“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 10″

“नौवे अध्याय का जवाब पार्ट 1”

सन १९४३ ई० तक इन भाषाओं में सत्यार्थ प्रकाश के अनुवाद होने का पता चलता है : बंगाली, उर्दू (दो भिन्न भिन्न अनुवाद) अंग्रेजी (दो भिन्न भिन्न अनुवाद), पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, उड़िया, कनाडी, तामिल, तेलुगु, मलयालम, मरहठी, गुजराती, फ्रेंच, जर्मन, पश्तो, ब्रह्मी, और नेपाली। इनमे से कुछ भाषाओ के अनेक संस्करण निकल चुके हैं। अब यह ज्ञात हो की कुछ भाषाओ में अनुवादों के प्रथम प्रकाशित होने का समय इस प्रकार है :


उर्दू में अनुवाद (1) १८९७ ई०,
उर्दू में अनुवाद (2) १८९८ ई०
अंग्रेजी में अनुवाद (1) १९०६ ई०
अंग्रेजी में अनुवाद (2) १९०८ ई०
संस्कृत में अनुवाद १९२५ ई०

निदान सत्यार्थ प्रकाश के प्रेमी व समर्थको का अंदाजा इसी बात से बहुत कुछ हो सकता है की मूलग्रंथ व अनुवादों का प्रकाशन बहुत ज्यादा हुआ ; परन्तु साथ ही साथ इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता की इसके विरोध में भी अब (सन १८४४ ई०) तक जितना कार्य हुआ है उसको यथोचित रूप से जतलाने के निमित्त यहाँ पर काफी स्थान नहीं।

सत्यार्थ प्रकाश का संशोधित संस्करण जो पहिले पहिले सन १८८४ ई० में प्रकाशित हुआ है और जिसका आर्य सामाजिक जगत में चलन है उसके विषय में अनेक विरोधी लोगो ने इस प्रकार भरम फैलाया है की यह संस्करण महर्षि दयानंद का लिखा हुआ नहीं है क्योंकि वह सन १८८३ ई० में शरीर त्याग कर गए हैं और उक्त संशोधित संस्करण उनकी मृत्यु के पश्चात सन १८८४ ई० में निकला है और असली सत्यार्थ प्रकाश वह है जो सं १८७५ ई० अर्थात उनके जीवन काल में निकला है।

ऐसी बात के विषय में यह जान लेना चाहिए की स्वामीजी ने संशोधित संस्करण की सामग्री सितमबर सन १८८२ ई० (भाद्र शुक्ल पक्ष सं० १९३९ वि०) में ही तैयार कर दी थी (सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका – लेखक) उस समय में वह उदयपुर में विराजमान थे और बाद को अंत समय तक राजपुताना में ही रहे जिस का लेखा इस प्रकार है की पहली मार्च सन १८८३ ई० में गुरुवार को प्रातः काल ही उन्होंने उदयपुर से प्रस्थान किया। सांयकाल के लगभग निंबाहेड़ा में पहुंचे और रात्रि में चित्तोड़ में विराजे। इसके पश्चात राजपुताना के अन्य स्थानो में आगमन व प्रस्थान का विवरण यह था :

१ मार्च १८८३ आगमन – चित्तोड़ – प्रस्थान ७ मार्च १८८३
८ मार्च १८८३ आगमन – रूपाहेली – प्रस्थान ८ मार्च १८८३
८ मार्च १८८३ आगमन – शाहपुरा – प्रस्थान २८ मई १८८३
२८ मई १८८३ आगमन – अजमेर – प्रस्थान २९ मई १८८३
२९ मई १८८३ आगमन – पाली – प्रस्थान ३० मई १८८३
३० मई १८८३ आगमन – रोहट – प्रस्थान ३१ मई १८८३
३१ मई १८८३ आगमन – जोधपुर – प्रस्थान १६ अक्तूबर १८८३
१७ अक्तूबर १८८३ आगमन – रोहट – प्रस्थान १८ अक्तूबर १८८३
१८ अक्तूबर १८८३ आगमन – पाली – प्रस्थान २० अक्तूबर १८८३
२१ अक्तूबर १८८३ आगमन – आबू – प्रस्थान २६ अक्तूबर १८८३
२७ अक्तूबर १८८३ आगमन – अजमेर – मृत्यु ३० अक्तूबर १८८३

सत्यार्थ प्रकाश का छपना प्रयाग में हुआ था। प्रेस में छपाई विषयक जो सुगमताये इस समय (सन १९४४) में हैं वह उस समय कदापि न थी। प्रेस का प्रबंध भी बहुत संतोषजनक न था। छपाई का काम बहुत था। कुछ अन्य लोगो का कार्य भी छपाई का होता था। (‘ऋषि दयानंद के पात्र और विज्ञापन’ प्रथम भाग श्री पंडित भगवद्दत्त जी द्वारा सम्पादित – अक्तूबर सन १९७२ ई० प्रकाशित के पत्र संख्या ३, ८, १०, ४४, ४६, ४७, ४८, ५०, ५१ – लेखक)। हाँ ऋग्वेद और यजुर्वेद भाष्य के मासिक अंक भी प्रेस से ही निकलते थे।

उदयपुर से चित्तोड़ तक उस समय रेल न थी। शाहपुरा से सबसे अधिक नज़दीक वाला रेलवे स्टेशन १५ मील से कम दूर नहीं। पाली से जोधपुर तक रेलवे न थी। निदान डाक की सुगमताये अब जैसी उस समय न थी। सत्यार्थप्रकाश का सन १८८४ ई० का संस्करण रॉयल साइज़ कागज़ २० x २६ में १० इंच और ६।। इंच आकार में कुल ६०६ पृष्ठों का है। ५९२ पृष्ठों में मूल सामग्री है। १४ पृष्ठों में विषय सूचि व शुद्धि – अशुद्धि आदि के पन्ने हैं। दो नंबर ब्लेक फेस पैका (अर्थात पतले बारीक टाइप – लेखक) में अधिकांश ग्रन्थ है। बीच बीच में श्लोक आदि कुछ मोटे टाइप में हैं कुछ पृष्ठों को छोड़कर बाकी पृष्ठों में ३५ सतरे हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ २ हजार की संख्या में छपा था।

स्वामीजी को सन १८८३ ई० २९ सितमबर को जहर दिया गया था। इसी सन में ३० अक्तूबर को वह शरीर छोड़ गए थे। उनकी मृत्यु से समस्त आर्य जनता तथा प्रेस के प्रबंध पर विशेष रूप से अच्छा प्रभाव न पड़ा था। पहले बतलाया जा चूका है की सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका से स्पष्ट है की उसकी सामग्री सितमबर सन १८८२ ई० में ही तैयार कर दी गयी थी अतः उक्त प्रकार की आपत्तियों अथवा वर्तमान काल (सन १९४४ ई०) की सी सुगमताओ के न होने से सत्यार्थ प्रकाश ऐसा बड़ा ग्रन्थ स्वामीजी महाराज की देख रेख में उनके जीवन काल में पूरा पूरा न छप सका था। स्वामीजी महाराज के पत्र (‘ऋषि दयानंद के पत्र और विज्ञापन’ प्रथम भाग श्री पंडित भगवद्दत्त जी द्वारा सम्पादित पत्र नं० ५१ – लिखित आश्विन बदी १३ संवत १९४० वि० अर्थात २९ सितम्बर सन १८८३ – लेखक) से स्पष्ट है की उनके जीवनकाल में ईसाइयो से सम्बन्ध रखने वाला तेरहवा समुल्लास छप रहा था। सत्यार्थ प्रकाश में कुल १४ समुल्लास हैं और चौदवे के पश्चात कुछ पृष्ठ “स्वमानतामंतव्य प्रकाश: के हैं। सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका वाले समय अर्थात सितमबर सन १८८२ ई० से सितम्बर सन १८८३ ई० तक में कुल बारे समुल्लास छप सके थे। निदान स्वामीजी की बीमारी व मृत्यु के पश्चात अधिक से अधिक चार मास अर्थात सं १८८४ ई० के प्रारंभिक भाग में प्रकाशित हो गया होगा।

(सत्यार्थ प्रकाश विषयक भ्रम, लेखक महेश प्रसाद, मौलवी आलिम फाजिल)

उक्त बाते श्रीमान लेखक ने बहुत ही सुंदरता और स्पष्टता के साथ बताई हैं जिनसे ज्ञात होता है की, सत्यार्थ प्रकाश के पूर्वरार्ध और उत्तरार्ध के समुल्लास महर्षि दयानंद जी की ही रचना थी, इन्हे बाद में किसी अन्य व्यक्ति ने नहीं जोड़ा, हाँ क्योंकि राजा जी ने सत्यार्थ प्रकाश को छपवाने का जिम्मा लिया था और उस समय आज के जैसी सुगमता नहीं थी, क्योंकि जहाँ सत्यार्थ प्रकाश छप रहा था वो प्रयाग था, और वहां प्रबंध संतोषजनक भी न था, बहुत अधिक काम छपाई का प्रेस में होता था, और ऋग्वेद, यजुर्वेद भाष्य के अंक भी इसी प्रेस से छप रहे थे, इस कारण अपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुआ, लेकिन ऊपर ये भी बताया की स्वामी जी के पत्र से ज्ञात होता है की उनके जीवन काल में ही ईसाइयो से सम्बंधित १३वा समुल्लास छप रहा था और स्वामी जी की भूमिका से भी स्पष्ट है की इस ग्रन्थ के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के भाग मिलकर १४ समुल्लास और चौदवे समुल्लास पश्चात कुछ पृष्ठ स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश के हैं, अतः आक्षेपकर्ता का कथन की तेरहवा और चौदहवाँ समुल्लास, ऋषि दयानंद की कृति नहीं, यह खंडित हो जाता है। हाँ ऋषि की देख रेख में उनके जीवन काल में सत्यार्थ प्रकाश पूरा का पूरा न छप सका, ये बात ठीक विदित होती है।

अब हम आगे बढ़ते हैं, आक्षेपकर्ता का विचार है की ऋषि क़ुरान और मुहम्मद साहब पर आक्षेप करते हुए, क़ुरान को जाहिल, असभ्य, मुर्ख, अल्पज्ञ और जंगली का लिखा हुआ बताते हैं, ये गलत है।

यहाँ हम केवल वो बताएँगे जो ऋषि ने क़ुरान को देख, समझ कर अपने विचार व्यक्त करे, पाठकगण स्वयं अवलोकन करे :

९०-निश्चय परवरदिगार तुम्हारा अल्लाह है जिस ने पैदा किया आसमानों और पृथिवी को बीच छः दिन के। फिर करार पकड़ा ऊपर अर्श के, तदबीर करता है काम की।। -मं० ३। सि० ११। सू० १०। आ० ३।।

(समीक्षक) आसमान आकाश एक और बिना बना अनादि है। उस का बनाना लिखने से निश्चय हुआ कि वह कुरानकर्त्ता पदार्थविद्या को नहीं जानता था? क्या परमेश्वर के सामने छः दिन तक बनाना पड़ता है? तो जो ‘हो मेरे हुक्म से और हो गया’ जब कुरान में ऐसा लिखा है फिर छः दिन कभी नहीं लग सकते।। इससे छः दिन लगना झूठ है। जो वह व्यापक होता तो ऊपर अर्श के क्यों ठहरता? और जब काम की तदबीर करता है तो ठीक तुम्हारा खुदा मनुष्य के समान है क्योंकि जो सर्वज्ञ है वह बैठा-बैठा क्या तदबीर करेगा? इस से विदित होता है कि ईश्वर को न जानने वाले जंगली लोगों ने यह पुस्तक बनाया होगा।।९०।।

१०८-और वह जो लड़का, बस थे माँ बाप उस के ईमान वाले, बस डरे हम यह कि पकड़े उन को सरकशी में और कुफ्र में।। यहां तक कि पहुँचा जगह डूबने सूर्य्य की, पाया उसको डूबता था बीच चश्मे कीचड़ के ।। कहा उन ने ऐजुलकरनैन! निश्चय याजूज माजूज फिसाद करने वाले हैं बीच पृथिवी के।। -मं० ४। सि० १६। सू० १८। आ० ८०। ८६। ९४।।

(समीक्षक) भला! यह खुदा की कितनी बेसमझ है! शंका से डरा कि लड़के के माँ बाप कहीं मेरे मार्ग से बहका कर उलटे न कर दिये जावें। यह कभी ईश्वर की बात नहीं हो सकती। अब आगे की अविद्या की बात देखिये कि इस किताब का बनाने वाला सूर्य्य को एक झील में रात्रि को डूबा जानता है, फिर प्रातःकाल निकलता है। भला! सूर्य्य तो पृथिवी से बहुत बड़ा है। वह नदी वा झील वा समुद्र में कैसे डूब सकेगा? इस से यह विदित हुआ कि कुरान के बनाने वाले को भूगोल खगोल की विद्या नहीं थी। जो होती तो ऐसी विद्याविरुद्ध बात क्यों लिख देता । और इस पुस्तक को मानने वालों को भी विद्या नहीं है। जो होती तो ऐसी मिथ्या बातों से युक्त पुस्तक को क्यों मानते? अब देखिये खुदा का अन्याय! आप ही पृथिवी को बनाने वाला राजा न्यायाधीश है औार याजूज माजूज को पृथिवी में फसाद भी करने देता है। यह ईश्वरता की बात से विरुद्ध है। इस से ऐसी पुस्तक को जंगली लोग माना करते हैं; विद्वान् नहीं।।१०८।।

१२०-नहीं तू परन्तु आदमी मानिन्द हमारी बस ले आ कुछ निशानी जो है तू सच्चों से।। कहा यह ऊंटनी है वास्ते उस के पानी पीना है एक बार।। -मं० ५। सि० १९। सू० २६। आ० १५४। १५५।।

(समीक्षक) भला! इस बात को कोई मान सकता है कि पत्थर से ऊंटनी निकले! वे लोग जंगली थे कि जिन्होंने इस बात को मान लिया। और ऊंटनी की निशानी देनी केवल जंगली व्यवहार है; ईश्वरकृत नहीं। यदि यह किताब ईश्वरकृत होती तो ऐसी व्यर्थ बातें इस में न होतीं।।१२०।।

१२१-ऐ मूसा बात यह है कि निश्चय मैं अल्लाह हूँ गालिब।। और डाल दे असा अपना, बस जब कि देखा उस को हिलता था मानो कि वह सांप है—ऐ मूसा मत डर, निश्चय नहीं डरते समीप मेरे पैगम्बर।। अल्लाह नहीं कोई माबूद परन्तु वह मालिक अर्श बड़े का।। यह कि मत सरकशी करो ऊपर मेरे और चले आओ मेरे पास मुसलमान होकर।।

-मं० ५। सि० १९। सू० २७। आ० ९। १०। २६। ३१।।

(समीक्षक) और भी देखिये अपने मुख आप अल्लाह बड़ा जबरदस्त बनता है। अपने मुख से अपनी प्रशंसा करना श्रेष्ठ पुरुष का भी काम नहीं; खुदा का क्योंकर हो सकता है? तभी तो इन्द्रजाल का लटका दिखला जंगली मनुष्यों को वश कर आप जंगलस्थ खुदा बन बैठा। ऐसी बात ईश्वर के पुस्तक में कभी नहीं हो सकती। यदि वह बड़े अर्श अर्थात् सातवें आसमान का मालिक है तो वह एकदेशी होने से ईश्वर ही नहीं हो सकता है। यदि सरकशी करना बुरा है तो खुदा और मुहम्मद साहेब ने अपनी स्तुति से पुस्तक क्यों भर दिये? मुहम्मद साहेब ने अनेकों को मारे इस से सरकशी हुई वा नहीं? यह कुरान पुनरुक्त और पूर्वापर विरुद्ध बातों से भरा हुआ है।।१२१।।

ऐसी ऐसी अनेक बाते क़ुरान में भरी पड़ी हैं, जिनपर ऋषि ने आक्षेप किये, अब पाठक स्वयं जाने की क्या आकाश कोई वस्तु है जो फट जावे ? क्या तारे झड़ सकते हैं ? क्या पहाड़ चल सकते हैं ? क्या सूरज और चाँद टकरा सकते हैं ? क्या चाँद के टुकड़े हो सकते हैं ? आदि अनेको बातो पर ऋषि ने आक्षेप करते हुए इन बातो को असभ्य, जंगली और मुर्ख व्यक्ति का ज्ञान बताया था।

अब ऋषि ने आक्षेप में क्या गलत लिखा, जबकि ऋषि तो क़ुरान की लिखी कुछेक अच्छी और सच्ची बात को मुक्तकंठ से सत्य बात कहते हैं देखिये :

७३-मत फिरो पृथिवी पर झगड़ा करते।। -मं० २। सि० ८। सू० ७। आ० ७४।।

(समीक्षक) यह बात तो अच्छी है परन्तु इस से विपरीत दूसरे स्थानों में जिहाद करना काफिरों को मारना भी लिखा है। अब कहो यह पूर्वापर विरुद्ध नहीं है? इस से यह विदित होता है कि जब मुहम्मद साहेब निर्बल हुए होंगे तब उन्होंने यह उपाय रचा होगा और जब सबल हुए होंगे तब झगड़ा मचाया होगा। इसी से ये बातें परस्पर विरुद्ध होने से दोनों सत्य नहीं हैं।।७३।।

३९-प्रश्न करते हैं तुझ से रजस्वला को कह वो अपवित्र हैं। पृथक् रहो ऋतु समय में उन के समीप मत जाओ जब तक कि वे पवित्र न हों। जब नहा लेवें उन के पास उस स्थान से जाओ खुदा ने आज्ञा दी।। तुम्हारी बीवियां तुम्हारे लिये खेतियां हैं बस जाओ जिस तरह चाहो अपने खेत में।। तुम को अल्लाह लगब (बेकार, व्यर्थ) शपथ में नहीं पकड़ता।।

-मं० १। सि० २। सू० २। आ० २२२। २२३। २२४।।

(समीक्षक) जो यह रजस्वला का स्पर्श संग न करना लिखा है वह अच्छी बात है। परन्तु जो यह स्त्रियों को खेती के तुल्य लिखा और जैसा जिस तरह से चाहो जाओ यह मनुष्यों को विषयी करने का कारण है। जो खुदा बेकार शपथ पर नहीं पकड़ता तो सब झूठ बोलेंगे शपथ तोडें़गे। इस से खुदा झूठ का प्रवर्त्तक होगा।।३९।।

१२४-और आज्ञा दी हम ने मनुष्य को साथ मा बाप के भलाई करना और जो झगड़ा करें तुझ से दोनों यह कि शरीक लावे तू साथ मेरे उस वस्तु को, कि नहीं वास्ते तेरे साथ उस के ज्ञान, बस मत कहा मान उन दोनों का, तर्फ मेरी है।। और अवश्य भेजा हम ने नूह को तर्फ कौम उस के कि बस रहा बीच उन के हजार वर्ष परन्तु पचास वर्ष कम।। -मं० ५। सि० २०। सू० २९। आ० ८। १४।।

(समीक्षक) माता-पिता की सेवा करना अच्छा ही है जो खुदा के साथ शरीक करने के लिये कहे तो उन का कहना न मानना यह भी ठीक है परन्तु यदि माता पिता मिथ्याभाषणादि करने की आज्ञा देवें तो क्या मान लेना चाहिये? इसलिये यह बात आवमी अच्छी और आधी बुरी है। क्या नूह आदि पैगम्बरों ही को खुदा संसार में भेजता है तो अन्य जीवों को कौन भेजता है? यदि सब को वही भेजता है तो सभी पैगम्बर क्यों नहीं? और जो प्रथम मनुष्यों की हजार वर्ष की आयु होती थी तो अब क्यों नहीं होती? इसलिये यह बात ठीक नहीं।।१२४।।

महर्षि दयानंद तो सत्य के मानने वाले थे, इसीलिए सदैव असत्य को त्यागने हेतु लोगो को समझाते रहते थे, सत्यार्थ प्रकाश में भी ऋषि ने लिखा है :

यद्यपि में आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और बस्ता हु तथापि जैसे इस देश के मत-मतांतरों की झूठी बातो का पक्षपात न कर यथासत्य प्रकाश करता हु वैसे ही दूसरे देशस्थ व मतोन्नतिवालो के साथ भी बर्तता हु।

(सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका – दयानंद)

अब देखो, ऋषि ने जहाँ भी गलत और मिथ्या बात देखि उसका खंडन किया। अतः लेखक का ये आक्षेप की ऋषि ने बेवजह क़ुरान पर आरोप लगाये खंडित होता है।

इसी विषय पर अगले भाग में कुरान की मूल प्रति में छेड़ छाड़, व्याकरण की गड़बड़ी, क़ुरान का वैज्ञानिक स्तर और महर्षि दयानंद द्वारा वेद प्रतिपादित विज्ञानं पर विचार किया जाएगा।

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