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पुस्तक – परिचय पुस्तक का नाम- सत्यार्थ प्रकाश दर्शन

पुस्तक – परिचय

पुस्तक का नामसत्यार्थ प्रकाश दर्शन

सपादक प्रदीप कुमार शास्त्री

प्रकाशक शतादी स्मृति ग्रन्थमाला प्रकाशन समिति

आर्य समाज शहर, बड़ा बाजार, सोनीपत, हरियाणा

मूल्य – 60=00        पृष्ठ संखया – 192

प्रस्तुत पुस्तक विक्रम सवत् 2020 के सत्यार्थ प्रकाश-विशेषांक से चयनित कुछ विशिष्ट लेखों पर आधारित है।

महर्षि ने आर्यावर्त्त वासियों के लिए एक अमूल्य भण्डार प्रदान किया है। संसार में पोंगा पंथियों का बोल बाला है। वे भोली-भाली जनता को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। वे स्वयं भी अथाह गर्त में गिर रहे हैं तथा जन मानस को ऊपरी प्रलोभन देकर अपना उल्लू सिद्ध करने के लिए आडमबरों के  जाल में ग्रसित कर रहे हैं। स्वामी जी ने सत्य को सर्वोपरि रखा और आज एवं पूर्व में अर्थात् महाभारत काल के बाद में आये परिवर्तन को वास्तविकता का पाठ पढ़ाया। आज अंधविश्वासों एवं ढोंगियों का जाल फैला हुआ है, इसीलिए वेद-वेदांग और शास्त्रों को पढ़ने एवं सत्य को अपनी बुद्धि की कसौटी पर खरा उतरने के लिए सत्यार्थ प्रकाश पढ़ना-पढ़ाना अत्यन्त आवश्यक है।

स्वस्थ शरीर के लिए चरक संहिता के आधार पर उपचार किया जा सकता है, उसी प्रकार सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से सही ज्ञानार्जन एवं जन कल्याण संभव है। सत्याचरण से मन की, तप से आत्मा की तथा ज्ञान से बुद्धि की शुद्धि होती है। इस प्रकार सत्यार्थ प्रकाश सार के पढ़ने से कायाकल्प होजाता है। इस पुस्तिका में 16 लेख हैं, जिनमें सत्यार्थ प्रकाश क्यों, गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय, सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे, क्या विदेश यात्रा पाप है? मूर्ति पूजा विवेचन आदि लेख प्रमुख हैं। पाठक सपूर्ण पुस्तक का स्वाध्याय करेंगे तो पूर्ण आत्मसन्तोष होगा और भावी पीढ़ी का भी कल्याण होगा।

ईश्वर का निज नाम ओ3म् है। ऋषि ने ईश्वर के एक सौ नाम गिनाएँ हैं। धर्म आचार प्रधान है। विदेश यात्रा पाप नहीं, इतिहास की शिक्षा, मांस भक्षण निषेध, भारतीयों की विशेषता, गौरक्षा, मण्डन-खण्डन क्यों- पर आदि विषयों सरल सटीक भाषा में सार तत्त्व के आधार पर समपूर्ण सामग्री है। पाठकों को जीवन में उतारकर अवश्य लाभ उठाना चाहिए। सभी के लिए अनुपम सामग्री है।

– देवमुनि, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

डॉ0 धर्मवीर आचार्य का योगशास्त्रीय परमपरा के संवर्द्धन में योगदान

डॉ0 धर्मवीर आचार्य का योगशास्त्रीय परमपरा के संवर्द्धन में योगदान

राजवीर सिंह

महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्त, वैदिक विद्वान्, गमभीर अनुसन्धाता, ओजस्वी वक्ता, उपदेशक, लेखक, बहुमुखी प्रतिभा के धनी तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती की स्थानापन्न परोपकारिणी सभा (अजमेर) के यशस्वी प्रधान तथा मन्त्री पदों के निर्वहन कर्त्ता पं0 धर्मवीर का जन्म महाराष्ट्र प्रदेश के उद्गीर क्षेत्र में आर्य परिवार से समबद्ध पिता श्री भीमसेन आर्य और माता श्रीमती ‘श्री’ के गृह में दिनाङ्क 20 अगस्त 1946 ईसवी को हुआ। आपने प्रारमभिक शिक्षा अपने जन्म क्षेत्र में प्राप्त की। तत्पश्चात् आर्यसमाज के तपोनिष्ठ एवं कर्मठ संन्यासी स्वामी ओमानन्द सरस्वती (पूर्वनाम आचार्य भगवान देव) के श्रीचरणों में अध्ययनार्थ गुरुकुल महाविद्यालय झज्जर में ईसवी सन् 1956 में प्रविष्ट हुए। आप एक मेधावी कुशाग्र बुद्धि छात्र होने के कारण अध्ययन में अग्रणी रहे। आपने गुरुकुल झज्जर, गुरुकुल काँगड़ी (हरिद्वार) आदि से आचार्य, एम.ए. तथा आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की। आपने पंजाब विश्वविद्यालय की दयानन्द शोधपीठ से ‘ऋषि दयानन्द के जीवनपरक महाकाव्यों का समीक्षात्मक अध्ययन’ विषय पर शोध करते हुए पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। आपने ईसवी सन् 1974 में दयानन्द कॉलेज अजमेर के संस्कृत विभाग में प्राध्यापक और अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। आप प्रभावशाली वक्ता, प्रचारक, चिन्तक, दार्शनिक तथा तार्किक हैं। आपकी सहधर्मिणी श्रीमती ज्योत्स्ना आर्या तथा आपकी पुत्रियाँ आपके सामाजिक कार्यों में पूर्णरूप से सहयोगी हैं और आपका पूरा परिवार पारस्परिक व्यवहार में संस्कृत भाषा का प्रयोग करता है।

आपने वैदिक धर्म, अध्यात्म आदि के प्रचारार्थ भारत वर्ष के प्रायः सभी प्रान्तों में यात्रा की है और विदेशों में हॉलैण्ड, सिंगापुर, नेपाल आदि स्थानों पर वैदिक धर्म का प्रचार किया है। प्रचार के साथ-साथ आप जिज्ञासु छात्रों को वैदिक साहित्य का अध्यापन भी पूरी निष्ठा से कराते रहते हैं। आप महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित परोपकारिणी सभा से ईसवी सन् 1984 में जुड़े और प्रधान तथा मन्त्री आदि पदों का निर्वहन करके सभा के उद्देश्यों तथा कार्यों को आपने एक सच्चे ऋषिभक्त के रूप में पूरा किया है। आपने परोपकारिणी सभा के अधीन अनेक प्रकल्प और योजनाएँ संचालित की हैं, जिनमें गुरुकुल स्थापना, साधना आश्रम की स्थापना, गोशाला की स्थापना आदि प्रमुख हैं।

आपने लेखन के माध्यम से महनीय कार्य किया है। आप परोपकारिणी सभा के मुखपत्र ‘परोपकारी’ पाक्षिक के अनेक वर्षों से अवैतनिक समपादक हैं। परोपकारी पत्रिका आर्यसमाज की विशिष्ट एवं मानक पत्रिका है। इसके गमभीर तथा समसामयिक समपादकीय आपकी अद्भुत प्रतिभा के प्रमाण हैं। आपकी लेखनी से समाज को ऊर्जा मिलती है।

आपके समपादकत्व में परोपकारी में ‘योगविद्या विषयक’ अनेक लेख प्रकाशित होते रहते हैं। आपने ‘सत्यार्थप्रकाश क्या है’ नामक पुस्तक के साथ-साथ अन्य लेखन भी किया है। आपके मार्गदर्शन में ऋषि उद्यान में साधना आश्रम का संचालन हो रहा है, जिसमें साधकगण साधनारत हैं। वर्ष में कई बार यहाँ योग शिविरों का आयोजन होता है, जिनमें आर्यसमाज के उच्चकोटि के योगविशेषज्ञ/योगगुरु/योगप्रशिक्षक जिज्ञासु साधकों को योग का क्रियात्मक प्रशिक्षण देते हैं और आप स्वयं भी योगविषय पर व्याखयान देने के साथ-साथ ‘योगदर्शन’ का अध्यापन करते हैं। आपकी प्रेरणा से आर्ययुवकों तथा युवतियों ने योगसाधना के मार्ग का अनुकरण किया है।

आप द्वारा वैदिक तथा दार्शनिक विषयों पर दूरदर्शन पर भी व्याखयान प्रस्तुत किये जाते हैं, जिनमें योग अध्यात्म भी एक अंग है। आपके व्यक्तिगत जीवन में योगाभयास के रूप में आसन, प्राणायाम और ध्यान अनिवार्य रूप से समाहित है। आपने विद्यार्थी काल में स्वामी ओमानन्द सरस्वती से प्राणायाम आदि का ज्ञान प्राप्त किया था। यहाँ ध्यातव्य है कि स्वामी ओमानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज के महान् योगी स्वामी आत्मानन्द सरस्वती (पं0 मुक्तिराम उपाध्याय) से योग साधना का ज्ञान प्राप्त किया था और योगदर्शन के प्रकाण्ड शास्त्रीय विद्वान् तथा साधक स्वामी आर्यमुनि से योगदर्शन का विशेष अध्ययन किया है। डॉ0 धर्मवीर आचार्य को ऐसे महान् योगसाधक (स्वामी ओमानन्द सरस्वती) से प्राणायाम आदि का विशेष ज्ञान मिला है।

डॉ0 धर्मवीर जी को अपने जीवन में अनेक योगसाधकों का सानिध्य मिला, जिनमें स्वामी सत्यपति परिव्राजक (रोजड़), स्वामी दिव्यानन्द सरस्वती (हरिद्वार), स्वामी आत्मानन्द सरस्वती, स्वामी ब्रह्ममुनि आदि प्रमुख हैं। इनके साथ ही आपको पौराणिक संन्यासी महात्मा आनन्द चैतन्य (बिजनौर) की योगसाधना को भी निकट से देखने व जानने का विशेष अवसर प्राप्त हुआ है।

डॉ0 धर्मवीर ने परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित अनेक ग्रन्थों का समपादन, निरीक्षण और प्रबन्धन किया, अतः इस प्रक्रिया में जितना भी योगविषयक साहित्य प्रकाशित हुआ है, उसमें आपका अनुभवी योगदान रहा है। इसके साथ ही स्वामी दयानन्द का समस्त साहित्य परोपकारिणी सभा के द्वारा प्रकाशित हुआ है। उसमें आपकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा अपने ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर योगविषयक बिन्दुओं की व्याखया प्रस्तुत की गई है, जिसे आपको अनेक बार पढ़ने और समपादित करने का विशेष अवसर प्राप्त हुआ है। इसके अतिरिक्त ऋषिमेले के अवसर पर अजमेर में आयोजित वेदगोष्ठियों में विद्वानों द्वारा प्रस्तुत शोधनिबन्धों को आपके समपादकत्व में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया गया है।

आर्यसमाज के प्रसिद्ध योगसाधक तथा लेखक स्वामी विश्वङ्ग द्वारा लिखित योगविषयक पुस्तकों में प्रकाशकीय का लेखन आप द्वारा किया गया है, जिनका प्रकाशन वैदिक पुस्तकालय दयानन्द आश्रम केसरगंज अजमेर द्वारा हुआ है।

उपरोक्त विवरण के आधार पर प्रमाणित है कि डॉ0 धर्मवीर आचार्य व्यक्तिगत जीवन में तथा लेखन और प्रचार के माध्यम से योगविद्या के विस्तार में संलग्न हैं और आप द्वारा सपादित परोपकारी पत्रिका तथा आपके नेतृत्व में संचालित दयानन्द साधक आश्रम और परोपकारी प्रकाशन विभाग आदि भी योगशास्त्रीय परमपरा के संवर्द्धन में विशेषरूप से सक्रिय हैं।

– शोधछात्र, संस्कृत, पालि एवं प्राकृत विभाग, म.द.वि.वि. रोहतक, हरियाणा

हैदराबाद पुस्तक मेले में इस्लामिक बुकस्थल पर धर्म चर्चा मैं

हैदराबाद पुस्तक मेले में इस्लामिक बुकस्थल पर धर्म चर्चा

मैं (रणवीर) और राहुल जी (अकोला) पुस्तक मेले में संदर्शनार्थ गये थे। हम प्रवेश पत्र लेकर जैसे ही अन्दर गये, वहाँ पर एक अच्छा-सा मंच लगाया हुआ था, उस मंच पर प्रतिदिन नये-नये पुस्तकों का उद्घाटन होता रहता था और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते रहते थे। उस मंच के चारों तरफ भव्य सुन्दर पुस्तक बिक्री की दुकानें लगी हुई थीं। हम एक-एक बिक्री विभाग देखते हुए आगे बढ़ रहे थे। एक पुस्तक बिक्री विभाग पर हमारे सहिष्णु मित्रों द्वारा खुल्लम-खुल्ला धर्म प्रचार हो रहा था, उस बिक्री विभाग में भेड़ जैसे मूर्ख, बुद्धू हिन्दुओं को भेड़ की खाल में भेड़िये दीन की ओर आकर्षित कर रहे थे। वहाँ पर जाकर हमने भी धर्म चर्चा में भाग लिया। एक मौलवी एक धर्म निरपेक्ष (सेक्यूलर) हिन्दू बाप-बेटी को कुरान हाथ में थमा कर कुरान में विज्ञान है, कुरान में विज्ञान है, कुरान में भाईचारा है, कुरान में सृष्टि विद्या है, कुरान ईश्वरीय ज्ञान है….. ऐसी-ऐसी बातें बता रहे थे। तो हमने झट से प्रश्न किया- आपके कहे अनुसार कुरान मनुष्य मात्र के लिए है, भाईचारा है, तो कुरान में काफिरों के लिए भाईचारा क्यों नहीं? उन्होंने इसका कोई उत्तर नहीं दिया, फिर हमने दूसरा प्रश्न किया- हजरत मोहमद कहाँ तक पढ़े-लिखे थे? तो उन्होंने कहा- कुछ भी पढ़े-लिखे नहीं थे, हमने कहाँ- जो स्वयं पढ़े-लिखे नहीं, वो दुनिया को क्या पढ़ा सकता है? बीच में बुजुर्ग हिन्दू कूद पड़े और कहने लगे- यह समभव है कि एक अनपढ़ भी पढ़ा सकता है। तो हमने कहा- आप तो पढ़े-लिखे लग रहे हैं श्रीमान् जी! क्या आपने अपनी पुत्री को किसी बिना पढ़े के पास पढ़ने के लिए भेजा था क्या? तो वे निरुत्तर हो गये। हमने उदाहरण के रूप में समझाया- वनवासी जो नग्न होके घूमते रहते हैं, बिना पढ़ाये हुए, वो शिक्षित हो रहे हैं क्या? आप तो पैगमबर बनने की बात कर रहे हैं। फिर हमने तीसरा प्रश्न किया कि आप तो पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को मानते ही नहीं। तो मौलवी ने प्रश्न किया- आप यह मानते हैं कि जो इस जन्म में अच्छे कर्म करते हैं, उनको परमात्मा अगला जन्म प्रमोशन के तौर पर और अच्छा जन्म देता है? तो हमने कहा- हाँ स्वाभाविक है। फिर मौलवी ने प्रश्न किया- उनका अगला जन्म झोपड़पट्टी में क्यों होता है? तो हमने जवाब दिया- उनके कर्मों के अनुसार। मौलवी ने प्रश्न किया- पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को सिद्ध करो। तो हमने कहा- आप हमारे सामने सात-आठ मौलवी खड़े हैं, आप सारे के सारे एक जैसे क्यों नहीं है? कोई काला, कोई मोटा, कोई पतला, कोई टेड़ा…..? इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हर एक का शरीर एक जैसा नहीं है और मन, बुद्धि, इन्द्रियों की शक्ति सामर्थ्य भी अलग-अलग है। तो इससे यदि आपको मालूम पड़ता है कि यह भेदभाव अल्लाताला ने जानबूझ कर अपनी मर्जी से किया है, तो अल्लाताला अन्यायकारी सिद्ध होगा, लेकिन यह पूर्वजन्म के अपने-अपने कर्मानुसार हमें मिले हैं। एक मौलवी ने प्रश्न किया- जो पिछले जन्म में अच्छे कर्म किये हैं, उनको ज्वर आदि की पीड़ा बिल्कुल भी नहीं होनी चाहिए। तो हमने उत्तर दिया- जनाब, ज्वर की बात छोड़िये, यदि जीवात्मा ने पिछले जन्म में कुछ बुरे कर्म किये होंगे तो परमात्मा उनके शुभ कर्मानुसार उनको अच्छा शरीर देकर फिर उनके बुरे कर्म फलस्वरूप उनके शरीर के अंगों को छीन लेते हैं, जैसे दुर्घटना में हाथ या पाँव कट जाना आदि। और एक उदाहरण- बच्चे बहुत मासूम होते हैं, वे तो मन से भी पाप नहीं करते हैं, तो उनका भी अपने पिछले जन्मों के कर्मानुसार किसी दुर्घटना में हाथ या पाँव आदि टूटना आदि होता रहता है, और तो और मासूम बच्चों की बात छोड़िये, जब एक माँ गर्भवती होती है तो आप उस गर्भवती माँ से पूछिये कि क्या अपने पेट के अन्दर अपने बच्चे का हाथ, पाँव, मुख, हृदय आदि इन्द्रियाँ वह स्वयं तैयार कर रही हैं क्या? तो आप जवाब पाओगे कि नहीं, दुनिया कि कोई भी माँ अपने पेट के अन्दर के बच्चे के शरीर का निर्माण स्वयं नहीं कर सकती, वह परमात्मा का कार्य है। यदि उस माँ को वह कार्य सौंप दिया होता तो कोई भी अपंग बच्चा पैदा नहीं होता। इससे साबित हो रहा है कि उन बच्चों ने माँ के गर्भ में कोई कर्म ही नहीं किये, फिर भी उनके पिछले जन्मों के अशुभ कर्मों के दण्ड के तौर पर वे बच्चे अपंग पैदा हो रहे हैं और माँ के गर्भ में बच्चे के दिल के अन्दर छेद कौन कर रहा है? स्वयं माँ तो नहीं कर सकती है न? उस बच्चे ने अभी जन्म भी नहीं लिया, कोई कर्म भी नहीं किया, नौ महीने भी पूरे नहीं हुए, फिर भी उसके दिल में छेद क्यों हो गया है? ये उनका पूर्व जन्मों का अशुभ कर्मों का फल है, वह परमात्मा दे रहा है, वह न्यायकारी है। इस विषय पर वे चुप हो गये। दूसरे मौलवी ने हम दोनों से कहाँ- भैया, आप यहाँ से चले जाइए। वे सोच रहे थे कि भीड़ ज्यादा इकट्ठा हो रही है, बात नहीं जम रही है। तो और एक मौलवी ने हम से प्रश्न किया- आप मूर्ति में भगवान को मानते हैं क्या? आप अवतार आदि को भी मानते हैं और आप वराह अवतार को भी मानते हैं कि नहीं? तो हम ने कहाँ- मूर्ति जड़ है, प्रकृति है, परमात्मा नहीं, हम अवतार आदि को भी नहीं मानते, परमात्मा जीवात्मा नहीं हो सकता, जीवात्मा परमात्मा नहीं हो सकता, तो वे चुप हो गये। हमने मौलवियों से प्रश्न किया- कुरान में भाईचारा है, शान्ति का सन्देश है, तो क्यों अल्लाताला ने गाय को काट के खाने को कहा है, सूअर को नहीं? तो उन्होंने हमसे कहा- आपके सामने एक तरफ अमृत है, एक तरफ जहर है, तो आप किसे स्वीकार करेंगे? हमने कहा- अमृत को, तो उन्होंने कहा- सूअर जहर है, इसीलिए कुरान में उसको खाने के लिए मना किया गया है और सूअर किसी दूसरे काम के लिए बनाया गया है, तो हमने कहा- गाय के गोबर से खेत पुष्ट होते हैं, उस अन्न को खाने से हम मनुष्य पुष्ट होते हैं, गौ मूत्र से कैंसर आदि रोग ठीक हो रहे हैं, दवाइयों में उपयोग होता है, दूध से घी बनता है, उसे खाने से बुद्धि पवित्र होती है, यदि अल्लाताला न्यायकारी है, गाय और सूअर दोनों को खाने के लिए कहता या दोनों को नहीं खाने के लिए कहता। एक के साथ न्याय, एक के साथ अन्याय? इससे सिद्ध हो रहा है कि यह कुरान अल्लाताला का नहीं, किसी अल्पज्ञ के द्वारा लिखी हुई पुस्तक है। सूअर को किसने बनाया? अल्लाताला ने या किसी और ने? पूछने से वे निरुत्तर हो गये। हमने मौलवियों से प्रश्न किया- आपका अल्लाताला सातवें आसमान पर कहाँ है? आसमान कितने होते हैं? अल्लाताला का सिंहासन कहाँ है? उनके आठ चेले बकरे के जैसे मुँह वाले सिंहासन को उठाने वाले कहाँ हैं? तो हमारे प्रश्नों की झड़ी सुनकर वे कहने लगे- भैया, आप दोनों यहाँ से चले जाइये। तो हमने कहा- आपके अल्लाताला का सिंहासन यहाँ लाओ, हम बैठना चाहते हैं। दो-तीन मौलवी हमारे पास आकर हमारी कमर पकड़ कर बोले- भैया, कृपया आप यहाँ से चले जाइये। एक ओर मौलवी ने कहा- तुहारे वेदों में पैगमबर मोहमद का नाम सामवेद के अध्याय के एक श्लोक में आता है। हम पूज्य जिज्ञासु जी द्वारा लिखित ‘कुरान सत्यार्थ प्रकाश के आलोक में’ पढ़ चुके थे, झट से बोले- कुरान में हर सूरत से पहले ऋषि दयानन्द जी का नाम आता है, तो वे मौलवी आग-बबूला होते हुए कुरान हमारे हाथ में थमा कर ‘दिखाओ’ कहने लगे, तो हमने कहाँ- अभी दिखाते हैं, यह कहकर हमने रहमान-उल-रहीम का तो सीधा-सा अर्थ दयालु दयानन्द या दयावान दयानन्द है, यह कहा। हमसे यह उत्तर सुनकर उनके पैरों तले धरती खिसक गई। फिर हमने कहा- चारों  वेदों में मन्त्र होते हैं, श्लोक नहीं, सामवेद में अध्याय नहीं होते हैं, पूर्वार्चिक उत्तरार्चिक होते हैं। फिर हमने एक ओर प्रश्न किया- कुरान में लिखा हुआ है कि चाँद के दो टुकड़े हुए हैं, तो मौलवी ने कहा- जाओ जाके देखो, दिखेगा….। वहाँ जितने भी लोग खड़े थे, वे हँसने लगे और हम भी खूब हँसे एवं हँसते हुए बोले- आप महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का सत्यार्थ प्रकाश पढ़िये, हम आर्यसमाजी हैं और कुल्लियाते आर्य मुसाफिर पढ़िये, अमर शहीद पं. लेखराम जी की है। उसमें तो पं. लेखराम जी ने कुरान की धज्जियाँ उड़ा रखी हैं। कहते हुए हम खूब हँसते रहे। दो-तीन मौलवी हमारे कमर पर हाथ रखकर- जाओ भाई, यहाँ से जाओ, कहने लगे तो हमने उनसे यह अन्तिम वाक्य कहते हुए विदा ली- आपसे धर्मचर्चा करके हमें बहुत प्रसन्नता हो रही है, इस तरह की धर्मचर्चा हर गली में, हर मौहल्ले में, हर मस्जिद में होनी चाहिए। ये शबद कहते हुए, न चाहते हुए भी वहाँ से हमें घर लौटना पड़ा। अस्तु। धन्यवाद।

– रणवीर

‘मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं’

ओ३म्

अंतर्राष्ट्रीय मातृत्व दिवस  के उपलक्ष्य में

मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

8 मई, 2016 को मातृत्व दिवस है। माता की महत्ता को रेखांकित करने के लिए यह पर्व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। आज के संसार में मनुष्य का जीवन ऐसा व्यस्त हो गया है कि लगता है कि हम स्वयं को ही भूल गये हैं, अपने निकट संबंधों के प्रति अपने कर्तव्य का बोध होना तो बाद की बात है। अतः वर्तमान युग में हमें जो काम प्रतिदिन करने का है, उसे भी वर्ष में केवल एक दिन याद कर ही सम्पन्न करने की परम्परा चल पड़ी है। वैदिक धर्म व संस्कृति में मनुष्यों के पांच अनिवार्य दैनिक कर्तव्य हैं जो प्रतिदिन बिना किसी व्यवधान व नागा किये करने होते हैं। यह कर्म हैं ब्रह्म यज्ञ वा सन्ध्या, दूसरा अग्निहोत्र वा देवयज्ञ, तीसरा पितृ यज्ञ, चौथा अतिथि यज्ञ और पांचवा बलिवैश्वदेव यज्ञ। पितृ यज्ञ में माता-पिता व घर के वृद्ध सभी का मान-सम्मान, सेवा-शुश्रुषा, आज्ञा पालन, उनको भोजन, वस्त्र व औषध आदि से सन्तुष्ट रखना आदि कर्तव्य सम्मिलित हैं। यह कर्तव्य वर्ष में एक बार नही अपितु प्रतिदिन और हर समय करने के होते हैं। धन्य हैं हमारे ऋषि-मुनि जिन्होंने सृष्टि के आरम्भ में ही मातृ वा पितृ यज्ञ को प्रतिदिन करने का विधान किया था। यदि इस मातृ-पितृ यज्ञ को भारत सहित विश्व में उसकी भावना के अनुसार किया जाता तो आज मदर्स डे घोषित करने की आवश्यकता नहीं थी।

 

मनुष्य को मनुष्य इस लिए कहा जाता है कि वह एक मननशील प्राणी है। परमात्मा ने मनन व चिन्तन करने का गुण अन्य किसी प्राणी को नहीं दिया। मनन का अर्थ है कि उचित व अनुचित, कर्तव्य व अकर्तव्य, सत्य व असत्य आदि का चिन्तन कर अपने कर्तव्य का निर्धारण करना। जब माता का विषय आता है तो हमें कर्तव्य का निर्धारण करते समय यह ध्यान करना पड़ता है कि हमारा अस्तित्व ही माता के जन्म देने के कारण है। यदि हमारी मां न होती तो हम संसार में आ ही नहीं सकते है। इतना ही नहीं प्रत्येक माता दस माह तक अपनी सन्तान को अपनी कोख वा गर्भ में धारण कर अनेकविध उसका पालन व रक्षा करती है। इस कार्य में उसे अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं जो केवल एक मां ही जान सकती है। प्रसव पीड़ा तो प्रसिद्ध ही है। इससे बड़ी पीड़ा शायद ही अन्य कोई हो जिससे होकर हर स्त्री को गुजरना पड़ता हो? सन्तान का जन्म हो जाने पर भी कई वर्षों तक सन्तान अपना कोई काम नहीं कर सकती। उसे समय पर दुग्धपान, आहार, वस्त्र धारण, मालिश व स्नान, मल-मूत्र साफ करना आदि सभी कार्य मां को ही करने होते हैं। यदि यह सब कार्य किसी नौकरानी से कराये जाते तो 24 घंटे के लिए 3 नौकरानियां रखनी पड़ती। काल्पनिक रूप में मान लेते हैं कि 8 साल तक बच्चे के सभी कार्यों को करने के लिए एक नौकरानी रखते और उसे सरकारी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी का वेतन देते तो यह धनराशि 20,000x3x12x8 = 57,60,000 रूपये हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त निवास गृह, दुग्धपान, आहार, वस्त्र व औषधि को भी जोड़ा जाय तो यह राशि आरम्भ के 8 वर्ष के लिये ही लगभग 1 करोड़ रूपये हो जाती है। यह तो 8 साल की बात की। माता तो अपने जीवन की अन्तिम सांस तक हमारा रक्षण व पोषण करती है। माता के इस उपकार का बदला सन्तानें आजकल किस प्रकार से दे रही हैं, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। इसी कारण मदर्स डे का आरम्भ किया गया है जिससे सन्तानें अपनी-अपनी माताओं के प्रति अपने कर्तव्य का विचार कर उनका यथोचित पालन करें।

 

यदि माता के दिल की बात की जाये तो माता के दिल में अपनी सन्तान के लिए जो प्रेम, स्नेह व दर्द होता है वह संसार के किसी अन्य मनुष्यादि प्राणी में कदापि नही हो सकता। यह अनुभव सभी का है। यदि इसका अनुभव करना हो तो किसी चिकित्सालय में शिशुओं के कक्ष में जा कर देखा जा सकता है कि जहां मातायें अपने रूग्ण शिशुओं के लिए किस प्रकार से चिन्तित व दुख से पीडि़त रहती हैं। माता की इस भावना का जो ऋण सन्तान पर हो सकता है उसे संसार की कोई भी सन्तान कुछ भी कर ले, कदापि चुका नहीं सकती। इतना होने पर भी समाज में देखा जाता है कि अंग्रेजी व अंग्रेजी पद्धति के स्कूलों व कालेजों में पढ़े लिखें शिक्षित व सभ्य कहे जाने वाले लोग, धन सम्पत्ति वाले स्त्री व पुरुष दम्पत्ति अपने माता-पिता व अभिभावकों के प्रति तिरस्कार व अपमान का व्यवहार करते हैं। माता-पिता की उपेक्षा व तिरस्कार की प्रवृत्ति अमानवीय कार्य तो है ही, साथ ही यह  कृतघ्नता रूपी महापाप है। यह जान लेना चाहिये कि संसार में कृतघ्नता से बड़ा कोई पाप नही है। ऐसा ही पाप मनुष्य इस संसार व अपने उत्पत्तिकर्ता ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरूप को जानने का प्रयत्न न कर और उसकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि न करके करते हैं। महर्षि दयानन्द ने गोरक्षा के सन्दर्भ में प्रश्न किया है कि क्या इससे अधिक कृतघ्न मनुष्य जो किसी भी प्रकार से गोहत्या करने, कराने में सहयोगी हैं अथवा इस पाप कर्म का विरोध नहीं करते, अन्य कोई हो सकता है? अतः माता-पिता सभी सन्तानों के लिए सदैव पूज्य हैं। सभी सन्तानों को श्रद्धा व भक्ति से उनकी सेवा शुश्रुषा किंवा स्तुति-प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये जिससे उनके स्वयं के वृद्धावस्था में पहुंचने पर उनकी सन्तानें भी उनकी देखभाल व सेवा आदि करें।

 

माता व सन्तान विषयक कुछ उदाहरणों पर भी विचार करते हैं। सुना जाता है कि शंकराचार्य बालक थे। पिता का साया उन पर नहीं था। माता उनका पालन करती थी। शंकराचार्य जी को वैराग्य हो गया था। वह संन्यास लेना चाहते थे। एक माता जिसकी एक ही सन्तान हो, कैसे वह अपने एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की अनुमति दे सकती थी। बताते हैं कि मां को मनाने के लिए शंकराचार्य जीएक नदी में स्नान करने के लिए गये। माता को भी साथ ले गये होंगे। वहां उन्होंने स्नान करते हुए मां को पुकारा और कहा कि एक मगरमच्छ ने उनका पैरा पकड़ रखा है। वह कहता है कि संन्यास ले लो नहीं तो वह मुझे खा जायेगा। हम अनुभव करते हैं कि उनकी माता बहुत भोली रहीं होंगी। सन्तान के हित को सर्वोपरि रखकर उन्होंने शंकराचार्य जी को संन्यास की आज्ञा दे दी। इस घटना से सिद्ध है कि सन्तान के हित के लिए माता अपने इष्ट व इच्छा को भी परवान चढ़ा सकती है। आज उन्हीं व कुमारिल भट्ट आदि के तप का प्रभाव है कि देश पूर्णतया नास्तिक नहीं बना। महर्षि मनु और महर्षि दयानन्द जी का भी उदाहरण हमारे सामने है। महर्षि मनु ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ मनुस्मृति में कहा है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता अर्थात् जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। महर्षि मनु का आशय है कि जहां मातृशक्ति का सभी आदर करते वहां विद्वान, बुद्धिमान, ऋषि-मुनि, ज्ञानी-वैज्ञानिक उत्पन्न होते वा निवास करते हैं। यह सभी अर्थ देवता शब्द से अभिप्रेत है। महर्षि दयानन्द के समय में मातृशक्ति का घोर निरादर होता था। उन्होंने बाल विवाह को अवैदिक ही घोषित नहीं किया अपितु इसे मानवता के विरुद्ध भी सिद्ध किया। उन्होंने आधुनिक समाज को एक नया सिद्धान्त दिया कि समस्त पूर्वाग्रहों जिनमें जन्मना जातिवाद भी सम्मिलित है, उससे ऊपर उठकर पूर्ण युवावस्था में गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार विवाह होना चाहिये। स्वामी दयानन्द ने नारी जाति के गौरव को पुनस्र्थापित करने के लिए जितने कार्य किये हैं, वह सब युगान्तरकारी हैं। उन्होंने बाल विवाह व बेमेल विवाह का निषेध तो किया ही साथ ही उनकी वैदिक विचारधारा से सतीप्रथा जैसी सभी कुरीतियों का निषेध भी होता है। उनके विचारों का आश्रय लेकर समाज में विधवा विवाह भी प्रचलित हुए जो अब भी जारी हैं। स्त्री व दलित शूद्रों को पुरूषों वा अन्य वर्णों के समान शिक्षा व वेदाध्ययन का अधिकार भी महर्षि दयानन्द की अनेक देनों में से एक बहुमूल्य देन है। वस्तुतः महर्षि दयानन्द ने नारी को जगदम्बा के उच्चस्थ सम्मानजनक गौरवपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित किया। नारी जाति के लिए किए गये हितकारी कार्यों में महर्षि दयानन्द का विश्व में सर्वोपरि स्थान है। बाल्मीकि रामायण में भी एक स्थान पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने लक्ष्मण जी को जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी के वैदिक सिद्धान्त की याद दिलाते हुए कहा था कि कहीं कितना ही सुखमय वातावरण क्यों हो परन्तु अपनी माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है। जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी सूक्ति की भावना को महर्षि दयानन्द ने अग्रेजों से देश को आजाद कराने के लिए ही शायद अपने शब्दों में कहा कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य (जन्मभूमि पर) होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है, अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर पिता और माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य (पर-राज्य होता है स्व-राज्य नहीं) पूर्ण सुखदायक नहीं है। यहां उन्होने माता व स्वदेशभूमि वा जन्मभूमि को स्वदेशीय राज्य से जोड़़कर कहा कि स्वदेशीय राज्य, स्वदेशोत्पन्न लोगों का राज्य, होगा तभी वह स्वर्ग के समान हो सकता है, अन्यथा नहीं। हम यह भी बता दें कि माता शब्द का प्रयोग यद्यपि हमें जन्म देने वाली माता के लिए ही रूढ़ है परन्तु उपकारों में मां से कहीं अधिक उपकार ईश्वर के हम पर हैं, इसलिये वह माता से भी अधिक पूजनीय व उपासनीय हैं। इसी कारण वेद एवं वैदिक साहित्य सहित हमारे सभी ऋषि मुनियों ने मनुष्य को बाल्यकाल से मृत्यु पर्यन्त प्रातः व दोनों समय सायं ब्रह्मयज्ञ व सन्ध्या का विधान किया है। हमने 103 वर्षीय वेदों के विद्वान पं. विश्वनाथ विद्यालंकार जी को बिस्तर पर लेटे हुए ही सन्ध्या करते देखा है। वस्तुतः ईश्वर इस संसार को उत्पन्न व इसका पालन आदि करने के कारण सभी प्राणियों व संसार की माता है। सभी को उसके उपकारों को स्मरण कर सदा सर्वदा उसका उपकृत अनुभव करना चाहिये। वैदिक संस्कृति  संसार में सबसे प्राचीन एवं महान है।  इसमें कहा गया है मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव।  अर्थात प्रथम माता पूजनीय देव है।

 

एक बात की ओर हम और ध्यान दिलाना चाहेंगे। कई परिवार आर्थिक दृष्टि से बहुत कमजोर होते हैं जहां परिवार के सभी लोगों के भोजन की पर्याप्त मात्रा नही होती। वहां क्या होता है? माताएं बचा-खुचा वा आधा पेट भोजन ही करती हैं। घर के अन्य सदस्यों को इसका ज्ञान ही नहीं होता। हमने सुना व देखा भी है कि आर्थिक अभाव से त्रस्त एक अपढ़ माता अपने बच्चों के पालन करने के लिए महीनें में 15 दिनों से अधिक दिन व्रत रखा करती थीं। उन्होंने अपनी योग्यतानुसार परिश्रम व अल्प धनोपार्जन भी किया। उन्होंने अपनी सन्तानों को भर पेट भोजन ही नहीं कराया अपितु सभी को शिक्षित किया और उनकी सभी सन्तानें गे्रजुएट व उसके समकक्ष शिक्षित हुईं। स्वाभाविक था कि कम भोजन, घर व बाहर काम करना, इससे उन्हें टूटना ही था। 50 वर्ष के बाद वह रोगों की शिकार हो गईं और संसार से असमय ही विदा हो गई। उनके विदा होने के बाद उनकी सन्तानें शायद इस बारे में विचार ही नहीं कर सकीं कि उनकी माता ने उनके लिए कितन त्याग व बलिदान किया था? देश में ऐसी लाखों व करोड़ों मातायें आज भी हैं। हमारा आज का समाज स्वार्थी-खुदगर्ज समाज है। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर एक नियम भी बनाया था कि सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी कार्यों को करने वा नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये। इसमें निर्बलों की सहायता व रक्षा भी सम्मिलित है परन्तु हमारा समाज आज भी इस भावना व विचारों से कोसों दूर है। इसे मनुष्यता का अभाव ही कहा जा सकता है। अतः मदर्स डे का मनाया जाना एक अच्छी परम्परा ही कहा जा सकता है। भले ही हम अपने माता-पिता की भरपूर सेवा कर रहे हों, तब भी हम सबको इस दिन यह विचार अवश्य करना चाहियें कि माता-पिताओं, मुख्यतः मातओं के प्रति, सन्तानों के किस-किस प्रकार के ऋण होते हैं। माताओं के उन त्याग व दुःखों के लिए हम जो कुछ कर सकते हैं, वह धर्म समझ कर अवश्य करें। मातृ सेवा भी परमधर्म के समान सब मनुष्यों का कर्तव्य है। कोई सन्तान किसी कारण यदि अधिक सेवा आदि न भी कर सके तब भी उसे मधुर वाणी से माता पिता का सत्कार तो नित्य प्रति अवश्य ही करलर चाहिये। शायद इतना करने से ही समाज के लोगों का मातृ ऋण कुछ कम हो जाये और वह परजन्म में ईश्वर द्वारा दुःखों से भरी अधिक बुरी भोग योनि में न भेजे जायें। आज मातृत्व दिवस पर हम सभी को बधाई देते हैं और निवेदन करते हैं कि वह इस विषय पर कुछ समय चिन्तन कर व अपने व्यवहार पर दृष्टिपात कर उसमें सुधार आदि की आवश्यकता की दृष्टि से विचार करें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

मुंशी इन्द्रमणि और इतिहास प्रदुषण: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

मुंशी इन्द्रमणि और इतिहास प्रदुषण

क्या  बालक से ऋषि ने ऐसी चर्चा की?

श्री भारतीय जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है-‘‘मुरादाबाद

से मुंशी इन्द्रमणि भी महर्षि से भेंट हेतु अलीगढ़ आये तथा

जीव के अनादित्व पर चर्चा करते रहे।’’1 यह दिसम्बर  1873

के अन्तिम सप्ताह की घटना है। प्रश्न यह उठता है कि सन् 1865

में जन्मा केवल आठ वर्षीय बालक क्या  मुरादाबाद से अकेले ऋषि

को मिलने आया? आप ही ने मुंशी जी का जन्म का वर्ष सन्

1865 माना है।

दूसरा प्रश्न यहाँ यह उठता है कि स्वामी अच्युतानन्द जी जीव

ब्रह्म के भेद विषय पर ऋषि से शंका समाधान करते हैं तो एक पूरक

प्रश्न पूछने पर महर्षि जी स्वामी अच्युतानन्द जी से कहते हैं कि

तुम अभी बालक हो। आगे चलकर इसे समझ सकोगे। ‘आर्य

मित्र’ के महर्षि जन्म शताब्दी  विशेषाङ्क में स्वयं स्वामी अच्युतानन्द

जी ने अपने एक लेख में यह घटना लिखी है।

स्वामी अच्युतानन्द जी तो सन् 1853 में जन्में थे। आप तो

तब यौवन की चौखट पर पाँव धर चुके थे। मुंशी इन्द्रमणि आठ वर्ष

का बालक जीव के अनादित्व विषय पर चर्चा करने निकला है।

यहाँ ऋषि जी शिशु इन्द्रमणि से दार्शनिक चर्चा का आनन्द लेते हैं।

इस पर हम क्या  कहें? उर्दू में एक लोकोज़्ति हैं-‘‘अकल बड़ी

या भैंस’’।

ऋषि ने एक बार मुंशी जी को ‘बुज़र्ग’ भी कहा था। वह

ऋषि जी से कोई बीस वर्ष बड़े थे। स्वयं अकेले अलीगढ़ आये थे।

यह घटना हम सत्य ही मानते हैं।

मुंशी जी का लेखन कार्य

अपवाद रूप में संसार में कई बालक बहुत छोटी आयु में

बहुत अच्छे साहित्यकार बनकर चमके। हमारे देश में ही श्री ज्ञानेश्वर

महाराज, पं0 गुरुदज़ जी विद्यार्थी, पं0 चमूपति तथा वीर सावरकर

ने बहुत छोटी आयु में गद्य व पद्य सृजन करके यश पाया, परन्तु

पाठक हम से सहमत होंगे कि जन्म लेने से पूर्व ही कोई पुस्तक

लिख भी दे और छपवा भी दे-यह तो सज़्भव ही नहीं। जन्म लेते

ही कोई पुस्तक लिखकर छपवा दे यह भी नहीं माना जा सकता।

तीन और चार वर्ष की आयु में ही कोई सिद्धहस्त लेखक विद्वान्

बनकर ग्रन्थ पर ग्रन्थ लिखकर छपवा दे-यह भी तो सज़्भव नहीं

दीखता।

परन्तु महान् व्यज़्ति असज़्भव को सज़्भव कर दिखाने की

क्षमता रखते हैं। भारतीय जी ने सन् 1858 (जन्म से पूर्व),

सन् 1865 जन्म के समय, सन् 1868, तीन वर्ष की आयु में

और सन् 1869 चार वर्ष की आयु में भी इन्द्रमणि जी से ग्रन्थ

लिखवाये व छपवाये।1

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने बिना पढ़े, बिने विचारे इन दोनों

पुस्तकों के प्राक्कथन  लिख डाले। विहंगम दृष्टि से पढ़ने पर तो

ऐसी पुस्तकों की गड़बड़ पकड़ में कहाँ आती है। इस लेखक की

समीक्षा पढ़कर स्वामी जी ने भारतीय जी से कहा था कि अपने

ग्रन्थ के साथ एक शुद्धि-अशुद्धि पत्र लगायें। इसके बिना

बिक्री नहीं होनी चाहिए, परन्तु भारतीय जी के अहं ने उनका

आदेश स्वीकार नहीं किया। तभी मैंने एक लेख में स्वामी जी के

इस कथन का उल्लेख कर दिया।

मरणोपरान्त मुंशी जी से लेखन कार्य करवाया

भारतीय जी की लगन, परिश्रम व उत्साह प्रशंसा योग्य है।

सृष्टि-नियम तो यह है कि जीते जी ही किसी व्यज़्ति से कोई पुस्तक

लिखवाई जा सकती है। मरणोपरान्त कोई आपके लिए एक

पृष्ठ लिखकर नहीं दे सकता। सृष्टि-नियम की चिन्ता न करके

भारतीय जी ने मुंशी इन्द्रमणि जी से एक सहस्र पृष्ठों से ऊपर

का ग्रन्थ लिखवा भी लिया और छपवा भी दिया। इस पुस्तक

का नाम है ‘आमादे हिन्द’ इसी को ‘इन्द्रवज्र’ नाम से प्रसिद्धि प्राप्त

हुई। भारतीय जी ने पं लेखराम जी के ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद का

सज़्पादन करते हुए इसका नाम ‘आमदे हिन्द’ कर दिया है।1

किसी से पूछ लेते तो इस अनर्थ से बचा जा सकता था। हमने

ऋषि जीवन में इसका शुद्ध नाम ‘आमादे हिन्द’ देकर यह कुचक्र

रोका है। ध्यान देने योग्य तथ्य तो यह है कि पं0 लेखराम जी का

बलिदान सन् 1897 में हुआ। वह ऋषि जीवन में1 तथा अपने

साहित्य में इन्द्र वज्र की चर्चा करते हैं। पण्डित जी लिखित ऋषि

जीवन सन् 1897 में ही प्रकाशित हो गया यह भारतीय जी मानते

हैं। इस मूल उर्दू ग्रन्थ में भी ‘इन्द्र वज्र’ की मुंशी इन्द्रमणि स्वयं

चर्चा करते हैं।2 इससे भी प्रमाणित हो गया कि यह ग्रन्थ मुंशी

जी ने जीते जी लिख दिया और छप भी गया।

परन्तु भारतीय जी दृढ़तापूर्वक लिखते हैं कि मुंशी जी ने सन्

1901 में इन्द्र वज्र लिखा व छपवाया।3 अब समझदार सज्जन

ही हमें सुझावें कि हम उनके इस कथन पर ‘सत्य वचन महाराज’

कैसे कह सकते हैं?

गुणी विद्वान् इन तथ्यों पर विचार करें और नीर क्षीर विवेक से

काम लेकर जो सत्य हो उसे स्वीकार कर इतिहास प्रदूषण को कुछ

तो रोकें।

 

  1. द्रष्टव्य, नवजागरण के पुरोधा, भाग पहला, पृष्ठ 401
  2. द्रष्टव्य, महर्षि दयानन्द के भज़्त, प्रशंसक और सत्संगी, पृष्ठ 17

46 इतिहास-प्रदूषण इतिहास-प्रदूषण 47

  1. द्रष्टव्य, पं0 लेखरामकृत हिन्दी जीवन चरित्र, सन् 2007, पृष्ठ 312
  2. द्रष्टव्य, उर्दू जीवनचरित्र महर्षि स्वामी दयानन्द, लेखक पं0 लेखराम, पृष्ठ 293
  3. द्रष्टव्य, ‘आर्य लेखक कोश’ पृष्ठ 23

 

आत्म-चिन्तन और मनन – रमेश मुनि

 

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।

सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।

क्रोधाद् भवति समोहः समोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

– (गीता 2-62,63)

शराबी आदमी शराब पी कर गिरता है। वह खड़ा होना, ठीक ढंग से चलना चाहता है, किन्तु नहीं हो पाता, ठीक ढंग से नहीं चल पाता। इस अवस्था में वह आदमी नहीं रह जाता- यह उसकी करुणाजनक स्थिति होती है। वह शरीर से उत्तम है, सुन्दर कपड़े पहने हुए है, किन्तु मदिरा के मस्तिष्क में पहुँच जाने के कारण बुद्धि बिगड़ जाती है, बुद्धि में अन्तर आ जाता है। इसी से सन्तुलन बिगड़ जाता है, जिसके कारण वह चलने के लिए उठता है, किन्तु गिर पड़ता है, फिर उठता है फिर गिर पड़ता है, इसी प्रकार की स्थिति बनी रहती है। संसार में हम सब की भी ऐसी स्थिति प्रायः बनी रहती है। सांसारिक विषयों की इच्छाओं के  प्रभाव के कारण सभी का सन्तुलन बिगड़ा रहता है, उठना-गिरना, उठना-गिरना सभी में होता रहता है, सभी में ऐसी स्थिति चलती रहती है। ऐसी स्थिति के कारण ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या आदि दोष प्रबल हो जाते हैं, जिस कारण व्यक्ति छल, कपट, ऊँच, नीच करता रहता है। सदा एक बुद्धि को बनाए नहीं रख सकता, जिससे शराबी की तरह पगलाया रहता है। ईश्वर और आत्माएँ नित्य हैं, जबकि संसार अनित्य है, सदा रहने वाला नहीं है। इस तत्त्व को वह या तो जानता ही नहीं, यदि जानता भी है तो इसे मानता नहीं है और विषयों के प्रभाव के कारण सांसारिक पदार्थों को नित्य मान कर अपना व्यवहार करता है।

ईश्वर ने मानव के लिए अत्युत्तम पदार्थ बुद्धि बनाई है, किन्तु अपने कर्मों या व्यवहार के कारण इससे वञ्चित हो जाता है। मानवपन तब सार्थक होता है, जब वास्तविकता को समझ कर आचरण ठीक कर समाधिनिष्ठ होगा, जिससे बुद्धि सात्विक होगी और शराबी के तरह का भाव समाप्त हो जाएगा। शराबी यदि अपने व्यवहार को ठीक नहीं करता तो उसका जीवन दुःखमय रहता है, इसी प्रकार सामान्य मानव भी विषयों के नशे में रहेगा तो जीवन दुःखमय बना रहेगा। जिस प्रकार शराबी की उस अवस्था को देख हम उसे दया का पात्र मानते हैं, इसी प्रकार अपने को भी दया का पात्र मानना चाहिए। मानव जीवन का लक्ष्य यह है कि विशेष उपलधि से अपने को वञ्चित देखकर हमें ग्लानि अनुभव करनी चाहिए और दोष को दूर करना चाहिए। शराबी के मन में खड़े होने, ठीक प्रकार से चलने का प्रयास करके अपने आपको अच्छा दिखाने की भावना होती है। वह प्र्रयास से अपने समान को सुरक्षित करना चाहता है, किन्तु बुद्धि बिगड़ने से नहीं कर पाता। यही स्थिति हमारी भी है। हम दिखाना चाहते हैं कि मैं जो कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं, लेकिन वह काम गलत होता है।

योगी विवेकी जानता है कि आम आदमी को ऐेसी हालत में देख कर ईश्वर हमें उस शराबी की तरह का समझता है। इस अवस्था को उत्पन्न करने का मूल कारण हमारी इच्छाएँ हैं (योगदर्शन के अनुसार वृत्तियाँ)। इन्हें हटाने का प्रयास करें। यदि हम अपनी इच्छा को रोक लेते हैं तो वृत्तियाँ स्वयं रुक जाएँगी, इच्छा बढ़ने से चञ्चलता के कारण वृत्तियाँ, प्रवृत्तियाँ बढ़ जाएँगी, जीवन दुःखमय हो जाएगा।

न्याय दर्शन सूत्र (4-2-2)- ‘‘दोष निमित्तं रूपादयो विषयाः संकल्पकृताः’’ अर्थात् मिथ्या इच्छाओं से उत्पन्न रूप, रस आदि पाँच विषय राग, द्वेष आदि दोषों को उत्पन्न करते हैं। मिथ्या इच्छाओं को समाप्त करके रूपादि विषयों के प्रति आसक्ति को दूर करके शराबी के व्यवहार से बच सकते हैं।

आनन्दमयोऽयासात् (वेदान्त 1-1-12)

परमात्मा आनन्द स्वरूप है। अर्न्तदृष्टि से परमात्मा का अयास करने से, यम-नियमों का अनुष्ठान, पालन करने से ईश्वर की अनुभूति होती है।

जब इच्छा के साथ भिन्न-भिन्न विषय जुड़ते जाते हैं तो कामनाएँ जोर मारने लगती हैं। जब इच्छा शरीर को प्राप्त करने की हो तो यह काम कहलाती है। इसमें यदि दूसरा व्यक्ति प्रतियोगी है और समान स्तर का है तो उससे ईर्ष्या। यदि वह बाधा करता है तो द्वेष और यदि प्रतियोगी निर्बल हो तो उसे मारने या नष्ट करने की प्रवृत्ति बन जाया करती है।

इच्छा यदि अनुकूल विषय से जुड़ गई तो राग बन जाती है, वही अनुभूति बढ़ने से प्रीति या प्रेम कहलाती है। इच्छाएँ लगातार बढ़ती जाएँगी। यदि मिल गया तो फिर मिले। यदि इच्छा की पूर्ति में समय अधिक लगेगा तो व्याकुलता होगी या निराशा, यदि उपलधि समीप आ रही हैं तो आशा। इस प्रकार अलग-अलग अवस्थाएँ भावों को बदलती रहती हैं- कभी आशा, कभी निराशा, कभी क्र ोध, काी क्षमा आदि।

इसका निदान है इच्छा को पकड़ लें, रोक दें, चाहे बलपूर्वक या बुद्धिपूर्वक। यदि मन में धारणा बना ली कि मुझे कुछ नहीं चाहिए तो संकल्प करते ही मन में स्थिरता आएगी, शान्ति मिलेगी। यदि इच्छा बढ़ाते हैं तो क्लेश होगा। जब इच्छा हमारे ऊपर है तो क्लेश और जब हम क्लेश के ऊपर हैं तो शान्ति मिलेगी, आत्मा शक्तिशाली अनुभव करेगा। इस प्रकार कोई भी इच्छा करते समय बुद्धिपूर्वक विचार करेंगे, चिन्तन करेंगे तो क्लेश-दुःख से बच कर सुख शान्ति पाएँगे।

गीता ठीक कहती है- विषयों का निरन्तर सेवन करते रहने से व्यक्ति का क्रमशः पतन होता चला जाता है और निरन्तर साधना से व्यक्ति ऊर्ध्वमुखी होता चला जाता है। यही अध्यात्म है।           – ऋषि उद्यान, अजमेर।

‘वैदिक धर्म की वेदी पर प्रथम बलिदान: महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म् 

आज महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का बलिदान दिवस है। आज ही के दिन 30 अक्तूबर, सन् 1883 को अजमेर में सूर्यास्त के समय महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन की अन्तिम सांस ली थी। उनके बलिदान का कारण उनका वैदिक धर्म का प्रचार करना था। स्वार्थी, पाखण्डी व अज्ञानी लोगों को उनका प्रचार रास नही आ रहा था। उनके विरोधियों के पास वैदिक धर्म के सच्चे सिद्धान्तों का कोई उत्तर नहीं था। कोई ऐसा मत नहीं था जिसकी न्यूनताओं का उन्होंने प्रकाश न किया हो। इतना ही नहीं, उन्होंने सभी मतों के अनुयायियों की वैदिक धर्म संबंधी सभी बातों, प्रश्नों, शंकाओं व शिकायतों का युक्ति, तर्क व प्रमाणों से समाधान किया था और सबको निरुत्तर किया था। उनकी सत्यता, ज्ञान की पराकाष्ठा, वेदों के प्रति प्रेम  व स्पष्टवादित ही उनके बलिदान का कारण बनी थी। देश ही नहीं, संसार को अज्ञान व अन्धविश्वास से मुक्त कराने के लिए उन्होंने अपना जीवन दांव पर लगाया था और अपने प्राणों का किंचित मोह नहीं किया था। उनके वेद प्रचार के कारण संसार से अन्धविश्वासों व पाखण्डों में बहुत कमी आई है। यदि वह कुछ वर्ष और जीवित रहते तो न केवल हमारा देश धर्म, शिक्षा, विज्ञान, अध्यात्म, सामाजिक समरसता में अधिक उन्नति करता अपितु देश से अज्ञान व अन्धविश्वास भी कहीं अधिक मात्रा में दूर व समाप्त होते।

 

महर्षि दयानन्द ने किसी एक क्षेत्र में ही कार्य नहीं किया अपितु उन्होंने समग्र क्रान्ति की थी। धार्मिक अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, पाखण्ड आदि तो उन्होंने दूर किये ही, इसके साथ उन्होंने ज्ञान का अजस्र स्रोत ईश्वरीय ज्ञान वेद का भी पुनरुद्धार किया। यह वेद ज्ञान मनुष्य का सर्वस्व व सर्वाधिक मूल्यवान एवं उपयोगी वस्तु है जिससे इस जीवन की उन्नति के साथ मृत्यु के पश्चात मोक्ष की उपलब्धि भी हो सकती वा होती है। संसार उनके समय में ईश्वर के सत्य स्वरूप से अनभिज्ञ था। जीवात्मा और प्रकृति का स्वरूप भी प्रायः लोगों को ज्ञात नहीं था। हमारे अपने पण्डे-पुजारी वेद ज्ञान से शून्य थे और धर्म सम्बन्धी मनमानी करते थे। दलितों पर घोर अन्याय किया जाता था। मातृ शक्ति व दलित भाई बहिनों सहित क्षत्रिय व वैश्यों को भी वेदाध्ययन से वंचित कर दिया गया था। कर्मणा ब्राह्मणों का देश व समाज में सर्वत्र अभाव था और जन्मना ब्राह्मण वेदाध्ययन करते नहीं थे। किसी को न वेद कण्ठस्थ थे और न ही वेद के मन्त्रों के सत्य अर्थो का ही ज्ञान था। चेतन ईश्वर को भुलाकर उसका स्थान पाषाण की मनुष्य निर्मित मूर्तियों ने ले लिया था। इसका जो परिणाम होना था वह सत्य इतिहास पढ़ने पर विदित होता है। उनके समय में शारीरिक, बौद्धिक, चारित्रिक, मानसिक, अध्यात्मिक व सामाजिक पतन की पराकाष्ठा थी। यहां तक हुआ कि एक माता का पुत्र मर गया। उस माता के पास कफन तक के लिए भी धन व वस्त्र नहीं था, विधि विधान के अनुसार अन्त्येष्टि तो बहुत दूर की बात थी। अपनी आधी धोती फाड़कर उसमें उस माता ने अपने पुत्र के शव को लपेट कर गंगा नदी में बहा दिया और ऐसा करके अपनी धोती का वह भाग वापित हटा लिया जिससे उसे सीकर वह अपने शरीर को ढक सके। देश में आये इस दुर्दिन का कारण वेदों के ईश्वरीय ज्ञान का हमारे ब्राह्मणों द्वारा अनादर करना था। यदि वह वेदाध्ययन से जुड़े रहते, जैसे महाभारत काल तक जुड़े रहे थे तो यह दुर्दिन कदापि न आता। केवल मूर्तिपूजा का अज्ञान व अन्धविश्वास ही नहीं था अपितु जन्मना जातिवाद ने भी मनुष्यों को निर्बल व असंगठित किया जिसका लाभ विदेशियों और विधर्मियों ने हमारा शोषण, अपमान व धर्मान्तरण कर किया। इसके साथ ही मृतक श्राद्ध व फलित ज्योतिष जैसी कुरीतियों से भी देश को भारी हानि हुई है। अज्ञान व अन्धविश्वास से सदा सर्वदा हानि ही होती है, लाभ किसी को कभी नहीं होता। महर्षि दयानन्द ने इन सभी अन्धविश्वासों के विरुद्ध आवाज उठाई और इनसे देश को मुक्त कराने का प्रयास किया जिसका परिणाम 30 अक्तूबर, 1883 ई. को एक षडयन्तत्र के अन्र्तगत विष देकर उनकी मृत्यु का होना था।

 

महर्षि दयानन्द ने हमें अन्धविश्वास व अज्ञान के निवारण तथा समाज व देश को सशक्त करने के लिए हमें हथियार के रूप में सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, वेदों का भाष्य, संस्कार विधि, गोकरूणाविधि, व्यवहारभानु, पाणिनी-महाभाष्य-निरुक्त की वेदार्थ पद्धति, मनुस्मृति के सच्चे स्वरूप का परिचय और इतिहास विषयक बहुमूल्य जानकारियों से मालामाल किया। उन्होंने गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली को भी पुनर्जीवित किया जिसके अनुसार आर्यसमाज ने सैकड़ों गुरुकुल व दयानन्द ऐंग्लोवैदिक स्कूल खोले जो आज भी देश को वेदों व वैदिक साहित्य सहित आधुनिक शिक्षा देकर नाना विषयों के विद्वान प्रदान कर रहे हैं। स्वामी रामदेव जी ने योग और स्वदेशी वस्तुओं के निर्माण व प्रचार के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान दिया है। आगे भी उनसे ऐसी ही उम्मीदें हैं। इससे पूर्व भी महर्षि दयानन्द के अनेक शिष्यों ने शिक्षा, पत्रकारिता, इतिहास, वैदिक साहित्य के अनुसंधान व उनके हिन्दी में भाष्य आदि के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान किया। शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, क्रान्ति के अग्रदूत पं. श्यामजी कृष्ण वम्र्मा, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज जी व शहीद भगत सिंह जी का पूरा परिवार उन्हीं की देन थे। उनका देश की उन्नति में सर्वाधिक व अविस्मरणीय योगदान है। उनका सबसे बड़ा योगदान ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरूप से परिचय कराकर ईश्वर की सरलतम स्तुति-प्रार्थना-उपासना की सत्य पद्धति को प्रदान करना था जिसमें संसार के मुनष्यों की उन्नति अर्थात् अभ्युदय व मोक्ष की प्राप्ति निहित है। इसके समान अन्य कोई उपासना पद्धति ऐसी नहीं है जिससे ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सके। एक साधारण व अपढ़ व्यक्ति भी यदि इस पद्धति के अनुसार तप व पुरुषार्थ करे तो ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के साथ ईश्वर का साक्षात्कार कर जीवन को शिखर पर ले जा सकता है। उनके सभी योगदानों के लिए हम उनको अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। हम आशा करते हैं कि आने वाले समय में संसार पक्षपात रहित होकर उनके सत्य सिद्धान्तों का अध्ययन कर उसे अपनायेगा जिस प्रकार कि उसने विज्ञान को अपनाया है।

 

 –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 15”

“ग्यारहवे अध्याय का जवाब पार्ट 2 ”

इस्लाम में बुरका प्रथा की शुरुआत और बुर्के से होने वाली हानियां………. पार्ट 2

नोट : लेख थोड़ा बड़ा जरूर है, पर पढ़ना जरुरी है

पिछली लेख में आपने जाना की भारतीय संस्कृति तथा वैदिक सभ्यता में कहीं भी पर्दा प्रथा नहीं पायी जाती, ये प्रथा विशुद्ध रूप से इस्लामी समाज की देन है, और हिन्दू जाति को अपनी बहन बेटियो की सुरक्षा हेतु पर्दा प्रथा का आरम्भ करना पड़ा, इसी विषय पर आज हम आपको समझाने की कोशिश करेंगे की आखिर इस्लाम में बुरका प्रथा की शुरुआत कैसे हुई और बुर्के से होने वाली हानियां तथा बुर्के का महिलाओ पर प्रभाव आदि।

आइये पहले देखते हैं बुरका प्रथा पर मुस्लिम समाज की मान्य मजहबी पुस्तक “क़ुरान” क्या कहती है :

और मोमिन महिलाओ से कह दे की वे भी अपनी आँखे नीची रखा करे और अपने गुप्त अंगो की रक्षा किया करे एवं अपने सौंदर्य को प्रकट न किया करे सिवाय उस के जो मज़बूरी और बेबसी से आप ही आप जाहिर (जैसे शरीर का लम्बा, छोटा, मोटा व दुबलापन होना) हो जाये और अपनी ओढ़नियो को अपनी छातियो पर से गुजर कर और उसे ढक कर पहना करे तथा वे केवल अपनी पतियों, अपने पिताओ या अपने पतियों के पिताओ या अपने पुत्रो या अपने पतियों के पुत्रो या अपने भाइयो या अपने भाइयो के पुत्रो (भतीजो) या अपनी बहनो के पुत्रो या अपने जैसी स्त्रियों या जिन के स्वामी उन के दाहिने हाथ हुए हैं (अर्थात लौंडिया) या ऐसे अधीन व्यक्तियों (अर्थात नौकर चाकर) पर जो अभी युवावस्था को नहीं पहुंचे या ऐसे बच्चो पर जिन्हे अभी स्त्रियों के विशेष सम्बन्धो का ज्ञान नहीं हुआ, अपना सौंदर्य प्रकट कर सकती हैं तथा इन के सिवा किसी पर भी जाहिर न करे और अपने पाँव (धरती पर जोर से) इसलिए न मारा करे की वह चीज़ जाहिर हो जाये जिसे वे अपने सौंदर्य में से छिपा रही है। और हे मोमिनो ! तुम सब के सब अल्लाह की और झुक जाओ ताकि तुम सफलता पा सको।
(क़ुरान २४:३२)

एक और आयत जो इसी विषय से सम्बंधित है,

हे नबी ! अपनी पत्नियों, अपनी पुत्रियों तथा मोमिनो की पत्नियों से कह दे की वे (जब बाहर निकल तो) अपनी बड़ी चादरों को अपने सिरो पर से आगे खींच कर अपने सीनो तक ले आया करे। ऐसा करना इस बात को संभव बना देता है की वे पहचानी जाए और उन्हें कोई कष्ट न दे सके तथा अल्लाह बड़ा क्षमा करने वाला और बार बार दया करने वाला है।
(क़ुरान ३३:६०)

उपरोक्त वर्णित दो आयतो में से प्रथम आयत का उद्देश्य है की महिलाये अपने श्रृंगार को पुरषो से छुपाये और दूसरी आयत में स्पष्ट बता दिया है की घर से बाहर जाने पर बुरका पहनने से छेड़छाड़ और उत्पीड़न से मुस्लिम महिलाओ का बचाव होता है। यहाँ ध्यान से सोचने की बात है की पुरषो के लिए कोई ऐसी व्यवस्था नहीं पायी जाती की वो भी चादर डालकर महिलाओ से खुद का बचाव करे, ये सारी पाबन्दी आखिर महिला तक ही सीमित क्यों ? क्या ये अल्लाह का स्त्री पुरुष में भेदभाव नहीं ? कुछ पॉइंट जो इन आयतो पर उठ खड़े होते हैं जरा गौर करिये :

1. क्या बिना बुरका पहने किसी महिला की सुंदरता इतनी होती है की पुरुष अपना नियंत्रण खो बैठता है ? यदि ये बात सही है तो फिर जो इसी आयत में बताया की अपने भाई, पिता आदि के आगे बिना बुरका भी बैठो, ये कैसे संभव है ?

2. महिलाये पुरुषो की तरफ आकर्षित नहीं होती, ये कटु सत्य है, और पूरी दुनिया की महिलाओ में एक बड़ा भाग उन महिलाओ का है जो कामुक नहीं होती। बेहद ही कम संख्या में ऐसी असभ्य महिलाये पायी जाती हैं जो अत्यधिक कामुक हो।

3. महिलाये, पुरुषो की तुलना में अधिक संयमी और स्व नियंत्रक होती हैं, ऐसे में भी बुरका उढ़ाने और सौंदर्य छिपाने का कोई औचित्य नहीं, बेहतर होता की पुरुषो को दिशा निर्देश जारी किये जाते, मगर खेद की पुरुषो के लिए कोई दिशा निर्देश क़ुरान में नहीं पाये जाते।

अब तक आप समझ गए होंगे की बुरखा प्रथा से महिलाओ की सुंदरता छुपने और छेड़छाड़ उत्पीड़न बंद होना संभव नहीं, क्योंकि बिना पुरुषो को सभ्यता सिखाये ये सब बंद नहीं हो सकता, क्योंकि महिलये वैसे ही संयमी होती है, कोई कम संख्या की कामुक महिलाये मात्र एक अपवाद है, यदि क़ुरान ये समझाना चाह रहा है की महिलाये कामुक और असंयमी होती है, तो ये क़ुरान के अल्लाह मियां और मुहम्मद साहब का दुनिया की सभी महिलाओ पर बेमाना इल्जाम है, लेकिन अल्लाह मिया और मुहम्मद साहब ऐसे तो न हुए होंगे, इसलिए सच्चाई जानना जरुरी है, आइये हम दिखाते हैं की ये आयते आखिर क़ुरआन के जरिये क्यों नाजिल हुई, देखिये :

मुहम्मद साहब की पत्नी आयशा ने बताया की पैगम्बर साहब की पत्निया अल मनासी के विशाल खुली जगह जो बकि अत मदीना के नजदीक थी, रात्रि में पेशाब करने हेतु जाती थी। उमर साहब ने पैगम्बर साहब को बोला अपनी पत्नियों को परदे में रखिये लेकिन अल्लाह के रसूल ने ऐसा न किया। एक रात ऐसा हुआ कि पैगम्बर साहब की एक पत्नी जिनका नाम सउदा बिन्त ज़मआ था जो एक लम्बी महिला थी इशा के समय बाहर (पेशाब करने) गयी। उमर साहब ने महिला को सम्बोधन करते हुए कहा कहा “मैंने तुम्हे पहचान लिया है, तुम सउदा हो”, ऐसा उन्होंने कहा क्योंकि वो बेसब्री से इन्तेजार कर रहे थे अल हिजाब (मुस्लिम महिलाओ द्वारा परदे का अवलोकन) आयतो के नाजिल होने की। इसलिए अल्लाह ने अल हिजाब (आँखे छोड़ पूर्ण शरीर को चादर से ढकना) आयत नाजिल की।
(सही बुखारी, जिल्द १, किताब ४ हदीस १४८)

बिलकुल यही हदीस, सही बुखारी में जिल्द ८ किताब ७४ हदीस २५७ में भी द्रष्टव्य है, इसके अतिरिक्त सही मुस्लिम किताब २६ हदीस ५३९७ भी यही बताती है की महिलाओ को बुरखा पहनने वाली आयत, उमर साहब द्वारा पेशाब जाती महिलाओ को पहचानने से बचाने हेतु नाजिल की गयी।

अब जरा कुछ समझने की कोशिश करते हैं, देखिये :

1. उपरोक्त हदीसो से ज्ञात होता है कि उमर साहब बार बार पैगम्बर मुहम्मद साहब से महिलाओ को चादर (बुरखा) से ढकने वाली आयते अल्लाह से नाजिल करने को दोहरा रहे थे ताकि क़ुरान में महिलाओ के लिए चादर (बुरखा) से ढकना अनिवार्य हो जाए।

2. उपरोक्त हदीसो से साफ़ ज्ञात है की ये अल हिजाब की आयते अल्लाह द्वारा नाजिल नहीं की गयी, क्योंकि ये उमर साहब की मांग थी जिसे मुहम्मद साहब ने पूरा किया।

3. उमर साहब ने मुहम्मद साहब की एक पत्नी जो खुद को राहत देने (पेशाब) करने गयी थी, उनका पीछा किया, न केवल पीछा किया, बल्कि “सउदा” नाम से भी पुकारा जो किसी भी हालत में ठीक नहीं था, क्योंकि मुहम्मद साहब की पत्निया मुस्लिमो की माँ सामान है।

4. सउदा जो मुहम्मद साहब की पत्नी थी उन्होंने घर जाकर, उमर साहब द्वारा किये बेहूदे और शर्मिंदगी वाले काम की शिकायत मुहम्मद साहब से की थी (सही बुखारी जिल्द ६ किताब ६० हदीस ३१८) (सही मुस्लिम किताब २६ हदीस ५३९५)

5. इन सब कार्यो के बाद ही और जो उमर साहब चाहते थे, उसे पूरा करने हेतु हिजाब वाली आयते नाजिल की गयी।

इन सबको पढ़ने से निष्कर्ष निकलता है की उमर साहब की हिजाब आयतो की मांग से पहले तो मुहम्मद साहब खुद भी राजी नहीं थे, मगर उमर साहब के कामो के बाद अल्लाह तक राजी हो गया जो हिजाब की आयत उतारी ? क्या ये इंसाफ है ?

लेकिन एक और चौंकाने वाली बात का खुलासा हदीस में होता है, की हिजाब वाली आयते नाजिल होने बाद, मुहम्मद साहब की पत्निया बुर्के में आने जाने लगी, मगर उमर साहब को इससे भी चैन नहीं आया, वो फिर भी मुहम्मद साहब की पत्नी का पीछा करते रहे, देखिये (सही बुखारी जिल्द ६ किताब ६० हदीस ३१८)

जरा सोचिये क्या हिजाब या बुरखा यहाँ महिलाओ के काम आया ?

उपरोक्त क़ुरानी आयतो में बताया है की बुरका, महिलाओ को पुरुषो की अवांछित वासनामयी दृष्टि से बचाव करता है, आइये इस विषय पर भी इस हदीस का अवलोकन करे :

मुहम्मद साहब की पत्नी आयशा ने बताया की एक नपुंसक (हिजड़ा पुरुष) पैगम्बर साहब की पत्नियों के यहाँ आया जाया करता था और उनको (पैगंबर) को इस बात पर कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि वो नपुंसक (हिजड़ा) बिना किसी वासनामयी इच्छा के आता था। एक दिन जब वह नपुंसक, पैगम्बर साहब की कुछ पत्नियों के पास बैठकर महिलाओ की शारीरिक विशेषताओ के बारे में बता रहा रहा तभी मुहम्मद साहब आ गए और उन्होंने ये सब सुन कर कहा “मुझे नहीं पता था, ये इन बातो को भी जानता है, अतः अब इससे सेवा करवाना वर्जित है।” उन्होंने (आयशा) ने कहा : तब उन्होंने (पैगम्बर) साहब ने उस (नपुंसक) से भी पर्दा (बुरखा) करने का आदेश दिया।
(सही मुस्लिम किताब २६ हदीस ५४१६)

उपरोक्त हदीस से ज्ञात होता है की बुरखा की प्रथा, किसी भी हालत में अवांछित वासनामयी दृष्टि से बचाव हेतु भी नहीं है, क्योंकि एक नपुंसक स्त्रियों के प्रति कैसे वासनामयी हो सकता है ? यहाँ एक बात और ध्यान देने वाली है की बुरखे की शुरुआत मुस्लिम (आज्ञाकारी, ईमानवाला) पुरुष से ही मुस्लिम (आज्ञाकारी, ईमानवाली) महिला को छेड़ छाड़ से बचाने हेतु शुरू की गयी।

आइये अब कुछ आंकड़ो पर नजर डालते हैं, मुस्लिमो का ये दावा भी हवा हवाई है की बुरखे से महिलाये छेड़ छाड़ जैसे उत्पीड़न से बचती हैं क्योंकि गैर इस्लामिक समाज में महिलाये बिना बुरखा स्वतंत्रता से घूमती हैं जिनसे छेड़ छाड़ की घटनाएं इस्लामिक देश के समाज से काफी कम है, उदाहरण के लिए इजिप्ट देश में महिला और युवा लड़कियों को हर २०० मीटर पर ही ७ बार छेड़ छाड़ होने का रिकॉर्ड दर्ज है (Egypt’s NCW chief says women harassed 7 times every 200 meters – GhanaMed, September 6, 2012) (Manar Ammar – Sexual harassment awaits Egyptian girls outside schools – Bikya Masr, September 10, 2012) वहीँ दूसरी और बलात्कार की घटनाओ में सऊदी अरब जहाँ हिजाब को सख्ती से लागू किया गया है, दुनिया में highest rape scales in the world (“The High Rape-Scale in Saudi Arabia”, WomanStats Project (blog), January 16, 2013 (archived).) में शुमार है। यहाँ एक बात आपको और सोचनी चाहिए, वे लोग जो कहते हैं की बुरखे से महिलाओ को छेड़ छाड़ से निजाद मिलती है इसलिए पहनना चाहिए तो जरा इजिप्ट के आंकड़े पर भी नजर डाल ले क्योंकि जो महिलाये छेड़ छाड़ का शिकार हुई वो अधिकांश तौर पर मुस्लिम थी और हिजाब पहने थी (Magdi Abdelhadi – Egypt’s sexual harassment ‘cancer’ – BBC News, July 18, 2008)

अब स्वयं सोचिये क्या बुरखा किसी भी प्रकार से ऐसी विकृत मानसिक लोगो से निजात दिलवा सकता है ? जरुरी है समाज को ऐसे विकृत मानसिक लोगो से निजाद दिलाना, महिलाओ को बुर्के में कैद करना इस समस्या का समाधान नहीं है, क्योंकि महिलाओ को बुरका पहनने से सेहत का खतरा है, देखिये :

हम जानते हैं विटामिन डी मानव स्वास्थ्य के लिए एक आवश्यक पोषक तत्व है जो वसा में घुलनशील विटामिन है, विटामिन डी किसी भी खाद्य पदार्थ में प्राकर्तिक तौर पर नहीं पाया जाता, यह केवल सूर्य की किरणों से त्वचा पर प्रतिक्रिया होने से विटामिन डी का संश्लेषण होता है जो शरीर के लिए महत्वपूर्ण है। विटामिन डी मजबूत हड्डियों के लिए अतयन्तावश्यक है क्योंकि यह आहार में मौजूद कैल्शियम को प्रयोग में लाता है जिससे हड्डिया मजबूत होती हैं, इसकी कमी से “रिकेट” नामक रोग होता है। इस बीमारी में बोन टिशू एक रोग जिसमे बोन टिशू ठीक तरह से मिनरलाइज नहीं हो पाते, जो आगे चलकर हड्डियों को कमजोर तथा हड्डी विकृति जैसी भयंकर स्थिति उत्पन्न कर देता है।

इस रोग के लक्षण अनेको मुस्लिम बहुल देशो में विटामिन डी की कमी के चलते महिलाओ में पाये गए, सऊदी अरब में किंग फहद यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल में की गयी शोध में पाया गया की जो ५२ महिलाओं पर टेस्ट किया गया उनमे सभी महिलाओ में विटामिन डी का स्तर बहुत कम पाया गया जो अनेको गंभीर स्वास्थ्य समस्याए उत्पन्न कर सकता है, जबकि ये एक ऐसा देश है जहाँ सबसे ज्यादा धुप निकलती है पूरी दुनिया के मुकाबले (Elsammak, M.Y., et al., Vitamin D deficiency in Saudi Arabs. Hormone and Metabolic Research, 2010. 42(5): p. 364-368.)

जॉर्डन में किये गए अध्यन के मुताबिक वे महिलाये जो पूरी तरह से इस्लामी वेश भूषा (बुरखा) पहनती थी, 83.3% उनमे विटामिन डी की कमी पायी गयी, ये अध्ययन दोपहर के समय किया गया था। इसमें सबसे चौंकाने वाली बात ये थी की मात्र 18.2% पुरुषो में ही विटामिन डी की कमी पायी गयी, यहाँ ध्यान रहे, पुरुष बुरखा नहीं पहनते (Elsammak, M.Y., et al., Vitamin D deficiency in Saudi Arabs. Hormone and Metabolic Research, 2010. 42(5): p. 364-368.)

एक बात और बताना चाहूंगा की जॉर्डन भी ऐसी ही जगह है जहाँ अरब देश की भांति सूरज की धुप ज्यादा रहती है। तब भी ऐसी स्थिति में केवल महिलाओ में ही विटामिन डी की कमी पाया जाना ये सिद्ध करता है की बुरका प्रथा महिलाओ के स्वास्थ्य हेतु भी खतरनाक है।

अब हम अंत में यही कहेंगे की बुरखा प्रथा न तो खुदाई आदेश है, न ही बुरखा छेड़ छाड़ से ही बचाव करता है, न ही ये महिलाओ की स्वयं की पसंद है, न ही ये महिलाओ के स्वास्थ्य हेतु ही कोई अच्छा कार्य है। अतः मेरी सभी बंधुओ से विनम्र प्रार्थना है, कृपया इन पाखंडो को छोड़ सत्य सनातन वैदिक धर्म की शरण में आओ, जहाँ महिला और पुरुषो दोनों को ही बराबर अधिकार हैं, कोई छुपने छुपाने की वस्तु नहीं, स्त्री जाति हमारा गौरव है।

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 1″

“पहले अध्याय का जवाब पार्ट 1″

प्यारे मित्रो व बंधुओ, नमस्ते

अभी कुछ दिन से एक पुस्तक पढ़ रहा था “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा” जिसके लेखक सतीश चंद गुप्ता हैं, कहने को तो उन्होंने महर्षि दयानंद की क़ुरान पर उठाई आपत्तियों और समीक्षाओं पर अपनी समीक्षाएं करने का दावा किया है मगर ये समीक्षाएं कितनी फिट बैठती हैं ये हम इस लेख में समझने का प्रयास करेंगे। अभी इस लेख में इनकी पुस्तक के पहले अध्याय में महर्षि दयानंद की क़ुरान पर उठाई वाजिब और अनूठी शंकाओ और टिप्पणियों पर इनकी समीक्षाओं का जायजा लेंगे बाकी अगले लेखो में भी इनके द्वारा की गयी समीक्षाओं की व्यवहारिकता और सार्थकता पर भी प्रकाश डालने का पूर्ण प्रयास करेंगे ताकि हमारे बंधू सतीश चंद गुप्ता जी ये न कहे की इन्हे जवाब न मिला। आइये इनकी एक एक समीक्षा को देखे और समझे :

सतीश चंद गुप्ता जी (हमारे बंधू) ये बात स्पष्ट तौर पर स्वयं मानते हैं की ऋषि का ज्ञान जो सत्यार्थ प्रकाश में फैला हुआ है वो लगभग ३००० पुस्तको को पढ़ने के बाद का निचोड़ है, मगर अगले ही पल सत्यार्थ प्रकाश को आर्य समाज की रीढ़ की हड्डी बता दिया, हमारे प्रिय बंधू को शायद ये ज्ञात नहीं है की प्रत्येक आर्य समाजी अथवा हिन्दू भाई की रीढ़ की हड्डी और मान्य धार्मिक ग्रन्थ केवल और केवल “वेद” हैं, महर्षि दयानंद ने भी वेदो और आर्ष ग्रंथो तथा पुराण क़ुरान आदि अनार्ष ग्रंथो के गहन अध्यन पश्चात ही “सत्यार्थ प्रकाश” जैसी अमूल्य निधि का निर्माण किया ताकि समस्त मानव जाति सत्य को जानकार असत्य को त्याग देवे, आर्य समाज भी ऋषि के सत्यार्थ प्रकाश को सत्य असत्य के निर्धारण हेतु पढ़ना और पढ़ाना मानता है बाकी स्वाध्याय तो वेद और अन्य आर्ष ग्रंथो का भी करना चाहिए, सत्यार्थ प्रकाश एक निर्देशिका है जो वेद और आर्ष ग्रंथो तथा प्राचीन ऋषियों मुनियो का जो धर्म के प्रति विचार थे उनका प्रकटीकरण करना और सत्य तथा असत्य के भेद को जानने में सहायता लेना।

धयान देने वाली बात है जब किसी मत या सम्प्रदाय की ऐसी बातो पर ध्यान दिलाया जाए जो मानव समाज के लिए हितकर न हो और उसकी समीक्षा समुचित तर्कपूर्ण आधार पर हो तो उस मत व सम्प्रदाय को थोड़ा बुरा लगना अथवा असहज हो जाना, ये सम्बंधित मत व सम्प्रदाय वाले मनुष्यो का स्वाभाव ही होगा, क्योंकि ऋषि ने सत्यार्थ प्रकाश के भूमिका में ही लिखा है :

“मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्य-सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्याऽसत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें।”

महर्षि का बड़ा ही सरल और सहज भाव था की जो सत्यान्वेषी होकर इस ग्रन्थ को पढ़े तो उसे सत्य को ग्रहण करने में कोई परेशानी न होगी,

“परन्तु इस ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रक्खी है और न किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्याऽसत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।”

ये महर्षि दयानंद कृत सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में ही लिख दिया गया है, पर खेद की जो विद्वान व आप्त लोग जैसे हमारे बंधू सतीश चंद जी महर्षि की उक्त बातो को ठीक से न समझकर केवल पूर्वाग्रह से ही शायद अपनी समीक्षा करते गए।

आइये अब एक एक शंका को देखते हैं की सतीश चंद जी की समीक्षा पर समीक्षा क्या है ?

1. महर्षि को संस्कृत का प्रकांड विद्वान भी मानते हैं और उन्ही महर्षि के द्वारा लिखी गयी समीक्षा को भाषा शैली अनुसार घिनौनी और शर्मनाक भी कहते हैं, पर क्या सच में ऐसा है ? आइये एक नजर डाले :

देखो इन गवर्गण्ड पोपों की लीला : ये शब्द महर्षि ने किस कारण और प्रकरण पर उपयोग किया जरा पूरा देखिये :

“अर्थात् देखो इन गवर्गण्ड पोपों की लीला जो कि वेदविरुद्ध महा अधर्म के काम हैं उन्हीं को श्रेष्ठ वाममर्गियों ने माना। मद्य, मांस, मीन अर्थात् मच्छी, मुद्रा पूरी कचौरी और बड़े रोटी आदि चर्वण, योनि, पात्रधार, मुद्रा और पांचवां मैथुन अर्थात् पुरुष सब शिव और स्त्री सब पार्वती के समान मान कर” (एकादश समुल्लास)

बताइये जो वेद विरुद्ध कर्म हो ऐसे हीन और लज्जामय कर्म को यदि कोई धार्मिक कार्य बतावे तो क्या उसकी बढ़ाई होगी ?

आगे देखिये :

“रक्तबीज के शरीर से एक बिन्दु भूमि में पड़ने से उस के सदृश रक्तबीज के उत्पन्न होने से सब जग्त में रक्तबीज भर जाना, रुधिर की नदी का बह चलना आदि गपोड़े बहुत से लिख रक्खे हैं। जब रक्तबीज से सब जगत् भर गया था तो देवी और देवी का सिह और उस की सेना कहां रही थी? जो कहो कि देवी से दूर-दूर रक्तबीज थे तो सब जगत् रक्तबीज से नहीं भरा था? जो भर जाता तो पशु, पक्षी, मनुष्यादि प्राणी और जलस्थ मगरमच्छ, कच्छप, मत्स्यादि, वनस्पति आदि वृक्ष कहां रहते? यहां यही निश्चित जानना कि दुर्गापाठ बनाने वाले पोप के घर में भाग कर चले गये होंगे!!! देखिये! क्या ही असम्भव कथा का गपोड़ा भंग की लहरी में उड़ाया जिसका ठौर न ठिकाना।” (एकादश समुल्लास)

अब देखिये यहाँ भी सतीश चंद जी ऐसे ही अन्य आक्षेप भी बिना प्रकरण को पूरी तरह से पढ़े केवल पूर्वाग्रह के कारण अपनी समीक्षाओं में लिखते गए यदि पूरी समीक्षाएं इसी प्रकार आपके समक्ष रखता जाउ तो बहुत बड़ा लेख हो जावेगा इसलिए आप एक बार स्वयं भी सत्यार्थ प्रकाश की समीक्षाओं को पढ़कर सतीश चंद जी की समीक्षाओं पर खुद नजर डाले की वो आखिर किस हद तक वाजिब हैं

जबकि महर्षि दयानंद सत्य के कितने बड़े मान्यकर्ता थे वो आपको हम दिखाते हैं :

ऋषि ने जहाँ जहाँ क़ुरान में जो थोड़ा बहुत सत्य पाया है उसपर अपने विचार भी प्रकट किये हैं :

१३७-उतारना किताब का अल्लाह गालिब जानने वाले की ओर से है।। क्षमा करने वाला पापों का और स्वीकार करने वाला तोबाः का।।

-मं० ६। सि० २४। सू० ४०। आ० १। २। ३।।

(समीक्षक) यह बात इसलिये है कि भोले लोग अल्लाह के नाम से इस पुस्तक को मान लेवें कि जिस में थोड़ा सा सत्य छोड़ असत्य भरा है और वह सत्य भी असत्य के साथ मिलकर बिगड़ा सा है। इसीलिये कुरान और कुरान का खुदा और इस को मानने वाले पाप बढ़ाने हारे और पाप करने कराने वाले हैं। क्योंकि पाप का क्षमा करना अत्यन्त अधर्म है। किन्तु इसी से मुसलमान लोग पाप और उपद्रव करने में कम डरते हैं।।१३७।। (चतुर्दश समुल्लास)

“अब इस कुरान के विषय को लिख के बुद्धिमानों के सम्मुख स्थापित करता हूँ कि यह पुस्तक कैसा है? मुझ से पूछो तो यह किताब न ईश्वर, न विद्वान् की बनाई और न विद्या की हो सकती है। यह तो बहुत थोड़ा सा दोष प्रकट किया इसलिये कि लोग धोखे में पड़कर अपना जन्म व्यर्थ न गमावें। जो कुछ इस में थोड़ा सा सत्य है वह वेदादि विद्या पुस्तकों के अनुकूल होने से जैसे मुझ को ग्राह्य है वैसे अन्य भी मजहब के हठ और पक्षपातरहित विद्वानों और बुद्धिमानों को ग्राह्य है।” (चतुर्दश समुल्लास)

७३-मत फिरो पृथिवी पर झगड़ा करते।। -मं० २। सि० ८। सू० ७। आ० ७४।।

(समीक्षक) यह बात तो अच्छी है परन्तु इस से विपरीत दूसरे स्थानों में जिहाद करना काफिरों को मारना भी लिखा है। अब कहो यह पूर्वापर विरुद्ध नहीं है? इस से यह विदित होता है कि जब मुहम्मद साहेब निर्बल हुए होंगे तब उन्होंने यह उपाय रचा होगा और जब सबल हुए होंगे तब झगड़ा मचाया होगा। इसी से ये बातें परस्पर विरुद्ध होने से दोनों सत्य नहीं हैं।।७३।। (चतुर्दश समुल्लास)

उपर्लिखित सभी तथ्यों से ज्ञात हो जाता है की महर्षि दयानंद सत्य के प्रति कितने गंभीर थे, उन्होंने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में केवल सत्य को ग्रहण करवाने हेतु ही पुस्तक का सृजन किया, महर्षि ने अन्य मत मतांतरों, सम्प्रदायों में भी जो जो सत्य देखा उसे अपनी सत्यार्थ प्रकाश में समीक्षा के अंतर्गत लिखा है देखिये :

“और जो आप झूठा और दूसरे को झूठ में चलावे उसको शैतान कहना चाहिये सो यहां शैतान सत्यवादी और इससे उसने उस स्त्री को नहीं बहकाया किन्तु सच कहा और ईश्वर ने आदम और हव्वा से झूठ कहा कि इसके खाने से तुम मर जाओगे।” (त्रयोदश समुल्लास)

(समीक्षक) अब देखिये! ईसाइयों के ईश्वर की लीला कि प्रथम तो सरः का पक्षपात करके हाजिरः को वहां से निकलवा दी और चिल्ला-चिल्ला रोई हाजिरः और शब्द सुना लड़के का। यह कैसी अद्भुत बात है? यह ऐसा हुआ होगा कि ईश्वर को भ्रम हुआ होगा कि यह बालक ही रोता है। भला यह ईश्वर और ईश्वर की पुस्तक की बात कभी हो सकती है? विना साधारण मनुष्य के वचन के इस पुस्तक में थोड़ी सी बात सत्य के सब असार भरा है।।२५।। (त्रयोदश समुल्लास)

“खुदा ने शैतान से पूछा कहा कि मैंने उस को अपने दोनों हाथों से बनाया, तू अभिमान मत कर। इस से सिद्ध होता है कि कुरान का खुदा दो हाथ वाला मनुष्य था। इसलिए वह व्यापक वा सर्वशक्तिमान् कभी नहीं हो सकता। और शैतान ने सत्य कहा कि मैं आदम से उत्तम हूँ, इस पर खुदा ने गुस्सा क्यों किया? क्या आसमान ही में खुदा का घर है; पृथिवी में नहीं? तो काबे को खुदा का घर प्रथम क्यों लिखा? (१३५)” (चतुर्दश समुल्लास)

उपरोक्त शंकाए भी सत्यार्थ प्रकाश से ही उद्धृत हैं जिनमे ऋषि ने सत्य बात को सत्य ही कहा क्योंकि बाइबिल और क़ुरान में शैतान ने सच बोला जिसे ऋषि ने भी सत्य माना, मगर क़ुरानी खुदा और बाइबिल का यहोवा झूठ बोले ऐसा क्यों ?

क्या सतीश चंद गुप्ता जी अब बताने का कष्ट करेंगे की ऋषि ने जो सत्य का मंडन किया उसपर तो आपने समीक्षा की समीक्षा बिनवजह कर डाली मगर जो क़ुरानी खुदा ने झूठ का प्रचार किया आदम और हव्वा से उसपर आपकी चुप्पी क्या पूर्वाग्रह से ग्रसित है अथवा मत सम्प्रदाय की असत्य बात को भी सच मान लेने से आप इस पर समीक्षा न करोगे ?

लेख लिखने को तो बहुत बड़ा हो जावेगा मगर अभी के लिए केवल इतना ही लिखते हैं इस से पाठकगण बहुत कुछ समझ और विचार लेंगे की सतीश चंद गुप्ता जी की सत्यार्थ प्रकाश पर समीक्षाएं कितनी वाजिब हैं और कितनी नहीं।

आइये लौटिए वेदो की और।

नमस्ते

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