Category Archives: वेद मंत्र

आसुरीभाव दूर करने को हम आध्यात्मिक बनें

ओउम्
आसुरीभाव दूर करने को हम आध्यात्मिक बनें
डा.अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा को स्मरण करने से, उस प्रभु का स्तवन करने से अधयात्म संग्राम में मानव विजयी होता है तथा उसमें आसुरी प्रवृतियां प्रवेश नहीं करतीं । इस बात पर ही यह मन्त्र प्रकाश डालते हुये उपदेश करता है कि : -=
इमेनरोवृत्रहत्येषुशूराविश्वाअदेवीरभिसन्तुमायाः।
येमेधियंपनयन्तप्रशस्ताम्॥ ऋ07.1.10
१ प्रभु भक्त से शत्रु भयभीत
इस मन्त्र मे प्रभु उपदेश करते हुये कहते हैं कि मन जो भी प्राणी ज्ञान पूर्वक मेरी प्रशस्त स्तुति का उच्चारण करता है , जो भी मुझे स्मरण करता है, जो भी मेरा स्तवन सच्चे मन से करता है ,एसे मानव विभिन्न प्रकार के संग्रामों में , युद्धों मे शत्रुओं को दहला देने वाले, कम्पा देने वाले, परास्त कर देने वाले होते हैं ।
हम जानते हैं कि मनोबल अर्थात् का बल मानव जीवन में विशेष महत्त्व रखता है | जिस का यह मानसिक बल द्दृढ है , वह आने वाले बड़े से संकट , आने वाली भयंकर से भयंकर विपति में भी घबराता नहीं , अपने मनोबल को छोड़ता नहीं | बड़े साहस से उस का सामना करता है | शक्ति कम होते हुए भी वह अपने मन की अपार शक्ति , जो उस ने प्रभु भक्ति से प्राप्त की होती है , के कारण उस संकट से पार पा लेता है |
मनोबल से हम अपनी आन्तरिक शक्तियों को भी विजय करने में साल होते हैं | हम कभी किसी भी प्रकार के संकट में घबराते नहीं बड़े साहस से संकट का प्रतिरोध करते हैं, इसका मुकाबला करते हैं | हमारे यह पुरुषार्थ उतम परिणाम दी हैं और इस संकट से पार पाने में हम सफल होते हैं | संकट के समय यदि हमारा मन साथ नहीं देता | हमारा मन कठोर नहीं होता , साहस खो बैठता है तो हम बुद्धि विहीन से हो जाते हैं | कुछ सोचने की शक्ति हमारे पास नहीं रहती | हम कुछ भी उपाय विचारने से रहत हो जाते हैं | इस कारण हम पुरुषार्थ कर ही नहीं पाते तो फिर संकट से पार कैसे हों | बस कुछ भी नहीं कर पाते और हाथ पर हाथ धर कर सब कुछ प्रभु हाथ सौंप कर बैठ जाते हैं जबकि यह पुरुषार्थ ही है जो सब कामनाओं को पूर्ण करने वाला है | हम ने इस पुरुषार्थ को ही छोड़ दिया तो फिर प्रभु सफलता ही कैसे दे सकता है ? अर्थात हमें किसी कार्य में फिर सफलता नहीं मिल पाती | हम निराश हो जाते हैं , हताश होआ जाते हैं और जीवन के युद्धों में निरंतर पराजित होते चले जाए हैं |
निरन्तर पराजित होता रहता है | हम जानते हैं कि मुग़ल बादशाह अकबर के पास अपार सेना थी | उसे गर्व था अपनी इस टीडी दल सरीखी सेना के भण्डार पर किन्तु दृढ मनोबल से लबालब महाराणा प्रताप को वह परस्त करने में सफल होने के स्थान पर निरंतर उस वीर योद्धा से मार खाता रहा और रण छोड़ कर भागता रहा | इस का कारण क्या था ? यही कि वह प्रताप सरीखा मनोबल अपने अन्दर उत्पन्न न कर सका | चाहे महाराणा अनेक बार युद्ध में परस्त भी हुए , अपने बहुत से क्षेत्र मुगलों के हाथों खो बैठे किन्तु उन्होंने अपने साहस ,अपनी वीरता ,अपने शोर्य के आधार इस मनोबल को कभी नहीं खोया | इस मनोबल का ही परिणाम था कि मुट्ठी भर सेना की सहायता से विशाल सेना के छक्के छुडाते रहे , उसे परास्त कर पाने में सफल होते रहे |
२ आसुरी प्रवृतियों का नाश
इतना ही नहीं जितनी भी असुरी मायायें होती हैं ,आसुरी प्रवृतियां होती हैं , राक्षसी व्यवहार होते हैं , उन सब को छ्ल छिद्र कर देते हैं , परास्त कर देते हैं, जीर्ण शीर्ण कर देते हैं । कमजोर मन से किसी भी कार्य की सिधी नहीं हो पाती | जब आसुरी प्रवृति वाले व्यक्ति से सामना होता है तो क्या होता है ?
आसुरी प्रवृति के लोगों की यह विशेषता होती है कि शक्तिशाली के सामने झुक कर अपना काम निकालने के लिए उसकी दया के पात्र बनाने का प्रयास करो और यदि सामने वाले का मन दुर्बल हो तो उस पार बाज कि भाँति टूट पडो , उसे संभलने
का अवसर ही न दो और एक दम से दबोच लो | बस यह ही तो है जीवन का व्यवहार ! जीवन के इस व्यवहार में सफलता का एकमेव मार्ग है मनोबल की अपार शक्ति ! मनोबल की शक्ति के सामने आसुरी प्रवृतियां टिक ही नहीं पाती | इस लिए जीवन में कभी मनोबल को गिराने न दो | बड़े से बड़े संकट काल में भी मनोबल को बनाए रखो | यदि मनोबल दृढ है तो रक्षसी प्रवृति के लोग हमारा कुछ बिगाड़ न पावेंगे और हम बिना किस भय के समाज की सेवा करने में सदा सक्षम रहेंगे |
वास्तव में जो लोग प्रभु से प्रेम करते हैं , इस प्रभु प्रेम के ही कारण वह तेजस्वी हो जाते हैं , उनमें विशेष प्रकार का तेज आ जाता है । इस तेज से ही उन्हें एक विषेश प्रकार की अमोघ शक्ति प्राप्त हो जाती है, एक विशेष प्रकार का अमोघ अस्त्र मिल जाता है तथा वह सब प्रकार के आसुरीभावों , आसुरी प्रवृतियों का विनाश कर देते हैं तथा अपने जीवन को पवित्र कर लेते हैं ।
इसलिए ही यह मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हमें अल को कभी नहीं छोड़ना चाहिए | इसे निरंतर आए रखना चाहिए | इस मनोबल की प्राप्ति प्रभु भक्त को सरलता से हो जाती है | इस लिए हमें सदा परम पिता परमात्मा का आशीर्वाद पाने का प्रयास करते रहना चाहिए |

डा. अशोक आर्य

प्रभु भक्त का मन उतम

ओउम्
प्रभु भक्त का मन उतम डा.अशोक आर्य
प्रभु का सदा बडों की सेवा रहते हुये उनकी आज्ञा का पालन करता हुआ उनकी सेवा करता है तथा तेजस्वी बनकर प्रभु स्तवन करता है व उत्तम मन वाला बनता है । इस पर प्रकाश डाला है इस वेद की इस ऋचा के नवम मन्त्र मे, जो इस प्रकार है : –
वियेतेअग्नेभेजिरेअनीकंमर्तानर:पित्र्यास:पुरुत्रा ।
उतोनएभि:सुमनाइहस्या:॥ ऋग्वेद७.१.९ ॥
१ प्रभु भक्त तेजस्वी होता है
सदा सबसे आगे रहने वाले अग्रणी प्रभो ! जो मनुष्य आप के सेवक बनते हैं , आप कि सेवा में दिन रात लगाते हैं , आप की उपासना में अपना जीवन लगा देते हैं ,वे अपने से बडों के , अपने पितरों के, अपने पूर्वजों के मत के अनुकूल चलते हैं , उनके विचार के अनुसार चलते हैं । इस प्रकार के मनुष्य शरीर के विभिन्न प्रदेशों में , विभिन्न भागों मे बल , तेज व शक्ति को धारण करते हैं , प्राप्त करते हैं, ग्रहण करते हैं ।
२. उतम मन के लिए प्रभु स्तवन
हे प्रभु ! आप के यशोगान में गाये जाने वाले स्तवन गान में, आप के कीर्ति गान के स्तोत्र में उत्तम जीवन प्राप्त कर हम उत्तम मन वाले होवें । आप की उपासना के बिना हमें उत्तम मन की प्राप्ति नहीं हो सकती। हम उत्तम मन पाने के अभिलाषी हैं । इसे पाने के लिये यथावत् आपका स्तवन करते रहें ।
इन दो बिन्दुओं से यह तथ्य सामने आता है कि एक तो प्रभु भक्त तेजस्वी होता है और दूसरे उतम मन से उस पिता का स्मरण करने से ही उतम मन की प्राप्ति होती है |
इस लिए हम निरंतर प्रभु की उपासना करते हैं | हम निरंतर प्रभु की उपासना करते हुए उसकी सदा प्रशंसा करते हैं | सम सदा प्रभु को प्रसनन करने के लिए उस प्रभु सम्बन्धी स्तोत्रों का गायन करते हैं | हम अपना समय प्रभु के भजन गाने में लगाते हैं | जब हम प्रभु के पास बैठ कर , उस प्रभु का यशोगान करते हुए उस का आशीर्वाद पाने का प्रयास करते हैं , सच्चे ह्रदय से यह प्रयास करते हैं तो निश्चय ही वह पिता हम पर प्रसन्न होकर हमें आशीर्वाद देने के लिए अपना हाथ हमारे सिर पर रख देते हैं |
परमपिता परमात्मा हमारा अग्रणी है | अग्रणी सदा मार्ग दर्शक होता है | वह सदा अपने अनुगामियों का , वह सदा अपने पीछे चलने वालों का मार्ग दर्शन करता है | जिस प्रकार प्रभु हमारा मार्ग दर्शक होता है , उस प्रकार ही हमारे पूर्वज भी अपने अनुभवों के आधार पर हमारा मार्ग दर्शन निरंतर करते रहते हैं | जो पूर्वजों के मार्ग दर्शन को प्राप्त कर तदनुरूप अपने जीवन को चलाते हुए अपने पूर्वजों को सुख देते हुए उनके बताए मार्ग का अनुसरण करता है , वह निश्चय ही सब प्रकार की खुशियों को प्राप्त करते हुए धन धान्यों का स्वामी बनता है | इस प्रकार के जीवों के शरीर सब प्रकार से पुष्ट होते हैं , सदा स्वस्थ रहते हुए उतम स्वास्थ्य को प्राप्त करते हैं |
हम प्रभु का स्तवन इसलिए भी करते हैं ताकि हमारा मन उतम बन सके क्योंकि प्रभु भक्त ही उतम मन वाला होता है | प्रभु भक्ति के बिना , प्रभु स्मरण के बिना , प्रभु के लिए स्तवन गायन के बिना , प्रभु की प्रार्थना के बिना , प्रभु का स्मरण करते हुए , उसके लिए स्तोत्रों के गायन के बिना प्रभु हमें कभी नहीं अपनाता | इस लिए हम प्रभु के पास अपना आसन लगा कर उस के लिए अनेक प्रकार की प्रार्थनाओं से भरपूर स्तोत्रों का गायन करते हुए उस प्रभु की प्रसन्नता प्राप्त करने का प्रयास करते हैं | जब प्रभु हम पर प्रसन्न हो जाते हैं तो निश्चय ही वह हमारे ऊपर सुखों की वर्षा करते हैं | इस प्रकार हम प्रभु का आशीर्वाद पा कर अपने जीवन को न केवल उतम ही बनाते है अपितु प्रभु के आदेश अनुसार अन्य लोगों के जीवनों को भी उतम बनाने के लिए उन का सहयोग करते हैं , उनका मार्ग दर्शन करते हैं |
इस प्रकार हम निरंतर प्रभु की भक्ति करते हुए उसका आशीर्वाद पाकर स्वयं को उन्नत बनाते हुए दूसरों को भी उतम बनाने का यत्न निरंतर , अहोरात्र करते हैं |
डा. अशोक आर्य

उपासक प्रभु के तेज से तेजस्वी हो दूसरों को भी तेजस्वी करता है

ओउम्
उपासक प्रभु के तेज से तेजस्वी हो दूसरों को भी तेजस्वी करता है
डा. अशोक आर्य
जो मनुष्य सदा प्रभु की उपासना करता है, वह प्रभु के तेज से अत्यधिक तेजस्वी हो जाता है । प्रभु प्रार्थना से वह वसुमान व पवित्र हो जाता है, वह दीप्त हो जाता है तथा दूसरों को भी पवित्र करता है । इस तथ्य पर ही ऋग्वेद क यह मन्त्र प्रकाश डाल रहा है : –
आयस्तेअग्नइधतेअनीकंवसिष्ठशुक्रदीदिवःपावक।
उतोनएभिस्तवथैरिहस्याः॥ ऋ07.1.8

हे वासिष्ट अर्थात् अतिश्येन वसुओं में उत्तम | वसुओं को उतम माना गया है किन्तु इस मन्त्र में वसुओं से भी उतम के रूप में सम्बोधन करते हुए कहा है कि हे सब वस्तुओं से सम्पन्न ,अत्यन्त पवित्र , दीप्त व सब को पवित्र करने वाले सब के अग्रणी प्रभो ! जो आप का बनता है अथवा जो आप को अपना मानता है अथवा जो आप का भक्त होता है ,वह ही बल व तेज को सदा दीप्त करता है , उसका ही बल व तेज दीप्त होता है , बढता है । वास्तव में तेजस्वी व्यक्ति सदा आप ही के तेज को प्राप्त करता है तथा उस तेज से ही वह स्वयं भी तेजस्वी बनता है ,दीप्त होता है ।
इस से स्पष्ट होता है कि मन्त्र परमपिता को सब प्रकार के वसुओं भी उतम बताया है तथा कहा है कि प्रभु उसे पूरी तरह से अपना बना लेता है , जो उस प्रभु को अपना बनाने का यत्न करता है | प्रभु भक्त को इश्वर सदा अपने पास स्थान है |
परम पिता परमात्मा के आशीर्वाद से ही प्रभु भक्त सशक्त होता है , उसका बल व तेज निरंतर दीप्त होता चला जाता है , प्रचंड होता चला जाता है | इससे प्रभु भक्त का बल और तेज बढ़ करा अन्यतम दीप्ती को प्राप्त होता है |
२ स्तवन में प्रभु को पुकारें
हम जो आप के लिये स्तोत्रों का प्रयोग करते हैं , आपके स्तवन में जो गाते हैं, उन के माध्यम से , उनके द्वारा आप यहां हमारे जीवन में आइये, प्रवेश करिये । हे प्रभॊ ! हम आप को जितना ही अपने जीवन में धारण कर सकेंगे, उतना ही हम तेजस्वी बनेंगे । इस लिये हम आप को अधिकतम धारण करने के यत्न करते हैं । जब हम आप को अधिकतम धारण कर लेंगे तो हम वसुमान बनेंगे , हम पवित्र बनेंगे तथा हम दीप्त होंगे । इस के साथ ही साथ ओरों को भी हम एसा ही बनाने का प्रयास करेंगे, यत्न करेंगे । इस लिये हमारी यह ही प्रार्थना है कि हम आपका स्तवन करते हुये, आप का गुणगान करते हुये, आपका स्मरण करते हुये आपको अपने मे धारण करें ।
इसा सब से एक बात जो स्पष्ट होती है कि प्रभु स्तवन ही सब शक्तियों का आधार है , प्रभु स्तवन से ही सब शक्तियां प्राप्त होती हैं , सब प्रकार के तेज व सब प्रकार की शक्तियों को हम प्राप्त करते हैं और वसुकों से भी उतम बनाते हैं |

डा. अशोक आर्य

यज्ञाग्नि से रोगों का नाश होता है

ओउम्
यज्ञाग्नि से रोगों का नाश होता है
डा. अशोक आर्य
यज्ञ करने से ,वातावरण में विचरण कर रहे तथा छुपे हुए रोग के कीट नष्ट हो जाते हैं । इन जीवों के नष्ट होने से, इस से उत्पन्न होने वाले रोग भी नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार जो शक्ति रोग पैदा करने वाली होती है, वह नष्ट होने से रोग भी नष्ट हो जाते हैं । इस पर मन्त्र प्रकाश डालते हुए कह रहा है कि : –
विश्वाअग्नेऽपदहारातीर्येभिस्तपोभिरदहोजरूथम्।
प्रनिस्वरंचातयस्वामीवाम्॥ ऋ07.1.7
इस मन्त्र में प्रभु से प्रार्थना करते हुए यज्ञ की अग्नि को संबोधन किया गया है तथा प्रार्थना की गयी है कि
१. यज्ञ से कष्टों का नाश
मन्त्र उपदेश करते हुए कहता है कि हे यज्ञग्ने ! आप ही अपनी तेज अग्नि के बल पर, तेज गर्मी के बल पर सब कष्टों को दूर करते हैं ।
हम जानते हैं कि यज्ञ की अग्नि को तीव्र करने के लिए , अग्नि को प्रचंड करने के लिए इस में उतम घी तथा उतम औषधियों से युक्त सामग्री की आहुतियाँ दी जाती है | इन में पौष्टिकता होती है , यह सुगंध से भरपूर होती है , इस में उतम उतम रोग नाशक बूटियाँ डाली जाती हैं और इस के साथ ही साथ इसमें डाली जाने वाली घी व सामग्री में अग्नि को तीव्र करने की शक्ति भी होती है | यज्ञ करते समय हम कुछ वेद मन्त्रों का भी गायन करते हैं | यह मन्त्र गायन भी सुस्वास्थ्य के लिए उपयोगी होते है |
इस प्रकार मन्त्र के माध्यम से हम प्रभु से प्रार्थना है करते हैं कि हे प्रभु ! इस वायुमण्ड्ल में जितने भी प्राणी हमें हानि देने वाले हैं, जितने भी प्राणी हमें रोग देने वाले हैं, उन्हें भस्म कर दो, नष्ट कर दो । , उन्हें अपनी अग्नि में भस्म करदो । अर्थात् जब हम यज्ञ करते हैं तो इस में डाली जाने वाली सामग्री में एसे पदार्थ डाल कर इसे करते हैं, जिन की ज्वाला निकलने वाली गैसों से यह रोग के कीटाणु स्वयमेव ही नष्ट हो जाते हैं । यदि कोई कीटाणु बच भी जाता है तो यज्ञ की इस अग्नि में जल कर नष्ट हो जाता है ।
२. यज्ञ से तापक शक्ति का नाश
हमारे अन्दर समय समय पर अनेक कारणों से रोगाणु पैदा होते रहते हैं | जब यह रोगाणु हमारे शरीर की शक्तियों से कहीं अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं | इन की शक्ति हमारे अन्दर की शक्तियों से अधिक हो जाती हैं तो इस का परिणाम जो हम जानते हैं वही होता है अर्थात् हम रुग्ण हो जाते हैं |
हम जानते हैं कि शल्य सदा कमजोर पर अथवा शक्ति विहीन पर एसा भयंकर आक्रमण करता है , ( राक्षसी वृति के लोगों के सम्बन्ध में भी कुछ एसा ही कहा जाता है कि जब वह सामने वाले को कमजोर पाते हैं तो वह उस पर चारों और से एसा भयंकर आक्रमण करते हैं कि सामने वाला जब तक उसे कुछ समझ में आता है और वह संभलने की सोचता है तब तक वह राक्षसों से इस प्रकार घिर जाता है कि उससे निपट पाना उसके लिए कठिन हो जाता है , उनका प्रतिरोध उस की शक्ति में रहता ही नहीं | इस कारण वह या तो नष्ट हो जाता है और या फिर आत्म समर्पण कर देता है |)कि हमारा शारीर इस कष्ट से तप्त हो जाता है |
कुछ एसी ही अवस्था शरीर में पल रहे रोगाणुओं की , शरीर में पल रहे शल्य की होती है | ज्यों ही यह शरीर को कमजोर पाते हैं तो वह इस शरीर पर एसा आक्रमण करते हैं कि हम संभल ही नहीं पाते | इनके दिए ताप से तप्त होकर हम स्वयं को शक्ति विहीन सा अनुभव करते हैं और शीघ्र ही शिथिल होकर बिस्तर को पकड़ लेते है | अनेक बार तो यह रोग हमारी मृत्यु का कारण भी बनते हैं |
इसलिए रोग की जो तापक शक्ति होती है , उससे बचने के लिए जब हम यज्ञ करते हैं तो यज्ञ करते हुए इस के साथ हम यज्ञ देव से यह प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे अग्निदेव ! उस को तूं नष्ट करके हमें स्वस्थ कर अर्थात् हे यज्ञाग्नि इन रोगाणुओं की तापक शक्ति को नष्ट कर हमें स्वस्थ बना ।
इस सब का भाव यह है कि यह यज्ञ की अग्नि रोग की तापक शक्ति को नष्ट कर देता है । इस अग्नि के तेज से रोग के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं तथा जो जन प्रतिदिन दो काल यज्ञ करते हैं अथवा जो लोग यज्ञ स्थल के समीप निवास करते हैं , यह यज्ञ की अग्नि उनके अन्दर बस रहे रोग के कीटाणुओ का भी नाश कर देती है । इस प्रकार उसके शरीर के अन्दर के कीटाणुओं के नष्ट होने से वह निरोग हो जाता है । इस यज्ञ से उस के अन्दर इतनी प्रतिरोधक शक्ति आ जाती है कि रोग के कीटाणु भयभीत हो कर इस शरीर से दूर भागने लगते हैं और अब रोग के यह कीटाणु किसी रोग की उत्पति के लिए यज्ञकर्ता पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं कर पाते । इससे धीर धीरे यह रोग ओझल ही हो जाता है ।
इस सब से यह तथ्य सामने आता है कि यज्ञ और इसकी अग्नि हमारे शरीर को सदा स्वस्थ रखने का एक बहुत बड़ा साधन है | स्वास्थ्य लाभ के लिए हम प्रतिदिन दो काल उतम सामग्रियों से यज्ञ करें |

डा. अशोक आर्य

हे यज्ञ अग्नि ! हम सदा तुझे आहुति देते रहें

ओउम्
हे यज्ञ अग्नि ! हम सदा तुझे आहुति देते रहें
हम परमपिता से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! यह यज्ञ अग्नि हमारे घरों में सदा जलती रहे | हम इसे कभी मंद न होने दें तथा हम सदा इसे बढाने के लिये पुरुषार्थ करते हुए इस यज्ञ में आहुती देते रहें । इस तथ्य पर ऋग्वेद के इस तीसरे मन्त्र में विचार करते हुए इस प्रकार प्रकार प्रकाश डाला है : –
प्रेद्धोअग्नेदीदिहिपुरोनोऽजस्रयासूर्म्यायविष्ठ।
त्वांशश्वन्तउपयन्तिवाजाः॥ ऋ07.1.3
हे अग्नि ! खूब प्रकार से दीप्त होकर , अपनी लपटों को खूब उंचा उठा | इस प्रकार अत्यंत तेज होकर तू हमारे सामने प्रकट हो । हे अग्नि ! तूं सब प्रकार के रोगों को दूर करने वाली है , तूं सब प्रकार के रोगाणुओं को भस्म कर इन सब रोगाणुओं का नाश करने वाली है | तूं ही सब प्रकार की गन्दी वायु को शुद्ध कर वातावरण को शुद्ध करने वाली है , सम्पूर्ण पर्यावरण को तूं ही शुद्ध – पवित्र कराती है | एसी अत्यधिक पवित्र अग्नि ! तूं कभी भी क्षीण होने वाली नहीं है , कभी दुर्बल होने वाली नहीं है , कभी न बुझने वाली तेरी ज्वाला से हम निरन्तर दीप्त होते रहें, निरन्तर तेज होती रह, निरन्तर प्रचण्ड होती रह ।
हे अग्नि ! तुम्हें अनेक प्रकार की भोजन सामग्री मिलती है ( अग्नि का भोजन समिधा के रूप में लकड़ी होती है | इसे प्रचंड करने के लिए इस में घी डाला जाता है | इसे धित बनाने के लिए इस में सुगंदित पदार्थ डालते हैं | शक्ति वर्धन के लिए इस अग्नि में पुष्टिक पदार्थ यथा घी , मेवे आदि डालते हैं | यह रोगों का नाश करे इसलिए इस अग्नि में गुग्गल जैसी औषधियां डालते हैं ) , अनेक प्रकार के अन्न हवि रुप में , आहुति रुप में इस अग्नि को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार हे अग्नि ! तेरे में अनेक प्रकार के , विविध प्रकार के अन्नों की आहुतियां डाली जाती हैं । यह जो अनेक प्रकार की वस्तुओं की आहुतियां तुझ में डाली जाती हैं , इन को ही तूं ने बढाना है , इन सब को बड़ा कर आगे ले जाते हुए इसे हमारे ई पुरे वायु मण्डल में फ़ैलाना है ।
इन शब्दों से एक तथ्य जो सबके सामने आता है , वह यह कि यज्ञ की अग्नि प्रत्येक प्राणी के जीवन की रक्षा रक्षा करने वाली होती है क्योंकि इस अग्नि में वह लकड़ी समिधारूप में प्रयोग की जाती है जिस समिधा में कीटाणुओं का नाश करने की शक्ति होती है, जो समिधा सुगंध वाली होती है, जो शक्ति व पौष्टिकता लाने वाली होती है | हम इतने से ही शांत नहीं होते अपितु हम इस प्रकार के गुणों वाली और
भी वस्तुएं सामग्री स्वरूप इस अग्नि को भेंट करते हैं इस प्रकार की वस्तुओं में :
घी , बादाम ,किशमिश , अखरोट , काजू आदि सूखे मेवे , सेब ,केला आदि एक प्रकार के फल फूल , चन्दन जैसे सुगन्धित पदार्थ तथा अगर – तगर ,गुग्गल, गिलोय जैसे रोगनाशक बूटियाँ | इन सब के प्रयोग से हम सदा इस अग्नि को तीव्र करने का प्रयास करते हैं | इस यज्ञ की अग्नि को कभी मंद नहीं होने देते | जब यह यज्ञ की अग्नि अच्छे से प्रचंड रहती है तो इस का सेवन करने वाले किसी भी प्राणी को कोई कष्ट नहीं होता | इस प्रकार के प्राणी सदा रोगों से मुक्त रहते हैं | इन का शारीर पूर्णतया पौष्टिक तत्वों से भरा रहता है | इन प्राणियों की बुधि तीव्र होती है | पूर्णतया स्वस्थ रहते हुए यह प्राणी समाज के अन्य प्रणियों को भी सुखी, सुशल, पुरुषार्थी व परोपकारी बनाने का प्रयास करते हैं |
यह मन्त्र इस लिए ही उपदेश कर रहा है कि यज्ञ की अग्नि कभी भी बुझाने न पावे | यह अग्नि निरंतर ऊपर उठती रहे , सदा उन्नत रहे , प्रज्वलित रहे | यह जीतनी तीव्र होगी उतना ही अधिक हितकारक होगी | इस लिए हम इस अग्नि की सदा उपासना करते हुए इसे आगे बढाते जावें | इस में ही हम सब का हित है | इस में ही हम सबका कल्याण है |
डा. अशोक आर्य

हवियों से यज्ञ अग्नि को बढावें कभी बुझने न दें

ओउम॒
हवियों से यज्ञ अग्नि को बढावें कभी बुझने न दें
यज्ञकर्ता जिस यग्य अग्नि को जलाते हैं ,जिस को अपनी अनेक प्रकार की आहुतियां देकर बढाते हैं, वह यज्ञाग्नि हमारे परिवार से , हमारे घर से कभी बुझने न पावे । यह तथ्य ही इसके दूसरे मन्त्र का मुख्य विशय है , जो इस प्रकार है : –
तमग्निमस्तेवसवोन्यृण्वन्सुप्रतिचक्षमवसेकुतश्चित्।
दक्षाय्योयोदमआसनित्यः॥ ऋ07.1.2
अपने निवास को जो लोग उत्तम बनाना चाहते हैं, श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं , वह लोग इस यज्ञ की अग्नि को अपने निवास पर , अपने घर में स्थापित करते हैं । यज्ञ की यह अग्नि हम सब का पूरा ध्यान रखती है । यज्ञ की यह अग्नि हमारे संकटों को दूर करने का सदा यत्न करती रहती है । यदि हमारे घर में कहीं रोग के कीटाणु छुपे हैं , निवास कर रहे हैं , तो यह अग्नि उन किटाणुओं को नष्ट करके बाहर निकालने का कार्य करती है, यदि हमारे घर में दुर्गन्ध है तो यह अग्नि उसे दूर कर पवित्रता लाती है तथा यदि घर का वातावरण अशुद्ध है तो यह यज्ञ की अग्नि उसे शुद्ध कर वातावरण को शुद्ध , पवित्र करती है । घर में होने वाले सब प्रकार के भय को दूर कर हमें निर्भय बनाती है ।
यज्ञ की यह अग्नि हवियों से बढती है। हम जो आहुतियां इस आग मे देते हैं , वह आहुतियां इस अग्नि को तीव्र करती हैं । अग्नि की इस तीव्रता से हमारी रक्षा के कार्य, हमें निर्भय करने के कार्य, हमें रोगों से मुक्त करने के कार्य ओर भी तीव्रता से होते हैं ।
जिस यज्ञाग्नि के इतने लाभ हैं , जो यज्ञाग्नि हमें इतने लाभ देती है , वह यज्ञाग्नि हमारे घरों में निरन्तर जलती रहे , हम, कभी भी इसे बुझने न दें |

डा. अशोक आर्य

प्रभु हमें अक्षीण आयु तथा उत्तम सन्तान रुपी धन दे

ओउम
प्रभु हमें अक्षीण आयु तथा उत्तम सन्तान रुपी धन दे
(मण्डल ७ का सम्पूर्ण वर्णन )
डा, अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा ने वेद के इस सूक्त में उपदेश किया है कि हे पिता हमें वह धन दे जो हमे आक्षीण आयु वाला तथा उत्तम सन्तानों वाला बनावें । वह धन कौन सा है ?, इस की चर्चा इस सूक्त के इन पन्द्रह मन्त्रों में बडे ही सुन्दर ढंग से की गयी है , जो कि इस प्रकार है : –
यज्ञ की अग्नि से घर की रक्षा होती है
हम प्रतिदिन दो काल यज्ञ करें । यज्ञ भी एसे करें कि इस के लिए आग को दो अरणियों से रगड़ कर पैदा किया जावे । इस प्रकार की अग्नि से किया गया यज्ञ , इस प्रकार की प्रशस्त अग्नि से किया गया यज्ञ घर की रक्षा करता है । इस तथ्य का वर्णन ऋग्वेद के सप्तम मंडल के प्रथम सूक्त के प्रथम मंत्र में इस प्रकार मिलता है :

अग्निंनरोदीधितिभिररण्योर्हस्तच्युतीजनयन्तप्रशस्तम्।
दूरेदृशंगृहपतिमथर्युम्॥ ऋ07.1.1

मनुष्य सदा उन्नति को ही देखना चाहता है । अवन्ती को तो कभी देखना ही नहीं चाहता । मानव सदा आगे बढना चाह्ता है । पीछे लौटने की कभी उस की इच्छा ही नही होती । वह सदा ऊपर ही ऊपर उठना चाहता है नीचे देखना वह पसंद नहीं करता । इस लिए मन्त्र भी यह उपदेश करते हुए मानव को संबोधन कर रहा है कि हे उन्नति की इच्छा रखने वाले मानव ! तू अपने को आगे बढ़ने की चाहना के साथ अपनी अभिलाषा को पूरा करने के लिए , अपने हांथों को गति दे , इन्हें सदा गतिशील रख , कार्य में व्यस्त रख, इन्हें आराम मत करने दे , निरंतर कार्यशील रह ।
१ यज्ञ से रोगाणुओं का नाश
इस प्रकार अपने हांथों को गतिशील रखते हुए , क्रियाशील रखते हुए अपनी अंगुलियों से अरनियों अथवा काष्ठविशेषो में यज्ञ अग्नि को प्रदीप्त कर , यज्ञ को आरम्भ कर । यज्ञ की उस अग्नि को प्रदीप्त कर जो प्रशस्त हो , उन्नत हो अथवा उन्नति की और ले जाने वाली हो । । यह अग्नि इतनी तेजस्वी होती है कि इस के प्रकाश मात्र से , गर्मी मात्र से यह रोग के किटाणुओं के नाश का कारण बनती है अथवा युं कह सकते हैं कि यह अग्नि अपनी तेजस्विता से हानिकारक किटाणुओ का नाश कर देती है । यज्ञ की अग्नि से रोग के कीटो का अंत होता है । अत: यह यज्ञ रोग के कृमियों के संहार का कारण होता है ।
२. यज्ञ से वर्षा
यह यज्ञ वर्षा आदि लाभ देने का भी कारण होता है । वर्षा से ही हमारी वनस्पतियां बडी होती हैं तथा हमें फल देती हैं । यदि वर्षा न हो तो हमारी खेतियां लहलहा नही सकती । जब खेती ही नही रहेगी तो हम खावेंगे क्या ? हमारे वस्त्र कहा से आवेंगे ? हमारे जीवन की आवश्यकता कैसे पूर्ण होगी ? इस लिए जब हम यज्ञ करते है तो वर्षा समय पर होती है । अत: वर्षा आदि का कारण होने से भी यज्ञ प्रशंसनीय होते हैं ।
३ यज्ञ से घर की सुरक्षा
जब कहीं पर यज्ञ हो रहा होता है तो इसे बडी दूर के लोग भी होता हुआ देख लेते हैं । क्यों ? क्योंकि इस की लपटें ऊपर को अच्छी उंचाइयों तक उठती हैं । इस कारण यज्ञग्य स्थान से दूर निवास करने वाले लोग भी इस की अग्नि को देख सकते हैं । इस प्रकार दूर के लोग भी देखते हैं कि अमुक स्थान पर यज्ञ हो रहा है , जिससे उसे यह ज्ञान होता है कि इस स्थान पर निश्चित रूप से किसी का निवास है , निवास ही नही है , वहां निवास करने वाला व्यक्ति जागृत अवस्था में है , इस लिए ही यज्ञ की अग्नि जला रखी है ,। यह सब जानते हुए वह किसी दुर्भावाना से उस घर में प्रवेश करने का साहस नहीं करता ।
४ यज्ञ से उन्नति
इस सब से स्पष्ट होता है कि यह यज्ञ घर की रक्षा करने का साधन है, जहां यज्ञ होता है वह स्थान सदा सुरक्षित रहता है । उस स्थान पर , उस घर में सदा निरोगता बनी रहती है , कोई बीमारी उस घर में नहीं आती , इससे भी वह घर सुरक्षित हो जाता है । इस सब के साथ ही साथ यह घर गति वाला भी होता है । इस घर में सदा उन्नति होती रहती है । सीधी सी बात है , जिस घर में सुरक्षित वातावरण के कारण चोर आदि आने का साहस नहीं करता, रोग का प्रवेश नहीं होता, उस घर में धन का बेकार के कार्यों में प्रयोग नहीं होता , इस कारण इस घर में जीवन रक्षा के उपाय अर्थात रोटी , कपडा आदि की आवश्यकतायें थोड़े से धन से ही पूर्ण हो जाती हैं । शेष जो धन बच जाता है , वह परिवार की समृद्धि को बढाने का कार्य करता है । इससे परिजन उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, उत्तम वस्तुओ को खरीद सकते हैं तथा दान देकर अन्य साधनहीन लोगों की सहायता कर अपना यश व कीर्ति को बढा सकते हैं , सर्वत्र सम्मानित स्थान प्राप्त कर सकते हैं ।
अत: जिस यज्ञ के मानव जीवन में इतने लाभ हैं , उस यज्ञ को तो प्रत्येक मानव को अपने परिवार में प्रतिदिन दो काल अवश्य करना चाहिए तथा यश प्राप्त करना चाहिये ।

डा.अशोक आर्य

जीवन रक्षा के लिए आत्मबल को बनाए रखें

ओउम
जीवन रक्षा के लिए आत्मबल को बनाए रखें
डा. अशोक आर्य
जिस व्यक्ति का आत्मबल मजबूत है , उसे कोई पराजित नहीं कर सकता | आत्मबल ही सब सुखों का आधार है | जिस में आत्म बल नहीं, वह जीवित रहते हुए भी
मृतक के सामान है | कुछ लोग एसे होते हैं , जो प्रति क्षण अपनी ही निंदा करते दिखाईदेते हैं | उनका यह स्वभाव उनमें आत्मबल की कमीं ही दिखाता है | अपने पास
बलवान सेना होते हुए भी आत्मबल विहीन योद्धा रणक्षेत्र में विजयी नहीं होता , जब की आत्मबल का धनी कम सेना होते हुए भी विशाल सेना को नष्ट कर देता है | इस लिए जीवन की उन्नति के लिए , सफलता के लिए आत्म बल को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए | इस समबन्ध में यजुर्वेद तथा सामवेद में मन्त्र इस प्रकार हमें आदेश दे रहा है : –
योनःस्वोअरणोयश्चनिष्ट्योजिघांसति।
देवास्तंसर्वेधूर्वन्तुब्रह्मवर्मममान्तरम्॥ ऋ06.75.19
ऋग्वेद ६.७५.१९ सामवेद १८७२ ||
जब भी कोई हमारा अपना मित्र या कोई परकीय अथवा बाहरिय व्यक्ति हमें नष्ट करना चाहता है तो समस्त देवता उसे नष्ट करें | आत्मबल युक्त में सुरक्षित रहूँ |
ऊपर मन्त्र के भावार्थ से स्पष्ट होता है कि मन्त्र दो बातों की ओर संकेत करता है |
१) जो व्यक्ति दूसरों की हानि करते हैं अथवा दूसरों को मारते हैं , देवता एसे लोगों को नष्ट करें |
अपने स्वार्थ को सम्मुख रखते हुए तथा उसकी पूर्ति के लिए अनेक समय पराये तो पराये अपने भी हानि पहुँचाने के लिए क्रियमाण होते हैं | लोभ मनुष्य का सब से बड़ा शत्रु है | लोभ के कारण शत्रु तो प्राय: विनाश का खेल खेलते ही हैं , अनेक बार यह लोभ अपने मित्रों को , परिजनों को भी शत्रु बना देता है | परिवार की धन सम्पति के प्रश्न पर अनेक बार भाईयों को लड़ते व एक दूसरे को काटते देखा है | भारत में एक जाति तो माता पिता तक को भी नहीं छोड़ती | लोभ के ही कारण औरन्गजेब ने अपने ही जनक , अपने ही पिता बादशाह शाहजहाँ को बंदी बनाकर , उसकी सत्ता को छीन लिया | क्या कमीं थी सत्ता विहीन रहते हुए भी ? सब प्रकार क़ी सुख , संपदा , नौकर ,चाकर उसके पास थे | सब प्रकार के सुख उसे प्राप्त थे किन्तु फिर भी अपने ही पिता को जेल में डाल कर उससे सत्ता छीन कर अपना आधिपत्य स्थापित करने की | यह सब लोभ का ही तो परिणाम है | आज हमारे देश की भी यह ही अवस्था हो रही है | देश के उच्च स्थानों पर बैठे अनेक मंत्रीगण आज जेल की सींखचों में बंद हैं क्योंकि लोभ ने उनका पीछा नहीं छोड़ा | अपार धन के स्वामी होते हुए भी लोभवश धन को प्राप्त करने के लिए गलत मार्ग पर चले व चल रहे हैं | तभी तो माननीय अन्ना हजारे तथा बाबा रामदेव को सरकार के सम्मुख दीवार की भाँती खड़ा होना पड़ रहा है | श्री अरविन्द केजरीवाल जैसे लोगों को कहना पड़ता है कि जो संसद लोकतंत्र का मंदिर होनी चाहिए थी , वह आज भ्रष्टाचारियों का अड्डा बनती चली जा रही है , इसे रोकने का कर्तव्य (जिम्मा) जनता का है | जनता अपने अधिकारों का ठीक प्रयोग कर इसकी अस्मिता की रक्षा करे |
पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे के समय आज भाई अपने ही भाई के अधिकार पर कब्जा जमाने के लिए लड़ता हुआ देखा जा सकता है | इस अवसर पर अनेक संकट खड़े होते हैं | अनेक बार तो कुछ लोग इस अवसर पर अपने जीवन को भी खो बैठते हैं | यह सब क्या है ? यह हमारे अन्दर दुर्गुणों की , दुवासनाओं की सता का ही परिणाम है | जब हम दुर्गुणों को अपने जीवन का अंग बना लेते हैं तो हम उसके एसे ही परिणाम पाते हैं | इन दुर्गुणों के ही कारण हम अपने ही परिजनों के लिए कष्टों का कारण बनते हैं | जब पर्जन ही धन के लोभ में एक दूसरे के विनाश को तत्पर हो सकते हैं तो अन्यों की क्या चर्चा करें ?
अन्य तो होते ही अन्य हैं | वह तो प्रतिक्षण अवसर की ही खोजा में होते है | अवसर पाते ही महाविनाश का कारण बनते हैं | अत: अन्य लोग शत्रु भावना से अथवा लोभ की भावना से दूसरों की धन सम्पदा व भूमि पर बलात अधिकार कर उन्हें हानि पहुँचाने का यत्न करते हैं | मन्त्र कहता है कि जहाँ भी इर्ष्या – द्वेष की भावना है , जहाँ भी लोभ प्रभावी है , वहां एक मनुष्य दूसरे की हानि करने में कभी संकोच नहीं करता | जो व्यक्ति दुर्गुणों तथा दुर्व्यसनों से ग्रसित है , वह कभी दूसरे की सहायता नहीं कर सकता , वह तो दूसरे का विनाश कर उसकी धन सम्पदा का स्वामी बनने का प्रयास करता है | तभी ही तो प्रतिदिन लूटपाट , आगजनीं व कत्लेआम की घटनाएं हमें सुनने को मिलती हैं | कर्मों से नष्ट – भ्रष्ट एसा व्यक्ति ओर कर भी क्या सकता है ? विनाश ही उसका उद्देश्य होता है , विनाश ही उसका जीवन होता है तथा विनाश ही उसका कर्तव्य होता है |
२) ब्रह्म ही आतंरिक शक्ति है
मन्त्र का दूसरा भाग रक्षा का मार्ग बताते हुए कहता है कि वह प्यारा प्रभु ही मेरा आतंरिक कवच है | परमात्मा का अभिप्राय : उस महान प्रभु से है उस ज्ञान से है , उस सत्य से है , उस आत्मबल से है , उस आस्तिकता से है , जिस की शरण में रहते हुए हम अनेक सुखों के स्वामी बन अपने जीवन को रक्षित करते हैं | परमात्मा से रक्षित हो जब हम आत्मबल के स्वामी बन जाते हैं तो सब प्रकार की सम्पति की रक्षा की शक्ति हम में आ जाती है , जब कि आस्तक व्यक्ति सब प्रकार के पापों से स्वयं को रक्षित करने में सक्षम होता है | यह आत्मबल तथा आस्तिकता ही मनुष्य का आतंरिक बल है | जो मानव इन दो शक्तियों का धनी है , उसकी आतंरिक शक्तियां इतनी शक्तिशाली हो जाती हैं कि वह बड़े से बड़े संकट का सामना भी बड़ी सरलता से कर सकता है | जब इन दोनों के साथ ज्ञान और सत्य मिल जाते हैं तो सोने पर सुहागे का काम होता है | ज्ञान और सत्य मानव को बल प्रदान करने वाले होते हैं | इस प्रकार आत्मबल तथा
आस्तिकता के साथ जब सत्य व ज्ञान का मिश्रण हो जाता है तो यह मिल कर मानव का आतंरिक कवच बन जाता है | यह आतंरिक कवच मानव को अन्दर की अनेक बुराईयों से रक्षा का कार्य करता है |

इस प्रकार आतंरिक कवच को धारण कर मानव को उचित रूप से कर्तव्य का बोध होता है , कर्तव्यबोध से मानव सत्य व्यवहार को अपनाता है , सत्याचरण करता है | सत्याचरण से उसके अन्दर आस्तिकता का प्रवेश होता है | यह आस्तिकता ही है , जो मनुष्य को लोभ से बचाती है , यह आस्तिकता ही है जो मानव को द्वेष से रक्षित करती है तथा यह आस्तिकता ही है , जो मानव में लोभ की भावना को बलवती नहीं होने देती , इस कारण ही कहा गया है कि ज्ञान ओर सत्य आत्मा को बल देते हैं तथा यह आत्मबल मनुष्य को आस्तिक बनाता है | इस कारण ही इसे रक्षा कवच कहा गया है | अत: हम आतंरिक इर्ष्या, द्वेष से बचते हुए आत्मबल, आस्तिकता, ज्ञान व सत्य को धारण कर आत्मबल को बलवान बना कर सकल सुखों को प्राप्त करें |
डा. अशोक आर्य

हम सदा सद्गुणों को ग्रहण करें

ओउम
हम सदा सद्गुणों को ग्रहण करें
डा. अशोक आर्य
आज के युग में गुणों से भरे मार्ग पर चलने वाले लोग उँगलियों पर गिने जा सकते हैं | गुणों के ह्रास से ही संसार आज अध्:पतन की ओर जा रहा है | अपने अधिकार पाने की एक दौड़ सी लगी हुयी है | किसी को भी कर्तव्य की ओर देखने व उसे
समझने तथा उस पर चलने की भावना ही नहीं रही | आज स्थिति यहाँ तक पहुंच गयी है
कि एक बालक , जिसे पाल – पोस कर बड़ा किया जाता है, पढ़ाया – लिखाया जाता है | अच्छी प्रकार से उस का भरण – पोषण किया जाता है तथा उत्तम वस्त्र उसे पहनने को दिए जाते हैं | यह सब कर्तव्य पूर्ण करने में माता पिता जीवन भर की कमाई लगा देता है | जब उस की आयु ढल जाती है , वह बुढ़ापे की अवस्था में पहुंचता है , अनेक रोग उसे घेर लेते हैं , इस अवस्था में उसे सहारे की आवश्यकता होती है | इसी अवस्था में वही संतान, जिसे बनाने के लिए उसने अपना जीवन खपा दिया, आज उसे दुत्कारती है तथा यह कहने पर कि माता पिता ने तेरा पालन किया है तो उतर देती है कि यह तो उनका कर्तव्य था , हमारे लिए नहीं अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए यह सब किया था, अपनी नाक बचाने के लिए यह सब किया था | जब कहा जाता है की तुम्हारा भी इन के लिए कुछ कर्तव्य बनता है , तो उतर होता है कि हमारा अपने बच्चों के लिए भी कर्तव्य है, उसे पूरा करें या इन को संभालें |
जिस माता पिता ने उसे यह संसार दिखाया, आज उनकी देख रेख करने वाला कोई नहीं , क्योंकि हम ने संतान का पालन तो किया किन्तु उसे सुसंतान न बना पाए | अच्छे गुण उनमें नहीं-भर सके | ऋग्वेद के मन्त्र ५.८२.५ में प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि हे प्रभु, हमें अच्छे गुण ग्रहण करने की शक्ति दो | मन्त्र मूल रूप में इस प्रकार है :
विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुवा |
यद् भद्रं तन्न आ सुव || ऋग्वेद ५.८२.५ ||
हे संसार के उत्पादक ,कल्याणकारी परमेश्वर , आप हमारे सारे दुर्गुण, दुर्व्यसन तथा दुर्गुणों को दूर कीजिये ओर जो कल्याणकारी गुण, कर्म, पदार्थ हैं , वह हमें दीजिये |
इस मन्त्र में वैदिक संस्कृति के लक्षण बताये गए हैं | संस्कृति क्या है ?, इस का अर्थ क्या है ? आओ पहले इसे जाने , फिर हम आगे बढ़ेंगे | संस्कृति नाम है
संस्कार का | संस्कार से परिष्कार होता है तथा तथा परिष्कार से संशोधन होता है | अत: संस्कार, परिष्कार व संशोधन को ही हम संस्कृति कह सकते हैं | बालक का जन्म
होता है, उसे कुछ भी ज्ञान नहीं होता | माता , पिता उसे संस्कार देते हैं, विगत संस्कारों को परिष्क्र्त कर , उनका संशोधन करते हैं , तब कहीं जा कर वह बालक एक उत्तम मानव की श्रेणी में आ पाता है | इस लिए हमारी संस्कृति के आधार हैं संस्कार, परिष्कार तथा संशोधन | इसे समझाने के लिए हम कृषि या खेती का बड़ा ही सुन्दर उदाहरण देख सकते हैं : –
किसान अपने खेतों में से अनावश्यक घास फुंस, जो स्वयं ही उग आता है तथा भूमि की उर्वरक शक्ति का शोषण करने लगता है , को खोद कर निकाल बाहर
करता है | तत्पश्चात अपने खेत को समतल कर इस में उत्तम प्रकार के बीजों को डालता है | इस खेती में समय समय पर खाद व पानी दे कर इसे पुष्ट भी किया जाता है | इससे उगने वाले पोधों में अच्छे गुणों का आघान होता है तथा अच्छे फल स्वरूप इस का परिणाम किसान को मिलता है | कुछ एसा ही कार्य संस्कृति करती है | बालक के अन्दर जितने भी अवाच्छ्नीय तत्व होते हैं , जितने भी दुर्गुण होते हैं या किसी भी प्रकार की कमियां बालक में होती है, संस्कृति उन सब को दूर कर , उनके स्थान पर अच्छे गुणों को प्रतिस्थापित करती है | बस इस कार्य को ही हम संस्कृति कहते हैं | हम संस्कृति को संक्षेप में इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं ” दुर्गुण निवारण और सद्गुण स्थापन
ही संस्कृति है |”
ऊपर के प्रकाश को सम्मुख रखते हुए इस मन्त्र में कहा गया है कि जितने दुर्गुण, दुर्विचार या जितने भी दू:ख देने वाले तत्व हैं , हे प्रभू, वह सब हम से दूर कीजिये तथा जितने भी सद्गुण, सद्विचार अथवा शुभ तत्व हैं ,वह सब हमें प्रदान कीजिये |
इस प्रकार गुणों को प्राप्त करने व दुर्गुणों को दूर करने का कार्य यह संस्कृति मानव के जीवन पर्यंत करती रहती है, यह क्रम चलता रहता है | तब ही तो मानव दुराचारों तथा पापाचारों से अपने को बचाते हुए सद्गुणों कि प्राप्ति की और बढ़ता है , इन में प्रवृत होता है , इन्हें ग्रहण करता है | जब सद्गुणों में यह प्रवृति बद्धमूल हो जाती है , समा जाती है , तब मानव में से सब प्रकार की दुर्भावनाओं, दुराचारों का नाश हो जाता है तथा अच्छे
गुण, अच्छे संस्कारों में निरंतर वृद्धि होती रहती है | इस प्रकार अच्छे गुणों को प्राप्त करते हुए मानव मानवता से देवत्व की और बढ़ता ही चला जाता है |जिस मानव में ऐसे गुणों की प्रचुरता आ जाती है , संसार उन्हें युगों युगों तक याद करता है, उसके पदचिन्हों पर चलने का प्रयास करता है तथा उसे देवता तुल्य
आदर सत्कार देने लगता है |
अत: हम मन्त्र की भावना को अपनाते हुए संसकृति के भाव को आत्मसात करते हुए अपने दुर्गुणों को त्यागें तथा अच्छे गुणों को गृहन कर संसार के सम्मुख अच्छा
उदहारण रखें |

डा. अशोक आर्य

प्रभु प्रकाश को देखें

औ३म
प्रभु प्रकाश को देखें
प्रभु क प्रकश अपने ही ह्रिदय में होता है । इसे देखने के लिये अपने ही ह्रिदय को टटोलना होता है । हमारे औरस पुत्र हमे अपने आचरण से सुखि करते हुये दिर्घायु हो । इस्बात क प्रकव्ह रिग्वेद के सप्तम मन्दल के प्रथम सुक्त के अन्तर्गत २१वें मन्त्र मे इस प्रकर किया ग्या है : –
त्वमग्ने सुहवो रण्वसद्रि॒वसुदीति सूनो सहसो दिदीह ।
मा त्वे सचा तनये नित्या आ धडमा वीरो अस्मत्रर्योवि दसीत ॥ रिग्वेद ७.१.२१ ॥
हे बल पुत्र, अत्यन्त बलवान, अगेणी प्रभु ! आप को हम सुगमता से पुकार सके, एसे होइये । प्रत्येक प्राणी की सदा ही यह इच्छा रही है कि वह परमपिता की समीपता प्राप्त कर किन्तु पिता उसे सरलता से मिल जावे । इस भाव को ही इस मन्त्र में व्यक्त किया गया है । हे प्रभु आप रमणीय सन्दर्शन वाले होने के कारण आप उत्तम दीप्ति से , उत्तम प्रकाश से दीप्त होयिये । हमारी यह ही प्रार्थना है प्रभु कि हम सदा आप के उत्तम प्रकाश को अपने ह्रिदयों में देख सकें ।
हमारे सहायक होकर आप हमें हमारे औरस पुत्र के समबन्ध मे दग्ध न करें । हम इस औरस सन्तान के व्यवहर से कभी द्ग्ध न हों, दु:खी न हों , परेशान न हों तथा न ही उसके विक्रित व्यवहार से परेशान हों । हमारी यह जो औरस सन्तान है , वह सुशील, सदाचारी तथा योग्य हो तथा हमारे से यह नरहितकारी ,यह वीर सन्तान उपक्शीन मत हो जावे । यह सन्तान दीर्घ जीवी हो , अल्पायु मे ही हमारे से छिन न जावे ।
हम यग्याग्नि को दीप्त करें कभी दुर्मति न हों
इस मन्त्र मे प्रभु से प्रार्थना करते हुये कहा है कि हमें कभी भरण पोषण की कमीं न आवे, यग्यग्नि के माध्यम से देते रहे तथा हम कभी दुर्मति न हों । इस बात को मन्त्र इन शब्दों में कह रहा है : –
मा नो अग्ने दुर्भ्रितये सचैव देवेद्धेष्वग्नि प्र वोच ।
मा ते अस्मान्दुर्मतयो भ्रिमाच्चिद्देवस्यसूनो सहसो नशन्त ॥ रिग्वेद ७.१२२ ॥
यह मन्त्र उपदेश करते हुये कहता है कि हे प्रभु ! हम अपने भरण पोषण के लिये कभी कष्ट में न पडे । हमें कभी दुर्भति के अवस्था में न डालें । भाव स्पष्ट है कि हमें सदा यथावश्यक अन्न आदि प्राप्त होता रहे । इस के साथ ही मन्त्र बता रहा है , उपदेश कर रहा है कि प्रभु आप ही हमारे सहाय भूत हैं , हमारे सहायक हैं , अत: इस नाते आप हमें देवों के द्वारा जलायी गयी इस अग्नि के विष्य में हमें बतायिये, ग्यान करायिये, उपदेश किजिये ताकि हम भी उन देवों की ही भान्ति यग्य की अग्नि को जलाने वाले, प्रज्वलित करने वाले बनें ।
मन्त्र उस पिता को बल का पुन्ज मानते हुये उपदेश करता है, मन्त्र कह रहा है कि हे बल , शक्ति के प्रकाश पुन्ज प्रभु ! हम आप के प्रकाश से प्रकाशित हैं , इस लिये हमें कभी भ्रम से भी किसी प्रकार की दुर्मति न हो , बुरा न सोचें तथा न ही करें । हम सदा उत्तम मतिवाले, उत्तम बुद्धिवाले, उत्तम ग्यान वाले होते हुये यग्य आदि उत्तम कार्यों में व्यस्त रहे, लगे रहें ।