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“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 2″

“पहले अध्याय का जवाब “पार्ट 2″

जैसे की पिछली पोस्ट को आपने पढ़ा, उस पोस्ट में महर्षि दयानंद द्वारा की गयी क़ुरान पर समीक्षाओं और निर्देशो पर सतीश चंद गुप्ता जी द्वारा अपनी ही समीक्षाएं प्रस्तुत की गयी जो किसी भी प्रकार ठीक विदित नहीं होती क्योंकि जो उन्होंने समीक्षाएं की वो समीक्षा कम पूर्वाग्रह द्वारा उठाये गए सवाल ज्यादा मालूम होते हैं क्योंकि बिना पूरा प्रकरण समझे और ऋषि के सत्य सिद्धांत वाली बात को परखे अनजाने में ही शायद समीक्ष्याये की गयी होंगी, क्योंकि ऐसा चतुर विद्वान मेने आज तक नहीं देखा जो एक महर्षि द्वारा रचित सत्य सिद्धांतो पर आधारित पुस्तक पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देवे ?

ये भी हो सकता है की सतीश चंद गुप्ता जी ऋषि की बातो को पूर्ण अर्थ में न समझ सके हो क्योंकि ऋषि ने वेद और आर्ष ग्रंथो को ही मान्य किया लेकिन शायद लेखक सत्य सिद्धांतो की अपेक्षा किसी मत व सम्प्रदाय के पक्ष में ज्यादा झुकाव महसूस करता हो इसलिए ऐसा दोषारोपण करने का प्रयास किया हो, खैर जो भी हो हम पूरी कोशिश करेंगे की लेखक द्वारा उठाई गयी शंकाओ पर अपना मत प्रकट करे ताकि सत्य असत्य का निराकरण होने से ऋषि के सत्य सिद्धांतो की बाते लेखक को समझ आये।

ऐसे ही पहले अध्याय में 15 आक्षेप (समीक्षाएं) की गयी हैं जिनका क्रमगत जवाब इस लेख में दिया जायेगा।

1. प्रसूता छह दिन के पश्चात बच्चे को दूध न पिलाये।

समीक्षा : अब देखिये लेखक ने ऋषि की बात को न समझकर क्या से क्या लिख दिया, ऋषि ने जो लिखा वो देखिये :

“ऐसा पदार्थ उस की माता वा धायी खावे कि जिस से दूध में भी उत्तम गुण प्राप्त हों। प्रसूता का दूध छः दिन तक बालक को पिलावे। पश्चात् धायी पिलाया करे परन्तु धायी को उत्तम पदार्थों का खान पान माता-पिता करावें। जो कोई दरिद्र हो, धायी को न रख सके तो वे गाय वा बकरी के दूध में उत्तम औषधि जो कि बुद्धि, पराक्रम, आरोग्य करने हारी हों उनको शुद्ध जल में भिजा, औटा, छान के दूध के समान जल मिलाके बालक को पिलावें।” (द्वित्य समुल्लास)

अब देखिये ऋषि ने कहीं लिखा की प्रसूता ६ दिन बाद बच्चे को दूध न पिलाये, बल्कि व्यवस्था बताई है की धाई जो उत्तम पदार्थो का खान पान करवाकर उसका दूध बच्चे को पिलावे, अथवा निर्धन हो तो गाय, व बकरी के दूध में औषधि साथ में थोड़ी जल की मात्रा भी बच्चे को पिलाये। क्योंकि शिशु का पाचन कमजोर होता है इसलिए थोड़ा जल मिलाने का विधान किया है।

दूसरी बात यदि लेखक का कहना ये है की प्रसूता यानी माता का दूध बच्चे को न पिलाये तो उसके लिए भी ऋषि ने प्रथम ६ दिन तक माता को बच्चे को दूध पिलाने की बात लिखी है उसके पीछे की वैज्ञानिक बात देखिये :

माता के दूध में जो गुण होता है जिससे बच्चा स्वस्थ, निरोगी और बुद्धिमान बनता है उसे “कोलोस्ट्रम” कहते हैं, ये एक प्रकार से माता के शरीर में दूध ही होता है, जो पहले २४ घंटे में बहुत गाढ़ा, और पीला रंग का निकलता है जिसे बच्चे को पिलाना बेहद जरुरी है, २-४ दिन बाद ये हल्का पीला दूध होता जाता है और ८वे दिन ये पीला रंग यानी “कोलोस्ट्रम” सामान्य लेवल पर आ जाता है। यानी दूध का रंग और गुण दोनों ही सामान्य हो जाते हैं, और जो शुरूआती ६ दिन का गुणवर्धक और बलवर्धक औषधि सामान दूध है वो तो महर्षि ने प्रसूता द्वारा शिशु को पिलाने का विधान ऋषि ने आर्ष ग्रंथो के आधार पर कर ही दिया है।

हालांकि मेडिकल स्टडीज बताती हैं की ६ महीने तक दूध पिलाना चाहिए, लेकिन ऋषि ने जिस महत्वपूर्ण बात की और निर्देश दिया है वो समझने वाला है देखिये :

“क्योंकि प्रसूता स्त्री के शरीर के अंश से बालक का शरीर होता है, इसी से स्त्री प्रसव समय निर्बल हो जाती है इसलिये प्रसूता स्त्री दूध न पिलावे। दूध रोकने के लिये स्तन के छिद्र पर उस ओषधी का लेप करे जिससे दूध स्रवित न हो।” (द्वित्य समुल्लास)

इसलिए क्योंकि स्त्री प्रसव बाद बेहद कमजोर हो जाती है, अतः जितना स्त्री और शिशु की देखभाल और सुरक्षा की जाए वह उत्तम ही है। बाकी तो धायी भी स्तन पान करवाये तो उत्तम उत्तम पदार्थ उसके भक्ष्य हेतु हो, व निर्धन होने पर गाय व बकरी के दूध में उत्तम औषधि से शिशु का लालन हो तो भी श्रेयस्कर है।

2. 24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरूष का विवाह उत्तम है अर्थात् स्वामी जी के मतानुसार लड़के की उम्र लड़की से दूना या ढाई गुना होनी चाहिए। (3-31) (4-20) (14-143)

समीक्षा : अब देखिये हमारे विद्वान बंधू गुप्ता जी का स्वाध्याय जो कभी शरीर शास्त्र पढ़ लिया होता तो ऋषि की बात का यु छोटा सा अंश लेकर समीक्षा न करते, देखिये ऋषि ने क्या लिखा है :

इस शरीर की चार अवस्था हैं। एक (वृद्धि) जो १६वें वर्ष से लेके २५वें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की बढ़ती होती है। दूसरा (यौवन) जो २५ वें वर्ष के अन्त और २६वें वर्ष के आदि में युवावस्था का आरम्भ होता है। तीसरी (सम्पूर्णता) जो पच्चीसवें वर्ष से लेके चालीसवें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की पुष्टि होती है। चौथी (किि ञ्चत्परिहाणि) तब सब सांगोपांग शरीरस्थ सकल धातु पुष्ट होके पूर्णता को प्राप्त होते हैं। तदनन्तर जो धातु बढ़ता है वह शरीर में नहीं रहता, किन्तु स्वप्न, प्रस्वेदादि द्वारा बाहर निकल जाता है वही ४० वां वर्ष उत्तम समय विवाह का है अर्थात् उत्तमोत्तम तो अड़तालीसवें वर्ष में विवाह करना।

आज विज्ञानं सम्मत है, ये चार चरण, बाल्यावस्था, युवावस्था, परिपक्व और वृद्ध ये चार अवस्थाये हैं, ऋषि ने यही समझाने का प्रयास किया है, विज्ञानं भी मानता है की स्त्री का शरीर कम से कम 16-18 वर्ष का होना ही चाहिए और पुरुष का कम से कम 25 वर्ष। अधिक से अधिक विवाह योग्य आयु का ऋषि ने विधान दिया है क्योंकि इस अवस्था में शरीर परिपक्व और बुद्धि मच्योर होती है।

यूके में स्थित नई केस्टल यूनिवर्सिटी के विज्ञानिको द्वारा की गयी शोध से प्रमाणित हुआ की महिलाये पुरुषो के मुकाबले जल्दी यहाँ तक की बहुत जल्दी परिपक्व होती हैं वहीँ “दी नई यॉर्क टाइम्स” में पिछले साल दिसम्बर २०१४ में छपी खबर के मुताबिक ३२ वर्ष की उम्र में विवाह हुए पुरुषो की शादी कम उम्र में हुई शादियों के मुताबिक बेहतर रिजल्ट देती है।

3. गर्भ स्थिति का निश्चय होने पर एक वर्ष तक स्त्री-पुरुष का समागम नहीं होना चाहिए। (2-2) (4-65)

समीक्षा : हमारे शंकाकर्ता बंधू गुप्ता जी शायद समीक्षा करने हेतु ये भूल गए की विवाह का दायित्व संतानोत्पत्ति के साथ साथ अपनी जीवनसंगनी का स्वास्थय और शरीररक्षा भी होती है, शायद हमारे बंधू यौनसुख को ज्यादा महत्त्व देने के कारण ये बुनियादी नियम भी भूल गए की यौन सुख महज कुछ मिनट का होता है जबकि इस यौन सुख के कारण यदि भ्रूण या गर्भ में इस यौनकर्षण के द्वारा कुछ अकस्मात् गंभीर हो गया तो ये बेहद गलत बात होगी। क्योंकि गर्भ में भ्रूण बनने के बाद यदि यौन क्रिया करते रहे तो इससे गर्भ में मौजूद शिशु पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऋषि ने ये बात इसलिए भी लिखा है ताकि ब्रह्मचर्य को जीवन में अपनाया जाए, क्योंकि सभी जानते हैं वीर्य की रक्षा जीवन की रक्षा है। अब जो लोग यौनसुख के अभिलाषी हैं उनको ब्रह्मचर्य जल्दी समझ नहीं आ सकता। ये बहुत शोध और समझने का विषय है।

4. जब पति अथवा स्त्री संतान उत्पन्न करने में असमर्थ हों तो वह पुरूष अथवा स्त्री नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकते हैं। (4-122 से 149)

समीक्षा : हमारे शंकाकर्ता बंधू शायद भूल गए की यदि जिसके संतान न हो पाती हो तो उसके पास दो उपाय होते हैं, 1. संतान गोद लेना अथवा नियोग जिसे आज के समय में IVR के नाम से भी जाना जाता है। इस विषय पर विस्तार से आगे के अध्याय में लिखा जायेगा।

5. यज्ञ और हवन करने से वातावरण शुद्ध होता है। (4-93)

समीक्षा : हमारे शंकाकर्ता बंधू गुप्ता जी शायद विज्ञानं और रासायनिक क्रिया को भूल गए, क्योंकि वेद और आर्ष साहित्य को ठीक ढंग से न पढ़ पाने के यही परिणाम होता है, खैर गुप्ता जी ये देखिये आधुनिक विज्ञानं के अनुसार सूर्य की धुप क्षयरोग के लिए बचाव और उपचार दोनों है
http://www.dailymail.co.uk/…/Sunshine-vitamin-helps-treat-p…
अब इस समय पर यज्ञ करना लाभदायक ही होगा क्योंकि यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली सामग्री में मुख्य रूप से गौघृत, खांड अथवा शक्कर, मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फल जिनमे शक्कर अधिक होती है, चावल, केसर और कपूर आदि के संतुलित मिश्रण से बनी होती है।
अब इस विषय पर कुछ वैज्ञानिको के विचार :

१. फ्रांस के विज्ञानवेत्ता ट्रिलवर्ट कहते हैं : जलती हुई शक्कर में वायु – शुद्ध करने की बहुत बड़ी शक्ति होती है। इससे क्षय, चेचक, हैजा आदि रोग तुरंत नष्ट हो जाते हैं।

२. डॉक्टर एम टैल्ट्र ने मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फलो को जलाकर देखा है। वे इस निर्णय पर पहुंचे हैं की इनके धुंए में टायफाइड ज्वर के रोगकीट केवल तीस मिनट तथा दूसरी व्याधियों के रोगाणु घंटे – दो घंटे में मर जाते हैं।

३. प्लेग के दिनों में अब भी गंधक जलाई जाती है, क्योंकि इसमें रोगकीट नष्ट होते हैं। अंग्रेजी शासनकाल में डाकटर करनल किंग, आई एम एस, मद्रास के सेनेटरी कमिश्नर थे। उनके समय में वहां प्लेग फ़ैल गया। तब १५ मार्च १८९८ को मद्रास विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के समक्ष भाषण देते हुए उन्होंने कहा था – “घी और चावल में केसर मिलकर अग्नि में जलाने से प्लेग से बचा जा सकता है।” इस भाषण का सार श्री हैफकिन ने “ब्यूबॉनिक प्लेग” नामक पुस्तक मे देते हुए लिखा है, “हवन करना लाभदायक और बुद्धिमत्ता की बात है।”

महर्षि दयानंद ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है :

“जब तक इस होम करने का प्रचार रहा ये तब तक ये आर्यवर्त देश रोगो से रहित और सुखो से पूरित था अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाए।”
(स. प्र. तृतीय समुल्लास)

यहाँ ऋषि इसी विज्ञानं को समझाने की कोशिश कर रहे हैं जो आज का आधुनिक विज्ञानं मानता है। इस विषय पर विस्तार से आपको आगे के अध्यायों में बताया जायेगा।

5-5 पॉइंट के हिसाब से लेखक की 15 शंकाओ का जवाब दिया जा रहा है जिस विषय को शार्ट में लिखा है उसका पूरा विस्तार उक्त विषय से सम्बंधित अध्याय में पूर्ण रूप से प्रस्तुत करने का ध्येय रहेगा। क्योंकि हमारे बंधू गुप्ता जी लेखन को नहीं जानते होंगे इसलिए जो १५ पॉइंट इन्होने पहले अध्याय में उठाये वही १५ पॉइंट पर पूरी किताब बेस है, इसलिए यहाँ जिन पॉइंट को विस्तार से बताया उनका सम्बन्ध आगे की अध्याय में नहीं है इसलिए यही सम्पूर्ण बता दिया है, क्योंकि बार बार एक ही विषय को बताते रहने से “पुनरुक्ति दोष” होता है जो हम नहीं चाहते, लेकिन हमारे शंकाकर्ता बंधू की तो पूरी पुस्तक ही इस दोष से युक्त है, क्योंकि जगह जगह एक ही विषय को बार बार व्यर्थ ही घसीटा जा रहा है ताकि इनकी पुस्तक बड़ी हो जाए और ऋषि पर लेखक कुछ आपत्ति दर्ज करवा सके, सो ये तो हो नहीं सका उलटे शायद लेखक पर ही अब कुछ सवाल खड़े हो गए हैं जिनमे प्रमुख है “पुनरुक्ति दोष”

ऋषि के लेखन पर तो लेखक ने व्यर्थ ही सवाल खड़े करे मगर जो इनकी पुस्तक में पुनरुक्ति दोष है उसपर लेखक कब विचार करेंगे ?

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 3″

“पहले अध्याय का जवाब पार्ट 3″

पिछली पोस्ट में सतीश चंद गुप्ता जी द्वारा लिखित पुस्तक के पहले अध्याय में उठाये 15 पॉइंट में से 5 के जवाब दिए गए अब गत लेख से आगे बढ़ते हुए 6 से 10 पॉइंट तक के जवाब इस लेख के माध्यम से देने का प्रयास किया जाएगा।

6. मांस खाना जघन्य अपराध है। मांसाहारियों के हाथ का खाने में आर्यों को भी यह पाप लगता है। पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानिएगा। (10-11 से 15)

समीक्षा : लेखक की इस समीक्षा का जवाब देने से पहले हम बता दे की ये पॉइंट भी “पुनरक्ति दोष” में आता है, क्योंकि लेखक की पुस्तक में “जीव हत्या और मांसाहार” – अहिंसा परमो धर्मः” और “शाकाहार का प्रोपेगंडा” ये तीन अध्याय मांस भक्षण पर ही आधारित है तब पहले अध्याय में भी इस पॉइंट को जताना और फिर तीन अध्याय एक ही विषय पर बनाने, ये कोई विद्वान लेखक का काम तो हो नहीं सकता, शायद इसी कारण से लेखक महर्षि दयानंद की सत्यार्थ प्रकाश समझ भी न सका और समीक्षाओं का समीक्षा कर डाली,

खैर पॉइंट बनाया है तो इस पॉइंट का जवाब भी शार्ट में ही दिया जाएगा, क्योंकि हम अपने लेखन में “पुनरक्ति दोष” नहीं चाहेंगे। विस्तार से जवाब सम्बंधित विषय के अध्याय में दिया जायेगा।

इस पॉइंट का जवाब देने के लिए हम क़ुरान की कुछ आयते प्रकट करना चाहते हैं देखिये :

और धरती पर चलने वाले सब के सब जानवर तथा अपने दोनों पंखो से उड़ने वाले पक्षी तुम्हारी तरह की जमाते (दल) हैं। (क़ुरान ६:३८)

इस आयात में बताया की जैसे मनुष्य हैं वैसे ही हमारी तरह पशु पक्षी भी हैं।

क्या तू देखता नहीं की अल्लाह वह है की जो कोई आसमानो और जमीन में निवास करते हैं सब उसी का गुण-गान करते हैं और उसी के सामने पक्षी पंक्तिबद्ध हो कर उपस्थित हैं। उनमे से प्रत्येक (अपने प्राकृतिक स्वाभाव के अनुसार) अपनी उपासना एवं अपने स्तुति गान को जानता है ……………
(क़ुरान २४:४२)

इस आयत में बताया जैसे मुस्लिम बंधू नमाज करते हैं वैसे ही प्रत्येक पशु पक्षी अपनी अपनी भाषा में उस ईश्वर की उपासना करते हैं यानी वो पशु पक्षी भी मुस्लिम हैं। यदि ऐसा कहो की प्रत्येक माँसाहारी पशु शाकाहारी पशु को अपना भोजन बनाता है, तो यहाँ ये समझने वाली बात होगी की यदि हम भी खुद को पशु मान ले तब तो हमें किसी अन्य पशु को खाने में कोई बुराई न दिखेगी, मगर हम अपने को पशु समझते हैं ? हम तो मनुष्य हैं जो अल्लाह की बनाई सर्वोत्कृष्ट रचना है तो क्या हम अपनी बुद्धि उपयोग न करे ? या केवल पशु के मांस खाने के चक्कर में अपनी जीभ लोलुपता से मनुष्य होते हुए भी पशु से भी निम्न दर्जे के जाकर हैवान बनकर मांसभक्षण करे ?

क्या ये मनुष्यता होगी ?

अथवा मुहम्मद साहब की सिखाई तालीम की पशुओ की सेवा करो, पशुओ को ना मारो, आदि उत्तम बातो का ग्रहण कर वेद धर्म का पालन कर मनुष्य बने रहे।

और हमने धरती को सारी मखलूक के भले के लिए बनाया है।
(क़ुरान ५५:११)

जैसे मनुष्यो है वैसे ही पशु पक्षी भी हैं और सभी मखलूक के जीने का अधिकार अल्लाह ने दिया है , उनके भले के लिए धरती बनाई है तब कैसे किसी मनुष्य को किसी पशु अथवा पक्षी की जान लेने का अधिकार मिला ? क्यों वो किसी पशु पक्षी की जिंदगी लेकर अपनी भूख मिटाता है ? क्या अल्लाह यही चाहता है या मुहम्मद साहब ने ऐसा आदेश किया है ?

आइये हदीस से दिखाते हैं मुहम्मद साहब ने क्या निर्देश किया है :

अबु हुरैरा ने बताया की रसूल से कुछ लोगो ने पूछा की क्या पशुओ की सेवा सुश्रुवा करने से हमें प्रतिफल (इनाम) मिलेगा ?

रसूल ने कहा हाँ, किसी भी पशु पक्षी व जीवित प्राणी की सेवा करने से प्रतिफल (इनाम) मिलता है, ऐसी सेवा करने वाले मनुष्यो को अल्लाह धन्यवाद देता है और उनके पाप माफ़ करता है।

Reference : Sahih al-Bukhari 6009
In-book reference : Book 78, Hadith 40
USC-MSA web (English) reference : Vol. 8, Book 73, Hadith 38

अब बताओ, लेखक महोदय क्या अब भी अल्लाह, क़ुरान और रसूल की इतनी दयापूर्ण बातो को नकार कर, केवल जीभ के स्वाद के लिए पशुओ की निर्दयता से हत्या करकर अपना पेट भरना चाहोगे ?

जब क़ुरान भी पशु पक्षियों को मनुष्यो की जमात मानता है, उन्हें भी धरती पर रहने का सामान अधिकार अल्लाह और क़ुरान देता है, मुहम्मद साहब पशु पक्षियों को बेजबान मानकर उनकी सेवा करने को उम्दा कर्म बताते हैं, और तो और पशु पक्षियों को अल्लाह ने नमाज़ पढ़ने वाला मुस्लिम तक मान
लिया तब भी क्या एक मुस्लिम दूसरे मुस्लिम का क़त्ल कर उसे खा कर पेट भरे तो उसे पाप नहीं तो क्या लेखक महोदय पुण्य का कार्य कहेंगे ?

The Holy Prophet(s) used to say: “Whoever is kind to the creatures of God, is kind to himself.” (Wisdom of Prophet Mohammad(s); Muhammad Amin; The Lion Press, Lahore, Pakistan; 1945).

इसे पढ़िए और समझिए – मुहम्मद साहब जो इतने बड़े और महान पशु पक्षी प्रेमी थे जो सभी पशु पक्षियों मनुष्यो में एक ही जीव देखते थे, जो दयालुता के पैरोकार थे, कृपया उनके नाम पर जीव-हत्या करके खाना और पाप न मानना उलटे महर्षि दयानंद जी पर आक्षेप कर देना जो क़ुरान और मुहम्मद साहब की कही सत्य बात “जीव हत्या पाप” के सन्दर्भ में ही लेखक का शंका और सवाल उठा देना ये कोई विद्वान मनुष्य का कार्य नहीं हो सकता।

7. मुर्दों को गाड़ना बुरा है क्योंकि वह सड़कर वायु को दुर्गन्धमय कर रोग फैला देते हैं। (13-41, 42)

समीक्षा : यहाँ इस विषय पर केवल शार्ट में प्रकाश डाला जा रहा है ताकि विस्तार से सम्बंधित विषय पर आधारित अध्याय में बताया जा सके। देखिये कोई भी जीव चाहे मनुष्य हो अथवा पशु व पक्षी मरते ही हैं और शरीर से आत्मा का वियोग होने पर वह शरीर रोगाणुओं और जीवाणुओ का घर बन जाता है जो सड़ता है, क्योंकि शरीर में मौजूद जो मिक्रोजियम्स हैं वह शरीर को अंदर से सडाना स्टार्ट करते हैं जिससे मृत शरीर का pH बैलेंस बिगड़ता है और अति दुर्गन्ध बदबू आनी स्टार्ट हो जाती है, जब यह मृत शरीर जमीन में गाड़ा जाता है तब pH बैलेंस बहुत अधिक हो जाता है और प्राकृतिक रूप शरीर के “गुड न्यूट्रिएंट्स” बाहर नहीं निकल पाते जिससे जमीन के अंदर ही विकार उत्पन्न होता है और अधिक बदबू आती है।

इसका एक दूसरा पहलु और भी है इस तरह के मृत शरीर को दफनाए जाने से जमीन में सोडियम की मात्रा २०० से २००० गुना अधिक तक बढ़ जाती है जिससे पेड़ पौधों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।

तीसरा महत्वपूर्ण कारण है की मृत शरीर को दफनाने पर जमीन में अनेक तरह के बेक्टेरिआ और जानलेवा टॉक्सिन्स का निर्माण होने लगता है, अधिकतर पशुओ को जमीन में दफनाने से एक खतरनाक टोक्सिन botulinum टोक्सिन उत्पन्न होता है जो धरती में मौजूद पानी को विषैला करता जाता है जिससे कैंसर और अनेक प्रकार की भयंकर बीमारिया उत्पन्न होती हैं।

अब आप लोग खुद भी सोचिये की क़ुरान में कहीं भी मृत शरीर को दफनाने का वर्णन मिलता भी नहीं है, तो क्यों व्यर्थ ही शरीर को दफनाया जाता है ? क्या लेखक कोई आयत क़ुरान में से दे सकते हैं जो मृत शरीर को दफनाने के लिए अल्लाह ने नाजिल की हो ?

8. लघुशंका के पश्चात् कुछ मुत्रांश कपड़ों में न लगे, इसलिए ख़तना कराना बुरा है। (13-31)

समीक्षा : लेखक ने ऋषि की क़ुरान पर की गयी समीक्षाओं पर अपनी इतनी व्यर्थ समीक्षाएं की हैं की वे शायद भूल गए की खतना करना खुद क़ुरान का आदेश नहीं है, पूरी क़ुरान में कहीं भी अल्लाह ने खतना का आदेश नहीं दिया, जब क़ुरान खुद खतना का आदेश नहीं करती तब लेखक को इसके फायदे व नुकसान का अंदाजा नहीं हो सकता, क्योंकि अल्लाह सर्वज्ञ है इसलिए उसने क़ुरान में खतना का आदेश नहीं किया क्योंकि वो जानता है की खतना करना वैज्ञानिक नहीं। क्योंकि ऋषि की बात जायज़ है, यदि अल्लाह खतना का आदेश करता तो पहले ही मनुष्य को खतना करके भेजता लेकिन ऐसा नहीं किया इसके विपरीत लेखक ने खुदाई काम यानि मानव शरीर से छेड़छाड़ और क़ुरान की शिक्षा पर ही आक्षेप किया है, देखिये :

(यह सभी गवाहियाँ बताती हैं की) निसंदेह हम ने मानव को अच्छी से अच्छी अवस्था में पैदा किया है।
(क़ुरान 95:4)

और हमने मनुष्य को गीली मिटटी के सत से बनाया। (१३)

फिर उसे एक ठहरने वाले स्थान में वीर्य के रूप में रखा। (१४)

फिर वीर्य को प्रगति देकर ऐसा रूप प्रदान किया की वह चिपकने वाला एक पदार्थ बन गया, फिर उस चिपकने वाले पदार्थ को मांस की एक बोटी बना दिया, फिर हमने इसके बाद उस बोटी को हड्डियों के रूप में बदल दिया, फिर हमने उन हड्डियों पर मांस चढ़ाया। फिर उसे एक और रूप में बदल दिया। अतः बड़ी बरकत वाला है वह अल्लाह जो सब से अच्छा पैदा करने वाला है। (१५)

(क़ुरान २३:१३-१५)

जिस ने जो कुछ भी पैदा किया है सर्वोत्तम शक्तियों से पैदा किया है और मनुष्य को गीली मिटटी से पैदा किया है। (८)

फिर उसे पूर्ण शक्तिया प्रदान की और उसमे अपनी और से आत्मा डाली तथा तुम्हारे लिए कान, आँख और दिल बनाये, परन्तु तुम लेश मात्र भी धन्यवाद नहीं करते। (१०)

(क़ुरान ३२:८-१०)

अतः तू अपना सारा ध्यान धर्म में लगा दे, इस प्रकार की तुम में कोई टेढ़ापन न हो। तू अल्लाह के पैदा किये हुए प्राकृतिक स्वाभाव को अपना, (वह प्राकृतिक स्वाभाव) जो अल्लाह ने लोगो में पैदा किया है। अल्लाह की रचना में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। यही कायम रहने वाला धर्म है, किन्तु बहुत से लोग जानते नहीं।

(क़ुरान ३०:३०)

उपरोक्त आयतो पर ध्यान से पढ़ने पर ज्ञात होता है की क़ुरान में अल्लाह ने स्पष्ट रूप से बता दिया है की अल्लाह ने मनुष्य को पूर्ण, उत्तम और सबसे बेहतर शरीर के साथ बनाया है, साथ ही अल्लाह ने बता दिया की उसकी बनाई संरचना में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, न ही कोई करेगा, जो ऐसा कार्य करता है वह धर्म का कार्य नहीं हो सकता क्योंकि अल्लाह ने क़ुरान में ही कहा है :

इसी प्रकार उन लोगो को मूर्खता पूर्ण बातो की और बहका कर ले जाया जाता है जो अल्लाह की आयतो का हठ से इंकार करते हैं। (६४)

क़ुरान ४०:६४)

अब शायद लेखक को समझ आ जाना चाहिए की अल्लाह की बनाई सम्पूर्ण और सर्वोत्कृष्ट रचना जिसमे कोई खोट नहीं उसमे जबरदस्ती खतना करवाना न तो विज्ञानं पूर्ण कोई तथ्य है न ही क़ुरान का आदेश बल्कि अल्लाह की अवज्ञा करना ही सिद्ध होता है जिसे क़ुरान में मूर्खतापूर्ण बातो की और बहकाना या फिर शैतान का काम कहा जा सकता है।

अतः जो काम मात्र कुछ सेकंड में पानी से धोकर साफ़ किया जा सकता है , उसके लिए खतना करवाना क़ुरान अनुसार ठीक विदित नहीं होता। अतः ऋषि का कथन युक्तियुक्त है। इस विषय पर विस्तार से लेख भी लिखा जाएगा ताकि जो मिथक लेखक ने एड्स से बचाव के दिए हैं उनका खंडन आप सबको विदित होगा। अब लेखक बताये की वो क्यों क़ुरान के खिलाफ जाकर खतना करवाने की सलाह दे रहे हैं ?

9. दंड का विधान ज्ञान और प्रतिष्ठा के आधर पर होना चाहिए। (6-27)

समीक्षा : लेखक शायद समीक्षा करने में ये बात भूल गए की ऋषि ने कितनी उत्तम दंड विधान की और इशारा किया है, शायद लेखक केवल पूर्वाग्रह का शिकार है जो ऋषि की इतनी महान सोच को भी न समझ पाया देखिये :

जिस अपराध में साधारण मनुष्य पर एक पैसा दण्ड हो उसी अपराध में राजा को सहस्र पैसा दण्ड होवे अर्थात् साधारण मनुष्य से राजा को सहस्र गुणा दण्ड होना चाहिये। मन्त्री अर्थात् राजा के दीवान को आठ सौ गुणा उससे न्यून सात सौ गुणा और उस से भी न्यून को छः सौ गुणा इसी प्रकार उत्तर-उत्तर अर्थात् जो एक छोटे से छोटा भृत्य अर्थात् चपरासी है उस को आठ गुणे दण्ड से कम न होना चाहिये। क्योंकि यदि प्रजापुरुषों से राजपुरुषों को अधिक दण्ड न होवे तो राजपुरुष प्रजा पुरुषों का नाश कर देवे, जैसे सिह अधिक और बकरी थोड़े दण्ड से ही वश में आ जाती है। इसलिये राजा से लेकर छोटे से छोटे भृत्य पर्य्यन्त राजपुरुषों को अपराध में प्रजापुरुषों से अधिक दण्ड होना चाहिये।।३।।

वैसे ही जो कुछ विवेकी होकर चोरी करे उस शूद्र को चोरी से आठ गुणा, वैश्य को सोलह गुणा, क्षत्रिय को बत्तीस गुणा।।४।।

ब्राह्मण को चौसठ गुणा वा सौ गुणा अथवा एक सौ अट्ठाईस गुणा दण्ड होना चाहिये अर्थात् जितना जितना ज्ञान और जितनी प्रतिष्ठा अधिक हो उस को अपराध में उतना हीे अधिक दण्ड होना चाहिए।।५।।

राज्य का अधिकारी धर्म्म और ऐश्वर्य की इच्छा करने वाला राजा बलात्कार काम करने वाले डाकुओं को दण्ड देने में एक क्षण भी देर न करे।।६।।

(षष्ठम समुल्लास)

अब सोचिये ऐसी महान विचारधारा और दण्डव्यवस्था केवल वैदिक धर्म में ही मिल सकती है और महर्षि दयानंद जैसे आप्त पुरुष ही इसका उद्घोष कर सकते हैं तथा वैदिक जनता ही मान्य करेगी। क्योंकि लेखक को तो इसमें भी दोष नजर आ रहा है।

आप खुद सोचिये यदि कोई जज गलत निर्णय से किसी सामान्य निरपराध पुरुष को सजा देवे तो क्या ऐसे निर्णयकारी जज को सामान्य से अधिक दंड नहीं मिलना चाहिए ? बिलकुल तर्कपूर्ण और सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने वाली दण्डव्यवस्था है लेकिन क्या क़ुरान ऐसी व्यवस्था देती है ? क्या लेखक बताएँगे ऐसी समृद्ध और तर्कपूर्ण दण्डव्यवस्था का विवरण क़ुरान या अन्य किसी धर्म ग्रन्थ के आधार पर ?

10. ईश्वर के न्याय में क्षणमात्र भी विलम्ब नहीं होता । (14-105)

समीक्षा : लेखक ने ऋषि के क़ुरान पर उठाये आक्षेपों की समीक्षा में ईश्वर की न्यायवेवस्था पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए, क्या ऐसे लेखन और सोच को बुद्धिमानी के स्तर पर कुछ अंक दिए जा सकते हैं ? नित दैनिक रूप से हम देखते हैं की हमें क्षण प्रतिक्षण सुख दुःख आदि का अनुभव होता है, प्रत्येक क्षण में हम सुखी व दुखी अनुभव करते हैं क्या ये सुख दुःख हमें कर्मो के आधार पर प्रत्येक क्षण में प्राप्त नहीं हो रहा ?

क्या ये दुःख सुख जो हम जीवन के प्रत्येक क्षण में अनुभव करते हैं ये ईश्वर की न्यायवेवस्था नहीं है ? क्या लेखक को ये सुख दुःख अनुभव नहीं होते ? इस आक्षेप पर इससे अधिक और क्या लिख सकते हैं जबकि लेखक केवल पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर ईश्वर की न्यायकारी व्यवस्था पर ही प्रश्नचिन्ह लगा रहा हो ? शायद क़ुरान की “अंतिम दिन” वाली न्यायकारी व्यवस्था से लेखक पूर्ण सहमत है, मगर हम लेखक से ही पूछना चाहेंगे यदि अंतिम दिन ही सबका न्याय होगा तो फिर जो प्रत्येक जीव जीवन के हर क्षण में सुख दुःख अनुभव कर रहा वो किस प्रभाव के कारण ? क्योंकि लेखक शायद पूर्वजन्मों का फल तो मानता नहीं तो जब पुर्जन्मों का फल नहीं तो आपके किये इसी जन्म के कर्म फल अनुसार आपको हर क्षण सुख दुःख अनुभव हो रहे हैं तब “अंतिम दिन” न्याय होगा ये वयवस्था तो ठप हो गयी।

तो अब लेखक बताये यदि वो पूर्वजन्म भी नहीं मानते और केवल अंतिम दिन ही न्याय होने पर विश्वास करते हैं तो जो हर क्षण में सुख दुःख अनुभव हो रहा वो किस कारण ?

लेख बहुत बड़ा हो गया और अभी और भी लिखते गए तो बहुत बढ़ जाएगा इससे पाठकगण इतने से ही समझ जायेंगे बाकी आगे के लेख में लेखक के उठाये १०-१५ पॉइंट के जवाब दिए जायेंगे।

लौटो वेदो की और।

नमस्ते।

 —

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 4″

“पहले अध्याय का जवाब “पार्ट 4″

पिछली पोस्ट में सतीश चंद गुप्ता जी द्वारा लिखित पुस्तक के पहले अध्याय में उठाये 15 पॉइंट में से 10 पॉइंट तक के जवाब दिए गए अब गत लेख से आगे बढ़ते हुए 11 से 15 पॉइंट तक के जवाब इस लेख के माध्यम से देने का प्रयास किया जाएगा।

11. ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता। (7-52) (14-15)

समीक्षा : प्रस्तुत पुस्तक के लेखक शायद अपनी लेखनी में वो वजन नहीं बना रहे की महर्षि के द्वारा क़ुरान पर उठाई गयी शंकाओ और समीक्षाओं पर वाजिब टिप्पणी कर पाये या फिर लेखक को क़ुरान और बाइबिल आदि अन्य मत मतांतरों की शिक्षाओ का ज्ञानाभाव है क्योंकि क़ुरान में ही अल्लाह मियां अनेको जगह अपने भक्तो के पाप क्षमा नहीं करते।

बाबा आदम और हव्वा ये वो नाम है जो अल्लाह ने अपने हाथो से बनाया और इनको वो ज्ञान दिया जो सर्वोत्कृष्ट था, मगर शायद उतना ज्ञान भी नहीं दिया जितना शैतान को था तो बाबा आदम को सर्वोत्कृष्ट ज्ञान दिया इसपर शंका होती है, क्योंकि जो अपने नंगे होने को नहीं जान पाये उनके ज्ञान (इल्म) में अल्लाह ने कमी रखी और उन्हें ज्ञान प्राप्त करने वाले फल से भी दूर रखा लेकिन शैतान ने क़ुरान में बाबा आदम और हव्वा को सच बोल दिया और अंततः आदम हव्वा को अदन का बाग़ (जन्नत) से निकलवा कर पृथ्वी पर लड़ाई झगड़ा और खून खराबा खातिर एक दूसरे का शत्रु बनवाकर भिजवा दिया। लेकिन सोचने वाली बात ये है की बाबा आदम अपनी इस गलती पर अल्लाह से माफ़ी मांगते रहे, मगर अल्लाह मियां ने माफ़ नहीं किया देखिये :

उन दोनों ने कहा की हे हमारे रब ! हम ने अपने आप पर अत्याचार किया। यदि तू हमें क्षमा नहीं करेगा एवं हम पर दया नहीं करेगा तो हम अवश्य घाटा पाने वालो में से हो जायेंगे। (२४)

तब उस (अल्लाह) ने कहा की तुम सारे के सारे यहाँ से चले जाओ। तुम में से कुछ लोग दूसरे कुछ लोगो के शत्रु होंगे और तुम्हारे लिए इसी धरती में ठिकाना तथा कुछ समय तक (भाग्य) में लाभ उठाना होगा। (२५)

फिर कहा की इसी पृथ्वी में तुम जीवित रहोगे और इसी में मरोगे और इसी में से निकले जाओगे। (२६)

(क़ुरान ७:२४-२६)

अब यहाँ लेखक को ज्ञात होना चाहिए की जो ईश्वर के क्षमा करने पर महर्षि के आक्षेप पर समीक्षा की वो क़ुरान के हिसाब से भी ठीक विदित नहीं होती क्योंकि ये कोई ऐसा पाप नहीं था जिसे अल्लाह माफ़ नहीं कर सकता था, न ही आदम ने अल्लाह से हटकर कोई पूज्य बनाया, ना ही कुफ्र किया, न पत्थर पूजा, बल्कि उसने तो ज्ञान बढ़ाने वाले वृक्ष का फल खाया, जिससे अल्लाह ने रोका था, अब ये बात तो सिद्ध है की ईश्वर पाप का फल देता है, लेकिन यहाँ तो इस आयत में पाप की जगह पुण्य कार्य यानी ज्ञान वृद्धि को ही पाप मान कर अल्लाह ने आदम हव्वा को गुनहगार बना दिया, जबकि महर्षि ने इसी बात पर सत्यार्थ प्रकाश में जो समीक्षा की वो समझने वाली है, देखिये :

“(समीक्षक) अब देखिये खुदा की अल्पज्ञता! अभी तो स्वर्ग में रहने का आशीर्वाद दिया और पुनः थोड़ी देर में कहा कि निकलो। जो भविष्यत् बातों को जानता होता तो वर ही क्यों देता? और बहकाने वाले शैतान को दण्ड देने से असमर्थ भी दीख पड़ता है। और वह वृक्ष किस के लिये उत्पन्न किया था? क्या अपने लिये वा दूसरे के लिये ? जो अपने लिये किया तो उस को क्या जरूरत थी? और जो दूसरे के लिये तो क्यों रोका? इसलिये ऐसी बातें न खुदा की और न उसके बनाये पुस्तक में हो सकती हैं। आदम साहेब खुदा से कितनी बातें सीख आये? (१२)”
(सत्यार्थ प्रकाश चतुर्दश समुल्लास)

यदि अल्लाह अपने भक्तो के पाप क्षमा करता होता तो बाबा आदम और हव्वा कभी धरती पर आते ही नहीं, इसलिए सिद्ध है की अल्लाह न तो आदम के न ही जिन्नो के पाप क्षमा करता है, लेकिन यहाँ तो अल्लाह मिया पर ही आक्षेप खड़ा हो जाता है की बहकाने वाले को तो मोहलत दी और जिसकी कोई गलती नहीं उसे दंड दिया, अब लेखक इस पर समीक्षा कब करेंगे ?

12. तथ्य – सूर्य केवल अपनी परिधि (Axis) पर घूमता है किसी लोक के चारों ओर (Orbit) नहीं घूमता। (8-71)

समीक्षा : अब देखिये लेखक की कितनी बड़ी अज्ञानता की महर्षि की बात को बिना सोचे समझे ही क्या से क्या लिख डाला, मुझे तो लेखक पूर्वाग्रह से अत्यधिक पीड़ित लगता है क्योंकि जो बिना पूर्वाग्रह के सत्यार्थ प्रकाश पढ़ लिया होता तो इतनी बड़ी अवैज्ञानिक बात नहीं करता, देखिये महर्षि ने क्या लिखा और लेखक ने अल्पज्ञता से क्या समझा :

आ कृष्णेन रजसा वत्तर्मानो निवेशायन्नमतृं मर्त्यं च ।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ।।
यजुः० अ० ३३। मं० ४३।।

जो सविता अर्थात् सूर्य्य वर्षादि का कर्त्ता, प्रकाशस्वरूप, तेजोमय, रमणीयस्वरूप के साथ वर्त्तमान; सब प्राणी अप्राणियों में अमृतरूप वृष्टि वा किरण द्वारा अमृत का प्रवेश करा और सब मूर्तिमान् द्रव्यों को दिखलाता हुआ सब लोकों के साथ आकर्षण गुण से सह वर्त्तमान; अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता। वैसे ही एक-एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य्य प्रकाशक और दूसरे सब लोकलोकान्तर प्रकाश्य हैं। जैसे-

दिवि सोमो अधि श्रितः।। -अथर्व० कां० १४। अनु० १। मं० १।।

जैसे यह चन्द्रलोक सूर्य्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य्य के प्रकाश ही से प्रकाशित होते हैं। परन्तु रात और दिन सर्वदा वर्त्तमान रहते हैं क्योंकि पृथिव्यादि लोक घूम कर जितना भाग सूर्य के सामने आता है उतने में दिन और जितना पृष्ठ में अर्थात् आड़ में होता जाता है उतने में रात। अर्थात् उदय, अस्त, सन्ध्या, मध्याह्न, मध्यरात्रि आदि जितने कालावयव हैं वे देशदेशान्तरों में सदा वर्त्तमान रहते हैं अर्थात् जब आर्य्यावर्त्त में सूर्योदय होता है उस समय पाताल अर्थात् ‘अमेरिका’ में अस्त होता है और जब आर्य्यावर्त्त में अस्त होता है तब पाताल देश में उदय होता है। जब आर्य्यावर्त्त में मध्य दिन वा मध्य रात है उसी समय पाताल देश में मध्य रात और मध्य दिन रहता है। जो लोग कहते हैं कि सूर्य घूमता और पृथिवी नहीं घूमती वे सब अज्ञ हैं। क्योंकि जो ऐसा होता तो कई सहस्र वर्ष के दिन और रात होते। अर्थात् सूर्य का नाम (ब्रध्नः) है। यह पृथिवी से लाखों गुणा बड़ा और क्रोड़ों कोश दूर है। जैसे राई के सामने पहाड़ घूमे तो बहुत देर लगती और राई के घूमने में बहुत समय नहीं लगता वैसे ही पृथिवी के घूमने से यथायोग्य दिन रात होते हैं; सूर्य के घूमने से नहीं। जो सूर्य को स्थिर कहते हैं वे भी ज्योतिर्विद्यावित् नहीं। क्योंकि यदि सूर्य न घूमता होता तो एक राशि स्थान से दूसरी राशि अर्थात् स्थान को प्राप्त न होता। और गुरु पदार्थ विना घूमे आकाश में नियत स्थान पर कभी नहीं रह सकता।
(सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास)

महर्षि दयानंद ने वेदो और आर्ष ग्रंथो के गहन शोध पश्चात ही सत्यार्थ प्रकाश लिखा, जिसमे साफ़ साफ़ लिखा है की सूर्य अपनी परिधि में तो घूमता है साथ ही आकाशगंगा का चक्कर भी लगाता है क्योंकि यदि सूर्य न घूमता तो एक राशि से दूसरी राशि को प्राप्त न होता। ये बात पूर्णतः वैज्ञानिक है, इसका प्रबल प्रमाण है की हम आर्य लोग मकर संक्रांति नामक पर्व मानते हैं क्योंकि इसी दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। मकर संक्रान्ति के दिन से ही सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। इसलिये इस पर्व को कहीं-कहीं उत्तरायणी भी कहते हैं।

सूर्य किसी लोक का चक्कर नहीं लगाता क्योंकि सभी लोक सूर्य का चक्कर लगाते हैं, शायद आपको गांगेयवर्ष समझ नहीं आ रहा इसलिए कुछ दिक्कत हो रही है, आइये आपको गंगेयवर्ष समझाने का प्रयास करते हैं, देखिये हमारा सौरमंडल सूर्य और उसकी परिक्रमा करते ग्रह, क्षुद्रग्रह और धूमकेतुओं से बना है। इसके केन्द्र में सूर्य है और सबसे बाहरी सीमा पर वरुण (ग्रह) है। वरुण के परे यम (प्लुटो) जैसे बौने ग्रहो के अतिरिक्त धूमकेतु भी आते है।

जब केंद्र में सूर्य है, और वो अपनी धुरी पर घुमते हुए अन्य लोको को आकर्षण से बांधते हुए अपनी कक्षा में घूम कर अन्य लोको के साथ सौरमंडल के केंद्र में रहते हुए एक चक्कर लगता है उसे गांगेय वर्ष कहते हैं, क्योंकि सूर्य सौरमंडल के केंद्र में है इसलिए वो किसी ग्रह का चक्कर नहीं लगा सकता यदि सूर्य सौरमंडल के केंद्र में न होता और कोई अन्य ग्रह केंद्र में होता तब आप कह सकते थे की सूर्य उस ग्रह का चक्कर लगता है, हालाँकि ये हो ही नहीं सकता, क्योंकि सूर्य स्वयं सौरमंडल के केंद्र में है जिससे सभी ग्रहो को आकर्षण से बंधे रखता है और सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं साथ ही सूर्य उन सभी ग्रहो को लेकर गांगेय वर्षी कर चक्र अपनी कक्षा से पूरा करता है। ज्यादा लिखने से लेख बड़ा हो जायेगा, अधिक जानकारी के लिए गांगेय वर्ष पढ़े, साथ ही सूर्य सिद्धांत।

शायद लेखक को हमारे आर्य पर्व पद्धति और आर्य ज्योतिष विज्ञानं का सिद्धांत ज्ञात नहीं मेरी उनसे विनती है की वो एक बार सूर्य सिद्धांत पुस्तक पढ़ कर स्वाध्याय करे व्यर्थ के आक्षेप और टीका टिप्पण्यिो में समय व्यर्थ न करे। यदि हो सके तो क़ुरान से प्रमाणित कर दिखाए की सूर्य अपनी धुरी पर घूमता है ऐसी कोई आयत क़ुरान में निर्देशित की हो ?

13. सूर्य, चन्द्र, तारे आदि पर भी मनुष्य सृष्टि है। (8-73)

समीक्षा : इस पुस्तक में जो लेखक हैं वो शायद अपनी इसी पुस्तक में प्रस्तुत “निवेदन” को खुद नहीं पढ़ पाये हैं, या फिर मुमकिन है की किसी अन्य व्यक्ति से लिखवा दिया हो, क्योंकि इनके इस “निवेदन” में ही जो इन्होने लिखा उसे हम यहाँ दोहराना चाहते हैं देखिये :

यह ब्रह्माण्ड जिसमे हम रहते हैं, अत्यंत विशाल, विस्तृत और अद्भुत है। इसकी विशालता का अंदाजा ……………… इस ब्रह्माण्ड में न जाने कितने आकाशीय पिंड हमारे सूर्य से लाखो गुना बड़े हैं और न जाने कितने सौर मंडल हैं। करोडो सौर मंडलों से बनने वाली एक आकाश गंगा है। जिसमे अरबो खरबो तारे हैं। इस ब्रह्माण्ड में न जाने कितनी करोड़ आकाश गंगाये हैं। …………… हर आकाशीय पिंड गतिमान है। आकाशीय पिंडो की गति में एक नियमबद्धता है, दिन रात के प्रत्यावर्तन में नियमबद्धता है। वनस्पति जगत में नियमबद्धता है। प्राणी जगत में नियमबद्धता है।

कितना विचित्र है यह ब्रह्माण्ड। देखकर आश्चर्य होता है। प्रश्न यह की जहाँ नियम हो क्या वहां नियामक नहीं होना चाहिए ? …. ब्रह्माण्ड की नियमबद्धता इस बात का प्रमाण है की कोई चेतन शक्ति इसका सञ्चालन कर रही है। यहाँ की नियमबद्धता इस बात का भी प्रमाण है की वह परम शक्ति एक है।

………..शेष

ये यहाँ आप सभी पाठको दिखाना इसलिए भी आवश्यक था की इस पुस्तक के लेखक या तो बुद्धिमान हैं या फिर केवल महर्षि के सत्य सिद्धांतो से अनभिज्ञ और पूर्वग्रह से ग्रसित हैं, क्योंकि खुद मान रहे हैं की इतना बड़ा ब्रह्माण्ड है, उसमे करोडो आकाशगंगाये, अनेक पिंड, असंख्य ग्रह आदि, साथ ही नियमबद्धता और एक ही ईश्वर जो चेतन है, तो मेरे लेखक महोदय, महर्षि दयानंद ने भी तो यही सत्यार्थ प्रकाश में बताया है, जब नियम बद्धता है तभी तो इस पृथ्वी जैसे ग्रह पर हम जीवन ले रहे हैं, ऐसे ही अनेको ग्रहो आदि पर जीवन क्यों नहीं होगा ? क्या वो अनेको आकाशगंगा और ग्रह सिर्फ ब्रह्माण्ड को भरने और सजाने का शोपीस मात्र हैं ? क्या बुद्धिमानी की बात है लेखक की खुद ही अपनी निवेदन में सत्य भी लिखता है और फिर महर्षि की बातो पर आक्षेप भी करता है, क्या इसे लेखक का मानसिक दिवालियापन घोषित न किया जाए ?

आइये एक नजर महर्षि दयानंद के उस विचार पर जो सत्यार्थ प्रकाश में लिखा गया :

(प्रश्न) सूर्य चन्द्र और तारे क्या वस्तु हैं और उनमें मनुष्यादि सृष्टि है वा नहीं?

(उत्तर) ये सब भूगोल लोक और इनमें मनुष्यादि प्रजा भी रहती हैं क्योंकि-

एतेषु हीदँ्सर्वं वसुहितमेते हीदँ्सर्वं वासयन्ते तद्यदिदँ्सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति।। -शत० का० १४।।

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य इन का वसु नाम इसलिये है कि इन्हीं में सब पदार्थ और प्रजा वसती हैं और ये ही सब को वसाते हैं। जिस लिये वास के निवास करने के घर हैं इसलिये इन का नाम वसु है। जब पृथिवी के समान सूर्य चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात् उन में इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुष्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्य होंगे? परमेश्वर का कोई भी काम निष्प्रयोजन नहीं होता तो क्या इतने असंख्य लोकों में मनुष्यादि सृष्टि न हो तो सफल कभी हो सकता है? इसलिये सर्वत्र मनुष्यादि सृष्टि है।

(प्रश्न) जैसे इस देश में मनुष्यादि सृष्टि की आकृति अवयव हैं वैसे ही अन्य लोकों में होगी वा विपरीत?

(उत्तर) कुछ-कुछ आकृति में भेद होने का सम्भव है। जैसे इस देश में चीने, हबशी और आर्य्यावर्त्त, यूरोप में अवयव और रंग रूप आकृति का भी थोड़ा-थोड़ा भेद होता है इसी प्रकार लोकलोकान्तरों में भी भेद होते हैं। परन्तु जिस जाति की जैसी सृष्टि इस देश में है वैसी जाति ही की सृष्टि अन्य लोकों में भी है। जिस-जिस शरीर के प्रदेश में नेत्रदि अंग हैं उसी-उसी प्रदेश में लोकान्तर में भी उसी जाति के अवयव भी वैसे ही होते हैं। क्योंकि-

सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ।

दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ।। – ऋ० मं० १०। सू० १९०।।

धाता परमात्मा (ने) जिस प्रकार के सूर्य, चन्द्र, द्यौ, भूमि, अन्तरिक्ष और तत्रस्थ सुख विशेष पदार्थ पूर्वकल्प में रचे थे वैसे ही इस कल्प अर्थात् इस सृष्टि में रचे हैं तथा सब लोक लोकान्तरों में भी बनाये गये हैं। भेद किञ्चित्मात्र नहीं होता।

(प्रश्न) जिन वेदों का इस लोक में प्रकाश है उन्हीं का उन लोकों में भी प्रकाश है वा नहीं?

(उत्तर) उन्हीं का है। जैसे एक राजा की राज्यव्यवस्था नीति सब देशों में समान होती है उसी प्रकार परमात्मा राजराजेश्वर की वेदोक्त नीति अपने सृष्टिरूप सब राज्य में एक सी है।

(सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास)

अब बताओ लेखक महोदय क्या अपना निवेदन ही पुस्तक से हटवा दोगे या महर्षि दयानंद की बात को अपना लोगे, आओ आपको विज्ञानं से भी प्रमाणित करता हु देखो :

“Scientists have been saying for years that nothing could possiblily live on this star’s surface, but we’ve scanned Andross’s ships going to and from the star. Only he would be foolhardy as to try to find military benefit in exploring a red dwarf like Solar. It’s another situation we need to have you to check out for us Fox. Nothing in the Cornerian armoury can withstand the extreme temperature near the surface of the star, but your Arwings should be able to make it.”
—General Pepper’s Flight Log, pg 70

ये खोज पढ़ी सूर्य पर मिलिट्री बेनिफिट और जहाजो का बेडा आदि बनाने की योजना है, पता नहीं लेखक कौन सी दुनिया में जी रहे, खैर अभी नासा की खोज पढ़िए :

WASHINGTON—In an announcement that could forever change the way scientists study the hydrogen-based star, NASA researchers published a comprehensive study today theorizing that the sun may be capable of supporting fire-based lifeforms. “After extensive research, we have reason to believe that the sun may be habitable for fire-based life, including primitive single-flame microbes and more complex ember-like organisms capable of thriving under all manner of burning conditions,” lead investigator Dr. Steven T. Aukerman wrote, noting that the sun’s helium-rich surface of highly charged particles provides the perfect food source for fire-based lifeforms. “With a surface temperature of 10,000 degrees Fahrenheit and frequent eruptions of ionized gases flowing along strong magnetic fields, the sun is the first star we’ve seen with the right conditions to support fire organisms, and we believe there is evidence to support the theory that fire-bacteria, fire-insects, and even tiny fire-fish were once perhaps populous on the sun’s surface.”

ज्यादा जानकारी के लिए लिंक :

http://www.theonion.com/article/scientists-theorize-sun-could-support-fire-based-l-34559

इससे भी ज्यादा जानकारी के लिए बता दू, जितनी भी रिसर्च होती हैं बायोलॉजी में उसमे ये सिद्धांत है की “All life’s energy was solar”.

ये सिद्धांत है अटल सिद्धांत, इसलिए वेद ज्ञान ही सत्य और परम प्रमाण है, और भी अनेको प्रमाण हैं विज्ञानं से ही पर लेख बढ़ता जाएगा इसलिए विवशता है पर पता नहीं इस पुस्तक के लेखक को वेद ज्ञान और महर्षि दयानंद की विद्वत्ता का बोध कब होगा ?

14. सिर के बाल रखने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। (10-02)

समीक्षा : लेखक के आक्षेप ही ऐसे हैं की जिनपर केवल हंसी आती है क्योंकि जो पूरा प्रकरण पढ़ लिया होता तो आपको शंका न होती, केवल एक हिस्सा उठा कर सोचो की महर्षि पर आक्षेप सिद्ध हो जायेगा सो संभव नहीं, पहले आपको दिखाते हैं महर्षि ने क्या लिखा है :

ब्राह्मण के सोलहवें, क्षत्रिय के बाईसवें और वैश्य के चौबीसवें वर्ष में केशान्त कर्म और मुण्डन हो जाना चाहिये अर्थात् इस विधि के पश्चात् केवल शिखा को रख के अन्य डाढ़ी मूँछ और शिर के बाल सदा मुंडवाते रहना चाहिये अर्थात् पुनः कभी न रखना और जो शीतप्रधान देश हो तो कामचार है; चाहै जितने केश रक्खे और जो अति उष्ण देश हो तो सब शिखा सहित छेदन करा देना चाहिये क्योंकि शिर में बाल रहने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। डाढ़ी मूँछ रखने से भोजन पान अच्छे प्रकार नहीं होता और उच्छिष्ट भी बालों में रह जाता है।।१३।।
(दशम सम्मुलास)

अब देखिये लेखक की पूर्वाग्रह से ग्रसित मानसिकता की जो ऋषि ने समझाया उसे तो समझे नहीं उलटे अपनी पुस्तक में तथाकथित समीक्षा करने चल पड़े, समझिए ऋषि की बात को,

यदि शीत प्रदेश, यानी जो ठंडा इलाका में रहने वाले लोग हो, तो वो सर के बाल ना कटाये, चाहे बढे बाल ही क्यों न रखे क्योंकि बाल जो होते हैं वो तंतु (फाइबर) पदार्थ से बने होते हैं क्योंकि ये गर्मी उत्पन्न करते हैं इसलिए शीत प्रदेशो में उत्पन्न हुए पशुओ के बाल सामान्य मौसम के देशो में उत्पन्न हुए पशुओ से अधिक पाये जाते हैं, बाल में सबसे ज्यादा कार्बन होता है, जो थर्मल इंसुलेशन उत्पन्न करके गर्मी को सोख्ता है, जिससे सर में पसीना जल्दी नहीं सूखता और उससे अनेक प्रकार के फंगस और बेक्टेरिअ उत्पन्न होते हैं, अभी हाल में की गयी शोध के अनुसार Cutaneous Allodynia ये बीमारी जो माइग्रेन से सम्बंधित है इसी कारण होती है, और जैसे की आप जानते ही हैं की माइग्रेन जो है वो बुद्धि को कमजोर करता है, इससे ऋषि की बात सत्य सिद्ध होती है।

हम लेखक को केवल ऋषि के सत्य सिद्धांत पर खोज करने हेतु आग्रह करेंगे ताकि व्यर्थ के आक्षेप से लेखक अपना और दुसरो का समय बर्बाद न करते जाए।

15. स्वामी दयानंद ने लिखा है कि वेदों का अवतरण ऋषियों की मातृभाषा में न होकर संस्कृत भाषा में हुआ। संस्कृत भाषा उस समय किसी देश अथवा क़ौम की भाषा नहीं थी। कारण यह लिखा है कि अगर ईश्वर किसी देश अथवा क़ौम की भाषा में वेदों का अवतरण करता तो ईश्वर पक्षपाती होता, क्योंकि जिस देश की भाषा में वेदों का अवतरण होता उसको पढ़ने और पढ़ाने में सुगमता और अन्यों को कठिनता होती। (7-89) (7-92)

समीक्षा : यदि इस पुस्तक के लेखक ने कभी भी संस्कृत विद्या को समझने का गंभीर प्रयास किया होता तो शायद महर्षि की इस बात का भी जवाब खुद ही मिल जाता, मगर खेद की लेखक को केवल और केवल आक्षेप करने की ही फुर्सत मिली, स्वाध्याय की नहीं, क्योंकि लेखक को ज्ञात होना चाहिए की वेदो में जो संस्कृत पायी जाती है उसे वैदिक संस्कृत कहते हैं, जो कभी किसी काल में किसी भी देश व समाज की भाषा नहीं रही, क्योंकि इस वैदिक संस्कृत से ही लौकिक संस्कृत का ज्ञान ऋषि मुनि विकसित कर पाये अतः लौकिक संस्कृत ही भारत की भाषा थी लेकिन वैदिक संस्कृत तो सभी भाषाओ की जननी है, ऐसा विचार और मत तो अनेको पश्चिम विज्ञानिको का भी है। शायद लेखक को ज्ञात नहीं, आइये हम ही समझने का प्रयास करते हैं :

“अब हम समझते हैं भाषा का विस्तार किस प्रकार हुआ –

देखिये वेद में वैदिकी वाणी को नित्य कहा है –

तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूप नित्यया। (ऋग्वेद 8.75.6)

नित्यया वाचा – अर्थात नित्य वेदरूप वाणी –

यानी की वैदिक संस्कृत यह सब वाणियों (भाषाओ) की अग्र और प्रथम है –

बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्नं (ऋग्वेद 10.71.1)

प्रभु से दी गयी वेदवाणी ही इस सृष्टि के प्रारंभिक शब्द थे। ईश्वर की प्रेरणा से यह वाणी सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों पर प्रकट होती है।

यज्ञेन वाचः पदवीयमायणतामानवविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्। (ऋग्वेद 10.71.3)”

“प्रभु अग्नि आदि को वेदज्ञान देते हैं इससे अन्य यज्ञीय वृत्तिवाले ऋषियों को यह प्राप्त होती है –

इसी मन्त्र में आगे लिखा है –

इस ही प्रथम, निर्दोष और अग्र वाणी को लेकर लोग बोलने की भाषा का विस्तार करते हैं।

तामाभृत्या व्यदधुः पुरूत्रा तां सप्त रेभा अभी सं नवंते।। (ऋग्वेद 10.71.3)

इस वाणी को ऋषि मानव समाज में प्रचारित करते हैं। यह वेदवाणी सात छन्दो से युक्त है अर्थात २ कान – २ नाक – २ आँख और एक मुख ये सात स्तोता बनकर इसे प्राप्त करते हैं – उपरोक्त प्रमाणों और तथ्यों से सिद्ध होता है की मनुष्य की एक ही भाषा थी – और मनुष्यो ने इसी वेद वाणी से अर्थात प्रथम व पूर्ण भाषा संस्कृत से – अपूर्ण भाषाए – अर्थात जितनी भाषाए आज प्रचलित हैं उनका निर्माण किया – लेकिन वैदिक संस्कृत में आज भी कोई फेर बदल नहीं हो सका – क्योंकि वैदिक संस्कृत पूर्ण भाषा है –”

अब यहाँ सोचने वाली बात है की अलक़ुरआन एक संयुक्त शब्द है जो अरबी के दो शब्दों से बना है, एक “अल” जिसका अर्थ है “विशेष” दूसरा “कुरान” जो “किरतैअन” धातु से निकला है जिसका अर्थ “पढ़ना” है अतः अलक़ुरआन का अर्थ हुआ वह जो लेख विशेष प्रकार से पढ़ा जाये। इस से सिद्ध हुआ की अलक़ुरआन भी लिखी हुई पुस्तक का नाम है न की ईश्वर के ज्ञान का। तो हमारे लेखक बंधू इस तथ्य पर कब शंका प्रकट कर रहे हैं की क़ुरआन केवल पढ़ने के लिए है, ज्ञान के लिए नहीं ?

जबकि “वेद” “विद्” ज्ञाने धातु से निकला है। वेद का अर्थ है “ज्ञान”। यह किसी लेख वा पुस्तक का नाम नहीं प्रत्युत उस ज्ञान का नाम है जो परमात्मा ने मनुष्यो के कल्याणार्थ प्रकाशित किया है।

अतः इतने से सिद्ध है की महर्षि दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित वेदो और आर्ष साहित्यो का ज्ञान विज्ञानं सत्य पर आधारित है, हम लेखक के पहले अध्याय में मौजूद कुछ और आक्षेपों के भी विज्ञानसम्मत जवाब देंगे।

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते।

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 5″

पहले अध्याय का जवाब “पार्ट 5”

पिछली पोस्ट में सतीश चंद गुप्ता जी द्वारा लिखित पुस्तक के पहले अध्याय में उठाये 15 पॉइंट में से 10 पॉइंट तक के जवाब दिए गए अब गत लेख से आगे बढ़ते हुए बाकी बचे हुए अन्य आक्षेपों तक के जवाब इस लेख के माध्यम से देने का प्रयास किया जाएगा।

1. ईश्वर जगत का निमित्त (Efficient Cause) कारण है, उपादान कारण (Material Cause) नहीं है। (७-४५) (८-३)

इस आक्षेप में लेखक आगे लिखता है :

वैदिक धर्म एकेश्वरवाद का प्रतिपादन करता है और उसे सृष्टिकर्ता भी मानता है, मगर स्वामी दयानंद ने कहा की उपादान कारण के बिना जगत की उत्पत्ति संभव नहीं। ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनो अनादि हैं। ईश्वर मात्र शिल्पी है, उसने सृष्टि का विकास किया है, सृजन नहीं किया। अर्थात जिस प्रकार कुम्भकार ने घड़ा बनाया, मिटटी नहीं बनाई, ठीक इसी प्रकार परमेश्वर ने जगत बनाया। प्रकृति और जीव दोनों संसाधन (Material) पहले से मौजूद थे।

समीक्षा : आइये देखिये लेखक ने महर्षि की बात को कितना समझा और जाना, महर्षि दयानंद ने ईश्वर, जीव और प्रकृति ये तीनो अनादि हैं का सार्वभौमिक और अटल सिद्धांत वेद ज्ञान के आधार पर ही दिया है, लेकिन कुछ लोग इसे पूर्ण न समझकर व्यर्थ आक्षेप करते हैं, देखिये महर्षि ने क्या समझाने का प्रयास किया है :

६-‘अनादि पदार्थ’ तीन हैं। एक ईश्वर, द्वितीय जीव, तीसरा प्रकृति अर्थात् जगत् का कारण, इन्हीं को नित्य भी कहते हैं। जो नित्य पदार्थ हैं उन के गुण, कर्म, स्वभाव भी नित्य हैं।

८-‘सृष्टि’ उस को कहते हैं जो पृथक् द्रव्यों का ज्ञान युक्तिपूर्वक मेल होकर नाना रूप बनना।

(स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः)

यहाँ विचारणीय है की ऋषि जिस महत्वपूर्ण सिद्धांत की और ध्यानाकर्षित कर रहे वो कितना विज्ञानपूर्ण महत्त्व रखता है देखिये, ये जगत जो कार्य रूप दिख रहा है, वह जड़ यानी अचेतन है, और ईश्वर चेतन सत्ता है, कोई भी चेतन सत्ता अपने में से कभी भी जड़ पदार्थ उत्पन्न नहीं कर सकती। क्योंकि चेतन सत्ता चेतन ही उत्पन्न करती है जो उसके जैसा ही होता है ये सार्वभौमिक नियम है। मनुष्य, पशु, पक्षी चेतन सत्ता हैं वे कभी जड़ पदार्थ उत्पन्न नहीं कर सकते। और जड़ पदार्थ जड़ होता है वो वैसे भी स्वयं से कुछ उत्पन्न नहीं कर सकता है। मुस्लिम बंधू अल्लाह को चेतन मानते हैं, लेकिन उसी चेतन से जड़ पैदा हुआ ये तथ्य कैसे स्वीकार्य है जबकि क़ुरान में कहीं नहीं लिखा की अल्लाह ने अपने में से धरती आकाश पैदा किये। यदि कहीं लिखा हो तो लेखक दिखाए ?

अब कुछ ऐसा भी कहते हैं चेतन से चेतन उत्पन्न होता है तो ईश्वर से जीव क्यों नहीं क्योंकि दोनों चेतन हैं तो इसका जवाब केवल इतने से ही समझ आ जायेगा की ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापी है तथा जीव अल्पज्ञ और एकदेशी है, ये दोनों सत्ता वस्तुतः चेतन हैं मगर दोनों के गुण भिन्न हैं, अतः ये सिद्ध है की ईश्वर और जीव भिन्न भिन्न चेतन सत्ता है क्योंकि यदि ईश्वर से ही जीव की उत्पत्ति हुई होती तो जीव भी सर्वज्ञ, सर्वव्यापी होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता, लेकिन दोनों ही चेतन सत्ता अजर हैं क्योंकि इनकी उत्पत्ति कभी नहीं होती और प्रकृति निर्जीव सत्ता है जो उपादान कारण है। इसमें वेद से प्रमाण है :

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ||
ऋग्वेद म.1| सू.164| म.20||

महर्षि दयानन्द जी ने इसके अर्थ इस प्रकार किये हैं –
(द्वा) जो ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों में सद्दश (सयुजा) व्याप्य व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रतायुक्त सनातन अनादि हैं और (समानम्) वैसा ही (वृक्षम्) अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात् जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न भिन्न हो जाता है वह तीसरा अनादि पदार्थ इन तीनों के गुण, कर्म और स्वभाव भी अनादि हैं (तयोरन्यः) इन जीव व ब्रह्म में से एक जो जीव है वह इस वृक्षरूप संसार में पापपुण्यरूप फलों को (स्वाद्वति) अच्छे प्रकार भोक्ता है और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को (अनश्नन्) न भोक्ता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर बाहर प्रकाशमान हो रहा है | जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप; तीनों अनादि हैं ।

अब क़ुरान से प्रमाण दिखाते हैं की ईश्वर (अल्लाह), जीव और प्रकृति तीन सत्ताएं अनादि हैं देखिये :

अल्लाह का ९९वे वा नाम “अल-बरी” है जिसके मायने हैं, “विकासक” अर्थात जो विकास करता है। अब क़ुरान से वो आयत दिखाते हैं जहाँ अल्लाह को विकासक बताया है :

“अल्लाह प्रत्येक वस्तु को उस की स्थति के अनुसार उसे आकृति एवं रूप प्रदान करने वाला है।”

(क़ुरान ५९:२५)

आइये अब दिखाते हैं क़ुरान की वो आयत जिसमे सृष्टि को अनादि बताया गया है :

फिर उसने आकाश की और ध्यान दिया और (आकाश) केवल एक प्रकार के कुहरा सामान था। उस (अल्लाह) ने उस (आकाश) से तथा धरती से कहा की तुम दोनों स्वेच्छापूर्वक या अनिच्छापूर्वक मेरी आज्ञा का पालन करने के लिए आ जाओ, तो वे दोनों बोले की हम आज्ञाकारी बन कर आ गए हैं।

(क़ुरान ४१:१२)

उपरोक्त आयत में आकाश और धरती पहले से विद्यमान है, जब अल्लाह ने बुलाया तो अत्यंत आज्ञाकारी बनकर आ गए। अतः इस आयत में अल्लाह के अतिरिक्त एक निर्जीव सत्ता विद्यमान तो है, पर वो निर्जीव सत्ता सुन सकती है, ऐसा अद्भुद विज्ञानं हमें क़ुरान पढ़ने पर ही ज्ञात हुआ।

क्या इंकार करने वालो ने यह नहीं देखा की आकाश तथा धरती दोनों बंद थे। अतः हमने उन्हें खोल दिया।

(क़ुरान २१:३१)

यहाँ भी आकाश और धरती पहले से ही विद्यमान हैं जो कारण रूप में हैं उन्हें अल्लाह मियां कार्य रूप में ले आये।

निस्संदेह तुम्हारा रब अल्लाह ही है जिसने आसमानो और जमीन को छह दिनों में पैदा किया है, फिर वह राज सिंघासन पर दृढ़ता पूर्वक विराजमान हो गया।

(क़ुरान ७:५५)

यहाँ अल्लाह और अल्लाह का सिंघासन पहले से विद्यमान है, अतः सिद्ध है की अल्लाह के साथ साथ एक निर्जीव सत्ता अनादि है। लेकिन सोचने वाली बात यह यह की जो सर्वशक्तिमान सत्ता “अल्लाह” मात्र कहता है और हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है मगर सृष्टि को बनाने में छह दिन लग गए ? ये हमें क़ुरान पढ़ने पर ही ज्ञात हुआ।

और वही है जिसने आसमानो और जमीन को छह दिनों में पैदा किया है ताकि वह तुम्हारी परीक्षा ले की तुम में से किन कर्म अधिक अच्छे हैं और उसका अर्श पानी पर है।

(क़ुरान ११:८)

यहाँ अल्लाह के सिंघासन के साथ साथ पानी भी अनादि तत्व विद्यमान है।

और आसमान फट जाएगा तथा वह उस दिन बिलकुल कमजोर दिखाई देगा (१७)

और फ़रिश्ते उस के किनारो पर होंगे तथा उस दिन तेरे रब्ब के अर्श (सिंघासन) को आठ फ़रिश्ते उठा रहे होंगे। (१८)

क़ुरान (६९:१७-१८)

यहाँ जब प्रलय आ जाएगी उसके बाद की कहानी बताई जा रही है, अतः सिद्ध है की अल्लाह का सिंघासन और उसको उठाने वाले फ़रिश्ते अनादि हैं। लेकिन आकाश फाड़कर प्रलय आएगी ये क़ुरान का विज्ञानं सोचने वाला है।

वे नरक (की आग में पड़ने) वाले हैं और इसमें पड़े रहेंगे। (८२)

और जो लोग ईमान लाये हैं तथा शुभ कर्म किये हैं वे उसमे सदैव निवास करेंगे। (८३)

(क़ुरान २:८२-८३)

यहाँ जीवो की स्थति बताई है, जो अल्लाह और रसूल का इंकार करने वाले और अल्लाह की नजर में यही सबसे बुरा कर्म है, अतः जो ऐसे बुरे कर्म करने वाले हैं नरक में जायेंगे और जो ईमान लाये वो जन्नत जायेंगे तथा उसमे वे सदैव रहेंगे।

अर्थात क़ुरान के अनुसार भी ईश्वर, जीव और प्रकृति अनादि सिद्ध होते हैं। क्योंकि प्रलय (क़यामत) के बाद अल्लाह जीवो को इकठ्ठा करेगा और जन्नत जहन्नम को उनसे भरेगा। अब हमारा सवाल लेखक से है की जब क़यामत में यदि पूरी दुनिया और सब कुछ नष्ट हो जाएगा तो जन्नत में अंगूर, दूध की नहर, सोने के कड़े, सुन्दर बिछौने, और हूरे गिलमा आदि जन्नती मनुष्यो के साथ सदैव रहेंगे और जहन्नम में आग, जक्कूम का वृक्ष और खोलता पानी वहां के जीवो के साथ सदैव रहेगा तो ऐसा कैसे संभव है की दुनिया भी नष्ट होगी और ये सब भी रहेगा ? क्या लेखक को अब भी संदेह है की सृष्टि अनादि नहीं ?

ये ही कुछ उपरोक्त आयतो और क़ुरान में मौजूद अनेको आयतो को पढ़ने के बाद ये सिद्ध हो जाता है की लेखक ने केवल पूर्वाग्रह के आधार पर ही ऋषि के सत्यार्थ प्रकाश पर अपनी अज्ञानता पूर्ण टिका टिप्पणी की हैं, यदि क़ुरान का अवलोकन ही कर लिया होता तो ऐसी शंकाए उठाने की आवश्यकता महसूस नहीं होती।

2. सृष्टि का प्रारम्भ नहीं है, अर्थात सृष्टि का कोई आदि सिरा नहीं है। (८:५३)

समीक्षा : शायद लेखक ने महर्षि की बात को सही से समझने का प्रयास ही नहीं किया क्योंकि लेखक के लेखन से महसूस होता है की लेखक केवल ऋषि की बातो पर आक्षेप ही करना चाहता है, समझना कुछ भी नहीं, देखिये ऋषि ने क्या कहा :

८-‘सृष्टि’ उस को कहते हैं जो पृथक् द्रव्यों का ज्ञान युक्तिपूर्वक मेल होकर नाना रूप बनना। (स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः)

यानि जब जब कारण रूप से कार्य रूप में सृष्टि आएगी यानि जब जब जगत लय (छुप, कारण) को प्राप्त होकर दृश्य (कार्य) रूप में आएगा आएगा ये सृष्टि है। ये कार्य निरंतर चलता है। यानी जब जब प्रलय आएगी तब रात्रि और जब जब सृष्टि पुनः अस्तित्व में आयगी तब दिन स्वरुप समझे। ये प्रत्येक कल्प (१४ मन्वन्तर) तक सृष्टि कार्य रूप रहती है, इसे सामान्य भाषा में ब्रह्म दिन के नाम से जानते हैं। और जब ये समय पूरा हो जाता है तब प्रलय होती है इसे इसे सामान्य भाषा में ब्रह्म रात्रि के नाम से जानते हैं। जितने समय यानी १४ मन्वन्तर का दिन होता है उतने ही समय की रात्रि होती है। यानी प्रलय के बाद ये सब जगत सूक्ष्म रूप (कारण अवस्था) में रहता है।

७-‘प्रवाह से अनादि’ जो संयोग से द्रव्य, गुण, कर्म उत्पन्न होते हैं वे वियोग के पश्चात् नहीं रहते परन्तु जिस से प्रथम संयोग होता है वह सामर्थ्य उन में अनादि है और उस से पुनरपि संयोग होगा तथा वियोग भी, इन तीनों को प्रवाह से अनादि मानता हूँ। (स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः)

जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन, ऐसे ही रात से पूर्व दिन और दिन से पूर्व रात रहता है, इसी कारण से ऋषि ने सृष्टि क्रम को अनादि कहा है। इसे प्रवाह रूप कहते हैं, अब इसमें दिन पहले आया या रात शायद लेखक बता सके ?

आइये अब लेखक को क़ुरान क्या कहती है वो दिखाते हैं :

और वह संसार की उत्पत्ति को आरम्भ भी करता है और फिर उसे बार बार दोहराता रहता है और यह बात उसके लिए अति सुगम है।

(कुरान ३०:२८)

यहाँ संसार की उत्पत्ति बताई है और आरम्भ साथ में ये प्रोसेस बार बार चलता रहता है ये भी स्पष्ट कर दिया है, क्या अब समीक्षा करने में निपुण लेखक क़ुरान की इस आयात की समीक्षा करके बता पाएंगे की जब बार बार यानि प्रवाह से अनादि चक्र सृष्टि का चल रहा है तो इसका पहली बार सृजन कब हुआ ?

ऐसी ही क़ुरान में अनेको आयते हैं जिनमे सृष्टि को प्रवाह से अनादि बताया है, जब ऋषि ने वेदादि आर्ष ग्रंथो को पढ़कर सत्यार्थ प्रकाश में भी यही बताया तो इससे लेखक की सत्याग्रही सोच प्रदर्शित नहीं होती जबकि पूर्वाग्रह से ग्रस्त मानसिकता का बोध अवश्य ही होता है।

3. सम्पूर्ण मानवता एक माँ बाप की संतान नहीं है (८:५१)

समीक्षा : समीक्षक महोदय अपने आक्षेपों की प्रक्रिया में कुछ इस कदर फंसे की विज्ञानं और सामजिक ताने बाने को पूरी तरह ताक पर रख दिया, यहाँ तक की समीक्षक ने उस सिद्धांत की धज्जिया उड़ा दी जिससे सामजिक परिवेश में नैतिक मूल्यों को बढ़ावा मिलता है और सामाजिक संरचना और पारिवारिक मूल्यों में बढ़ती होती है, मगर समीक्षक को शायद सामाजिक परिवेश और नैतिक मूल्यों से कोई सरोकार नहीं मगर नियोग जैसी व्यवस्था पर बेवजह एक अध्याय लिखने तक को तैयार हैं, मगर कुरान में प्रतिपादित अनेको कुरीतियों और व्यवस्थाओ पर समीक्षा को तैयार नहीं उसी का नतीजा है की पूरी तरह अप्राकृतिक और अवैज्ञानिक आधार पर भी सम्पूर्ण मानवता को एक माँ बाप की संतान सिद्ध करने पर समीक्षक का पूरा जोर है, जबकि ये सिद्धांत न तो कुरान मानने को तैयार है और ना ही महर्षि दयानंद को ही ये बात स्वीकार हुई मगर समीक्षक को आपत्ति है, आइये पहले क़ुरान, बाइबिल और वेद के आलोक में देखे :

बाइबिल :

“Polls by Gallup and the Pew Research Center find that four out of 10 Americans believe humanity descend from Adam and Eve, but NPR reports that evangelical scientists are now saying publicly that they can no longer believe the Genesis account and that it is unlikely that we all descended from a single pair of humans.’That would be against all the genomic evidence that we’ve assembled over the last 20 years so not likely at all,’says biologist Dennis Venema, a senior fellow at BioLogos Foundation,

गैलप एंड द पिउ रिसर्च सेंटर द्वारा किये गए पोल्स में प्रत्येक १० अमेरिकी नागरिको में से ४ ने स्वीकार किया की सम्पूर्ण मानवता आदम और हव्वा से निकली है, लेकन एनपीआर रिपोर्ट्स के मुताबिक इंजील के शोधकर्ताओं का अब ये मानना है और ये बात वो सार्वजानिक तौर से बता भी रहे हैं की उत्पत्ति अध्याय के आधार पर सम्पूर्ण मानवता एक माता पिता (आदम हव्वा) की संतान नहीं है। डेनिस वेनेमा बायोलोगोस फाउंडेशन की वरिष्ठ बाोलॉजिस्ट का कहना है की उनकी संस्था द्वारा पिछले २० वर्षो में एकत्र किये गए जेनेमिक प्रमाणों से आदम हव्वा का सिद्धांत एकदम उलट है, यानी सम्पूर्ण मानवता के जो जेनेमिक आंकड़े पाये गए वो एक माता पिता के नहीं अनेको माता पिता के हैं।

“दा इकोनॉमिस्ट” द्वारा नवंबर २०१३ में प्रायोजित चर्चा कार्यक्रम में इंजील के शोधकर्ताओं ने माना और विज्ञानिक आंकड़ों के आधार पर ये सिद्ध करने का प्रयास किया गया की सम्पूर्ण मानवता कम से कम १०,००० (दस हजार) दम्पत्तियों (माता पिता) की संतान है, एक आदम और हव्वा की नहीं।

अब थोड़ा क़ुरान का नजरिया :

हमने उन्हें कहा की “निकल जाओ। तुम में से कुछ व्यक्ति एक दूसरे के हैं।

(क़ुरान २:३७)

यहाँ ध्यान देने वाली बात है की अल्लाह मियां वर्तमान भाव में कह रहे हैं की तुम में कुछ व्यक्ति एक दूसरे के शत्रु हैं, यहाँ भविष्यवत आधार पर नहीं कहा जा रहा की तुम में से कुछ एक दूसरे के शत्रु होंगे, क्योंकि उस समय भी आदम हव्वा अकेले नहीं थे, अनेको स्त्री पुरुष थे।

तब हमने कहा की तुम सब के सब इस में से निकल जाओ।

(क़ुरान २:३९)

यहाँ भी अल्लाह मियां ने पहले वाली आयत के आधार पर ही सभी को निकलने का आदेश दिया है, क्योंकि यदि अकेले आदम हव्वा होते तो “सब के सब” निकल जाओ ये न कहते, तुम दोनों निकल जाओ ऐसा कहते। अतः सिद्ध है की अनेको आदि मनुष्यो द्वारा मनुष्य जाती उत्पन्न हुई।

अब थोड़ा वैज्ञानिक नजरिया :

आस्तिक विकासवाद की धारा से ओतप्रोत डॉ. फ्रांसिस कॉलिन्स अपनी पुस्तक The Language of God: A Scientist Presents Evidence for Belief में लिखते हैं की मनुष्य जाती की उत्पत्ति कम से कम दस हजार दम्पत्तियों (माता पिता युग्म) द्वारा संभव है जो आज से १ लाख से लेकर 1.5 लाख वर्षो पूर्व रहे होंगे।

यहाँ इस पुस्तक में डॉ फ्रांसिस कॉलिन्स ने वैज्ञानिक (जेनेटिक) आधार पर इस बात का निष्कर्ष निकाला है। और इसी पुस्तक के आधार पर आदम हव्वा का महज ५००० वर्ष पुराना इतिहास होना खंडित हो जाता है। क्योंकि वैज्ञानिको ने हाल में ही ४ लाख वर्ष पुराना ह्यूमन फॉसिल खोज निकाला है। अतः जैसे जैसे वैज्ञानिक नए शोध करते जाएंगे वैसे वैसे वेद और आर्य सिद्धांत प्रबल होते जायेंगे। हम समीक्षक से आग्रह करते हैं वो विज्ञानं आधार पर आदम और हव्वा से मानव सृष्टि की उत्पत्ति महज ५००० वर्ष पूर्व हुई ये साबित कर दिखाए अथवा इस विषय पर भी समीक्षा करे ताकि सत्य का ज्ञान मनुष्यो के बीच प्रकट हो सके।

4. वेद आवागमनीय पुनर्जन्म की अवधारणा का प्रतिपादन करते हैं। (9-75)

समीक्षा : वैदिक सिद्धांत सार्वभौमिक हैं, अटल हैं, शाश्वत सत्य हैं, कभी नहीं बदल सकते मगर लेखक शायद समीक्षाओं की समीक्षा में इतना व्यस्त हुए की सत्य को भी नजर अंदाज़ कर दिया। आइये पहले हम क़ुरान में देखते हैं की पुनर्जन्म विषय पर कुरान का क्या कहना है :

जिस प्रकार उसने तुम्हारा प्रारम्भ किया था। तुम फिर एक दिन उसी पहली हालत की और लौटोगे।

(क़ुरान ७:३०)

पहली बार कैसे पैदा किया था जरा उस पर ध्यान दीजिये :

हमने तुम्हे सर्वप्रथम मिटटी से पैदा किया था, फिर वीर्य से, फिर उन्नति दे कर एक ऐसी अवस्था से जो चिपट जाने का गुण रखती थी, फिर ऐसी अवस्था से की वह मांस की एक बोटी के सामान थी, ……… फिर हम तुम्हे एक बच्चे के रूप में निकलते हैं।

(क़ुरान २२:५)

यहाँ प्रथम बार कैसे उत्पत्ति की जाती है उसका विस्तार से उल्लेख है और ऊपर वाली आयत में बताया गया की जैसे पहली बार उत्पन्न किया वैसे ही पहले वाली हालत में पुनः लौटोगे। तो ये पुनर्जन्म क्यों नहीं ?

अन्य क़ुरानी आयत

फिर जब उन्होंने उन बातो से रुकने की अपेक्षा जिन से उन्हें रोका गया था और भी आगे बढ़ना शुरू किया तो हमने उन्हें कहा की तुच्छ (जलील) बंदर बन जाओ।

(क़ुरान ७:१६७)

यहाँ आयत में पुनर्जन्म सिद्ध होता है क्योंकि अल्लाह ने पूरी बस्ती के लोगो यानी मनुष्यो को बन्दर बना दिया क्योंकि उन्होंने अल्लाह की केवल नसीहत मानने से मना कर दिया। क्या ये अल्लाह की दया और कृपा है ? लेखक इस पर अपने विचार कब प्रकट करेंगे ?

यहाँ ये बात स्पष्ट है की जीव जो है वो पशु में भी है और मनुष्य में भी, और ये भी सिद्ध हुआ की मनुष्य में जो जीव है वो ही पशु आदि में पुनर्जन्म धारणा से शरीर धारण कर सकता है और जो पशु आदि का जीव है वो मनुष्य का लेकिन इसके पीछे कर्मो के फल की धारणा अवश्य होनी चाहिए अन्यथा यदि केवल अल्लाह की नसीहत नहीं मानने के कारण ही ऐसा हो तो ऐसे में अल्लाह अन्यायकारी ही ठहरेगा।

4. वे कहेंगे की हे हमारे रब ! तूने हमें दो बार मौत दी और दो बार जीवित किया।
(क़ुरान ४०:१२)

यहाँ भी इस आयत में पुनर्जन्म सिद्ध होता है, क्योंकि यदि एक बार ही मौत और एक बार ही जन्म होता तो यहाँ ऐसे नहीं लिखा जा सकता था, इसके अतिरिक्त भी पूरी क़ुरान में अल्लाह ने पुनर्जन्म विषय में अनेक बार मृत जमीन और वर्षा का दृष्टांत किया जिसमे अल्लाह ने बार बार जोर देकर समझाया है की ईमान वालो को और धरती में मौजूद सभी लोगो के लिए बड़ी निशानी है की वो मृत जमीन पर आकाश से पानी बरसता है तो वो जीवित हो उठती है क्या वो तुम्हे इसी प्रकार जीवित नहीं करेगा। (क़ुरान ४५:६, २:१६५) आदि अनेको प्रमाण क़ुरान में ही मौजूद हैं जो अल्लाह द्वारा बुद्धिमान जाती के लिए बड़ी निशानियों में शुमार है की वर्षा केवल एक बार ही नहीं होती जो मृत धरती को जिन्दा करे बल्कि बारम्बार होती है, ये निरंतर प्रक्रिया है, शाश्वत सत्य है, अब देखना ये है की समीक्षक इस विषय पर अपनी समीक्षा कब करते हैं।

अब इस विषय पर विज्ञानं से रौशनी डालते हैं, जो भी पदार्थ है वो कभी नष्ट नहीं होता जैसे पानी भाप बनकर उड़ जाता है पुनः बादलो के रूप में एकत्रित होकर बरसता है फिर भाप बनकर उड़ जाता है, ठीक ऐसे ही लकड़ी से सामान बना, उसके बाद अन्य कार्य में लिया गया अलमारी आदि बनाने में, पश्चात ख़राब होने पर जलाया तो कोयला बना, कोयले से राख, राख से मिटटी और फिर उसी मिटटी से पुनः पेड़ पौधों के रूप में उग आता है। यह सार्वभौमिक सत्य है, आपने न्यूज चॅनेल और अनेको अखबारों में खबर भी पढ़ी होंगी की अमुक व्यक्ति को अपना पिछला जन्म याद आ गया, अमुक ने अपने पूर्व जन्म की माता पिता आदि कुटुम्बियों से मेल किया आदि अनेको खबरे प्राप्त होती हैं, इस विषय पर अनेको विज्ञानिको ने रिसर्च भी की है और प्रमाणित भी किया है उनमे से एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉ इयान स्टेवेंसन्स हैं, उन्होंने अपनी अनेको किताबो “Twenty Cases Suggestive of Reincarnation (1966), “European Cases of the Reincarnation Type” (1972), आदि अनेको पुस्तको के माध्यम से पुनर्जन्म अवधारणा को प्रमाणित किया जिनको आज तक मनोवैज्ञानिक अपने वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित करने की कोशिश कर रहे हैं। वैसे तो यहाँ ही विस्तार से बता दिया फिर भी विषय से सम्बंधित अन्य अध्याय में विस्तार से बताया जा सकता है, क्योंकि समीक्षक की पुस्तक में पुनरुक्ति दोष का बारम्बार प्रकट होना समीक्षक की पुस्तक और लेखन तथा ज्ञान पर दोष प्रकट करता है, अब चाहे तो समीक्षक अपनी अगली पुस्तक में ऐसी गलती न दोहराये ये उनकी इच्छा पर निर्भर है।

5. मनुष्य और पशु आदि में जीव एक सा है। (९:७४)

समीक्षा : वैसे तो समीक्षक की हास्यास्पद बात पर अनेको तथ्य इसी पॉइंट में लिखे जा सकते हैं, मगर इसी विषय से सम्बंधित एक अध्याय भी है “मरणोत्तर जीवन – तथ्य और सत्य” समुचित व्याख्या उस अध्याय में की जाएगी, यहाँ केवल संक्षेप में समझाने की कोशिश करते हैं, जो भी चेतन शक्ति हैं उनमे विज्ञानिक दृष्टिकोण से इन्द्रियों का समावेश होता है, जिन चेतन सत्ताओ में इन्द्रियां पायी जाती हैं उनमे जीव होता है, इसलिए उन्हें सजीव कहा जाता है, क्योंकि इन्द्रिया जीव के सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है ये आध्यात्मिक दृष्टिकोण है अतः इस पर समुचित व्याख्या सम्बंधित विषय में करेंगे यहाँ केवल इतना समझते हैं की चाहे मनुष्य हो या पशु इनके शरीर में जीव रहता है तब तक शरीर कार्य करता है। इन्दिर्यो का सुचारू रूप से कार्य करना स्वस्थ शरीर की निशानी है। जैसे जैसे शरीर कमजोर होता जाता है उसमे इन्द्रियों को धारण करने की शक्ति क्षीण होती जाती है और जब शरीर इन्द्रियों को धारण करने की अवस्था में बिलकुल भी नहीं रहता तब जीव (आत्मा और सूक्ष्म शरीर) इस भौतिक शरीर का त्याग कर एक नए शरीर अर्थात पुनर्जन्म धारण करती है। इसे ही मृत्यु और जीवन का निरंतर चक्र अथवा प्रक्रिया कहा जाता है। अब यदि समीक्षक अति विद्वान और वैज्ञानिक है तो जैसा क़ुरान बताती है उसके आधार पर तो पशु में जीव (आत्मा) नहीं की थ्योरी मानने वाले कृपया बताये की पशु मर क्यों जाता है ? जिस शरीर में जीव होगा वह शरीर संयोग और वियोग करेगा पशु और मनुष्य में केवल यही समानता ही नहीं और भी अनेको समानताये पायी जाती हैं, पशु में भी वही इन्द्रियाँ हैं जो मनुष्य में हैं, आँख (देखना) कान (सुनना) नाक (सूंघना) त्वचा (स्पर्श) जीभ (स्वाद ग्रहण करना), रक्त, हड्डी, नस, नाड़ी इत्यादि अनेको शरीर में विद्यमान प्रक्रिया जो मनुष्यो में भी होती हैं, इनके अतिरिक्त आहार लेना, निद्रा, मैथुन आदि द्वारा संतानोत्पत्ति करना, संतान का रक्षण और उसे शिकार आदि करने की शिक्षा देना जैसे मानो मनुष्य अपने संतान को शिक्षा आदि ग्रहण करवाने को गुरु, विद्यालय आदि भेजते हैं सब कुछ वही प्रक्रिया जो मनुष्य में पायी जाती है वही पशुओ में भी यहाँ तक की दोनों ही शरीरो का जीवन और मृत्यु से भी संबंध है क्योंकि दोनों ही मनुष्य और पशु मृत्यु के गाल में समाते ही हैं।

हाँ ये सत्य है की मनुष्यो में बुद्धि का जो गुण परमपिता परमात्मा ने दिया है वो पशुओ के पास वैसी बुद्धि नहीं दी क्योंकि ईश्वर ने पशु पक्षियों को स्वाभाविक ही वो ज्ञान दिया है जो उनके लिए जरुरी है जैसे मगरमच्छ का बच्चा अंडे से निकलते ही तैराकी के गुण जानता है, पक्षियों के बच्चे उड़ने का गुण लिए पैदा होते हैं, ठीक वैसे ही मनुष्य की संतान उत्पन्न होते ही दूध पीने आदि गुणों से संयुक्त उत्पन्न होती है क्योंकि ये व्यवस्था ईश्वर की है, मगर मनुष्य में सोचने और समझने की बुद्धि ईश्वर ने इसीलिए दी ताकि मनुष्य परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष ग्रहण कर सके। ईश्वर ने बुद्धि केवल इसलिए नहीं दी की नाहक ही पशुओ को मारकर उनका खून बहकर अपनी क्षुधा शांत करे, इस विषय पर सम्बंधित विषय में लिखेंगे।

कुरान में अल्लाह मियां ने स्पष्ट कर दिया है की मनुष्यो को अन्य जीवित प्राणियों का खलीफा बनाकर पृथ्वी पर भेजा जा रहा है यानी कुरान इस बात का पूर्णतया समर्थन करता है की मनुष्य को अन्य पशु पक्षियों की सत्ता पर अधिकार देकर खलीफा बना कर भेजा गया (कुरान 2:31) अब सोचने की बात है, क्या खलीफा (अधिनायक) सत्ताधारी पक्ष, केवल बेजुबान पशु पक्षियों पर अत्याचार करके, उन्हें मारकर उनका मांस खाने वाला बन कर अपनी सत्ता का गलत और नाजायज़ फायदा नहीं उठा रहा ? क्या ऐसे अत्याचारी और हत्यारे को खलीफा (अधिनायक) घोषित किया जा सकता है ? शायद यही वजह थी की अल्लाह के पास मौजूद अनेको फरिश्तो ने भी इस कार्य के लिए अल्लाह को चेताया था (क़ुरान 2:31) क्या अब भी ये बताने की जरुरत है की खलीफा (अधिनायक) का दायित्व है बेजुबान पशु पक्षियों की रक्षा करना ना की उन्हें अपनी जीभ के स्वाद लेने हेतु हत्या कर खा जाना। आइये क़ुरान से ही स्पष्ट करते हैं की मनुष्य और पशु पक्षी आदि में एक ही जीव है वैसे तो इस विषय को पहले भी बताया जा चूका है मगर एक बार पुनः देखिये :

फिर जब उन्होंने उन बातो से रुकने की अपेक्षा जिन से उन्हें रोका गया था और भी आगे बढ़ना शुरू किया तो हमने उन्हें कहा की तुच्छ (जलील) बंदर बन जाओ।

(क़ुरान ७:१६७)

समीक्षक के अनुसार यदि कुरान में पशु पक्षी में आत्मा (जीव) का होना नहीं पाया जाता तो जो ये समंदर के पास रहने वाली बस्ती के मनुष्यो को बन्दर बनाने की बात क़ुरान में अल्लाह ने बताई ये मिथ्या है ? क्या ये कोई विशिष्ट प्रकार के बन्दर थे जिनमे मनुष्य जैसा ही जीव था अथवा कोई सामान्य बन्दर थे ? समीक्षक को कुरान पढ़ने पर ये भी ज्ञात होगा की कुरान में ही अनेको जगह मनुष्य और पशु पक्षियों यहाँ तक की जितनी भी जीवित सत्ताएं पृथ्वी पर पायी जाती हैं सब की सब पानी से ही बनी है देखिये :

हमने पानी के द्वारा प्रत्येक सजीव को जीवन प्रदान किया है।

(क़ुरान २१:३१)

मैं तुम्हारे भले के लिए गीली मिटटी का स्वाभाव रखने वालो (अर्थात विनम्र स्वाभाव वालो) से पक्षी (के पैदा करने) की तरह (प्राणी) पैदा करूँगा, फिर मैं उनमे एक नयी रूह फूकूंगा जिस से वे अल्लाह के आदेश के साथ उड़ने वाले हो जायेंगे।

(क़ुरान ३:४९)

यहाँ भी पशु पक्षियों में मनुष्य के जैसे ही अल्लाह के आदेश से रूह फूकने की बात एक पैगम्बर ने बताई जो अल्लाह की तरफ से चमत्कार रूप में प्रकट किया। क्या इससे स्पष्ट नहीं की समीक्षक को क़ुरान का जरा भी ज्ञान नहीं जो विज्ञानं विरुद्ध लिखकर कहा की पशु पक्षियों में आत्मा नहीं होती ? आइये एक और आयत जिससे पूर्णतया स्पष्ट हो जायेगा की पशु पक्षियों की आत्माओ के साथ भी अंतिम दिन इन्साफ होगा अर्थात मनुष्यो की तरह ही पशु पक्षियों की आत्माओ को भी इकठ्ठा किया जाएगा और अल्लाह इंसाफ करेगा देखिये :

धरती में चलने फिरनेवाला कोई भी प्राणी हो या अपने दो परो से उड़नेवाला कोई पक्षी, ये सब तुम्हारी ही तरह के गिरोह हैं। हमने किताब में कोई भी चीज़ नहीं छोड़ी है। फिर वे अपने रब की और इकट्ठे किये जायेंगे।

(क़ुरान ६:३८)

उपरोक्त आयत स्पष्ट वर्णन करती है की पशु हो या पक्षी सब मनुष्यो के जैसे ही गिरोह हैं यानी मनुष्य के जैसे जमात है, और अंतिम दिन पशु पक्षी भी रब की और इकट्ठे किये जाएंगे, अब इससे भी बड़ा सबूत समीक्षक को और क्या चाहिए ? क्या समीक्षक की इस विषय पर की गयी बेतुकी समीक्षा को दिमागी बुखार या पूर्वाग्रही मानसिकता न कहा जाए ?

6. स्वर्ग नरक का कोई अलग लोक नहीं है। (९-७९)

समीक्षा : पुस्तक के लेखक ने या तो वेदादि सत्य शास्त्रो को ध्यानपूर्वक नहीं पढ़ा अथवा ऐसी समीक्षाओं का कारण केवल महर्षि दयानंद की कुरान पर की गयी ज्ञानवर्धक समीक्षाओं पर व्यर्थ का प्रलाप भंजन है। देखिये इस विषय में भी पुनरक्ति दोष है अतः सम्बंधित विषय के अध्याय में विस्तार से वैदिक स्वर्ग और इस्लामी बहिश्त तथा मरणोत्तर जीवन विषय पर तर्क और प्रमाण के साथ लिखा जायेगा, यहाँ केवल संक्षेप में बताया जाता है :

स्वर्ग शब्द स्वः (सुख) से बना है। ‘सुखम गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः’ अर्थात जिसमे सुख की प्राप्ति हो वह स्वर्ग है। अतः प्रत्येक अवस्था तथा प्रत्येक वह स्थान जिसमे मनुष्य सुखी रहता है और दुःख से बचता है स्वर्ग है। आत्मिक स्वर्ग के लिए मुक्ति शब्द है। इसका अर्थ भी दुखो से छूटना है। सांसारिक जीवन में भी मनुष्य किसी विशेष बंधन से छूटता है तो कहता है “मैं इससे मुक्त हो गया” और सुख मिलता है तो कहता है मैं स्वर्ग में हु”

आत्मा के लिए सर्वोत्कृष्ट सुख का आदर्श यह है की वह शरीर अर्थात जन्म मृत्यु के बंधन से छूटकर सर्वसुख तथा आनंद स्वरुप प्रभु (ईश्वर, अल्लाह) की संगती से आनंद प्राप्त करे। कुरआन में जन्नत शब्द शारीरिक और आत्मिक दोनों प्रकार की सफलता के लिए प्रयुक्त किया गया है। बहिश्त में सारे सांसारिक सुख, उत्तम पदार्थ तथा मानसिक शांति आदि फल मिलते हैं वहीँ दूसरी और मुक्ति में ज्ञान, आत्मिक आनन्दादि का प्रवाह चलता है, क्या लेखक इस विषय पर समीक्षा करेंगे की जो सांसारिक सुख इस लोक में हैं जिसमे मनुष्य फंसकर दुःख उठता है, वही सांसारिक सुख, हूरे, गिलमा, सोने के कड़े, चांदी के आभूषण, तकिये गिलाफ, मोती जड़ित बर्तन आदि में फंसकर कौन सा सुख मिलेगा ?

हाँ सर सैयद अहमद खान इसी विषय पर अपनी पुस्तक में क्या लिखते हैं, शायद लेखक ने कभी उसपर विचार प्रकट करते हुए इस्लामी बहिश्त की समीक्षा करने का ख्याल तक न रखा ?

वैदिक स्वर्ग और इस्लामी बहिश्त के विषय में ज्यादा जानकारी विषय से सम्बंधित अध्याय में प्रकट की जायेगी फिलहाल कुछ प्रमाण यहाँ दिए जाते है जिससे पाठकगण स्वर्ग का विशुद्ध स्वरुप ज्ञात कर सके :

ज्योतिष्टोमयाजी स्वर्गं समश्नुते।।
या एवं विहानस्माच्छरीरभेद।
दूर्ध्व उत्क्रामयामुष्मिन स्वर्गे लोके सर्वान् कामानापत्वामृताः समभवत् समभवत्।।
(ऐ० उ० खं० ४ मं ६)
ज्योतिष्टोम यज्ञ करने वाला स्वर्ग को पाता
है।

जो विद्वान इस शरीर के भेद को जानकर पार हो जाता है वह इसी लोक में सब मनोरथो को पूरा करके स्वर्ग को पाटा और अमर हो जाता है और हो भी गए हैं।

अनस्थाः पूताः पबनेन शुद्धाः शुचयः शुचिमपि यन्ति लोकम।
नैषां शिश्नम प्रदहति जात वेदः स्वर्गे लोके बहुस्त्रैणमेषाम्।।

अस्थियां जिनकी नज़र न आती हो अर्थात हष्ट, पुष्ट और बलिष्ठ ब्रह्मचारी, पवित्र आचरण युक्त, प्राणायामादि से शुद्ध और निरोग तथा पवित्र मनवाले पुरुष इस पवित्र लोक (गृहस्थ) में प्रविष्ट होते हैं। उनका प्राप्त किया हुआ ज्ञान उनकी काम शक्ति को नष्ट नहीं होने देता। चाहे इस स्वर्ग लोक (गृहस्थ) में उनके आस पास बहुत स्त्रियां रहती हो।

इस मन्त्र में जो बहुस्त्रेण शब्द आया है, उसने उन लोगो को बड़े चक्कर में डाला है जो ब्रह्मचर्यादि के महत्त्व को अनुभव नहीं कर सकते। उन्होंने समझ लिया की स्वर्ग में बहुत सी स्त्रियां मिलेंगी यहाँ तक ७२ हूरो का ख्याल प्रसिद्द हो चूका है। यह स्वर्ग सच्चे अर्थो में इसी गृहस्थ का नाम है। पर अज्ञानवश लोगो ने इसे किसी ऊपर के गुप्त स्थान में मान रखा है। इस मन्त्र में जो बहुत स्त्रियों का वर्णन आया है वो भी समझ लेना चाहिए, क्योंकि जो गृहस्थ में प्रवेश करता है, तब उसके अनेको नए रिश्ते बनते हैं, और मनुष्य सामाजिक प्राणी है अतः जिस नगर में मनुष्य रहता है उसमे अन्य अनेको पुरुषो की अनेको रिश्तो वाली स्त्रीया रहती हैं, अतः स्वर्गलोक (गृहस्थ) में बहुत स्त्रियों का शब्द आना साधारण बात है और जो सदाचारी, संयमी, पवित्र आत्मा, ब्रह्मचारी गृहस्थ में प्रवेश करे उसको यह शिक्षा देना भी परमावशयक है की गृहस्थ आश्रम में भी वह ब्रह्मचर्य का पूरा ख्याल रखे। स्त्रियों की आसपास विद्यमानता होने से जो ब्रह्मचर्य के विरुद्ध भाव उत्पन्न हो सकता है उसमे सावधान करने के लिए वेद का ऐसी नैतिक और उत्तम चारित्रिक शिक्षा देना ही गृहस्थ को स्वर्गधाम बनाने में सहायक हो सकता है। अतः सिद्ध है की स्वर्ग और नरक सुख और दुःख का बोध और बोध करवाने वाले साधनो को ही कहते हैं अन्य लोकादि को नहीं, क़ुरान भी यही आदेश करती है, इस विषय पर विस्तृत व्याख्या विषय से सम्बंधित अध्याय में की जायेगी।

पहले अध्याय में और भी थोड़े आक्षेप समीक्षक ने किये हैं जो अगले अध्यायों में एकसमान ही हैं अतः आगे अध्यायों में उन आक्षेपों का भी निराकरण करने का प्रयास किया जाएगा। यहाँ पहले अध्याय के आक्षेप का विस्तार और संक्षेप दोनों ही प्रकार से उत्तर देने का प्रयास किया गया है। कुछ विषयो पर संक्षेप में लिखा गया है क्योंकि अन्य अध्यायों में भी वही आक्षेप का उत्तर विस्तार से बताया जायेगा।

आप सभी बंधुओ से निवेदन है कृपया अपने महत्वपूर्ण विचार पोस्ट पर अवश्य प्रकट करे।

धन्यवाद

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 6″

“तीसरे अध्याय का जवाब”

नियोग को अरबी में निकाह अल इस्तिब्दाद कहते हैं।

प्री इस्लामिक एरा (इस्लाम से पूर्व अरबी रीति रिवाज) में मुख्य रूप से ४ प्रकार के निकाह ज्यादातर अम्ल में लाये जाते थे, 

1. पति, अपनी पत्नी को किसी अन्य पुरुष के साथ संसर्ग करने हेतु भेज देता था, ताकि उत्तम गुणों से युक्त संतान पैदा हो, (यानी अपने से उच्च वर्ण में) फिर जब महिला को ज्ञात हो जाता था की गर्भ ठहर गया है तब वो अपने पति के पास आ जाती थी।

पति अपनी पत्नी के साथ सम्बन्ध नहीं बना सकता था जब तक वह पत्नी संतान उत्पन्न न कर दे।

यहाँ ध्यान देने वाली बात है की महिला जो संतान उत्पन्न कर रही है वो उसके पति की ही संतान मानी जाती थी।

2. एक तरीका निकाह का वही है जो आज अपनाया जाता है, जिसमे एक कॉन्ट्रैक्ट होता है, महिला से उसका मेहर लिखवाया जाता है, जिसके द्वारा पुरुष कभी भी अपनी पत्नी को ३ तलाक़ कहकर, मेहर देकर अपने घर से विदा कर सकता है।

3. एक बड़ा अजीब निकाह का कांसेप्ट उस काल में अरब में व्याप्त था, एक महिला के साथ दस पुरुष सम्भोग करते थे, जब महिला को गर्भ ठहर जाता और वो संतान पैदा हो जाती तब उन दसो मनुष्यो को बुलावा भेजा जाता, कोई भी पुरुष आने से इंकार नहीं कर सकता था, तो जब दस के दस आ जाते तब वो महिला किसी भी एक को उस बच्चे का पिता बताती और ये उस मनुष्य को मान्य होता था, वो इंकार नहीं कर सकता था, तब वो उस बच्चे को अपने साथ ले जाता।

4. अनेको मनुष्य, एक तरह का वैश्यालय जहाँ पहचान के लिए झण्डिया लगाईं जाती थी, वहां जाते, जिस महिला से चाहते सम्भोग करते, चाहे एक महिला से अनेको करते हो, यदि उक्त महिला को गर्भ ठहर जाता और वो संतान उत्पन्न कर देती थी, तब सभी मनुष्यो को बुलावा भेजा जाता, यहाँ भी कोई आने से इंकार नहीं कर सकता था, सब आते, और बच्चे की शक्लो सूरत, हाव भाव, जिस पुरुष से मेल खाते, उसे उस बच्चे का पिता घोषित कर दिया जाता, वो मनुष्य इंकार नहीं कर सकता था, तब वो उस बच्चे को अपने साथ ले जाता।

उक्त चारो प्रकार के निकाह इस्लाम के आने से पूर्व अरब में अपनाये जाते थे वहां की संस्कृति के हिस्सा था, इन चारो प्रकार के निकाह में जो सबसे इंट्रेस्टिंग पॉइंट है वो है की अरब में नियोग प्रथा का महत्त्व था, अरबी लोग नियोग को जानते थे, यानी वहां वैदिक सभ्यता के प्रमाण मिलते हैं, हालांकि अन्य ३ प्रकार के निकाह का होना दर्शाते हैं की अरबी लोग जाहिल और व्यभिचारी भी हो चुके थे, लेकिन वो नियोग को मान्यता देते थे ये बात अरब में नियोग प्रथा का वर्णन खुद मुहम्मद साहब की प्यारी बेगम आईशा ने सहीह बुखारी में वर्णित किया है।

Reference : Sahih al-Bukhari 5127
In-book reference : Book 67, Hadith 63
USC-MSA web (English) reference : Vol. 1, Book 62, Hadith 58
(deprecated numbering scheme)

हालांकि ये बात भी इस हदीस में मौजूद है की मुहम्मद साहब ने उक्त ४ निकाह में से ३ प्रकार के निकाह अमान्य, निरस्त और जाहिलियत करार दिए, लेकिन एक प्रकार का निकाह जो आज भी मुस्लिम अपनाते हैं, उसे सही बताया, ये प्रथा भी अरबी समाज में व्याप्त थी, जिसमे अनेको खामिया हैं, फिर इसे अपना कर अन्य तीन को निरस्त करना समझ नहीं आया, लेकिन यदि आप मुहम्मद साहब की जीवनी पढ़े तो पाएंगे की उनकी अनेको बिविया थी और लौंडिया भी इसलिए शायद यही वजह थी यदि ये निकाह का कॉन्सेप्ट नहीं होता तो शायद वो इतनी बिविया नहीं रख पाते, या हो सकता है अल्लाह ने उनके लिए ये तरीका जायज़ बनाया हो, जब जाहिलियत काल के ये ३ निकाह गलत थे तो चौथा सही कैसे ? क्या जाहिलियत काल की भी कोई प्रथा सत्य हो सकती है ? यदि हाँ तो फिर मुहम्मद साहब ने नयी प्रथा क्या दी ? ये तो पहले से मौजूद थी। बस इतना ही की कुछ प्रथाओ को बंद करवा दिया, सिर्फ जाहिलियत के नाम पर, मगर जिस प्रथा से फायदा था उसे अपनाये रखा भले ही वो भी जाहिलियत का ही हिस्सा थी, क्या ये न्यायकारी प्रक्रिया थी ?

खैर जो भी हो इस पर मेरे कुछ सवाल खड़े होते हैं :

1. महिला को मैहर देना, यानी उसकी शारीरिक सेवा का मूल्य पहले ही निर्णीत कर लेना और जब चाहे तब ३ तलाक़ बोलकर रिश्ते को खत्म कर लेना, क्या ये ऐसा नहीं लगता जैसे महिला को सेक्स (सम्भोग) के लिए ख़रीदा गया और इस्तेमाल के बाद “यूज़ एंड थ्रो” बना दिया ? क्या ये प्रक्रिया आधुनिकता का प्रतीक है ?

2. महिला को यदि पुरुष से सम्बन्ध विच्छेद करना हो यानी तलाक़ लेना हो तो मेहर की रकम छोड़नी होगी साथ ही अन्य भी शर्ते माननी होंगी ताकि पुरुष तलाक दे, तब कहीं महिला इस सम्बन्ध से मुक्ति पाएगी, क्या ये महिला का शोषण नहीं ?

3. यदि किसी कारण तलाक़शुदा महिला और पुरुष जो पहले रिश्ते में थे, पुनः निकाह करना चाहे तो महिला को पहले किसी अन्य पुरुष से निकाह करके एक रात बिताकर (सम्भोग करवाकर) उसके बाद नए पति से तलाक़ पाकर तब जाकर अपने पूर्व पति के साथ पुनः सम्बन्ध बना सकती है। क्या ये वैश्यावृति नहीं, क्या यहाँ नैतिकता और चरित्रता दोनों को तिलांजलि नहीं दी गयी ?

4. पुरुष जब चाहे महिला को तलाक़ दे सकता है, मौखिक, लिखित, टेलीफोन पर, यानी कैसे भी, और वो महिला को मान्य करना ही होगा, क्योंकि ३ तलाक़ के पश्चात वो महिला, तलाक़ देने वाले पुरुष के लिए हलाल (वैध) नहीं है। क्या यहाँ महिला को केवल मेहर देकर, विदा करने की परंपरा शर्मसार नहीं है ? क्या ये निकाह प्री-प्लान तरीके से किसी महिला की इज्जत ख़राब करने के मनसूबे से काम में नहीं लाये जाते ?

5. यदि तलाक़ शुदा महिला, एक नया खाविंद (पति) बना ले, मगर वो नपुंसक (वीरहीन, निस्तेज) निकले और महिला को शारीरिक सुख प्रदान न हो सके, तब इस स्थति में महिला क्या करेगी ? क्या वो शारीरिक सुख (सम्भोग) के लिए अन्य पुरुषो से व्यभिचार नहीं करेगी ? इससे तो व्यभिचार बढ़ेगा। घटने का तो सवाल ही नहीं क्योंकि जब तक वो नपुंसक खाविंद उक्त महिला के साथ सम्भोग नहीं करता, उसका तलाक़ देना मंजूर नहीं, न ही वो महिला तीसरा निकाह कर सकती है, इसलिए उसे मजबूरन अपना शारीरिक शोषण और दोहन करवाना ही होगा।

कितनी ही कुरीतिया जो इस्लाम में व्याप्त हैं, खुला, हलाला, मुताह, निकाह मिस्यार (कॉन्ट्रैक्ट मैरिज), जिहाद अल निकाह आदि अनेको कुरीतिया जो केवल और केवल, महिलाओ का शोषण करती हैं, उन्हें भोग की वस्तु मानकर महिला की अस्मत आबरू बर्बाद करती हैं, महिला को खेलने वाला खिलौना बना डालती हैं, लेकिन इन विषयो पर कभी बुद्धिजीवियों का ध्यान नहीं जाता, ये विषय कभी भी सामाजिक पटल पर नहीं उठाये जाते, हाँ महर्षि दयानंद द्वारा जो नियोग विषय है, उसपर सभी बुद्धिजीवियों के कान खड़े हो जाते हैं, जबकि आज उसी आधुनिक रीति वाले नियोग को वैज्ञानिक IVR कहते हैं, जिससे निसंतान दंपत्ति को संतान सुख प्राप्त होता है, इस व्यवस्था को विज्ञानं ने नया आयाम दिया, उसको दिन रात कोसना, मगर जो कुरीतिया समाज को बर्बाद कर रही, महिला की अस्मत को नेस्तनाबूत कर रही उन पर कोई विचारक, बुद्धिजीवी अपना मत प्रकट नहीं करता।

खेद है की अपने को आधुनिक, चिंतक और बुद्धिजीवी कहलाने वाले, नियोग (IVR) को तो कोसते हैं, मगर जो खुला, मुताह और हलाला जैसे घिनौने और दुष्कृत्य समाज में व्याप्त हैं उनपर चुप्पी साध लेते हैं। नियोग का वैज्ञानिक नजरिया कोसना, और महिलाओ पर अत्याचार करने वाली कुरीतिया पर मूक हो जाना निसंदेह किसी भी राष्ट्र के लोगो के लिए ठीक बात नहीं।

पोस्ट को पढ़ने हेतु धन्यवाद, ये पोस्ट सतीशचंद गुप्ता लिखित “सत्यार्थ प्रकाश समीक्षा की समीक्षा” के नियोग विषय से सम्बंधित अध्याय का जवाब है, इसके अभी और भी पार्ट आएंगे जिसमे विस्तार से समझाने का प्रयास किया जाएगा।

अगली पोस्ट में जो विचार हम करेंगे वो है :

1. नियोग और नारी का सम्मान

2. नियोग का आज के समाज में महत्त्व

3. इस्लाम में नियोग का महत्त्व

4. नियोग और विज्ञानं

5. संतान और नियोग व्यवस्था

धन्यवाद।

आइये लौटिए वेदो की और।

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 7″

चौथे, पांचवे, छठे व सोलहवे अध्याय का एकमुश्त जवाब

कोई क्या खाए, क्या ना खाए ये व्यक्ति की अपनी स्वतंत्रता है, मगर यहाँ ध्यान देने वाली बात है की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वो जो खाए उससे समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। क्योंकि एक कहावत है “जैसा खाए अन्न वैसा होए मन” और ये कोई लोकोक्ति नहीं एक यथार्थ सत्य है। यदि मांसाहार बहुत उत्तम वस्तु होती, जो समाज में सदैव ही प्रचलित रही होती, खासकर भारतीय परिवेश में तो इस पर कभी भी शंका और सवाल नहीं उठ सकते थे, मान लीजिये आप यज्ञ और हवन करते हैं, तो ये भारतीय संस्कृति का हिस्सा रहा है अतः इस विषय पर कभी कोई आक्षेप नहीं उठा, महिलाओ को आदर देना भारतीय संस्कृति का हिस्सा रहा है, इसपर कभी किसी ने आक्षेप नहीं किया, ऐसे अनेको क्रियाकलाप हैं, ऐसी अनेको सामाजिक गतिविधिया हैं जिनपर कभी किसी ने आक्षेप नहीं किया क्योंकि ये सनातन संस्कृति का अहम हिस्सा रही हैं। अब बात आती है मांसाहार की, यदि मांसाहार सनातन संस्कृति का हिस्सा रहा है तो इसपर आक्षेप क्यों लगाये जाते हैं ?

आक्षेप उन्ही संदिग्ध और विवादस्पद विषयो पर लगते हैं जो गलत, भ्रामक और निंदनीय होती हैं, जैसे सती प्रथा, भ्रूण हत्या, चाइल्ड मैरिज, गे रिलेशन, होमोसेक्सुअल्टी आदि। अब वो लोग जो सती प्रथा, भ्रूण हत्या, चाइल्ड मैरिज, गे रिलेशन, होमोसेक्सुँलिटी को प्रामाणिक और तार्किक मानते हैं, इनके लिए वो प्रमाण भी पेश करते हैं तो क्या इन्हे भी समाज में मान्यता दे दी जाए ? यदि किसी देश विशेष ने इन कुरीतियों को अपना रखा हो, मान्यता दे दी हो, तो क्या इस आधार पर ऐसी बुराइयो को समाज में अपना लिया जाए ? क्या ऐसी कुरीतियों पर तर्क, और प्रमाण देने पर भरोसा करा जा सकता है ?

नहीं, कदापि नहीं, क्योंकि जो लोग ऐसी कुरीतियों को मान्यता दे अथवा तर्क से सिद्ध करने की कोशिश करे उनको सभ्य समाज में कुतर्की और असभ्य ही कहा जाएगा, क्योंकि वो उसे सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं जो सिद्ध हो ही नहीं सकता, यदि सिद्ध हो सकता होता तो आज तक उसपर आक्षेप न लग रहे होते। यदि ये सिद्धांत और रीति सही होती तो आज समाज में मान्य होती, अमान्य नहीं करते। ऐसे ही कुछ तर्क और प्रमाण देकर कुछ मांसाहारी भ्रष्ट लोग मांस को भोज्य और गुणवत्ता वाला बता कर इसकी भूरि भूरि प्रशंसा करके लोगो को बहकाकर अपनी बात को सिद्ध करना चाहते हैं आइये एक नजर, धार्मिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और प्राकृतिक दृष्टिकोण से डाल कर सोच विचार करते हैं :

धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण : धर्म ये वो विषयवस्तु है जिसको ठीक ठीक विदित हो जाए तो वो जन्म मरण के चक्कर से छूटकर मोक्ष प्राप्त कर ले। मगर धर्म वो गूढ़ तत्त्व है जिसे समझना सबसे आसान कार्य भी है और सबसे मुश्किल भी, आसान उनके लिए जो मनुष्य हैं और मुश्किल उनके लिए जो मनुष्य रूप में भी पशु हैं, देखिये :

ईश्वर ने मनुष्य को सत्य ग्रहण करने की बुद्धि दी है, क्योंकि पशुओ में वो स्वाभाविक ज्ञान दिया है जो उनके लिए जरुरी है, लेकिन मनुष्यो में विवेक और स्वाध्याय का वो गुण दिया है जिससे मनुष्य मननशील होकर ज्ञान और विज्ञानं द्वारा नित नए आयाम प्राप्त करके समस्त मनुष्य और पशु पक्षी जाति का कल्याण कर सकता है, ये गुण पशुओ में नहीं देखे जाते इसीलिए मनुष्य पशुओ से श्रेष्ठ और उत्तम जाति है। लेकिन यही श्रेष्ठता और उत्तमता मनुष्य को पशु बनने की और भी प्रेरणा दे देती है, क्योंकि मनुष्य जब विवेक और स्वाध्याय को छोड़ कर मननशील नहीं रहता तब अपने दुर्व्यसन और उदर पूर्ति हेतु पापकर्म की और खींचा चला जाता है, तब ऐसी स्थति में अपनी वासनाओ और दुर्व्यसनों के चलते अपने पापकर्मों को सही सिद्ध करने हेतु तर्क और प्रमाण जुटाने लगता है। यही आकर मनुष्य, निकृष्ट और पशु योनि से भी निम्न स्तर पर चला जाता है, शायद इसीलिए धर्म शास्त्रो में स्थावर योनि का विधान है, क्योंकि स्थावर योनि ऐसी भोग्य योनि है जिसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, न उसे दर्द होता, न सोचने विचरने की क्षमता रहती, इसीकारण पेड़ पौधों में जीव होते हुए भी दर्द और सोचने विचरने की क्षमता नहीं पायी जाती, और जो मनुष्य मांसाहार करते हैं, अपने इस कुकृत्य को अपनी कपटी, थोति तर्क आधारित बातो से सही सिद्ध करने की कोशिश करते हैं वो मानो मनुष्य होते हुए भी स्थावर हैं, क्योंकि उनमे मननशीलता का गुण नहीं, वे कदापि मनुष्यता के लक्षण नहीं रखते अतः उन्हें मनुष्य कहलवाने का कोई अधिकार नहीं।

धार्मिक आधार और सैद्धांतिक तौर पर भोजन वो होना चाहिए जिससे न तो किसी का दोष लगा हो – ना पाप करके चोरी करके लाये हो – न ही हत्या अथवा हिंसा करके।

हिंसा कहते हैं – जो वैर भाव से किया गया कृत्य हो।” ऐसे में हमारे मस्तिष्क में सवाल उठता है आखिर फिर मनुष्य व पशु की भोजन व्यवस्था ईश्वर ने क्या दी है ? हमें क्या खाना चाहिए ?

ईश्वर की न्याय व्यवस्था में एक नियम है, ईश्वर ने मनुष्य और पशु बनाये तो उनकी खाद्य सामग्री भी अवश्य ही बनाई होगी। अतः हम आगे पढ़ेंगे की मनुष्य और पशु की खाद्य सामग्री क्या है। आइये देखिये

मांसाहारी पशु और शाकाहारी पशु तथा मनुष्य, इन सभी का निर्माण ईश्वरीय न्यायवेवस्था से होता है, जो पशु मर जाते हैं उनका मांस सड़कर प्रकृति में बिगाड़ पैदा करता है इसलिए वो बिगड़ पैदा न हो प्रकृति दूषित न हो इसलिए मांसाहारी पशुओ का सृजन होता है जैसे गिद्ध, चील, कौव्वा आदि।

कुछ पशु अपना पेट भरने हेतु हिंसक गतिविधि करते हु शिकार करते हैं यथा शेर, चीता, जंगली कुत्ता, लोमड़ी आदि इनमे प्रमुख हैं, अधिकतर मांसाहारी मनुष्य इन्ही पशुओ का दृष्टान्त देते हुए कहते हैं देखिये यदि मांसाहार ठीक नहीं होता तो ईश्वर मांसाहारी पशु नहीं बनाता, लेकिन इस कुतर्क के पीछे का ज्ञान कभी नहीं समझते, ईश्वर ने माँसाहारी पशुओ को हिंसक ही बनाया है और वो हिंसा करके ही अपना भोजन प्राप्त करते हैं, ये सर्वमान्य तथ्य है, तो क्या मांसाहारी मनुष्य ये बात स्वीकार करते हैं की वे भी हिंसक, जंगली और हिंसा करके ही उदार पूर्ति करते हैं ? ये सवाल पूछते ही वो कहते हैं नहीं हम तो अहिंसक है, मनुष्य हैं। भाई वाह ! कार्य करते हो जंगली और पशुता वाले, कहते हो खुद को मनुष्य ? आइये आपको वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझाते हैं, देखिये :

वैज्ञानिक दृष्टिकोण : सात्विक भोजन से न्यूरो इनहीबीटरी ट्रान्समीटर्स उत्पन्न होते हैं, जिनसे मस्तिष्क शांत रहता है। वहीं असात्विक (मॉस) भोजन से मस्तिष्क में उत्तेजक तंत्रिका संचारक (न्यूरो इक्साइटेटरी ट्रान्समीटर्स) उत्पन्न होते हैं जिससे मस्तिष्क अशांत रहता है। गाय, बकरी, भेड़ आदि शाकाहारी जन्तुओं में सिरोटोगिन की अधिकता के कारण ही उनमें शांत प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं जबकि माँसाहारी जन्तुओं जैसे शेर आदि में सिरोटोनिन के अभाव से उनमें अधिक उत्तेजना, अशांति एवं चंचलता पायी जाती है। इसी परिप्रेक्ष्य में सन् 1993 में जर्नल ऑफ क्रिमिनल जस्टिक एज्युकेशन में फ्लोरिडा स्टेट के अपराध विज्ञानी सी.रे.जैफरी का वक्तव्य भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि वह चाहे कोई भी हो, मस्तिष्क में सिरोटोनिन का स्तर कम होते ही व्यक्ति आक्रामक और क्रूर हो जाता है। शिकागो ट्रिब्यून में प्रकाशित अग्रलेख भी बताता है कि मस्तिष्क में सिरोटोनिन की मात्रा में गिरावट आते ही हिंसक प्रवृत्ति में उफान आता है।

यहाँ यह बताना उचित होगा कि मॉस से जिनमें ट्रिप्टोपेन नामक अमीनों अम्ल नहीं होता है, मस्तिष्क में सिरोटोनिन की कमी हो जाती है एवं उत्तेजक तंत्रिका संचारकों की वृद्धि हो जाती है। इसी से योरोप के विभिन्न उन्नत देशों में नींद ना आने का एक प्रमुख कारण वहाँ के लोगों को माँसाहारी होना भी हैं उपरोक्त सिरोटोनिन एवं अन्य तंत्रिका संचारकों की क्रिया विधि पर काम करने से श्री पॉल ग्रीन गार्ड को सन् 2000 का नोबल पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है।

अतः विज्ञानं भी मानता है की मांस भक्षण से मनुष्य में क्रूरता, हिंसा और अपराध करने की प्रवृति जागती है, इसीलिए इस मांस भोजन को तामसी भोजन कहा जाता है। यहाँ ध्यान देने वाली बात है की पशुओ में तो मननशील स्वाभाव नहीं होता इसलिए पशुता निभाते हुए, अपने कर्मफल भोग करके हिंसा द्वारा मांसाहारी होते हैं, लेकिन मनुष्य जिसका कर्तव्य ही मनुष्यता है क्या वो ऐसी हिंसा करके अपना भोजन करे तो उसे मनुष्य कहा जा सकता है ?

मांसाहारी मनुष्यो का दूसरा कुतर्क होता है पेड़ पौधों में जीव होता है, जिससे उन्हें भी दर्द होता है, यहाँ तक की पशु तो चीखचिल्ला कर अपना दर्द प्रकट करते हुए जिबह (मरते) हैं। लेकिन बेचारे पेड़ पौधे तो ऐसा भी नहीं कर सकते, उनकी चीख तो सुनाई भी नहीं देती, ये बड़ा अपराध है।

अब देखिये कुतर्क, जिन पशुओ की चीख, दर्द, चिल्लाहट प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे उनपर दया का रत्ती भर प्रभाव नहीं, लेकिन जो पेड़ पौधों की चीख तक सुनाई नहीं देती उनपर दया और रहम की पट्टी बंधने को तैयार हैं। खैर इनके कुतर्क का जवाब देना हमारी जिम्मेदारी है, देखिये एक भारतीय वैज्ञानिक हुए थे जगदीश बासु जी, जिन्होंने ऐसा कोई तथाकथित विज्ञानिक यंत्र ईजाद किया था जिससे पेड़ पौधों की चीख सुनाई देती थी, लेकिन हम आधुनिक विज्ञानं में जी रहे हैं भाइयो, आधुनिक विज्ञानं के अनुसार, न तो पेड़ पौधों को दर्द होता है, न ही उन्हें कुछ महसूस होता है क्योंकि दर्द की अनुभूति और कुछ भी महसूस करने हेतु बुद्धि और नर्वस सिस्टम होना जरुरी है मगर पेड़ पौधों में ये नहीं पाया जाते (Bhalla, US; Iyengar, R (1999). “Emergent properties of networks of biological signaling pathways”. Science 283 (5400): 381–7)

ऐसी अनेको रिसर्च से आधुनिक विज्ञानं का पिटारा भरा हुआ है जो सिद्ध करता है की पेड़ पौधों में बुद्धि और नर्वस सिस्टम नहीं होता इसलिए उन्हें दर्द की अनुभूति नहीं हो सकती। लेकिन यहाँ ध्यान देने वाली बात है की पेड़ पौधे सजीव होते हैं, जैसे आज मांसाहारी स्थावर हो चुके हैं उन्हें पशुओ का दर्द और पीड़ा आदि कुछ नहीं सूझ रहा ऐसे ही वो पेड़ पौधों में भी ईश्वरीय व्यवस्था से यही गुण दे दिए जाते हैं अतः मांसाहारी मनुष्य अगले जन्म में स्थावर या फिर हिंसक पशु उत्पन्न होंगे इसमें कोई शक नहीं। वैसे भी इस जन्म में मांसाहारी मनुष्य हिंसक और स्थावर तो हैं ही अतः ये भी अतिश्योक्ति नहीं की ये पेड़ पौधों व मांसाहारी पशुओ से मनुष्य श्रेणी में आये हो इसलिए ये गुण पाये जाते हो।

प्राकृतिक दृष्टिकोण : विगत कुछ वर्षों से विश्वव्यापी खाद्यान्न समस्या चर्चा का विषय बनी हुयी है। इस समस्या का समाधान निम्नांकित वैज्ञानिक तथ्य करके दिखाते हैं :— (अ) एक किलोग्राम जन्तु प्रोटीन (माँस) हेतु लगभग ८ किलोग्राम वनस्पति प्रोटीन की आवश्यकता होती है। सीधे वनस्पति उत्पादों का उपयोग करने पर माँसाहार की तुलना में सात गुना व्यक्तियों को पोषण प्रदान किया जा सकता है।

(आ) किसी खाद्य शृंखला में प्रत्येक पोषक स्तर पर ९० प्रतिशत ऊर्जा का खर्च होकर मात्र १० प्रतिशत ऊर्जा ही अगले पोषक स्तर पर पहुँच पाती है। पादप प्लवक, जन्तु प्लवक आदि से होते हुए मछली तक आने में ऊर्जा का बड़ा भाग नष्ट हो जाता है और ऐसे में एक चिंताजनक तथ्य यह है कि विश्व में पकड़ी जाने वाली मछलियों का चौथाई भाग माँस उत्पादक जानवरों को खिला दिया जाता है।

(इ) समुद्र की खाद्य श्रंखला को देखने पर पता चलता है कि वहाँ पादप प्लवकों द्वारा संचित 31080 खरब ऊर्जा बड़ी मछली तक आते—आते मात्र 126 खरब बचती है। समुद्री शैवालों का विश्व में र्वािषक जल संवर्धन उत्पादन लगभग ६.र्५ १००, ००,००० टन है। जापान तथा प्रायद्वीपों सहित दूरस्थ पूर्वी देशों में इसके अधिकांश भाग का सब्जी के रूप में उपयोग किया जाता है। समुद्री घासों में प्रोटीन काफी मात्रा में पायी जाती है। इसमें पाये जाने वाले एमीनो अम्ल की तुलना सोयाबीन या अण्डा से की गयी है। अतएव मछली पालन के स्थान पर पादप प्लवक पल्लवन से अहिंसा , ऊर्जा एवं धन तीनों का संरक्षण किया जा सकता है।
(ई) विश्व में प्रतिवर्ष २० लाख लोग कीटानाशी विषाक्तता से ग्रसित हो जाते हैं, जिनमें से लगभग २० हजार की मृत्यु हो जाती है। कीटनाशक जहर जैसे होते हैं और ये खाद्य शृंखला में लगातार संग्रहीत होकर बढ़ते जाते हैं। इस प्रक्रिया को जैव आवर्धन कहते हैं। उदाहरण के लिये प्रातिबंधित कीटनाशक डी. डी. टी. की मात्रा मछली में अपने परिवेश की तुलना में १० लाख गुना अधिक हो सकती है और इन मछलियों को खाने वालों का स्वाभाविक रूप से अत्यधिक जहर की मात्रा निगलनी ही पड़ेगी।
यही प्रक्रिया अन्य माँस उत्पादों के साथ भी लागू होती है। कीटनाशकों, रसायनों से मुक्त आधुनिक जैविक कृषि आज सारे विश्व का ध्यान आर्किषत कर रही है। इसके अलावा वृक्ष खेती तथा मशरूम खेती भी खाद्यान्न समस्या के शानदार समाधान है।

विश्व के करीब १.२ अरब व्यक्ति साफ पानी (पीने योग्य) के अभाव में जी रहे हैं। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि वर्ष २०२५ तक विश्व की करीब दो तिहाई आबादी पानी की समस्या से त्रस्त होगी। विश्व के ८० देशों में पानी की कमी है। इस समस्या के संदर्भ में जहाँ १ किलोग्राम गेहूँ के लिये मात्र ९०० लीटर जल खर्च होता है वहीं गोमाँस के उत्पादन में १ लाख लीटर जल खर्च होता है। इस तथ्य से जल समस्या का समाधान भी शाकाहार में दिखायी देता है।

मानव मस्तिष्क में हुयी सबसे बड़ी वृद्धि का कारण हार्वर्ड विश्वविद्यालय के रिचर्ड रेंधम और नेन्सील कांकलिन ब्रिटेन तथा मिनेसोटा विश्वविद्यालय के ग्रेग लेडन के अनुसार पका हुआ शाकाहारी भोजन है। अतः प्राकृतिक दृष्टिकोण से भी मांसाहार अनुचित है।

मांसाहार से सम्बंधित कुछ अन्य विचार : विश्व स्वास्थ्य संगठन की बुलेटिन संख्या ६३७ के अनुसार माँस खाने से शरीर में लगभग १६० बीमारियाँ प्रविष्ट होती हैं। अधिकांश औषधियाँ वनस्पतियों से ही प्राप्त होती है।

कैंसर—अमरीकी वैज्ञानिकों की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार यदि लोग अधिक भुने हुये माँस तथा सड़ी चर्बी न खाये तो उन्हें कैंसर होने की आशंका बहुत कम रहेगी। इंटरनेशनल एजेन्सी ऑफ रिसर्च ऑन कैंसर के निर्देशक पॉल क्लीहाज के अनुसार पश्चिमी देशों में १० में से १ मरीज फल और सब्जी नहीं खाने की वजह से इस बीमारी की चपेट में आता है। केलिर्फोिनया विश्वविद्यालय के जीव रसायन विभाग के अध्यक्ष श्री ब्रूस एन एम्स ने बताया कि भोजन पकाने की प्रक्रिया में खाद्य तेल और चर्बी गोश्त में विकृति बढ़ाते हैं जिससे इनके सेवन में कुछ ऐसी विकृत स्थितियाँ बनती हैं जिनसे आनुवांशिकी द्रव्य क्षतिग्रस्त होते हैं और शरीर में कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। संतरे के रस और हरी सब्जियाँ में फोलेट नामक तत्व होता है जो स्तन कैंसर के खतरों को कम करता है। प्रमुख कैंसर रोधी औषधियाँ इविंनग प्राइमरोज के बीज, लंदूसी नामक बूटी की पत्तियों का सलाद इत्यादि शाक पात हैं।

शाकाहार से सम्बंधित कुछ अन्य विचार : हरी सब्जियों में उपस्थित पोषक तत्व तथा विटामिन ई एवं सी प्रति ऑक्सीकारकों की तरह कार्य करते हैं। अल्जाइमर रोग से बचाने में इन प्रति आक्सीकारकों की ही भूमिका होती है, शरीर से मुक्त मूलकों की सफाई में प्रति आक्सीकारक अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मुक्त मूलक कैंसर सहित अनेक घातक रोगों के लिये उत्तरदायी होते हैं।

टी. बी. हमारी सफेद रक्त कोशिकाओं एवं रोगाणु का पेगोसोम बंद करवाती है फिर इसे लाइसोसोम के संपर्क में लाकर नष्ट करवा देती है परन्तु टी.बी. का कीटाणु पेगोसोम को लाइसोसोम से जुड़ने नहीं देता है और अंदर बैठा—बैठा बढ़ता रहता है।
यूरोपियन मालिक्यूलर बायोलॉजिकल रिसर्च सोसायटी जर्मनी के एक अनुसंधान के अनुसार वनस्पति तेलों में पाई जाने वाली वसाएँ एरेचिडोनिक अम्ल और सेरेमाइड पेगोसोम को लाइसोसोम से जुड़ने नहीं देता है और अंदर बैठा—बैठा बढ़ता रहता है।

यूरोपियन मालिक्यूलर बायोलॉजिकल रिसर्च सोसायटी जर्मनी के एक अनुसंधान के अनुसार वनस्पति तेलों में पाई जाने वाली वसाएँ एरेचिडोनिक अम्ल और सेरेमाइड पेगोसोम को लाइसोसोम से जोड़ने में मदद करती हैं जबकि मछली के तेल में पाई जाने वाली वसाएँ इस क्रिया में बाधक होती हैं। अर्थात् शाकाहार टी. बी. को रोकता है जबकि माँसाहार इस मारक रोग को बढ़ाता है। इस शोध के प्रमुख गेरेथ ग्रिफिथ्स के अनुसार शायद इसीलिए खूब मछली खाने वाले इनुइट लोग टी. बी. से जल्दी ग्रसित हो जाते हैं। इस संदर्भ में यह तथ्य ध्यान देने योग्य हैं कि भारत में प्रतिवर्ष लगभग ५ लाख लोग टी. बी. से मर रहे हैं।

वेदादि सत्य आर्ष ग्रंथो और ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध होता है की आर्य जाती पूर्णतया शाकाहारी है देखिये

कात्यान्न श्रोतसूत्र मे आया है-
दुष्टस्य हविषोSप्सवहरणम् ।।२५ ,११५ ।।
उक्तो व मस्मनि ।।२५,११६ ।।
शिष्टभक्षप्रतिषिध्द दुष्टम।।२५,११७ ।।
अर्थात होमद्र्व्य यदि दुष्ट हो तो उसे जल मे फेक देना चाहिए उससे हवन नहीं करना चाहिए ,शिष्ट पुरुषो द्वारा निषिध मांस आदि अभक्ष्य वस्तुयें दुष्ट कहलाती है ।

शतपत में मॉस भोजी को यज्ञ का अधिकार नही दिया है देखिये :-
“न मॉसमश्रीयात् ,यन्मासमश्रीयात्,यन्मिप्रानमुपेथादिति नेत्वेवैषा दीक्षा ।”(श. ६:२ )
अर्थात मनुष्य मॉस भक्षण न करे , यदि मॉस भक्षण करता है अथवा व्यभिचार करता है तो यज्ञ दीक्षा का अधिकारी नही है

मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोक देकर अपने मांसभक्षण को सही सिद्ध करने वालो की ऐसा मालूम होता है इन लोगो की बुद्धि कहीं घास चरने चली गयी है, अन्यथा वे ऐसा कभी न कहते क्योंकि देखिये मनु महाराज ने “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का क्या अर्थ दिया है –

या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे। अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ।। योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया। स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।। (५.४४-४५)

अर्थात, जो विश्व संसार में दुष्टो – अत्याचारियो – क्रूरो – पापियो को जो दंड – दान रूप हिंसा वेदविहित होने से नियत है, उसे अहिंसा ही समझना चाहिए, क्योंकि वेद से ही यथार्थ धर्म का प्रकाश होता है। परन्तु इसके विपरीत जो निहत्थे, निरपराध अहिंसक प्राणियों को अपने सुख की इच्छा से मारता है, वह जीता हुआ और मरा हुआ, दोनों अवस्थाओ में कहीं भी सुख को नहीं पाता। दुष्टो को दंड देना हिंसा नहीं प्रत्युत अहिंसा होने से पुण्य है, अतएव मनु ने (8.351) में लिखा है –

गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्। आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन।। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवती कश्चन। प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति।।

अर्थात, चाहे गुरु हो, चाहे पुत्र आदि बालक हो, चाहे पिता आदि वृद्ध हो, और चाहे बड़ा भरी शास्त्री ब्राह्मण भी क्यों न हो, परन्तु यदि वह आततायी हो और घात-पात के लिए आता हो, तो उसे बिना विचार तत्क्षण मार डालना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्षरूप में सामने होकर व अप्रत्यक्षरूप में लुक-छिप कर आततायी को मारने में, मारने वाले का कोई दोष नहीं होता क्योंकि क्रोध को क्रोध से मारना मानो क्रोध की क्रोध से लड़ाई है।

““यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा”

ये वृतांत महाभारत में शांतिपर्व के अंतर्गत अध्याय २७२ में आता है – केवल इतना ही नहीं – यहाँ ये भी बताया गया है की यदि कोई यज्ञ में पशु वध करता है – तो निश्चय ही उसका सब तप नष्ट हो गया।

तस्य तेनानुभावेन मृगहिसात्मनस्तदा।
तपो महत समुच्छिन्नं, तस्माद्धहिंसा न यज्ञिया।।
अहिंसा सकलो धर्मोहिंसा धर्मस्तथाविधः।
सत्यंतेहं प्रवक्ष्यामि, यो धर्मः सत्यवादिनाम्।।

इस प्रकरण में महाराज युधिष्ठर ने भीष्म पितामह से पूछा है की धर्म तथा सुख के लिए यज्ञ कैसा करना चाहिए ? उसके उत्तर में पितामह ने एक तपस्वी ब्राह्मण -ब्राह्मणी दंपत्ति का वृतांत देते हुए बतलाया है की किसप्रकार उस तपस्वी ब्राह्मण का महान तप, यज्ञ में पशुबलि देने के लिए एक वन्य मृग को मारने की इच्छा मात्र से विनष्ट हो गया। इसलिए यज्ञ में कभी हिंसा न करनी चाहिए। अहिंसा सार्वत्रिक और सारकालिक नित्य धर्म है। इस प्रमाण से ज्ञात होता है की न तो महाभारत काल में यज्ञ में पशु हिंसा का विधान था – न ही उससे पहले के काल में क्योंकि अथर्ववेद 11.7.7 में लिखा है –

राजसूयं वाजपेयमग्निष्टोमस्तदध्वरः।
अकार्श्वमेधावुच्छिष्टे जीव बर्हिममन्दितमः।।

राजसूय, वाजपेय, अग्निष्टोम, अर्कमेध, अश्वमेध आदि सब अध्वर अर्थात हिंसा रहित यज्ञ हैं, जोकि प्राणिमात्र की बुद्धि करने वाला और सुख शांति देने वाला है। एवं इस मन्त्र में राजसूय आदि सभी यज्ञो को “अघ्वर” कहा गया है जिसका एकमात्र सर्वसम्मत अर्थ “हिंसा रहित यज्ञ है” जोकि निषेधार्थक नञ पूर्वक ‘ध्वर’ हिंसायां धातु से बनता है। घ्वरो हिंसा तदभावोत्र सोध्वरः। अतः स्पष्ट है की वेदने किसी भी यज्ञ में पशुवध की आज्ञा नहीं दी, उल्टा पशुवध करने पर उसे यज्ञ ही नहीं माना। इसलिए वेद के नाम पर यज्ञो में पशुवध करना अपने को धोखा देना है, दुसरो को उल्टा रास्ता बतलाना, अथवा अपनी अज्ञानता प्रकट करना है। फिर यह भी देखिये की पशु वध करने पर प्राणिमात्र की क्या वृद्धि हुई और उसे क्या सुख शांति मिली, उल्टा प्राणी की हत्या करते समय उसे घोर यातना दी जाती है और उसका जीवन तक समाप्त कर दिया जाता है, तब वह कर्म “बर्हिममन्दितमः” कैसे रहा ?”

उपरोक्त मनु स्मृति के प्रमाण से भी स्पष्ट है की यज्ञ में पशु वध का निषेध है। वेद प्रमाणों से स्पष्ट है की वेदो में पशु वध निषेध है – जबकि वेदो में पशुओ को पालने का स्पष्ट निर्देश है – यहाँ तक की – गाय, घोड़ा आदि पशुओ की हत्या करने वालो को “प्राणदंड” तक का विधान है – मनु स्मृति भी इस बात की पुष्टि करती है – ब्राह्मण ग्रन्थ भी यही कहते हैं = महाभारत भी यही कहती है – तो इससे सिद्ध है – न तो वैदिक काल में यज्ञ में पशु वध होता था – ना ही महाभारत काल में – ये सब महाभारत युद्ध के ५००-१००० वर्ष बाद की उपज ही सिद्ध होती है –

मैं उन सभी बंधुओ को इस माध्यम से सूचित करना चाहता हु, जब वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, इतिहास, और मानवशास्त्र धर्मग्रन्थ आदि भी मांसाहार को पाप कर्म बताते हैं तब हमारे इतिहास के श्री राम आदि महापुरष किस प्रकार माँसाहारी हो सकते हैं ?

जो भी मनुस्मृति में मांसाहार सम्बंधित श्लोक हैं वे प्रक्षिप्त हैं क्योंकि महाभारत का श्लोक ऊपर दिया है, जिसमे इसी विषय पर संकेत किया गया है।

अतः सत्य सनातन वैदिक स्वरुप को पहचानिये, शाकाहार अपनाये, बीमारी दूर भगाए, शुद्ध सात्विक और सनातन संस्कृति हमारी पहचान

लौटो वेदो की और

नमस्ते

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 8″

“सातवे अध्याय का जवाब”

पुनर्जन्म, मजहब, पंथ, सम्प्रदाय व धर्म के आलोक में

मित्रो, सतीशचंद गुप्ता जी द्वारा उठाया गया पुनर्जन्म पर आक्षेप की मरणोत्तर जीवन : तथ्य और सत्य में वे स्वयं भी स्वीकार करते हैं की पुनर्जन्म होता है, मगर खेद की खुद अपनी ही बात को नकार भी देते हैं, पिछली पोस्ट में भी सिद्ध किया गया था की पुनर्जन्म होता है, ये कोई ख्याली पुलाव नहीं है, सभी मजहबो में पुनर्जन्म माना जाता है, क्योंकि पुनर्जन्म के आभाव में मनुष्य की किये कर्मो का फल कैसे भोग किया जा सकेगा ? इसका प्रामाणिक और संतोषजनक जवाब आज तक कोई व्यक्ति नहीं दे पाया है, देखिये हम पहले भी बता चुके हैं दुबारा बताते हैं :

दुनिया मैं मौजूद लगभग सभी मजहब, पंथ, मत, समुदाय, पुनर्जन्म को पूर्णरूपेण अथवा आंशिक रूप से मानते हैं,

हिन्दू मत, बुद्ध मत, सिख मत, जैन मत सभी मतों सम्प्रदायों में पुनर्जन्म को माना जाता है, मानने का तरीका और प्रक्रिया किंचित भेद है, पर माना जाता है।

लेकिन ईसाई और इस्लाम मत की ये मान्यता है, की मरणोपरांत आत्मा, कब्र में विश्राम करती है, और आखरी दिन आने पर अल्लाह के हुक्म से उठ खड़ी होगी। लेकिन यहाँ भी वो ये मानते हैं की आत्मा को पुनः एक नया शरीर मिलेगा, और वो अपने किये कर्मो के फल उसी शरीर में जन्नत व जहन्नम में भोगेगी। क्या ये पुनर्जन्म नहीं ? क्योंकि पुनर्जन्म का तो कांसेप्ट ही है कर्मो का फल भोग करने हेतु नया शरीर धारण करना, भले ही ये प्रक्रिया थोड़ी अलग हो, लेकिन है तो पुनर्जन्म ही।

लेकिन यहाँ भी एक आक्षेप खड़ा हो जाता है, क्योंकि ईसाई और मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदाय का मानना है की ईसाई मसीह साहब जो बड़े पैगम्बर हुए हैं, वो इसी धरती पर आखरी दिन आने से पहले आएंगे, यानी वो पुनः इसी धरती पर प्रकट होंगे, तो मेरे भाइयो ये तो बताओ की जब ईसा मसीह साहब आएंगे तो वो पुनर्जन्म न होगा ? जब आप पुनर्जन्म को नहीं मानते, तो ईसा मसीह साहब कैसे पुनः वापस आएंगे ?

खैर ये तो ईसाई और मुस्लिम बंधुओ पर छोड़ते हैं, हम आपको दिखाते हैं, क़ुरान और बाइबिल के पुनर्जन्म पर क्या विचार हैं, देखिये :

13 यूहन्ना तक सारे भविष्यद्वक्ता और व्यवस्था भविष्यद्ववाणी करते रहे।
14 और चाहो तो मानो, एलिय्याह जो आनेवाला था, वह यही है।

(बाइबिल मत्ती ११:१३-१४)

यहाँ इस अध्याय में पैगम्बर ईसा यूहन्ना को एलिय्याह का पुनर्जन्म बता रहे हैं।

इसके बारे में और भी सटीकता से ईसा मसीह ने मत्ती के ही अध्याय १७ में और भी अधिक विस्तार से बताया है देखिये :

11 उस ने उत्तर दिया, कि एलिय्याह तो आएगा: और सब कुछ सुधारेगा।
12 परन्तु मैं तुम से कहता हूं, कि एलिय्याह आ चुका; और उन्होंने उसे नहीं पहचाना; परन्तु जैसा चाहा वैसा ही उसके साथ किया: इसी रीति से मनुष्य का पुत्र भी उन के हाथ से दुख उठाएगा।
13 तब चेलों ने समझा कि उस ने हम से यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के विषय में कहा है।

(बाइबिल मत्ती १७:११-१३)

यहाँ सुस्पष्ट हो गया की जो एलिय्याह का पुनर्जन्म होना था वो यूहन्ना के रूप में हुआ।

ऐसी ही अनेक जगहों पर बाइबिल में पुनर्जन्म के प्रमाण मिलते हैं :

5 देखो, यहोवा के उस बड़े और भयानक दिन के आने से पहिले, मैं तुम्हारे पास एलिय्याह नबी को भेजूंगा।

(बाइबिल मलाकी ४:५)

यहाँ एलिय्याह को ही यहोवा ने भेजने का वादा किया जिसकी पुष्टि ऊपर की आयतो में ईसा मसीह खुद करते हैं, अतः ईसाई बंधुओ को पुनर्जन्म के विषय में कोई शंका नहीं रखनी चाहिए, ईसाई बंधुओ को अपनी बाइबिल का विश्लेषण करना चाहिए।

अब इस्लामिक नजरिये से दिखाते हैं :

इस्लाम में कुछ फ़िरक़े ऐसे भी हैं जो पुनर्जन्म पर विशवास रखते हैं, उनमे दो मुख्य हैं हालांकि ये फ़िरक़े जनसँख्या के हिसाब से बहुत कम हैं, पर फिर भी ये मुस्लिम होते हुए भी पुनर्जन्म पर आस्था रखते हैं,

शिया मुस्लिमो में अल्विया एक समुदाय है जिनकी मान्यता है की वो अपने बुरे कर्मो के आधार पर मनुष्यो में ईसाई व पशु योनि प्राप्त कर सकते हैं। (Wasserman J. The templars and the assassins: The militia of heaven: Inner Traditions International. 2001:133–7)

वहीँ मुस्लिमो में एक और समुदाय होता है गुलात, इनकी भी मान्यता है की पुनर्जन्म होते है, क्योंकि गुलात पंथ के संस्थापक का विशेष परिस्थिति में पुनर्जन्म हुआ था जिसे हुलुल कहते हैं, इसलिए इस मुस्लिम पंथ का पुनर्जन्म में विश्वास है (Wilson PL. Scandal: Essays in Islamic Heresy. Brooklyn, NY: Autonomedia; 1988)

अब हम कुछ क़ुरानी आयतो से समझाने की कोशिश करते हैं :

(हे लोगो !) तुम अल्लाह की बातो का कैसे इंकार कर सकते हो ? सच तो यह है की तुम मुर्दा थे, उसने तुम्हे जिन्दा किया। (फिर एक दिन ऐसा आएगा की) वह तुम्हे मौत देगा, फिर तुम्हे जीवित करेगा। इसके बाद तुम्हे उसी की और लौटाया जायेगा

(क़ुरान २:२९)

क्या यहाँ से मुस्लिम भाइयो को स्पष्ट पुनर्जन्म नहीं दिखाई देता ? यहाँ अल्लाह मियां स्पष्ट रूप से कहते हैं की तुम पहले मुर्दा थे, फिर जीवित किया, फिर मौत देगा, फिर जीवित करेगा। ये तो स्पष्ट पुनर्जन्म है।

इसके अतिरिक्त पिछले लेख में भी विज्ञानिक और वैज्ञानिको के निष्कर्ष आधार पर भी पुनर्जन्म सिद्ध होता है, तथा क़ुरान की अनेक आयतो का संदर्भ भी दिया गया है।

जहाँ तक प्रथम सृष्टि के ४ ऋषियों की बात है तो ऋषि ने सत्यार्थ प्रकाश में ही लिखा है की जीव अनादि हैं, जब जीव अनादि हैं तो उनके कर्म भी अनादि हुए, उनके जो भोग होंगे वो उन्हें कर्मफल रूप भोगने ही हैं, जब प्रथम सृष्टि, यहाँ प्रथम सृष्टि का अर्थ ये नहीं की ये सृष्टि ही प्रथम है, सृष्टि तो स्वरुप से अनादि है जैसे रात के बाद दिन, और दिन के बाद रात, तथा रात से पहले दिन, दिन से पहले रात रहती है, इसमें प्रथम क्या आया ? लेकिन प्रथम का अर्थ है की जब प्रथम मन्वन्तर यानी इस सृष्टि का प्रथम मन्वन्तर आया तब ४ ऋषियों के ह्रदय में वेद ज्ञान प्रकाशित हुआ। इसी प्रकार सभी जीवो के कर्म और उनके फलभोग होते हैं। ये सृष्टि तो स्वरुप से ही अनादि है, इस बात को अल्लाह मियां खुद कुरान में स्वीकार करते हैं, फिर आक्षेपकर्ता को तो हमें बताना चाहिए :

यदि पुनर्जन्म नहीं होता, तो जो मनुष्य अंधे, लंगड़े, बेहरे अनेको बीमारियो से ग्रस्त होते हैं, वो क्या अल्लाह की मर्जी है ?

यदि पुनर्जन्म नहीं होता तो जो बच्चे पैदा होते ही मृत्यु की गोद में सो जाते हैं, उनमे उन बच्चो का क्या दोष ? क्या ये एक माता पिता को दुःख अल्लाह की मर्जी से होता है ?

जो पुनर्जन्म नहीं होता तो जो गरीब और अमीर हैं वो किस कारण ? क्या अल्लाह भेदभाव करता है ?

जो पुनर्जन्म नहीं होता तो लाखो, करोडो, वर्षो से जो आत्माए कब्र में सो रही, अथवा जो आत्यमाये आज कब्र में सो रही उन्होंने जो कर्म किये उनके फल उन्हें करोडो वर्षो बाद, न्याय के दिन मिलेंगे, तो क्या ये लचर क़ानून व्यवस्था नहीं ? क्योंकि अंग्रेजी की एक कहावत है, जस्टिस डिले, मीन्स जस्टिस डिनाई, अर्थात न्याय को लम्बा लटकाना न्याय नही करना के सामान है।

एक बात और यदि पुनर्जन्म नहीं होता, तो जो जीव अभी सुख दुःख प्राप्त कर रहे वो किस कर्मो के आधार पर ? जबकि न्याय तो केवल न्याय के दिन होगा। क्या ये तर्कसम्मत है ?

हम तो चाहेंगे, आक्षेपकर्ता सच्चाई को जानने का प्रयास करे, महज थोड़ी झूठी प्रतिष्ठा पाने को सच्ची बातो पर भी आक्षेप करने विद्वानो का काम नहीं।

आओ लौटो वेदो की और

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 9″

“आठवे अध्याय का जवाब”

कोई भी जीव चाहे मनुष्य हो अथवा पशु व पक्षी मरते ही हैं और शरीर से आत्मा का वियोग होने पर वह शरीर रोगाणुओं और जीवाणुओ का घर बन जाता है जो सड़ता है, क्योंकि शरीर में मौजूद जो मिक्रोजियम्स हैं वह शरीर को अंदर से सडाना स्टार्ट करते हैं, अब देखने वाली बात है की जो मनुष्य जिंदगी भर जिया, उन्नत्ति की, इस प्रकृति से बहुत कुछ लिया, और अपनी पूरी जिंदगी प्रकृति के लिए यदि कुछ नहीं भी कर पाया तो, परिवार आदि के लिए बहुत कुछ किया, अथवा बहुत से कुछ नहीं भी कर पाते, तो सवाल उठता है, की अंतिम जो उसका क्रियाकर्म है वो किस प्रकार अच्छा हो सकता है, जो सुलभ हो, सस्ता हो, पर्यावरण हितकारी हो, तथा मनुष्यो के लिए भी लाभकारी हो।


मृत शरीर को ध्यान में रखते हुए अनेको मतों, सम्प्रदायों और पन्थो में अनेको परंपरा देखि जाती हैं, उनमे प्रमुख हैं :

1. शव दाह क्रिया।
2. मुर्दा गाड़ना।
3. मुर्दे को पानी में बहाना।
4. मुर्दे को पशु पक्षियों हेतु भोजन के लिए छोड़ देना।

अब इनमे से मुर्दे को बहाना और पशु पक्षियों हेतु भोजन के लिए छोड़ देना न तो युक्तिसंगत है न ही तर्कसंगत है, क्योंकि इससे पर्यावरण का बहुत विकार होता है। क्योंकि दोनों ही क्रियाओ से शव का अवशेष प्रकृति को दूषित करते हैं।

अब बात आती है, मुर्दा जलाये अथवा गाड़ा जाए ?

विज्ञानिक दृष्टिकोण से मृत शरीर का pH बैलेंस बिगड़ता है और अति दुर्गन्ध बदबू आनी स्टार्ट हो जाती है, जब यह मृत शरीर जमीन में गाड़ा जाता है तब pH बैलेंस बहुत अधिक हो जाता है और प्राकृतिक रूप शरीर के “गुड न्यूट्रिएंट्स” बाहर नहीं निकल पाते जिससे जमीन के अंदर ही विकार उत्पन्न होता है और अधिक बदबू आती है। आप किसी भी दफनाने वाली जगह का अवलोकन करे, वहां के वातावरण में अजीब सी दुर्गन्ध आती रहती है।

जोआन कैरोल क्रूज़ अपनी पुस्तक The Incorruptibles: A Study of the Incorruption of the Bodies of Various Catholic Saints and Beati जो की १९७७ में छपी थी, पृष्ठ संख्या ३६२ पर लिखते हैं

“The sheer stench from decomposing corpses, even when buried deeply, was over overpowering in areas adjacent to the urban cemetery”

गहराई से दफ़न करने के बावजूद भी शवो के सड़ने की महा भयंकर दुर्गन्ध शहरी कब्रिस्तानों के निकटवर्ती क्षेत्रो में जोरदार तरीके से फैली थी।

इसका एक दूसरा पहलु और भी है इस तरह के मृत शरीर को दफनाए जाने से जमीन में सोडियम की मात्रा २०० से २००० गुना अधिक तक बढ़ जाती है जिससे पेड़ पौधों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।

तीसरा महत्वपूर्ण कारण है की मृत शरीर को दफनाने पर जमीन में अनेक तरह के बेक्टेरिआ और जानलेवा टॉक्सिन्स का निर्माण होने लगता है, अधिकतर पशुओ को जमीन में दफनाने से एक खतरनाक टोक्सिन botulinum टोक्सिन उत्पन्न होता है जो धरती में मौजूद पानी को विषैला करता जाता है जिससे कैंसर और अनेक प्रकार की भयंकर बीमारिया उत्पन्न होती हैं।

“Decomposition of the human body releases significant pathogenic bacteria, fungi, protozoa, and viruses which can cause disease and illness, and many urban cemeteries were located without consideration for local groundwater. Modern burials in urban cemeteries also release toxic chemicals associated with embalming, such as arsenic, formaldehyde, and mercury. Coffins and burial equipment can also release significant amounts of toxic chemicals such as arsenic (used to preserve coffin wood) and formaldehyde (used in varnishes and as a sealant) and toxic metals such as copper, lead, and zinc (from coffin handles and flanges)”

“कब्र में मानव शरीर (शव) के सड़ने पर अनेको गंभीर और रोगजनक बेक्टेरिआ, फाँगि (कवक), प्रोटोजोआ और वाइरेसस आदि उत्पन्न होते हैं, जो अनेको प्रकार के गंभीर रोग और बीमारियां उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं, और अनेको शहरी कब्रिस्तान बिना स्थानीय भूजल की परवाह किये स्थापित किये गए हैं। यहाँ तक की शहरी कब्रिस्तानों में मौजूद आधुनिक कब्रो में लेप किये गए शवो से हानिकारक टॉक्सिक केमिकल्स जैसे आर्सेनिक, फॉरमॉल्डहाइड, और मर्करी आदि जानलेवा तत्व उत्सर्जित होते हैं। इसके अतिरिक्त शवो के साथ कफ़न और दफ़न सामग्री से भी आर्सेनिक, फॉरमॉल्डहाइड, और टॉक्सिक धातु जैसे कॉपर, लेड और जिंक आदि उत्सर्जित होते हैं।”

Taylor, Richard; Allen, Alistair (2006). “Waste Disposal and Landfill: Potential Hazards and Information Needs”. In Schmoll, Oliver; Howard, Guy; Chilton, John; Chorus, Ingrid. Protecting Groundwater for Health: Managing the Quality of Drinking-Water Sources. Cornwall, U.K.: World Health Organisation. ISBN 9781843390794

ये तो वैज्ञानिक निष्कर्षो के आधार पर है की मुर्दा गाड़ने से कितनी हानियां हो सकती हैं, अब आपको समझाते हैं की मुर्दा गाड़ना कितना खर्चीला हो सकता है, देखिये :

टाइम्स ऑफ़ इंडिया, हैदराबाद संस्करण (५ मई २०१२) में छपी खबर के मुताबिक मुर्दा गाड़ने के लिए उपयुक्त १५ गज जमीन का खर्च १८ हजार रूपये से १ लाख रूपये तक का है। वहीँ यदि कहीं मुर्दे को उसकी इच्छानुसार मुर्शिद (आध्यात्मिक मार्गदर्शक) के नजदीक गाड़ना हो तो खर्च का कोई पारावार ही नहीं, बहुत अधिक हो सकता है, वहीँ दूसरी और नामपल्ली में ही यूसुफेन दरगाह जो ३० हजार स्क्वेर यार्ड में फैली है वहां ६ फ़ीट बाय ढाई फ़ीट की कब्र के लिए आपको ३० हजार से ८० हजार तक का खर्च आता है (ध्यान रखे ये २०१२ के आंकड़े हैं)

इसके अतिरिक्त दिल्ली जैसे महानगर में किसी कब्रिस्तान में मुर्दा गाड़ने का खर्च ३ हजार रूपये है, वहीँ यदि किसी मस्जिद के निकट के कब्रिस्तान में मुर्दा गाड़ना हो तब इसका खर्च १५ हजार से शुरू होकर ५० हजार रूपये है, लेकिन यदि आपको लोक नायक अस्पताल के पीछे जो ऐतिहासिक मेहदियां कब्रिस्तान है वहा मुर्दा गाड़ना हो तो उसका खर्च ५० हजार से शुरू होता है और लाखो रूपये तक खर्च करने पड़ सकते हैं।

मशकर रशीद जो दिल्ली गेट कब्रिस्तान के केयरटेकर हैं बताते हैं की “दिल्ली गेट कब्रिस्तान में कब्र का खर्च २८०० रूपये है, लेकिन शहर के अलग अलग कब्रिस्तान में अधिकतर ५००० रूपये शुरूआती खर्च है, लेकिन जगह की कमी के चलते, उनसे अधिक रूपये भी वसूले जा सकते हैं।
(डेक्केन हेराल्ड ४ नवम्बर २०१२)

इन खबरों में ये भी बताया गया की ईसाई समुदाय के लिए जो खर्च है कब्र का वो कम से कम ३००० रूपये से १०००० रूपये तक जाता है। (डोमिनिक जूलियस, सम्बंधित दिल्ली कब्रिस्तान कमेटी)

ध्यान रहे ये आंकड़े केवल २०१२ तक के हैं, अभी २०१५ चल रहा है, तो इसमें कितना इजावा हुआ होगा, कह नहीं सकते। कब्रिस्तान में मुर्दो को गाड़ना ही जब इतना महंगा है, तब इसके अतिरिक्त जो अन्य खर्च आता है, वो अलग ही होगा, तब एक मुर्दा गाड़ने पर कितना खर्च आ सकता है, आप अंदाजा लगा सकते हैं।

अब हम आपको कब्रिस्तान की जमीन और शहरो की वास्तविकता का बोध करवाते हैं, देखिये १९०१ में अकेले दिल्ली राज्य की जनसँख्या ४ लाख थी लेकिन २०१२ में दिल्ली की जनसँख्या लगभग २ करोड़ के आसपास पहुंच गयी है। ऐसे में दिल्ली में लगभग बड़े और छोटे १०० कब्रिस्तान मौजूद हैं जो मुस्लिम समाज के लिए उपलब्ध हैं, इसके अतरिक्त सरकार ने सीलमपुर और कुंडली इलाके के लिए कुछ साल पहले ही कब्रिस्तान की जगह मुहिया करवाई है, वहीँ ईसाई समुदाय के लिए दिल्ली में ११ कब्रिस्तान मौजूद हैं, जिसमे द्वारका और बुराड़ी को अभी हाल में ही सरकार ने मुहिया करवाया है, ये सब जगह इसलिए मुहिया करवाई गयी है, क्योंकि पिछले कब्रिस्तान में जगह नहीं बची।

अब जरा एक बार को सोचिये, इतनी जगह अकेले दिल्ली में ही मुर्दो के आश्रय स्थल हेतु आरक्षित है, और वो भी कम पड़ रही है, तो नयी जगह अलॉट की जा रही हैं, जबकि आबादी के हिसाब से मुस्लिम और इसाई आबादी भारत में तेजी से बढ़ रही है, और विश्व जनसँख्या के हिसाब से तो खुद मुस्लिम समुदाय स्वीकार करते हैं की वो तेजी से ग्रोथ कर रहे हैं, ऐसी स्थति में, कितनी जगह मुर्दो के आश्रय स्थली हेतु आरक्षण के लिए दी जायेगी ?

जबकि आज पूरी दुनिया खाद्यान्न और रहने की मूलभूत समस्याओ से ग्रस्त है, जो जिन्दा व्यक्ति हैं उनके पास रहने को जगह नहीं, किसान खेती की जमीन को तरस रहा है, वहीँ दूसरी और मुर्दो के लिए इतनी बड़ी तादाद में जमीन को आश्रय स्थल बनाना क्या युक्तियुक्त है ?

अब हम आते हैं, शमशान घाट की स्थति पर, शमशान घाट एक जगह बनता है, और उसको दूर दूर के लोग भी सुगमता से उपयोग करते हैं, क्योंकि शरीर के भस्मीभूत होने पर वो जगह खाली हो जाती है अतः उसी जगह अनेको शवो का शवदाह आराम से हो सकता है, रही बात खर्चे की तो सामान्य व्यक्ति के लिए नाममात्र खर्च होता है, लकड़ी के अमूमन १५०० रूपये और घी के अधिकतम ६०० रूपये बाकी अन्य सामान की लगत १००० तो कुल खर्च करीब ३१०० रूपये आता है, यदि आक्षेपकर्ता महर्षि दयानंद के ही सिद्धांतो को अपनाकर खर्च सिद्ध करना चाहता है तब भी ये खर्च अधिकतम 1-2 लाख रूपये तक जाता है। लेकिन यहाँ इस सिद्धांत में जो जमीन का खर्च है वो नगण्य है, वहीँ दूसरी और १ लाख रूपये तो कब्र के खर्चे पर भी आ रहा है, साथ ही करोडो रूपये की जमीन जो केवल मुर्दो की आश्रय स्थली बनी रह जायेगी वो अलग है। तब भी महर्षि दयानंद का सिद्धांत ही सिद्ध होता है, और वो सुलभ है, सस्ता है, मनुष्यो के लिए अतयंत लाभकारी है, क्योंकि इससे जमीन की बचत होती है।

वही “International Cremation Statistics 2008” के मुताबिक पूरी दुनिया में भारत में ८५%, चीन 45.6% २०१४ में, जापान 99.85% २००८ में, ताइवान 92.47% 2013 में शव दाह संस्कार कर चूका है, वहीँ दूसरी और यूरोपीय देशो में १९६० में ३५% दाह संस्कार हुए थे जो २००८ में बढ़ाकर दुगने 72.44% पहुंच गए इसके अतरिक्त फ्रांस पेरिस में ३२% से बढ़कर ४५% तक दाह संस्कार का आंकड़ा पहुंच चूका है। वहीँ अमेरिका की दाह संस्कार संस्था की मानना है की २०२५ तक दाह संस्कार का आंकड़ा ५०% को पार कर जाएगा, क्योंकि १९६० में ये आंकड़ा महज 3.5% था जो २०१० तक ४१% तक पहुंच गया।

पूरी दुनिया, में आज जमीन को लेकर बड़ी समस्या है, क्योंकि कोई भी विकासशील देश को विकसित होने हेतु जमीन चाहिए, किसान को खेती के लिए जमीन चाहिए, उद्योग के लिए जमीन चाहिए, यानी जमीन की इस कदर समस्या है की विकास के लिए जमीन चाहिए मगर यही जमीन यदि केवल मुर्दो की आश्रय स्थली बना दी जाए, तो क्या देश का विकास संभव है ?

यदि शव दाह क्रिया विज्ञानं सम्मत न होती तो आज जो भी विकसित राष्ट्र हैं वो क्यों इसे अपनाते ? जाहिर सी बात है, सही तरीके से किया गया शव दाह, कभी भी प्रदूषण नहीं फैलाता, उलटे वातावरण को प्रदुषण से बचाता है।

आक्षेपकर्ता को यदि अभी भी केवल आक्षेप ही करने हैं तो वो स्वतंत्र है, मगर यदि, वैज्ञानिक, और राष्ट्र को बढ़ाने के योगदान, तथा गरीबो की आर्थिक स्थति को देखते हुए अवलोकन करे, तो मुर्दा गाड़ने की बजाये शव को जलाना अधिक युक्तियुक्त, विज्ञानं समत्त और तार्किक है, साथ ही इससे देश, किसान और खाद्यान्न की समस्या का भी छुटकरा है।

आओ लौटो वेदो की और

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 10″

“नौवे अध्याय का जवाब पार्ट 1”

सन १९४३ ई० तक इन भाषाओं में सत्यार्थ प्रकाश के अनुवाद होने का पता चलता है : बंगाली, उर्दू (दो भिन्न भिन्न अनुवाद) अंग्रेजी (दो भिन्न भिन्न अनुवाद), पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, उड़िया, कनाडी, तामिल, तेलुगु, मलयालम, मरहठी, गुजराती, फ्रेंच, जर्मन, पश्तो, ब्रह्मी, और नेपाली। इनमे से कुछ भाषाओ के अनेक संस्करण निकल चुके हैं। अब यह ज्ञात हो की कुछ भाषाओ में अनुवादों के प्रथम प्रकाशित होने का समय इस प्रकार है :


उर्दू में अनुवाद (1) १८९७ ई०,
उर्दू में अनुवाद (2) १८९८ ई०
अंग्रेजी में अनुवाद (1) १९०६ ई०
अंग्रेजी में अनुवाद (2) १९०८ ई०
संस्कृत में अनुवाद १९२५ ई०

निदान सत्यार्थ प्रकाश के प्रेमी व समर्थको का अंदाजा इसी बात से बहुत कुछ हो सकता है की मूलग्रंथ व अनुवादों का प्रकाशन बहुत ज्यादा हुआ ; परन्तु साथ ही साथ इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता की इसके विरोध में भी अब (सन १८४४ ई०) तक जितना कार्य हुआ है उसको यथोचित रूप से जतलाने के निमित्त यहाँ पर काफी स्थान नहीं।

सत्यार्थ प्रकाश का संशोधित संस्करण जो पहिले पहिले सन १८८४ ई० में प्रकाशित हुआ है और जिसका आर्य सामाजिक जगत में चलन है उसके विषय में अनेक विरोधी लोगो ने इस प्रकार भरम फैलाया है की यह संस्करण महर्षि दयानंद का लिखा हुआ नहीं है क्योंकि वह सन १८८३ ई० में शरीर त्याग कर गए हैं और उक्त संशोधित संस्करण उनकी मृत्यु के पश्चात सन १८८४ ई० में निकला है और असली सत्यार्थ प्रकाश वह है जो सं १८७५ ई० अर्थात उनके जीवन काल में निकला है।

ऐसी बात के विषय में यह जान लेना चाहिए की स्वामीजी ने संशोधित संस्करण की सामग्री सितमबर सन १८८२ ई० (भाद्र शुक्ल पक्ष सं० १९३९ वि०) में ही तैयार कर दी थी (सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका – लेखक) उस समय में वह उदयपुर में विराजमान थे और बाद को अंत समय तक राजपुताना में ही रहे जिस का लेखा इस प्रकार है की पहली मार्च सन १८८३ ई० में गुरुवार को प्रातः काल ही उन्होंने उदयपुर से प्रस्थान किया। सांयकाल के लगभग निंबाहेड़ा में पहुंचे और रात्रि में चित्तोड़ में विराजे। इसके पश्चात राजपुताना के अन्य स्थानो में आगमन व प्रस्थान का विवरण यह था :

१ मार्च १८८३ आगमन – चित्तोड़ – प्रस्थान ७ मार्च १८८३
८ मार्च १८८३ आगमन – रूपाहेली – प्रस्थान ८ मार्च १८८३
८ मार्च १८८३ आगमन – शाहपुरा – प्रस्थान २८ मई १८८३
२८ मई १८८३ आगमन – अजमेर – प्रस्थान २९ मई १८८३
२९ मई १८८३ आगमन – पाली – प्रस्थान ३० मई १८८३
३० मई १८८३ आगमन – रोहट – प्रस्थान ३१ मई १८८३
३१ मई १८८३ आगमन – जोधपुर – प्रस्थान १६ अक्तूबर १८८३
१७ अक्तूबर १८८३ आगमन – रोहट – प्रस्थान १८ अक्तूबर १८८३
१८ अक्तूबर १८८३ आगमन – पाली – प्रस्थान २० अक्तूबर १८८३
२१ अक्तूबर १८८३ आगमन – आबू – प्रस्थान २६ अक्तूबर १८८३
२७ अक्तूबर १८८३ आगमन – अजमेर – मृत्यु ३० अक्तूबर १८८३

सत्यार्थ प्रकाश का छपना प्रयाग में हुआ था। प्रेस में छपाई विषयक जो सुगमताये इस समय (सन १९४४) में हैं वह उस समय कदापि न थी। प्रेस का प्रबंध भी बहुत संतोषजनक न था। छपाई का काम बहुत था। कुछ अन्य लोगो का कार्य भी छपाई का होता था। (‘ऋषि दयानंद के पात्र और विज्ञापन’ प्रथम भाग श्री पंडित भगवद्दत्त जी द्वारा सम्पादित – अक्तूबर सन १९७२ ई० प्रकाशित के पत्र संख्या ३, ८, १०, ४४, ४६, ४७, ४८, ५०, ५१ – लेखक)। हाँ ऋग्वेद और यजुर्वेद भाष्य के मासिक अंक भी प्रेस से ही निकलते थे।

उदयपुर से चित्तोड़ तक उस समय रेल न थी। शाहपुरा से सबसे अधिक नज़दीक वाला रेलवे स्टेशन १५ मील से कम दूर नहीं। पाली से जोधपुर तक रेलवे न थी। निदान डाक की सुगमताये अब जैसी उस समय न थी। सत्यार्थप्रकाश का सन १८८४ ई० का संस्करण रॉयल साइज़ कागज़ २० x २६ में १० इंच और ६।। इंच आकार में कुल ६०६ पृष्ठों का है। ५९२ पृष्ठों में मूल सामग्री है। १४ पृष्ठों में विषय सूचि व शुद्धि – अशुद्धि आदि के पन्ने हैं। दो नंबर ब्लेक फेस पैका (अर्थात पतले बारीक टाइप – लेखक) में अधिकांश ग्रन्थ है। बीच बीच में श्लोक आदि कुछ मोटे टाइप में हैं कुछ पृष्ठों को छोड़कर बाकी पृष्ठों में ३५ सतरे हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ २ हजार की संख्या में छपा था।

स्वामीजी को सन १८८३ ई० २९ सितमबर को जहर दिया गया था। इसी सन में ३० अक्तूबर को वह शरीर छोड़ गए थे। उनकी मृत्यु से समस्त आर्य जनता तथा प्रेस के प्रबंध पर विशेष रूप से अच्छा प्रभाव न पड़ा था। पहले बतलाया जा चूका है की सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका से स्पष्ट है की उसकी सामग्री सितमबर सन १८८२ ई० में ही तैयार कर दी गयी थी अतः उक्त प्रकार की आपत्तियों अथवा वर्तमान काल (सन १९४४ ई०) की सी सुगमताओ के न होने से सत्यार्थ प्रकाश ऐसा बड़ा ग्रन्थ स्वामीजी महाराज की देख रेख में उनके जीवन काल में पूरा पूरा न छप सका था। स्वामीजी महाराज के पत्र (‘ऋषि दयानंद के पत्र और विज्ञापन’ प्रथम भाग श्री पंडित भगवद्दत्त जी द्वारा सम्पादित पत्र नं० ५१ – लिखित आश्विन बदी १३ संवत १९४० वि० अर्थात २९ सितम्बर सन १८८३ – लेखक) से स्पष्ट है की उनके जीवनकाल में ईसाइयो से सम्बन्ध रखने वाला तेरहवा समुल्लास छप रहा था। सत्यार्थ प्रकाश में कुल १४ समुल्लास हैं और चौदवे के पश्चात कुछ पृष्ठ “स्वमानतामंतव्य प्रकाश: के हैं। सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका वाले समय अर्थात सितमबर सन १८८२ ई० से सितम्बर सन १८८३ ई० तक में कुल बारे समुल्लास छप सके थे। निदान स्वामीजी की बीमारी व मृत्यु के पश्चात अधिक से अधिक चार मास अर्थात सं १८८४ ई० के प्रारंभिक भाग में प्रकाशित हो गया होगा।

(सत्यार्थ प्रकाश विषयक भ्रम, लेखक महेश प्रसाद, मौलवी आलिम फाजिल)

उक्त बाते श्रीमान लेखक ने बहुत ही सुंदरता और स्पष्टता के साथ बताई हैं जिनसे ज्ञात होता है की, सत्यार्थ प्रकाश के पूर्वरार्ध और उत्तरार्ध के समुल्लास महर्षि दयानंद जी की ही रचना थी, इन्हे बाद में किसी अन्य व्यक्ति ने नहीं जोड़ा, हाँ क्योंकि राजा जी ने सत्यार्थ प्रकाश को छपवाने का जिम्मा लिया था और उस समय आज के जैसी सुगमता नहीं थी, क्योंकि जहाँ सत्यार्थ प्रकाश छप रहा था वो प्रयाग था, और वहां प्रबंध संतोषजनक भी न था, बहुत अधिक काम छपाई का प्रेस में होता था, और ऋग्वेद, यजुर्वेद भाष्य के अंक भी इसी प्रेस से छप रहे थे, इस कारण अपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुआ, लेकिन ऊपर ये भी बताया की स्वामी जी के पत्र से ज्ञात होता है की उनके जीवन काल में ही ईसाइयो से सम्बंधित १३वा समुल्लास छप रहा था और स्वामी जी की भूमिका से भी स्पष्ट है की इस ग्रन्थ के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के भाग मिलकर १४ समुल्लास और चौदवे समुल्लास पश्चात कुछ पृष्ठ स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश के हैं, अतः आक्षेपकर्ता का कथन की तेरहवा और चौदहवाँ समुल्लास, ऋषि दयानंद की कृति नहीं, यह खंडित हो जाता है। हाँ ऋषि की देख रेख में उनके जीवन काल में सत्यार्थ प्रकाश पूरा का पूरा न छप सका, ये बात ठीक विदित होती है।

अब हम आगे बढ़ते हैं, आक्षेपकर्ता का विचार है की ऋषि क़ुरान और मुहम्मद साहब पर आक्षेप करते हुए, क़ुरान को जाहिल, असभ्य, मुर्ख, अल्पज्ञ और जंगली का लिखा हुआ बताते हैं, ये गलत है।

यहाँ हम केवल वो बताएँगे जो ऋषि ने क़ुरान को देख, समझ कर अपने विचार व्यक्त करे, पाठकगण स्वयं अवलोकन करे :

९०-निश्चय परवरदिगार तुम्हारा अल्लाह है जिस ने पैदा किया आसमानों और पृथिवी को बीच छः दिन के। फिर करार पकड़ा ऊपर अर्श के, तदबीर करता है काम की।। -मं० ३। सि० ११। सू० १०। आ० ३।।

(समीक्षक) आसमान आकाश एक और बिना बना अनादि है। उस का बनाना लिखने से निश्चय हुआ कि वह कुरानकर्त्ता पदार्थविद्या को नहीं जानता था? क्या परमेश्वर के सामने छः दिन तक बनाना पड़ता है? तो जो ‘हो मेरे हुक्म से और हो गया’ जब कुरान में ऐसा लिखा है फिर छः दिन कभी नहीं लग सकते।। इससे छः दिन लगना झूठ है। जो वह व्यापक होता तो ऊपर अर्श के क्यों ठहरता? और जब काम की तदबीर करता है तो ठीक तुम्हारा खुदा मनुष्य के समान है क्योंकि जो सर्वज्ञ है वह बैठा-बैठा क्या तदबीर करेगा? इस से विदित होता है कि ईश्वर को न जानने वाले जंगली लोगों ने यह पुस्तक बनाया होगा।।९०।।

१०८-और वह जो लड़का, बस थे माँ बाप उस के ईमान वाले, बस डरे हम यह कि पकड़े उन को सरकशी में और कुफ्र में।। यहां तक कि पहुँचा जगह डूबने सूर्य्य की, पाया उसको डूबता था बीच चश्मे कीचड़ के ।। कहा उन ने ऐजुलकरनैन! निश्चय याजूज माजूज फिसाद करने वाले हैं बीच पृथिवी के।। -मं० ४। सि० १६। सू० १८। आ० ८०। ८६। ९४।।

(समीक्षक) भला! यह खुदा की कितनी बेसमझ है! शंका से डरा कि लड़के के माँ बाप कहीं मेरे मार्ग से बहका कर उलटे न कर दिये जावें। यह कभी ईश्वर की बात नहीं हो सकती। अब आगे की अविद्या की बात देखिये कि इस किताब का बनाने वाला सूर्य्य को एक झील में रात्रि को डूबा जानता है, फिर प्रातःकाल निकलता है। भला! सूर्य्य तो पृथिवी से बहुत बड़ा है। वह नदी वा झील वा समुद्र में कैसे डूब सकेगा? इस से यह विदित हुआ कि कुरान के बनाने वाले को भूगोल खगोल की विद्या नहीं थी। जो होती तो ऐसी विद्याविरुद्ध बात क्यों लिख देता । और इस पुस्तक को मानने वालों को भी विद्या नहीं है। जो होती तो ऐसी मिथ्या बातों से युक्त पुस्तक को क्यों मानते? अब देखिये खुदा का अन्याय! आप ही पृथिवी को बनाने वाला राजा न्यायाधीश है औार याजूज माजूज को पृथिवी में फसाद भी करने देता है। यह ईश्वरता की बात से विरुद्ध है। इस से ऐसी पुस्तक को जंगली लोग माना करते हैं; विद्वान् नहीं।।१०८।।

१२०-नहीं तू परन्तु आदमी मानिन्द हमारी बस ले आ कुछ निशानी जो है तू सच्चों से।। कहा यह ऊंटनी है वास्ते उस के पानी पीना है एक बार।। -मं० ५। सि० १९। सू० २६। आ० १५४। १५५।।

(समीक्षक) भला! इस बात को कोई मान सकता है कि पत्थर से ऊंटनी निकले! वे लोग जंगली थे कि जिन्होंने इस बात को मान लिया। और ऊंटनी की निशानी देनी केवल जंगली व्यवहार है; ईश्वरकृत नहीं। यदि यह किताब ईश्वरकृत होती तो ऐसी व्यर्थ बातें इस में न होतीं।।१२०।।

१२१-ऐ मूसा बात यह है कि निश्चय मैं अल्लाह हूँ गालिब।। और डाल दे असा अपना, बस जब कि देखा उस को हिलता था मानो कि वह सांप है—ऐ मूसा मत डर, निश्चय नहीं डरते समीप मेरे पैगम्बर।। अल्लाह नहीं कोई माबूद परन्तु वह मालिक अर्श बड़े का।। यह कि मत सरकशी करो ऊपर मेरे और चले आओ मेरे पास मुसलमान होकर।।

-मं० ५। सि० १९। सू० २७। आ० ९। १०। २६। ३१।।

(समीक्षक) और भी देखिये अपने मुख आप अल्लाह बड़ा जबरदस्त बनता है। अपने मुख से अपनी प्रशंसा करना श्रेष्ठ पुरुष का भी काम नहीं; खुदा का क्योंकर हो सकता है? तभी तो इन्द्रजाल का लटका दिखला जंगली मनुष्यों को वश कर आप जंगलस्थ खुदा बन बैठा। ऐसी बात ईश्वर के पुस्तक में कभी नहीं हो सकती। यदि वह बड़े अर्श अर्थात् सातवें आसमान का मालिक है तो वह एकदेशी होने से ईश्वर ही नहीं हो सकता है। यदि सरकशी करना बुरा है तो खुदा और मुहम्मद साहेब ने अपनी स्तुति से पुस्तक क्यों भर दिये? मुहम्मद साहेब ने अनेकों को मारे इस से सरकशी हुई वा नहीं? यह कुरान पुनरुक्त और पूर्वापर विरुद्ध बातों से भरा हुआ है।।१२१।।

ऐसी ऐसी अनेक बाते क़ुरान में भरी पड़ी हैं, जिनपर ऋषि ने आक्षेप किये, अब पाठक स्वयं जाने की क्या आकाश कोई वस्तु है जो फट जावे ? क्या तारे झड़ सकते हैं ? क्या पहाड़ चल सकते हैं ? क्या सूरज और चाँद टकरा सकते हैं ? क्या चाँद के टुकड़े हो सकते हैं ? आदि अनेको बातो पर ऋषि ने आक्षेप करते हुए इन बातो को असभ्य, जंगली और मुर्ख व्यक्ति का ज्ञान बताया था।

अब ऋषि ने आक्षेप में क्या गलत लिखा, जबकि ऋषि तो क़ुरान की लिखी कुछेक अच्छी और सच्ची बात को मुक्तकंठ से सत्य बात कहते हैं देखिये :

७३-मत फिरो पृथिवी पर झगड़ा करते।। -मं० २। सि० ८। सू० ७। आ० ७४।।

(समीक्षक) यह बात तो अच्छी है परन्तु इस से विपरीत दूसरे स्थानों में जिहाद करना काफिरों को मारना भी लिखा है। अब कहो यह पूर्वापर विरुद्ध नहीं है? इस से यह विदित होता है कि जब मुहम्मद साहेब निर्बल हुए होंगे तब उन्होंने यह उपाय रचा होगा और जब सबल हुए होंगे तब झगड़ा मचाया होगा। इसी से ये बातें परस्पर विरुद्ध होने से दोनों सत्य नहीं हैं।।७३।।

३९-प्रश्न करते हैं तुझ से रजस्वला को कह वो अपवित्र हैं। पृथक् रहो ऋतु समय में उन के समीप मत जाओ जब तक कि वे पवित्र न हों। जब नहा लेवें उन के पास उस स्थान से जाओ खुदा ने आज्ञा दी।। तुम्हारी बीवियां तुम्हारे लिये खेतियां हैं बस जाओ जिस तरह चाहो अपने खेत में।। तुम को अल्लाह लगब (बेकार, व्यर्थ) शपथ में नहीं पकड़ता।।

-मं० १। सि० २। सू० २। आ० २२२। २२३। २२४।।

(समीक्षक) जो यह रजस्वला का स्पर्श संग न करना लिखा है वह अच्छी बात है। परन्तु जो यह स्त्रियों को खेती के तुल्य लिखा और जैसा जिस तरह से चाहो जाओ यह मनुष्यों को विषयी करने का कारण है। जो खुदा बेकार शपथ पर नहीं पकड़ता तो सब झूठ बोलेंगे शपथ तोडें़गे। इस से खुदा झूठ का प्रवर्त्तक होगा।।३९।।

१२४-और आज्ञा दी हम ने मनुष्य को साथ मा बाप के भलाई करना और जो झगड़ा करें तुझ से दोनों यह कि शरीक लावे तू साथ मेरे उस वस्तु को, कि नहीं वास्ते तेरे साथ उस के ज्ञान, बस मत कहा मान उन दोनों का, तर्फ मेरी है।। और अवश्य भेजा हम ने नूह को तर्फ कौम उस के कि बस रहा बीच उन के हजार वर्ष परन्तु पचास वर्ष कम।। -मं० ५। सि० २०। सू० २९। आ० ८। १४।।

(समीक्षक) माता-पिता की सेवा करना अच्छा ही है जो खुदा के साथ शरीक करने के लिये कहे तो उन का कहना न मानना यह भी ठीक है परन्तु यदि माता पिता मिथ्याभाषणादि करने की आज्ञा देवें तो क्या मान लेना चाहिये? इसलिये यह बात आवमी अच्छी और आधी बुरी है। क्या नूह आदि पैगम्बरों ही को खुदा संसार में भेजता है तो अन्य जीवों को कौन भेजता है? यदि सब को वही भेजता है तो सभी पैगम्बर क्यों नहीं? और जो प्रथम मनुष्यों की हजार वर्ष की आयु होती थी तो अब क्यों नहीं होती? इसलिये यह बात ठीक नहीं।।१२४।।

महर्षि दयानंद तो सत्य के मानने वाले थे, इसीलिए सदैव असत्य को त्यागने हेतु लोगो को समझाते रहते थे, सत्यार्थ प्रकाश में भी ऋषि ने लिखा है :

यद्यपि में आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और बस्ता हु तथापि जैसे इस देश के मत-मतांतरों की झूठी बातो का पक्षपात न कर यथासत्य प्रकाश करता हु वैसे ही दूसरे देशस्थ व मतोन्नतिवालो के साथ भी बर्तता हु।

(सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका – दयानंद)

अब देखो, ऋषि ने जहाँ भी गलत और मिथ्या बात देखि उसका खंडन किया। अतः लेखक का ये आक्षेप की ऋषि ने बेवजह क़ुरान पर आरोप लगाये खंडित होता है।

इसी विषय पर अगले भाग में कुरान की मूल प्रति में छेड़ छाड़, व्याकरण की गड़बड़ी, क़ुरान का वैज्ञानिक स्तर और महर्षि दयानंद द्वारा वेद प्रतिपादित विज्ञानं पर विचार किया जाएगा।

““सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 11”

“नौवे अध्याय का जवाब पार्ट 2”

अब आक्षेपकर्ता कहते हैं की क़ुरान में पिछले १४०० साल से किसी अरबी विद्वान ने कोई गलती नहीं पकड़ी, भाषा संशोधन की आवश्यकता ही महसूस न हुई, इस दावे को भी जरा ध्यान से समझना चाहिए, देखिये, अरबी के एक बहुत बड़े विद्वान हुए हैं, उनका नाम था “जलाल अल-दीन अल-सुयूती” इन्हे “इब्न अल-क़ुतुब” अर्थात “किताब का बेटा” नाम से भी जाना जाता है, आप मिस्र के धार्मिक विद्वान, कानूनी विशेषज्ञ और शिक्षक, तथा मध्य युग में इस्लामी धर्मशास्त्र विषयों पर विस्तृत तथा विविधतापूर्ण बेबाकी से लिखने वाले अरब लेखकों में से एक थे। आपको काहिरा में बेबार्स की मस्जिद में १४६२ में नियुक्त किया गया था। आपने जगप्रसिद्द रचना “द एतेक़ान” के दूसरे भाग में लगभग १०० पृष्ठों का निर्माण किया है, हम वहीँ से कुछ कुरान पर की गयी टिप्पण्यो से अवगत करवाते हैं, देखिये :


“द इत्तेकान” पुस्तक में “क़ुरान में मौजूद विदेशी शब्द” जो अत्यंत कठिन हैं, तथा शास्त्रीय अरबी भाषा की शब्दावली और इन अरबी शब्दों की अभिव्यक्ति भी अरब में मौजूद नहीं थी, क़ुरान में मौजूद भाषाओ की विविधता के चलते ही, विषय को समझाते हुए शफी लिखते हैं :

“No one can have a comprehensive knowledge of the language except a prophet” (Itqan II: p 106)

“भाषा का व्यापक ज्ञान नबी के अतिरिक्त और किसी को नहीं हो सकता”

अब यहाँ कुछ सवाल उतपन्न होते हैं, जब क़ुरान में ही अल्लाह मियां कहते हैं की ये क़ुरान सरल अरबी में दिया जाता है ताकि अरब वाले इससे शिक्षा प्राप्त कर सके (क़ुरान ४४:५९), तो जब क़ुरान में मौजूद विदेशी शब्द, या ऐसे शब्द जिनका ज्ञान खुद अरब वालो को नहीं, यहाँ तक कि मुहम्मद साहब के साथियो तथा रिश्तेदारो तक को नहीं पता था, तब ये क़ुरान कैसे सरलता से अरब के मुस्लिम बंधू समझ सकेंगे ? शफी खुद मान रहे की जो क़ुरान में विदेशी शब्द आये हैं, उनकी जानकारी मुहम्मद साहब के अतिरिक्त और किसी को नहीं, तब ऐसे में यदि अरब के जानकार मुस्लिम इस पुस्तक का ज्ञान न समझ पाये तो अरब से बाहर के लोग जो अरबी भाषा जानते तक नहीं, वो कैसे समझ पाएंगे ? क्या इससे सिद्ध नहीं होता की क़ुरान केवल अरब वालो के लिए ही थी ?

इस विषय पर “दी इत्तेकान” क्या कहते है, वह भी देखिये :

“It is utterly inadmissible for the Qur’an to be read in languages other than Arabic, whether the reader masters the language or not, during the prayer time or at other times, lest the inimitability of the Qur’an is lost.

यह पूरी तरसे से नकारने योग्य है की क़ुरान को अरबी भाषा के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा या भाषाओ में पढ़ा जाए। चाहे पढ़ने वाला भले ही भाषाओ का विद्वान हो या न हो, चाहे प्रार्थना के समय पढ़ी जाए व किसी अन्य समय, यदि क़ुरान को अरबी भाषा के अतिरिक्त अन्य किसी भी भाषा में पढ़ा जाए तो वो अनुकरणीय नहीं है, अर्थात अमान्य है।

यही कारण है की गैर-अरब व्यक्ति, क़ुरानी आयतो को केवल रटते हैं, वो भी बिना समझे क्योंकि ये अरबी में पढ़ना और बोलना ही मान्य है। इसी विषय पर बिलकुल यही विचार प्रकट करने वाले एक और इस्लामी विद्वान डॉ शालाबी अपनी पुस्तक “द हिस्ट्री ऑफ़ इस्लामिक लॉ” पृष्ठ ९७ पर इसी बात को लिखते हुए कलम आगे चलाते हैं की :

“If the Qur’an is translated into a non-Arabic language, it will lose its eloquent inimitability. The inimitability is intended for itself. It is permissible to translate the meaning without being literal.”

यदि क़ुरान को अरबी भाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा में भाषांतरित (भाष्य) किया जाए तो, क़ुरान अपनी मूल भाषाई सुंदरता, खो देगी, इसका अनुकरण केवल केवल अरबी भाषा ही है। ये भाष्य कुछ ऐसा ही होगा जैसे मूल शब्द के सटीक अर्थ रहित भाषांतर (भाष्य) की अनुमति होती है।

अब ऐसे में, आक्षेपकर्ता का कहना की महर्षि दयानंद को अरबी का ज्ञान नहीं था, इसलिए जो सत्यार्थ प्रकाश में क़ुरान पर आक्षेप किये वो गलत हैं, तो महर्षि पर दोषारोपण करने से पहले, कृपया उन भाष्यकारों पर आरोप खड़े करे, जिन्होंने क़ुरान का हिंदी में भाष्य किया, वैसे सभी जानते हैं की क़ुरान का लगभग दुनिया की सभी भाषाओ में अनुवाद किया जा रहा है, लेकिन इस्लामी विद्वानो की धारणा है की यदि क़ुरान को भाषांतर किया तो इसकी मूल भाषाई सुंदरता खत्म हो जायेगी, इसलिए इसका भाष्य नहीं किया जा सकता, वहीँ क़ुरान में मौजूद शब्द भी ऐसे हैं जिन्हे खुद अरब के लोग नहीं जानते, न ही वो शब्द अरबी व्याकरण में मिलते हैं, तब कैसे उनका अर्थ भाषांतर किया जाएगा ? इसका सीधा सीधा अर्थ तो यही है की क़ुरान का भाष्य नहीं किया जा सकता क्योंकि ये कुरान केवल अरब देश के लिए ही थी, लेकिन जो इसका भाषांतर कर रहे शायद वो क़ुरान की अन्तर्भावना और अल्लाह के ज्ञान से खिलवाड़ कर रहे हैं, फिर भी आक्षेपकर्ता महर्षि दयानंद को ही दोष देते हैं, क्या ये पूर्वाग्रह से ग्रसित मानसिकता नहीं ?

अब जो कहते हैं की क़ुरान में व्याकरण गलती और आज तक फेरबदल नहीं हुआ उसपर विचार करते हैं :

डॉ अहमद शालाबी, इस्लामी इतिहास और सभ्यता के विद्वान प्रोफेसर अपनी पुस्तक “दी हिस्ट्री ऑफ़ इस्लामिक लॉ” पृष्ठ ४३ पर क्या लिखते हैं उसे देखिये :

“The Qur’an was written in the Kufi script without diacritical points, vocalization or literary productions. No distinction was made between such words as ‘slaves’, ‘a slave’, and ‘at’ or ‘to have’, or between ‘to trick’ and ‘to deceive each other’, or between ‘to investigate’ or ‘to make sure’. Because of the Arab skill in Arabic language their reading was precise. Later when non-Arabs embraced Islam, errors began to appear in the reading of the Qur’an when those non-Arabs and other Arabs whose language was corrupted, read it. The incorrect reading changed the meaning sometimes.”

क़ुरान मूलतया कूफी लिपि में लिखा गया था जो स्वरों के विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ), स्वरोच्चारण तथा साहित्यिक प्रस्तुतियों से रहित था। “गुलामो”, “एक गुलाम”, …… आदि शब्दों में कोई भेद, अंतर नहीं रखा गया था। क्योंकि एक अरब व्यक्ति तो अरबी पढ़ने में कौशल प्राप्त था इसलिए सटीकता से पढ़ लेता था। लेकिन जब अरब के बाहर के लोगो ने इस्लाम स्वीकार किया, और वे अरब के लोग जिनकी अरबी ठीक न थी इन्होने मूल क़ुरान का पाठ किया तब क़ुरान में विसंगतियां उत्पन्न हुई। गलत तरीके से पढ़ने के कारण कभी कभी कुरान के मूल पाठ का अर्थ भी बदल जाता था।

बिलकुल यही वक्तव्य ताहा हुसैन, “ताहा हुसैन” पृष्ठ १४३ अनवर जमाल जुन्दी द्वारा में लिखित पाया जाता है।

इसी प्रसंग में डॉ अहमद उन व्यक्तियों के नाम बताते हैं जिन्होंने स्वरोच्चारण और विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) का आविष्कार किया और इन्हे मुहम्मद साहब की मृयुपरांत कई वर्षो बाद क़ुरानी लेख में प्रयुक्त किया जैसे की अबु अल-अस्वद अल दुआली, नस्र इब्न असीम और अल खलील इब्न अहमद। इसी पृष्ठ पर और विस्तार से समझाते हुए वह लिखते हैं की

“इन विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) के बिना, कोई भी व्यक्ति सूरह अत-तौबा की आयत ३ का अर्थ कुछ इस प्रकार समझता है “God is done with the idolaters and His apostle— free from obligation to the idolaters and His apostle” जबकि इसका सही अर्थ है “God and His apostle are done with the idolaters—free from further obligation to the idolaters”

अब यहाँ सवाल उठता है की यदि क़ुरान सरल अरबी और शुद्ध व्याकरण में उतरी तो इतनी विसंगतियां क्यों उत्पन्न हुई ? इस बात को समझने के लिए एक उदाहरण देखते हैं, अरबी भाषा में “ब” लिखने हेतु विशिष्ट चिन्ह (बिंदु) होते हैं यदि हम इन विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) को ऊपर, नीचे करते हुए बदल दे तो हमें तीन अलग अलग शब्द मिलेंगे “त” “ब” और “थ”, अब सोचिये यदि कोई अरबी विद्यार्थी बिना विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) को प्रयोग किये अरबी का पेपर दे दे, तो शिक्षक उसके लिखे को पढ़ और समझ पायेगा ? कितने नंबर दे पायेगा वो शिक्षक उस विद्यार्थी को ?

अब पाठकगण स्वयं विचार की जब अरबी भाषा विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) के पढ़ी और समझी ही नहीं जा सकती, और मूल क़ुरान जो थी वो विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) के बिना ही लिखी गयी थी, ये सभी मुस्लिम आलिम इस बात को भली भाँती जानते हैं, ये एक ऐतिहासिक सच्चाई है जो बिना किसी अपवाद के स्वीकार की जाती है, तो वे लोग जिन्होंने विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) को क़ुरान में प्रयुक्त किया जिसके जरिये ही आज क़ुरान समझा जा सकता है, तब ये कार्य करने को क्या अल्लाह मियां ने आदेश दिया था ? यदि नहीं तो ये क़ुरान की मूल लेख से खिलवाड़ है, और इसे मिलावट ही क्यों नहीं कहा जाएगा ?

यहाँ एक शंका और भी उतपन्न होती है की जो क़ुरान लिखा गया जो आज मौजूद है, क्या वो सच में वही क़ुरान का ज्ञान है जिसे अल्लाह मियां ने पैगम्बर मुहम्मद साहब पर जिब्रील नामी फरिशते द्वारा अवतरित किया था ? ये शंका इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि सही बुखारी में क़ुरान को दुबारा लिखवाने का आदेश अबु बकर साहब द्वारा ४ लोगो को दिया गया था जिनमे से एक ज़ैद बिन थबित अल अंसारी थे जिन्होंने बुखारी में जो फ़रमाया है, वो हमारे कथन की पुष्टि करता है, देखिये :

ज़ैद बिन थबित अल अंसारी ये उनमे से एक थे जिन्हे अबु बकर द्वारा पवित्र इल्हाम (क़ुरान) को लिखने का दायित्व सौंपा गया था, इन्होने बताया की यममा जंग में लड़ाकों की भारी क्षति हुई थी, अधिकांशतः वो लड़ाके “कुर्रा” भी मृत्यु को प्राप्त हुए जो ह्रदय से क़ुरान को जानते थे। उन्होंने ये भी बताया की इसी लड़ाई के दौरान कुरान का अधिकांश हिस्सा खो गया था।

सही बुखारी जिल्द ६ किताब ६० हदीस २०१

पाठकगण, यदि लिखते जाए, तो अनेको प्रमाण मौजूद हैं, लेकिन इतने से भी पाठकगण आराम से समझ सकते हैं की मूल क़ुरान का व्याकरण कितना कमजोर था, जिसे अनेको पुर्शार्थी मनुष्यो ने ठीक किया, क़ुरान में मौजूद अनेको विदेशी भाषाए इस बात का पुख्ता सबूत है की क़ुरान में भी मिलावट हुई है, क्योंकि अल्लाह मियां क़ुरान में स्पष्ट कहते हैं की क़ुरान को विशुद्ध सरल अरबी भाषा में दिया है ताकि अरब के लोग समझे, लेकिन वहीँ इस क़ुरान में अनेको विदेशी भाषाओ के शब्द स्पष्ट रूप से मौजूद हैं, तब यदि ये मिलावट नहीं तो क्या अल्लाह मियां क़ुरान में झूठ बोले ? अल्लाह मियां क्यों झूठ बोलेंगे, ये मिलावट अवश्य ही शैतानो के बन्दों ने की करवाई है। हम चाहेंगे की ऋषि पर आक्षेप करने की अपेक्षा आक्षेपकर्ता गुप्ता जी, स्वयं संज्ञान लेते हुए, इस विषय पर भी मुस्लिम बंधुओ को आगाह करे।

आक्षेपकर्ता का कहना है की क़ुरान में इतने उच्च और उत्तम मूल्य प्रतिपादित किये हैं जो कोई छलि, कपटी और स्वार्थी व्यक्ति अपनी जंगली, अल्पज्ञ और मतलब सिद्धि के लिए नहीं कर सकता, उसके लिए वे कुछ उदहारण भी देते हैं जैसे :

बेहयाई के करीब तक न जाओ चाहे वह जाहिर हो या पोशीदा (कुरान ६:१५२)

अब पाठकगण स्वयं देखे क़ुरान कितने उच्तम मूल्य स्थापित करती है :

और (पहले से) विवाहित स्त्रियां भी (तुम्हारे लिए हराम हैं) सिवाय उन स्त्रियों के जो (लौंडी के रूप में कैद हो कर) तुम्हारे अधिकार में आ जाएँ। अल्लाह का यह आदेश तुम्हारे लिए अनिवार्य (फर्ज) है और जो इन (ऊपर बताई गयी स्त्रियों) के अतिरिक्त हो, वे (निकाह के बाद) तुम्हारे लिए हलाल (वैध) हैं।

(क़ुरान ४:२५)

अब देखिये कितना मानवो के लिए स्त्रियों का कितना उच्च मूल्य स्थापित किया गया है। सभी महिला जो शादीशुदा हो वो हराम हैं मगर वो जो गुलाम (लौंडी) यानी मुशरिक, काफ़िर, आदि व्यक्तियों पर किये गए हमलो, युद्धों के बाद जो उन काफिरो, मुशरिकों की शादीशुदा महिलाये हैं, वो वैध यानी हलाल हैं। सीधा सीधा गणित समझिए, जो मुस्लिम महिला शादीशुदा हो केवल वही हराम है, बाकी काफ़िर, मुशरिक आदि की शादी शुदा महिला भी हलाल (वैध) हैं, तो बाकी दुनिया में और कौन महिला बची जो शादीशुदा हराम हो ?

ये आयत क्यों उतरी, इस पर भी थोड़ा विचार करे, देखिये :

Abu Sa’id al−Khudri (Allah her pleased with him) reported that at the Battle of Hanain Allah’s Messenger (may peace be upon him) sent an army to Autas and encountered the enemy and fought with them. Having overcome them and taken them captives, the Companions of Allah’s Messenger (may peace te upon him) seemed to refrain from having intercourse with captive women because of their husbands being polytheists. Then Allah, Most High, sent down regarding that:” And women already married, except those whom your right hands possess (iv. 24)” (i. e. they were lawful for them when their ‘Idda period came to an end). [Sahih Muslim, Book 8, Hadith 3432]

अबु सईद अल खुदरी ने बताया की हनेन की जंग में रसूलल्लाह ने औतास में फ़ौज भेजी, जो दुश्मन का सामना करने के लिए जंग लड़े। यहाँ तक की वो दुश्मन पर भारी पड़े और उन्हें बंदी बना लिया, रसूल्ललाह के साथी, बंदी औरतो के साथ सम्भोग करने से परहेज कर रहे थे क्योंकि वो औरते बहुदेववादी पुरषो की पत्निया थी। तब अल्लाह जो सर्वोच्च है, इस विषय पर आयत नाज़िल की :

विवाहित स्त्रियां भी (तुम्हारे लिए हराम हैं) सिवाय उन स्त्रियों के जो (लौंडी के रूप में कैद हो कर) तुम्हारे अधिकार में आ जाएँ।

सही मुस्लिम – किताब 8 हदीस 3432

अब स्वयं सोचिये, क्या बहुदेववादी लोगो को स्वतंत्रता नहीं की वो अपनी संस्कृति और सभ्यता अनुसार अपने देवी देवताओ की पूजा कर सके ? क्या बहुदेववादियों से जंग केवल इसीलिए नहीं की गयी की वो अल्लाह और रसूल को नहीं मान कर अपनी संस्कृति का पालन कर रहे थे ? क्या इस्लाम के अनुसार कोई अपनी संस्कृति का पालन करे तो वो गुनाह है ? क्या केवल इसलिए एक महिला की अस्मत आबरू बर्बाद करना जायज़ है की वो अपनी संस्कृति अनुसार अपने देवी देवताओ की पूजा कर रही है ? क्या ये मानवीय संस्कृति और सभ्यता, तथा पूजा उपासना की स्वतंत्रता को नेस्तनाबूद करने का गुनाह नहीं ? क्या ये कम बेहयाई है जिसको अल्लाह मियां ने करने को आयत नाजिल की, जबकि मुहम्मद साहब के साथ ये सब नहीं करना चाहते थे ?

महर्षि दयानंद ने क्या ही गलत आक्षेप लगाया की ये जंगली सभ्यता और मूर्खो की बनाई पुस्तक है, क्या मुहम्मद साहब अल्लाह से ऐसी आयात नाजिल करवा सकते हैं, जिसमे खुलेआम और बेहयाई और बलात्कार की शिक्षा का स्पष्ट उदहारण हो ? शायद इसीलिए महर्षि दयानंद ने इस किताब को जंगली और असभ्य लोगो की कृति बताया जो अपनी कामवासना को शांत करने हेतु अपने मतलब और स्वार्थ की पूर्ति के लिए रची गयी, इसमें मुहम्मद साहब का नाम लेकर, ऐसी बात गढ़ी गयी है, ये मुहम्मद साहब की ओरिजिनल रचना नहीं, ऐसा प्रतीत होता है।

अब आपक्षेपकर्ता ने जो क़ुरान से विज्ञानं की आयत दिखाई जरा उसे भी नकद हाथ लेते हैं :

और सूर्य वह अपने ठिकाने की तरफ चला जा रहा है (क़ुरान ३६:३८)

देखिये आक्षेपकर्ता का कहना की क़ुरान में विज्ञानं है, यहाँ बताया की सूर्य अपने ठिकाने की तरफ चला जा रहा है, जबकि हम जानते हैं की सूर्य कहीं आता जाता नहीं, ये तो धरती घूमती है इसलिए ऐसा प्रतीत होता है, बाकी सूर्य सभी ग्रहो को अपने आकर्षण से बांधे रखता है और स्वयं भी घूमता है, तथा अनेको ग्रहो को भी अपनी धुरी पर घुमाता है, इसके साथ साथ अपनी अपनी कक्षा में सभी ग्रह घूमते हैं, पहले भी बताया की सूर्य अपनी धुरी पर तो घूमता ही है साथ अपनी कक्षा में भी घूमता है, जो सूर्य अपनी कक्षा में न घूमे तो एक राशि से दूसरे राशि में नहीं जा सकता, और इसी प्रकार ग्रह भी अपनी धुरी पर घूमते हुए, सूर्य की परिक्रमा करते हैं, परन्तु सौरमंडल के केंद्र में सूर्य है अतः वो किसी अन्य ग्रह की परिक्रमा नहीं लगाता, हाँ सम्पूर्ण सौरमंडल, आकाशगंगा का गांगेय वर्ष पूर्ण करने हेतु परिक्रमा करता है, इसी को आक्षेपकर्ता न समझकर, सूर्य को अन्य ग्रहो का परिक्रमा करने वाला बताते हैं, जो अत्यंत हास्यास्पद है, ठीक वैसे ही जैसे क़ुरान में सूर्य का अपने ठिकाने की और जाना, आइये दिखाते हैं सूर्य अपने नियत ठिकाने की और कहाँ जा रहा है, देखिये :

अबु धार ने बताया कि : पैगम्बर साहब ने मुझसे पूछा “क्या तुम जानते हो सूर्यास्त के समय सूरज कहाँ को जाता है ? मैंने कहा अल्लाह और रसूल ही बेहतर जानते हैं। तब पैगमबर साहब बोले ये (सूर्य) अल्लाह के सिंघासन के नीचे तक जाकर यात्रा करता है, और दंडवत प्रणाम करता है, और सूर्योदय पर निकलने की अनुमति मांगता है, अनुमति मिलने पर सूर्योदय में सूर्य दिखाई देता है, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा जब सूर्य दंडवत प्रणाम करेगा (क्षमा याचना करेगा) लेकिन उसका प्रणाम स्वीकार न किया जाएगा, सूर्य अपने नियत ठिकाने पर जाने की अनुमति मांगेगा, पर उसे अनुमति न मिलेगी, और उसे (सूर्य) को आदेश दिया जाएगा की जहाँ तू छुपता है (पश्चिम में) वहां से उगेगा (सूर्योदय) यानी पश्चिम से सूर्योदय होगा। और यही अल्लाह की उस आयत की व्याख्या है :

और सूर्य वह अपने ठिकाने की तरफ चला जा रहा है (क़ुरान ३६:३८)

[सही बुखारी जिल्द 4, किताब 54, हदीस 421]

अब देखिये, क्या विज्ञानं और वैज्ञानिकीकरण क़ुरान में प्रस्तुत है, जिसको पूर्ण विज्ञानं आक्षेपकर्ता बता रहे, ये तो सिद्ध है की सूर्य कहीं आता जाता नहीं, फिर भी क़ुरान में ऐसा बताया गया की सूर्य अल्लाह मियां के सिंघासन के नीचे छुप जाता है, और दुबारा निकलने के लिए क्षमा याचना और दंडवत प्रणाम करता है, क्या सूर्य कोई सजीव वस्तु है जो दंडवत प्रणाम करेगा ? और सूरज पश्चिम से निकलेगा, ये भी असंभव है क्योंकि सूरज तो अपनी कक्षा में ही घूर्णन कर रहा ऐसे ही पृथ्वी करती है, पता नहीं ये आयत कैसे क़ुरान में दर्ज की गयी, ये खुदाई आयत तो नहीं, अवश्य ही कोई जंगली और असभ्य पुरुषो द्वारा क़ुरान में मिलावट की गयी है, ऋषि का ये दावा बिलकुल सत्य है, अब क़ुरान की कुछ और विज्ञनिक आयतो का दर्शन करते हैं, देखिये :

“क़ुरान का विज्ञानं हम दिखाते हैं जरा गौर से देखिये :

1. अल्लाह मियां तो क़ुरान में चाँद को टेढ़ी टहनी बनाना जानता है :

और रहा चन्द्रमा, तो उसकी नियति हमने मंज़िलों के क्रम में रखी, यहाँ तक कि वह फिर खजूर की पूरानी टेढ़ी टहनी के सदृश हो जाता है (क़ुरआन सूरह या-सीन ३६ आयत ३९)

क्या चाँद कभी अपने गोलाकार स्वरुप को छोड़ता है ? क्या अल्लाह मियां नहीं जानते की ये केवल परिक्रमा के कारण होता है ?

2. सूरज चाँद के मुकाबले तारे अधिक नजदीक हैं :

और (चाँद सूरज तारे के) तुलूउ व (गुरूब) के मक़ामात का भी मालिक है हम ही ने नीचे वाले आसमान को तारों की आरइश (जगमगाहट) से आरास्ता किया। (सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत ६)

क्या अल्लाह मिया भूल गए की सूरज से लाखो करोडो प्रकाश वर्ष की दूरी पर तारे स्थित हैं ?

3. क़ुरान के मुताबिक सात ग्रह :

ख़ुदा ही तो है जिसने सात आसमान पैदा किए और उन्हीं के बराबर ज़मीन को भी उनमें ख़ुदा का हुक्म नाज़िल होता रहता है – ताकि तुम लोग जान लो कि ख़ुदा हर चीज़ पर कादिर है और बेशक ख़ुदा अपने इल्म से हर चीज़ पर हावी है। (सूरह अत तलाक़ ६५ आयत १२)

क्या सात आसमान और उन्ही के बराबर सात ही ग्रह हैं ? क्या खुदा को अस्ट्रोनॉमर जितना ज्ञान भी नहीं की आठ ग्रह और पांच ड्वार्फ प्लेनेट होते हैं।

4. शैतान को मारने के लिए तारो को शूटिंग मिसाइल बनाना भी अल्लाह मिया की ही करामात है।

और हमने नीचे वाले (पहले) आसमान को (तारों के) चिराग़ों से ज़ीनत दी है और हमने उनको शैतानों के मारने का आला बनाया और हमने उनके लिए दहकती हुई आग का अज़ाब तैयार कर रखा है। (सूरह अल-मुल्क ६७ आयत ५)

मगर जो (शैतान शाज़ व नादिर फरिश्तों की) कोई बात उचक ले भागता है तो आग का दहकता हुआ तीर उसका पीछा करता है (सूरह सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत १०)

क्या अल्लाह को तारो और उल्का पिंडो में अंतर नहीं पता जो तारो को शूटिंग मिसाइल बना दिया ताकि शैतान मारे जावे ? और उल्का पिंड जो है वो धरती के वायुमंडल में घुसने वाली कोई भी वस्तु को घर्षण से ध्वस्त कर देती है जो जल्दी हुई गिरती है ये सामान्य व्यक्ति भी जानते हैं इसको शैतान को मारने वाले मिसाइल बनाने का विज्ञानं खुद अल्लाह मियां तक ही सीमित रहा गया।”

इसके अतिरिक्त पूरी कुरान में कहीं भी नहीं लिखा की सूर्य, चन्द्र पृथ्वी आदि ग्रह, अपनी धुरी पर घूमते हैं, अपनी अपनी कक्षा में सौरमंडल की परिक्रमा करते हैं, न ही कही भी यह बताया की सौरमंडल क्या है, आकाशगंगा क्या है, ब्रह्माण्ड क्या है, कहीं भी ऐसा कोई जिक्र नहीं, क़ुरान में केवल धरती, सूर्य और चन्द्रमा का ही विवरण है, न ही आकाशगंगा, न अनेको ग्रहो का कोई वर्णन है, अतः यह सिद्ध है की क़ुरान का बनाने वाला खगोलविद्या को नहीं जानता था, इसीलिए महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में क़ुरान की खगोल विद्या पर आक्षेप प्रकट किये। वहीँ ऋषि ने सत्यार्थ प्रकाश में ही वेदो से प्रमाण बतलाये हैं की पृथ्वी सूर्य की प्रक्रिमा करती है, सूर्य अपने आकर्षण से सभी ग्रहो को बांधे रखता है, सभी ग्रह सूर्य की प्रक्रिमा करते हैं, और सूर्य भी अपनी कक्षा का चक्कर लगाता है, किन्तु किसी ग्रह (लोक) का चककर नहीं लगाता, क्योंकि सूर्य सौरमंडल के केंद्र में है, और सबसे बड़ा होने से ये सम्भव भी नहीं, लेकिन फिर भी आक्षेपकर्ता का बौद्धिक दिवालियापन इस सत्यता को स्वीकार नहीं करता, हम पुनः दिखाते हैं, देखिये :

स दाधार पृथिवीमुत द्याम् ।। यह यजुर्वेद का वचन है।

जो पृथिव्यादि प्रकाशरहित लोकालोकान्तर पदार्थ तथा सूर्य्यादि प्रकाशसहित लोक और पदार्थों का रचन धारण परमात्मा करता है। जो सब में व्यापक हो रहा है, वही सब जगत् का कर्त्ता और धारण करने वाला है।

(प्रश्न) पृथिव्यादि लोक घूमते हैं वा स्थिर?

(उत्तर) घूमते हैं।

(प्रश्न) कितने ही लोग कहते हैं कि सूर्य्य घूमता है और पृथिवी नहीं घूमती। दूसरे कहते हैं कि पृथिवी घूमती है सूर्य्य नहीं घूमता। इसमें सत्य क्या माना जाय?

(उत्तर) ये दोनों आधे झूठे हैं क्योंकि वेद में लिखा है कि-

आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः । पितरं च प्रयन्त्स्वः।।

-यजुः० अ० ३। मं० ६।।

अर्थात् यह भूगोल जल के सहित सूर्य्य के चारों ओर घूमता जाता है इसलिये भूमि घूमा करती है।

आ कृष्णेन रजसा वत्तर्मानो निवेशायन्नमतृं मर्त्यं च ।

हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ।।

-यजुः० अ० ३३। मं० ४३।।

जो सविता अर्थात् सूर्य्य वर्षादि का कर्त्ता, प्रकाशस्वरूप, तेजोमय, रमणीयस्वरूप के साथ वर्त्तमान; सब प्राणी अप्राणियों में अमृतरूप वृष्टि वा किरण द्वारा अमृत का प्रवेश करा और सब मूर्तिमान् द्रव्यों को दिखलाता हुआ सब लोकों के साथ आकर्षण गुण से सह वर्त्तमान; अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता। वैसे ही एक-एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य्य प्रकाशक और दूसरे सब लोकलोकान्तर प्रकाश्य हैं। जैसे-

दिवि सोमो अधि श्रितः।। -अथर्व० कां० १४। अनु० १। मं० १।।

जैसे यह चन्द्रलोक सूर्य्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य्य के प्रकाश ही से प्रकाशित होते हैं। परन्तु रात और दिन सर्वदा वर्त्तमान रहते हैं क्योंकि पृथिव्यादि लोक घूम कर जितना भाग सूर्य के सामने आता है उतने में दिन और जितना पृष्ठ में अर्थात् आड़ में होता जाता है उतने में रात। अर्थात् उदय, अस्त, सन्ध्या, मध्याह्न, मध्यरात्रि आदि जितने कालावयव हैं वे देशदेशान्तरों में सदा वर्त्तमान रहते हैं अर्थात् जब आर्य्यावर्त्त में सूर्योदय होता है उस समय पाताल अर्थात् ‘अमेरिका’ में अस्त होता है और जब आर्य्यावर्त्त में अस्त होता है तब पाताल देश में उदय होता है। जब आर्य्यावर्त्त में मध्य दिन वा मध्य रात है उसी समय पाताल देश में मध्य रात और मध्य दिन रहता है। जो लोग कहते हैं कि सूर्य घूमता और पृथिवी नहीं घूमती वे सब अज्ञ हैं। क्योंकि जो ऐसा होता तो कई सहस्र वर्ष के दिन और रात होते। अर्थात् सूर्य का नाम (ब्रध्नः) है। यह पृथिवी से लाखों गुणा बड़ा और क्रोड़ों कोश दूर है। जैसे राई के सामने पहाड़ घूमे तो बहुत देर लगती और राई के घूमने में बहुत समय नहीं लगता वैसे ही पृथिवी के घूमने से यथायोग्य दिन रात होते हैं; सूर्य के घूमने से नहीं। जो सूर्य को स्थिर कहते हैं वे भी ज्योतिर्विद्यावित् नहीं। क्योंकि यदि सूर्य न घूमता होता तो एक राशि स्थान से दूसरी राशि अर्थात् स्थान को प्राप्त न होता। और गुरु पदार्थ विना घूमे आकाश में नियत स्थान पर कभी नहीं रह सकता। और जो जैनी कहते हैं कि पृथिवी घूमती नहीं किन्तु नीचे-नीचे चली जाती है और दो सूर्य और दो चन्द्र केवल जम्बूद्वीप में बतलाते हैं वे तो गहरी भांग के नशे में निमग्न हैं। क्यों? जो नीचे-नीचे चली जाती तो चारों ओर वायु के चक्र न बनने से पृथिवी छिन्न भिन्न होती और निम्न स्थलों में रहने वालों को वायु का स्पर्श न होता। नीचे वालों को अधिक होता और एक सी वायु की गति होती। दो सूर्य चन्द्र होते तो रात और कृष्णपक्ष का होना ही नष्ट भ्रष्ट होता है। इसलिये एक भूमि के पास एक चन्द्र, और अनेक चन्द्र, अनेक भूमियों के मध्य में एक सूर्य रहता है।

(सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लास)

यहाँ विज्ञानं का कितना सुंदर प्रस्तुतिकरण महर्षि दयानंद ने किया की आज तक ये सब बाते सत्य निकलती हैं, लेकिन जो पूर्वाग्रही मानसिकता से ग्रसित हैं, उनको सत्य नकारने की आदत बनी रहती है, चाहे कितना ही सच्चाई समझाते रहो।

इसके आगे, पुनः पुनराक्तिदोष आक्षेपकर्ता ने प्रकट किये हैं, जिनका निराकरण पूर्व के लेख में हो गया और आगे के लेख में और हो जाएगा।