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“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 12

“दसवे अध्याय का जवाब पार्ट 1 ”

सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा पुस्तक के इस अध्याय में आक्षेपकर्ता, महर्षि दयानंद पर पुनः एक कुतर्क सहित आरोप लगाने की झूठी कोशिश करते हैं की सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानंद क़ुरान की शिक्षा जो शांति, भाईचारे और सहिष्णुता की समर्थक है, ऐसी आयतो पर सत्यार्थ प्रकाश में काफिरो को हिन्दुओ से जोड़कर दर्शाया गया है, जिससे कुरान की आयते हिन्दू समाज के प्रति आक्रामक और अपमानजनक सिद्ध होती हैं ऐसा बताया गया है। इसके लिए आक्षेपकर्ता ने पुस्तक में इतिहास से जुड़े कुछ स्वघोषित उल्लेख भी प्रस्तुत किये हैं, ताकि इस्लाम और इस्लाम की शांतिपूर्ण शिक्षा का प्रस्तुतिकरण किया जा सके।

मगर खेद की आक्षेपकर्ता, इस अध्याय में भी पूरा सच नहीं बता पाये, क्योंकि जो पूरा सच बता देवे तो क़ुरान का शांति और भाईचारे का सिद्धांत ही खंडित हो जाएगा, क्योंकि इस्लाम की जो नींव रखी गयी, वो नींव स्वयं में दूसरे धर्मो, जातियों और सम्प्रदायों की धार्मिक भावनाओ, और मान्यताओ को कुचलकर, दबाकर, खून करकर, बलात्कार करते हुए रखी गयी, ऐसा हम नहीं स्वयं इतिहास बताता है, आइये एक एक कर सभी बातो पर विचार रखते हैं, देखते हैं आक्षेपकर्ता की सच्चाई और इस्लाम तथा मुहम्मद साहब की शांतिपूर्ण शिक्षा का वास्तविक आधार क्या है ?

सबसे पहले काफ़िर शब्द और इसका अर्थ समझते हैं जो आक्षेपकर्ता अपनी पुस्तक में चाहते हुए भी न समझा पाये या कहे की इस अर्थ को गोल गोल घुमा गए, देखिये काफ़िर का अर्थ :

काफ़िर एक संज्ञा है, इसका बहुवचन कुफ्र है, सरल शब्दों में इसका अर्थ नास्तिक है, लेकिन यदि विस्तार से समझा जाए तो इसका अर्थ है इंकार करने वाला, श्रद्धा न रखने वाला, विश्वास न करने वाला आदि, लेकिन यहाँ किसका इंकार, अश्रद्धा और विश्वास नहीं किया जा रहा वो समझना नितांत ही आवश्यक है। काफ़िर एक ऐसे व्यक्ति को कहा जाता है जो एक अल्लाह नामी खुदा को ईश्वर और मुहम्मद साहब को उस अल्लाह का आखरी रसूल, पैगम्बर न माने, वो काफ़िर है।

यहाँ कुछ समझने की बात है, वो ये है की ईश्वर है, उसको पूरी दुनिया में अनेको नामो से पुकारा जाता है, क्योंकि ईश्वर के अनेको नाम हैं, अनेक सभ्यताएँ, संकृतिया उस ईश्वर को अनेको नामो से पुकारती हैं, यानी वो सभी सभ्यताए ईश्वर को मानती हैं, लेकिन आपको आश्चर्य होगा की ये सभी संस्कृतिया और सभ्यताए इस्लामिक दृष्टिकोण से नास्तिक हैं, जाहिल हैं, मुर्ख हैं, पाखंडी हैं, अपवित्र हैं, क्योंकि वो अल्लाह को ईश्वर और मुहम्मद साहब को उसका आखरी पैगम्बर नहीं मानती।

आइये आपको प्रमाण दिखाते हैं :

और तू अल्लाह के सिवा किसी को भी न पुकार जो तुझे न तो कोई लाभ पंहुचा सकता है और न ही कोई हानि ही। यदि तू ने ऐसा किया (अल्लाह के अतिरिक्त किसी को पुकारा) तो फिर निश्चय ही तेरी गणना अत्याचारियो में होगी।

(क़ुरान १०:१०७)

पूरी दुनिया के सभी मनुष्य, जब भी विपदा में हो, परेशान हो, निराश हो अथवा हताश हो, तो उस ईश्वर को से ही सहायता मांगते हैं, भले ही हम किसी भी नाम से ईश्वर को पुकारे मगर यहाँ क़ुरान में खुद अल्लाह मियां ने ही साफ़ साफ़ बता दिया है, की जो भी अल्लाह के अतिरिक्त किसी को पुकारा तो वो अत्याचारियो में होगा, क्योंकि अल्लाह के सिवा कोई नहीं जो सहायता कर सके। क्या ये अल्लाह के कथन किसी ईश्वरीय ग्रन्थ में उल्लेखित हो सकते हैं ? आगे देखिये :

और जब एक ही अल्लाह का वर्णन किया जाता है तो जिन लोगो का क़यामत पर ईमान नहीं होता उन के दिल (ऐसे उपदेश से) घृणा करने लग जाते हैं तथा जब उन (मूर्तियों) का वर्णन किया जाता है जो अल्लाह के मुकाबिले में बिलकुल तुच्छ हैं, तो वे अचानक प्रसन्न होने लगते हैं।

(क़ुरान ३९:४६)

अनेको सभ्यताओ में मूर्तियों द्वारा ईश्वर को पाने की सीढ़ी लगायी जाती है, ये प्रत्येक सभ्यता संस्कृति की अपनी सोच है, लेकिन किसी की आस्था (मूर्ति) को तुच्छ कहना, किसी की आस्था का मजाक बनाना, क्या ये क़ुरान में अल्लाह का कलाम हो सकता है ? क्या ये सभ्य शैली है ?

क्योंकि उन्होंने अल्लाह की उतारी हुई वाणी को पसंद नहीं किया है। अतः अल्लाह ने भी उनके कर्मो को अकारथ कर दिया।

(क़ुरान ४७:१०)

अब देखिये, यदि आप अल्लाह की वाणी यानी क़ुरान के अनुसार, मूर्ति पूजा करते हैं, तो आपके सारे कर्म अकारथ कर दिए हैं, क्योंकि आप क़ुरान की आज्ञा का पालन नहीं कर रहे, क्या ये कहीं से भी ईश्वरीय आज्ञा लगती है ? ये तो किसी दुराग्रही के वचन लगते हैं की यदि क़ुरान की आज्ञा न मानी तो तेरे सारे कर्म निष्क्रिय होंगे, क्या अल्लाह मियां ऐसा करके ही मुस्लिम और हिन्दू समाज में विद्रोह उतपन्न करना चाहेंगे ? मुझे तो किसी शातिर व्यक्ति की चाल लगती है जो अल्लाह और मुहम्मद साहब के नाम पर क़ुरान में ये आयत जोड़ी गयी।

उपरोक्त आयतो को आपने ध्यान से पढ़ा होगा तो समझे होंगे की क़ुरान में स्वयं अल्लाह मियां ही काफ़िर और मोमिन (मुस्लिम) में भेद प्रकट करता है, अब हम आपको दिखाते हैं, की मोमिन कौन है, यहाँ इस बात को समझाना नितांत आवश्यक है, क्योंकि बिना मुस्लिम का अर्थ समझे आप काफ़िर को नहीं समझ सकते है, देखिये :

जो कुछ भी इस रसूल पर उसके रब की और से उतारा गया है उस पर वह स्वयं भी और दूसरे मोमिन भी ईमान रखते हैं। ये सब के सब अल्लाह और उसके फरिश्तो, एवं उसकी किताबो तथा उसके रसूलो पर ईमान रखते हैं (और कहते हैं की) हम उस के रसूलो में से किसी में भी कोई अंतर नहीं करते तथा यह भी कहते हैं की हम ने (अल्लाह का आदेश) सुन लिया है और हम (दिल से) उसके आज्ञाकारी बन चुके हैं। (ये लोग प्रार्थना करते हैं की) हे हमारे रब ! हम तुझ से क्षमा मांगते हैं और हमे तेरी ओर ही लौटना है।

(क़ुरान २:२८६)

अब यहाँ ध्यान से समझिए की मुस्लमान आखिर कौन हैं :

1. जो केवल एक अल्लाह पर विश्वास करता हो।

2. जो मुहम्मद साहब को आखरी पैगम्बर मानता हो।

3. जो क़ुरान को अंतिम ईश्वरीय वाणी मानता हो।

4. जो अनेको फरिश्तो (जिब्रील, मिखाइल आदि) पर ईमान रखता हो।

5. जो आख़िरत (क़यामत) के दिन दुबारा जिन्दा होना मानता हो।

6. जो जन्नत और जहन्नम पर विश्वास रखता हो।

7. जो मूर्ति भंजक (मूर्ति तोड़ने वाला) हो नाकि मूर्ति पूजक।

यहाँ यदि ध्यान से समझा जाए तो आप पाएंगे, मुस्लमान होने के लिए ये आवश्यक शर्ते (नियम) मानने यानी उपरोक्त पर विश्वास करना नितांत आवश्यक है, तभी आप मुस्लमान हैं, अब आप स्वयं सोचिये, जो भी व्यक्ति मुस्लमान नहीं यानी जो उपरोक्त पर विश्वास नहीं करता वो क्या है ?

हम आपको समझाने का प्रयास करते हैं, इस्लाम, क़ुरान और मुहम्मद साहब द्वारा इंसानो में जो बंटवारा किया गया है, वो देखिये :

क़ुरान में ईसाई समाज को नसारा और यहूदियों को यहूद कहा गया है, यहाँ तक की अल्लाह इनसे इतनी घृणा करता है की इन्हे अत्याचारी कहता है और मुसलमानो को इनसे सहायता न लेने तक का स्पष्ट वर्णन क़ुरान में अंकित करता है, देखिये :

हे ईमान लाने वालो ! यहूदियों और ईसाइयो को अपना सहायक न बनाओ (क्योंकि) उनमे से कुछ लोग कुछ दुसरो के सहायक हैं और तुम में से जो भी उन्हें अपना सहायक बनाएगा निस्संदेह वह उन्ही में से होगा। अल्लाह अत्याचारियो को कदापि (सफलता का) मार्ग नहीं दिखाता।

(क़ुरान ५:८२)

अब देखिये, यहाँ क़ुरान में स्वयं अल्लाह मिया कितनी शांति और भाईचारे की बात सिखा रहे हैं, क्या ये अल्लाह का कलाम है ? जब अल्लाह मियां स्वयं मनुष्यो में ही घृणा और पक्षपात करते हैं तब उनके ईमान वाले ऐसी बातो का इंकार कैसे करे ? क्या ऐसी शिक्षा से भाईचारा जागता है ? अब यहाँ विचारणीय बात ये भी है की ईसाई और यहूदियों के लिए “काफ़िर” शब्द प्रयोग नहीं किया जा सकता क्योंकि ईसाई और यहूदी भी “अहले अल किताब” की श्रेणी में आते हैं, क्योंकि अल्लाह ने इस समाज को भी पवित्र किताब प्रदान की थी, इसलिए ये काफ़िर तो नहीं, मगर फिर भी अल्लाह की नजर में इनसे दोस्ती करना मुस्लमान और उसके ईमान के लिए सजा बराबर है।

अब दिखाते हैं, मुशरिक किसे कहते हैं, देखिये :

मुशरिक शब्द क़ुरान की ४५ आयतो में ५४ बार आया है (मोहसिन खान भाष्य अनुसार), मुशरिक की परिभाषा :

एक ऐसा व्यक्ति, जो अनेको देवी देवताओ पर विश्वास रखता है, भले ही वो एक सर्वोच्च ईश्वर को भी मानता हो, या न मानता हो, लेकिन अनेको देवी देवताओ की पूजा करता हो, उसे अरबी भाषा में मुशरिक कहते हैं, और ऐसे लोगो के प्रति अल्लाह मियां क़ुरान में क्या बयां करते हैं वो देखिये :

हे मोमिनो (मुसलमानो) ! वास्तव में मुशरिक गंदे (और अपवित्र) हैं। (क़ुरान ९:२८)

क्या अपनी सभ्यता और संस्कृति अनुसार अपने देवी देवताओ की पूजा करना अपवित्र कार्य है ? क्या कोई व्यक्ति अपनी संस्कृति के अनुसार पूजा उपासना नहीं कर सकता ? क्या यही इस्लामी स्वतंत्रता है ? क्या केवल अपनी संस्कृति अनुसार देवी देवताओ की पूजा करने से मनुष्य गन्दा, नापाक और अपवित्र हो सकता है ? क्या ये आयत हिन्दुओ की सभ्यता और संस्कृति पर प्रतिघात नहीं करती ? क्या ऐसी आयतो से वैमनस्य नहीं फैलता ? क्या हिन्दू समाज देवी देवताओ की पूजा उपासना नहीं करता ? क्या ये आयत मुस्लिम समाज द्वारा हिन्दुओ को अपवित्र और नापाक नहीं कहलवाती ?

अब आपको बताते हैं, शिर्क करने वाले काफ़िर के बारे में, देखिये :

मूर्ति पूजा करना, या देवी देवताओ की पूजा करना, अथवा अल्लाह के साथ कोई अन्य उपास्य बनाना, या अल्लाह के अतिरिक्त किसी और नाम से ईश्वर को पुकारना शिर्क है, शिर्क के अनेको प्रकार हो सकते हैं, लेकिन जो सबसे भयंकर और जिसको माफ़ नहीं किया जा सकता वो शिर्क है, अल्लाह के अतिरिक्त किसी और ईश्वर को पुकारना अथवा अल्लाह के साथ अन्य किसी देवी देवता को पूजना, ये सबसे बड़ा शिर्क है, और इसे कभी माफ़ नहीं किया जाएगा, देखिये :

निसंदेह अल्लाह (यह बात) कदापि क्षमा नहीं करेगा की किसी को उसका साझी बनाया जाए, परन्तु जो पाप इससे से छोटा होगा उसे जिस के लिए चाहेगा क्षमा कर देगा और जिसने अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराया तो समझो की उसने बहुत बड़ी बुराई की बात बनाई

(क़ुरान ४:४९)

अब देखिये, खुदा की खुदाई, की यदि अल्लाह को नहीं माना, या अल्लाह के साथ किसी और को साझी बनाया तो ये सबसे बड़ा गुनाह है, यानी अल्लाह मियां को गुस्सा, घृणा, द्वेष आदि गुण भी हैं, और क्रोध भी आता है, क्या ये अल्लाह मियां का लिखा हो सकता है ? जो अल्लाह मियां परम दयालु अपने आप को क़ुरान में बताते वो ऐसी आयत क्यों देंगे ? निश्चय ही किसी का शरारत है, और ये आयत क्या अल्लाह मियां की हिन्दुओ से घृणा और द्वेष को सिद्ध नहीं करती ? क्योंकि हिन्दू समाज ईश्वर के साथ साथ अनेको देवे देवताओ की पूजा उपासना करता है, तो क्या मुस्लिम समाज ऐसी आयतो को पढ़कर हिन्दुओ से प्यार करेगा ?

क्या चोरी, डकैती, लूटमार, बलात्कार, हिंसा और हत्या आदि अनेको पापकर्म, छोटे हैं जिन्हे माफ़ कर दिया जाएगा ? और केवल एक अल्लाह को नहीं मानना ऐसा बुरा कर्म की वो माफ़ नहीं किया जाएगा ? क्या ये आयत अल्लाह की हो सकती है ?

इस्लाम के अनुसार मूर्तियों का तोडना जायज़ है, और यही सच्चाई है, दीन है, और यही अल्लाह की नजर में धर्म है, देखिये :

मक्का में पैगम्बर दाखिल हुए। काबा में तीन सौ साठ मुर्तिया मौजूद थी। उन्होंने (पैगम्बर) ने उन मूर्तियों पर अपने हाथ में मौजूद डंडे से जोरदार प्रहार करते हुए कहा “सत्य आ गया है तथा असत्य भाग गया है और असत्य तो है ही भाग जाने वाला”

(सही मुस्लिम, किताब १९, हदीस ४३९७)

और काबा के पास उन की नमाज केवल सीटियां और तालियां बजाने के सिवा कुछ कुछ नहीं। सो हे अधर्मियों ! अपने इंकार के कारण अज़ाब का स्वाद चखो

(क़ुरान ८:३६)

कदापि नहीं, यदि वह बाज़ न आया तो हम छोटी पकड़कर घसीटेंगे (१५)

झूठी ख़ताकार चोटी (१६)

(क़ुरान सूरह ९६)

काबा में हिन्दू विधि विधान से ही कभी मूर्ति पूजा आदि होती थी, लेकिन मुहम्मद साहब ने काबा में मौजूद ३६० मूर्तियों को तोड़ डाला, और वहां (काबा) को मंदिर से मस्जिद में तब्दील कर डाला, उपरोक्त क़ुरानी आयतो को पढ़कर निष्कर्ष निकाला जा सकता है की कभी किसी समय पर अरब के पगनो द्वारा आज के ही हिन्दुओ सामान मंदिरो में मूर्ति पूजा तथा पूजा पद्धति होती थी, और वहां पंडितो पुजारियों का चोटी रखना भी सिद्ध करता है, अतः क़ुरान की इस आयत से निष्कर्ष निकलता है की :

और हमने यह भी निर्णय किया था की मस्जिदे सदैव अल्लाह ही का स्वामित्व ठहराई जाए। अतः हे लोगो ! तुम उनमे उसके सिवा किसी को मत पुकारो।

(क़ुरान ७२:१९)

हिन्दुओ को मंदिरो से अथवा अन्य इबादतगाहों से केवल अल्लाह को ही पुकारना चाहिए, और यही इस्लामी नजरिये से जायज़ है, नहीं तो हिन्दू समाज काफ़िर, मुशरिक तो है ही।

उपरोक्त वर्णित क़ुरानी आयतो तथा इस्लामी हदीसो से स्पष्ट ज्ञात होता है की जो अल्लाह को नहीं मानता, या जो अल्लाह के साथ अनेको देवी देवताओ को भी पूजता है, अथवा जो मूर्ति पूजा करता है, वे सभी लोग पापी हैं, अपवित्र हैं, नापाक हैं, और वो धर्म पर नहीं हैं क्योंकि मूर्तिपूजक शैतान की पूजा करते हैं।

अतः ये सिद्ध है की क़ुरानी आयतो में ये वर्णन इतिहास सूचक नहीं है, बल्कि जब तक इस दुनिया में इस्लाम के मुताबिक कुफ्र है, शिर्क है, नापाक और अपवित्र मूर्तिपूजक हैं तब तक इस्लाम का जिहाद चलते रहना चाहिए। यही बात क़ुरान में अल्लाह मियां भी फरमाते हैं :

“उन्हें मार डालो जहाँ पाओ और उन्हें निकाल दो जहां से उन्होंने तुम्हे निकाला |”

(क़ुरान २:१९१)

“कुछ मुसलमान मित्र यहाँ कहेंगे की अल्लाह ने उन लोगो को मारने को कहा है जिन्होंने खुद लड़ाई की और ईमान वालो को घर से निकाला | लेकिन अगली आयत से सत्य का पता चलता है कि उन्हें मारने का उद्देश्य क्या है |

तुम उन से लड़ो की कुफ्र न रहे और दीन अल्लाह का हो जाए अगर वह बाज आ जाए तो उस पर जयादती न करो |”

(क़ुरान २:१९३)

आज भी इस्लामिक नजरिये से कुफ्र और शिर्क दुनिया में फैला हुआ है, इसीलिए दारुल हर्ब (काफिरो द्वारा अधिकृत देश) को दारुल इस्लाम (इस्लामी शरिया द्वारा अधिकृत देश) में बदलने की पुरजोर कोशिश जिहाद द्वारा की जा रही है, इसी कोशिश में आईएसआईएस, अल-कायदा, लश्कर आदि संगठन पुरे विश्व में आतंक फैलाये जा रहे हैं, कुछ मुस्लिम इस बात का खंडन करते हैं की ये इस्लामी विचारधारा नहीं है, लेकिन यदि क़ुरान की शिक्षा शांतिपूर्ण ही हैं तो इन कट्टरपंथियों की सोच का जिम्मेदार कौन है ? क्या ये कट्टरपंथी कोई और क़ुरान पढ़ रहे हैं, यदि हाँ, तो क्या ये मुस्लिम समुदाय की ही जिम्मेदारी नहीं की उन्हें क़ुरान और इस्लाम की सच्ची शिक्षा से अवगत करवाये ?

अब कुछ अन्य इस्लामी और क़ुरानी शिक्षा जो शांति, सौहार्द और भाईचारे की प्रेरणा देती है क्योंकि अल्लाह की नजरो में धर्म केवल और केवल इस्लाम है। इसलिए वे लोग जो गंगा जमुनी तहजीब की वकालत करते हैं, उन्हें क़ुरान की इन आयतो पर भी अपने विचार रखने चाहिए :

और जो मनुष्य इस्लाम के सिवा किसी दूसरे धर्म को अपनाना चाहे तो (वह याद रखे कि) वह धर्म उससे कदापि स्वीकार न किया जाएगा और वह परलोक में हानि उठाने वालो में से होगा।

(क़ुरान ३:८६)

वे अल्लाह को छोड़कर निर्जीव चीज़ो के सिवा किसी को नहीं पुकारते बल्कि वे उद्दंडी शैतान के सिवा और किसी को नहीं पुकारते

(क़ुरान ४:११८)

अब कुछ लोग सवाल करेंगे की आर्य समाज भी तो मूर्ति पूजा विरोधी है, तो इस्लाम की द्वारा जो किया गया वो सही है, यहाँ उन्हें ध्यान रखना चाहिए और सोचना चाहिए की आर्य समाज ने कभी भी, कहीं भी, किसी भी प्रकार की मूर्ति को तोडना, फोड़ना जायज़ नहीं बताया, न ही मंदिरो को तोड़कर उन पर मस्जिद बनाने का समर्थन ही किया, उलटे महर्षि दयानंद ने कहा था, की वो मूर्तियों को तोड़ने का नहीं, बल्कि उन लोगो की जो जड़ बुद्धि है, उसको तोड़कर चेतन सोच करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, जो केवल वेद ज्ञान द्वारा संभव है। लेकिन मुहम्मद साहब की क़ुरानी शिक्षाओ के कारण, जो मूर्तियां तोड़ी गयी, और जो मुहम्मद साहब ने पैगम्बर अब्राहिम का अनुसार करते हुए मूर्तियों को तोडा, वो ही चित्रण कुछ महीनो पहले सीरिया में आईएसआईएस के जिहादियो द्वारा, सीरिया में देखा गया, जहाँ अनेको प्राचीन संस्कृति के बुतो को अकारण ही तोड़ दिया गया। क्या अब भी मुस्लिम समाज यही कहेगा की आईएसआईएस के जिहादियो द्वारा किये गए कार्य इस्लामी शिक्षा से प्रेरित नहीं ?

ये केवल कुछ ही बताया है, अब पाठकगण स्वयं विचार करे की महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में क्या गलत लिखा ? क़ुरान के अनुसार ही जो काफ़िर और मुस्लिम, तथा हिन्दू समाज की स्थति क़ुरान के नजरिये से ही महर्षि दयानंद ने प्रकट की थी, फिर भी आक्षेपकर्ता सच्चाई की जगह दुराग्रह व पूर्वाग्रह से ग्रसित हो नकारते चले गए। अब अगले लेख में नास्तिक और आस्तिक के बारे में विचार करेंगे।

आओ लौटो वेदो की और

सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब Part 13

दस्यु स्थानवाचक मनुष्य नहीं, पापी, अधम और दुष्ट लोगो को कहते हैं, दसवे अध्याय का जवाब पार्ट 2
अब आक्षेपकर्ता के वैदिक ग्रंथो पर लगाए मनमाने आरोपों पर कुछ विचार करते हैं, आक्षेपकर्ता कहता है, काफ़िर मुशरिक आदि जो क़ुरान में शब्द हैं वो गुण वाचक हैं, लेकिन पिछली पोस्ट से आपको काफ़िर और मुशरिक के गुण वाचक होने का ज्ञान हो गया होगा, अब हम बात करते हैं, नास्तिक, दस्यु आदि शब्दों पर, क्योंकि आक्षेपकर्ता का कहना है की वेदो में भी दस्यु शब्द मिलते हैं जो काफ़िर मुशरिक आदि शब्दों का ही परिचायक है, इसलिए काफ़िर मुशरिक तो फिर भी गुण वाचक होने से सही हैं पर दस्यु आदि शब्द स्थानवाचक हैं, जो मनुष्य को मनुष्य से वैर करना सिखाते हैं।
अब आक्षेपकर्ता न जाने कहाँ से मनगढंत विचार उठाकर ले आते हैं, और काफ़िर मुशरिक शब्द जो अत्यंत घृणास्पद हैं मुस्लिम समाज और खासकर अल्लाह मियां के लिए, उनसे तो प्रेमभाव जागता है, और जो दस्यु आदि शब्द हैं वो मनुष्यता के खिलाफ हैं, आइये विचार करते हैं :
सर्वप्रथम नास्तिक शब्द को देखते हैं :
यदि विचार करके देखा जाए तो इस पूरी सृष्टि में नास्तिक कोई नहीं है, कुछ लोगो ने मिथ्य प्रपंच रच रखा है – क्योंकि नास्तिक उसे कभी नहीं कहते जो ईश्वर को नहीं मानता – और आज सर्वसाधारण ये प्रपंच – मिथ्या जाल फैला रखा है की जो ईश्वर को नहीं मानता वो नास्तिक।
बल्कि ये स्वयं से धोखा है – देखिये नास्तिक उसे कहते हैं जो वेद की निंदा करे। ईश्वर को मानने न मानने से नास्तिक आस्तिक का कोई लेना देना नहीं है।
वेद निंदकों नास्तिक
ये बहुत ही गूढ़ बात है – क्योंकि ईश्वर – से तात्पर्य एक ऐसी सत्ता से है जो सबसे बड़ी है – सबको नियंत्रित करती है। न्यायकारी है, और पूर्ण है – अपूर्ण नहीं।
अब देखते हैं कुछ तर्क :
हिन्दू : प्राय आस्तिक की श्रेणी में – जो अनेक ईश्वर और देवी देवताओ पर विश्वास रखते हैं।
मुस्लिम : ये भी आस्तिकों की श्रेणी में ही शुमार किये जाते हैं – क्योंकि ये एक अल्लाह, उसके अनेक रसूलो, फरिश्तो, क़यामत, जन्नत जहन्नम और हूरो गिल्मो आदि पर विश्वास रखते हैं।
ईसाई : ये भी आस्तिकों की श्रेणी में ही गिने जाते हैं। इनमे एक यहोवा, पुत्र ईसा, और पवित्र आत्मा, बपतिस्मा, फ़रिश्ते, बाइबिल, भेड़ बकरी, चरवाहा और ना जाने क्या अनगिनत तमाम बाते।
आदि अनेक मत सम्प्रदाय भी आस्तिक गिने जाते हैं। पर ध्यान देने वाली बात है –
हिन्दू पुराण पढ़ कर मुस्लिमो, ईसाइयो को मलेच्छ आदि बोलकर इनका नाश अपने ईश्वर से करवा कर खुद को धार्मिक और सबसे बड़े आस्तिक कहते हैं।
मुस्लिम कुरआन को पढ़कर – पूरी दुनिया को काफ़िर बताकर उसका गाला काटने को – उसकी बीवी बेटी को हरम में रखने को – उस काफ़िर के माल असबाब को लूटने को – पक्का मजहब और दीन की उम्दा तालीम बताकर जन्नत में हूरो के ख्वाब देखता है क्योंकि यही अल्लाह का बताया सही रास्ता है।
ईसाई – दुनिया के सबसे बड़े तथाकथित और स्वघोषित आस्तिक हैं। इनकी सबसे बड़ी समस्या है की अपने ईसाई बहुल देशो में अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धति, मशीन, दवाई सब अपनाएंगे, मगर जब अपनी आस्तिकता को दूसरे देशो में बेचने जाएंगे तब दुनिया की तमाम बीमारियो का इलाज केवल ईसा की प्रार्थना और बपतिस्मा से होना जाता देंगे। खैर ये भी अपने को आस्तिक बताते हैं और अन्य मजहबी लोगो का धर्मान्तरण – मुस्लिमो की तरह करवाना इनका भी मजहबी अधिकार है।
अब समस्या ये है की सबसे बड़ा आस्तिक कौन ? इस चक्कर में सभी तरह के – हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आस्तिक मिलकर लड़ाई, दंगे नफरती शिक्षा आदि करते हैं और तमाम मनुष्यो को तकलीफ होती है, पूरी मानवता शर्मसार होती है, इस बात में कोई संशय नहीं की आज ये मजहबी उन्माद सबसे ज्यादा इस्लामी अनुयायियों में है। तो इस लिहाज से तो ये इस्लामी सबसे बड़े आस्तिक हुए ?
अब बात करे – जो ईश्वर को नहीं मानते – चाहे वो चार्वाक, बौद्धि, जैनी, कोई भी हो – हाँ ये सही है की ये ईश्वर को नहीं मानते मगर क्या ये सच है ?
बौद्धि – ये बुद्ध को ईश्वर या सबसे बड़ी शक्ति अथवा समाधी या मोक्ष प्राप्त करने वाली आत्मा को बुद्ध या ईश्वर मान लेते हैं। यानी यहाँ भी कोई एक बड़ी शक्ति पर विश्वास है।
जैनी : जितने भी तीर्थंकर हुए या द्वित्य श्रेणी व तृतीय श्रेणी के जितने जिन्न होते हैं – उन सबको ईश्वर मान लिया जाता है। क्योंकि जो मरने के बाद निर्वाण प्राप्त कर लेता है वो ईश्वर बन जाता है। यानी यहाँ भी किसी एक अथवा अनेक बड़ी शक्तियों पर विश्वास है।
अब अंत में बात करते हैं चार्वाक की :
यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
अर्थ है कि जब तक जीना चाहिये सुख से जीना चाहिये, अगर अपने पास साधन नही है, तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिये, शमशान में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है?
चार्वाक भी सुख को सबसे बड़ा मानते हैं, मोक्ष के बराबर – इसलिए ये भी एक बड़ी सत्ता जिसे सुख कहते हैं पर विश्वास करते हैं। क्योंकि सुख को ये चार्वाकी मोक्ष कहते हैं भले ही इसे प्राप्त करने के लिए अनेको मनुष्यो को दुःख प्राप्त हो। ये तथाकथित आस्तिकों के भी आस्तिक हैं। नास्तिक किस बात के ?
वेद निंदकों नास्तिक क्यों कहा जाता है ?
वेद – क़ुरान – बाइबिल – जिंद अवेस्ता भारतवर्षीय इतिहास के सम्बन्ध में इस विषय का महत्व – ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने में युक्तियाँ – आर्य्यावर्त के प्राचीन ऋषि मुनि तथा वर्तमान समय के करोड़ो पौराणिक भी “वेद” को ईश्वरीय ज्ञान मानते आये और मानते हैं, पारसी लोग “जिंद अवेस्ता” को मानते हैं, ईसाइयो का मत है की “बाइबिल” ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक है, मुसलमानो का यह सिद्धांत है की “कुरान” ईश्वरीय ज्ञान है। इन सब के कथन तो ठीक हो नहीं सकते अतः कुछ ऐसी परीक्षाये नियत करनी चाहिए जिन से उक्त कथनो के सत्यासत्य का निर्णय हो सके। अतः ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता सिद्ध हो गयी। अब विवेचनीय है की ईश्वरीय ज्ञान है कौन सा ?
परीक्षाये –
ईश्वरीय ज्ञान का पहला लक्षण यह है की वह अपने आप को ईश्वरीय ज्ञान कहे अर्थात उस के नाम से यह टपके की वह ज्ञान है न की पुस्तक। परमात्मा साकार तो है ही नहीं की वह बैठ कर पुस्तक लिखेगा, वह तो केवल हृदयो में ज्ञान का प्रकाश करता है।
“जिंद अवेस्ता” का अर्थ है “पवित्र लेख” अतः इस शब्दार्थ से सिद्ध होता है कि किसी धर्मात्मा पुरुष ने इसे लिखा है।
“बाइबिल” शब्द यूनानी धातु बिबलिया से निकला है जिस का अर्थ बहुत सी पुस्तके है। बाइबिल के दो भागो के नाम ऑलडटेस्टमेंट और नियुटेस्टामेंट है जो लातिनी धातु “टेस्टर” से निकलता है जिसका अर्थ साक्षी होना है। अतः इन धात्वर्थो से हम यह परिणाम निकाल सकते हैं की बहुत सी पुस्तको को जमा करके बाइबिल बनाई गयी थी और उस में जिन जिन घटनाओ का वर्णन है उस के लिए साक्षी भी एकत्रित की गयी थी। अस्तु इस के नाम से तो यही सिद्ध होता है की यह मनुष्य की बनाई हुई है, ईश्वर की नहीं। ईश्वर निराकार सर्वव्यापक और सर्वज्ञ है अतः ईश्वर के विषय में यह नहीं कहा जा सकता की उस ने बहुत सी पुस्तके एकत्रित की अथवा साक्षी ढूंढने गया।
अलक़ुरआन एक संयुक्त शब्द है जो अरबी के दो शब्दों से बना है, एक “अल” जिसका अर्थ है “विशेष” दूसरा “कुरान” जो “किरतैअन” धातु से निकला है जिसका अर्थ “पढ़ना” है अतः अलक़ुरआन का अर्थ हुआ वह जो लेख विशेष प्रकार से पढ़ा जाये। इस से सिद्ध हुआ की अलक़ुरआन भी लिखी हुई पुस्तक का नाम है न की ईश्वर के ज्ञान का।
“वेद” “विद्” ज्ञाने धातु से निकला है। वेद का अर्थ है “ज्ञान”। यह किसी लेख वा पुस्तक का नाम नहीं प्रत्युत उस ज्ञान का नाम है जो परमात्मा ने मनुष्यो के कल्याणार्थ प्रकाशित किया है।
अतः ये सिद्ध है कि वेद किसी पुस्तक का नाम नहीं है, प्रत्युत उस ज्ञान का नाम है जो परमात्मा ने मनुष्यो का कल्याणार्थ प्रकाशित किया, इसलिए कहने का तात्पर्य यही है की अनेक लोग जो अनेक प्रकार से ईश्वर को मानते हैं, विश्वास करते हैं, मगर उस ईश्वर के विषय में जानते कभी नहीं, न ही जानना चाहते हैं, क्योंकि वो केवल मान्यता पर विश्वास करते हैं जिससे लड़ाई, झगड़ा, वैमनस्य और मानव समाज में दया के बदले, हिंसा का बोलबाला हो जाता है, यदि यही बात ईश्वर को जानकार, तब मानना लागू हो जाए तो कहीं भी अशांति नहीं दिखेगी चहु और शांति और दया भाव नजर आएगा। इसलिए पहले ईश्वर को जानो, तब मानो, क्योंकि बिना जाने ही मान लेना अन्धविश्वास है, और धर्म में अन्धविश्वास नहीं होना चाहिए, इसीलिए वेद निंदकों नास्तिक कहा जाता है। और ईश्वर का सच्चा स्वरुप वेद ज्ञान के माध्यम से ही जाना जाता है, क़ुरान बाइबिल आदि मजहबी ग्रंथो में केवल इतिहास की बाते हैं, जिससे ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता, अपितु इतिहास का ही अवलोकन हो सकता है वो भी क्षेत्रीय वा प्रांतीय इतिहास, परन्तु वेद आदि मानवी सृष्टि में प्रकाशित होता है, इससे वेद में इतिहास का ज्ञान नहीं अपितु, मानव मात्र के कल्याण का ज्ञान है।
अब दस्यु शब्द को देखते हैं :
आक्षेपकर्ता कहता है, दस्यु आदि शब्द स्थानवाचक लोगो के लिए प्रयुक्त हैं, जो आर्यावर्त की सीमा से बाहर रहते हैं, उन्हें दस्यु कहा जाता है, और ये गलत है। साथ ही दयानंदीय आस्था को जोड़कर हिन्दू समाज और आर्यो पर वेद का ज्ञान न होने का मनगढंत आरोप भी जड़ दिया, शायद आक्षेपकर्ता का मानसिक संतुलन बिगड़ गया है क्योंकि जो आर्य समाज का सिद्धांत है, और जो ऋषि ने १० नियम बनाए हैं वे वेद और ऋषि प्रणीत ग्रन्थ आधारित हैं, जिनमे वेद का पढ़ना और पढ़ाना आर्यो का परम धर्म कहा गया है। लेकिन पूर्वाग्रही मानसिकता का बोध करवाते हुए, आक्षेपकर्ता केवल ऋषि दयानंद पर झूठे आरोप ही करते चले गए, शायद उन्हें आर्य समाज की कार्य पद्धति का समुचित अवलोकन नहीं किया तब बिना जाने ही आर्यो पर पुस्तक लिखना और ऋषि पर आक्षेप करना मानसिक दिवालियापन नहीं तो क्या है ?
आर्य दस्यु पृथक जातियों के न थे, दस्यु आर्यो में से थे जो धर्म कर्म न करने से, आचार भ्रष्ट होने से, बहिष्कृत और पतित समझे गए थे। दोनों शब्दों की व्युत्पत्तिये इसी की पुष्टि करती हैं, वेद और उत्तरकालीन वैदिक और संस्कृत साहित्य इसी बात को पुष्ट करता है, पारसियों की जिंदावस्था की भी इसमें साक्षी है। देखिये :
आर्य और दस्यु शब्द का अर्थ निरुक्त और सायण के अनुसार –
आर्य ईश्वर पुत्रः [निरुक्त 6.26) Arya Is The Son of Lord
आर्य ईश्वर पुत्र हैं
दस्युः दस्यतेः क्ष्यर्थादुपदस्पन्त्यस्मिन्नसा, उपदासयति कर्माणि।। [नि० 7.23]
दस्यु क्षयार्थक दस धातु से बनता है, दस्यु में रस रूप जाते हैं [अतः मेघ दस्यु है] और वह वैदिक कर्मो का नाश करता है
He destryos religious ceremonies
यानी धर्म द्वारा स्थापित मर्यादाओ का उल्लंघन करने वाला, नाश करने वाला, दस्यु है। यही बात आक्षेपकर्ता स्वयं भी अपनी पुस्तक में दस्यु शब्द के बाद (दुष्ट) लिखकर मानता है। अतः दुष्ट वो व्यक्ति है जो मर्यादाओ का उल्लंघन करे, दुष्ट को धर्म से जोड़ना ही मूर्खता है, क्योंकि मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनुस्‍मृति ६.९२)
(धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच (स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।)
अतः जो इनका नाश करता है, इन मर्यादाओ का उल्लंघन करता है, वह दुष्ट है, इसमें आचार्य सायण का प्रमाण भी है, देखिये :
आर्यम = अरणीयं सर्वेर्गन्तव्य्म। ऋ० 1.130.4
आर्यान विदुषोनुष्टातन।। ऋ० 1.51.8
उत्तमं वर्णे त्रैवर्णिकम्।। 3.34.9
आर्याय यज्ञादि कर्म कृते यजमानाय।। 6.25.2
आर्यार्याणि कर्मानुष्ठातृत्वेन श्रेष्ठानी।। 6.33.3
दस्यु :
दस्यु चोरं वृत्रं वा।। ऋ० 1.33.4
दस्यवः अनुष्ठातृणामुपक्षयितारः शत्रवः।। ऋ० 1.51.8
दासीः कर्मणामुपक्षयित्री र्विश्वः सर्वा विशः प्रजाः 6.25.2
दासाः कर्म हीनाः शत्रवः।। 6.60.6
दस्यवः अव्रताः।। 1.51.8
“दासं वर्ण शूद्रादिकम्” । “दस्यु मव्रतम्”
दासः कर्म करः शूद्रः, आर्यस्त्रै वर्णिकः।। 10.38.3
यास्क और सायण के किये अर्थो में आर्य और दस्यु के जातीयभेद होने की गंध भी नहीं। सभी जगह यज्ञादि कर्म करने वाले त्रैवर्णिक को आर्य्य कहा है और यज्ञादि कर्म न करने वाले, विघ्न डालने वाले, अव्रत व शूद्रादि को दस्यु और दास नाम दिए हैं।
कहने का अर्थ है जो लोकोपकार और जगत के लाभ के लिए किये जाने वाले कर्मो को नहीं करता, विघ्न डालता है, वो दुष्ट यानी दस्यु कहा जाता है।
भारतीय संविधान में भी चोर, ठग आदि शब्द वर्णित हैं, तो क्या प्रत्येक भारतीय चोर, ठग आदि सिद्ध होता है ? नहीं, क्योंकि किसी नागरिक को चोर, लुटेरा, ठग आदि तब तक नहीं कहा जा सकता जब तक कोई नागरिक ऐसा कोई कुकर्म न करे, ठीक ऐसे ही दस्यु उन्हें कहा गया जो अवैदिक कृत्य करते थे।
वैदिक साहित्य तथा संस्कृत साहित्य से तो यह बात और भी पुष्ट हो जाती है की दस्यु आर्यो की संतान थे, जो वैदिक कर्म न करने से पतित और बहिष्कृत समझे गए थे, पाश्चात्य विद्वान भी इसको मानते हैं, दस्यु जातियों में से बहुतसी क्षत्रिय जातीय थी। ऐतरेय, मनु, रामायण और महाभारत इसमें साक्षी हैं :
तस्य ह विश्वामित्र ………………………….. विश्वामित्रा दस्यूनां भूयिष्ठाः (ऐ० ब्रा० 7.18)
(सायण) विश्वामित्र ऋषि के एक सौ पुत्र थे, मधुच्छन्दस, प्रभृति पचास बड़े और पचास छोटे। जो बड़े थे उन्होंने कहना नहीं माना। विश्वामित्र ने उनको कहा की तुम्हारी संतान चाण्डलादी नीच जातियों की हो जाए। वही अंधृ, पुण्ड्र, शबर, पुलिंद, मुतिव आदि जातीय हैं, दस्यु जातियों में से बहुत सी विश्वामित्र की संतान हैं।
अतः सिद्ध है की दस्यु कर्म से हीन होकर, अमर्यादित जातियां हुई, जो भारत से बाहर जाकर बसी, इन्हे ही दस्यु कहा गया।
द्विज लोग दस्यु कैसे बन गए, इस विषय में मनु महाराज कहते हैं :
शनकै स्तुक्रियालोपादिमाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्रह्मणादर्शनेन च ।। मनु १०:४३
पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काम्बोजा यवनाः शकाः ।पारदापह्लवाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः । । १०.४४ । ।
मुखबाहूरुपज्जानां या लोके जातयो बहिः ।म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः । । १०.४५ । ।
पौण्ड्र आदि १२ क्षत्रिय जातीय वैदिक क्रियाए भुला देने से, और ब्राह्मण लोगो से सम्बन्ध टूट जाने से शनै शनै शूद्र हो गयी और यही जातीय दस्यु हैं चाहे म्लेच्छ (विदेशी) भाषा बोले चाहे आर्यो की भाषा।
महाभारत 12.136.1 “दस्युनां निष्क्रियानां च क्षत्रियो हर्तु मर्हति।।
तस्मादपयद्देहाददान मश्रद्दधान भयजमा नमाहु रासुरोबत इति (छा० उ० अ० ८ ख. 8.5)
महाभारत शान्तिपर्व अध्याय १९८ में भीष्म कहते हैं।
हे राजन मैं तुम्हे एक कथा सुनाता हु जो उत्तर दिशा में मलेच्छों में हुई। मध्य देश का कोई ब्राह्मण किसी ब्राह्मण और वेदज्ञों से रहित पर समृद्ध ग्राम में भिक्षा लेने के लिए घुस गया। वहां एक धनी, धर्मात्मा, सच्चा, दानी वर्णव्यवस्था जानने वाला दस्यु रहता था। उसके घर पर जाकर ब्राह्मण ने भिक्षा मांगी। वह गौतम नामक ब्राह्मण मलेच्छ में रहते रहते उनके सन्निकर्ष से उन जैसा बन गया। उसी ग्राम में एक और ब्राह्मण आ निकला, और पहले ब्राह्मण को देख कर कहने लगा की तू तो मध्य देश का कुलीन ब्राह्मण था पर उससे दस्यु कैसे बन गया।
इस कथा से स्पष्ट हो जाता है की दस्यु कोई पृथक नस्ल के न थे आर्यो में से ही पतित लोग, या धार्मिक लोग भी जो पतितो के संग से पतित हो जाते थे, दस्यु कहानी लगते थे।
अब एक और दृष्टान्त लीजिये, जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा की किस प्रकार ब्राह्मण माता पिता की संतान भ्रष्टाचारी होने से राक्षस यातुधान कहाने लगती है। पुलस्त्य ब्रह्मषि थे, द्विज थे (पुलस्त्यो नाम ब्रह्मषि ; पुलस्त्यो यत्र स द्विजः) उनका पुत्र विश्रवा भी उन जैसा योग्य था। पर विश्रवा के पुत्रो में से रावण, कुम्भकर्ण, भ्रष्टाचारी, अधार्मिक होने से राक्षस, दस्यु, अनार्य, यातुधान कहाने लगे, पर छोटा पुत्र विभीषण धर्मात्मा होने से आर्य ही रहा। ये तो रामायण की कथा से ही सिद्ध हो जाता है, की आर्यावर्त की सीमा से बाहर भी जो दस्यु, कर्म से द्विज और वेद धर्म के पालनहारी हो, वे भी आर्य ही कहाते थे, और आज भी ऐसा ही है, क्योंकि पाप, भ्रष्टाचार और अवैदिक कर्म से ही दस्यु कहाते हैं।
अतः आक्षेपकर्ता का आरोप की वेद में दस्यु, नास्तिक मलेच्छ आदि आर्यावर्त की सीमा से बाहर के लोगो को कहते हैं, ये खंडित होता है, मगर जो काफ़िर, मुशरिक आदि शब्द अल्लाह मियां द्वारा मनुष्य में मनुष्य की लड़ाई और झगड़ा, वैमनस्य फैलाते हैं, उनपर आक्षेपकर्ता का मौन या दृढ समर्थन, इंसानियत के लिए ठीक प्रतीत नहीं होता, अतः आक्षेपकर्ता को ऐसी विकृत मानसिकता और मनुष्य की मनुष्य में वैमनस्य फैलानी वाली घृणित सोच से बचना चाहिए।
आओ लौटो वेदो की ओर
नमस्ते

ईसा (यीशु) एक झूठा मसीहा है – पार्ट 1

सभी आर्य व ईसाई मित्रो को नमस्ते।

प्रिय मित्रो, जैसे की हम सब जानते हैं – हमारे ईसाई मित्र – ईसा मसीह को परम उद्धारक और पापो का नाशक मानते हैं – इसी आधार पर वो अपने पापो के नाश के लिए ईसा को मसीह – यानी उद्धारक – खुदा का बेटा – मनुष्य का पुत्र – स्वर्ग का दाता – शांति दूत – अमन का राजकुमार – आदि आदि अनेक नामो से पुकारते हैं –

इसी आधार ईसा को पापो से मुक्त करने वाला और – स्वर्ग देने हारा – समझकर – अनेक हिन्दुओ का धर्म परिवर्तन करवाकर – उन्हें स्वर्ग की भेड़े बनने पर विवश करते हैं – ईसा का पिछलग्गू बना देते हैं – नतीजा – हिन्दू समाज धर्म को त्याग कर – मात्र स्वर्ग के झूठे लालच में ईसा के पीछे भटकता रहता है –

सोचने वाली बात है – ईसाई जो ऐसा षड्यंत्र रच रहे की ईसा से पाप मुक्ति होगी और ईसा को मानने वाला स्वर्ग में प्रवेश करेगा – क्या ये वास्तव में होगा ? क्या ये षड्यंत्र है अथवा सत्य ? क्या कभी धर्म को त्याग कर मनुष्य केवल एक भेड़ बन जाने से स्वर्ग पा सकता है ?

क्या कहती है बाइबिल ?

बाइबिल के अनुसार – सच्चे मसीह को पहिचानने के लिए बाइबिल में कुछ भविष्यवाणियां की गयी थी – जो उन भविष्यवाणियों पर खरा उतरेगा वो ही मसीह कहलायेगा – और जो भविष्यवाणियों पर खरा नहीं उतरेगा वो झूठा मसीह होगा – ऐसे मसीह अनेक आएंगे – जो खुद को ईसा और पाप का नाशक कहेंगे – मगर लोगो को सावधान रहकर – सच्चे मसीह पर विश्वास करना होगा – जो झूठे मसीह पर विश्वास करेगा – वो पापी ही कहलायेगा – वो कभी स्वर्ग नहीं जा सकता – ये बाइबिल का कहना है।

आइये एक नजर डाले – जिस ईसा पर विश्वास करके हमारे ईसाई भाई – हिन्दुओ को बहका कर उनका धर्म परिवर्तन कर रहे – वो ईसा क्या सचमुच बाइबिल के आधार पर – मुक्तिदाता है ? क्या वाकई ये ईसा – कोई मसीह है ? क्या वाकई ईसा पर विश्वास करने से मनुष्य स्वर्ग जाएगा ? कहीं ये कोई ढकोसला, अन्धविश्वास या षड्यंत्र तो नहीं ?

आइये एक नजर इसपर भी की क्या ये ईसा वही मसीह है जो खुदा का बेटा है – ये वही मसीह है जो मनुष्यो को पाप मुक्त करके स्वर्ग और सुख शांति देगा ?

मुख्यरूप से तीन भविष्यवाणियां हैं – जिनके द्वारा सच्चे मसीह को पहिचाना जा सकता है – लेकिन “ईसा” इन मुख्य तीन भविष्यवाणियों पर खरा नहीं उतरता – आइये देखे –

पहली भविष्यवाणी –

23 कि, देखो एक कुंवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी और उसका नाम इम्मानुएल रखा जाएगा जिस का अर्थ यह है “ परमेश्वर हमारे साथ”। (मत्ती अध्याय १)

इस भविष्यवाणी में कहा गया की एक कुंवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी – उसका नाम “इम्मानुएल” रखा जाएगा – लेकिन सच्चाई ये है की “ईसा” को पूरी बाइबिल में – कहीं भी – किसी ने भी – यहाँ तक की ईसा के माता पिता ने भी ईसा को “इम्मानुएल” नाम से नहीं पुकारा – न ही इस बच्चे का नाम “इम्मानुएल” रखा – देखिये –

25 और जब तक वह पुत्र न जनी तब तक वह उसके पास न गया: और उस ने उसका नाम यीशु रखा॥

जब भविष्यवाणी ही “इम्मानुएल” नाम की हुई तो क्यों “ईसा” नाम रखा गया ?

दूसरी भविष्यवाणी –

3 अपने पुत्र हमारे प्रभु यीशु मसीह के विषय में प्रतिज्ञा की थी, जो शरीर के भाव से तो दाउद के वंश से उत्पन्न हुआ। (रोमियो अध्याय १)

29 हे भाइयो, मैं उस कुलपति दाऊद के विषय में तुम से साहस के साथ कह सकता हूं कि वह तो मर गया और गाड़ा भी गया और उस की कब्र आज तक हमारे यहां वर्तमान है।
30 सो भविष्यद्वक्ता होकर और यह जानकर कि परमेश्वर ने मुझ से शपथ खाई है, कि मैं तेरे वंश में से एक व्यक्ति को तेरे सिंहासन पर बैठाऊंगा। (प्रेरितों के काम, अध्याय २)

यहाँ से साफ़ है – भविष्यवाणी हुई थी की दाऊद के वंश से – खासकर “शारीरिक वंशज” – यानी दाऊद के वंश में संतानोत्पत्ति (सेक्स) करके उत्पन्न होगा – वो मसीह होगा – लेकिन हमारे ईसाई मित्र तो कहते हैं की – मरियम – कुंवारी ही गर्भवती हुई ?

इसका मतलब – मरियम के साथ – सेक्स नहीं हुआ – फिर दाऊद का वंशज जो सिंघासन पर बैठना था – वो ईसा कैसे ?

तीसरी भविष्यवाणी –

16 क्योंकि उस से पहिले कि वह लड़का बुरे को त्यागना और भले को ग्रहण करना जाने, वह देश जिसके दोनों राजाओं से तू घबरा रहा है निर्जन हो जाएगा। (यशायाह, अध्याय 7)

यहाँ भविष्यवाणी में बताया जा रहा है – जब वो मसीह परिपक्वता, सिद्धि – प्राप्त कर लेगा – उससे पहली ही यहूदियों के दोनों देश तबाह और बर्बाद हो जाएंगे – बाइबिल के नए नियम में – इस भविष्यवाणी के बारे में कोई खबर नहीं है – यानी ईसा को जब सिद्धि हुई – तब यहूदियों के दोनों देश बर्बाद हुए – इस बारे में – नया नियम खामोश है –

इन सभी मुख्य तीन भविष्यवाणियों से सिद्ध होता है – की ईसाई समाज जिस ईसा को – खुदा का बेटा – पाप नाशक – और स्वर्ग का दाता – कहते और मानते हैं – वो ईसा तो बाइबिल के आधार पर ही – मसीह सिद्ध नहीं होता – फिर क्यों – हिन्दुओ को मुर्ख बनाकर – उनको धर्मभ्रष्ट कर के – स्वर्ग का लालच देते हैं ?

मेरे ईसाई मित्रो – ये इस कड़ी का पहला भाग है – इसका दूसरा भाग जल्दी ही मिलेगा – जिसमे – खंडन होगा ईसाइयो के उस षड्यंत्र का जिसमे जबरदस्ती ईसा को मसीह सिद्ध करने की चाल ईसाई मिशनरी – चल रही – और मनुष्य को ईश्वर की जगह शैतान की राह पर चलाने का षड्यंत्र कर रही हैं।

अभी भी समय है – मनुष्य जीवन का लाभ उठाओ – धर्म की और आओ – हिन्दुओ भेड़ बनने से अच्छा है – मनुष्य ही बने रहो – वेद की और लौटो – अपने आप ही ये धरती स्वर्ग बन जायेगी –

लौटो वेदो की और

नमस्ते

 

वर्षा और अग्निहोत्र (अग्निहोत्र की वैज्ञानिकता )

(इस लेख के शौधकर्ता स्व. मीरीलाल जी गोयल है इस लेख को हम रामनाथ वेदालंकार कि पुस्तक आर्ष ज्योति से उद्द्र्त कर रहे है )
” यह तो सभी जानते है कि बादल बनने के लिए निम्नलिखित शर्ते आवश्यक है –
(क) हवा में नमी का होना |
(ख) हवा में रेणु कणों का होना |
(ग) यदि हवा में रेणु कण न हो तो अल्ट्रा वायोलेट रेज ,एक्सरेज या रेडियम इमेनेशन गुजार कर कृत्रिम रेणु कण स्वयम बना लिए जाए | जो रेणु कणों का काम करे |
(घ) हवा को इतना ठंडा कर दिया जाए कि उस में विद्यमान पानी स्वयम जम जाए | इस अवस्था में पानी गैस के ही मौलिक्युल्स पर जम जाता है |
इन शर्तो के अतिरिक्त बादल बनने की विधि में निम्न लिखित शर्तो का जानना अत्यधिक आवश्यक है –
(ङ) हवा में नमी की राशि |
(च) वायु मंडल का ताप परिमाण
(छ) वायु के फेलने की गुंजाइश
(ज) नमी के लिए रेणु कणों के गुण ,आकार और संख्या |
यह सब बादल बनने और बरसने की विधि से स्पष्ट हो जाएगा |
बादल बनने की विधि –
पृथ्वी के वायुमंडल की दो मुख्य परते है | एक १० किलोमीटर (६ मील ) की उंचाई तक और दूसरी उपर २०० किलोमीटर (१२४ ) की उचाई तक | वर्षा के प्रकरण में हमारा सम्बन्ध १० किलोमीटर के वायुमंडल से ही है , क्यूंकि इससे उपरली परत में हवा नही जाती और इसलिए वहा बादल नही बनते | हां कभी कभी प्रबल उर्ध्वमुख वायु की धारा नमी को उपर धकेल देती है ,जिससे बादल बन जाते है वे यहा स्पष्ट हो जाएगी |
समुद्र ,नदी आदि से पानी सदा उड़ता रहता है ,परन्तु फिर भी हवा अतृप्त रहती है | इसका कारण यह है कि नमी वाली गर्म हवा उर्ध्व गति वाली हवा द्वारा ऊपर धकेल दी जाती है और वहा की शुष्क और ठंडी हवा उसके स्थान पर नीचे आती रहती है | नीचे आ कर फिर वह पानी चुसना शुरू करती है | इस प्रकार चक्कर चलता रहता है | हवा जितनी अधिक गर्म होती है उतनी अधिक नमी लेती है | १० शतांश वाली हवा ११ श. वाली होने पर पहले से दुगनी नमी ले सकती है | ०८ श. पर हवा ०.२ श. नमी से ही तृप्त हो जाती है ,परन्तु ४५ श. की हवा को ५ श. नमी की आवश्यकता होती है | हवा की फ़ालतू नमी ही ,जो उसमे उसके ताप परिमाण की दृष्टि से अधिक होती है ,ओस बिंदु की शीतलता पर रेणु कणों पर जम सकती है | रेणु कणों के प्रकरण में यह भी लिखा जाएगा कि ये जरे जितने अधिक होते है उतने ही वर्षा बिंदु छोटे होते है और जितने छोटे बनेंगे उतना ही अधिक देर तक वे बादल के रूप में उपर टिके रहेंगे | बरसेंगे नही |
गर्म और नमीदार हवा उर्ध्व गति द्वारा उपर जाकर फ़ैल जाती है , क्यूंकि उपर दबाब कम होता है | फैलने के कारण वह ठंडी हो जाती है और जम कर बादल बना देती है | बादल की शक्ल और वह ऊचाई जिसपर वह नमी से बादल बन जाता है ,हवा की गर्मी ,उस की नमी और उपर धकलने वाली हवा की तेजी पर निर्भर है | हवा का जीतना तापमान ज्यादा होगा , उसमे जितनी नमी कम होगी और वह जितनी तेजी से उपर जायगी ,उतनी ही उचाई पर बादल बनेगा | अतृप्त हवा जहा जहा १०० गज उपर चढने पर १ शतांश ठंडी होती है वहा तृप्त हवा ०.४ श. ही ठंडी होती है |
आद्र हवा उपर चढने पर जितनी उंचाई तक पहुचती है वहा के दबाव के अनुसार एक दम फैलती ,ठंडी और अतिसंपृक्त होती है और जम जाती है |वायु मंडल में ज्यो ज्यो उपर चढ़ते जाते है ,त्यों त्यों हवा की घनता कम होती जाती है | ५० किलोमीटर तक दबाब लगातार घटता जाता है और वह नमी को बादल बनाने में बहुत साहयक है |
हम उपर कह आये है कि बादल जमाने में रेणु कणों की संख्या ,गुण तथा आकार का बहुत बड़ा हाथ है |
प्रथ्वी की पहली परत में नेत्रजन ,ओषजन ,कार्वन द्विओषजिद के अतिरिक्त पानी के ठोस कण भी बहुत होते है | ये जरे भार आदि के अनुसार उपर नीचे होकर चारो तहों में विभक्त हो जाते है | हल्के उपर और भारी नीचे रहते है | चारो तहों में से पहली प्रथ्वी से १ किलोमीटर तक , दूसरी ४ किलोमीटर तक ,तीसरी १० किलोमीटर तथा चौथी १० किलोमीटर से उपर होती है | एक म्यु परिमाण से बड़े जर्रे भारी होने के कारण पृथ्वी पर गिर पड़ते है | इन जर्रो का कम अधिक होना स्थान विशेष पर धुए आदि की मात्रा के कम अधिक होने और हवा चलने पर निर्भर है | ख़ास ख़ास जगहों पर १ घन सेंटीमीटर वायु में १०० जर्रे मिलते है ,परन्तु लन्दन जैसे शहर की १ घन सेंटी वायु में वे १ लाख से १.५ लाख तक पाए जाते है | धुली कणों के अतिरिक्त आयोनाइजेशन होने के कारण उन से बनने वाले जर्रो की संख्या भी भिन्न भिन्न होती है |
जर्रो की संख्या के साथ ,बादल बनाने के लिए जर्रो का गुण अत्यंत आवश्यक है | बादल बनाने में ,द्र्वावस्था या ठोसावस्था के वे ही जर्रे काम आते है जो आद्रता चूसने वाले हो दुसरे नही | साधारण हवा में भी नत्रजन ,ओषजन तथा पानी पर सूर्य के प्रकाश के प्रभाव से आयोनाइजेशन होने के साथ साथ अमोनिया,उद्रजन ,परौषजिद और नाओ आदि बन जाते है | कोयला आदि से उत्पन्न गओ २ से गओ३ बन जाता है ,जो आद्रता को चूसने वाला है | इसी प्रकार ऋणविद्युताविष्ट आयन्स धनविद्युताविष्ट आयन्स की अपेक्षा नमी को जल्दी खींचते है ,परन्तु ६ डिग्री सुपरसेच्युरेशन पर धनविद्युताविष्टआयन्स ही अधिक काम करते है |
जर्रो के गुण के साथ उनका आकार भी ध्यान देने योग्य है | उन्नतपृष्ठ जर्रो कि अपेक्षा नतपृष्ठ जर्रो पर अधिक वाष्व जमते है | ०.६३ म्यु से छोटे जर्रे विद्युताविष्ट होने पर ही नमी को खीचते है | परन्तु ध्यान रखने योग्य बात यह है कि जर्रो पर एक बार आद्रता का परत बन जाने पर फिर नमी जमती ही जाती है ,क्यूंकि नमी नमी को खीचती चली जाती है |
यदि स्थान विशेष के जर्रो की संख्या स्थिर हो तो जितनी नमी कम होगी बिंदु उतने ही छोटे बनेंगे और वह जितनी अधिक होंगे बिंदु उतने ही बड़े बनेंगे | इसी बात को इस रूप में भी कहा जा सकता कि अधिक नमी वाली हवा जल्दी ठंडी होकर नीचे ही बादल बना लेगी और अधिक शुष्क हवा को पर्याप्त ऊचाई पर जाना पड़ेगा |
बादल बरसने की विधि –
वर्षा के विषय में मौजूद वैज्ञानिक सिद्धानात यह है कि वह उस समय होती है जब वायु की उर्ध्वगति हो | इससे हवा के साथ बादल उपर उठाता है और बहुत उपर जाने के कारण हवा की फ़ालतू नमी के बड़े बड़े बिंदु बन जाते है ,जो व्ही पर ठहर जाते है ज्यादा उपर नही जा सकते है | छोटे ,हल्के किन्तु संख्या में कम बिंदु उर्ध्वगति वाली वायु के साथ और उपर उठते है | उपर हवा अत्यधिक सम्प्रक्त होती है ,अत: उन थोड़े बिन्दुओ पर ही नमी जमनी प्रारम्भ होती है और वे पहले से बने बिन्दुओ से भी बड़े बन जाते है | अब ये बिंदु भारी होने के कारण नीचे गिरना प्रारम्भ करते है और नीचे ठहरे बिन्दुओ हुए बिन्दुओ में से गुजरते समय भिन्न विद्युत से आविष्ट या भिन्न घनता वाले होने के कारण उनसे नमी लेकर ०.४ से १ मि.मी व्यास वाले हो जाते है और फिर नीचे आने पर बरसे बिना नही रहते है | इससे स्पष्ट है कि वर्षा करने के लिए बादल में न्यूकिल्क्स का कम होना और उससे अधिक बादल का उपर चढना आवश्यक है | अन्यथा उपर के भाग में न्युकिल्यस की संख्या अधिक होने के कारण वर्षा रुक सकती है ,क्यूंकि उस अवस्था में बहुत छोटे छोटे बिंदु बनने के कारण बादल उपर ही ठहरे रहते है | बादलो की उपस्थति में अधिक आग लगने पर वर्षा हो जाने का कारण आग से उत्पन्न वायु की उर्ध्वगति ही है |
हवन गैस से वर्षा –
हवन गैस से वर्षा होने में कारण ज़हा एक सीमा तक हवन से उत्पन्न वेजले कार्बन के जर्रे है ,वहा उनसे भी अधिक घी के आद्रता चुसक जर्रे है | घी की परत वाले छोटे छोटे जर्रे नमी खीच सकते है | और एक बार नमी जमने से उन पर नमी जमती ही चली जाती है | कोयले के कई जर्रे जो घी की परत से ढक जाते है ऋणबिद्युतविष्ट देखे गये है ,जो स्वभावतय पानी को खीचते है | इस तरह साधारणतय छोटे हवन बादल बनाने और ऋतू के अनुसार वर्षा में साहयक होते है | किसी विशेष समय वर्षा लाने के लिए हवन को बड़ी मात्रा पर और विशेष विशेष पदार्थो ( जिनसे आद्रता चूसने वाले गैस या जर्रे बने ) करना आवश्यक है | बहुत बड़े हवन ही उर्ध्व गति के वायु को पैदा करके वर्षा लाने का काम कर सकते है | हवन में तेल घी जैसे आद्रता चूसने वाले पदार्थ होने के कारण बादल न होने पर भी नमी को खीच कर ,बादल बना कर वर्षा कर सकते है | जिनसे वर्षा रुक सके या बादल हट सके | इनमे ऐसे पदार्थ डाले जा सकते है जिनसे वर्षा रुक सके या बादल हट सके | इनमे ऐसे पदार्थ डाले जा सकते है जिससे बहुत मात्रा में ठोस कण बने और आद्रता को खीचने के स्थान पर उससे वाष्प बनाने का काम करे |
आशा है श्री गोयल के उक्त वैज्ञानिक विवेचन से पाठको को यह समझने में कुछ साहयता मिलेगी कि यज्ञ से वर्षा होने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्या है ?

ऋषि के पग चिन्हों पर हमारी गुजरात यात्रा- (1) – प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु

परोपकारिणी सभा ने निर्णय लिया कि महर्षि के गृह-त्याग के पश्चात् उनकी पहली व अन्तिम गुजरात यात्रा को 140 वर्ष हो गये है- इस उपलक्ष्य में गुजरात के उन स्थानों की प्रचार यात्रा की जाये। श्री डॉ. धर्मवीर जी इन दिनों प्रतिवर्ष कुछ दिन के लिए दूरस्थ स्थानों की प्रचार-यात्रा पर निकल जाते हैं। मैं भी उनके साथ जाता रहा हूँ। जहाँ आर्यसमाजें नहीं, जहाँ आर्यसमाजें बंद पड़ी हैं। जहाँ प्रचार मन्द पड़ा है, वहाँ वहाँ हम बिन बुलाये जाते रहे हैं। दक्षिण भारत में एक बार वहाँ कार्यकर्त्ताओं को कहा, भले ही सुनने वाले दो हों या चार, आप हमें अपने विचार उन तक पहुँचाने की कुछ व्यवस्था कर दें।

गुजरात यात्रा में भी भारी भीड़ व बड़े समारोह की आशा अभिलाषा लेकर हम नहीं निकले थे। ऋषि की अन्तिम यात्रा, ऋषि के व्यक्तित्व, ऋषि के दर्शन, उपकार व सुधार का गुजरात वासियों को स्मरण करवाना हमारा उद्देश्य था। हम 23 जून की प्रातः नासिक पहुँचे। भारी वर्षा में उन स्थानों को देखा जहाँ ऋषि का डेरा था, जहाँ व्यायान दिये, विरोध हुआ। यहीं पर भारत के  सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश श्री गजेन्द्रगडकर के विद्वान् पितामह को ऋषि के साथ शास्त्रार्थ करने के लिये लाया गया था परन्तु शास्त्रार्थ न हो सका। न्यायाधीश गजेन्द्रगडकर ने सन् 1964 में दयानन्द कालेज शोलापुर में अपने भाषण में महर्षि का कृतज्ञता से पुण्य स्मरण किया।

गृहत्याग के  वषरें बाद स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी (तब प्राणपुरी) को उनके पिताजी ने यहीं कुभ मेला पर पकड़ा था। आर्य यात्रियों ने गोदावरी नदी के तट पर अपने महान साधु का ‘सिद्धपुर’ भी देखा नासिक, पूना, मुबई विषयक कुछ अलय दस्तावेज तब मेरे पास थे परन्तु, वहाँ उनकी विशेष चर्चा न की जा सकी। हम वीर सावरकर के जन्म स्थान भगूर भी गये। वहाँ के आर्यमन्दिर में श्री डॉ. धर्मवीर जी ने यात्रा के उद्देश्य पर अपने विचार रखे। वानप्रस्थी नोबतराम जी,ाूपेन्द्रजी के भजन हुए। मैंने वीर सावरकर जी के ऋषि दयानन्द के प्रति उद्गार तथा उनके साहित्य में आर्य हुतात्माओं पर लिखे गये लेखों की चर्चा की। देवलाली के आर्यसमाज में भी बहुत अच्छा कार्यक्रम हुआ। देवलाली वालों नेाी अच्छी सेवा की। बड़ी श्रद्धा व प्रेम से हमें पूना के लिए विदाई दी गई। पूना जाते हुए हम सब हुतात्मा राजगुरु का स्मारक भी देखते गये।

पूना में रात के समय पिपरी समाज में हमारा कार्यक्रम रखा गया। श्री कृष्णचन्द्र जी आर्य, श्री हरिकृष्णजी, पं. धर्मवीर जी आर्य, पं. विश्वनाथ जी ने कार्यक्रम को सफल बनाने में बहुत पुरुषार्थ किया। वैदिक साहित्य की अच्छी बिक्री हुई। वर्षा के कारण पूना में ऋषि से सबन्धित स्थान यात्रियों को न दिखाये जा सके। एक समारोह एक दूसरे समाज में 26 जून को भी लखमजी वेलाणी व उनके साथियों ने रखा। पूना आगमन के समय महर्षि के व्यायानों की धूम, घोर विरोध का इतिहास सुनाया गया। यहाँ भी श्री ओम्मुनि के उद्योग से वैदिक साहित्य की अच्छी बिक्री हुई। पूना के दोनों समाजों ने परोपकारिणी सभा को अच्छा सहयोग किया।

मुबई के काकड़वाडी समाज में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। सभी ने कई दस्तावेज प्राप्त किये। श्री राघव जी ने हम लोगों से ऋषि जीवन की जी भर कर चर्चा की। आपका ऋषि जीवन का बहुत अच्छा अध्ययन है। यहाँ भी साहित्य की अच्छी बिक्री हुई। आर्य समाज मुबई क ी स्थापना से पूर्व की ऋषि की मुबई यात्रा के दस्तावेज देखकर राघव जी गद्गद् हो गये। पूछा यह सामग्री कब तक प्रकाश में आयेगी। उन्हें बताया गया कि इसका प्रकाशन सभा की प्राथमिकता है।

मुबई से यात्रा का अगला पड़ाव स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा स्थापित ऐतिहासिक गुरुकुल सूपा था। अब वहाँ एक अच्छा स्कूल चलता है। विद्यालय के अधिष्ठाता एक लगनशील आर्य पुरुष हैं। हमारे सेवा, सत्कार में गुरुकुल की सभा ने कोई कमी न छोड़ी। इस गुरुकु ल में सब आर्य नेता, विद्वान् महात्मा व बड़े-बड़े राष्ट्रीय नेता आते रहे। मैंने गुरुकुल में पैर रखते ही पुरानी पत्रिकाओं व गुरुकुल का रिकार्ड दिखाने की मांग की। गुरुकुल में अब कोई पत्रिका तो नहीं मिली परन्तु साा के अधिकारियों व श्री इन्द्रजित देव आदि विद्वानों ने गुरुकुल में सुरक्षित सारे रिकार्ड की सूक्ष्म जाँच करके बहुत कुछ प्राप्त किया।

गुरुकुल के आचार्य पद को कभी पं.वंशीधर जी विद्यालङ्कार ने भी सुशोभित किया था।

दयानन्द के वीर सैनिक बनेंगे।

दयानन्द का काम पूरा करेंगे।।

यह ऐतिहासिक गीत वहाँ आज भी गाया जाता है। मैंने उन्हें बताया की यह गीत आपकी इसी पुण्य भूमि में रचा गया था। मथुरा जन्म शतादी पर इस गीत की धूम मच गई। यह जानकर गुरुकुल वासी गौरवान्वित हो गये। मैंने अपने व्यायान में ऋषि की अन्तिम गुजरात यात्रा के साथ इस गीत की ऐतिहासिक महत्ता पर प्रकाश डाला। हैदराबाद सत्याग्रह का एक कारण यह गीत भी रहा।

हम सूपा से महत्त्वपूर्ण दस्तावेज लेकर आये। नेता जी सुभाष बोस भी कभी यहाँ रहे थे। इसके प्रमाण हमें मिल गये। परोपकारी के पाठक इस यात्रा के मधुर फल चखेंगे। जो शोध हम इस यात्रा में कर पाये उसके कारण यह यात्रा आर्य समाज के इतिहास में अविस्मरणीय रहेगी। अभी इतना ही संकेत पर्याप्त है। ‘इतिहास के हस्ताक्षर’ स्तभ में सारा आर्यजगत् इस यात्रा की एक उपलधि पर वाह। वाह। कह उठेगा।

सूपा से हम सूरत पहुँचे। वहाँ ऋषि से जुड़े स्थानों को देखना हमारी विशेष प्राथमिकता थी। समाज ने सेवा, सत्कार तो अच्छा किया। कार्यक्रम भी बहुत अच्छा था परन्तु ऋषि से जुड़े स्थानों यथा जहाँ-जहाँ व्यायान हुए, ईंटे फैंकी गईं,  जहाँ -जहाँ डेरा रहा- उनको वहाँ वालों को धुँधला सा ही ज्ञान था। मैं ऐसी पूरी जानकारी लेकर यात्रा पर निकला था। वहाँ केन्द्रीय विद्यालय तथा अणुमाला में कई आर्य थे। वे वहाँ से समाज में आते भी हैं। चालीस किलोमीटर से वे आ सकते थे परन्तु समाज वालों के पास उनके मो. नं. ही न थे। हमारे आर्य युवक समाज अबोहर के श्री कोमल का नबर खोजकर मेरे से बात करवाई गई। वह तब गाड़ी पर सवार कहीं जा रहे थे।

महाकवि नर्मदाशंकर के घर की समाज को जानकारी नहीं थी। इन्हीं के निमन्त्रण पर ऋषि सूरत पधारे थे। जहां ईंटें बरसाई गई, वह स्थान दिखाया गया। हमने अड़ोस-पड़ोस से पूछा, क्या यह भवन कभी मन्दिर था? यहाँ कौन रहता था? बताया गया कि कोने पर खड़ा दुकानदार बता सकेगा। मैंने उससे पूछा तो वह तपाक से बोला, ‘‘यह महाकवि नर्मदाशंकर का घर रहा है।’’ यह सुनकर हम आनन्दित हुए। तब सूरत वालों को भी बताया कि यहाँ मकान के पास ऋषि का व्यायान करवाया गया था। यहीं ईंटें धूलि फैं की गई। हमने इसके चित्र लिये और एक शिला लगवाने की प्रेरणा दी।

समाज की स्थापना के समय का एक चित्र देखा। बापू गांधी उद्घाटन के लिए आये थे। पूज्य देहलवी जी भी आमन्त्रित थे। वह ग्रुप फोटो दोषयुक्त पाया। फोटो में देहलवी जी की ऊँचाई गांधी जी के बराबर पाई। देहलवी जी तो बहुत ऊँचे थे। समाज के लोग वर्तमान मन्दिर को ही उस समय का मन्दिर माने बैठे थे। उनका भ्रम भञ्जन करके यथार्थ इतिहास की जानकारी दी।

मैं यात्रा के आरभ से ही कतर ग्राम जाने की बात कहता रहा परन्तु, ऐसा न हो सका। वहाँ अजमेर के दो भाई तथा भिवानी के श्री निडर जी का पौत्र अन्त में मिलने आये। यदि वे पहले मिल जाते तो हम कतर की यात्रा भी कर सकते थे।

सूरत से भरुच को प्रस्थान किया। सब जाम में फंस गये। श्री भावेश जी के चलभाष आते रहे। जैसे कैसे हम में से कुछ भरुच के कार्यक्रम में पहुँच गये। एक गाड़ी कई घण्टे के पश्चात् भरुच के समीप पहुँची। श्री भावेश व उनकी पत्नी जी वहीं मिलने आ गये। उनके अनुरोध पर हम रात उनके निवास पर रुके। देर रात उनसे चर्चा होती रही। उनके महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर दिये। दयालमुनि जी की नई पुस्तक को हिन्दी में तैयार करने पर उन्हें बधाई दी। आपने बहुत सेवा की। उनके सुपुत्र से न मिल सका, इसका मुझे खेद रहा।

बड़ोदरा की यात्रा अच्छी तो रही। भजन, उपदेश व व्यायान सब कुछ हुआ। आर्य समाज के सब सज्जनों में उत्साह का संचार हुआ। मैंने यहाँ भी ऋषि के काल तथा आर्य समाज के आरभिक काल के सब महत्त्वपूर्ण प्रसंग सुनाये आर्य पुरुषों को यह पता ही नहीं था कि बड़ौदा में दलितोद्धार के डॉ. चिरञ्जीव जी ने क्या-क्या कष्ट झेले। बैरिस्टर मणिलाल यहीं आर्य बनकर संघर्ष करते रहे। महात्मा आत्माराम अमृतसरी की तपस्या, डॉ. अबेडकर जी के निर्माण, पं. ज्ञानेश्वरजी सिद्धान्त भूषण के तप त्याग का इतिहास सुनाया।

राजमाता यमुनाबाई व दीवान टी. माधवराव जी की ऋषि से जुड़ी घटनायें सुनाई। शिला यहाँ भी आर्यसमाज कहीं भी नहीं लगवा सका। करोड़ों की संस्थायें लुट गई हैं। मन्दिर अब नया क्रय किया गया है। मास्टर आत्माराम जी की पत्नी की बेजोड़ तपस्या सारा गुजरात भूल चुका है। दलित वर्ग उनकी साधना को नहीं जानता। प्रबुद्ध वर्ग पूज्य मास्टर जी की भूत बंगले की कहानी कोई कतई नहीं जानता गुजरात के कई पुराने परिवारों के सुपठित जन बड़ौदा में हैं परन्तु सत्संग में नहीं दिखे। डॉ. धर्मवीर जी ने अत्यन्त मौलिक प्रवचन दिया।

बडौदा से हमने अहमदाबाद के लिए प्रस्थान किया। अहमदाबाद की सफलताओं का मुय श्रेय श्रीमान् पं. कमलेश जी शास्त्री तथा श्री पूनम चन्द जी को प्राप्त है। यदि अगले पड़ाव पर पहुँचने से पहले कोई स्थानीय व्यक्ति पहले पड़ाव पर मार्गदर्शन के लिए पहुँच जाता तो यात्रा का लाभ कई गुना होता परन्तु आर्यों ने कहीं ऐसी सूझ न दिखाई। पूनमचन्द जी ने तथा मान्य कमलेश जी ने बहुत समय देकर इस नगर की यात्रा को बहुत सार्थक बनाया। अहमदाबाद में बड़ी संया में मेधावी युवक-युवतियों से मिलकर हम आनन्दित हुए। आचार्य सोमदेव जी, आचार्य कर्मवीर जी, मान्य धर्मवीर जी सबके व्यायान प्रवचन हुए। भूपेन्द्र जी व नौबत राम जी ने समा बाँध दिया। ओम्मुनि जी ने अपने ओजस्वी भाषण में वैदिक साहित्य के प्रसार की तथा अपने-अपने क्षेत्र में वेद प्रचार यात्रायें निकालने की प्रबल प्रेरणा दी। यहाँ कुछ उत्साही आर्य बन्धुओं ने एक वैदिक संस्थान बनाकर लेखनी व वाणी से वैदिक धर्म प्रचार का अच्छा अभियान चला रखा है। इस संस्थान ने भी एक सभा का आयोजन किया।

यात्रा में मुझे यह लगा कि आर्यसमाज के मन्दिर संग्रहालय, चित्रशाला व विवाह घर का रूप धारण करते  जा रहे हैं। आर्य मन्दिर दूसरों के हाथ में चले जायेंगे। आर्य बलिदानियों, विद्वानों, महापुरुषों के चित्र कम और राजनैतिक व्यक्तियों के चित्रों की सत्संग भवनों में भरमार देखी। ऋषि जी के पश्चात् पहले गुजराती वैदिक विद्वान् पं. ज्ञानेन्द्र जी सरीखे नेता को जानने वाला मात्र एक व्यक्ति मिला। उनका चित्र कहीं नहीं देखा। यह चिन्ता का विषय है।

भावनगर में भी कार्यक्रम अच्छा हुआ। यहाँ गाजियाबाद के श्री लक्ष्मण जी जिज्ञासु के एक प्रेमी आर्यवीर मिलने आये। वैद्यराज श्री महेश भाई जी वैदिक साहित्य के प्रसार में लगे रहते हैं। भवन तो समाज बनाता जा रहा है। व्यक्तियों का निर्माण न किया तो भावनगर जैसे भव्य भवनों की गतिाी वही होगी जो बड़ौदा के कन्या गुरुकुल की हुई है। वैदिक सिद्धान्तों के प्रचार के लिए समाज घर से निकलकर सपर्क साधें? चलााष तो साधन है। इसे मिशनरी मानना भारी भूल है। भावनगर के युवा पुरोहित जी ने कार्यक्रम को सफल बनाने में अच्छी रुचि ली।

भावनगर से हम सोनगढ़ गुरुकुल होते हुए जूनागढ़ गये। जूनागढ़ के  प्रधानजी बहुत अनुभवी कृषि वैज्ञानिक हैं। आपसे हम लोगों ने कई विषयों पर बातचीत की। समाज के विशाल भवन में हमारे रहने की व्यवस्था की गई। कार्यक्रम भी रखा गया। श्री पुरोहित जी ने अच्छा सहयोग किया। कुछ ऐतिहासिक स्थान भी देखे। दो युवकों से श्रीयुत इन्द्रजित देव व मैंने पूछा कितने भगवानों को मानते हो। एक ने कहा मैं तो भैरव की पूजा करता हूँ और यह देवी की। वैसे भगवान् अनेक हैं। मैंने कहा, नये-नये भगवान् जन्म ले रहे हैं। क्या कोई भगवान मरााी है। उसने कहा, ‘‘कुछ तो मरे भी होंगे।’’ यह है हिन्दू की सोच व धर्मशास्त्रों का ज्ञान।  उसी ने कहा,गांधीजी, स्वामी विवेकानन्द सब भगवान् हैं । ये गुजरात के ही थे। ऋषि दयानन्द का नाम तो सुन रखा है परन्तु वे गुजराती नहीं थे। गुजरात के सब नगरों में स्वामी विवेकानन्द जी की विशाल प्रतिमायें स्थापित हो चुकी हैं। मूर्तियाँ लगाने से क्या देशवासी सुधरेंगे और धार्मिक बनेंगे, यह अगले पाँच दस वर्षों में और पता चल जायेगा। अभी तो मूर्तियों का रख-रखाव ही एक समस्या बनता जा रहा है। जूनागढ़ से हम पोरबन्दर गये। आर्य समाज के प्रधान जी हमें मिलने पहुँच गये। प्रयाग के आर्य मन्दिर में माता कला देवी का चित्र देखा तो पोरबन्दर में पण्डिता सुशीला जी का चित्र देखकर हमें हर्ष हुआ। गुजरात में केवल यहीं पूज्य पं. आत्माराम जी का चित्र देखा। नानजी भाई कालीदास मेहता का कन्यागुरुकुल व कीर्ति मन्दिर गांधीजी का जन्म गृहाी देखे। पं. ज्ञानेन्द्रजी, महात्मा नारायण स्वामी जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी, दक्षिण के किसी हुतात्मा का किसीाी समाज में कोई चित्र कहीं भी दिखाई न दिया। कई मत पंथों व राजनीति के क्षेत्र के बड़े-बड़े लोगों के चित्र सत्संग भवनों में बहुत नगरों में देखे गये। घुसपैठ करने वाले समय पाकर हमारे मन्दिराी हड़प लेंगे। पोरबन्दर का समाज जागरुक लगा। पुस्तकालयाी यहाँ का अच्छा है। कन्या गुरुकुल मेंाी जान दिखाई दी। सर्वत्र अपने-अपने क्षेत्र में प्रचार यात्रायें निकालने की हमने प्रेरणा दी।

गुजरात निवासियों को सर्वत्र यह जानकर गौरव हुआ कि ऋषि दयानन्द प्रथम भारतीय सुधारक विचारक थे जिनका चित्र अमरीका के एक पत्र में छपा था। वह चित्र शीघ्र परोपकारी में छपेगा। आर्यसमाज की स्थापना से बहुत पहले पश्चिम में ऋषि की काशी विजय की धूम मच गई। ऐसी ऐसी घटनाओं की हमने नगर-नगर घूम-घूमकर जानकारी दी।

राजकोट का समाज मन्दिर खोजने में ही बहुत समय नष्ट हो गया। वहाँ न तो हम राजकुमार कालेज ही देख पाये और न धर्मशाला चौक का वह स्थल देख सके जहाँ ऋषि ने ऐतिहासिक भाषण दिया था। ऋषि से जुड़ा एक भी स्थान न देख पाये। राजकुमार कालेज तथा धर्मशाला चौक में स्मारक शिला लगवानेकी प्रेरणा समाज को दी गई। समाज मन्दिर में तो राजकोट की घटनाओं की शिला लग ही सकती है। कहीं-कहीं आर्यवीर दल की शाखायें देाकर प्रसन्नता हुई। बड़ी-बड़ी समाजों के सदस्य व अधिकारी अपने नगर के आस-पास प्रचारार्थ कुछ समय दें तो जागृति आ सकती है। बिना सपर्क किये, बिना समय  दिये कोई मिशन नहीं फै लता। यह सीख सर्वत्र देते गये।   क्रमशः)

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116

वेदो का विज्ञानं मानवमात्र के लिए

।। ओ३म ।।

अयं त इध्म आत्मा जातवेदः।

“हे अग्ने ! तेरे लिए सबसे पहला ईंधन “अयं आत्मा” – अर्थात यह यजमान – स्वयं है।”

वेदो का विज्ञानं मानवमात्र के लिए :

क्षयरोग (TB – Tuberculosis) से बचाव और उपचार करता है यज्ञ।

सूर्य का प्रकाश मनुष्य के लिए वैसे भी लाभदायक है। इससे शरीर में विटामिन डी बनता है, जिससे हड्डियां पुष्ट होती हैं। उदय और अस्त होने वाले सूर्य की किरणे तो और भी अधिक गुणकारी होती हैं।

उद्यन्नादित्यः क्रिमिहन्तु निम्रोचन्हन्तु रश्मिभिः।
ये अन्तः क्रिमयो गवि।।

(अथर्ववेद २।३२।१)

“उदय होता हुआ और अस्त होने वाला सूर्य अपनी किरणों से भूमि और शरीर में रहने वाले रोगजनक कीटो का नाश करता है।”

सूर्य का प्रकाश कृमिनाशक है। रोबर्ट काउच ने सन १८९० में अनेको प्रयोगो द्वारा यह सिद्ध किया की क्षयरोग (फेफड़ो के क्षयरोग को छोड़कर) के कीटाणु इस प्रकाश में दस मिनट से अधिक समय तक जीवित जीवित नहीं रह सकते। इसलिए क्षयरोग से ग्रस्त व्यक्ति को धुप सेकनी चाहिए।

संभवतः जनसाधारण में इसको यह कहकर मान्यता प्रदान की जाती है की अँधेरे में क्षयरोग फूलता फलता है तथा प्रकाश में यह दम दबाकर भाग जाता है।

अतः यज्ञ के लिए सूर्योदय के पश्चात तथा सूर्यास्त से पूर्व का समय ही ठीक है।

आधुनिक विज्ञानं के अनुसार सूर्य की धुप क्षयरोग के लिए बचाव और उपचार दोनों है

http://www.dailymail.co.uk/…/Sunshine-vitamin-helps-treat-p…

अब इस समय पर यज्ञ करना लाभदायक ही होगा क्योंकि यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली सामग्री में मुख्य रूप से गौघृत, खांड अथवा शक्कर, मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फल जिनमे शक्कर अधिक होती है, चावल, केसर और कपूर आदि के संतुलित मिश्रण से बनी होती है।

अब इस विषय पर कुछ वैज्ञानिको के विचार :

१. फ्रांस के विज्ञानवेत्ता ट्रिलवर्ट कहते हैं : जलती हुई शक्कर में वायु – शुद्ध करने की बहुत बड़ी शक्ति होती है। इससे क्षय, चेचक, हैजा आदि रोग तुरंत नष्ट हो जाते हैं।

२. डॉक्टर एम टैल्ट्र ने मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फलो को जलाकर देखा है। वे इस निर्णय पर पहुंचे हैं की इनके धुंए में टायफाइड ज्वर के रोगकीट केवल तीस मिनट तथा दूसरी व्याधियों के रोगाणु घंटे – दो घंटे में मर जाते हैं।

३. प्लेग के दिनों में अब भी गंधक जलाई जाती है, क्योंकि इसमें रोगकीट नष्ट होते हैं। अंग्रेजी शासनकाल में डाकटर करनल किंग, आई एम एस, मद्रास के सेनेटरी कमिश्नर थे। उनके समय में वहां प्लेग फ़ैल गया। तब १५ मार्च १८९८ को मद्रास विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के समक्ष भाषण देते हुए उन्होंने कहा था – “घी और चावल में केसर मिलकर अग्नि में जलाने से प्लेग से बचा जा सकता है।” इस भाषण का सार श्री हैफकिन ने “ब्यूबॉनिक प्लेग” नामक पुस्तक मे देते हुए लिखा है, “हवन करना लाभदायक और बुद्धिमत्ता की बात है।”

महर्षि दयानंद ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है :

“जब तक इस होम करने का प्रचार रहा ये तब तक ये आर्यवर्त देश रोगो से रहित और सुखो से पूरित था अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाए।”

(स. प्र. तृतीय समुल्लास)

यहाँ ऋषि इसी विज्ञानं को समझाने की कोशिश कर रहे हैं जो आज का आधुनिक विज्ञानं मानता है।

कृपया यज्ञ करे – राष्ट्र और पर्यावण को सुखी बनाये

आओ लौटो वेदो की और।

नमस्ते

नोट : इस पोस्ट की कुछ सामग्री “यज्ञ विमर्श” पुस्तक से उद्धृत है।

आम आदमी पार्टी की वास्तविकता

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‘आप’ का बनना, चुनाव लड़ना, सरकार बनाना, सब कुछ अप्रत्याशित लगता है | जिस आशा के साथ इस पार्टी का निर्माण हुआ, उतनी ही निराशा इसके काम से है | इसके बनने के कारण में सामान्यजन की पीड़ा मुख्य है | इस पीड़ा का मूल शासन-प्रशासन में व्याप्त रिश्वतखोरी है | जिसके कारण नियम, व्यवस्था सब कुछ निरर्थक हो गई है| इस घूसखोरी के कारण सामान्य मनुष्य का जीवन कठिनाई में पद गया है | जिसका काम नियम से होना चाहिए, उसका काम नहीं होता | जिसका काम होने योग्य नहीं है, उसका काम पैसे देकर हो जाता है | इस कुचक्र में सामान्यजन फंस कर रह गया है, इस विवशता को उसने नियति मान लिया था | ऐसे समय में उसकी पीड़ा को छूने का काम इन वर्षों में हुआ है | आप पार्टी ने भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर जनता से समर्थन माँगा, परन्तु आज सरकार में बैठकर आदर्श की बात को व्यवहार के धरातल पर लाने में असफल हो गई | इसके कारण पर विचार करने पर एक बार स्पष्ट होती है की भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर सरकार बनाने वाले स्वयं भ्रष्टाचार के दोषी है |

भ्रष्टाचार को हमने बहुत संकुचित अर्थ में लिया है | भ्रष्टाचार शब्द पुरे आचरण की भ्रष्टता की बात करता है | केवल पैसे के या घुस लेने की बात भ्रष्टाचार नहीं है | घुस लेना तो बहुत मोटा अर्थ है | वास्तव में भ्रष्टाचार विचारों से प्रारम्भ होता है | जिनके विचार पवित्र नहीं है, उनका आचरण कैसे पवित्र हो सकता है ? भ्रष्टाचार मिटाने वालों के चरित्र और विचारों को देखने से उनके भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने की इच्छा-शक्ति का पता लगता है | आप पार्टी के लोगों की जड़ों तक जाने पर आपको पता लगता है की ये उन विचारों का प्रतिनिधित्व करते है, जो इस देश के आचार-विचार और परम्परा से सहमति नहीं रखते | इनके सामने संकट भ्रष्टाचार नहीं है, भ्रष्टाचार को तो इन्होने लड़ाई के साधन के रूप में काम में लिया है | आप पार्टी के नेता केजरीवाल जहाँ खड़े होकर लड़ रहे हैं वह स्थान ही भ्रष्टाचार का उद्गम स्थल है | आधुनिक पठित वर्ग में सामाजिक लड़ाई वाले वर्ग का नाम गैर सरकारी संगठन है | इसे एनजीओ के नाम से जाना जाता है | भारत में चलने वाले ऐसे संगठनों की जांच पड़ताल में पाया गया है की अधिकाँश ऐसे स्वयंसेवी संगठन केवल कागजों पर काम करते हैं | जो संगठन या समाज संघर्ष करते हैं, उनका संघर्ष उद्देश्य के लिए नहीं होता | ये संगठन उन लोगों के संकेत पर नाचते है, जो इनको पैसा देते है | जो लोग इस प्रकार के संगठनों को पैसा देते है, उनका वास्तविक उद्देश्य संघर्ष करने वाले लोगों को अपने विरोधी को नष्ट करने में लगाना तथा ऐसे लोगों को सुविधाजीवी बनाकर उनको सामर्थ्यहीन करना होता है |

आप पार्टी के कार्यकर्ताओं का चरित्र देखेंगे तो यह स्पष्ट हो जाएगा | भाजपा के नेता हर्षवर्धन ने सदन में केजरीवाल और सिसोदिया पर आरोप लगाया था की इनके संगठनों ने फोर्ड फाउंडेशन से लाखों रुपये की सहायता ली है | आश्चर्य की बात है की केजरीवाल ने अपने उतर में इसकी चर्चा तक नहीं की | जो लोग विदेशी सहायता के तथ्य को समझते है, वे जानते हैं की ये संगठन आकर्षक सुन्दर नामों से काम करने वाले संगठनों से इस देश को तोड़ने और यहाँ की संस्कृति को निंदनीय बताकर उसे नष्ट करने के लिए बड़ी माता में धन देते हैं | इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है | पिछले वर्षों में फोर्ड फाउंडेशन ने विश्वविद्यालयों को अपनी कार्ययोजना को क्रियान्वित करने के लिए बहुत धन दिया, उसमें एक योजना थी- भारत की अनेकता में एकता | इस कार्यक्रम में लगता तो ऐसा है की जैसे बंटे हुए देश को एक करने का कार्य किया जा रहा है, परन्तु इसमें अलगाववाद को बढ़ावा देना इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य है | ये संगठन चर्च के माध्यम से समाज सुधार का काम करते हैं, परन्तु इनका उद्देश्य हिन्दू  समाज में विघटन उत्पन्न करके उसको बिगाड़ना हैं | इस फाउंडेशन की सहायता लेने वाले केजरीवाल किस रास्ते से देश की उन्नति करना चाहते हैं | यह पता लग जाता है | केजरीवाल को सामाजिक आन्दोलन में लाने वालो सुचना के अधिकार के आन्दोलन के लिए काम करने वाली श्रीमति अरुणा राय थीं | इस सब की पृष्ठभूमि देखने पर ज्ञात होता है की ये कांग्रेस, कम्युनिष्ट तथा विदेशी धन पर काम करने वाले संगठनों से जुड़े है | जो लोग सता में रहे हैं, सता के सहयोगी रहे हैं, वे एकाएक कैसे भ्रष्टाचार को मिटाने के अगुवा बन बैठे, यह समझने की बात है | अरविन्द केजरीवाल, अरुणा राय के दल के सदस्य हैं और अरुणा राय सोनिया गांधी की सलाहकारों में है | जो व्यक्ति सोनिया गांधी के सहयोगियों में हो, वह कौन से भ्रष्टाचार को हटाने की बात कर रहे हैं यह विचारणीय है | जो सरकार देश में अब तक सबसे अधिक भ्रष्टाचार में लिप्त रही है, उनके सहयोगी आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे हैं |

भ्रष्टाचार केवल पैसे से नहीं होता, आचरण एक व्यापक शब्द है | इसका सम्बन्ध जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से है | जो व्यक्ति स्वयं के व्यक्तिगत जीवन में भ्रष्टाचार का दोषी रहा हो, वह आज भी, आचरण से दूर कैसे रह सकता है | भ्रष्टाचार के विरुद्ध ‘आप’ का आन्दोलन एक नारे से आगे नहीं बढ़ सका है | झूठ बोलना, दूसरों पर दोषारोपण करना भी तो भ्रष्टाचार की श्रेणी में ही आता है | आज आप पार्टी भ्रष्टाचार के आन्दोलन को कांग्रेस की नीतियों के बचाव के लिए लड़ रही है | सामान्यजन की बात करने वाला केवल पैसे के बेईमानी की बात करता हैं, राष्ट्रद्रोह के विरोध में बोलना उचित नहीं समझता, सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद् अल्पसंख्यकों के नाम पर हिन्दू समाज को कुचलने के लिए कानून बनाने के लिए तैयार खड़ी हैं, क्या यह आचरण देश और समाज के साथ भ्रष्टाचार नहीं है ? ऐसे लोगों को बचाने के लिए ही आप पार्टी का आन्दोलन है | कांग्रेस को आज भारतीय जनता पार्टी और मोदी से भय है और आप पार्टी भ्रष्टाचार के नाम पर मोदी विरोध करके देश के कांग्रेस विरोधी आन्दोलन को असफल करने के प्रयास में है | यह इमानदारी के नाम पर खेला जाने वाला बैईमानी का खेल है | इसी प्रकार आप पार्टी के अन्य नेताओं का भी इतिहास है | आज इंटरनेट ने जनता को सबकुछ सुलभ करा दिया है |

केजरीवाल के दुसरे साथी मनीष सिसोदिया भी अरुणा राय के दल के सदस्य है | यह कैसे माना जा सकता है, जो व्यक्ति कल तक कांग्रेस और कम्युनिस्टों के साथ काम कर रहा था आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहा है | यदि लड़ाई केवल भ्रष्टाचार के विरुद्ध हो तो सबसे पहले भ्रष्ट सरकार को केंद्र से हटाने की आवश्यकता है | आप में मुख्यमन्त्री से नेता तक अराजकता फैलाने को भ्रष्टाचार मिटाना कहते है | सदन में अराजकता तो सड़क पर अराजकता, इससे लाभ यह होता है की जनता का ध्यान मुख्य काम से हट जाता है | लोग इनके आचरण के पक्ष-विपक्ष बनकर विवाद में उलझे रहते है | दिल्ली सरकार के मन्त्री मनीष सिसोदिया भी स्वयं-सेवी संगठन चलाते रहे हैं और केजरीवाल के साथ अन्ना आन्दोलन में भाग लेकर आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन के अगुआ बने हुए हैं | आप पार्टी में विवादास्पद लोगों की भरमार हैं, इनमें एक नाम है- वकील प्रशांत भूषण | इनकी विशेषता है की नक्सलवादी लोग वार्ता के लिए इनको अपना मध्यस्थ मानते हैं | इसी से इनकी विचारधारा का पता लगता है | जो व्यक्ति देश के साथ द्रोह करता हो वह भ्रष्टाचार विरोधी नारों का खोखलापन प्रमाणित हो जाता है | इतना ही नहीं, प्रशांत भूषण को यह गौरव भी प्राप्त है की वे आज भी कश्मीर में जनमत की बात करते हैं | उनके विचार से कश्मीर के आतंकवादियों के विरुद्ध सेना की नियुक्ति वहां की जनता से पूछकर की जानी चाहिए | प्रशांत भूषण अपने राष्ट्र विरोधी वक्तव्यों के कारण हर समय विवाद में बने रहते हैं | समाचार देखने वाले जानते हैं की अमेरिका का एक संगठन जो कश्मीर के विषय में पाकिस्तानी  पक्ष पर अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियां  करता था, जिनमें बड़े-बड़े पत्रकार, लेखक भाग लेते थे और पाकिस्तान के पैसे पर विदेश यात्रा का आनन्द उठाते थे | जब उस संगठन को चलाने वाले की करतूतें समाचार पत्रों में आई तो प्रशांत भूषण जैसे लोगों ने बड़े भोलेपन से कह दिया की हमें तो पता नहीं था | इन कार्यों से ही इनके भ्रष्टाचार विरोधी होने का पता चल जाता हैं | ऐसे लोग भ्रष्टाचार विरोध के नाम पर भ्रष्ट सरकार और विदेशी शक्तियों का बचाव करने में लगे हैं |

आप के एक और प्रमुख सदस्य योगेन्द्र यादव भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में जुड़े, ये भी सोनियां गांधी की सलाहकार परिषद् के सदस्य थे | सोनियां गांधी के कारण विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सदस्य भी बन गए थे | बड़े मृदुभाषी हैं, यदि सोनियां गांधी भ्रष्ट नहीं है तो उनके सलाहकार कैसे भ्रष्ट हो सकते है | सोचने की बात है जो कल तक भ्रष्टाचार करने वालों के दल में थे, आज वे भ्रष्टाचार के विरोध में आन्दोलन में सूत्रधार बन गए | इनके भ्रष्टाचार मुक्त होने की इससे बड़ी कसौटी और क्या हो सकती है | आप पार्टी के प्रवक्ता गोपाल राय तो प्रारम्भ से साम्यवादी दल की ओर से छात्र संघ के अध्यक्ष रहे हैं | साम्यवादी दल की पवित्रता तो सामान्य तो सामान्य व्यक्ति जानता हैं | साम्यवाद का सूत्र संस्कृत-संस्कृति, हिंदी-हिन्दू का विरोध करना इन्हें मान्य है और ये भी देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने में देश को दिशा दे रहे हैं ?

वास्तव में ये आम शब्द के अपहरण जैसा है, जिसका आम आदमी के साथ सम्बन्ध नहीं वह आम की टोपी लगाकर आज ख़ास बन बैठा | बस ख़ास बनने के लिए आम बनने का नाटक है | यदि वास्तव में आम है तो इस देश में अर्थ से भी बड़ा अनर्थ, अर्थ से बड़ा भ्रष्टाचार भाषा का है | सामान्य मनुष्य का कष्ट रिश्वत से उतना नहीं है, जितना उसको बलपूर्वक विदेशी भाषा में व्यवहार करने में है | यदि कोई आम आदमी की बात करेगा तो उसे आम आदमी की भाषा में बात करनी होगी | क्या केजरीवाल की सरकार में दम है की वह आम आदमी को भाषा के भ्रष्टाचार से बचा सके ? संभवतः ऐसा प्रश्न आने पर इसे करने का साहस दिखा सके, इसमें संदेह है | वास्तविकता तो यह है की पिछले वर्षों में स्वामी रामदेव ने जो भ्रष्टाचार के विरोध में जो आन्दोलन वर्षों के प्रयास से खड़ा किया था | जिसके प्रभाव ने रामलीला मैदान में एक लाख लोगों को एकत्र कर जन आन्दोलन का रूप दिया था, उसे अरविन्द केजरीवाल ने अन्ना को जंतर-मंतर पर बैठा कर स्वामी रामदेव से झटक लिया और अन्ना को छोड़ आन्दोलन को अपने साथ जोड़कर दिल्ली की सता तक पहुँच गए | यदि केजरीवाल आम आदमी हैं वे आदमी की पीड़ा समझते है तो भ्रष्टाचार से मुक्ति दिला सकते है | अरविन्द केजरीवाल ने भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में उन सबको ठगा है, जो भ्रष्टाचार समाप्ति की आशा से उनके साथ आये थे | आज वे सोचते होंगे की उन्हें कैसे मुर्ख बनाया गया |

नीतिकार ने ठीक ही कहा है—

प्रथमस्तावदहं मूर्खः द्वितीयो पाक्षबन्धकः,

ततो राजा च मन्त्री च सर्वं वे मुर्खमंडलम |

           -धर्मवीर

आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था उचित नहीं, क्यों? और विकल्प

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आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था उचित नहीं, क्यों? और विकल्प

 यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि इस संसार में मानव ऐसा प्राणी है जिसकी सर्वविध उन्नति कृत्रिम है, स्वाभाविक नहीं। शैशवकाल में बोलने, चलने आदि की क्रियाओं से लेकर बड़े होने तक सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने हेतु उसे पराश्रित ही रहना होता है, दूसरे ही उसके मार्गदर्शक होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि समय-समय पर विविध माध्यमों अथवा व्यवहारों से मानव में अन्यों के द्वारा गुणों का आधान किया जाता है। यदि ऐसा न किया जाये, तो, मानव ने आज के युग में कितनी ही भौतिक उन्नति क्यों न कर ली हो, वह निपट मूर्ख और एक पशु से अधिक कुछ नहीं हो सकता -यह नितान्त सत्य है। अतः सृष्टि के आदि, वेदों के आविर्भाव से लेकर आज तक मानव को जैसा वातावरण, समाज व शिक्षा मिलती रही वह वैसा ही बनता चला गया, क्योंकि ये ही वे माध्यम हैं, जिनसे एक बच्चा कृत्रिम उन्नति करता है और बाद में अपने ज्ञान तथा तपोबल के आधार पर विशेष विचारमन्थन और अनुसन्धान द्वारा उत्तरोत्तर ऊँचाइयों को छूता चला जाता है। इस जगतीतल में आज जितना बुद्धिवैभव और भौतिक उन्नति दृष्टिपथ में आती है, वह पूर्वजों की शिक्षाओं का प्रतिफल है। उसके लिए हम उन के ऋणी हैं। वे ही हमारे परोक्ष शिक्षक हैं। यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। अतः सामान्यतः कहा जा सकता है कि मानव की उन्नति की साधिका शिक्षा है। जिसका वैदिक स्वरूप इसप्रकार है- जिस से विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और अविद्यादि दोष छूटें उस को शिक्षा कहते हैं।(सत्यार्थप्रकाश के अन्त में दत्त स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में शिक्षा की परिभाषा।) ऐसे उत्कृष्ट स्वरूप वाली शिक्षा से एक व्यक्ति मानव बनता है और मानवों का समुदाय समाज कहलाता है। यदि शिक्षा समाज में रहकर दी जा रही है तो उसका प्रभाव शिक्षार्थी पर पड़ना अवश्यम्भावी है। वह वैसा ही बनता है जैसा समाज है। प्राचीन काल में शिक्षारूप यह उच्च कोटि का कार्य नगरों और गाँवों से दूर रहकर शान्त, स्वच्छ और सुरम्य प्रकृति की गोद में किया जाता था। दोनों में क्या भेद है, इसको समाजों के तुलनात्मक अध्ययन से समझा जा सकता है। अतः प्राचीन और आधुनिक समाज की संक्षेप में समीक्षा करते हैं, जिससे शिक्षा कहाँ और कैसे वातावरण में दी जानी चाहिए यह भी स्वतः स्पष्ट हो जायेगा। ततः आधुनिक शिक्षा के उद्देश्य आदि पर विचार कर उसका विकल्प सूच्य रहेगा।

प्राचीन समाज-

प्राचीन भारत की सामाजिक स्थिति को जानने के लिए तात्कालिक साहित्य ही एक मात्र शरण है। उस काल में संस्कृत ही बोलचाल और लेखन की भाषा थी, अतः उसमें उपलब्ध वेदेतर ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद् आदि वैदिकवाङ्मय और वाल्मीकिरामायण, माहाभारत आदि लौकिक साहित्य का विशाल भण्डार सहायक बनेगा। उन सभी से प्रमाणों की झड़ी लगाई जा सकती है, लेकिन दो तीन बहुश्रुत ग्रन्थों का ही उल्लेख हमारे अभीष्ट को सिद्ध करने में पर्याप्त होगा। उस समय शिक्षा के केन्द्र ऋषि, मुनियों के आश्रमस्थल होते थे, जो यजुर्वेदीय मंत्र उपह्वरे गिरीणां सङ्गमे च नदीनाम्। धिया विप्रो ऽ अजायत।। (यजुर्वेद २6.१५) के प्रतिबिम्बरूप थे, जिसके अनुसार पर्वतों के पार्श्ववर्तीभाग और नदियों के संगम स्थान पर प्राकृतिक स्वच्छ वातावरण में श्रेष्ठबुद्धि का विकास उत्तमोत्तम हुआ करता है। इसीलिए वहाँ के समाज की सर्वविध समृद्धि आज से भी उन्नत दिखाई देती है। राजा अश्वघोष की विचारोत्तेजक ये पंक्तियाँ- न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः। नानाहिताग्निर्नाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः।। (छान्दोग्योपनिषद् 5.11.5) प्राचीन भारत के गौरव को डिण्डिमघोष के साथ कहती हुई समाज की उन्नत स्थिति को ही स्पष्टतः वर्णित करती है। जिसमें अश्वघोष की गर्वोक्ति है कि मेरे किसी जनपद में कोई चोर, कृपण और शराबी नहीं है। न कोई अग्निहोत्र न करने वाला और अविद्वान् है। कोई स्वेच्छाचारी मनुष्य नहीं तो स्वेच्छाचारिणी स्त्री कहाँ से होगी? इसी प्रकार का समाज वाल्मीकिरामायण में भी उपलब्ध है। उदाहरणार्थ- तस्मिन् पुरवरे हृष्टा धर्मात्मानो बहुश्रुताः। नरास्तुष्टा धनैः स्वैः स्वैरलुब्धाः सत्यवादिनः।। कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित्। द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नाविद्वान् न च नास्तिकः।। नानाहिताग्निर्नायज्वा न क्षुद्रो वा न तस्करः। कश्चिदासीदयोध्यायां न चावृत्तो न संकरः।। (वाल्मीकिरामायणम् 1.6.6, 8, 12) अर्थात् उस श्रेष्ठ अयोध्यानगरी का असाधारण समाज था, जिसमें सभी प्रजाजन प्रसन्न, धर्मात्मा, बहुश्रुत विद्वान् थे। निर्लोभी, अपने-अपने धन से सन्तुष्ट रहने वाले और सत्यवादी थे। वहाँ कहीं कोई कामी, कंजूस, क्रूर व्यक्ति न था। न कोई मूर्ख और नास्तिक था। न ही अग्निहोत्र और पंच यज्ञ न करने वाला, न निम्न सोच वाला और चोर था। न ऐसा था जो सदाचारी न हो या वर्णसंकर हो।

आज के परिप्रेक्ष्य में कोई स्वप्न में भी शायद ऐसे समाज की परिकल्पना नहीं कर सकता! विचारने पर एतादृश समाज की उन्नति के मूल में उत्तम शिक्षाव्यवस्था और राजव्यवस्था ही दिखाई देती है।

ऐसा ही भारत का चित्र लॉर्ड मैकाले ने भी खींचा है, साथ ही लम्बे समय तक अपने अधीन करने के लिए यहाँ की शिक्षाव्यवस्था और संस्कृति को बदलने का सुझाव दिया, जिसमें वह कामयाब हुआ“I have travelled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is a thief. Such wealth I have seen in the country, such high moral values, people of such caliber; that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and cultural heritage, and therefore I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self-esteem, their native self-culture and they will become what we want them, a truly dominated nation.”- Lord Macaulay in his speech on Feb 2, 1835, British Parliament (पप्पू कैसे पास हुआ नामक डॉ0 धर्मवीर का सम्पादकीय, परोपकारी पाक्षिक पत्रिका, सितम्बर (प्रथम) 2010, पृ0 514, पर उद्धृत)। परिणामतः आधुनिक हमारा समाज वैसा ही बन गया जैसा अंग्रेज चाहते थे।

आधुनिक समाज-

आज के समाज की दशा कुकृत्यों से शोचनीय है। न जाने कितने नरपिशाच अपने स्वार्थों के कारण सामाजिक व्यवस्था को तार-तार कर रहे हैं। प्रायः सर्वत्र अकर्मण्यता, स्वार्थपरायणता, निर्धनता, कामुकता, विषयासक्ति, दुराचार, भ्रष्टाचार, बलात्कार, परधनहरण, आतंकवाद, जातिवाद, अशिक्षा, नैतिकपतन, कुटिलराजनीति इत्यादि दोष पद-पद पर देखे जा रहे हैं। अद्यतनीय शिक्षासंस्थानों से प्रतिवर्ष लाखों, करोड़ों छात्र स्वकीय शिक्षा पूर्ण कर सामाजिकक्षेत्र में आते हैं, किन्तु क्या वहाँ किंचित् मात्र भी माता पिता में भक्ति, गुरुजनों में आदरभाव, स्वदेश में अनुरक्ति, कर्त्तव्य कार्य के प्रति अनुराग है? नहीं। परन्तु केवल अर्थासक्ति है और तद्द्वारा कामनापूर्ति तथा व्यसनों में अत्यादर। यही नहीं जिस शहरी समाज में नित्य बच्चों तक के साथ बलात्कार कर गन्दे नाले में फेंक देने की वहसी निठारी, नोयडा की और किडनी बेचने की गुड़गाँव जैसी घृणित अनैतिक आचरणों की घटनाएँ हैं। लूटपाट और डकैतियाँ हैं। बच्चों के अपहरण और फिरौतियाँ हैं। दूसरों की सम्पत्तियों पर अधिकार जमाने की कोशिशे हैं। असहिष्णुता है। आत्महत्याएँ हैं। असमानता ऐसी कि एक तरफ कठोर परिश्रम है, परन्तु भर पेट पूरे परिवार के लिए रोटी नहीं, दूसरी और गगनचुम्बी कोठियाँ हैं, जिनमें भोग और विलासिता है। शराब और जूए का दुश्चक्र है। आलस्य, प्रमाद है। स्वार्थी राक्षसी वृत्ति है। अर्थासक्ति ऐसी कि उसके सामने कोई पिता, भाई, बहन आदि का सम्बन्ध कुछ नहीं। प्राणीमात्र के लिए दया का अभाव है। प्रकृति का दोहन इतना कि पर्यावरण कितना ही अशुद्ध हो उससे कुछ लेना देना नहीं। न देशप्रेम है। न दयाधर्म है। सत्यवादिता, परोपकार आदि गुण कोसों दूर हैं। राष्ट्र की सम्पत्ति को अपनी माँगो को लेकर कूड़े के ढ़ेर के समान अग्निसात् कर दिया जाता है। केवल अधिकारों की बात होती है, कर्त्तव्यभावना की नहीं। परिवार और समाज टूट रहे हैं। समाज में पनप रहे ऐसे अनेक दोष नित्य समाचार पत्रों की मुख्य पंक्तियाँ बनते हैं। आज के समाज को देखते हुए यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से किया जा सकता है कि जितना अधिक आज की शिक्षा का प्रभाव बढ़ रहा है, घर-घर विद्यालय खुल रहे हैं, उतना ही मानव का मानसिक प्रदूषण बढ़ रहा है। आज के शिक्षित व्यक्तियों की गाँव के बीस वर्ष पूर्व के अनपढ़ व्यक्तियों से तुलना करें तो वे एक दूसरे से प्यार करने वाले, सुख दुःख को बाँटने वाले, परोपकारी आदि गुणों वाले थे और ये शिक्षित होकर अधिक बेईमान, छलकपटी, चोर, स्वार्थी, ईर्ष्यालु हो गये हैं। अब वहाँ भी भौतिकता के प्रभाव में नित्य नवीन अपराधों का उदय हो रहा है। इसीलिए आज की गर्हित सामाजिक स्थिति और शिक्षाव्यवस्था अन्योन्याश्रित हुई प्रमुखतः वर्तमान विसंगतियों का परिणाम कही जा सकती हैं- जिसे अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यहाँ हृदयविहीन भावशून्य मशीनी मानव बनाने की शक्ति तो है, परन्तु मानवनिर्मात्री शक्ति नहीं।

आधुनिक शिक्षा के उद्देश्य

उक्त सामाजिक स्थिति के विवेचन से यह स्पष्ट है कि आधुनिक शिक्षापद्धति में वह शक्ति वा उद्देश्यों की पूर्ति की योग्यता प्रतीत नहीं होती जिससे मानव में मनुष्यता के बीज अर्थात् श्रेष्ठता के विचार आरोपित किये जा सकें। साथ ही शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल भी बढ़ाया जा सके। वर्तमानयुगीन शिक्षा के उद्देश्य तो केवल ऐसी शिक्षा को देना है जिससे अधिक से अधिक अर्थ का आगम हो और उसी के लिए बौद्धिक विकास की परिकल्पना है। उस विकास के साधन उचित हैं अथवा अनुचित यह सोचना आज की शिक्षापद्धति के एजेण्डे में नहीं है। एक छात्र प्रशासक, डॉक्टर या इंजीनियर आदि आदि कुछ भी किन्हीं भी तरीकों से बने, परन्तु बने अवश्य यह आज के शिक्षाविद् और राजनेता चाहते हैं, उसमें नैतिकता प्रभृति श्रेष्ठ मानवोचित गुणों का समावेश हुआ वा नहीं -यह उनकी परिकल्पना से दूर है। आचरणहीन, स्वार्थ की पराकाष्ठा के मूर्त रूपधारी, पैसा कमाने की मशीन बने डॉक्टर, इंजीनियर आदि से कितना ही व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, भौतिक पर्यावरण दूषण हो -इसकी चिन्ता उन्हें नहीं। इसीप्रकार के अन्य उद्देश्यों में मल्टीनेशनल कम्पनियों में नौकरी और तद्द्वारा आजीविका को प्राप्त करना या कहिए भौतिकसंसाधनों को जुटाना मुख्य है और उसी से समस्त लोगों को सुख शान्ति प्राप्त करवाने के उपाय किये जाते हैं। भौतिक संसाधनों को जुटाने के लिए नित नये कारखाने खोले जा रहे हैं। नई-नई तकनीकों को खोजा जा रहा है। अर्थ का अधिक से अधिक आगम कैसे हो उसी की चिन्तनायें देश और विश्वस्तर पर की जा रही हैं। आज शिक्षा का उद्देश्य केवल मानव को साक्षर करना और तद्द्वारा भोजन, वस्त्र तथा मकान किंचित् सुविधा से प्राप्त हो जायें -यह चिन्तन हर आधुनिक शिक्षाशास्त्री को उद्वेलित करता है। वह उसी चिन्तनधारा पर कार्य करता हुआ उसे और अधिक श्रेष्ठ और रुचिकर बनाने के उपायों पर मनःस्थिति को केन्द्रित किये है और सुधार के उपाय सुझाता है। इसी मानसिकता के अनुरूप प्रत्येक गाँव तक में विद्यालय की सुविधा सरकारी व निजी स्तर पर है अथवा की जा रही है। निजी विद्यालयों, महाविद्यालयों और बहुत से विश्वविद्यालयों ने इसे एक व्यवसाय के रूप में स्वीकार किया है और भारीभरकम शुल्क (Fee) के द्वारा उससे खूब कमाई भी कर रहे हैं। किसी समय में महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द), महामना मदनमोहन मालवीय, सर सैयद अहमद खाँ जैसे शिक्षाविदों ने शिक्षणसंस्थानों को विशेष उद्देश्यों से खोला था। आज शिक्षणसंस्थान कुकुरमुत्तों की तरह हर स्थान पर उग आयें हैं, जिनके कर्ताधर्ता ईंटभट्टे के व्यापारी या व्यवसायी हैं। उनके उद्देश्य मोटी फीस से धन कमाना है। समाज का भला करने के ऊँचे लक्ष्य नहीं? उन्हें शिक्षा से लेना देना भी क्या है, अपना व्यवसाय करना है, जिसमें वे कुशल हैं। अब सर्वशिक्षा अभियान के रूप में हमारी सरकार ने ही स्वयं शिक्षा क्षेत्र को एक व्यापारिक क्षेत्र के रूप में घोषित कर वैदेशिकों के लिए भी दरवाजे खोल दिये हैं। अतः शिक्षा के उद्देश्य अर्थप्राप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं, यही बतलाने की कोशिश परोक्ष और साक्षात् रूप में देखी जा सकती है। सत्यं वद, धर्मं चर, स्वाध्यायप्रवनाभ्यां न प्रमदितव्यम् जैसे वाक्यों से शिक्षा देकर मानव बनाने की परिकल्पना आज की शिक्षा में नहीं है।

आधुनिक शिक्षा की पद्धति

भारतीय साम्प्रतिक शिक्षाप्रणाली में पूर्णतः पाश्चात्त्य शिक्षाव्यवस्था का अन्धा अनुकरण है। जहाँ बच्चा नित्य विद्यालय जाता है और कुछ अक्षर ज्ञान कर लौट आता है। आकर्षित करने के लिए बाह्य चमक दमक को विशेष महत्त्व प्राप्त है। विशेषकर निजी विद्यालयों (Public Schools) में अभिभावकों और बच्चों को आकृष्ट करने के लिए साजसज्जा पर विशिष्ट ध्यान दिया जाता है। बच्चों के स्वास्थ्य, भोजन, वस्त्र और पाठशाला की सफाई सुचारु हो इसकी चिन्ता की जाती है। बच्चों पर कितना भी बोझा विद्यालय और ट्यूशन आदि के द्वारा अक्षर ज्ञान के लिए लादना पड़े, लेकिन वे मुख्य प्रश्नों के माध्यम से या अन्य प्रकार से अधिक से अधिक अंक परीक्षा में कैसे अर्जित करें, वे उपाय अभिभावकों और अध्यापकों या स्वयं बच्चों द्वारा किये जाते हैं तथा उसी के माध्यम से आजीविका प्राप्ति के उपायों की खोज भी होती है। विद्यार्थी ने अपने अध्ययन काल में विद्यालय और ट्यूशन में धन के महत्त्व को देखा है। अतः अधिक धनलाभ कैसे, किससे और आसानी से होगा। अच्छी से अच्छी सर्विस कैसे प्राप्त की जा सकती है, इसके लिए मन मस्तिष्क के घोड़े दौड़ाये जाते हैं। इस स्थिति में बालक का बौद्धिक विकास किस दिशा में होगा यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। वह अपना हित छोड़कर सार्वजनिक हित नहीं करेगा, यह सिद्ध है और यदि करेगा तो आधुनिको के द्वारा मूर्ख कहा जायेगा। यही विचार कर आजकल पढ़ने हेतु मुख्य विषय विज्ञान और गणित को ही सीखने के लिए बल दिया जाता है। अन्य विषयों को भी स्पर्श किया जाता है लेकिन सब को एक साथ। भाषाओं को महत्त्व किंचित् ही दिया जाता है। ऐसे में बच्चों के कोमल मनों पर शिक्षा को लेकर कैसा प्रभाव होगा यह विचारा जा सकता है।

आधुनिक शिक्षागत समस्याएँ –

अद्यतनीया शिक्षाप्रणाली और समाज का एक ही दिशा- अर्थासक्ति में अहर्निश चिन्तन है। विशाल उदारवृत्ति यहाँ नहीं है, अतः स्वार्थीवृत्ति कार्य करती है। ऐसी स्वार्थीवृत्ति, जो खूब कमाओ और मौज उड़ाओ की संस्कृति की पोषिका है। सात पीढ़ियों तक के लिए भण्डार भरने की प्रवृत्ति यहाँ है। ऐसे में जहाँ स्वार्थ होगा वहाँ समाज, राष्ट्र वा पर्यावरण गौण हो जाते हैं। जिसके प्रभाव से सामाजिक ताना बाना विखण्डित हो रहा है। समाज में रहकर दी जा रही इस शिक्षा से जन्मा यह वैचारिक प्रदूषण भौतिक, सामाजिक, वैयक्तिक और सांस्कृतिक रूप से अनेकविधदूषणों का कारक है। जिससे किसी भी रूप में इस व्यवस्था के रहते बचा नहीं जा सकता, क्योंकि विकृत समाज के साथ ही शिक्षार्थी को भी रहना पड़ता है। ऐसे में यह शिक्षा अनेकविध समस्याओं का कारण बनती है, जिन्हें निम्नप्रकार समझा जा सकता है।

भौतिक समस्या – वातावरण में विष घोलने का कार्य यह शैक्षिक व्यवस्था कैसे करती है, इसे देखिए-

  • आधुनिक शिक्षा प्रणाली में प्रतिदिन विद्यालय जाना आना होता है, अतः आवागमन के लिए एक हजार की संख्या वाले विद्यालय में अनुमानतः चार बसों, चालीस से पचास ऑटो या अनेकों निजी वाहन विशेषों से उगले जाने वाले धुँए से वायु, जल, ध्वनि प्रदूषण कितना अधिक होता है, यह वर्णनातीत है। दो से तीन, चार हजार बच्चे जिस विद्यालय में पढ़ते हैं वहाँ की स्थिति गुणित होकर कैसी होगी, उसकी कल्पना की जा सकती है! मध्य में कहीं वाहनों का जाम लगा तो और भी समस्या। अबोध बच्चों के द्वारा न चाहते हुए भी प्रतिदिन कितना धुँआ पिया जाता है, और राष्ट्र को उसके बदले में रोगादि को दूर करने में कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, वह अनुमानगम्य नहीं! यह स्थिति बाहरवीं तक के छात्रों की है। बच्चे बड़े हुए तो स्वयं अपने वाहनों से या सार्वजनिक वाहनों से ऐसी ही यात्रायें शहरों में विद्यमान महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों में जाने आने के लिए बसों में लटककर या छतों के ऊपर करते हैं। इसप्रकार की व्यवस्था में प्रत्येक दिन भारत में ही नहीं, विश्व में बच्चों को विद्यालय तक पहुँचाने और लाने में अनगणित वाहन प्रयुक्त होकर वायुमण्डल को कितनी हानि देते हैं, वह विचारणीय है।

सामाजिक समस्या – समाज में अनेक विसंगतियों की जनक भी यह प्रणाली है, वे इसप्रकार हैं-

  • विद्यालय में आवागमन को सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो इसमें राष्ट्र के अर्थ और समय के अपव्यय का कोई मूल्य नहीं। अर्थहानि और समयहानि इस दृष्टि से कि प्रत्येक प्रातः शहरों में बच्चों को माता पिता विद्यालय में भेजने के लिए तैयार करते हैं, उसमें समय लगाते हैं, फिर विद्यालय में जाने के लिए बस स्थानकों पर वाहनों की प्रतीक्षा में न्यून से न्यून पन्द्रह मिनट से आधा घण्टा या अधिक, बच्चे के विद्यालय जाने और आने के समय अभिभावक ही प्रतिदिन नष्ट करते हैं। बच्चों के समय की हानि भी आवागमन में कई घण्टों में प्रत्येक दिन होती है। कई माता पिता स्वयं बालक को विद्यालय में छोड़ने और लाने का कार्य करते हैं। इसप्रकार प्रतिदिन के समय की हानि एक राष्ट्र के लिए कितनी महंगी पड़ती है! इसके अतिरिक्त विद्यालय की फीस का खर्च, वाहनों का खर्च और उनसे होने वाला वायु और ध्वनि प्रदूषण प्रतिदिन की दृष्टि से एक ही छोटे से शहर में ही लाखों का पड़ता है, मास और वर्षों की गणना अरबों, खरबों में होगी जिसका सही अनुमान लगाना भी कष्टसाध्य है।
  • अपने वाहनों तथा सार्वजनिक वाहनों से विद्यालय में आने जाने वाले छात्रों की अनेक बार दुर्घटनाएँ भी होती हैं, जिसमें हर वर्ष न जाने कितनी जानें जाती हैं और कितने अपंग होते हैं। समाज को यह असह्य क्षति प्रायः उठानी पड़ती है।
  • विद्यालयों की मोटी फीस, जिसे सभी नहीं दे सकते उससे समाज में समरसता नहीं होती। कोई बड़ी गाड़ी में आ रहा है तो कोई साइकिल द्वारा ऐसे में ऊँच नीच का भाव समाज में पनपता है। उच्च शिक्षा भी मोटी फीस के द्वारा खरीदी गई होती है, अतः पैसे का ही मूल्य है यह कोमल मनों पर आज की शिक्षा पद्धति के कारण छाया रहता है और वे बड़े होकर स्वयं वैसा ही व्यवहार करते हैं।
  • आज की शिक्षाव्यवस्था में समानता और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार न होने से सैंकड़ों वर्षों से दबे कुचले सामाजिकजन वहीं के वहीं उसी दुरवस्था में जी रहे हैं। क्योंकि वे अच्छे कहे जाने वाले पब्लिक विद्यालयों में धनाभाव के कारण अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेज नहीं सकते या शिक्षा के महत्त्व को वे जानते नहीं। आजीविका के लिए नित्य बाहर निकल जाने के बाद उनके बच्चों का भगवान् ही मालिक होता है, अतः उनके बालक गलियों में खेलते रहते हैं। पढ़ाई में मन नहीं लगा तो शीघ्र ही पढ़ाई छोड़ देते हैं और बालमजदूरी (Child Labour) के चंगुल में फँस जाते हैं। सरकार की ओर से उन्हें पढ़ने के लिए शक्ति से आदेश नहीं दिया जाता। इस व्यवस्था में सम्पत्तिशाली तो आगे निकल जाते हैं और निर्धन साधनों के अभाव में वहीं के वहीं, गली सड़ी जिन्दगी गुजारने को मजबूर रह जाते हैं। परम्परया उनके बच्चों को भी उन्हीं के साथ रहने से वैसा ही वातावरण मिला होता है, अतः पूर्ववत् निम्नसमाज में बने रहने के अतिरिक्त कुछ परिवर्तन उनमें नहीं आ पाता। साथ ही बच्चों के घर में रहने से बालस्वभाव के कारण नित्य कोई माँग बच्चों की होती है। माँ बाप भी अपने कार्यों को निश्चिन्त हो ठीक से नहीं कर पाते जिससे घर की आय पर भी गलत प्रभाव पड़ता है।
  • इस शिक्षापद्धति के अनुसार आज का विद्यार्थी पाँच, छः घण्टे विद्यालय में रहकर शेष पूरा दिन अपने घर में रहता है। गृहस्थ अपने कार्यों में व्यापृत रहते हैं। ऐसे में बच्चों का संरक्षण करने वाला कोई नहीं। घर में अब वे स्वतत्र है, चाहे तो कुछ भी करें। मन का स्वभाव चंचल है। एक स्थान पर बंध कर कदाचित् पढ़ा नहीं जा सकता। पढ़ना भी चाहेगा तो महापुरुषों की जीवनी या सही दिशा देने वाली अच्छी पुस्तकें नहीं, अपितु मन को अच्छी लगने वाली किस्से कहानियों की पुस्तकें। ऐसे में समाज को अच्छे नागरिक मिलेंगे यह परिकल्पना नहीं करनी चाहिए।
  • इस व्यवस्था में पढ़ने वाले बच्चों का गृहस्थियों के साथ घर में अधिक समय व्यतीत होता है। घर में जो कुछ भी अच्छा या बुरा हो रहा है उसका प्रभाव उसके जीवन पर पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो प्रायः चाय, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, शराब आदि मादक पदार्थों का सेवन प्रत्येक घर में होता है। केवल शराब की ही बात करें तो दैनिक जागरण समाचार पत्र में प्रकाशित एक सरकारी आँकड़े के अनुसार अल्कोहल उत्पादों पर कर से साल 2007-08 के दौरान राज्य सरकारों को करीब 26 हजार करोड़ रुपये की आमदनी हुई थी।….बेंगलूर स्थित नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एण्ड न्यूरो साइंसेज (नीमहंस) के एक अध्ययन में पता चला है कि देश में अल्कोहल की बिक्री से हर साल 216 अरब रुपये के राजस्व की उगाही होती है। जबकि इसके ठीक विपरीत अल्कोहल के घातक दुष्परिणामों से हर साल करीब 244 अरब रुपये की क्षति उठानी पड़ती है। (दैनिक जागरण समाचार पत्र (हरिद्वार संस्करण), दिनांक 15 फरवरी, 2010, पृ0 2) ये आँकड़े समाज के शराबी होने की सत्यता को प्रमाणित कर रहे हैं। सरकार को राजस्व की चिन्ता है। समाज गर्त में गिर रहा है तो उसकी चिन्ता नहीं। ऐसे में शराब पीने से हानियाँ भी पाठ्य पुस्तकों में पढाई जाती हैं तो उसका प्रभाव होने वाला नहीं, क्योंकि बच्चे उसी समाज के साथ अधिक समय व्यतीत करते हैं। अतः बड़ों को देखते हुए वे गलत आदतें शनैः शनैः उनमें भी घर कर जाती हैं और वह भी वैसा ही बन जाता है। बाद में स्वभाव में आने से रोकने से नहीं रुकतीं। ऐसे ही अन्य बुराइयों के नित्य प्रत्यक्ष होने से मन की अनुकूलता के आते ही बच्चा बड़ा होते-होते उसे स्वीकार कर लेता है। अतः निरन्तर पीढ़ी दर पीढ़ी ये बुराइयाँ समाज में आती रहती हैं।
  • जातिवाद समाज के लिए एक अभिशाप है, भयंकर रोग है, मानव-मानव के बीच विद्वेष और ऊँच नीच का विष घोलने का कार्य करता है, जिसे इस शिक्षाव्यवस्था के रहते समाज से दूर नहीं किया जा सकता, क्योंकि आरक्षण और वोटबैंक की राजनीति का कुचक्र भी इसी जातिप्रथा की धुरि पर चक्कर लगा रहा है। नित्य बच्चे उसी समाज में रहते हैं जहाँ प्रतिदिन उन शब्दों का प्रयोग होता है और अब विद्यालयों में जाति का लिखना अनिवार्य हो गया है। इस व्यवस्था में जाति विशेष के लिए आगे बढ़ने के लिए तो आरक्षण है, लेकिन अन्य जातियों में भी गरीबों की कोई कमी नहीं। आरक्षित जातियों में भी उसका लाभ वे ही लोग उठा रहे हैं, जो पहले से लाभ ले कर स्वयं में राजनीति, प्रशासन, शिक्षाक्षेत्र या विविधप्रकार के उच्च पदों पर पहले से होने से सामर्थ्यशाली हैं, जिन्हें आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं। साठ वर्षों से ग्रामीणों अथवा शहरों की झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वालों की सुध लेने वाला कौन है? प्रथम तो वे बेचारे आरक्षण के महत्त्व को ही नहीं समझते होंगे। यदि जानते होंगे तो बच्चों को पढ़ाने के लिए वह योग्यता और धन कहाँ से लायें? क्योंकि घरों में पढ़ाने के बिना आजकल की पढ़ाई में आगे निकलना सम्भव नहीं, जिसे वे कर नहीं सकते!

वैयक्तिक समस्या – व्यक्तिगत दोष को देने वाली भी यह प्रणाली है। यथा-

  • इस प्रणाली में यह व्यक्तिगत दोष है कि घर में रहने वाले छात्र की किसी प्रकार की कोई दिनचर्या बहुत से कारणों से नहीं बन पाती। कभी वह प्रातः पाँच बजे बिस्तर छोड़ता है तो कभी सात और आठ बजे। रविवार को तो वह उठना ही नहीं चाहता और जहाँ शरीर को बलिष्ठ होना चाहिए था, वह रोगग्रस्त होता चला जाता है। न शारीरिक व्यायाम, प्राणायाम या आत्मचिन्तन में कोई रुचि हो पाती। परिणामस्वरूप मानसिक, शारीरिक बीमारियों को नित्य निमंत्रण। दिनचर्या न होने की यह बीमारी बड़े छात्रों के छात्रावासों में और भी अधिक है।
  • प्रतिस्पर्धा के इस दौर में ट्यूशन की बीमारी भी इस शिक्षापद्धति की एक बहुत भयंकर देन है। ऐसे में बच्चे विद्यालय और ट्यूशन के बीच में कितना समय, शक्ति और धन बर्बाद करते हैं, वह किसी से छुपा नहीं। ऐसे बच्चों का बचपन भी नष्टप्रायः हो जाता है, उनका ठीक से शारीरिक और मानसिक विकास भी नहीं हो पाता, युवा होते-होते बूढ़े हो जाते हैं।
  • अधिकांश में देखा जाता है कि गलत संगत के कारण बच्चे विद्यालयों में न जाकर आवारागर्दी करते रहते हैं और माता पिता सोचते हैं, वह विद्यालय या ट्यूशन में पढ़ने गया है। पॉकेट मनी भी गलत आदतों को पालने में एक कारण बनती है। उसी से बच्चे चाऊमीन, बर्गर, चॉकलेट आदि खाकर अपनी आदतों को बिगाड़ते हैं और टॉफी या मीठी वस्तुएँ खाकर अपने दान्तों तथा पेट को।
  • स्वावलम्बन का अभाव इस शिक्षाप्रणाली में बच्चों में इतना अधिक देखने को मिलता है कि वे स्वयं कुछ कार्य करना नहीं चाहते। यहाँ तक कि बनियान आदि छोटे वस्त्र भी स्नानागार में दूसरों के लिए प्रक्षालित करने हेतु छोड़ देते हैं। कालान्तर में पूर्णतः पराश्रित हो जाते हैं।
  • यह सब जानते हैं कि सभी के घर विलासिता के  आगार भी होते हैं। घरों में कुछ झगड़ा भी होता है। इन सब का साथ में रहने वाले बच्चों के कोमल मन पर गलत गहरा प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। वे विलासिता के रंग में भी रंगते हैं, जिसकी अभी उन्हें कोई आवश्यकता नहीं, जिससे कुण्ठाग्रस्त होते जाते हैं।
  • जो माता पिता अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते उनके बच्चे घर पर टी0 वी0, वीडियो आदि के रोग से ग्रस्त हो जाते हैं। जो नहीं देखा सुना जाना चाहिए वह सब उसके माध्यम से अबोध बालक जानने लगते हैं। जिससे पढ़ाई में विशेष ध्यान नहीं दे पाते और उसी में सुख की अनुभूति करने लगते हैं।
  • प्रकृति के प्रति किसी प्रकार का कोई प्रेम आज की इस पद्धति के कारण नहीं बन पाता, क्योंकि वैसे वातावरण में वे रहते ही नहीं। ईंट, पत्थरों के जंगलों में रहते-रहते उनमें प्रकृति के प्रति सम्वेदनशीलता नहीं आ पाती।

सांस्कृतिक समस्या – भारतीयसंस्कृति से सम्बन्धित जीवन आधायक गुणों का नितान्त अभाव का दोष इस व्यवस्था में है। यथा-

  • इस शिक्षा पद्धति में भारतीय जीवन मूल्यों से द्वेष सा है, अतः वहाँ त्याग, तपस्या, ब्रह्मचर्य, अध्यात्म का स्पर्श भी जीवन में नहीं करवाया होता, अतः सामान्य से कष्टों के आने मात्र से ही आत्महत्या की भावना आती है। सहिष्णुता का अभाव वहाँ मुख्य होता है। इसीलिए आर्थिक दृष्टि से सुखद भविष्य की सम्भावना होते हुए भी आई0 आई0 टी0, आई0 आई0 एम0 जैसे संस्थानों के छात्र आत्महत्या कर लेते हैं। कहीं परस्पर ईर्ष्या, द्वेष के कारण अपने साथियों का संहार करने तक का जघन्य कार्य भी कर डालते हैं। ऐसे कृत्य पूर्ण विकसित कहे जाने वाले समृद्धिशाली जर्मनी, अमेरिका जैसे देशों में भी देखे जाते हैं। 11 मार्च, 2009 को दक्षिण जर्मनी के विन्नण्डन (Winnenden) नगर के अल्बर्टविले (Albertville) स्कूल में ही एक 17 वर्ष के बच्चे ने विद्यालय के तीन अध्यापकों, नौ लड़कियों सहित 15 जनों को गोलियों से भून डाला था। बचपन में ही ऐसी उग्रता समाज के लिए घातक है जो नैतिक मूल्यों से ही दूर की जा सकती है और उसके लिए इस पद्धति में अवकाश नहीं।
  • हजारों की संख्या में शिक्षार्थी विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों से निकलते हैं, परन्तु सभी अपने तक ही सीमित होते जा रहे हैं। किसी में माता, पिता, परिवार, समाज, देश, राष्ट्र के प्रति कोई भक्तिभाव नहीं, उदारता नहीं। कारण आदर, सम्मान, सौहार्द, सहानुभूति, सम्वेदना आदि का अभाव। विद्यालयों में केवल गणित, विज्ञान, इतिहास अथवा कला-सम्बन्धी विचारों को बच्चे में सम्प्रेषित करने का अधिकतम कार्य किया जाता है, जबकि बच्चों का अधिक समय तो पाठशालाओं से बाहर आराम की जिन्दगी के सान्निध्य, गलियों में खेलने या टी0 वी0, वीडियोगेम, अथवा नेट पर चैट आदि में व्यतीत होता है। जीवन जीने की कला की शिक्षा इस मध्य में लुप्त हो जाती है। इन नकारात्मक भावों से विपरीत श्रेष्ठ भावों का बीजारोपण करने के लिए आन्तरिकभावों को जागृत करना होता है, जो आध्यात्मिकता में निहित हैं, वे आचार व्यवहार से सिखाए जा सकते हैं और उनके लिए आज की शिक्षाव्यवस्था में किसी के पास समय नहीं।
  • भाषा का अध्ययन अध्यापन मानसिक भावों को जागृत करता है, विचारों की नई स्फूर्ति जीवन में लाता है, लेकिन आज कल की शिक्षा प्रणाली में भाषा की मुख्यता न होने से इसका भी अभाव देखा जा रहा है, अतः नई पीढ़ी भावशून्य हो रही है। दया, परोपकार, सत्यवादिता जैसे भाव गुजरे जमाने की बात होती जा रही है। अपनी राष्ट्र भाषा या संस्कृति पर किसी को गौरव नहीं। यही कारण है कि एक पब्लिक स्कूल का बच्चा शुद्ध हिन्दी भी नहीं लिख पाता। संस्कृत जैसी वैज्ञानिक भाषा को तो आज का छात्र विषधर की भांति हेय मानता है।
  • कामवासना ऐसा रोग है, जो प्रत्येक को पीड़ित करता है, लेकिन आजकल की शिक्षाव्यवस्था में उस पर काबू पाने का कोई उपाय ब्रह्मचर्य आदि के रूप में निर्दिष्ट नहीं किया जाता। अतः युवावस्था आने पर सहशिक्षा के कारण थोड़े से भी अनुकूल वातावरण के मिलते ही बच्चों को बहकने का खुला आमंत्रण मिलता है। भारतीय समाज में संस्कारों के कारण कुछ उस से बच जाते हैं तो कुछ नीचे ही नीचे संलिप्त हो जाते हैं। दूसरी ओर विकसित राष्ट्रों के विकास की गति देखिए, जहाँ सोलह वर्ष की शायद ही कोई लड़की गर्भपात करवाने से बचती हो। अब ऐसा ही प्रभाव भारतीय समाज के बड़े-बड़े शहरों में भी देखने को मिल रहा है। यह भारतीय संस्कृति को शिक्षाप्रणाली में महत्त्व न देने का ही परिणाम है।
  • आज की परिस्थितियों में ऐसा कौन सा घर है जहाँ भारतीय संस्कृति में मानव के आन्तरिक षड्रिपु कहे जाने वाले काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष जैसे कीटाणुओं का प्रवेश न हो। जन्म जन्मान्तर की वासनाओं से ये दोष बच्चों में भी अनुकूल अवसर पाकर घरों और समाज के सान्निध्य में रहने के कारण प्रविष्ट होते हुए देर नहीं लगाते। जिससे अध्ययन में बाधा आती है और जो उपलब्धि होनी चाहिए वह नहीं हो पाती।
  • अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच यम और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान रूप पाँच नियम- ये दोनों मनुष्य के इन्द्रियघोड़ों में लगाम का कार्य करते हैं। आधुनिक शिक्षा पद्धति में इनका कोई नाम लेने वाला भी नहीं। अतः मानव बेलगाम घोड़े के समान अर्थ के पीछे दौड़ लगा रहा है। ये जानते हुए भी कि यह सब यहीं रह जाना है और अनैतिक कार्यों में मानो प्रतिस्पर्धा करके जुटा है।

अन्य अनेक दोष भी विचार करने पर इस शिक्षा पद्धति में संकेतित किये जा सकते हैं, जिनके चलते आज स्थिति यह हो गई है कि साधन साध्य हो गया है। विश्व के समस्त शैक्षणिक संस्थानों में आज प्रायः इसी की अन्धी दौड़ है और उसी का परिणाम है कि मानव अर्थलिप्सु हुआ येन केन प्रकारेण शिक्षित कहलाता हुआ भी भ्रष्टाचार, अनैतिक आचरणों के दलदल में आकण्ठ डूबा जा रहा है। सुख शान्ति यदि धन ऐश्वर्य में होती तो विश्व के चोटी के धनाढ्यों में अशान्ति देखने को न मिलती। लेकिन, आज की शिक्षा व्यवस्था इसी धुरी पर चक्कर लगा रही है, जो मानव की ऐकान्तिक और आत्यन्तिक सुख की अवाप्ति का साधन नहीं। ऐसी स्थिति में आज की सामाजिक विसंगतियों, स्थितियों को देखते हुए प्रश्न खड़ा होता है कि क्या आज की शिक्षाव्यवस्था उचित है? कोई भी विचारक उत्तर में नहीं ही कहेगा और उसको सुधारने की बात करेगा। 20 फरवरी 2010 के दैनिक जागरण समाचारपत्र के सम्पादकीय पृष्ठ पर श्री राजीव शुक्ला (राज्यसभा सदस्य) के लेख में भी मैकाले की दी हुई शिक्षा पद्धति को बहुत पुराना कहा है और उसमें बदलाव पर बल दिया है। जिसकी आज नितान्त आवश्यकता है।

समस्याओं के जाल से निकलने का विकल्प आश्रमव्यवस्था

          उक्त विकट समस्यारूप तमःपुंज को ध्वस्त करने की एकमात्र प्रकाशज्योति भारतीय आश्रमव्यवस्था में निहित है, जो वेदादिशास्त्रों के आविर्भाव से लेकर रामायणकाल तक समृद्धि को प्राप्त हुई दिखाई देती है तथा महाभारत काल के आते-आते क्षीण हो गई और आज प्रायः लुप्त है। जिसे आधुनिक काल में पूरे विश्व के कल्याण की इच्छा रखने वाले महान् शिक्षाशास्त्री दयानन्द ने अपने उपदेशों और ग्रन्थों से पुनः स्थापित करने की कोशिश की। उन्हीं से प्रेरणा लेकर अनेक गुरुकुलों ने आश्रमव्यवस्था को अपनाया और आज भी समाज के द्वारा प्राप्त करवाये गये स्वल्प संसाधनों के बीच कार्य कर ख्याति अर्जित कर रहे हैं। प्रमुखतः प्राच्य संस्कृत ग्रन्थों के ही अध्ययन अध्यापन में पूर्ण निष्ठा से ये संस्थान कार्य कर रहे हैं, यदि उन पाठ्यक्रमों के साथ अर्वाचीन ज्ञान विज्ञान को भी पठन पाठन का अंग बना दिया जाये तो संसार में इनसे उत्तमकोटि का कोई शिक्षण संस्थान सम्भवतः न होगा। ग्रामों और नगरों से दूर होने के कारण समाज में पनप रहा दूषण भी वहाँ नहीं है और यही दूषण मानव मस्तिष्क से हटाने का उद्देश्य लिए वे कार्य कर रहे हैं, उसमें सफलता भी किसी हद तक प्राप्त हो रही है, क्योंकि यहाँ जीवन के अन्तरंग स्वरूप शारीरिक, मानसिक और आत्मिक को प्रबलता प्रदान करवाते हुए जीने की कला भी है और अध्ययन अध्यापन के द्वारा बौद्धिक विकास का भी पूर्ण प्रबन्ध। इन्हीं गुणों के कारण स्वामी श्रद्धानन्द की तपःस्थली गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय ने अपने शैशव काल में ही विश्व में कीर्ति अर्जित की थी। अब भी यदि इस आश्रमव्यवस्था को निकट से देखना चाहें तो तीरन्दाजी में ओलम्पिक तक भारत की ध्वजा को उत्तोलित करने वाले, लड़कों के गुरुकुल प्रभात आश्रम, मेरठ और लड़कियों के गुरुकुल चोटीपुरा, अमरोहा को देख लीजिए, जो विना किसी सरकारी सहायता के देश की सेवा कर रहे हैं और अपनी संस्कृति के आराधक हैं। गत दो तीन वर्षों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित संस्कृत में NET/JRF परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने वाले यहीं के सर्वाधिक विद्यार्थी रहे हैं। शायद किसी एक संस्था के इतने बच्चों की इस परीक्षा में सफलता आश्रमव्यवस्था की ही उत्कृष्टता को स्पष्टतः कह रही है। कहने का तात्पर्य यह है कि भारतवर्ष में ऐसे अनेकों लड़के, लड़कियों के अलग- अलग गुरुकुलस्थल हैं, जिनमें समर्पणभाव और अच्छी मानसिकता से बच्चों का निर्माण प्राच्यपद्धति से किया जा रहा है। यदि यहाँ अच्छे साधन उपलब्ध करवाये जायें, सरकारी सहयोग भी हो तो आधुनिक वैज्ञानिक अनुसन्धानों को भी नई दिशाएँ दी जा सकती हैं। थोड़े प्रयास से भी बच्चों को बहुत उन्नत अवस्था तक पहुँचाया जा सकता है।

इस आश्रमव्यवस्था में मुख्यता आचार्य की होती है। आचार्य एक समर्पित व्यक्तित्व का नाम है, जो सत्यनिष्ठ, त्यागी, तपस्वी, अपरिग्रही हो और जिसमें उत्कृष्टता का बीजारोपण करने वाले ज्ञान, कर्म, श्रेष्ठ विद्वानों और ईश्वर की उपासना, शम, दम, दया आदि गुण हों- ज्ञानकर्मोपासनाभिर्देवताराधने रतः। शान्तो दान्तो दयालुश्च ब्राह्मणश्च गुणैः कृतः।। (शुक्रनीतिसार 1.40) आचार्य संज्ञा से भी स्पष्ट है आचार्य अपने आचरण व्यवहार से बच्चों को अधिक शिक्षित करता है, जिसका मूल संकेत अथर्ववदीय मंत्र- आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः। तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः।। (अथर्ववेद 11.5.3) देता है, जिसका ऐसा उत्कृष्ट तात्पर्य है, जिसकी संसार में तुलना नहीं की जा सकती । जिसके अनुसार ब्रह्मचारी को उपनीत कर आचार्य अपने गर्भ में धारण करता है। गर्भ में धारण करने का निर्देश दे वेदभगवान् यह संकेत देना चाहते हैं कि आचार्य के कुल में उपनीत ब्रह्मचारी किसी भी और कैसे भी उच्च राजा, महाराजा अथवा निम्न निर्धन कुल से आया हो उसके साथ आचार्य वैसा ही व्यवहार करे जैसा माता गर्भस्थ शिशु का लालन, पालन करते हुए करती है अर्थात् माता उदरस्थ शिशु कैसा और क्या है? ऐसा भेद न रखते हुए समान दृष्टि से स्नेह की वर्षा करते हुए परिपालना करती है और सम्पूर्ण निर्मिति होने पर वह शिशु बाह्य जगत् का दर्शन करने के लिए बाहर आता है। ऐसे ही आचार्य कुल में विद्यार्थी समानरूप से गुरु के स्नेहिल छत्र के नीचे विद्यार्जन से हर प्रकार के तमस् को दूर करता हुआ आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक, भौतिक विभिन्न प्रकार की उन्नतियाँ कर सम्पूर्णता को प्राप्त हो समाज में पदार्पण करे। ऐसे में देवजन उसका स्वागत करते हैं। वेद के इन निर्देशों की परिपालना कठिन नहीं है। सभी स्वीकार भी करेंगे कि इससे उत्कृष्ट, मानव के निर्माण के लिए शायद कुछ नहीं हो सकता। अतः केन्द्र और राज्य सरकारों को आगे आकर इसकी पहल करनी चाहिए।

सरकारों और सामाजिक संगठनों के लिए करणीय

भारत को स्वतत्र हुए छः दशक से अधिक का काल हो गया। कितनी बड़ी विडम्बना है कि इतने लम्बे समय के बाद भी हमारा कहने को कुछ नहीं। न अपनी राष्ट्रभाषा, न संस्कृति, न संविधान, न शिक्षाव्यवस्था, जिसे भारतीय कहा जा सके। सब उधार का माल है। मैं समझता हूँ कि इन मामलों में वे हमारे से श्रेष्ठ भी नहीं हैं। हाँ, यदि हों तो स्वीकार करने में भी किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। हमारी अपनी मान्यता है विषादपि अमृतं ग्राह्यम् अर्थात् विष से भी अमृत मिले तो ले लेना चाहिए। वेद भी कहता है- नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः (यजुर्वेद 25.14) सभी और से कल्याणकारक बुद्धिबल अर्थात् जो भी बुद्धिग्राह्य हो वह हमें प्राप्त हो। योग्य नहीं, फिर भी यदि हम उसे ढ़ोये चले जा रहे हैं तो उसके दो कारण हो सकते हैं। प्रथम ये कि हमें अपनी श्रेष्ठता की जानकारी नहीं और द्वितीय ये कि हम जानबूझ कर ऐसा कर रहे हैं। द्वितीय सम्भवतः होना नहीं चाहिए, क्योंकि हम ऐसे कृतघ्न नहीं। प्रथम के अनुसार जानकारी नहीं, तो हमारा दायित्व बनता है कि हम अपने को पहचानें। भारतवर्ष का अपना गौरवपूर्ण इतिहास और संस्कृति है। साथ ही संस्कृत जैसी वैज्ञानिक भाषा हमारी अपनी कही जाती है और उसमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति करने के लिए अथाह ज्ञानसम्पत्ति है, जिसका दोहन होना चाहिए। प्राकृतिक सम्पदा भी ऐसी कि विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं, लेकिन दुःखद है उसको समझा नहीं गया और समुचित उपयोग नहीं किया। प्रत्येक क्षेत्र में परमुखापेक्षी रहे। समाज को सुव्यवस्थित रखने के लिए यहाँ की आश्रम व्यवस्था और वर्णव्यवस्था की विश्व में कोई तुलना नहीं। संक्षेप में कह सकते हैं कि किस आयुवर्ग के व्यक्ति को कहाँ पर रहकर अपने जीवन का योगदान समाज के लिए देना है यह बतलाना आश्रमव्यवस्था का कार्य है और सब आलस्य प्रमादों को छोड़कर कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः (यजुर्वेद 40.2) मंत्र के अनुरूप श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कर्म करने की सदिच्छा के साथ समाज में एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा का नाम वर्णव्यवस्था है। उस प्रतिस्पर्धा में समान अवसर होते हुए जो व्यक्ति अपने बुद्धिकौशल के अनुसार जिस कर्म पर आकर ठहर जाता है, उस कर्म के अनुसार उसका वर्ण निर्धारण हो जाता है। इसप्रकार वर्णव्यवस्था में कर्म की ही तो प्रधानता है किसी को समाज में हीन दिखाने का कार्य नहीं। जो कर्म नहीं करता वह दस्यु है और दस्यु को सत्प्रेरणाओं से समाज की निर्मल धारा में लाना उपदेशकों का या दण्ड के द्वारा रास्ते पर लाना राजा का दायित्व है। बचपन से कोई दस्यु बने ही नहीं कर्मकौशल से, पुरुषार्थ से सब प्राप्य प्राप्त करे, यह बतलाना शिक्षा का कार्य है। ऐसी उत्कृष्ट शिक्षा के बीजारोपण समाज की भागदौड़ से दूर आश्रमव्यवस्था में निहित हैं, जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता है। ब्रह्मचारी आचार्यकुल में प्राप्त अबोध बच्चे की वैदिकी संज्ञा है। यही उसमें मुख्य केन्द्रबिन्दु होता है, जिसका सदुपदेशों से कच्चे घड़े के समान निर्माण करना होता है। उसे आचार्य अपने सान्निध्य में रखते हुए अपनी ज्ञानाग्नि से जैसा स्वरूप देता है वैसा ही मजबूत बनकर गुरुकुलरूपी तप की भट्टी से वह बाहर आता है। निषेधात्मक सोच लिए हुए जैसे आजकल उग्रवादी जेहादी तैयार करते हैं वैसे ही सकारात्मक सोच के साथ समाज के लिए अपना सब कुछ आहुत कर देने वाले सदाचरणशील, कर्त्तव्यनिष्ठ, समर्पितव्यक्तित्व के धनी आचार्य या गुरु यदि समाज को बदलना चाहें तो वास्तव में बदल सकते हैं। बस, आवश्यकता है उत्तम वातावरण बनाने की। फिर वे भी जेहादी मानव का निर्माण कर फौज खड़ी कर सकते है, लेकिन यह जेहाद समाज को दिशा देने वाले सत्कर्मों के लिए होगा विध्वंस के लिए नहीं। ऐसे व्यक्तित्व की धनी यह फौज अनेक कष्टों के आने पर भी कदाचित् उचित सत्यनिष्ठ मार्ग से विचलित न होगी। यही ध्येय प्राचीन काल में आश्रमों का होता था। जैसे चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का निर्माण किया। अधुनातन उदाहरण देश के  पिछड़े प्रदेश बिहार की राजधानी पटना का है, जहाँ एक Super 30 के नाम से ऐसा संस्थान चल रहा है जिसकी गत तीन वर्षों की उपलब्धि है कि वह निर्धन तीस बच्चों को, जो IIT-JEE की कोचिंग को पैसा देकर नहीं खरीद सकते, उन्हें निःशुल्क समर्पणभाव से शिक्षण देता है। बच्चों की श्रद्धा और गुरुओं के समर्पण व विश्वास से लगातार तीसरी बार तीस के तीस बच्चों ने IIT की कठिनतम परीक्षा को उत्तीर्ण करने का अनुकरणीय कार्य किया है, द्र0 (The Times Of India, New Delhi, Page 01, May 27, 2010)। बस, यह समर्पण का नमूना है, यही शिक्षा के क्षेत्र में होना चाहिए। तुच्छ धन के बदले अमूल्य शिक्षा के विक्रय से बचना चाहिए। यही सन्देश Super 30 ने शिक्षा का बाजारीकरण करने वालों को जोर का झटका देकर दिया है। अब ऐसी व्यवस्थाओं को मूर्तरूप देने के लिए शासन को आगे आना चाहिए और निम्नलिखित योजनाओं को कार्यान्वित करवाकर समाज को सुसमृद्ध और सुसंगठित करने में योगदान देना चाहिए।

  • सर्वप्रथम यदि सरकार वा अन्य सामाजिक संस्थाएँ मानव मात्र का कल्याण चाहती हैं। गरीब से गरीब के बच्चे को पढ़ाई कर सम्मानित जीवन जीने के लिए प्रेरित करना चाहती है। जातिप्रथा के अभिशाप को निर्मूल कर समाज के लिए कैन्सर बने आरक्षण को समाप्त करने का ध्येय रखती है। मानसिक और भौतिक प्रदूषण से समाज को छुटकारा दिलाना चाहती है, तो उन्हें तुरन्त आश्रमव्यवस्था के द्वारा विद्या अध्ययन को लागू करवाना चाहिए। ऐसा होते ही आधुनिक शिक्षाव्यवस्था में दिखाए उपर्युक्त दोष पलायन करने में देर नहीं लगायेंगे।
  • यह प्रकृति सिद्ध है कि उत्कृष्ट वस्तु का निर्माण श्रेष्ठ शिल्पी के ही हाथों द्वारा होता है। आप श्रेष्ठ मानव बनाना चाहें तो उसके लिए सिद्धहस्त को ढ़ूँढना होगा। शिक्षा के लिए सामान्य या आरक्षण से कार्य नहीं चलेगा। आज की व्यवस्था में प्रायः समस्त बुद्धि का वैभव अन्य क्षेत्रों में जा रहा है और यहाँ शिक्षा का कार्य विशेषकर प्राथमिकस्तर पर कामचलाऊ शिक्षकों से चलाया जाता है। जब कि होना विपरीत चाहिए। शिक्षकों से ही उनकी योग्यता से विपरीत चुनाव कार्य, जनगणना, पशुगणना इत्यादि सामाजिक कार्य करवाये जाते हैं। अतः प्रथम त्यागी, तपस्वी समर्पणभाव वाले योग्यतम शिक्षकों का चयन अपेक्षित होगा। शिक्षा के क्षेत्र में भी शिक्षकों का चयन आज कल की जल, थल और वायु सेना के अधिकारियों की चयन प्रक्रिया के अनुरूप अनेकों परीक्षणों और बाधाओं को पार करने वाले सबसे अधिक बुद्धिमान् का किया जाना चाहिए, जिससे वे अपना श्रेष्ठतम योगदान मनुष्यता के निर्माण में दे सकें। ये शिक्षक मातृवत् वात्सल्यभाव, सदाचारी, आध्यात्मिक, विभिन्न विद्याओं में निष्णात, कर्त्तव्यनिष्ठ, बहुभाषाविद् आदि गुणों से युक्त हों तथा इन्हें देश या समाज के अन्य दायित्वों से पूर्णतः मुक्त कर चौबीस घण्टे बच्चों के निर्माण में ही समर्पित करना चाहिए। इन्हें सब अभीष्ट सुविधाएँ भी प्राप्त करवाई जानी चाहिए। समाज उन पर पूर्ण विश्वास और श्रद्धा रखे। प्राचीन समय में शिक्षा देने का कार्य गृहस्थधर्म के समस्त दायित्वों से निर्मुक्त हुए वानप्रस्थी निर्वहन करते थे, अतः शिक्षा विना किसी शुल्क के दी जाती थी। अब भी ये व्यवस्था बनाई जा सकती है, इससे बच्चों को वृद्धजनों के जीवन का पूर्ण अनुभव और प्यार शिक्षा के साथ प्राप्त हो सकेगा। बच्चे भी उनकी सेवा शुश्रूषा कर सकेंगे। एक दूसरे को परस्पर सम्बल प्राप्त हो सकेगा। वृद्धजन अपनी योग्यता के अनुसार इन आश्रमों में कुछ भी सेवायें दे सकते हैं।
  • साम्प्रतिक काल में भी उक्त निर्देशों के अनुसार ग्राम और शहरों से दूर प्रकृति की गोद में छात्रावास, क्रीडास्थल आदि सब सुविधाओं से सुसज्जित आश्रम/विद्यालय/गुरुकुल जो भी नाम दें, स्थापित किये जाने चाहिए। इन का निर्माण जनसहयोग और सरकार द्वारा हो सकता है। इन आश्रमों में बच्चे के खान, पान और पढ़ने की हर प्रकार की चिन्ता श्रेष्ठ, निःस्पृह, समर्पित शिक्षकों के द्वारा की जायेगी, अतः माता पिता निर्द्वन्द्व हो अपने गृहस्थ जीवन को सुन्दरतम बना सकते हैं। आश्रम में रहने वाले बच्चों आदि के भोजन आदि की व्यवस्था भी जरा सी उदारता पर साल भर के लिए फसल के समय दिए गए एक-एक बोरी अन्न से ही सम्भव हो सकती है। जनसंख्या के अनुसार वह अनेक ग्रामों या एक ग्राम वा नगर का हो सकता है।
  • आश्रम में गरीब और धनवान् का अन्तर किये बगैर समानरूप से बच्चे का प्रवेश पाँच से आठ वर्ष की आयु में अनिवार्यरूप से हो जाये यह राजनियम होना चाहिए। जो माता पिता ऐसा न करें वे समाज या शासन के द्वारा दण्डनीय हों। गाँवों में यह दायित्व पंचायत को सौंपा जा सकता है और नगरों में नगरपालिका को, जिससे किसी का बच्चा घर में न रहने पाये। बच्चे माता, पिता और समाज में साक्षात् मोह न रखें जब तक पूर्ण शिक्षा न हो, इससे विना किसी घर आदि की चिन्ता के निरन्तर अध्ययन करना और करवाने का उद्देश्य पूर्ण होगा, विद्यार्जन में किसी प्रकार की बाधा न आने पायेगी। यह सबको शिक्षित करने का सीधा और सरल उपाय है। सभी को पढ़ाई करने और आगे निकलने के समान अवसर उपलब्ध करवा देने से समाज में किसी को आरक्षण देने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। न समाज में विद्वेष फैलेगा। समाज से दूर आश्रमों में बच्चों के होने से बालश्रम (Child Labour) जैसे कलंक का प्रश्न ही नहीं उठेगा। बच्चे भी समाज में पनपने वाले अनेक प्रकार के रोगों से बचे रह सकेंगे।
  • इस आश्रम व्यवस्था में राजा या रंक, सम्प्रदाय आदि के भेद के विना सब बच्चों के साथ समान व्यवहार, खान-पान, वस्त्र आदि से पोषण होने से वास्तविक साम्यवाद अनायास ही आयेगा। जातिवाद का दुश्चक्र भी समाज से शनैः शनैः समाप्त हो जायेगा।
  • समयानुसार नियमित दिनचर्या की परिपालना करवाना भी बच्चों के भविष्य और स्वास्थ्य आदि के लिए उत्तम होगा। ऐसे स्थल पर स्वयं कार्य करने की प्रवृत्ति का भी उदय होगा और बच्चा स्वावलम्बी बनेगा।
  • शारीरिक बल की उन्नति और विभिन्न खेलों में विश्व स्तर पर ख्याति अर्जित करवाने के भी आश्रम स्थल साधन बन सकते हैं। क्योंकि क्रीड़ायें सामूहिक रूप में प्रातः सायम् ही की जाया करती हैं।
  • नित्य प्रातः सायं आसन प्राणायाम, खेलकूद के द्वारा शारीरिक पोषण और मन, आत्मा की प्रबलता के लिए सन्ध्योपासना द्वारा अध्यात्म का पाठ पढ़ाना तथा वातावरण की शुद्धि के लिए अग्निहोत्र करना करवाना अपेक्षित होगा। अग्निहोत्र इसलिए कि अग्नि में पड़ी हुई आहुतियाँ इदन्न मम के द्वारा त्यागभावना को सिखाती हुईं सूक्ष्म हो सम्पूर्ण प्रकृति को सुवासित कर नई ऊर्जा का संचार वातावरण को शुद्ध और पवित्र करने में करती हैं। वस्तुतः गोघृत और प्रकृतिप्रदत्त वनस्पतियों में वह शक्ति मालूम होती है जो यज्ञीय अग्नि के माध्यम से प्रदूषण को समूल नष्ट करने की क्षमता रखते हैं। वेद आदि सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय, वाल्मीकिरामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ इसकी पुरजोर वकालत करते हैं। आधुनिक विचारक दयानन्द भी पर्यावरण की शुद्धता के लिए यज्ञ को ही उत्तम मानते हैं, वे सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में क्या होम न करने से पाप होता है? के उत्तर में लिखते हैं- हाँ, क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर में जितना दुर्गन्ध उत्पन्न हो के वायु और जल को बिगाड़ कर रोगोत्पत्ति का निमित्त होने से प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है, उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है। इसलिये उस पाप के निवारणार्थ उतना सुगन्ध वा उससे अधिक, वायु और जल में फैलाना चाहिये। प्रत्येक को अग्निहोत्र करने के लिए प्रेरित करते हुए पुनः वहीं अन्य प्रश्न के उत्तर में लिखते हैं- प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुति और छः-छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिये और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है। इसीलिये आर्यवरशिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे, महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा, तब तक आर्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये। इन विचारों से यह सिद्ध होता है कि यज्ञ के धूम से वातावरण सुगन्धित होता है और यह अनुभव सिद्ध भी है। यदि यह आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर भी निरीक्षित हो योग के समान प्रचार प्रसार पा जाए तो सम्भव है, भौतिक प्रदूषणों से और विभिन्न प्रकार के रोगों से मानव समाज मुक्त हो जाए। अतः इस दिशा में अनुसन्धान करने के लिए आधुनिक वैज्ञानिकों और याज्ञिकों के सम्मिलित प्रयास होने चाहिए, जिसकी आज के युग में नितान्त आवश्यकता है।
  • साथ ही प्रातः सायं के समय सदुपदेशों के द्वारा विभन्न विषयों जैसे धर्म वास्तव में किसे कहते हैं? ईश्वर, जीव, प्रकृति क्या हैं? इत्यादि पर चर्चाएँ श्रेष्ठ मानव का निर्माण करने में सहयोगी होंगी। ब्रह्मचर्य आदि का पाठ पढ़ा कर विषय वासना और विलासिता के रोगों से समाज को दूर किया जा सकता है। इसप्रकार एक स्थान पर रहने वाले बच्चों का एक साथ चहुँमुखी विकास होना सम्भव है। जिसे परिवारों में प्राप्त करना कथमपि सम्भव नहीं।
  • एक स्थान पर रहने और नियम बना देने से विभिन्नभाषाओं को भी थोड़े ही परिश्रम से बच्चे जान सकते हैं, क्योंकि भाषा बोलने और व्यवहार से आती है। ऐसे में बच्चे का विकास भी सही तरीके से होगा और श्रवण परम्परा से कथाओं के साथ श्रेष्ठ सूक्तियों आदि का स्मरण करवाना भावी जीवन के लिए फलदायक।
  • पाठ्यविषयों में भी शैशव काल के प्रथम तीन चार वर्ष में भाषाओं का पूर्ण ज्ञान करवाना ही उपयोगी हुआ करता है। जिससे समझ विकसित होने पर विषयों को बाद में ठीक से जाना जा सकता है। अन्य विषयों को आनुपूर्वीक्रम से एक-एक विषय को पढ़ाना उत्तम रहेगा। जिससे समय की उपलब्धि होने से अन्य मानसिक और आत्मिक उन्नति के मार्ग भी प्रशस्त होंगे।
  • आश्रमों में श्रेष्ठ, आचारवान्, अध्यात्मनिष्ठ गुरुओं के सान्निध्य में रहकर उनके जीवन से बहुत कुछ सीखने का यथासमय अवसर मिलता है और शिक्षा कkeo परम उद्देश्य श्रेष्ठ मानव का निर्माण करना सम्भव होता है। फिर कार्य कुशलता और योग्यता के अनुरूप बच्चे स्वयं या आचार्य के निर्देशानुसार अपनी आजीविका ग्रहण कर सकते हैं।
  • यहाँ यह भी अवधेय है कि कन्याओं के लिए आश्रम अलग और लड़कों के लिए अलग होना वैयक्तिक और सामाजिक दोनों दृष्टियों से शीघ्र उन्नति करने में लाभदायक सिद्ध होगा। परस्पर आसक्ति में नहीं पड़ेंगे। दिखावा करने का भूत सवार नहीं होगा। जिससे अनेक प्रकार की असहज प्रवृत्तियों से बचा जा सकता है।
  • पहाड़ों पर तो आश्रम व्यवस्था में पढ़ाना आर्थिक आदि सभी पहलुओं में और भी उपयोगी है। सुना जाता है उत्तराखण्ड जैसे प्रान्त में सोलह ऐसे महाविद्यालय हैं, जहाँ प्रत्येक में सौ सौ की भी छात्र संख्या नहीं है। ऐसे में आश्रम व्यवस्था बहुत उपयोगी होगी।

आधुनिक शिक्षा में इसप्रकार के परिवर्तन कर समाज को वर्तमानकालिक नीतिनिर्धारक बहुत सारी विसंगतियों से बचा सकते हैं। आशा है इस दारुण स्थिति में उक्त महत्त्व को समझते हुए भारत सरकार और अन्य ऐसे ही समर्थ तथा सशक्त एन॰ जी॰ ओ॰, डी॰ ए॰ वी॰ संस्थान आदि सामाजिक संगठन आगे आयेंगे। भारत के सोये स्वाभिमान को जगायेंगे और भारतीय उच्च आदर्शों और परम्पराओं की पुनः स्थापना शिक्षाव्यवस्था के माध्यम से करवा कर भारतवर्ष के खोए हुए गौरव को प्राप्त करवाने में यथाशक्ति योगदान देंगे। क्योंकि शिक्षा ऐसा माध्यम है, जिससे शीघ्र और उचित दिशा में उन्नति होने में विलम्ब नहीं हुआ करता।

निष्कर्ष-

उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आधुनिक शिक्षापद्धति अनेक समस्याओं की जड़ है। जिसका मूलोच्छेद जब तक नहीं किया जायेगा तब तक समस्त समाज को शिक्षित और मानवोचित गुणों का उसमें आधान करवाना कथमपि सम्भव नहीं होगा। मनुष्य के केवल बाह्य स्वरूप को सुधारने का कार्य आज की शिक्षा का है। जबकि बाह्य से आन्तरिक स्वरूप अधिक महत्त्व रखता है परन्तु बाह्य और आन्तरिक समुदित हुए चार चाँद लगाने में समर्थ हैं। प्राचीन आश्रम व्यवस्था विचार शक्ति को शुद्ध कर उभयविध उन्नतियों को सिद्ध करती है। इसलिए यदि समाज में मानवता लानी है, प्रकृति के प्रदूषण को बचाना है, बच्चों के विद्यालय में आवागमन हेतु लगने वाले समय को बचाना है तो प्राच्य और अर्वाच्य दोनों के मेल से एक नई शिक्षापद्धति लागू करनी होगी जो सम्पूर्ण समाज को चाहे वह निर्धन से निर्धन हो या मध्यम या बहुत धनाढ्य सब को अध्ययन का समान अवसर देवे। जिससे समाज में स्वाभाविक साम्यवाद आयेगा, जातिवाद निर्मूल होगा, कर्त्तव्यकर्म को महत्त्व दिया जायेगा, आरक्षण की आवश्यकता न होगी। गुरुकुलीय शिक्षापद्धति में प्रकृति की गोद में पढ़ने से भौतिक संसाधनों के प्रति अधिक अनुराग न होगा, आसक्ति न होगी, दिखावा न होगा। विनयभाव आयेगा और व्यक्ति वित्त, बन्धु, वय, कर्म और विद्या को क्रमशः महत्त्वशाली समझेगा, जबकि अब केवल वित्त को ही महत्त्व दिया जा रहा है। आश्रमव्यवस्था में किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बद्ध न होने से केवल मनुर्भव (ऋग्वेद 10.53.6) अर्थात् मानव बन का पाठ पढ़ाया जायेगा। प्रातः सायं सन्ध्याकाल में शरीर को पूर्ण मानसिक और शारीरिकरूप से स्वस्थ रखने के लिए अग्निहोत्र और कुछ प्राणायामों के साथ अन्तर्ध्यान करवाना अपेक्षित होगा जिससे स्वदुर्गुण यदि हैं तो उन्हें दूर करने के लिए दृढ़संकल्प शक्ति तैयार की जा सकती है। इसप्रकार जीवन स्वयमेव धार्मिक बन जायेगा, क्योंकि धर्म पूजा पाठ का नाम नहीं है। न वह मन्दिरों में है, न गुरुद्वारों में, न मस्जिदों वा चर्चों में। वस्तुतः सही से कर्त्तव्य कर्मों को करना ही धर्म है। या जिससे समाज, प्रकृति की सम्यक् संस्थिति और मोक्षरूप परम आनन्द की प्राप्ति हो, वह धर्म है।

अन्त में संक्षेप में यदि यह कहा जाये कि सम्पूर्ण देश में नवोदय विद्यालयों की तरह छात्रावासों में रहकर ही पढ़ाई करवाना सुनिश्चित कर दिया जाये तो भी प्रतिदिन करोड़ों रूपये के पर्यावरण प्रदूषण, समयहानि, जनहानि, धनहानि से बचा जा सकता है और उक्तव्यवस्था मूर्तरूप धारण कर लेवे तो देश पुनः प्राचीन गौरव को प्राप्त करने में देर नहीं लगायेगा और कालिदास के रघुवंश के शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्। वार्द्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ।।जैसे वाक्य पुनः भारत के भाल का शृंगार बन जायेंगे।

(डॉ0 ब्रह्मदेवसंस्कृत-विभागगुरुकुलकांगड़ीविश्वविद्यालयहरिद्वार)

सम्पर्क सूत्र- 09412307123,               E-mail : brahma63@gmail.com

 

द्वन्द्वों के सहन से परमपद की ओर….. शिवदेव आर्य, गुरुकुल पौन्धा, देहरादून

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प्राचीन काल से ही द्वन्द्वों के सहन करने का विशेष महत्त्व रहा है। प्रत्येक प्राणी के लिए द्वन्द्वों का सहन करना अत्यावश्यक है। द्वन्द्व-सहन से मनुष्य किसी भी प्रकार की देश-काल-परिस्थिति में विना किसी की सहायता लिये सहन कर सकता है।

प्रथम विचारणीय है द्वन्द्व किसे कहते है? इसके उत्तर के लिए हम गीता की ओर अपनी दृष्टि दौड़ते हैं तब हमें ज्ञात होता है कि –

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।

                        शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।। (गीता-6/7)

अर्थात् जिसने अपने आपको इन्द्रियों की दासता से छुड़ा दिया है, उसका चित्त प्रशान्त रहता है और जिसप्रकार स्थिरदर्पण में सूर्य का प्रतिबिम्ब भी स्थिर और स्पष्ट दीखता रहता है, इसीप्रकार प्रशान्त चित्त में शीतोष्ण, सुख-दुःख, मानापमान आदि सब द्वन्द्वों के बीच एकरस परमात्मा का आनन्द एकाग्र समाहित रूप से प्रतिफलित होता है। अगर साधारण भाषा में कहे तो सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान, वृष्टि-अनावृष्टि आदि जो ऋतुओं की विषताएॅं है, उन सबको सहन करने का नाम ही द्वन्द्व-सहन है।

प्रायः संसार में देखने को मिलता है कि ऋतुओं के बदलने पर बहुत से लोग रोगग्रस्त हो जाते हैं। इसका कारण खोजे तो पता चलता है कि ऋतुओं की विषमता को सहन करने की शारीरिक क्षमता नहीं थी, इसी कारण से लोग बीमार हो गये। और यदि ऋतुओं की विषमता को सहन करने का सामथ्र्य हम सबके अभ्यास से उत्पन्न हो जाये तो बीमार होने का प्रश्न ही उदित नहीं होता।

इसलिए जितने भी योगी-साधु-संन्यासी-साधक आदि होते हैं, वे सब स्वयं द्वन्द्वों को सहन करते हुए दुसरों को भी द्वन्द्व सहन करने का उपदेश देते हैं। इन्हीं द्वन्द्वों को सहन करने से मनुष्य किसी भी परिस्थिति में अपने जीवन का निर्वाह सम्यक् रूप से कर सकता है।

गुरुकुलीय व्यवस्था में ब्रह्मचारियों को जूतों आदि के धारण करने का निषेध, खान-पान में नमक, मिर्च आदि मसालों का सेवन तो बिल्कुल ही निषिद्ध होता है, सर्दी में कम से कम वस्त्रों को धारण करना, ठण्डी-ठण्डी हॅवाओं के चलते हुए भी ध्यान की अवस्था में घण्टों बैठे रहना, शृंगार से तो इतना दूर कि मानों शृंगार का नाम ही न जानते हों इत्यादि क्रियाकलापों के करने के पीछे आचार्य का कोई स्वयं का स्वार्थ नहीं होता अपितु ब्रह्मचारियों को द्वन्द्व-सहन करने की क्षमता को विकसित करना ही एक मात्र उद्देश्य होता है।

हानि-लाभ, जय-पराजय आदि ये भी द्वन्द्व हैं। इनके सहन करने से साधारण से साधारण मनुष्य भी उच्च स्थान को प्राप्त होता है। परन्तु जो इन द्वन्द्वों को सहन नहीं करते, वे मनुष्य हानि, पराजय, अपमान आदि से बिल्कुल पागल हो जाते हैं। मानसिक संतुलन खराब हो जाता है। निराशा का वातावरण चारों ओर से आकर घेर लेता है। इतना ही नहीं अपितु द्वन्द्वों को सहन करने की क्षमता के कम होने के कारण से लोग मृत्यु के सोपान को प्राप्त होते हैं। इस तरह द्वन्द्व की असह्यता से सदैव हानि और सह्यता से लाभ होता है।

द्वन्द्व-सहन के कारण मनुष्य विजय से अधिक प्रसन्न नहीं होता और न ही पराजय होने से हताश व निराश होता है। दोनों ही अवस्थाओं में अपने कर्तव्य में स्थिर रहता है। ऐसा द्वन्द्व सहनशील व्यक्ति जगत् में उच्च से उच्च स्थान को प्राप्त कर सकता है। इसलिए योगदर्शन में भी द्वन्द्वों को सहन करने का परामर्श दिया गया है। द्वन्द्व सहनं तपः अर्थात् द्वन्द्वों को सहन करना ही वास्तव में तप है।

द्वन्द्व का एक अर्थ ‘युद्ध’ भी हो सकता है। द्वन्द्व-सहन करो अर्थात् युद्ध को सहन करो। युद्ध को सहन करने का तात्पर्य है कि युद्ध में विजय प्राप्त करो। प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख इस जगत् का विषाक्त वातावरण ही युद्ध है। अतः प्रत्येक मनुष्य को द्वन्द्व सहन करने अवश्य ही आने चाहिये।

आज संसार में वैयक्तिक, सामाजिक, रोगविषयक आदि-आदि अनेकशः युद्ध चल रहे हैं। अगर मनुष्य को इन युद्धों में विजय प्राप्त करनी है तो अवश्य ही द्वन्द्वों की सहन-शक्ति को विकसित करने की जरुरत है। अन्यथा मनुष्य के परास्त होने में देरी तक न लगेगी।

मनुष्य का व्यवहार प्रतिकुल होता जा रहा है। जैसे जो मनुष्य जितना अधिक सभ्य होता है, वह उतने ही अधिक वस्त्रों को धारण   करता है। वह मनुष्य उतना ही अधिक बीमार पड़ता है जबकि जंगल में रहने वाले जंगली मनुष्य जो वस्त्रों को नहीं पहनते है। अर्थात् द्वन्द्व को सहन करते है, वह कभी भी बीमार नहीं पड़ते।

यथार्थता में यदि हम जीवन के पथ पर बहुत ऊॅची उड़ान भरना चाहते हैं तो हमें द्वन्द्वों को सहन करने का अभ्यास करना चाहिए। यही गीता का उपदेश और मेरे लिखने का आशय है।