“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 9″

“आठवे अध्याय का जवाब”

कोई भी जीव चाहे मनुष्य हो अथवा पशु व पक्षी मरते ही हैं और शरीर से आत्मा का वियोग होने पर वह शरीर रोगाणुओं और जीवाणुओ का घर बन जाता है जो सड़ता है, क्योंकि शरीर में मौजूद जो मिक्रोजियम्स हैं वह शरीर को अंदर से सडाना स्टार्ट करते हैं, अब देखने वाली बात है की जो मनुष्य जिंदगी भर जिया, उन्नत्ति की, इस प्रकृति से बहुत कुछ लिया, और अपनी पूरी जिंदगी प्रकृति के लिए यदि कुछ नहीं भी कर पाया तो, परिवार आदि के लिए बहुत कुछ किया, अथवा बहुत से कुछ नहीं भी कर पाते, तो सवाल उठता है, की अंतिम जो उसका क्रियाकर्म है वो किस प्रकार अच्छा हो सकता है, जो सुलभ हो, सस्ता हो, पर्यावरण हितकारी हो, तथा मनुष्यो के लिए भी लाभकारी हो।


मृत शरीर को ध्यान में रखते हुए अनेको मतों, सम्प्रदायों और पन्थो में अनेको परंपरा देखि जाती हैं, उनमे प्रमुख हैं :

1. शव दाह क्रिया।
2. मुर्दा गाड़ना।
3. मुर्दे को पानी में बहाना।
4. मुर्दे को पशु पक्षियों हेतु भोजन के लिए छोड़ देना।

अब इनमे से मुर्दे को बहाना और पशु पक्षियों हेतु भोजन के लिए छोड़ देना न तो युक्तिसंगत है न ही तर्कसंगत है, क्योंकि इससे पर्यावरण का बहुत विकार होता है। क्योंकि दोनों ही क्रियाओ से शव का अवशेष प्रकृति को दूषित करते हैं।

अब बात आती है, मुर्दा जलाये अथवा गाड़ा जाए ?

विज्ञानिक दृष्टिकोण से मृत शरीर का pH बैलेंस बिगड़ता है और अति दुर्गन्ध बदबू आनी स्टार्ट हो जाती है, जब यह मृत शरीर जमीन में गाड़ा जाता है तब pH बैलेंस बहुत अधिक हो जाता है और प्राकृतिक रूप शरीर के “गुड न्यूट्रिएंट्स” बाहर नहीं निकल पाते जिससे जमीन के अंदर ही विकार उत्पन्न होता है और अधिक बदबू आती है। आप किसी भी दफनाने वाली जगह का अवलोकन करे, वहां के वातावरण में अजीब सी दुर्गन्ध आती रहती है।

जोआन कैरोल क्रूज़ अपनी पुस्तक The Incorruptibles: A Study of the Incorruption of the Bodies of Various Catholic Saints and Beati जो की १९७७ में छपी थी, पृष्ठ संख्या ३६२ पर लिखते हैं

“The sheer stench from decomposing corpses, even when buried deeply, was over overpowering in areas adjacent to the urban cemetery”

गहराई से दफ़न करने के बावजूद भी शवो के सड़ने की महा भयंकर दुर्गन्ध शहरी कब्रिस्तानों के निकटवर्ती क्षेत्रो में जोरदार तरीके से फैली थी।

इसका एक दूसरा पहलु और भी है इस तरह के मृत शरीर को दफनाए जाने से जमीन में सोडियम की मात्रा २०० से २००० गुना अधिक तक बढ़ जाती है जिससे पेड़ पौधों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।

तीसरा महत्वपूर्ण कारण है की मृत शरीर को दफनाने पर जमीन में अनेक तरह के बेक्टेरिआ और जानलेवा टॉक्सिन्स का निर्माण होने लगता है, अधिकतर पशुओ को जमीन में दफनाने से एक खतरनाक टोक्सिन botulinum टोक्सिन उत्पन्न होता है जो धरती में मौजूद पानी को विषैला करता जाता है जिससे कैंसर और अनेक प्रकार की भयंकर बीमारिया उत्पन्न होती हैं।

“Decomposition of the human body releases significant pathogenic bacteria, fungi, protozoa, and viruses which can cause disease and illness, and many urban cemeteries were located without consideration for local groundwater. Modern burials in urban cemeteries also release toxic chemicals associated with embalming, such as arsenic, formaldehyde, and mercury. Coffins and burial equipment can also release significant amounts of toxic chemicals such as arsenic (used to preserve coffin wood) and formaldehyde (used in varnishes and as a sealant) and toxic metals such as copper, lead, and zinc (from coffin handles and flanges)”

“कब्र में मानव शरीर (शव) के सड़ने पर अनेको गंभीर और रोगजनक बेक्टेरिआ, फाँगि (कवक), प्रोटोजोआ और वाइरेसस आदि उत्पन्न होते हैं, जो अनेको प्रकार के गंभीर रोग और बीमारियां उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं, और अनेको शहरी कब्रिस्तान बिना स्थानीय भूजल की परवाह किये स्थापित किये गए हैं। यहाँ तक की शहरी कब्रिस्तानों में मौजूद आधुनिक कब्रो में लेप किये गए शवो से हानिकारक टॉक्सिक केमिकल्स जैसे आर्सेनिक, फॉरमॉल्डहाइड, और मर्करी आदि जानलेवा तत्व उत्सर्जित होते हैं। इसके अतिरिक्त शवो के साथ कफ़न और दफ़न सामग्री से भी आर्सेनिक, फॉरमॉल्डहाइड, और टॉक्सिक धातु जैसे कॉपर, लेड और जिंक आदि उत्सर्जित होते हैं।”

Taylor, Richard; Allen, Alistair (2006). “Waste Disposal and Landfill: Potential Hazards and Information Needs”. In Schmoll, Oliver; Howard, Guy; Chilton, John; Chorus, Ingrid. Protecting Groundwater for Health: Managing the Quality of Drinking-Water Sources. Cornwall, U.K.: World Health Organisation. ISBN 9781843390794

ये तो वैज्ञानिक निष्कर्षो के आधार पर है की मुर्दा गाड़ने से कितनी हानियां हो सकती हैं, अब आपको समझाते हैं की मुर्दा गाड़ना कितना खर्चीला हो सकता है, देखिये :

टाइम्स ऑफ़ इंडिया, हैदराबाद संस्करण (५ मई २०१२) में छपी खबर के मुताबिक मुर्दा गाड़ने के लिए उपयुक्त १५ गज जमीन का खर्च १८ हजार रूपये से १ लाख रूपये तक का है। वहीँ यदि कहीं मुर्दे को उसकी इच्छानुसार मुर्शिद (आध्यात्मिक मार्गदर्शक) के नजदीक गाड़ना हो तो खर्च का कोई पारावार ही नहीं, बहुत अधिक हो सकता है, वहीँ दूसरी और नामपल्ली में ही यूसुफेन दरगाह जो ३० हजार स्क्वेर यार्ड में फैली है वहां ६ फ़ीट बाय ढाई फ़ीट की कब्र के लिए आपको ३० हजार से ८० हजार तक का खर्च आता है (ध्यान रखे ये २०१२ के आंकड़े हैं)

इसके अतिरिक्त दिल्ली जैसे महानगर में किसी कब्रिस्तान में मुर्दा गाड़ने का खर्च ३ हजार रूपये है, वहीँ यदि किसी मस्जिद के निकट के कब्रिस्तान में मुर्दा गाड़ना हो तब इसका खर्च १५ हजार से शुरू होकर ५० हजार रूपये है, लेकिन यदि आपको लोक नायक अस्पताल के पीछे जो ऐतिहासिक मेहदियां कब्रिस्तान है वहा मुर्दा गाड़ना हो तो उसका खर्च ५० हजार से शुरू होता है और लाखो रूपये तक खर्च करने पड़ सकते हैं।

मशकर रशीद जो दिल्ली गेट कब्रिस्तान के केयरटेकर हैं बताते हैं की “दिल्ली गेट कब्रिस्तान में कब्र का खर्च २८०० रूपये है, लेकिन शहर के अलग अलग कब्रिस्तान में अधिकतर ५००० रूपये शुरूआती खर्च है, लेकिन जगह की कमी के चलते, उनसे अधिक रूपये भी वसूले जा सकते हैं।
(डेक्केन हेराल्ड ४ नवम्बर २०१२)

इन खबरों में ये भी बताया गया की ईसाई समुदाय के लिए जो खर्च है कब्र का वो कम से कम ३००० रूपये से १०००० रूपये तक जाता है। (डोमिनिक जूलियस, सम्बंधित दिल्ली कब्रिस्तान कमेटी)

ध्यान रहे ये आंकड़े केवल २०१२ तक के हैं, अभी २०१५ चल रहा है, तो इसमें कितना इजावा हुआ होगा, कह नहीं सकते। कब्रिस्तान में मुर्दो को गाड़ना ही जब इतना महंगा है, तब इसके अतिरिक्त जो अन्य खर्च आता है, वो अलग ही होगा, तब एक मुर्दा गाड़ने पर कितना खर्च आ सकता है, आप अंदाजा लगा सकते हैं।

अब हम आपको कब्रिस्तान की जमीन और शहरो की वास्तविकता का बोध करवाते हैं, देखिये १९०१ में अकेले दिल्ली राज्य की जनसँख्या ४ लाख थी लेकिन २०१२ में दिल्ली की जनसँख्या लगभग २ करोड़ के आसपास पहुंच गयी है। ऐसे में दिल्ली में लगभग बड़े और छोटे १०० कब्रिस्तान मौजूद हैं जो मुस्लिम समाज के लिए उपलब्ध हैं, इसके अतरिक्त सरकार ने सीलमपुर और कुंडली इलाके के लिए कुछ साल पहले ही कब्रिस्तान की जगह मुहिया करवाई है, वहीँ ईसाई समुदाय के लिए दिल्ली में ११ कब्रिस्तान मौजूद हैं, जिसमे द्वारका और बुराड़ी को अभी हाल में ही सरकार ने मुहिया करवाया है, ये सब जगह इसलिए मुहिया करवाई गयी है, क्योंकि पिछले कब्रिस्तान में जगह नहीं बची।

अब जरा एक बार को सोचिये, इतनी जगह अकेले दिल्ली में ही मुर्दो के आश्रय स्थल हेतु आरक्षित है, और वो भी कम पड़ रही है, तो नयी जगह अलॉट की जा रही हैं, जबकि आबादी के हिसाब से मुस्लिम और इसाई आबादी भारत में तेजी से बढ़ रही है, और विश्व जनसँख्या के हिसाब से तो खुद मुस्लिम समुदाय स्वीकार करते हैं की वो तेजी से ग्रोथ कर रहे हैं, ऐसी स्थति में, कितनी जगह मुर्दो के आश्रय स्थली हेतु आरक्षण के लिए दी जायेगी ?

जबकि आज पूरी दुनिया खाद्यान्न और रहने की मूलभूत समस्याओ से ग्रस्त है, जो जिन्दा व्यक्ति हैं उनके पास रहने को जगह नहीं, किसान खेती की जमीन को तरस रहा है, वहीँ दूसरी और मुर्दो के लिए इतनी बड़ी तादाद में जमीन को आश्रय स्थल बनाना क्या युक्तियुक्त है ?

अब हम आते हैं, शमशान घाट की स्थति पर, शमशान घाट एक जगह बनता है, और उसको दूर दूर के लोग भी सुगमता से उपयोग करते हैं, क्योंकि शरीर के भस्मीभूत होने पर वो जगह खाली हो जाती है अतः उसी जगह अनेको शवो का शवदाह आराम से हो सकता है, रही बात खर्चे की तो सामान्य व्यक्ति के लिए नाममात्र खर्च होता है, लकड़ी के अमूमन १५०० रूपये और घी के अधिकतम ६०० रूपये बाकी अन्य सामान की लगत १००० तो कुल खर्च करीब ३१०० रूपये आता है, यदि आक्षेपकर्ता महर्षि दयानंद के ही सिद्धांतो को अपनाकर खर्च सिद्ध करना चाहता है तब भी ये खर्च अधिकतम 1-2 लाख रूपये तक जाता है। लेकिन यहाँ इस सिद्धांत में जो जमीन का खर्च है वो नगण्य है, वहीँ दूसरी और १ लाख रूपये तो कब्र के खर्चे पर भी आ रहा है, साथ ही करोडो रूपये की जमीन जो केवल मुर्दो की आश्रय स्थली बनी रह जायेगी वो अलग है। तब भी महर्षि दयानंद का सिद्धांत ही सिद्ध होता है, और वो सुलभ है, सस्ता है, मनुष्यो के लिए अतयंत लाभकारी है, क्योंकि इससे जमीन की बचत होती है।

वही “International Cremation Statistics 2008” के मुताबिक पूरी दुनिया में भारत में ८५%, चीन 45.6% २०१४ में, जापान 99.85% २००८ में, ताइवान 92.47% 2013 में शव दाह संस्कार कर चूका है, वहीँ दूसरी और यूरोपीय देशो में १९६० में ३५% दाह संस्कार हुए थे जो २००८ में बढ़ाकर दुगने 72.44% पहुंच गए इसके अतरिक्त फ्रांस पेरिस में ३२% से बढ़कर ४५% तक दाह संस्कार का आंकड़ा पहुंच चूका है। वहीँ अमेरिका की दाह संस्कार संस्था की मानना है की २०२५ तक दाह संस्कार का आंकड़ा ५०% को पार कर जाएगा, क्योंकि १९६० में ये आंकड़ा महज 3.5% था जो २०१० तक ४१% तक पहुंच गया।

पूरी दुनिया, में आज जमीन को लेकर बड़ी समस्या है, क्योंकि कोई भी विकासशील देश को विकसित होने हेतु जमीन चाहिए, किसान को खेती के लिए जमीन चाहिए, उद्योग के लिए जमीन चाहिए, यानी जमीन की इस कदर समस्या है की विकास के लिए जमीन चाहिए मगर यही जमीन यदि केवल मुर्दो की आश्रय स्थली बना दी जाए, तो क्या देश का विकास संभव है ?

यदि शव दाह क्रिया विज्ञानं सम्मत न होती तो आज जो भी विकसित राष्ट्र हैं वो क्यों इसे अपनाते ? जाहिर सी बात है, सही तरीके से किया गया शव दाह, कभी भी प्रदूषण नहीं फैलाता, उलटे वातावरण को प्रदुषण से बचाता है।

आक्षेपकर्ता को यदि अभी भी केवल आक्षेप ही करने हैं तो वो स्वतंत्र है, मगर यदि, वैज्ञानिक, और राष्ट्र को बढ़ाने के योगदान, तथा गरीबो की आर्थिक स्थति को देखते हुए अवलोकन करे, तो मुर्दा गाड़ने की बजाये शव को जलाना अधिक युक्तियुक्त, विज्ञानं समत्त और तार्किक है, साथ ही इससे देश, किसान और खाद्यान्न की समस्या का भी छुटकरा है।

आओ लौटो वेदो की और

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