““सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 11”

“नौवे अध्याय का जवाब पार्ट 2”

अब आक्षेपकर्ता कहते हैं की क़ुरान में पिछले १४०० साल से किसी अरबी विद्वान ने कोई गलती नहीं पकड़ी, भाषा संशोधन की आवश्यकता ही महसूस न हुई, इस दावे को भी जरा ध्यान से समझना चाहिए, देखिये, अरबी के एक बहुत बड़े विद्वान हुए हैं, उनका नाम था “जलाल अल-दीन अल-सुयूती” इन्हे “इब्न अल-क़ुतुब” अर्थात “किताब का बेटा” नाम से भी जाना जाता है, आप मिस्र के धार्मिक विद्वान, कानूनी विशेषज्ञ और शिक्षक, तथा मध्य युग में इस्लामी धर्मशास्त्र विषयों पर विस्तृत तथा विविधतापूर्ण बेबाकी से लिखने वाले अरब लेखकों में से एक थे। आपको काहिरा में बेबार्स की मस्जिद में १४६२ में नियुक्त किया गया था। आपने जगप्रसिद्द रचना “द एतेक़ान” के दूसरे भाग में लगभग १०० पृष्ठों का निर्माण किया है, हम वहीँ से कुछ कुरान पर की गयी टिप्पण्यो से अवगत करवाते हैं, देखिये :


“द इत्तेकान” पुस्तक में “क़ुरान में मौजूद विदेशी शब्द” जो अत्यंत कठिन हैं, तथा शास्त्रीय अरबी भाषा की शब्दावली और इन अरबी शब्दों की अभिव्यक्ति भी अरब में मौजूद नहीं थी, क़ुरान में मौजूद भाषाओ की विविधता के चलते ही, विषय को समझाते हुए शफी लिखते हैं :

“No one can have a comprehensive knowledge of the language except a prophet” (Itqan II: p 106)

“भाषा का व्यापक ज्ञान नबी के अतिरिक्त और किसी को नहीं हो सकता”

अब यहाँ कुछ सवाल उतपन्न होते हैं, जब क़ुरान में ही अल्लाह मियां कहते हैं की ये क़ुरान सरल अरबी में दिया जाता है ताकि अरब वाले इससे शिक्षा प्राप्त कर सके (क़ुरान ४४:५९), तो जब क़ुरान में मौजूद विदेशी शब्द, या ऐसे शब्द जिनका ज्ञान खुद अरब वालो को नहीं, यहाँ तक कि मुहम्मद साहब के साथियो तथा रिश्तेदारो तक को नहीं पता था, तब ये क़ुरान कैसे सरलता से अरब के मुस्लिम बंधू समझ सकेंगे ? शफी खुद मान रहे की जो क़ुरान में विदेशी शब्द आये हैं, उनकी जानकारी मुहम्मद साहब के अतिरिक्त और किसी को नहीं, तब ऐसे में यदि अरब के जानकार मुस्लिम इस पुस्तक का ज्ञान न समझ पाये तो अरब से बाहर के लोग जो अरबी भाषा जानते तक नहीं, वो कैसे समझ पाएंगे ? क्या इससे सिद्ध नहीं होता की क़ुरान केवल अरब वालो के लिए ही थी ?

इस विषय पर “दी इत्तेकान” क्या कहते है, वह भी देखिये :

“It is utterly inadmissible for the Qur’an to be read in languages other than Arabic, whether the reader masters the language or not, during the prayer time or at other times, lest the inimitability of the Qur’an is lost.

यह पूरी तरसे से नकारने योग्य है की क़ुरान को अरबी भाषा के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा या भाषाओ में पढ़ा जाए। चाहे पढ़ने वाला भले ही भाषाओ का विद्वान हो या न हो, चाहे प्रार्थना के समय पढ़ी जाए व किसी अन्य समय, यदि क़ुरान को अरबी भाषा के अतिरिक्त अन्य किसी भी भाषा में पढ़ा जाए तो वो अनुकरणीय नहीं है, अर्थात अमान्य है।

यही कारण है की गैर-अरब व्यक्ति, क़ुरानी आयतो को केवल रटते हैं, वो भी बिना समझे क्योंकि ये अरबी में पढ़ना और बोलना ही मान्य है। इसी विषय पर बिलकुल यही विचार प्रकट करने वाले एक और इस्लामी विद्वान डॉ शालाबी अपनी पुस्तक “द हिस्ट्री ऑफ़ इस्लामिक लॉ” पृष्ठ ९७ पर इसी बात को लिखते हुए कलम आगे चलाते हैं की :

“If the Qur’an is translated into a non-Arabic language, it will lose its eloquent inimitability. The inimitability is intended for itself. It is permissible to translate the meaning without being literal.”

यदि क़ुरान को अरबी भाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा में भाषांतरित (भाष्य) किया जाए तो, क़ुरान अपनी मूल भाषाई सुंदरता, खो देगी, इसका अनुकरण केवल केवल अरबी भाषा ही है। ये भाष्य कुछ ऐसा ही होगा जैसे मूल शब्द के सटीक अर्थ रहित भाषांतर (भाष्य) की अनुमति होती है।

अब ऐसे में, आक्षेपकर्ता का कहना की महर्षि दयानंद को अरबी का ज्ञान नहीं था, इसलिए जो सत्यार्थ प्रकाश में क़ुरान पर आक्षेप किये वो गलत हैं, तो महर्षि पर दोषारोपण करने से पहले, कृपया उन भाष्यकारों पर आरोप खड़े करे, जिन्होंने क़ुरान का हिंदी में भाष्य किया, वैसे सभी जानते हैं की क़ुरान का लगभग दुनिया की सभी भाषाओ में अनुवाद किया जा रहा है, लेकिन इस्लामी विद्वानो की धारणा है की यदि क़ुरान को भाषांतर किया तो इसकी मूल भाषाई सुंदरता खत्म हो जायेगी, इसलिए इसका भाष्य नहीं किया जा सकता, वहीँ क़ुरान में मौजूद शब्द भी ऐसे हैं जिन्हे खुद अरब के लोग नहीं जानते, न ही वो शब्द अरबी व्याकरण में मिलते हैं, तब कैसे उनका अर्थ भाषांतर किया जाएगा ? इसका सीधा सीधा अर्थ तो यही है की क़ुरान का भाष्य नहीं किया जा सकता क्योंकि ये कुरान केवल अरब देश के लिए ही थी, लेकिन जो इसका भाषांतर कर रहे शायद वो क़ुरान की अन्तर्भावना और अल्लाह के ज्ञान से खिलवाड़ कर रहे हैं, फिर भी आक्षेपकर्ता महर्षि दयानंद को ही दोष देते हैं, क्या ये पूर्वाग्रह से ग्रसित मानसिकता नहीं ?

अब जो कहते हैं की क़ुरान में व्याकरण गलती और आज तक फेरबदल नहीं हुआ उसपर विचार करते हैं :

डॉ अहमद शालाबी, इस्लामी इतिहास और सभ्यता के विद्वान प्रोफेसर अपनी पुस्तक “दी हिस्ट्री ऑफ़ इस्लामिक लॉ” पृष्ठ ४३ पर क्या लिखते हैं उसे देखिये :

“The Qur’an was written in the Kufi script without diacritical points, vocalization or literary productions. No distinction was made between such words as ‘slaves’, ‘a slave’, and ‘at’ or ‘to have’, or between ‘to trick’ and ‘to deceive each other’, or between ‘to investigate’ or ‘to make sure’. Because of the Arab skill in Arabic language their reading was precise. Later when non-Arabs embraced Islam, errors began to appear in the reading of the Qur’an when those non-Arabs and other Arabs whose language was corrupted, read it. The incorrect reading changed the meaning sometimes.”

क़ुरान मूलतया कूफी लिपि में लिखा गया था जो स्वरों के विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ), स्वरोच्चारण तथा साहित्यिक प्रस्तुतियों से रहित था। “गुलामो”, “एक गुलाम”, …… आदि शब्दों में कोई भेद, अंतर नहीं रखा गया था। क्योंकि एक अरब व्यक्ति तो अरबी पढ़ने में कौशल प्राप्त था इसलिए सटीकता से पढ़ लेता था। लेकिन जब अरब के बाहर के लोगो ने इस्लाम स्वीकार किया, और वे अरब के लोग जिनकी अरबी ठीक न थी इन्होने मूल क़ुरान का पाठ किया तब क़ुरान में विसंगतियां उत्पन्न हुई। गलत तरीके से पढ़ने के कारण कभी कभी कुरान के मूल पाठ का अर्थ भी बदल जाता था।

बिलकुल यही वक्तव्य ताहा हुसैन, “ताहा हुसैन” पृष्ठ १४३ अनवर जमाल जुन्दी द्वारा में लिखित पाया जाता है।

इसी प्रसंग में डॉ अहमद उन व्यक्तियों के नाम बताते हैं जिन्होंने स्वरोच्चारण और विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) का आविष्कार किया और इन्हे मुहम्मद साहब की मृयुपरांत कई वर्षो बाद क़ुरानी लेख में प्रयुक्त किया जैसे की अबु अल-अस्वद अल दुआली, नस्र इब्न असीम और अल खलील इब्न अहमद। इसी पृष्ठ पर और विस्तार से समझाते हुए वह लिखते हैं की

“इन विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) के बिना, कोई भी व्यक्ति सूरह अत-तौबा की आयत ३ का अर्थ कुछ इस प्रकार समझता है “God is done with the idolaters and His apostle— free from obligation to the idolaters and His apostle” जबकि इसका सही अर्थ है “God and His apostle are done with the idolaters—free from further obligation to the idolaters”

अब यहाँ सवाल उठता है की यदि क़ुरान सरल अरबी और शुद्ध व्याकरण में उतरी तो इतनी विसंगतियां क्यों उत्पन्न हुई ? इस बात को समझने के लिए एक उदाहरण देखते हैं, अरबी भाषा में “ब” लिखने हेतु विशिष्ट चिन्ह (बिंदु) होते हैं यदि हम इन विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) को ऊपर, नीचे करते हुए बदल दे तो हमें तीन अलग अलग शब्द मिलेंगे “त” “ब” और “थ”, अब सोचिये यदि कोई अरबी विद्यार्थी बिना विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) को प्रयोग किये अरबी का पेपर दे दे, तो शिक्षक उसके लिखे को पढ़ और समझ पायेगा ? कितने नंबर दे पायेगा वो शिक्षक उस विद्यार्थी को ?

अब पाठकगण स्वयं विचार की जब अरबी भाषा विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) के पढ़ी और समझी ही नहीं जा सकती, और मूल क़ुरान जो थी वो विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) के बिना ही लिखी गयी थी, ये सभी मुस्लिम आलिम इस बात को भली भाँती जानते हैं, ये एक ऐतिहासिक सच्चाई है जो बिना किसी अपवाद के स्वीकार की जाती है, तो वे लोग जिन्होंने विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) को क़ुरान में प्रयुक्त किया जिसके जरिये ही आज क़ुरान समझा जा सकता है, तब ये कार्य करने को क्या अल्लाह मियां ने आदेश दिया था ? यदि नहीं तो ये क़ुरान की मूल लेख से खिलवाड़ है, और इसे मिलावट ही क्यों नहीं कहा जाएगा ?

यहाँ एक शंका और भी उतपन्न होती है की जो क़ुरान लिखा गया जो आज मौजूद है, क्या वो सच में वही क़ुरान का ज्ञान है जिसे अल्लाह मियां ने पैगम्बर मुहम्मद साहब पर जिब्रील नामी फरिशते द्वारा अवतरित किया था ? ये शंका इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि सही बुखारी में क़ुरान को दुबारा लिखवाने का आदेश अबु बकर साहब द्वारा ४ लोगो को दिया गया था जिनमे से एक ज़ैद बिन थबित अल अंसारी थे जिन्होंने बुखारी में जो फ़रमाया है, वो हमारे कथन की पुष्टि करता है, देखिये :

ज़ैद बिन थबित अल अंसारी ये उनमे से एक थे जिन्हे अबु बकर द्वारा पवित्र इल्हाम (क़ुरान) को लिखने का दायित्व सौंपा गया था, इन्होने बताया की यममा जंग में लड़ाकों की भारी क्षति हुई थी, अधिकांशतः वो लड़ाके “कुर्रा” भी मृत्यु को प्राप्त हुए जो ह्रदय से क़ुरान को जानते थे। उन्होंने ये भी बताया की इसी लड़ाई के दौरान कुरान का अधिकांश हिस्सा खो गया था।

सही बुखारी जिल्द ६ किताब ६० हदीस २०१

पाठकगण, यदि लिखते जाए, तो अनेको प्रमाण मौजूद हैं, लेकिन इतने से भी पाठकगण आराम से समझ सकते हैं की मूल क़ुरान का व्याकरण कितना कमजोर था, जिसे अनेको पुर्शार्थी मनुष्यो ने ठीक किया, क़ुरान में मौजूद अनेको विदेशी भाषाए इस बात का पुख्ता सबूत है की क़ुरान में भी मिलावट हुई है, क्योंकि अल्लाह मियां क़ुरान में स्पष्ट कहते हैं की क़ुरान को विशुद्ध सरल अरबी भाषा में दिया है ताकि अरब के लोग समझे, लेकिन वहीँ इस क़ुरान में अनेको विदेशी भाषाओ के शब्द स्पष्ट रूप से मौजूद हैं, तब यदि ये मिलावट नहीं तो क्या अल्लाह मियां क़ुरान में झूठ बोले ? अल्लाह मियां क्यों झूठ बोलेंगे, ये मिलावट अवश्य ही शैतानो के बन्दों ने की करवाई है। हम चाहेंगे की ऋषि पर आक्षेप करने की अपेक्षा आक्षेपकर्ता गुप्ता जी, स्वयं संज्ञान लेते हुए, इस विषय पर भी मुस्लिम बंधुओ को आगाह करे।

आक्षेपकर्ता का कहना है की क़ुरान में इतने उच्च और उत्तम मूल्य प्रतिपादित किये हैं जो कोई छलि, कपटी और स्वार्थी व्यक्ति अपनी जंगली, अल्पज्ञ और मतलब सिद्धि के लिए नहीं कर सकता, उसके लिए वे कुछ उदहारण भी देते हैं जैसे :

बेहयाई के करीब तक न जाओ चाहे वह जाहिर हो या पोशीदा (कुरान ६:१५२)

अब पाठकगण स्वयं देखे क़ुरान कितने उच्तम मूल्य स्थापित करती है :

और (पहले से) विवाहित स्त्रियां भी (तुम्हारे लिए हराम हैं) सिवाय उन स्त्रियों के जो (लौंडी के रूप में कैद हो कर) तुम्हारे अधिकार में आ जाएँ। अल्लाह का यह आदेश तुम्हारे लिए अनिवार्य (फर्ज) है और जो इन (ऊपर बताई गयी स्त्रियों) के अतिरिक्त हो, वे (निकाह के बाद) तुम्हारे लिए हलाल (वैध) हैं।

(क़ुरान ४:२५)

अब देखिये कितना मानवो के लिए स्त्रियों का कितना उच्च मूल्य स्थापित किया गया है। सभी महिला जो शादीशुदा हो वो हराम हैं मगर वो जो गुलाम (लौंडी) यानी मुशरिक, काफ़िर, आदि व्यक्तियों पर किये गए हमलो, युद्धों के बाद जो उन काफिरो, मुशरिकों की शादीशुदा महिलाये हैं, वो वैध यानी हलाल हैं। सीधा सीधा गणित समझिए, जो मुस्लिम महिला शादीशुदा हो केवल वही हराम है, बाकी काफ़िर, मुशरिक आदि की शादी शुदा महिला भी हलाल (वैध) हैं, तो बाकी दुनिया में और कौन महिला बची जो शादीशुदा हराम हो ?

ये आयत क्यों उतरी, इस पर भी थोड़ा विचार करे, देखिये :

Abu Sa’id al−Khudri (Allah her pleased with him) reported that at the Battle of Hanain Allah’s Messenger (may peace be upon him) sent an army to Autas and encountered the enemy and fought with them. Having overcome them and taken them captives, the Companions of Allah’s Messenger (may peace te upon him) seemed to refrain from having intercourse with captive women because of their husbands being polytheists. Then Allah, Most High, sent down regarding that:” And women already married, except those whom your right hands possess (iv. 24)” (i. e. they were lawful for them when their ‘Idda period came to an end). [Sahih Muslim, Book 8, Hadith 3432]

अबु सईद अल खुदरी ने बताया की हनेन की जंग में रसूलल्लाह ने औतास में फ़ौज भेजी, जो दुश्मन का सामना करने के लिए जंग लड़े। यहाँ तक की वो दुश्मन पर भारी पड़े और उन्हें बंदी बना लिया, रसूल्ललाह के साथी, बंदी औरतो के साथ सम्भोग करने से परहेज कर रहे थे क्योंकि वो औरते बहुदेववादी पुरषो की पत्निया थी। तब अल्लाह जो सर्वोच्च है, इस विषय पर आयत नाज़िल की :

विवाहित स्त्रियां भी (तुम्हारे लिए हराम हैं) सिवाय उन स्त्रियों के जो (लौंडी के रूप में कैद हो कर) तुम्हारे अधिकार में आ जाएँ।

सही मुस्लिम – किताब 8 हदीस 3432

अब स्वयं सोचिये, क्या बहुदेववादी लोगो को स्वतंत्रता नहीं की वो अपनी संस्कृति और सभ्यता अनुसार अपने देवी देवताओ की पूजा कर सके ? क्या बहुदेववादियों से जंग केवल इसीलिए नहीं की गयी की वो अल्लाह और रसूल को नहीं मान कर अपनी संस्कृति का पालन कर रहे थे ? क्या इस्लाम के अनुसार कोई अपनी संस्कृति का पालन करे तो वो गुनाह है ? क्या केवल इसलिए एक महिला की अस्मत आबरू बर्बाद करना जायज़ है की वो अपनी संस्कृति अनुसार अपने देवी देवताओ की पूजा कर रही है ? क्या ये मानवीय संस्कृति और सभ्यता, तथा पूजा उपासना की स्वतंत्रता को नेस्तनाबूद करने का गुनाह नहीं ? क्या ये कम बेहयाई है जिसको अल्लाह मियां ने करने को आयत नाजिल की, जबकि मुहम्मद साहब के साथ ये सब नहीं करना चाहते थे ?

महर्षि दयानंद ने क्या ही गलत आक्षेप लगाया की ये जंगली सभ्यता और मूर्खो की बनाई पुस्तक है, क्या मुहम्मद साहब अल्लाह से ऐसी आयात नाजिल करवा सकते हैं, जिसमे खुलेआम और बेहयाई और बलात्कार की शिक्षा का स्पष्ट उदहारण हो ? शायद इसीलिए महर्षि दयानंद ने इस किताब को जंगली और असभ्य लोगो की कृति बताया जो अपनी कामवासना को शांत करने हेतु अपने मतलब और स्वार्थ की पूर्ति के लिए रची गयी, इसमें मुहम्मद साहब का नाम लेकर, ऐसी बात गढ़ी गयी है, ये मुहम्मद साहब की ओरिजिनल रचना नहीं, ऐसा प्रतीत होता है।

अब आपक्षेपकर्ता ने जो क़ुरान से विज्ञानं की आयत दिखाई जरा उसे भी नकद हाथ लेते हैं :

और सूर्य वह अपने ठिकाने की तरफ चला जा रहा है (क़ुरान ३६:३८)

देखिये आक्षेपकर्ता का कहना की क़ुरान में विज्ञानं है, यहाँ बताया की सूर्य अपने ठिकाने की तरफ चला जा रहा है, जबकि हम जानते हैं की सूर्य कहीं आता जाता नहीं, ये तो धरती घूमती है इसलिए ऐसा प्रतीत होता है, बाकी सूर्य सभी ग्रहो को अपने आकर्षण से बांधे रखता है और स्वयं भी घूमता है, तथा अनेको ग्रहो को भी अपनी धुरी पर घुमाता है, इसके साथ साथ अपनी अपनी कक्षा में सभी ग्रह घूमते हैं, पहले भी बताया की सूर्य अपनी धुरी पर तो घूमता ही है साथ अपनी कक्षा में भी घूमता है, जो सूर्य अपनी कक्षा में न घूमे तो एक राशि से दूसरे राशि में नहीं जा सकता, और इसी प्रकार ग्रह भी अपनी धुरी पर घूमते हुए, सूर्य की परिक्रमा करते हैं, परन्तु सौरमंडल के केंद्र में सूर्य है अतः वो किसी अन्य ग्रह की परिक्रमा नहीं लगाता, हाँ सम्पूर्ण सौरमंडल, आकाशगंगा का गांगेय वर्ष पूर्ण करने हेतु परिक्रमा करता है, इसी को आक्षेपकर्ता न समझकर, सूर्य को अन्य ग्रहो का परिक्रमा करने वाला बताते हैं, जो अत्यंत हास्यास्पद है, ठीक वैसे ही जैसे क़ुरान में सूर्य का अपने ठिकाने की और जाना, आइये दिखाते हैं सूर्य अपने नियत ठिकाने की और कहाँ जा रहा है, देखिये :

अबु धार ने बताया कि : पैगम्बर साहब ने मुझसे पूछा “क्या तुम जानते हो सूर्यास्त के समय सूरज कहाँ को जाता है ? मैंने कहा अल्लाह और रसूल ही बेहतर जानते हैं। तब पैगमबर साहब बोले ये (सूर्य) अल्लाह के सिंघासन के नीचे तक जाकर यात्रा करता है, और दंडवत प्रणाम करता है, और सूर्योदय पर निकलने की अनुमति मांगता है, अनुमति मिलने पर सूर्योदय में सूर्य दिखाई देता है, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा जब सूर्य दंडवत प्रणाम करेगा (क्षमा याचना करेगा) लेकिन उसका प्रणाम स्वीकार न किया जाएगा, सूर्य अपने नियत ठिकाने पर जाने की अनुमति मांगेगा, पर उसे अनुमति न मिलेगी, और उसे (सूर्य) को आदेश दिया जाएगा की जहाँ तू छुपता है (पश्चिम में) वहां से उगेगा (सूर्योदय) यानी पश्चिम से सूर्योदय होगा। और यही अल्लाह की उस आयत की व्याख्या है :

और सूर्य वह अपने ठिकाने की तरफ चला जा रहा है (क़ुरान ३६:३८)

[सही बुखारी जिल्द 4, किताब 54, हदीस 421]

अब देखिये, क्या विज्ञानं और वैज्ञानिकीकरण क़ुरान में प्रस्तुत है, जिसको पूर्ण विज्ञानं आक्षेपकर्ता बता रहे, ये तो सिद्ध है की सूर्य कहीं आता जाता नहीं, फिर भी क़ुरान में ऐसा बताया गया की सूर्य अल्लाह मियां के सिंघासन के नीचे छुप जाता है, और दुबारा निकलने के लिए क्षमा याचना और दंडवत प्रणाम करता है, क्या सूर्य कोई सजीव वस्तु है जो दंडवत प्रणाम करेगा ? और सूरज पश्चिम से निकलेगा, ये भी असंभव है क्योंकि सूरज तो अपनी कक्षा में ही घूर्णन कर रहा ऐसे ही पृथ्वी करती है, पता नहीं ये आयत कैसे क़ुरान में दर्ज की गयी, ये खुदाई आयत तो नहीं, अवश्य ही कोई जंगली और असभ्य पुरुषो द्वारा क़ुरान में मिलावट की गयी है, ऋषि का ये दावा बिलकुल सत्य है, अब क़ुरान की कुछ और विज्ञनिक आयतो का दर्शन करते हैं, देखिये :

“क़ुरान का विज्ञानं हम दिखाते हैं जरा गौर से देखिये :

1. अल्लाह मियां तो क़ुरान में चाँद को टेढ़ी टहनी बनाना जानता है :

और रहा चन्द्रमा, तो उसकी नियति हमने मंज़िलों के क्रम में रखी, यहाँ तक कि वह फिर खजूर की पूरानी टेढ़ी टहनी के सदृश हो जाता है (क़ुरआन सूरह या-सीन ३६ आयत ३९)

क्या चाँद कभी अपने गोलाकार स्वरुप को छोड़ता है ? क्या अल्लाह मियां नहीं जानते की ये केवल परिक्रमा के कारण होता है ?

2. सूरज चाँद के मुकाबले तारे अधिक नजदीक हैं :

और (चाँद सूरज तारे के) तुलूउ व (गुरूब) के मक़ामात का भी मालिक है हम ही ने नीचे वाले आसमान को तारों की आरइश (जगमगाहट) से आरास्ता किया। (सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत ६)

क्या अल्लाह मिया भूल गए की सूरज से लाखो करोडो प्रकाश वर्ष की दूरी पर तारे स्थित हैं ?

3. क़ुरान के मुताबिक सात ग्रह :

ख़ुदा ही तो है जिसने सात आसमान पैदा किए और उन्हीं के बराबर ज़मीन को भी उनमें ख़ुदा का हुक्म नाज़िल होता रहता है – ताकि तुम लोग जान लो कि ख़ुदा हर चीज़ पर कादिर है और बेशक ख़ुदा अपने इल्म से हर चीज़ पर हावी है। (सूरह अत तलाक़ ६५ आयत १२)

क्या सात आसमान और उन्ही के बराबर सात ही ग्रह हैं ? क्या खुदा को अस्ट्रोनॉमर जितना ज्ञान भी नहीं की आठ ग्रह और पांच ड्वार्फ प्लेनेट होते हैं।

4. शैतान को मारने के लिए तारो को शूटिंग मिसाइल बनाना भी अल्लाह मिया की ही करामात है।

और हमने नीचे वाले (पहले) आसमान को (तारों के) चिराग़ों से ज़ीनत दी है और हमने उनको शैतानों के मारने का आला बनाया और हमने उनके लिए दहकती हुई आग का अज़ाब तैयार कर रखा है। (सूरह अल-मुल्क ६७ आयत ५)

मगर जो (शैतान शाज़ व नादिर फरिश्तों की) कोई बात उचक ले भागता है तो आग का दहकता हुआ तीर उसका पीछा करता है (सूरह सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत १०)

क्या अल्लाह को तारो और उल्का पिंडो में अंतर नहीं पता जो तारो को शूटिंग मिसाइल बना दिया ताकि शैतान मारे जावे ? और उल्का पिंड जो है वो धरती के वायुमंडल में घुसने वाली कोई भी वस्तु को घर्षण से ध्वस्त कर देती है जो जल्दी हुई गिरती है ये सामान्य व्यक्ति भी जानते हैं इसको शैतान को मारने वाले मिसाइल बनाने का विज्ञानं खुद अल्लाह मियां तक ही सीमित रहा गया।”

इसके अतिरिक्त पूरी कुरान में कहीं भी नहीं लिखा की सूर्य, चन्द्र पृथ्वी आदि ग्रह, अपनी धुरी पर घूमते हैं, अपनी अपनी कक्षा में सौरमंडल की परिक्रमा करते हैं, न ही कही भी यह बताया की सौरमंडल क्या है, आकाशगंगा क्या है, ब्रह्माण्ड क्या है, कहीं भी ऐसा कोई जिक्र नहीं, क़ुरान में केवल धरती, सूर्य और चन्द्रमा का ही विवरण है, न ही आकाशगंगा, न अनेको ग्रहो का कोई वर्णन है, अतः यह सिद्ध है की क़ुरान का बनाने वाला खगोलविद्या को नहीं जानता था, इसीलिए महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में क़ुरान की खगोल विद्या पर आक्षेप प्रकट किये। वहीँ ऋषि ने सत्यार्थ प्रकाश में ही वेदो से प्रमाण बतलाये हैं की पृथ्वी सूर्य की प्रक्रिमा करती है, सूर्य अपने आकर्षण से सभी ग्रहो को बांधे रखता है, सभी ग्रह सूर्य की प्रक्रिमा करते हैं, और सूर्य भी अपनी कक्षा का चक्कर लगाता है, किन्तु किसी ग्रह (लोक) का चककर नहीं लगाता, क्योंकि सूर्य सौरमंडल के केंद्र में है, और सबसे बड़ा होने से ये सम्भव भी नहीं, लेकिन फिर भी आक्षेपकर्ता का बौद्धिक दिवालियापन इस सत्यता को स्वीकार नहीं करता, हम पुनः दिखाते हैं, देखिये :

स दाधार पृथिवीमुत द्याम् ।। यह यजुर्वेद का वचन है।

जो पृथिव्यादि प्रकाशरहित लोकालोकान्तर पदार्थ तथा सूर्य्यादि प्रकाशसहित लोक और पदार्थों का रचन धारण परमात्मा करता है। जो सब में व्यापक हो रहा है, वही सब जगत् का कर्त्ता और धारण करने वाला है।

(प्रश्न) पृथिव्यादि लोक घूमते हैं वा स्थिर?

(उत्तर) घूमते हैं।

(प्रश्न) कितने ही लोग कहते हैं कि सूर्य्य घूमता है और पृथिवी नहीं घूमती। दूसरे कहते हैं कि पृथिवी घूमती है सूर्य्य नहीं घूमता। इसमें सत्य क्या माना जाय?

(उत्तर) ये दोनों आधे झूठे हैं क्योंकि वेद में लिखा है कि-

आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः । पितरं च प्रयन्त्स्वः।।

-यजुः० अ० ३। मं० ६।।

अर्थात् यह भूगोल जल के सहित सूर्य्य के चारों ओर घूमता जाता है इसलिये भूमि घूमा करती है।

आ कृष्णेन रजसा वत्तर्मानो निवेशायन्नमतृं मर्त्यं च ।

हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ।।

-यजुः० अ० ३३। मं० ४३।।

जो सविता अर्थात् सूर्य्य वर्षादि का कर्त्ता, प्रकाशस्वरूप, तेजोमय, रमणीयस्वरूप के साथ वर्त्तमान; सब प्राणी अप्राणियों में अमृतरूप वृष्टि वा किरण द्वारा अमृत का प्रवेश करा और सब मूर्तिमान् द्रव्यों को दिखलाता हुआ सब लोकों के साथ आकर्षण गुण से सह वर्त्तमान; अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता। वैसे ही एक-एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य्य प्रकाशक और दूसरे सब लोकलोकान्तर प्रकाश्य हैं। जैसे-

दिवि सोमो अधि श्रितः।। -अथर्व० कां० १४। अनु० १। मं० १।।

जैसे यह चन्द्रलोक सूर्य्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य्य के प्रकाश ही से प्रकाशित होते हैं। परन्तु रात और दिन सर्वदा वर्त्तमान रहते हैं क्योंकि पृथिव्यादि लोक घूम कर जितना भाग सूर्य के सामने आता है उतने में दिन और जितना पृष्ठ में अर्थात् आड़ में होता जाता है उतने में रात। अर्थात् उदय, अस्त, सन्ध्या, मध्याह्न, मध्यरात्रि आदि जितने कालावयव हैं वे देशदेशान्तरों में सदा वर्त्तमान रहते हैं अर्थात् जब आर्य्यावर्त्त में सूर्योदय होता है उस समय पाताल अर्थात् ‘अमेरिका’ में अस्त होता है और जब आर्य्यावर्त्त में अस्त होता है तब पाताल देश में उदय होता है। जब आर्य्यावर्त्त में मध्य दिन वा मध्य रात है उसी समय पाताल देश में मध्य रात और मध्य दिन रहता है। जो लोग कहते हैं कि सूर्य घूमता और पृथिवी नहीं घूमती वे सब अज्ञ हैं। क्योंकि जो ऐसा होता तो कई सहस्र वर्ष के दिन और रात होते। अर्थात् सूर्य का नाम (ब्रध्नः) है। यह पृथिवी से लाखों गुणा बड़ा और क्रोड़ों कोश दूर है। जैसे राई के सामने पहाड़ घूमे तो बहुत देर लगती और राई के घूमने में बहुत समय नहीं लगता वैसे ही पृथिवी के घूमने से यथायोग्य दिन रात होते हैं; सूर्य के घूमने से नहीं। जो सूर्य को स्थिर कहते हैं वे भी ज्योतिर्विद्यावित् नहीं। क्योंकि यदि सूर्य न घूमता होता तो एक राशि स्थान से दूसरी राशि अर्थात् स्थान को प्राप्त न होता। और गुरु पदार्थ विना घूमे आकाश में नियत स्थान पर कभी नहीं रह सकता। और जो जैनी कहते हैं कि पृथिवी घूमती नहीं किन्तु नीचे-नीचे चली जाती है और दो सूर्य और दो चन्द्र केवल जम्बूद्वीप में बतलाते हैं वे तो गहरी भांग के नशे में निमग्न हैं। क्यों? जो नीचे-नीचे चली जाती तो चारों ओर वायु के चक्र न बनने से पृथिवी छिन्न भिन्न होती और निम्न स्थलों में रहने वालों को वायु का स्पर्श न होता। नीचे वालों को अधिक होता और एक सी वायु की गति होती। दो सूर्य चन्द्र होते तो रात और कृष्णपक्ष का होना ही नष्ट भ्रष्ट होता है। इसलिये एक भूमि के पास एक चन्द्र, और अनेक चन्द्र, अनेक भूमियों के मध्य में एक सूर्य रहता है।

(सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लास)

यहाँ विज्ञानं का कितना सुंदर प्रस्तुतिकरण महर्षि दयानंद ने किया की आज तक ये सब बाते सत्य निकलती हैं, लेकिन जो पूर्वाग्रही मानसिकता से ग्रसित हैं, उनको सत्य नकारने की आदत बनी रहती है, चाहे कितना ही सच्चाई समझाते रहो।

इसके आगे, पुनः पुनराक्तिदोष आक्षेपकर्ता ने प्रकट किये हैं, जिनका निराकरण पूर्व के लेख में हो गया और आगे के लेख में और हो जाएगा।

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