“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 4″

“पहले अध्याय का जवाब “पार्ट 4″

पिछली पोस्ट में सतीश चंद गुप्ता जी द्वारा लिखित पुस्तक के पहले अध्याय में उठाये 15 पॉइंट में से 10 पॉइंट तक के जवाब दिए गए अब गत लेख से आगे बढ़ते हुए 11 से 15 पॉइंट तक के जवाब इस लेख के माध्यम से देने का प्रयास किया जाएगा।

11. ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता। (7-52) (14-15)

समीक्षा : प्रस्तुत पुस्तक के लेखक शायद अपनी लेखनी में वो वजन नहीं बना रहे की महर्षि के द्वारा क़ुरान पर उठाई गयी शंकाओ और समीक्षाओं पर वाजिब टिप्पणी कर पाये या फिर लेखक को क़ुरान और बाइबिल आदि अन्य मत मतांतरों की शिक्षाओ का ज्ञानाभाव है क्योंकि क़ुरान में ही अल्लाह मियां अनेको जगह अपने भक्तो के पाप क्षमा नहीं करते।

बाबा आदम और हव्वा ये वो नाम है जो अल्लाह ने अपने हाथो से बनाया और इनको वो ज्ञान दिया जो सर्वोत्कृष्ट था, मगर शायद उतना ज्ञान भी नहीं दिया जितना शैतान को था तो बाबा आदम को सर्वोत्कृष्ट ज्ञान दिया इसपर शंका होती है, क्योंकि जो अपने नंगे होने को नहीं जान पाये उनके ज्ञान (इल्म) में अल्लाह ने कमी रखी और उन्हें ज्ञान प्राप्त करने वाले फल से भी दूर रखा लेकिन शैतान ने क़ुरान में बाबा आदम और हव्वा को सच बोल दिया और अंततः आदम हव्वा को अदन का बाग़ (जन्नत) से निकलवा कर पृथ्वी पर लड़ाई झगड़ा और खून खराबा खातिर एक दूसरे का शत्रु बनवाकर भिजवा दिया। लेकिन सोचने वाली बात ये है की बाबा आदम अपनी इस गलती पर अल्लाह से माफ़ी मांगते रहे, मगर अल्लाह मियां ने माफ़ नहीं किया देखिये :

उन दोनों ने कहा की हे हमारे रब ! हम ने अपने आप पर अत्याचार किया। यदि तू हमें क्षमा नहीं करेगा एवं हम पर दया नहीं करेगा तो हम अवश्य घाटा पाने वालो में से हो जायेंगे। (२४)

तब उस (अल्लाह) ने कहा की तुम सारे के सारे यहाँ से चले जाओ। तुम में से कुछ लोग दूसरे कुछ लोगो के शत्रु होंगे और तुम्हारे लिए इसी धरती में ठिकाना तथा कुछ समय तक (भाग्य) में लाभ उठाना होगा। (२५)

फिर कहा की इसी पृथ्वी में तुम जीवित रहोगे और इसी में मरोगे और इसी में से निकले जाओगे। (२६)

(क़ुरान ७:२४-२६)

अब यहाँ लेखक को ज्ञात होना चाहिए की जो ईश्वर के क्षमा करने पर महर्षि के आक्षेप पर समीक्षा की वो क़ुरान के हिसाब से भी ठीक विदित नहीं होती क्योंकि ये कोई ऐसा पाप नहीं था जिसे अल्लाह माफ़ नहीं कर सकता था, न ही आदम ने अल्लाह से हटकर कोई पूज्य बनाया, ना ही कुफ्र किया, न पत्थर पूजा, बल्कि उसने तो ज्ञान बढ़ाने वाले वृक्ष का फल खाया, जिससे अल्लाह ने रोका था, अब ये बात तो सिद्ध है की ईश्वर पाप का फल देता है, लेकिन यहाँ तो इस आयत में पाप की जगह पुण्य कार्य यानी ज्ञान वृद्धि को ही पाप मान कर अल्लाह ने आदम हव्वा को गुनहगार बना दिया, जबकि महर्षि ने इसी बात पर सत्यार्थ प्रकाश में जो समीक्षा की वो समझने वाली है, देखिये :

“(समीक्षक) अब देखिये खुदा की अल्पज्ञता! अभी तो स्वर्ग में रहने का आशीर्वाद दिया और पुनः थोड़ी देर में कहा कि निकलो। जो भविष्यत् बातों को जानता होता तो वर ही क्यों देता? और बहकाने वाले शैतान को दण्ड देने से असमर्थ भी दीख पड़ता है। और वह वृक्ष किस के लिये उत्पन्न किया था? क्या अपने लिये वा दूसरे के लिये ? जो अपने लिये किया तो उस को क्या जरूरत थी? और जो दूसरे के लिये तो क्यों रोका? इसलिये ऐसी बातें न खुदा की और न उसके बनाये पुस्तक में हो सकती हैं। आदम साहेब खुदा से कितनी बातें सीख आये? (१२)”
(सत्यार्थ प्रकाश चतुर्दश समुल्लास)

यदि अल्लाह अपने भक्तो के पाप क्षमा करता होता तो बाबा आदम और हव्वा कभी धरती पर आते ही नहीं, इसलिए सिद्ध है की अल्लाह न तो आदम के न ही जिन्नो के पाप क्षमा करता है, लेकिन यहाँ तो अल्लाह मिया पर ही आक्षेप खड़ा हो जाता है की बहकाने वाले को तो मोहलत दी और जिसकी कोई गलती नहीं उसे दंड दिया, अब लेखक इस पर समीक्षा कब करेंगे ?

12. तथ्य – सूर्य केवल अपनी परिधि (Axis) पर घूमता है किसी लोक के चारों ओर (Orbit) नहीं घूमता। (8-71)

समीक्षा : अब देखिये लेखक की कितनी बड़ी अज्ञानता की महर्षि की बात को बिना सोचे समझे ही क्या से क्या लिख डाला, मुझे तो लेखक पूर्वाग्रह से अत्यधिक पीड़ित लगता है क्योंकि जो बिना पूर्वाग्रह के सत्यार्थ प्रकाश पढ़ लिया होता तो इतनी बड़ी अवैज्ञानिक बात नहीं करता, देखिये महर्षि ने क्या लिखा और लेखक ने अल्पज्ञता से क्या समझा :

आ कृष्णेन रजसा वत्तर्मानो निवेशायन्नमतृं मर्त्यं च ।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ।।
यजुः० अ० ३३। मं० ४३।।

जो सविता अर्थात् सूर्य्य वर्षादि का कर्त्ता, प्रकाशस्वरूप, तेजोमय, रमणीयस्वरूप के साथ वर्त्तमान; सब प्राणी अप्राणियों में अमृतरूप वृष्टि वा किरण द्वारा अमृत का प्रवेश करा और सब मूर्तिमान् द्रव्यों को दिखलाता हुआ सब लोकों के साथ आकर्षण गुण से सह वर्त्तमान; अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता। वैसे ही एक-एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य्य प्रकाशक और दूसरे सब लोकलोकान्तर प्रकाश्य हैं। जैसे-

दिवि सोमो अधि श्रितः।। -अथर्व० कां० १४। अनु० १। मं० १।।

जैसे यह चन्द्रलोक सूर्य्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य्य के प्रकाश ही से प्रकाशित होते हैं। परन्तु रात और दिन सर्वदा वर्त्तमान रहते हैं क्योंकि पृथिव्यादि लोक घूम कर जितना भाग सूर्य के सामने आता है उतने में दिन और जितना पृष्ठ में अर्थात् आड़ में होता जाता है उतने में रात। अर्थात् उदय, अस्त, सन्ध्या, मध्याह्न, मध्यरात्रि आदि जितने कालावयव हैं वे देशदेशान्तरों में सदा वर्त्तमान रहते हैं अर्थात् जब आर्य्यावर्त्त में सूर्योदय होता है उस समय पाताल अर्थात् ‘अमेरिका’ में अस्त होता है और जब आर्य्यावर्त्त में अस्त होता है तब पाताल देश में उदय होता है। जब आर्य्यावर्त्त में मध्य दिन वा मध्य रात है उसी समय पाताल देश में मध्य रात और मध्य दिन रहता है। जो लोग कहते हैं कि सूर्य घूमता और पृथिवी नहीं घूमती वे सब अज्ञ हैं। क्योंकि जो ऐसा होता तो कई सहस्र वर्ष के दिन और रात होते। अर्थात् सूर्य का नाम (ब्रध्नः) है। यह पृथिवी से लाखों गुणा बड़ा और क्रोड़ों कोश दूर है। जैसे राई के सामने पहाड़ घूमे तो बहुत देर लगती और राई के घूमने में बहुत समय नहीं लगता वैसे ही पृथिवी के घूमने से यथायोग्य दिन रात होते हैं; सूर्य के घूमने से नहीं। जो सूर्य को स्थिर कहते हैं वे भी ज्योतिर्विद्यावित् नहीं। क्योंकि यदि सूर्य न घूमता होता तो एक राशि स्थान से दूसरी राशि अर्थात् स्थान को प्राप्त न होता। और गुरु पदार्थ विना घूमे आकाश में नियत स्थान पर कभी नहीं रह सकता।
(सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास)

महर्षि दयानंद ने वेदो और आर्ष ग्रंथो के गहन शोध पश्चात ही सत्यार्थ प्रकाश लिखा, जिसमे साफ़ साफ़ लिखा है की सूर्य अपनी परिधि में तो घूमता है साथ ही आकाशगंगा का चक्कर भी लगाता है क्योंकि यदि सूर्य न घूमता तो एक राशि से दूसरी राशि को प्राप्त न होता। ये बात पूर्णतः वैज्ञानिक है, इसका प्रबल प्रमाण है की हम आर्य लोग मकर संक्रांति नामक पर्व मानते हैं क्योंकि इसी दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। मकर संक्रान्ति के दिन से ही सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। इसलिये इस पर्व को कहीं-कहीं उत्तरायणी भी कहते हैं।

सूर्य किसी लोक का चक्कर नहीं लगाता क्योंकि सभी लोक सूर्य का चक्कर लगाते हैं, शायद आपको गांगेयवर्ष समझ नहीं आ रहा इसलिए कुछ दिक्कत हो रही है, आइये आपको गंगेयवर्ष समझाने का प्रयास करते हैं, देखिये हमारा सौरमंडल सूर्य और उसकी परिक्रमा करते ग्रह, क्षुद्रग्रह और धूमकेतुओं से बना है। इसके केन्द्र में सूर्य है और सबसे बाहरी सीमा पर वरुण (ग्रह) है। वरुण के परे यम (प्लुटो) जैसे बौने ग्रहो के अतिरिक्त धूमकेतु भी आते है।

जब केंद्र में सूर्य है, और वो अपनी धुरी पर घुमते हुए अन्य लोको को आकर्षण से बांधते हुए अपनी कक्षा में घूम कर अन्य लोको के साथ सौरमंडल के केंद्र में रहते हुए एक चक्कर लगता है उसे गांगेय वर्ष कहते हैं, क्योंकि सूर्य सौरमंडल के केंद्र में है इसलिए वो किसी ग्रह का चक्कर नहीं लगा सकता यदि सूर्य सौरमंडल के केंद्र में न होता और कोई अन्य ग्रह केंद्र में होता तब आप कह सकते थे की सूर्य उस ग्रह का चक्कर लगता है, हालाँकि ये हो ही नहीं सकता, क्योंकि सूर्य स्वयं सौरमंडल के केंद्र में है जिससे सभी ग्रहो को आकर्षण से बंधे रखता है और सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं साथ ही सूर्य उन सभी ग्रहो को लेकर गांगेय वर्षी कर चक्र अपनी कक्षा से पूरा करता है। ज्यादा लिखने से लेख बड़ा हो जायेगा, अधिक जानकारी के लिए गांगेय वर्ष पढ़े, साथ ही सूर्य सिद्धांत।

शायद लेखक को हमारे आर्य पर्व पद्धति और आर्य ज्योतिष विज्ञानं का सिद्धांत ज्ञात नहीं मेरी उनसे विनती है की वो एक बार सूर्य सिद्धांत पुस्तक पढ़ कर स्वाध्याय करे व्यर्थ के आक्षेप और टीका टिप्पण्यिो में समय व्यर्थ न करे। यदि हो सके तो क़ुरान से प्रमाणित कर दिखाए की सूर्य अपनी धुरी पर घूमता है ऐसी कोई आयत क़ुरान में निर्देशित की हो ?

13. सूर्य, चन्द्र, तारे आदि पर भी मनुष्य सृष्टि है। (8-73)

समीक्षा : इस पुस्तक में जो लेखक हैं वो शायद अपनी इसी पुस्तक में प्रस्तुत “निवेदन” को खुद नहीं पढ़ पाये हैं, या फिर मुमकिन है की किसी अन्य व्यक्ति से लिखवा दिया हो, क्योंकि इनके इस “निवेदन” में ही जो इन्होने लिखा उसे हम यहाँ दोहराना चाहते हैं देखिये :

यह ब्रह्माण्ड जिसमे हम रहते हैं, अत्यंत विशाल, विस्तृत और अद्भुत है। इसकी विशालता का अंदाजा ……………… इस ब्रह्माण्ड में न जाने कितने आकाशीय पिंड हमारे सूर्य से लाखो गुना बड़े हैं और न जाने कितने सौर मंडल हैं। करोडो सौर मंडलों से बनने वाली एक आकाश गंगा है। जिसमे अरबो खरबो तारे हैं। इस ब्रह्माण्ड में न जाने कितनी करोड़ आकाश गंगाये हैं। …………… हर आकाशीय पिंड गतिमान है। आकाशीय पिंडो की गति में एक नियमबद्धता है, दिन रात के प्रत्यावर्तन में नियमबद्धता है। वनस्पति जगत में नियमबद्धता है। प्राणी जगत में नियमबद्धता है।

कितना विचित्र है यह ब्रह्माण्ड। देखकर आश्चर्य होता है। प्रश्न यह की जहाँ नियम हो क्या वहां नियामक नहीं होना चाहिए ? …. ब्रह्माण्ड की नियमबद्धता इस बात का प्रमाण है की कोई चेतन शक्ति इसका सञ्चालन कर रही है। यहाँ की नियमबद्धता इस बात का भी प्रमाण है की वह परम शक्ति एक है।

………..शेष

ये यहाँ आप सभी पाठको दिखाना इसलिए भी आवश्यक था की इस पुस्तक के लेखक या तो बुद्धिमान हैं या फिर केवल महर्षि के सत्य सिद्धांतो से अनभिज्ञ और पूर्वग्रह से ग्रसित हैं, क्योंकि खुद मान रहे हैं की इतना बड़ा ब्रह्माण्ड है, उसमे करोडो आकाशगंगाये, अनेक पिंड, असंख्य ग्रह आदि, साथ ही नियमबद्धता और एक ही ईश्वर जो चेतन है, तो मेरे लेखक महोदय, महर्षि दयानंद ने भी तो यही सत्यार्थ प्रकाश में बताया है, जब नियम बद्धता है तभी तो इस पृथ्वी जैसे ग्रह पर हम जीवन ले रहे हैं, ऐसे ही अनेको ग्रहो आदि पर जीवन क्यों नहीं होगा ? क्या वो अनेको आकाशगंगा और ग्रह सिर्फ ब्रह्माण्ड को भरने और सजाने का शोपीस मात्र हैं ? क्या बुद्धिमानी की बात है लेखक की खुद ही अपनी निवेदन में सत्य भी लिखता है और फिर महर्षि की बातो पर आक्षेप भी करता है, क्या इसे लेखक का मानसिक दिवालियापन घोषित न किया जाए ?

आइये एक नजर महर्षि दयानंद के उस विचार पर जो सत्यार्थ प्रकाश में लिखा गया :

(प्रश्न) सूर्य चन्द्र और तारे क्या वस्तु हैं और उनमें मनुष्यादि सृष्टि है वा नहीं?

(उत्तर) ये सब भूगोल लोक और इनमें मनुष्यादि प्रजा भी रहती हैं क्योंकि-

एतेषु हीदँ्सर्वं वसुहितमेते हीदँ्सर्वं वासयन्ते तद्यदिदँ्सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति।। -शत० का० १४।।

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य इन का वसु नाम इसलिये है कि इन्हीं में सब पदार्थ और प्रजा वसती हैं और ये ही सब को वसाते हैं। जिस लिये वास के निवास करने के घर हैं इसलिये इन का नाम वसु है। जब पृथिवी के समान सूर्य चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात् उन में इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुष्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्य होंगे? परमेश्वर का कोई भी काम निष्प्रयोजन नहीं होता तो क्या इतने असंख्य लोकों में मनुष्यादि सृष्टि न हो तो सफल कभी हो सकता है? इसलिये सर्वत्र मनुष्यादि सृष्टि है।

(प्रश्न) जैसे इस देश में मनुष्यादि सृष्टि की आकृति अवयव हैं वैसे ही अन्य लोकों में होगी वा विपरीत?

(उत्तर) कुछ-कुछ आकृति में भेद होने का सम्भव है। जैसे इस देश में चीने, हबशी और आर्य्यावर्त्त, यूरोप में अवयव और रंग रूप आकृति का भी थोड़ा-थोड़ा भेद होता है इसी प्रकार लोकलोकान्तरों में भी भेद होते हैं। परन्तु जिस जाति की जैसी सृष्टि इस देश में है वैसी जाति ही की सृष्टि अन्य लोकों में भी है। जिस-जिस शरीर के प्रदेश में नेत्रदि अंग हैं उसी-उसी प्रदेश में लोकान्तर में भी उसी जाति के अवयव भी वैसे ही होते हैं। क्योंकि-

सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ।

दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ।। – ऋ० मं० १०। सू० १९०।।

धाता परमात्मा (ने) जिस प्रकार के सूर्य, चन्द्र, द्यौ, भूमि, अन्तरिक्ष और तत्रस्थ सुख विशेष पदार्थ पूर्वकल्प में रचे थे वैसे ही इस कल्प अर्थात् इस सृष्टि में रचे हैं तथा सब लोक लोकान्तरों में भी बनाये गये हैं। भेद किञ्चित्मात्र नहीं होता।

(प्रश्न) जिन वेदों का इस लोक में प्रकाश है उन्हीं का उन लोकों में भी प्रकाश है वा नहीं?

(उत्तर) उन्हीं का है। जैसे एक राजा की राज्यव्यवस्था नीति सब देशों में समान होती है उसी प्रकार परमात्मा राजराजेश्वर की वेदोक्त नीति अपने सृष्टिरूप सब राज्य में एक सी है।

(सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास)

अब बताओ लेखक महोदय क्या अपना निवेदन ही पुस्तक से हटवा दोगे या महर्षि दयानंद की बात को अपना लोगे, आओ आपको विज्ञानं से भी प्रमाणित करता हु देखो :

“Scientists have been saying for years that nothing could possiblily live on this star’s surface, but we’ve scanned Andross’s ships going to and from the star. Only he would be foolhardy as to try to find military benefit in exploring a red dwarf like Solar. It’s another situation we need to have you to check out for us Fox. Nothing in the Cornerian armoury can withstand the extreme temperature near the surface of the star, but your Arwings should be able to make it.”
—General Pepper’s Flight Log, pg 70

ये खोज पढ़ी सूर्य पर मिलिट्री बेनिफिट और जहाजो का बेडा आदि बनाने की योजना है, पता नहीं लेखक कौन सी दुनिया में जी रहे, खैर अभी नासा की खोज पढ़िए :

WASHINGTON—In an announcement that could forever change the way scientists study the hydrogen-based star, NASA researchers published a comprehensive study today theorizing that the sun may be capable of supporting fire-based lifeforms. “After extensive research, we have reason to believe that the sun may be habitable for fire-based life, including primitive single-flame microbes and more complex ember-like organisms capable of thriving under all manner of burning conditions,” lead investigator Dr. Steven T. Aukerman wrote, noting that the sun’s helium-rich surface of highly charged particles provides the perfect food source for fire-based lifeforms. “With a surface temperature of 10,000 degrees Fahrenheit and frequent eruptions of ionized gases flowing along strong magnetic fields, the sun is the first star we’ve seen with the right conditions to support fire organisms, and we believe there is evidence to support the theory that fire-bacteria, fire-insects, and even tiny fire-fish were once perhaps populous on the sun’s surface.”

ज्यादा जानकारी के लिए लिंक :

http://www.theonion.com/article/scientists-theorize-sun-could-support-fire-based-l-34559

इससे भी ज्यादा जानकारी के लिए बता दू, जितनी भी रिसर्च होती हैं बायोलॉजी में उसमे ये सिद्धांत है की “All life’s energy was solar”.

ये सिद्धांत है अटल सिद्धांत, इसलिए वेद ज्ञान ही सत्य और परम प्रमाण है, और भी अनेको प्रमाण हैं विज्ञानं से ही पर लेख बढ़ता जाएगा इसलिए विवशता है पर पता नहीं इस पुस्तक के लेखक को वेद ज्ञान और महर्षि दयानंद की विद्वत्ता का बोध कब होगा ?

14. सिर के बाल रखने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। (10-02)

समीक्षा : लेखक के आक्षेप ही ऐसे हैं की जिनपर केवल हंसी आती है क्योंकि जो पूरा प्रकरण पढ़ लिया होता तो आपको शंका न होती, केवल एक हिस्सा उठा कर सोचो की महर्षि पर आक्षेप सिद्ध हो जायेगा सो संभव नहीं, पहले आपको दिखाते हैं महर्षि ने क्या लिखा है :

ब्राह्मण के सोलहवें, क्षत्रिय के बाईसवें और वैश्य के चौबीसवें वर्ष में केशान्त कर्म और मुण्डन हो जाना चाहिये अर्थात् इस विधि के पश्चात् केवल शिखा को रख के अन्य डाढ़ी मूँछ और शिर के बाल सदा मुंडवाते रहना चाहिये अर्थात् पुनः कभी न रखना और जो शीतप्रधान देश हो तो कामचार है; चाहै जितने केश रक्खे और जो अति उष्ण देश हो तो सब शिखा सहित छेदन करा देना चाहिये क्योंकि शिर में बाल रहने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। डाढ़ी मूँछ रखने से भोजन पान अच्छे प्रकार नहीं होता और उच्छिष्ट भी बालों में रह जाता है।।१३।।
(दशम सम्मुलास)

अब देखिये लेखक की पूर्वाग्रह से ग्रसित मानसिकता की जो ऋषि ने समझाया उसे तो समझे नहीं उलटे अपनी पुस्तक में तथाकथित समीक्षा करने चल पड़े, समझिए ऋषि की बात को,

यदि शीत प्रदेश, यानी जो ठंडा इलाका में रहने वाले लोग हो, तो वो सर के बाल ना कटाये, चाहे बढे बाल ही क्यों न रखे क्योंकि बाल जो होते हैं वो तंतु (फाइबर) पदार्थ से बने होते हैं क्योंकि ये गर्मी उत्पन्न करते हैं इसलिए शीत प्रदेशो में उत्पन्न हुए पशुओ के बाल सामान्य मौसम के देशो में उत्पन्न हुए पशुओ से अधिक पाये जाते हैं, बाल में सबसे ज्यादा कार्बन होता है, जो थर्मल इंसुलेशन उत्पन्न करके गर्मी को सोख्ता है, जिससे सर में पसीना जल्दी नहीं सूखता और उससे अनेक प्रकार के फंगस और बेक्टेरिअ उत्पन्न होते हैं, अभी हाल में की गयी शोध के अनुसार Cutaneous Allodynia ये बीमारी जो माइग्रेन से सम्बंधित है इसी कारण होती है, और जैसे की आप जानते ही हैं की माइग्रेन जो है वो बुद्धि को कमजोर करता है, इससे ऋषि की बात सत्य सिद्ध होती है।

हम लेखक को केवल ऋषि के सत्य सिद्धांत पर खोज करने हेतु आग्रह करेंगे ताकि व्यर्थ के आक्षेप से लेखक अपना और दुसरो का समय बर्बाद न करते जाए।

15. स्वामी दयानंद ने लिखा है कि वेदों का अवतरण ऋषियों की मातृभाषा में न होकर संस्कृत भाषा में हुआ। संस्कृत भाषा उस समय किसी देश अथवा क़ौम की भाषा नहीं थी। कारण यह लिखा है कि अगर ईश्वर किसी देश अथवा क़ौम की भाषा में वेदों का अवतरण करता तो ईश्वर पक्षपाती होता, क्योंकि जिस देश की भाषा में वेदों का अवतरण होता उसको पढ़ने और पढ़ाने में सुगमता और अन्यों को कठिनता होती। (7-89) (7-92)

समीक्षा : यदि इस पुस्तक के लेखक ने कभी भी संस्कृत विद्या को समझने का गंभीर प्रयास किया होता तो शायद महर्षि की इस बात का भी जवाब खुद ही मिल जाता, मगर खेद की लेखक को केवल और केवल आक्षेप करने की ही फुर्सत मिली, स्वाध्याय की नहीं, क्योंकि लेखक को ज्ञात होना चाहिए की वेदो में जो संस्कृत पायी जाती है उसे वैदिक संस्कृत कहते हैं, जो कभी किसी काल में किसी भी देश व समाज की भाषा नहीं रही, क्योंकि इस वैदिक संस्कृत से ही लौकिक संस्कृत का ज्ञान ऋषि मुनि विकसित कर पाये अतः लौकिक संस्कृत ही भारत की भाषा थी लेकिन वैदिक संस्कृत तो सभी भाषाओ की जननी है, ऐसा विचार और मत तो अनेको पश्चिम विज्ञानिको का भी है। शायद लेखक को ज्ञात नहीं, आइये हम ही समझने का प्रयास करते हैं :

“अब हम समझते हैं भाषा का विस्तार किस प्रकार हुआ –

देखिये वेद में वैदिकी वाणी को नित्य कहा है –

तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूप नित्यया। (ऋग्वेद 8.75.6)

नित्यया वाचा – अर्थात नित्य वेदरूप वाणी –

यानी की वैदिक संस्कृत यह सब वाणियों (भाषाओ) की अग्र और प्रथम है –

बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्नं (ऋग्वेद 10.71.1)

प्रभु से दी गयी वेदवाणी ही इस सृष्टि के प्रारंभिक शब्द थे। ईश्वर की प्रेरणा से यह वाणी सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों पर प्रकट होती है।

यज्ञेन वाचः पदवीयमायणतामानवविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्। (ऋग्वेद 10.71.3)”

“प्रभु अग्नि आदि को वेदज्ञान देते हैं इससे अन्य यज्ञीय वृत्तिवाले ऋषियों को यह प्राप्त होती है –

इसी मन्त्र में आगे लिखा है –

इस ही प्रथम, निर्दोष और अग्र वाणी को लेकर लोग बोलने की भाषा का विस्तार करते हैं।

तामाभृत्या व्यदधुः पुरूत्रा तां सप्त रेभा अभी सं नवंते।। (ऋग्वेद 10.71.3)

इस वाणी को ऋषि मानव समाज में प्रचारित करते हैं। यह वेदवाणी सात छन्दो से युक्त है अर्थात २ कान – २ नाक – २ आँख और एक मुख ये सात स्तोता बनकर इसे प्राप्त करते हैं – उपरोक्त प्रमाणों और तथ्यों से सिद्ध होता है की मनुष्य की एक ही भाषा थी – और मनुष्यो ने इसी वेद वाणी से अर्थात प्रथम व पूर्ण भाषा संस्कृत से – अपूर्ण भाषाए – अर्थात जितनी भाषाए आज प्रचलित हैं उनका निर्माण किया – लेकिन वैदिक संस्कृत में आज भी कोई फेर बदल नहीं हो सका – क्योंकि वैदिक संस्कृत पूर्ण भाषा है –”

अब यहाँ सोचने वाली बात है की अलक़ुरआन एक संयुक्त शब्द है जो अरबी के दो शब्दों से बना है, एक “अल” जिसका अर्थ है “विशेष” दूसरा “कुरान” जो “किरतैअन” धातु से निकला है जिसका अर्थ “पढ़ना” है अतः अलक़ुरआन का अर्थ हुआ वह जो लेख विशेष प्रकार से पढ़ा जाये। इस से सिद्ध हुआ की अलक़ुरआन भी लिखी हुई पुस्तक का नाम है न की ईश्वर के ज्ञान का। तो हमारे लेखक बंधू इस तथ्य पर कब शंका प्रकट कर रहे हैं की क़ुरआन केवल पढ़ने के लिए है, ज्ञान के लिए नहीं ?

जबकि “वेद” “विद्” ज्ञाने धातु से निकला है। वेद का अर्थ है “ज्ञान”। यह किसी लेख वा पुस्तक का नाम नहीं प्रत्युत उस ज्ञान का नाम है जो परमात्मा ने मनुष्यो के कल्याणार्थ प्रकाशित किया है।

अतः इतने से सिद्ध है की महर्षि दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित वेदो और आर्ष साहित्यो का ज्ञान विज्ञानं सत्य पर आधारित है, हम लेखक के पहले अध्याय में मौजूद कुछ और आक्षेपों के भी विज्ञानसम्मत जवाब देंगे।

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते।

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