‘वैदिक धर्म की वेदी पर प्रथम बलिदान: महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म् 

आज महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का बलिदान दिवस है। आज ही के दिन 30 अक्तूबर, सन् 1883 को अजमेर में सूर्यास्त के समय महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन की अन्तिम सांस ली थी। उनके बलिदान का कारण उनका वैदिक धर्म का प्रचार करना था। स्वार्थी, पाखण्डी व अज्ञानी लोगों को उनका प्रचार रास नही आ रहा था। उनके विरोधियों के पास वैदिक धर्म के सच्चे सिद्धान्तों का कोई उत्तर नहीं था। कोई ऐसा मत नहीं था जिसकी न्यूनताओं का उन्होंने प्रकाश न किया हो। इतना ही नहीं, उन्होंने सभी मतों के अनुयायियों की वैदिक धर्म संबंधी सभी बातों, प्रश्नों, शंकाओं व शिकायतों का युक्ति, तर्क व प्रमाणों से समाधान किया था और सबको निरुत्तर किया था। उनकी सत्यता, ज्ञान की पराकाष्ठा, वेदों के प्रति प्रेम  व स्पष्टवादित ही उनके बलिदान का कारण बनी थी। देश ही नहीं, संसार को अज्ञान व अन्धविश्वास से मुक्त कराने के लिए उन्होंने अपना जीवन दांव पर लगाया था और अपने प्राणों का किंचित मोह नहीं किया था। उनके वेद प्रचार के कारण संसार से अन्धविश्वासों व पाखण्डों में बहुत कमी आई है। यदि वह कुछ वर्ष और जीवित रहते तो न केवल हमारा देश धर्म, शिक्षा, विज्ञान, अध्यात्म, सामाजिक समरसता में अधिक उन्नति करता अपितु देश से अज्ञान व अन्धविश्वास भी कहीं अधिक मात्रा में दूर व समाप्त होते।

 

महर्षि दयानन्द ने किसी एक क्षेत्र में ही कार्य नहीं किया अपितु उन्होंने समग्र क्रान्ति की थी। धार्मिक अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, पाखण्ड आदि तो उन्होंने दूर किये ही, इसके साथ उन्होंने ज्ञान का अजस्र स्रोत ईश्वरीय ज्ञान वेद का भी पुनरुद्धार किया। यह वेद ज्ञान मनुष्य का सर्वस्व व सर्वाधिक मूल्यवान एवं उपयोगी वस्तु है जिससे इस जीवन की उन्नति के साथ मृत्यु के पश्चात मोक्ष की उपलब्धि भी हो सकती वा होती है। संसार उनके समय में ईश्वर के सत्य स्वरूप से अनभिज्ञ था। जीवात्मा और प्रकृति का स्वरूप भी प्रायः लोगों को ज्ञात नहीं था। हमारे अपने पण्डे-पुजारी वेद ज्ञान से शून्य थे और धर्म सम्बन्धी मनमानी करते थे। दलितों पर घोर अन्याय किया जाता था। मातृ शक्ति व दलित भाई बहिनों सहित क्षत्रिय व वैश्यों को भी वेदाध्ययन से वंचित कर दिया गया था। कर्मणा ब्राह्मणों का देश व समाज में सर्वत्र अभाव था और जन्मना ब्राह्मण वेदाध्ययन करते नहीं थे। किसी को न वेद कण्ठस्थ थे और न ही वेद के मन्त्रों के सत्य अर्थो का ही ज्ञान था। चेतन ईश्वर को भुलाकर उसका स्थान पाषाण की मनुष्य निर्मित मूर्तियों ने ले लिया था। इसका जो परिणाम होना था वह सत्य इतिहास पढ़ने पर विदित होता है। उनके समय में शारीरिक, बौद्धिक, चारित्रिक, मानसिक, अध्यात्मिक व सामाजिक पतन की पराकाष्ठा थी। यहां तक हुआ कि एक माता का पुत्र मर गया। उस माता के पास कफन तक के लिए भी धन व वस्त्र नहीं था, विधि विधान के अनुसार अन्त्येष्टि तो बहुत दूर की बात थी। अपनी आधी धोती फाड़कर उसमें उस माता ने अपने पुत्र के शव को लपेट कर गंगा नदी में बहा दिया और ऐसा करके अपनी धोती का वह भाग वापित हटा लिया जिससे उसे सीकर वह अपने शरीर को ढक सके। देश में आये इस दुर्दिन का कारण वेदों के ईश्वरीय ज्ञान का हमारे ब्राह्मणों द्वारा अनादर करना था। यदि वह वेदाध्ययन से जुड़े रहते, जैसे महाभारत काल तक जुड़े रहे थे तो यह दुर्दिन कदापि न आता। केवल मूर्तिपूजा का अज्ञान व अन्धविश्वास ही नहीं था अपितु जन्मना जातिवाद ने भी मनुष्यों को निर्बल व असंगठित किया जिसका लाभ विदेशियों और विधर्मियों ने हमारा शोषण, अपमान व धर्मान्तरण कर किया। इसके साथ ही मृतक श्राद्ध व फलित ज्योतिष जैसी कुरीतियों से भी देश को भारी हानि हुई है। अज्ञान व अन्धविश्वास से सदा सर्वदा हानि ही होती है, लाभ किसी को कभी नहीं होता। महर्षि दयानन्द ने इन सभी अन्धविश्वासों के विरुद्ध आवाज उठाई और इनसे देश को मुक्त कराने का प्रयास किया जिसका परिणाम 30 अक्तूबर, 1883 ई. को एक षडयन्तत्र के अन्र्तगत विष देकर उनकी मृत्यु का होना था।

 

महर्षि दयानन्द ने हमें अन्धविश्वास व अज्ञान के निवारण तथा समाज व देश को सशक्त करने के लिए हमें हथियार के रूप में सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, वेदों का भाष्य, संस्कार विधि, गोकरूणाविधि, व्यवहारभानु, पाणिनी-महाभाष्य-निरुक्त की वेदार्थ पद्धति, मनुस्मृति के सच्चे स्वरूप का परिचय और इतिहास विषयक बहुमूल्य जानकारियों से मालामाल किया। उन्होंने गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली को भी पुनर्जीवित किया जिसके अनुसार आर्यसमाज ने सैकड़ों गुरुकुल व दयानन्द ऐंग्लोवैदिक स्कूल खोले जो आज भी देश को वेदों व वैदिक साहित्य सहित आधुनिक शिक्षा देकर नाना विषयों के विद्वान प्रदान कर रहे हैं। स्वामी रामदेव जी ने योग और स्वदेशी वस्तुओं के निर्माण व प्रचार के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान दिया है। आगे भी उनसे ऐसी ही उम्मीदें हैं। इससे पूर्व भी महर्षि दयानन्द के अनेक शिष्यों ने शिक्षा, पत्रकारिता, इतिहास, वैदिक साहित्य के अनुसंधान व उनके हिन्दी में भाष्य आदि के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान किया। शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, क्रान्ति के अग्रदूत पं. श्यामजी कृष्ण वम्र्मा, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज जी व शहीद भगत सिंह जी का पूरा परिवार उन्हीं की देन थे। उनका देश की उन्नति में सर्वाधिक व अविस्मरणीय योगदान है। उनका सबसे बड़ा योगदान ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरूप से परिचय कराकर ईश्वर की सरलतम स्तुति-प्रार्थना-उपासना की सत्य पद्धति को प्रदान करना था जिसमें संसार के मुनष्यों की उन्नति अर्थात् अभ्युदय व मोक्ष की प्राप्ति निहित है। इसके समान अन्य कोई उपासना पद्धति ऐसी नहीं है जिससे ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सके। एक साधारण व अपढ़ व्यक्ति भी यदि इस पद्धति के अनुसार तप व पुरुषार्थ करे तो ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के साथ ईश्वर का साक्षात्कार कर जीवन को शिखर पर ले जा सकता है। उनके सभी योगदानों के लिए हम उनको अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। हम आशा करते हैं कि आने वाले समय में संसार पक्षपात रहित होकर उनके सत्य सिद्धान्तों का अध्ययन कर उसे अपनायेगा जिस प्रकार कि उसने विज्ञान को अपनाया है।

 

 –मनमोहन कुमार आर्य

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