो तुम आदर्श पुरुष कहलाने के अधिकारी बनोगे ।
बस यह जानो कि जीवन की क्रियाओं में हम ने ध्रुवता को स्थिरता को लाना है । अपने स्वास्थ्य के लिए हमें ध्रति से सम्पन्न होना है अर्थात धैर्य से काम लेना है तथा मस्तिष्क की उज्जवलता के लिए हम ने धर्त्र को धारण करना है अर्थात प्राप्त ग्यान को सम्भालना है , स्मरण रखना है ।

, डा. अशोक आर्य

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