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বেদ কি কলি যুগে প্রযোজ্য নয়?

বেদ সব যুগেই প্রযোজ্য

সমগ্র মহাবিশ্ব ধ্বংস বা পুনঃসৃষ্টি

হলেও বেদ সকল

কালের জন্য প্রযোজ্য ও সর্বদা

অপরিবর্তিত

থাকবে…।”” ঋগবেদ ১০/১৯০/১-৩ বেদ

সকল যুগ

ও কালের জন্য প্রযোজ্য।এর বাণী

কখনো

অপ্রাসঙ্গিক হয়না,অচল হয়না।বেদ

মন্ত্র কলিযুগে

নিষ্ক্রিয়-এ ধরনের প্রলাপ তাই

অনর্থক।সর্বযুগে ই

তা আধুনিক। অংতি সন্তং ন

জহাত্যন্তি সন্তং ন পশ্যতি।

দেবস্য পশ্য কাব্যং ন মমার ন

জীর্যতি। অথর্ববেদ

১০.৮.৩২ অংতি সন্তম্- সমপিবর্ত্তী

পরমাত্মাকে,ন

পশ্যতি- দেখেনা,ন জহাতি-বর্জিত

হয়না,দেবস্য

কাব্যম- ঈশ্বরের বানী বেদকে,পশ্য-

দেখ, ন

মমার-অচল হয়না,ন জীর্যতি-

অপ্রাসঙ্গিক

হয়না,জীর্ন হয়না। অর্থাত্,মনুষ্য

সমীপবর্ত্তী

পরমাত্মাকে দেখেও না আবার

তাহাকে ছাড়িতেও

পারেনা। পরমাত্মার বানী বেদকে

দেখ,কখনও

অচল হয়না,কখনও অপ্রাসঙ্গিক বা

জীর্ন হয়না ১/৮৫

“চারযুগে(সত্য,ত্রেতা,

দ্বাপর,কলি)দায়িত্বের

রকমভেদ রয়েছে কারন প্রতি যুগে

মানুষের আয়ু

হ্রাস পাচ্ছে” ১/৮৬ “”সত্য যুগে

তপস্যা, ত্রেতায়

জ্ঞান, দ্বাপর এ যজ্ঞাদি ও

কলিতে দান ই শ্রেষ্ঠ

ধর্ম।’ (যদিও অনেক

অপপ্রচারকারীরাই বলেন

কলিতে নাকি হরিনাম ই একমাত্র

ধর্ম!!!) ১/৮৭ “কিন্তু

মহাবিশ্বের ভারসাম্য রক্ষার্থে

সবসময় ই চার

ধরনের পেশা ভাগ করা হয়েছে”

১/৮৮ “ব্রাক্ষ্মনরা

নিজ স্বার্থত্যগ করে কাজ

করবে,বেদ পরবেএবং

তা অপরকে শেখাবে” ১/৮৯

“ক্ষত্রিয়রা বেদ

পরবে,লোকরক্ষা ও

রাজ্যপরিচালনায় নিযুক্ত

থাকবে” ১/৯০ “বৈশ্যরা বেদ

পরবে,ব্যবসা

ওকৃষিকর্মে নিজেদের

নিযুক্তকরবে” ১/৯১

“শুদ্ররা বেদ পাঠ করবে এবং

সেবামুলক

কর্মকান্ডে নিযুক্ত থাকবে” “আমি

মানবকল্যানে যে

বাণী তোমাদের দিয়েছি তা

প্রচার কর ব্রাক্ষ্মন

ক্ষত্রিয় বৈশ্য শুদ্র নারী পুরুষ পাপী

পুন্যাত্মা

নির্বিশেষে সকলকে” যজুর্বেদ ২৬/২

গত

কয়েকশবছর এ,যখন বেদজ্ঞান এর

অভাব কে

কাজে লাগিয়ে স্বার্থান্বেষী

ধর্মব্যবসায়ী ও

তথাকথিত ব্রাহ্মন পরিচয় ধারী

যারা কিনা দস্যু থেকেও

অধম তারা তৈরী করেছিল

অস্পৃশ্যতা নামক জঘন্য

প্রথা।একসঙ্গে খাওয়া দাওয়া তো

দুরের

কথা,অনেকেই একে অপরকে

নিজেদের

বানানো ছোট জাত বিবেচনা করে

ছুঁতও না।অথচ

পবিত্র বেদ বলেছে- সমানী প্রপা

সহ

বোরন্নভাগঃ সমানে যোক্তো সহ

বো যুনজমি।

সমঞ্চোহগ্নিং যপর্যতারা নাভি

মিবাভিতঃ।। অথর্ববেদ

৩.৩০.৬ বঃ-তোমাদের,পপা-

পান,সমানী-একসঙ্গে

একপাত্রে হউক,বঃ অন্নভাগাঃ-

তোমাদের আহারও

একসাথে হউক,বঃ-তোমাদিঘে,সহ-

সঙ্গে,সমানে

যোক্ত্রে-এক বন্ধনে,যুনজমি-যুক্ত

করেছি,সম্যন্চঃ-সবাই

মিলে,অগ্নিং সপর্যত-একসাথে

উপাসনা কর(যজ্ঞাদি,ধ্যন),ইব-

যেমন,অরাং নাভিং অভিত-

যেমন করে রথচক্রের চারপাশে অর

থাকে।

অর্থাত্,হে মনুষ্যগন তোমাদের

ভোজন ও আহার

হোক একসাথে,একপাত্রে,

তোমাদের

সকলকে এক পবিত্র বন্ধনে যুক্ত

করেছি,তোমরা সকলে এক হয়ে

পরমাত্মার উপাসনা

(যজ্ঞাদি,ধ্যন) কর ঠিক যেমন করে

রথচক্রের

চারদিকে অর থাকে!

ন্যায় দর্শন 2./1/69 মুণ্ডক ঊপনিষদ

2/1/4 ,

2/1/6 ,নিরুক্ত 1/18 , যোগ দর্শন

1/26 , বৈশেষিক

1/1/3 বেদান্ত সুত্র 1/1/3 , 1/3/29

মনুসংহিতা

12/95-96 বেদের সর্বকালীন

গ্রাহ্যতা ও

প্রামাণিকতা স্বীকার করে |

‘क्या इस सृष्टि को बनाने वाला कोई ईश्वर है?’

ओ३म्

क्या इस सृष्टि को बनाने वाला कोई ईश्वर है?’

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

क्या वस्तुतः ईश्वर है? यह प्रश्न वेद और वैदिक साहित्य से अपरिचित प्रायः सभी मनुष्यों के मन व मस्तिष्क में यदा कदा अवश्य उत्पन्न हुआ होगा। संसार में अपौरुषेय कार्यों, सूर्य सहित समस्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, उसके संचालन, मनुष्य आदि प्राणियों की उत्पत्ति सहित कर्मफल व्यवस्था व सुख-दुःख आदि को देखकर ईश्वर का ज्ञान होता है। इसके साथ ही संसार में अधर्म करते हुए लोगों व उनकी सुख-सुविधाओं, ठाठ-बाट आदि को देखकर ईश्वर के अस्तित्व के प्रति संशय भी हो जाता है। परीक्षा की घड़ियों अर्थात् दुःख व विपरीत परिस्थितियों में बहुत से लोगों का ईश्वर के प्रति विश्वास प्रायः डोल जाता है। इसका कारण यह होता है कि उनके ईश्वर सम्बन्धी विचारों का आधार परम्परागत मान्यतायें हुआ करती हैं। संशय को प्राप्त मनुष्य की ईश्वर में आस्था व विश्वास का कोई ठोस, तार्किक व ऊहापोह युक्त आधार नहीं होता। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि मनुष्य जब पूर्ण स्वस्थ व सुखी हो तब उसे अपनी व अन्य मनुष्यों की विपरीत परिस्थितियों के कारणों पर विचार करना चाहिये और उसमें ईश्वर की क्या भूमिका हो सकती है, उनका अनुमान कर उन परिस्थितियों को अपने जीवन से दूर करने का हर संभव प्रयास करना चाहिये। इससे भावी समय में जीवन में विपरीत परिस्थितियों के आने पर उसे उसके पीछे के कारणों का ज्ञान हो जायेगा और वह साधारण व अज्ञानी मनुष्यों के समान ईश्वर को कोसने के स्थान पर विपरीत परिस्थितियों को सुधारने का प्रयास करेगा और साथ ही ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना कर उसकी सहायता भी प्राप्त कर सकेगा।

 

हम सामान्य जनों को यह भी विचार करना चाहिये कि यदि ईश्वर अन्य भौतिक पदार्थों के समान एक स्थूल पदार्थ होता अथवा वह अन्य शरीरधारियों के समान कोई शरीरधारी होता तो वह हमें आंखों से अवश्य दिखाई देता, ठीक वैसे ही जैसा कि हम संसार की अन्य वस्तुओं को देखकर उनका विश्वास कर लेते हैं। आंखों से दिखाई देने वाली वस्तुओं के प्रति हमें कोई संशय नहीं होता। संसार में कोई मनुष्य यह दावा नहीं करता कि उसने अपनी आंखों से ईश्वर को देखा है? न किसी ने पूर्व में कभी किया, न वर्तमान में करता है और न भविष्य में ही करेगा। इसमें सभी योगी, वेदाचार्य, सभी मताचार्य, ज्ञानी व वैज्ञानिक आदि भी सम्मिलित हैं। ईश्ववर के दिखाई न देने से सिद्ध होता है कि ईश्वर हमारी तरह से शरीरधारी कोई सत्ता नहीं है। अतः ईश्वर शरीरधारी नहीं, यह हमने जान लिया। अब यह देखना है कि ऐसे कौन कौन सी पदार्थ हैं जिनका अस्तित्व है परन्तु वह दिखाई नहीं देते। ऐसे पदार्थों में आकाश आता है। आकाश खाली स्थान होता है, परन्न्तु वह दिखाई नहीं देता। अब क्या यह मान सकते हैं कि आकाश है ही नहीं? ऐसा नहीं मान सकते क्योंकि यदि ऐसा मानेंगे तो भी खाली स्थान तो रहेगा ही। उसी मे तो हम व संसार की सभी वस्तुएं विद्यमान है। आकाश के सन्दर्भ में उसका होकर भी दिखाई न देने का एक कारण उसका न होना ही होता है।

 

वायु पर भी चर्चा कर लेते हैं। हम वायु को आंखों से नहीं देख पाते। सर्दी व गर्मी का अनुभव हमें वायु की उपस्थिति का ज्ञान कराता है। विज्ञान भी वायु को मानता है। जब वायु तेजी से आंधी के रूप में चलता है तो वृक्षों के पत्तों व उसकी शाखाओं को वायु की गति के कारण तेजी से हिलते-डुलते हुए पातें है जो वायु होने व उसकी तेज गति का प्रमाण है। हम आंखों से देखने का कार्य लेते हैं। जिस ओर हमारा मुख होगा, उसी ओर की वस्तुएं हम देख पाते हैं। विपरीत दिशाओं की वस्तुएं मुख्यतः पीछे की वस्तुएं होकर भी हम नहीं देख पातें। इससे यह भी ज्ञात होता है कि आंखों का वस्तु की ओर होना आवश्यक है तभी वह वस्तु देखी जा सकेगी। यह तो भौतिक वस्तुओं के विषय की बातें हैं। अब हम अपने बारे में विचार करते हैं। हम और हमारा अस्तित्व असंदिग्ध है। हम क्या हैं? क्या यह शरीर ही हम हैं? क्या शरीर ही देखता, बोलता, सुनता, स्पर्श करता है या इससे भिन्न शरीर के अन्दर किसी अन्य पदार्थ की सत्ता विद्यमान है। मैं मनमोहन हूं, क्या यह मेरा शरीर व उसमें मुंह नामक इन्द्रिय अपने आप बोलता है या कोई उसे बोलने के लिए प्रेरित करता है। यदि अपने आप नहीं बोलता तो मुंह जो कुछ बोलता है, वह उसे कौन बोलने के लिए कहता है। यदि शरीर से भिन्न बोलने, सुनने, देखने, सूंघने व स्पर्श करने वाली पृथक सत्ता न होती तो सब एक जैसी बातें करते, एक जैसा देखते, एक कहता यह अच्छा है तो सभी वही बातें स्वीकार करते, परस्पर मत भिन्नता न होती क्योंकि जड़ पदार्थों में जो गुण होते हैं वह सर्वत्र एक समान व एक जैसे ही होते हैं। अग्नि, वायु, जल, पृथिवी व आकाश का गुण सर्वत्र एक जैसा है। अतः यह सिद्ध होता है कि सभी के शरीर में एक जीवात्मा नाम का चेतन तत्व व पदार्थ है जो सबमें भिन्न भिन्न है। वही मन के द्वारा मुंह को प्रेरणा कर इच्छित बातें बुलवाता है। इसी प्रकार जीवात्मा ही मन के द्वारा अन्य अन्य इन्द्रियों से अपनी इच्छानुसार कार्य कराता है व उनसे उनके विषय यथा, आंख से रूप, कान से शब्द, नाक से गन्ध व जिह्वा से रस व त्वचा से स्पर्श का ग्रहण करता है और इनके अनुभवों से सुखी व दुःखी होता है।

 

इस चिन्तन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि शरीर व इसकी इन्द्रियां साधन है शरीरस्थ एक चेतन सत्ता के जो इसे अपनी क्रियाओं से सुख व दुःख की अनुभूति कराते हैं। उसी की प्रेरणा से शरीर व उसके अंग, इन्द्रियां आदि किसी विषय से संयुक्त होकर उसका ज्ञान जीवात्मा को कराते हैं। यह जीवात्मा हमारे व अन्यों के शरीर में होता है तो शरीर क्रियाशील रहते हुए अपने कार्यों को करता है। इसके न रहने पर शरीर क्रियाशून्य हो जाता है जिसे मृत्यु कहते हैं और तब यह शरीर किसी काम का न रहने पर इसका दाह संस्कार व अन्त्येष्टि कर दी जाती है। शरीर से पृथक होने वाली आत्मा का मृतक के साथ रहने वालों को पता ही नहीं चलता कि वह इससे पृथक होकर कहां गया? उसकी बाहर निकलने व बाहर निकल कर अन्यत्र जाने के पीछे किसकी प्रेरणा, शक्ति व बल कार्य कर रहा है? यह ज्ञान बहुत कम को होता है। यह विचार व चिन्तन का विषय है और इसका उत्तर मिलता है कि प्राणों का बन्द होना व जीवात्मा व प्राणों का शरीर से निकलना तथा शरीर का चेतना शून्य होना एक अदृश्य सत्तावान ईश्वर के कारण ही होता है। यदि ईश्वर न होता तो फिर न यह जीवात्मा जन्म के समय व उससे कुछ काल पूर्व शरीर से संयुक्त होती और न कभी इसकी मृत्यु अर्थात् शरीर से पृथक होने की स्थिति आती। यह कार्य ही ईश्वर करता है अतः ईश्वर सदा, सर्वत्र अपने स्वरुप व सत्ता के साथ विद्यमान रहता है।

 

मनुष्य अल्पज्ञ होता है। अतः इसे अपनी ज्ञान वृद्धि हेतु चिन्तन मनन करने के साथ ईश्वर से संबंधित ज्ञानी व अनुभवी विद्वानों के ग्रन्थों का अध्ययन भी करना चाहिये। इसमें हमारे वेद प्रथम स्थान पर आते हैं जो ईश्वर प्रदत्त हैं। वेदों के पढ़ने वा जानने के इस लिए इसके संस्कृत, हिन्दी व अंग्रेजी आदि भाषाओं के भाष्य उपलब्ध है। इनके साथ दर्शन, उपनिषदें, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का अध्ययन भी करना चाहिये। योगदर्शन का अपना अलग ही महत्व है। यह ईश्वर के पास जाने व उसका प्रत्यक्ष करने का क्रियात्मक ज्ञान है। योगदर्शन में ईश्वर प्राप्ति के साधनों की जानकारी सहित प्रत्येक छोटी से छोटी बात पर भी गहन व सारगर्भित समाधान अध्येता को प्राप्त होते हैं। यदि ईश्वर का जिज्ञासु इन सभी ग्रन्थों को पढ़़ लेगा तो उसकी सभी शंकायें दूर हो सकती हैं। वह कभी नास्तिकता के विचारों को अपने मन व हृदय में स्थान नहीं देगा। उसे अपने कर्तव्य का बोध भी हो जायेगा और योगदर्शन वर्णित साधनों का उपयोग कर कालान्तर में आध्यात्मिक साधना में प्रगति प्राप्त कर सकता है।

 

एक प्यासे मनुष्य को अपनी पिपासा दूर करने के लिए जल चाहिये। कुआं खोदना उसे अभीष्ट नही होता। महर्षि दयानन्द ने इस तथ्य को सामने रखकर चार वेद, दशर्न, उपनिषद, स्मृति आदि ग्रन्थों का मन्थन कर ईश्वर विषयक ज्ञान वा ईश्वर के गुणों का आर्यसमाज के नियमों व अपनी मान्यताओं स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में उल्लेख किया है। आर्यसमाज के दूसरे नियम में वह लिखते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। सत्यार्थप्रकाश के स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश प्रकरण में वह लिखते हैं कि ईश्वर कि जिस के ब्रह्म परमात्मादि नाम है, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिस के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं। योगदर्शन के अनुसार ईश्वर वह है जो क्लेश, कर्म व उसके कर्मफल से रहित पुरूष विशेष है। वेदों में आता है कि ईश्वर हमें हमारे प्राणों से भी प्रिय, दुःखों से रहित व दुःख दूर करने वाला, सुखस्वरूप व जीवों को उनके कर्मानुसार सुख-दुःख देने वाला, सर्वतोमहान, सबका उत्पादक, संसार की उत्पत्ति स्थिति व प्रलयकर्त्ता, सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप व प्रकाशस्वरूप है। सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन कर ईश्वर के अनन्त गुणों में से अन्य अनेक आवश्यक गुणों को जाना जा सकता है और इनके द्वारा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर जीवन को दुःखों से रहित बनाकर उसे मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग में अग्रसर किया जा सकता है। ईश्वर स्तुति, प्रार्थना व उपासना की विधि जानने व उसका सफल क्रियात्मक अभ्यास कर जीवन को सफल करने हेतु ऋषि दयानन्द की पंच-महायज्ञ विधि सर्वोत्तम पुस्तक है।

 

हम आशा करते हैं कि पाठक जान गये होंगे कि ईश्वर नाम की सच्ची सत्ता है और उसके गुण, कर्म व स्वभाव सभी शुद्ध व पवित्र हैं जिनके स्मरण करने व अपना आचरण सुधारने से दुःखों की निवृत्ति कर सुखी हुआ जा सकता है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के १२ वें समुल्लास में चारवाक, बौद्ध और जैन मत की समीक्षा की है। वहाँ चारवाक मत के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है, उनमें से एक है- त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः। जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।। अर्थात् वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। जर्भरी तुर्फरी इत्यादि पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन हैं। इसकी समीक्षा में ऋषि लिखते हैं, ‘‘हाँ! भाँड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्तता है, वेदों की नहीं…..।’’ यहाँ तक तो बात समझ में आती हैं। आगे चारवाक इसी श्लोक में जर्भरी तुर्फरी को पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन कह रहा है। जर्भरी तुर्फरी पर ऋषि जी ने पक्ष अथवा विपक्ष में कुछ नहीं लिखा। मुझे भी समझ नहीं पड़ रहा है कि यह जर्भरी तुर्फरी क्या बला है। कृपया, स्पष्ट करने का कष्ट करें कि यह क्या होती है? चारवाक ने उनका खण्डन किस दृष्टि से किया है और उस पर आर्ष मत क्या हो सकता है?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआचार्य सोमदेव जी! सादर नमस्ते!

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के १२ वें समुल्लास में चारवाक, बौद्ध और जैन मत की समीक्षा की है। वहाँ चारवाक मत के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है, उनमें से एक है-

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः।

जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।।

अर्थात् वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। जर्भरी तुर्फरी इत्यादि पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन हैं।

इसकी समीक्षा में ऋषि लिखते हैं, ‘‘हाँ! भाँड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्तता है, वेदों की नहीं…..।’’ यहाँ तक तो बात समझ में आती हैं। आगे चारवाक इसी श्लोक में जर्भरी तुर्फरी को पण्डितों के धूर्तता युक्त वचन कह रहा है। जर्भरी तुर्फरी पर ऋषि जी ने पक्ष अथवा विपक्ष में कुछ नहीं लिखा। मुझे भी समझ नहीं पड़ रहा है कि यह जर्भरी तुर्फरी क्या बला है। कृपया, स्पष्ट करने का कष्ट करें कि यह क्या होती है? चारवाक ने उनका खण्डन किस दृष्टि से किया है और उस पर आर्ष मत क्या हो सकता है?

– जगदीश प्रसाद हरित, गिरदौड़ा, नीमच, म.प्र.

समाधान– आर्यो के आलस्य प्रमाद के कारण वेद मत न्यून होता चला गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि आर्यावर्त्त देश में अनेक-अनेक वेद विरुद्ध मत चल पड़े, जिनमें से चारवाक का वाममार्ग भी एक मत है। चारवाक एक वेद विरोधी नास्तिक व्यक्ति हुआ है। वह ईश्वर, जीव आदि को नहीं मानता था, पूर्वजन्म को नहीं मानता, इसी कारण उसने ऐसी बातें कहीं-

न स्वर्गो नाऽपवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।

नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः।।    (१)

यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋण कृत्वा घृतं पिबेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनम् कुतः।।         (२)

अर्थात् न कोई स्वर्ग है, न कोई नरक है, न कोई परलोक में जाने वाली आत्मा है और न वर्णाश्रम की क्रिया फलदायक है, इसलिए जब तक जीवे, तब तक सुख से जीवे । जो घर में पदार्थ न हो तो ऋण लेके आनन्द करे, ऋण देना नहीं पड़ेगा, क्योंकि जिस शरीर से खाया-पीया है, उसका पुनरागमन न होगा। फिर किससे कौन माँगेगा और कौन किसको देगा? इस प्रकार की बातें चारवाक ने समाज में फैलाई, जिससे वेदमत की हानि हुई। चारवाक के वेद की निंदा से जुड़े जिस श्लोक को आपने जिज्ञासा समाधानार्थ दिया है वह है-

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः।

जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।।

अर्र्थात् नास्तिक चारवाक कहता है-‘‘वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त्त और निशाचर अर्थात् राक्षस-ये तीन हैं। ‘जर्भरी’ ‘तुर्फरी’ इत्यादि पण्डितों के धूर्त्ततायुक्त वचन हैं।’’

इस पर महर्षि दयानन्द समीक्षा देते हुए ‘‘जर्भरी तुर्फरी’’ युक्त मन्त्र का अर्थ व भावार्थ और इन शब्दों की निष्पत्ति लिखते हैं।

महर्षि की समीक्षा-‘‘अब देखिए चारवाक आदि ने वेदादि सत्यशास्त्र देखे, सुने वा पढ़े होते तो वेदों की निन्दा कभी न करते कि ‘‘वेद भाँड, धूर्त्त और निशाचरवत् पुरुष ने बनाए हैं।’’ ऐसा वचन कभी न निकालते। हाँ भाँड, धूर्त्त, निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्त्तता है, वेदों की नहीं, परन्तु शोक है चारवाक, आभाणक, बौद्ध और जैनियों पर कि इन्होंने मूल चार वेदों की संहिताओं को भी न सुना, न देखा और न किसी विद्वान् से पढ़ा, इसलिए नष्ट-भ्रष्ट बुद्धि होकर ऊटपटाँग वेदों की निन्दा करने लगे। दुष्ट वाममार्गियों की प्रमाण शून्य कपोल कल्पित भ्रष्ट टीकाओं को देखकर वेदों से विरोधी होकर अविद्या रूपी अगाध समुद्र में जा गिरे।’’

महर्षि ने यहाँ वेदों के टीकाकार महीधर जैसे को दोषी बताया है, जो कि पवित्र वेद ज्ञान का अर्थ अत्यन्त घृणित करके चला गया । महर्षि की यहाँ यह मान्यता  भी रही है कि यदि चारवाक आदि पक्षपात रहित हो वेदों की मूल संहिताओं को देखते पढ़ते तो कदापि वेदों के विषय में विपरीत बात न कहते।

अब ‘‘जर्भरी तुर्फरी’’ के विषय में लिखते हैं- इन शब्दों से युक्त मन्त्र इस प्रकार है-

सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका।

उदन्यजेव जेमना मदेरुता मे जरारवजरं मरायु।।

– ऋ. १०.१०६.६

इस मन्त्र का अर्थ और इसके विषय में निरुक्त भाष्यकार श्री चन्द्रमणि विद्यालंकार जी ने जो लिखा है वह यहाँ लिखते हैं-

(सृण्या इव जर्भरी तुर्फरीतू) हे द्यावा पृथिवी के स्वामी जगदीश्वर! तू दात्री की तरह भर्त्ता और हन्ता है, (नैतोशा इव तुर्फरी पर्फरीका) तू शत्रुहन्ता राजकुमार की तरह दुष्टों को शीघ्र नष्ट करनेवाला और उन्हें फाड़ने वाला है, (उदन्यजा इव जेमना मदेरु) और तू चन्द्रमस अथवा समुद्र रत्न की तरह मन को जीतने वाला अर्थात् अपनी ओर खींचनेवाला तथा प्रसन्नताप्रद है। (ता मे मरायु जरायु) हे अश्वी! वह तू मेरे मरणधर्मा शरीर को (अजरम्) बुढ़ापे से रहित कर।

वेद का एक भी शब्द निरर्थक नहीं। जिनको वेद के शब्द निरर्थक व्यर्थ दिखते हैं, वे बाल बुद्धि हैं, जैसे चारवाक आदि नास्तिक लोग। इस मन्त्र में आये ‘जर्भरी’, ‘तुर्फरीतू’ आदि शब्दों के  विषय में आपने पूछा है, उनका अर्थ ऊपर मन्त्रार्थ में दे दिया है। जर्भरी का अर्थ है ‘भर्त्ता’ अर्थात् भरण-पोषण करने वाला। यह शब्द यङ्लुगन्त में ‘भृञ्’ धातु से ‘इ’ प्रत्यय करने से बनता है। और तुर्फरीतू का अर्थ है हन्ता, अर्थात् दुष्टों का हनन करने वाला। यह शब्द ‘तृफ’ हिंसायाम् धातु से ‘अरीतु’ प्रत्यय करने पर बनता है। इस प्रकार ये दोनों शब्द परमेश्वर के अर्थ वाचक हैं।

मन्त्र में ‘सृण्या इव’ कहा है, अर्थात् दात्री के तुल्य भरण-पोषण और हनन करने वाला है। दात्री दो तरह की होती है- भर्ती और हन्त्री अर्थात् वह दो काम करती है। चने आदि की खेती में पूर्वावस्था में शाक काटने से कृषि की वृद्धि होती है, परन्तु फसल पकने पर काटने से नष्ट हो जाती है। वह भरण तथा हनन दोनों काम करती है। इसी प्रकार परमेश्वर दोनों काम करता है-सज्जनों की रक्षा तथा दुर्जनों का नाश।

इस मन्त्र का अर्थ वेद भाष्यकार श्रीमान् हरिशरण सिद्धान्तालंकार जी इस प्रकार करते हैं- सृण्या इव= (द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च। नि. १३.५) अंकुश दो कार्य करता है, एक मत्तगज को अवस्थापित करने का और दूसरा अनिष्ट गातियों को रोकने का। इसी प्रकार ये पति-पत्नी जर्भरी= भरण करने वाले होते हैं और तुर्फरीतू= शत्रुओं के हन्ता होते हैं, वाञ्छनीय तत्त्वों का पोषण करने वाले और अवाञ्छनीयों को विनष्ट करने वाले हैं। नैतोषा इव= (नितोषयन्ति हन्ति) काम -क्रोध आदि शत्रुओं को विनष्ट करने वालों के समान तुर्फरी =(क्षिप्रहन्तारौ) शीघ्रता से शत्रुओं को विनष्ट करने वाले तथा पर्फरीका= (शत्रुणां विदारथितारौ) शत्रुओं को विदीर्ण करने वाले हैं, अथवा पात्र व्यक्तियों को धन से पूर्ण करने वाले हैं। (धनेन पूरथितारौ) उदन्यजा इव= (उदकजे इव रत्ने समुद्र्रे, नि. १३.५) समुद्रोत्पन्न कान्तियुक्त निर्मल रत्नों के समान जेमना= जयशील व मदेरु= सदा हर्षयुक्त। ऐसे पति-पत्नी जब माता-पिता बनते हैं तो ता= वे मे= मेरे जरायु= उस जरासे जीर्ण होनेवाले मरायु= मरणशील शरीर को अजरम्= अजीर्ण बनाते हैं, अर्थात् माता-पिता पूर्णरूपेण स्वस्थ शरीरवाले होते हैं तो सन्तान का भी शरीर शीघ्र जीर्ण व मृत हो जाने वाला नहीं होता।

इस प्रकार इस मन्त्र का विशेष अर्थ चारवाक आदि नास्तिक लोग न देखकर वेदों की निंदा में अपना जीवन नष्ट कर गये, और जो भी वेद को विपरीत भाव से देखेगा, उसका भी जीवन व्यर्थ ही जायेगा।

आपने ‘जर्भरी’ ‘तुर्फरीतू’ के विषय में पूछा कि ये क्या बला है, तो आपने इनके विशेष अर्थ देख लिए हैं कि ये बला नहीं, अपितु अपने अन्दर महान् अर्थ को लिए हुए हैं।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

 

लेखमाला की अन्तिम मणियाँ

लेखमाला की अन्तिम मणियाँ

– राजेन्द्र जिज्ञासु

‘परोपकारी’मासिक के संवत् १९६४ के अंकों में वेद विषय पर गोस्वामी घनश्याम जी मुलतान निवासी की एक महत्त्वपूर्ण लेखमाला प्रकाशित हुई थी। इस लेखमाला की अन्तिम मणियाँ हम खोज पाये हैं।

इस लेखमाला के लेखक गोस्वामी घनश्याम अपने समय के जाने-माने विद्वान् थे। आप आर्यसमाजी तो नहीं थे, परन्तु वेद के एवं ऋषि दयानन्द के बड़े भक्त थे। स्वामी वेदानन्द जी महाराज भी कुछ समय आपके पास मुलतान में पढ़े थे।

आपने काशी शास्त्रार्थ में हार-जीत के विषय में सन् १८७९ में पं. बालशास्त्री से पूछा कि आप ठीक-ठीक बताओ कि सन् १८६९ के प्रसिद्ध शास्त्रार्थ में आप जीते अथवा स्वामी दयानन्द? पं. बाल शास्त्री का उत्तर पं. लक्ष्मण जी रचित ऋषि-जीवन के पृष्ठ २८१-२८२ पर पाठक पढ़ें। बाल शास्त्री जी का कथन था कि हम कौन उस वीतराग योगनिष्ठ ब्रह्मचारी को पराजित करने वाले? गोस्वामी जी बाल शास्त्री के शिष्य थे।

गोस्वामी जी के मुख से सुने बाल शास्त्री के शब्द स्वामी वेदानन्द जी ने अपनी पठनीय पुस्तक ऋषि बोध कथा में दिये हैं। प्रकाशन से कई वर्ष पूर्व स्वामी वेदानन्दजी ने व्याख्यानमाला के रूप में यह सारी पुस्तक कादियाँ में सुनाई थी।

उस प्रकाण्ड वैदिक विद्वान् की ये वेद विषयक लेखमाला परोपकारी के पाठकों के सामने प्रस्तुत है।

पं. बाल शास्त्री अपने शिष्यों से प्रायः यह कहा करते थे, ‘‘सत्पथ पर चलना चाहो तो दयानन्द के बताये पथ पर चलो, वह पथ सत्य एवं निर्भ्रान्त है।’’

अंक ६   परोपकारी। अश्विन १९६४

वेद।

पहिले कहा गया है कि विद्, विद्लृ धातु से वेद शब्द बनता है, उसका अर्थ सत्ता, ज्ञान तथा लाभ है। वेद में उक्त तीनों  अर्थों में वेद व्यवहृत हुआ है और ब्राह्मणादि ग्रन्थों में ऋगादि चार पुस्तकों का नाम भी वेद कहा है। यहाँ अब प्रश्न होता है, धात्वर्थ के अनुसार चारों वेद में किसकी सत्ता, ज्ञान और लाभ का वर्णन है? इसके उत्तर को विचारने के लिये उस बात को प्रथम सम्मुख रखना है, जहाँ कहा है कि ऋगादि वेद त्रिकाण्ड अर्थात् कर्म, उपासना, ज्ञान के प्रतिपादक है, परन्तु आधुनिक महीधरादिकृत वेदार्थ पर जब दृष्टि जाती है तो यही कहना पड़ता है कि वेद में केवल कर्म का आदेश है और वह कर्म केवल अग्नि, इन्द्र, सूर्यादि कल्पित देवों के लिये उपदिष्ट है, इसलिये मिस्टर मैक्समूलर आदि साहब कहते थे कि वेदों में ईश्वर का वर्णन नहीं, किन्तु देवपूजा, मूर्ति पूजा और तत्कालीन कहावतें लिखी हैं।

इसका जब आलोचन करते हुए प्रथम उक्त त्रिकाण्ड अर्थात् कर्म उपासना ज्ञान ही सूचित कर रहे हैं कि उक्त वेदों में ईश्वर की उपासना और ज्ञान का उपदेश भी है, पुनः महीधरादि जो कर्मवादी थे, ज्ञान से विमुख थे, उनके पूर्वज स्वामी शंकराचार्य ने ईशोपनिषद् जो यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है, उसको ईश्वरीय विषय में दर्शाया है। पुनः उन महीधरादि आधुनिक लोकों के अर्थ की क्या गणना है?

सर्वे वेदाः यत्पदामामनन्ति (कठो. २/१५) उपनिषद् कहते हैं कि परमात्मा पद का वर्णन करनेवाले सब वेद हैं फिर मनुजी लिखते हैं कि ‘‘वेदोऽखिलो धर्म्ममूलम्’’ (मनु. २/६) जितने धर्म हैं, वह सब वेद से प्रगट हुए हैं एवं महामुनि पतञ्जलि भी लिखते हैं कि ‘‘धर्म्मः वेदोऽध्ययः’’ (महाभाष्य १/१/१/१) वेद धर्म्म हैं, इन उपनिषद्, मनुस्मृति और महाभाष्य के प्रमाण से साफ है कि पुराकाल में वेद में ईश्वर धर्म्म आदि सब प्रभुता की विद्यता मानी जाती थी। पुनः यह क्योंकर मान्य हो कि वेद में ईश्वर का विषय नहीं केवल कर्म ही हैं, क्योंकि पूर्वोक्त प्रमाणों से साफ है कि वेद में ईश्वर का ज्ञानादि भी विद्यमान है। इसकी पुष्टि के लिये कतिपय आधुनिक पण्डितों के लेख से दिखलाया जाता है कि धात्वर्थ के अनुसर वेदार्थ में धर्म्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों पदार्थों में धर्म्म की सत्ता, ज्ञान और लाभ का अर्थ लिया गया है-

‘‘विद्यन्ते ज्ञायन्ते लभ्यन्ते वा एभिर्धर्मादि पुरुषार्था इति वेदाः’’ बह्वृक् प्रातिशाख्यवृत्युपक्रमाणिका में विश्वामित्र लिखते हैं कि जिसने धर्म्म पुरुषार्थ जाने जाते, विदित होते वा प्राप्त होते हैं, उनका नाम वेद है। विद्ल् असुम्= विदल्लेतत् लभ्यतेवाऽनेन धर्म्मादि इति वेदाः। ऐसा निघण्टु टीकाकार ने लिखा है। इस प्रकार स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी भी वेद भाष्य भूमिका में लिखते हैं कि ‘‘विद् ज्ञाने, विद्सत्तायां, विद्लृ लाभे, विद् विचारणे, एतेभ्यो हलश्चेति सूत्रेण करणाधिकरणकारकयोर्घञ् प्रत्येये कृते वेदशब्दः साध्यते। विदन्ति, जानन्ति, विद्यन्ते, भवन्ति, विदन्ते, विन्दते,लभन्ते, विदन्ते, विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सर्वाः सत्यविद्याः यैर्र्र्येषुवा तथा विद्वांसश्व भवन्ति ते वेदाः’’ (वेद भाष्यम्) जिनमें सब सत्यविद्या हैं और जिनसे सब सत्यविद्या लोक जानते, प्राप्त करते, विचारते और जिनको जानने से विद्वान् हो जाते हैं, वह वेद है।।

(प्रश्न) पूर्व सब प्रमाण से यही पाया जाता है कि वेद में कर्म, उपासना, ज्ञान और धर्म्मादि चारों पदार्थों का वर्णन है और स्वामी दयानन्द जी ने जो वेदों में सब सत्यविद्या है-ऐसा कहा है इसमें कोई पुरानी साक्षी भी है?

(उत्तर) हाँ, है देखिये। मनुजी आज्ञा करते हैं कि ‘‘सर्वे वेदात्प्रसिध्यति’’ (मनु. १२/१६) सर्व अर्थात् विद्या आदि सब कुछ वेद से लिया जाता है।

(प्रश्न) यहाँ विद्या शब्द का साक्षात् व्यवहार नहीं किया?

(उत्तर) ‘‘धृतिः……विद्यां’’ मनुस्मृति में जहाँ धृति से अक्रोध तक धर्म के दश लक्षण लिखे हैं, उनमें से विद्या भी एक लक्षण साफ इन (विद्या) शब्दों में लिखा है और (मनु. २/६) इस श्लोक में वेद को धर्म का मूल कहा है यह साक्षात् प्रमाण है कि वेद में विद्या वर्णन है।।

अङ्क ७  परोपकारी कार्त्तिक १९६४ वि.

वेद।।

(गताङ्क से आगे)

चर्मनेत्र से ज्ञाननेत्र भिन्न होते हैं-इस जनश्रुति में यह अर्थ निकलता है कि विद्या मानो ज्ञान का मित्र है। जिसकी विद्या की आँखें उत्पन्न हो जावें, वहीं विद्वान् हो जाता है और मनुजी कहते हैं कि ‘‘पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्’’ (मनु. १२/१) पितृदेव मनुष्यों का वेद ही नेत्र है। यह लोक वेद के जानने से विद्वान् हुए हैं। लोक व्यवहार भी यही विदित कर रहा है कि प्रमाण के जानने से मनुष्य विद्वान् हो जाता है और आपस्तम्ब गृह्यसूत्र में लिखा है कि ‘‘त्रैविद्या वृद्धानान्तु वेदाप्रमाणमितिनिष्ठा’’ (आ.२/९/३/९) तीनों विद्या में जो बड़े हुए हैं, उनके लिये वेद ही प्रमाण है, यूँ कहिये कि वेदरूप प्रमाण से मनुष्य विद्या में वृद्ध हो सकता है। यहाँ यह जतलाना अनुपयोगी नहीं होगा कि वेद के अर्थ समझने के लिये जैसे व्याकरणादि की आवश्यकता होती है वैसे योग की भी आवश्यकता है, क्योंकि ईश्वर ज्ञानस्वरूप है और वेद उसका ज्ञान है उसके जानने के लिये योग ही एकमात्र एकान्त उपाय है। इस बात को आगे वर्णन किया जावेगा कि वेद के अर्थ जानने के लिये योग की भी आवश्यकता है यहाँ तो इसकी सूचना करनी ही थी। यदि यह नहीं कहा जाता तो फिर प्रश्न उठता कि जब वेद में सब विद्या है, उससे प्रकट क्यों नहीं करते? इसके उत्तर में इतना निवेदन करना पर्य्याप्त होगा कि योग युक्त पुरुष अब भी ऐसा कर सकता है और पुराकाल में जितने उपनिषद्कार वदरीनाचार्य्यादि ऋषि मुनि विद्वान् हुए हैं, उन सबका इतिहास कहता है कि उनको सब विद्या वेद के सहारे से प्राप्त हुई थी। वह वेद में से अनेक विद्या प्रकट कर गये हैं। अब भी जो उनके समान होगा, वह वेद से विविध विद्या का प्रकाश कर सकता है। जब से वेद का पठन-पाठन छूट गया है, और योग से विमुखता हो गई है, तब से यहाँ विद्योन्नति का अभाव हो गया है। अब उचित है कि प्रथम वेद के लक्षण को हम जानें।।

अंक आठ

परोपकारी मार्गशीर्ष से सं. १९६४ वि.

वेद।।

(गताङ्क से आगे)

पहिले वेदव्युत्पत्ति विषय में कहा गया है कि वेद का अर्थ लाभ, जानना, ज्ञान, सत्ता और विचार है। इन अर्थों को सृष्टि में किस प्रकार  चरितार्थ तथा व्यवहार में लाया गया है, यह अब कहना है, क्योंकि ‘‘लक्षणाप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः’’ चीज की अस्ति उसके लक्षण और प्रमाण से जानी जाती है, अतएव विचारना है कि जगत् ने वेद पदार्थ को कौन से लक्षण और प्रमाणों में चरितार्थ किया है?

पूर्वलिखित लेखों में जहाँ ‘विद् व विद्ल्’ धातु से वेद पद को सिद्ध किया है, साथ उसके विष्णुमित्र आदि महाशयों ने ‘‘धर्म्म, अर्थ, काम, मोक्ष’’ इन चार पदार्थों के ज्ञान और प्राप्ति के लिये वेद के लक्षण दिखलाये हैं और यजुर्वेद में प्रमाण दिया है कि-

‘वेदाहमेतं पुरुषम्’ (यजु. २१)

जिसके जानने से मोक्ष प्राप्त होता है, उस परमात्मा को जान। ऐसा जानना ‘वेद’ पद से प्रमाणित है और मनुजी कहते हैं कि-

श्रुतिःस्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्म्मस्य लक्षणम्।।

– (म. २/१२)

धृतिःक्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म्मलक्षणम्।।

– (म. ६/६)

जो परमात्मा से ज्ञान प्राप्त हुआ है, उसको श्रुति कहते हैं, फिर उसका ऋषि लोगों ने वेद पर जैसा चिन्तन् स्मरण किया है और जिसको अपने सदाचरण में आचरित कर दिखलाया है, जो आत्मा के वास्तविक प्रिय हैं, उसका नाम धर्म्म है। प्रश्न होगा कि वे कौन-सी बातें हैं जो श्रुति में कही ऋषियों ने प्रकट की तथा करके दिखलाई और अब भी हम जिनको प्रिय अनुभव कर सकते हैं? इसके उत्तर में फिर मनुजी आज्ञा करते हैं कि वे संक्षेपतया दश लक्षण हैं। वे यह हैं-धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध। यह धृति आदिक भाव प्रत्येक आर्य्य हिन्दू, मुसलमान, जैन, ईसाई, आस्तिक और नास्तिक सबको उत्तम और प्रिय लगते हैं। जब तक किसी मनुष्य व प्राणी को विशेष स्वार्थ पक्ष= वास्ता नहीं पड़ता, तब तक कोई अधीर नहीं होता। कोई किसी से क्रोध अभिमान नहीं करता। इससे स्पष्ट है कि आत्मा मात्र का धृति आदिक स्वाभाविक धर्म्म है और अधीरता आदि कृत्रिम धर्म्म है, इसलिये कृत्रिम कहीं-कहीं त्याज्य समझे जाते हैं। इस धर्म्म के बारे में मनुजी कहते हैं कि-

श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयः (म. २/१०)

वेदोऽखिलोधर्म्ममूलम् (म. ६)

श्रुति जिसको ऋग्, यजुः, साम, अथर्व पुस्तक कहते हैं, वह वेद है और उनमें मूलरूप तथा धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध सब धर्म्म का वर्णन है। ‘‘लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम्’’ जिससे जाना जाता है, उसको लक्षण कहते हैं, अतएवं वेद का जानना धृति आदि से हो सकता है, जिसमें धृति आदि का वर्णन है, वही वेद है। प्रश्न होगा कि यदि धृति आदि दूसरी पुस्तकों में वर्णित हो क्या वह भी वेद होंगे? उत्तर यह होगा कि वह वेद के धृति आदि के आदाय को कहने वाले हैं वेद नहीं, प्रश्न होगा कि ऐसी-ऐसी व्यवस्था किसी ने पहिले भी कही हैं, उत्तर है कि हाँ! मनु कहता है कि-

श्रुतिस्तु वेदोविज्ञेयो धर्म्मशास्त्रन्तुवै स्मृतिः (म. २/१०)

जो परमात्मा से ऋषियों ने सुना है, उसको वेद कहते हैं और उसको जिन पुस्तकादि में ऋषियों ने कहा है, उसको स्मृति कहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि जैसा वेद से प्रयोजन सिद्ध होता है, वैसे अन्य अच्छे पुस्तकों से भी होता है, परन्तु-

या वेदबाह्याःस्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः।

सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हिताः स्मृताः।।

– (म. १२/९५)

जो वेद के बाहर वेद के अनुकूल नहीं, जो कुदृष्टि हैं, वह त्याज्य हैं, क्योंकि तमोनिष्ट है और तमोगुण का ज्ञान अल्प होता है, पूर्ण नहीं होता इसलिये वेद से अतिरिक्त पुस्तक जिनमें बड़ी-बड़ी विद्या की बातें भी हैं, वह उत्तम व ग्राह्य होने पर भी निर्भ्रान्त नहीं हो सकती, क्योंकि मनुष्य की बनाई होने से तमोगुण के लेश करके कभी पूर्ण नहीं हो सकती। यही कारण है कि साम्प्रत में साइन्स के नियम भी स्थायी नहीं होने पाते। जैसे पहिले तत्त्व ऐलीमैन्ट थोड़े माने जाते थे, अब बहुत सिद्ध हो गये हैं, आगे प्रतिदिन नूतन आविष्कार होते रहते हैं, फिर उन पुस्तक जिनमें अयुक्त बहुत बातें हैं, पुराण, कुरान, बाइबिल आदि क्योंकर वेद हो सकते हैं?

सम्प्रदायी मतवादी लोगों का नियम है कि उनके अगुए-गुरु ने जो वाक्य कह दिये, फिर जो उनके पुस्तक में लिखे गये, वह उनके लिये प्रमाण हो जाते हैं, फिर यह नहीं सोचते कि वे वाक्य प्रमाण के प्रमाणानुकूल हैं वा नहीं? इस कारण मतवाद का झगड़ा प्रतिदिन बढ़ता जाता है। निपटारा नहीं होने पाता, परन्तु वेद ऐसा नहीं, किन्तु गौतमजी लिखते हैं कि-

प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि (१/१/३)

आप्तोपदेशसामर्थ्याच्छब्दार्थ सम्प्रत्ययः (२/१/५२)

आप्तोपदेशः शब्दः (१/१/८)

आप्तःखलुसाक्षात् कृतधर्म्मा।

संसार की सब वस्तु प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द से सिद्ध होती हैं। इसको प्रमाण कहते हैं। आप्त का उपदेश शब्द हैं, क्योंकि उसके कहने से अर्थज्ञान हो जाता है। वह क्यों, इस पर वात्स्यायनाचार्य्य लिखते हैं कि जिसने जिस पदार्थ को साक्षात् कर लिया हो, उसको वैसा कहे यह उपदेश उसका शब्द है। ऐसा ही ऋषि आर्य्य और म्लेच्छों का व्यवहार सिद्ध समान लक्षण है। और-

श्रुतिप्रामाण्याच (३/१/२९)

इस सूत्र से जतलाया है कि उक्त शब्द को श्रुति वेद कहते हैं, वह प्रमाण है। इस सूत्र के भाष्य से उद्बोध होता है कि ऋषि लोग वेद की बात को पदार्थ विद्या सिद्ध मानते थे।

सूर्य्यन्ते चक्षुर्गच्छतां पृथिवीन्ते चक्षुरिति

सूर्य्य में नेत्र और पृथिवी में शरीर लय होता है, अर्थात् कारण  में कार्य्य का लय होना और कारण में कार्य्य का होना सिद्ध होता है। फिर ऐसी पुस्तक जिनमें लिखा हो कि श्रीकृष्ण जी का शरीर दग्ध होकर पृथिवी आदि को प्राप्त नहीं हुआ और पितृवीर्य्य के बिना मसीह को पैदा होना लिखा है वह कैसे प्रामाण्य हो सकती है। इस पर कह सकेंगे कि वेद में भी ऐसी अनेका गाथाएँ हैं, क्योंकि महीधर आदि ने वेद के वैसे अर्थ किये हैं, परन्तु उनको यह नहीं सूझता कि महीधर आदि का अर्थ क्योंकर प्रमाण हो सकता है, जब उनका अर्थ प्रमाण विरुद्ध है, क्योंकि मनुजी लिखते हैं कि-

आर्षधर्म्मोपदेशश्च वेदशास्त्रीविरोधिना।

यस्तर्केणनुसन्धत्ते स धर्म्मो वेदनेतरः।।

– (म. १२/१०९)

ऋष्युक्त धर्म्मोपदेश जो वेदशास्त्र के प्रतिकूल न हो, युक्ति से सिद्ध हो वह धर्म है, दूसरा नहीं। इससे साफ है कि वेद में युक्ति को विचारना पड़ता है और उसके अर्थ करनेवाले  के कथन अथवा किसी स्वतंत्र ग्रन्थ बनाने वाले की स्वतंत्र पुस्तक में वही बात मानने के योग्य होती जो युक्ति से सिद्ध होगी, फिर क्योंकर उन महीधरादि के वेदार्थ का आश्रय लेकर वेद में असंघटित बातों का सत्व मान सकते हैं? देखिये आगे मीमांसा क्या कहता है।। (क्रमशः)

घनश्याम मुल्तान।

‘पाठकों की प्रतिक्रिया’

‘पाठकों की प्रतिक्रिया’

– डॉ. रामवीर

कवि की तो इतनी ही अपेक्षा

बस मिल जाए सहृदय श्रोता,

श्रोता अगर सराहे तो फिर

स्वाभाविक है कवि खुश होता।

धन्यवाद आभार आपका

बढा प्रशंसा से उत्साह,

ईश करे पूरी कर पाऊँ

प्रकट आपने की जो चाह।

ईश कृपा ईश्वर ही जाने

कब होगी हम नहीं जानते,

हम उसकी सृष्टि में स्वयं को

इक छोटा-सा पूर्जा मानते।

किस से कितना काम है लेना

ईश्वर ही करता निर्धारित,

हम प्रस्ताव तो रख सकते हैं

उसकी इच्छा करे जो पारित।

आशा है आशीष आपका

यूँ ही मिलता रहे सर्वदा,

बड़े भाइयों का स्नेह है

मेरी सब से बड़ी सम्पदा।

– ८६, सै. ४६, फरीदाबाद-१२१०१०,

चलभाषः ९९११२६८१८६

शिक्षक

शिक्षक

-योगेन्द्र दम्माणी, एफ.सी.ए.

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अर्थात् समाज की स्थिति व्यवस्थित हुए बिना वह भी हलचल में रहता है। वेद के दिखाये मार्ग से हट कर चलने के कारण समाज हिल-सा गया है, लेकिन समाज बनता तो लोगों से ही है। तो स्पष्ट है कि दोष निज में है। ये दोष क्योंकर और क्यों हमारी रगों में समा गया है, कारण कुछ-कुछ स्पष्ट भी है। कहते हैं, मनुष्य शीर्ष का अनुकरण करता है, क्योंकि मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो कुछ देखे या सिखाये बिना नहीं सीख सकता। जानवर अपने रास्ते से कम ही भटकते हैं। शीर्ष यानि हमारा ब्राह्मण / पंडित / शिक्षक वर्ग। इस वर्ग में कुछ तो गड़बड़ है, जिसे ठीक किया जा सकता है। आगे बढ़ेंगे।

कुछ दिन पूर्व हमारे पड़ोस में एक बजुर्ग महिला की वर्षगाँठ थी। पूर्व या इसी जन्म के संस्कार ने उन्हें प्रेरित किया कि वे जिले के एक गुरुकुल में एक दिन के खाने का खर्च वहन करेंगी। मन में विचार आया और फोन गुरुकुल के आचार्य जी के यहाँ बज पड़ा। महिला ने जब अपनी इच्छा जताई तो आचार्य जी बोल पड़े-जी हमारे ब्रह्मचारियों का भोजन तो हो गया, आपने फोन करने में देर कर दी। वाह रे हठधर्मी आचार्य! क्या दान देने वाले की मंशा उसी दिन के भोजन की व्यवस्था की थी और थी भी तो आप शालीनता से कह सकते थे कि जी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद जो आपने गुरुकुल के बारे में सोचा। हम आपका दिया हुआ प्रसाद जरुर करेंगे। हमारे यहाँ १-१ १/२ बोरी अन्न लगता है। आप कहें जब मैं मँगवालूँ या आप भिजवा सकें तो आपकी बहुत कृपा। इसी तरह की ऐंठ ने समाज को चरमरा-सा दिया है। यदि गुरु, पंडित ही शालीन न होवेगें तो उनसे शिक्षा लेने वाली प्रजा कहाँ जाएगी? हमारे यहाँ पहले ऐसे पंडित हुआ करते थे जो कभी किसी की यजमानी में जाते तो अपनी दक्षिणा में बहुत कम रखकर (जो उन्हें माँगे बिना ही मिल जाती थी) प्रसन्न चित्त रहते और बाकी अपने संरक्षक समाज के नाम की रसीद काट दिया करते थे। विद्या ददाति विनयम् सार्थक था। आज पंडितों के बैंक एकाउंट भरे पड़े हैं, उनका आगा पीछा चाहे हो ही न, मधुमेह आदि समस्याओं से ग्रस्त हैं, रिकार्ड देख लीजिए अपने संरक्षित समाज को एक पैसा भी उन्होंने दान दिया हो तो। पंडित वर्ग समझ बैठा है कि दान देना सिर्फ दूसरों का काम है।

एक सज्जन के यहाँ मृत्यु हो गयी, एक भी पंडित अन्तिम संस्कार के लिए तैयार न हुआ, कारण था-जब भी सज्जन अपने यहाँ किसी कार्यक्रम में पंडितों को बुलाते तो अल्प दक्षिणा में सलटा देते थे। उन्हें शायद यह नहीं मालूम था कि आजकल सब ‘रेट’ के अनुसार चलते हैं। समाज के प्रति उदासीनता इस हद तक पहुँच चुकी है कि सब काम लक्ष्मी जी के अनुसार होते हैं। पंडित बनते तो हम ज्ञान बाँटने के लिए हैं, पर रह जाते हैं वैश्य बन कर, ब्राह्मणता खूँटी पर टँग जाती है। गुरुकुलों में भी यही शिक्षा दी जा रही है कि पूजा-पाठ की विद्या के साथ-साथ संगीत की शिक्षा जैसे वाद्य यन्त्र बजाना, शुद्ध भाषा का ज्ञान, जीवन जीने की कला का ज्ञान, हस्त शिल्प आदि-आदि भी पढ़ा रहे हों। शायद सोचते होंगे-यह सीख लेंगे तो निम्न श्रेणी में चले जाएँगे। एक तो नींव बिना के उठे हुए ये गुरुकुल या तो सिर्फ अपने रोज दान देने वाले पिताओं (उन्हें पता भी नहीं लगता कि ये पिता लोग भी दान ला रहे हैं किसी और से) की चापलूसी करने में व्यतीत कर देते हैं, या छोटी-मोटी पंडिताई कर गृहस्थ बन इधर-उधर फिरते रहते हैं। समर्पण अपने मिशन के प्रति अपने महर्षि के प्रति शून्य होता जा रहा है। गलत को गलत कहने का कौशल खत्म हो गया है। गृहस्थ का दान दशों दिशाओं में बिखरता जा रहा है। संगठन सूत्र स्वामी जी के पश्चात् पचास वर्षों तक ही रहा। संगठन के लचर होने के कारण सब अपनी-अपनी दुकानें खोले जा रहे हैं। हमें यज्ञशाला बनवानी है, जी हमें अपने आश्रम की बाउन्ड्री बनवानी है, जी हमें आश्रम में कमरे बनवाने हैं आदि। हम आर्य समाजियों और पौराणिको में क्या फर्क रहा? सब के सब अपना आशियाना बनाने में लगे हैं। बल्कि फर्क तो यह हो रहा है कि वे जो पौराणिक पंडित तैयार कर रहे हैं, वे छा रहे हैं, क्योंकि उनका संगठन मजबूत है। अपनी पौराणिक कहानियाँ वे इस अंदाज में, इतनी मृदुल आवाज में बयाँ करते हैं कि आज के पढ़े लिखे भी खो जाएँ, चाहे उन कहानियों का सिर पैर हो ही नहीं। यहाँ साप्ताहिक सत्संगों में पढ़े लिखे टार्च लेकर भी देखने से न मिले। मिले भी कैसे? आप जब सत्संग चले जाए या वहाँ कोई झगड़ा हो रहा होता है या पंडित जी बिना तैयारी के समय काट रहे होते हैं या होते ही नहीं। युवकों के लिए आज के अनुरूप सामग्री है ही नहीं उनके पास और वाक् पटुता मृदुलता से तो हम कोसों दूर रह जाते हैं। अनुशासन भी नहीं होता, जानकारी भी नहीं होती कि सत्संग में आज क्या होगा? भजनोपदेशक जी किसी फिल्मी धुन पर भजन गा कर इति श्री कर देते हैं। विचारणीय विषय है यें। गुस्सा न होइए, सोचिए कि ये हलचल हमें इतिहास के पन्नों तक ही सीमित न रख दे।

पंडित जी या शिक्षक का कार्य होता है मिसाल प्रस्तुत करना। ऋषि दयानन्द ने मिसाल प्रस्तुत की थी अपने आचरण से और लोग उनके अनुयायी हुए। एक सच्चे शिक्षक की तरह उन्होंने कार्य किया। अभी कुछ दिन पूर्व एक गुरुकुल के वार्षिकोत्सव में जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहाँ ब्रह्मचारियों के द्वारा बनाये गए चित्रों की प्रदर्शनी भी लगी थी। शाकाहार के प्रति समर्पित बेचारे ब्रह्मचारियों को उनके शिक्षकजी ने जो चित्र बनाने का कार्य सौंपा था, उसे देखकर रोना आ गया। अधिकांश सभी चित्रों में मत्स्य हत्या दिखाई गयी थी। शायद प्रधानाध्यापक महोदय को पता ही न हो, किन्तु क्योंकि चित्रकार शिक्षक विचार शून्य थे, वे बच्चों से उस तरह का कार्य करवा रहे थे। यदि हम गुरुकुल खोलते हैं, तो कुछ सामान्य शिक्षाओं को जिस पर हम टिके हैं, का ख्याल तो जरूर रखना ही चाहिए। इसी प्रकार एक स्थान पर तोरण द्वार में भी अंग्रजी और स्थानीय भाषा थी, हिन्दी गायब थी। वहाँ अंग्रेजी कोई नहीं जानता था।

मेरे बच्चों को शहर की एक अच्छी स्कूल में (जो स्कूल है विद्यालय नहीं) मेरे काफी असहमत होते हुए भी पिछले वर्ष दाखिला कराया गया। यह स्कूल बच्चों के भोजन की पूर्ण व्यवस्था रखता है। पूर्णतया शाकाहारी भी है, किन्तु तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था में पढ़े शिक्षक-शिक्षिकाएँ ही अध्यापन कराते हैं और बच्चे मुझसे कई बार शिकायत करते हैं कि पिता जी, टीचर ने कहा-मांस  खाना अच्छा है, अण्डे में प्रोटीन है। पढ़ाते तो हैं ही। यही नहीं, बच्चे इसलिए भोजन में अरुचि रखते हैं, क्योंकि वहाँ अत्यधिक तामसिक भोजन, अत्यधिक विदेशी भोजन, अत्यधिक मोटा करने वाला भोजन परोसा जाता है और देखा जाता है कि बच्चे उसे खाएँ। शिक्षिका जी को शिकायत करने पर कहा गया कि हमारा स्कूल ग्लोबल है, इसलिए आपकी शिकायत दरकिनार की जाती है। उन्हें शायद यह नहीं पता कि ग्लोबली लोग भोजन में बदलाव ला रहे हैं, जिससे वे स्वस्थ रहें। अपने खान-पान के कारण बीमारियों से त्रस्त हैं और बदल रहे हैं। कई लोग तो कई वर्षों से विदेश में है और आजतक लहसुन, प्याज को देखा तक नहीं और दिन में कम से कम अठारह घण्टे काम करते हैं। हम कहाँ जा रहे हैं? उस स्कूल के ट्रस्टीगण ध्यान ही नहीं दे पाते, कारण हम सभी जानते हैं। लक्ष्मी जी ने सिद्धान्तों को दूर कर दिया है। हमारे समाज को अपने शीर्ष से दिशा नहीं मिल रही। इस अन्धी आधुनिकता की दौड़ में प्रथम वर्ण कहीं खो-सा गया है।

कभी पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने कहा था कि आर्य सामाजियो, तुम दौड़ना बन्द मत करना, क्योंकि अगर दौड़ना बन्द कर दोगे तो हिन्दू खड़ा हो जाएगा और तुम खड़े हो गये तो हिन्दू बैठ जायेगा और तुम बैठ गये तो हिन्दू मर जाएगा और यही बात आज पंडित या शिक्षक वर्ग पर लागू हो रही है। समाज मर रहा है। मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा था कि उसके विद्यालय के शिक्षक बच्चों से रोज पूछते थे कि क्या माता-पिता को प्रणाम करके आए? कभी-कभी घर भी पहुँच जाया करते थे सही गलत की जाँच के लिए। वह कहता है कि मैं आज भी बड़ों को प्रणाम करके ही घर से निकलता हूँ। यह है पुरानी शिक्षा पद्धति का फल। हमने खुद ही नैतिक शिक्षा बन्द कर दी। बच्चे कैसे नैतिक होंगे। नीति श्लोक तो पढ़ाई से छू मन्तर हो गये हैं। ऐसे-ऐसे गुरुकुल भी खुले हुए हैं, जो छात्रों को बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ दे रहे हैं, चाहे उन बालकों को ठीक से हिन्दी भी पढ़नी न आती हो, लिखना तो दूर की बात । शिक्षक या गुरु जी पढ़ाएँ भी कब? उन्हें तो आजकल Smart Phone पर Whats app से ही छुट्टी नहीं मिलती। सब देश के बारे में ज्यादा ही सोचने लगे हैं। Forwarded मैसेज की चिन्ता सताती है, बच्चों की नहीं। अब तो पंडित जी लोग भी सत्संगों में अपना कार्यक्रम खत्म करते ही सिर झुकाकर अँगुलियाँ घुमाते देखे जा सकते हैं। दूसरा वक्ता क्या बोल रहा है सत्संग में, इसका पता ही नहीं। फिर से कहना पड़ता है-अति सर्वत्र वर्जयेत्।

‘शिकागो अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में वैदिक धर्म का डंका बजाने वाले आर्य विद्वान पंडित अयोध्या प्रसाद’

ओ३म्

शिकागो अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में वैदिक धर्म का

डंका बजाने वाले आर्य विद्वान पंडित अयोध्या प्रसाद

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के ग्रीष्मोत्सव में यमुनानगर निवासी प्रसिद्ध आर्य विद्वान श्री इन्द्रजित् देव पधारे हुए थे। हमारी उनसे कुछ विषयों पर चर्चा हुई। स्वामी विवेकानन्द का विषय उपस्थित होने पर उन्होंने हमें पंडित अयोध्या प्रसाद वैदिक मिशनरी जी पर एक लेख लिखने की प्रेरणा की। उसी का परिणाम यह लेख है। हमारी चर्चा के मध्य यह तथ्य सामने आया कि स्वामी विवेकानन्द जी का शिकागो पहुंचने, वहां विश्व धर्म संसद में व्याख्यान देने और उनके अनुयायियों द्वारा उनका व्यापक प्रचार करने का ही परिणाम है कि वह आज देश विदेश में लोकप्रिय हैं। आजकल प्रचार का युग है। जिसका प्रचार होगा उसी को लोग जानते हैं और जिसका प्रचार नहीं होगा वह महत्वपूर्ण होकर भी अस्तित्वहीन बन जाता है। स्वामी विवेकानन्द जी को अत्यधिक प्रचार मिलने के कारण वह प्रसिद्ध हुए और ऋषि दयानन्द भक्त पंडित अयोध्या प्रसाद जी को विश्व धर्म सभा और अमेरिका में प्रचार करने पर भी तथा उनके अनुयायियों द्वारा उनके कार्यों के प्रचार की उपेक्षा करने से वह इतिहास के पन्नों से किनारे कर दिए गये। अतः यह लेख पं. अयोध्या प्रसाद, वैदिक मिशनरी को स्मरण करने का हमारा एक लघु प्रयास है।

 

पण्डित अयोध्या प्रसाद कौन थे और उनके कार्य और व्यक्तित्व कैसा था? इन प्रश्नों का कुछ उत्तर इस लेख के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। पंडित अयोध्या प्रसाद एक अद्भुत वाग्मी, दार्शनिक विद्वान, चिन्तक मनीषी होने के साथ शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन सहित कुछ अन्य देशों में वैदिक धर्म का प्रचार करने वाले प्रमुख आर्य विद्वानों में से एक थे। आपका जन्म 16 मार्च सन् 1888 को बिहार राज्य के गया जिले में नवादा तहसील के एक ग्राम अमावा में हुआ था। आपके पिता बंशीधर लाल जी तथा माता श्रीमती गणेशकुमारी जी थी। आपके दो भाई और एक बहिन थी। पिता रांची के डिप्टी कमीश्नर के कार्यालय में एक बैंच टाइपिस्ट थे। आप अंग्रेजी, उर्दू, अरबी व फारसी के अच्छे विद्वान थे। कहा जाता है कि बंशीधर लाल जी को अंग्रेजी का वेब्स्टर शब्द कोश पूरा याद था। बचपन में पं. अयोध्या प्रसाद कुछ तांत्रिकों के सम्पर्क में आये जिसका परिणाम यह हुआ कि तन्त्र में आपकी रूचि हो गई और यह उन्माद यहां तक बढ़ा कि आप श्मशान भूमि में रहकर तन्त्र साधना करने लगे। आपकी इस रूचि व कार्य से आपके माता-पिता व परिवार जनों को घोर निराशा हुई। उन्होंने इन्हें इस कुमार्ग से हटाने के प्रयास लिए जो सफल रहे।

 

बालक की शिक्षा के लिए पिता ने एक मौलवी को नियुक्त किया जो अयोध्या प्रसाद जी को उर्दू, अरबी व फारसी का अध्ययन कराते थे। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण इन भाषाओं पर आपका अधिकार हो गया और आप इन भाषाओं में बातचीत करने के साथ भाषण भी देने लगे। इन भाषाओं के संस्कार के कारण अयोध्या प्रसाद जी स्वधर्म से कुछ दूर हो गये और इस्लाम मत के नजदीक आ गये। महर्षि दयानन्द ने भी कहा है कि जो मनुष्य जिस भाषा को पढ़ता है उस पर उसी भाषा का संस्कार होता है। वैदिक धर्म की निकटता संस्कृत व हिन्दी के अध्ययन से ही हो सकती है, अन्यथा यह कठिन कार्य है। आपने उर्दू, फारसी व अरबी आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर गनीमत उपनाम से इन भाषाओं में काव्य रचनायें करने लगे। आपका विवाह प्रचलित प्रथा के अनुसार 16 वर्ष की अल्प आयु में समीपवर्ती ग्राम लौहर दग्गा निवासी श्री गिरिवरधारी लाल की पुत्री किशोरी देवी जी के साथ सन् 1904 में सम्पन्न हुआ था। यह देवी विवाह के समय केवल साढ़े नौ वर्ष की थी।

 

पंडित अयोध्या प्रसाद जी ने अपने मित्र पं. रमाकान्त शास्त्री को अपने आर्यसमाजी बनने की कहानी बताते हुए कहा था कि उनका परिवार इस्लाम व ईसाईयत के विचारों से प्रभावित था। इसके परिणामस्वरूप मेरे पिता ने मुझे एक आलिम फाजिल मौलवी के मकतब में उर्दू और फारसी पढ़ने के लिए भरती किया था। एक दिन मेरे मामाजी ने कहा कि अजुध्या आज कल तुम क्या पढ़ रहे हो? अयोध्या प्रसाद जी ने मौलवी साहब की बड़ाई करते हुए इस्लाम की खूबियां बताईं। इसके साथ ही उन्होंने अपने मामा जी को हिन्दू धर्म की खराबियां भी बताईं जो शायद उन्हें मौलवी साहब ने बताईं होंगी या फिर उन्होंने स्वयं अनुभव की होंगी। पंडित जी के मामाजी कट्टर आर्यसमाजी विचारों को मानने वाले थे। मामा जी ने अयोध्या प्रसाद को महर्षि दयानन्द का लिखा हुआ सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ दिया और कहा कि यदि तुमने इस पुस्तक को पढ़ा होता तो तुम हिन्दू धर्म में खराबियां न देखते और अन्य मतों में अच्छाईयां तुम्हें प्रतीत न होती। अपने मामाजी की प्रेरणा से अयोध्याप्रसाद जी ने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ना आरम्भ कर दिया। पहले उन्होंने चौदहवां समुल्लास पढ़ा जिसमें इस्लाम मत की मान्यताओं पर समीक्षा प्रस्तुत की गई है। उसके बाद तेरहवां समुल्लास पढ़कर ईसाई मत का आपको ज्ञान हुआ। आपने अपने अध्यापक मौलवी साहब से इस्लाम मत पर प्रश्न करने आरम्भ कर दिये। पंडित जी के प्रश्न सुनकर मौलवी साहब चकराये। इस प्रकार पंडित अयोध्या प्रसाद को आर्यसमाज और इसके प्रवर्तक महर्षि दयानन्द का परिचय मिला और वह आर्यसमाजी बनें। महर्षि दयानन्द के भक्त पं. लेखराम की पुस्तक हिज्जूतुल इस्लाम को पढ़कर आपको कुरआन पढ़ने की प्रेरणा मिली और वह विभिन्न मतों के अध्ययन में अग्रसर हुए। पंडित जी ने सन् 1908 में प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे की शिक्षा के लिए आपने हजारीबाग के सेंट कोलम्बस कालेज में प्रवेश लिया। यहां आप क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आ गये और देश को आजादी दिलाने की गतिविधियों में सक्रिय हुए। पिता ने इन्हें हजारीबाग से हटाकर भागलपुर भेज दिया जहां रहकर आपने इण्टरमीडिएट की परीक्षा सन् 1911 में उत्तीर्ण की। आपकी क्रान्तिकारी गतिविधियों से पिता रूष्ट थे। उन्होंने आपको अध्ययन व जीविकार्थ धन देना बन्द कर दिया। ऐसे समय में रांची के प्रसिद्ध आर्यनेता श्री बालकृष्ण सहाय ने पिता व पुत्र के बीच समझौता कराने का प्रयास किया। श्री बालकृष्ण सहाय की प्रेरणा से ही पंडित अयोध्याप्रसाद जी ने पटना के एक धुरन्धर संस्कृत विद्वान महामहोपाध्याय पडित रामावतार शर्मा से सस्कृत भाषा व हिन्दू धर्म के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। संस्कृत ज्ञान व शास्त्र नैपुण्य के लिए आप अपने विद्या गुरु महामहोपाध्याय जी का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण किया करते थे।

 

पटना से संस्कृत एवं हिन्दू ग्रन्थों का अध्ययन कर आप सन् 1911 में कलकत्ता पहुंचे और हिन्दू होस्टल में रहने लगे। यहीं पर पंजाब के प्रसिद्ध नेता डा. गोकुल चन्द नारंग एवं बाबू राजेन्द्र प्रसाद आदि छात्रावस्था में रहते थे। बाद में बाबू राजेन्द्र प्रसाद भारतीय राजनीति के शिखर पद पर पहुंचें। अयोध्याप्रसाद जी ने पहले तो प्रेसीडेन्सी कालेज में प्रवेश लिया और कुछ समय बाद सिटी कालेज में भर्ती हुए। यहां रहते हुए आपने इतिहास, दर्शन और धर्मतत्व का तुलनात्मक अध्ध्यन जैसे विषयों का गहन अवगाहन किया। वह अपने अध्ययन की पिपासा को दूर करने के लिए अन्य अनेक मतों के पुस्तकालयों में जाकर उनके साहित्य का अध्ययन करते थे और अपनी पसन्द का विक्रीत साहित्य भी क्रय करते थे। कलकत्ता में बिहार के छात्रों ने बिहार छात्रसंघ नामक संस्था का गठन किया जिसका अध्यक्ष बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी को तथा मंत्री अयोध्या प्रसाद जी को बनाया गया। सन् 1915 में आपने बी.ए. उत्तीर्ण कर लिया। इसके बाद एम.ए. व विधि अथवा ला की परीक्षाओं का पूर्वार्द्ध भी उत्तीर्ण किया। इन्हीं दिनों आप कलकत्ता के आर्यसमाज के निकट सम्पर्क में आयें और यहां आपके नियमित रूप से व्याख्यान होने लगे। आपने यहां आर्यसमाज के पुरोहित एवं उपदेशक का दायित्व भी संभाल लिया। आपकी वाग्मिता, तार्किकता, आपके स्वाध्याय एवं शास्त्रार्थ कौशल से यहां के सभी आर्यगण प्रभावित होने लगे। स्वाध्याय की रूचि का यह परिणाम हुआ कि आपने बौद्ध, ईसाई और इस्लाम मत का विस्तृत व व्यापक अध्ययन किया। देश को आजादी दिलाने के लिए सन् 1920 में आरम्भ हुए असहयोग आन्दोलन में आपने सक्रिय भाग लिया। इसी साल कालेज स्कवायर में सत्यार्थ प्रकाश के छठे समुल्लास में प्रतिपादित राजधर्म पर भाषण करते हुए आप पुलिस द्वारा पकड़े गये और अदालत ने आपको डेढ़ वर्ष के कारावास का दण्ड सुनाया। आपने यह सजा अलीपुर के केन्द्रीय कारागार में पूरी की। जेल से रिहा होकर आप एक विद्यालय के मुख्याध्यापक बन गये।

 

पडित अयोध्या प्रसाद जी की यह इच्छा थी कि वह विदेशों में वैदिक धर्म का प्रचार करें। इस्लामिक देशों में जाकर वैदिक धर्म का प्रचार करने की भी उनकी तीव्र इच्छा थी। सन् 1933 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन के अवसर पर उनकी विदेशों में जाकर धर्मप्रचार की इच्छा को पूर्ण करने का अवसर मिला। आर्यसमाज कलकत्ता और मुम्बई के आर्यो के प्रयासों से पं. अयोध्या प्रसाद जी को शिकागो के अन्तर्राष्ट्रीय धर्म सम्मेलन में वैदिक धर्म के प्रतिनिधि के रूप में भेजा गया। प्रसिद्ध उद्योगपति एवं सेठ युगल किशोर बिड़ला जी ने पंडित जी के शिकागो जाने में आर्थिक सहायता प्रदान की। जुलाई, 1933 में उन्होंने अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। विश्व धर्म सम्मेलन में उनके व्याख्यान का विषय वैदिक धर्म का गौरव एवं विश्व शान्ति था। आपने इस विषय पर विश्व धर्म संसद, शिकागो में प्रभावशाली भाषण दिया। वैदिक धर्म संसार का प्राचीनतम एवं ज्ञानविज्ञान सम्मत धर्म है कालावधि की दृष्टि से यह सबसे अधिक समय से चला रहा है। वेद की शिक्षायें सार्वजनीन एवं सार्वभौमिक होने से वैदिक धर्म का गौरव सबसे अधिक है। विश्व में शान्ति की स्थापना वैदिक ज्ञान शिक्षाओं के अनुकरण अनुसरण से ही हो सकती है। इस विषय का पं. अयोध्या प्रसाद जी ने विश्व धर्म सभा में अनेक तर्कों युक्तियों से प्रतिपादन किया। पंडित जी का विश्व धर्म सभा में यह प्रभाव हुआ कि वहां सभा की कार्यवाही का आरम्भ वेदों के प्रार्थना मन्त्रों से होता था और समापन शान्तिपाठ से होता था। यह पण्डित अयोध्या प्रसाद जी की बहुत बड़ी उपलब्धि थी जिसकी इस कृतघ्न देश और आर्यसमाज में बहुत कम चर्चा हुई।

 

इसी विश्व धर्म सभा में पंडित जी ने वैदिक व भारतीय अभिवादन ‘‘नमस्ते शब्द की बड़ी सुन्दर व प्रभावशाली व्याख्या की। उन्होंने कहा कि भारत के आर्य लोग दोनों हाथ जोड़कर तथा अपने दोनों हाथों को अपने हृदय के निकट लाकर नत मस्तक हो अर्थात् सिर झुकाकर ‘‘नमस्ते शब्द का उच्चारण करते हैं। इन क्रियाओं का अभिप्राय यह है कि नमस्ते के द्वारा हम अपने हृदय, हाथ तथा मस्तिष्क तीनों की प्रवृत्तियों का संयोजन करते हैं। हृदय आत्मिक शक्ति का प्रतीक है, हाथ शारीरिक बल का द्योतक हैं तथा मस्तिष्क मानसिक व बौ़द्धक शक्तियों का स्थान वा केन्द्र है। इस प्रकार नमस्ते के उच्चारण तथा इसके साथ सिर झुका कर व दोनों हाथों को जोड़कर उन्हें हृदय के समीप रखकर हम कहते हैं कि “….With all the physical force in my arms, with all mental force in my head and with all the love in my heart, I pay respect to the soul with in you.” नमस्ते की इस व्याख्या का सम्मेलन के पश्चिमी विद्वानों पर अद्भुत व गहरा प्रभाव पड़ा।

 

पण्डित जी ने इस यात्रा में उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका में वैदिक धर्म का प्रशंसनीय प्रचार किया। यहां प्रचार कर पण्डित जी ने गायना और ट्रिनिडाड में जाकर वैदिक धर्म की दुन्दुभि बजाई। ट्रिनीडाड में एक कट्टर सनातनी व पौराणिक व्यक्ति ने पण्डित अयोध्या प्रसाद जी को भोजन पर आमंत्रित किया। यह व्यक्ति अपनी अज्ञानता के कारण पण्डित जी को आर्यसमाज का विद्वान, प्रखर वाग्मी और उपदेशक होने के कारण उन्हें सनातन धर्म का विरोधी समझ बैठा और उसने पण्डित जी को भोजन में विष दे दिया। यद्यपि पण्डित जी भोजन का पहला ग्रास जिह्वा पर रखकर ही इसमें विषैला पदार्थ होने की सम्भावना को जान गये, उन्होंने शेष भोजन का त्याग भी किया परन्तु इस एक ग्रास ने ही पंडित जी के स्वास्थ्य व जीवन को बहुत हानि पहुंचाई। वह ट्रिनीडाड से लन्दन आये। विष का प्रभाव उनके शरीर पर था। उन्हें यहां अस्पताल में 6 माह तक भर्ती रहकर चिकित्सा करानी पड़ी। उनको दिए गये इस विष का प्रभाव जीवन भर उनके स्वास्थ्य पर रहा।

 

लन्दन से पंडित जी भारत आये और कलकत्ता को ही अपनी कर्मभूमि बनाया। आपके जीवन का शेष समय आर्यसमाज के धर्म प्रचार सहित स्वाध्याय, चिन्तन व मनन में व्यतीत हुआ। पण्डित जी के पास लगभग 25 हजार बहुमूल्य दुर्लभ ग्रन्थों का संग्रह था। उन्होंने मृत्यु से पूर्व उसे महर्षि दयानन्द स्मृति न्यास टंकारा को भेंट कर दिया। अनुमान है कि उस समय उनके इन सभी ग्रन्थों का मूल्य दो लाख के लगभग रहा होगा। पंडित अयोध्या प्रसाद जी के अन्तिम दिन सुखद नहीं रहे। दुर्बल स्वास्थ्य और हृदय रोग से पीड़ित वह वर्षों तक कलकत्ता के 85 बहु बाजार स्थित निवास स्थान पर दुःख वा कष्ट भोगते रहे। 11 मार्च सन् 1965 को 77 वर्ष की आयु में वर्षों से शारीरिक दुःख भोगते हुए आपने नाशवान देह का त्याग किया। आपकी पत्नी का देहान्त आपकी मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व ही हो गया था।

 

पंडित जी के जीवन का अधिकांश समय स्वाध्याय, उपदेश व प्रवचनों आदि व्यतीत हुआ। उनका लिखित साहित्य अधिक नहीं है। यदि उन्हें व्याख्यानों आदि से अवकाश दिया जाता तो वह उत्तम कोटि के बहुमूल्य साहित्य की रचना कर सकते थे। उनके द्वारा रचित साहित्य में इस्लाम कैसे फैला?, ओम् माहात्म्य, बुद्ध भगवान वैदिक सिद्धान्तों के विरोधी नहीं थे, Gems of Vedic Wisdom ग्रन्थ हैं।

 

हमने इस लेख की सामग्री आर्य विद्वान डा. भवानी लाल भारतीय जी के लेखों सहित अन्य ग्रन्थों से ली है। उनका हार्दिक आभार एवं धन्यवाद करते हैं। स्वामी दयानन्द ने देश में वेदों व वैदिक धर्म संस्कृति का प्रचार किया। वह चाहते थे कि भूमण्डल पर वेदों का प्रचार हो। उन्हें विदेशी विद्वान मैक्समूलर की ओर से इंग्लैण्ड आकर वेद प्रचार करने का प्रस्ताव भी मिला था। परन्तु देश की दयनीय दशा के कारण वह विदेश न जा सके। यदि वह जाते तो थोड़े ही समय में अंग्रेजी भाषा सीख कर वहां प्रचार कर सकते थे। वहां के लोगों की सत्य के ग्रहण की शक्ति भारत के लोगों की तुलना में अच्छी है। आशा है कि वह महर्षि की भावना और वेदों के महत्व को उचित सम्मान देते। आज हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि जितना प्रचार महर्षि दयानन्द सरस्वती अकेले देश में कर गये उसकी तुलना में आज विश्व में सहस्रों आर्यसमाजें करोड़ों वेदानुयायियों के होने पर भी नहीं हो पा रहा है। यह समय की विडम्बना है या आर्यों का आलस्य प्रमाद? ईश्वर आर्यों को महर्षि दयानन्द के कार्यों को पूरा करने की प्रेरणा व शक्ति प्रदान करें। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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‘नारियां शुभ, शोभा, शोभनीयता गुणों से सुशोभित हों : ऋग्वेद’

ओ३म्

स्वामी विद्यानन्द विदेह और वेद प्रचार

नारियां शुभ, शोभा, शोभनीयता गुणों से सुशोभित हों : ऋग्वेद

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हम सन् 1970 व उसके कुछ माह बाद आर्यसमाज के सम्पर्क में आये थे। हमारे कक्षा 12 के एक पड़ोसी मित्र स्व. श्री धर्मपाल सिंह आर्यसमाजी थे। हम दोनों में धीरे धीरे निकटतायें बढ़ने लगी। सायं को जब भी अवकाश होता दोनों घूमने जाते और यदि कहीं किसी भी मत व संस्था का सत्संग हो रहा होता तो वहां पहुंच कर उसे सुनते थे। उसके बाद आर्यसमाज में भी आना जाना आरम्भ हो गया। वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून वैदिक विचारधारा मुख्यतः योग साधना और वृहत यज्ञ की प्रचारक संस्था है। यहां उन दिनों उत्सव आदि के अवसर पर अजमेर के वैदिक विद्वान स्वामी विद्यानन्द विदेह (1899-1978) उपदेशार्थ आया करते थे। स्वामी जी का व्यक्तित्व ऐसा था जैसा कि श्री रवीन्द्र नाथ टैगोर जी का। उनकी सफेद चमकीली लम्बी आकर्षक दाढ़ी होती थी। गौरवर्ण चेहरा कान्तियुक्त एवं देदीप्यमान रहता था। वाणी में मधुरता इतनी की यदि कोई उनकी वाणी को सुन ले तो चुम्बक के समान आकर्षण अनुभव होता था। हम भी उनके व्यक्तित्व के सम्मोहन से प्रभावित हुए। अनेक वर्षों तक वह आते रहे और हम भी उनके प्रवचनों से लाभान्वित होते रहे। उनकी प्रवचन शैली यह होती थी कि वह एक वेद मन्त्र प्रस्तुत करते थे। वेद मन्त्रोच्चार से पूर्व वह सामूहिक पाठ कराते थे ओ३म् सं श्रुतेन गमेमहि मां श्रुतेन वि राधिषि अर्थात् हे ईश्वर ! हम वेदवाणी से सदैव जुड़े रह वा उसका श्रवण करें तथा हम उससे कभी पृथक न हों। स्वामी व्याख्येय वेद मन्त्र का पदच्छेद कर पदार्थ प्रस्तुत करते थे। फिर प्रमुख पदों की व्याख्या करते हुए उसके अर्थ के साथ साथ उससे जुड़ीं प्रमुख व प्रभावशाली कहानियां-किस्से व उदाहरण आदि दिया करते थे। हमें पता ही नहीं चला कि हम कब पौराणिक व धर्म अज्ञानी से वैदिक धर्मी आर्यसमाजी बन गये। आरम्भ में ही हमें पता चला कि स्वामी जी अजमेर से सविता नाम से एक मासिक पत्रिका का सम्पादन करते हैं जिसमें अधिकांश व प्रायः सभी लेख भिन्न भिन्न शीर्षकों से उन्हीं के होते थे जिनका आधार कोई वेद मन्त्र व वेद की सूक्ति होता था। वह अच्छे कवि भी थे। वेद मन्त्र की व्याख्या के बाद वह मन्त्र के भावानुरूप एक कविता भी दिया करते थे। हम जिस प्रथम पत्रिका के सदस्य बने वह यह मासिक पत्रिका सविता ही थी। स्वामी जी ने छोटे छोटे अनेक ग्रन्थ भी लिखे थे जिनका मूल्य उन दिनों बहुत कम होता था और हम अपनी सामर्थ्यानुसार एक, दो या तीन पुस्तकें एक बार में खरीद लेते थे और उन्हें पढ़ते थे। उनकी पुस्तकों के नाम थे गृहस्थ विज्ञान, अज्ञात महापुरुष, वैदिक स्त्री शिक्षा, मानव धर्म, सत्यानारायण की कथा, वैदिक सत्संग, स्वस्ति-याग, विजय-याग, विदेह गाथा, सन्ध्या-योग, जीवन-पाथेय, विदेह-गीतावली, दयानन्द-चरितामृत, कल्पपुरुष दयानन्द और शिव-संकल्प, अनेक वेद-व्याख्या ग्रन्थ आदि। यह सभी पुस्तकें वेद व उसके मन्त्रों में निहित शिक्षा के आधार पर ही लिखी गई हैं। स्वामी जी ने अजमेर व दिल्ली में दो वेद सस्थानों की स्थापना की थी। अजमेर के वेदसंस्थान का कार्य उनके पुत्र श्री विश्वदेव शर्मा देखते थे तो दिल्ली संस्थान का वह स्वयं वा उनके दूसरे पुत्र श्री अभयदेव शर्मा जी। स्वामी विद्यानन्द विदेह जी के कुछ युवा संन्यासी शिष्य भी थे जिनमें से एक थे स्वामी दयानन्द विदेह। इनको भी हमने वैदिक साधन आश्रम तपोवन में सुना जो अपने गुरु स्वामी विद्यानन्द विदेह की शैली को अक्षरक्षः आत्मसात किये हुए थे। सम्भवतः उनके और भी दो-तीन शिष्य थे जिनके दर्शनों का सौभाग्य हमें प्राप्त नहीं हुआ। यह भी बता दे कि हमने मासिक पत्र सविता का सदस्य बनने के कुछ दिनों बाद अपनी प्रतिक्रिया देते हुए एक पत्र लिखा था जो पाठको के पत्र स्तम्भ में सन् 1978 के किसी अंक में प्रकाशित हुआ था। यह हमारे जीवन का प्रथम प्रकाशित पत्र था। सम्प्रति पत्रिका का नाम संशोधित कर दिल्ली से त्रैमासिक पत्रिका वेद सविता के नाम से प्रकाशित की जाती है जिसके हम एक-दो वर्ष से सदस्य बने हैं। इतना और बता दें कि स्वामी जी की मृत्यु सन् 1978 में सहारनपुर क एक आर्यसमाज में मंच से उपदेश करते हुए हुई थी। मृत्यु का कारण हृदयाघात था। उन्हें पूर्व भी एक या दो अवसरों पर हृदयाघात हुआ था। तब उन्होंने लिखा था कि मेरा जीवन एक कांच के गिलास के समान है। इसे सम्भाल कर रखोगे तो यह कुछ चल सकता है अन्यथा कांच के गिलास की तरह अचानक टूट भी सकता है। शायद ऐसा ही सहारनपुर में मृत्यु के अवसर पर हुआ भी।

 

स्वामी जी ने वैदिक स्त्रीशिक्षा नाम से एक लघु पुस्तिका लिखी है। इस पुस्तक में सातवां विचारात्मक उपदेश ऋग्वेद के 7-56-6 मन्त्र यामं येष्ठाः शुभा शोभिष्ठाः श्रिया संमिश्ला। ओजोभिरुग्राः।। पर है। स्वामी जी ने इस मन्त्र की व्याख्या व उपदेश में कहा है कि नारियां धर्म पथ का अतिशय गमन करनेवाली हों। नारियां धर्मशीला हों। स्वभाव से ही नारियां पुरुषों की अपेक्षा कहीं अधिक धर्मशीला होती हैं। परिवार, समाज और राष्ट्र की ओर से नारियों की शिक्षा दीक्षा का ऐसा सुप्रबन्ध होना चाहिये कि वे अतिशय धर्मशीला, सुपथगामिनी और सदाचारिणी हों। विदुषी, धर्मशीला और सदाचारिणी माताओं की सन्तान ही विद्वान्, घर्मशील और सदाचारी होती हैं। माता के अंग-अंग से सन्तान का अंग-अंग बनता है। माता की बुद्धि से सन्तान की बुद्धि और माता के हृदय से सन्तान का हृदय बनता है। पुरुषों से अधिक नारियों के स्वास्थ्य, शील और धार्मिक जीवन के निर्माण का ध्यान रखा जाना चाहिये।

 

नरियां शुभ, शोभा, शोभनीयता से अतिशय शोभनीय हों। नारियां सुशोभनीया-सुरूपा होनी चाहियें। उनकी आकृति दर्शनीय और उनकी छवि शोभनीय होनी चाहिये। उनका शरीर स्वच्छ और स्वस्थ होना चाहिये। वे प्रसन्नवदना हों। वे सुन्दर वस्त्राभूषण धारण करें। शील और स्वभाव का शोभनीयता से बड़ा गहरा सम्बन्ध है। शालीन, शील और साधु स्वभाव से शोभनीयता जितनी सुशोभित होती है, उतनी अन्य किसी भी प्रकार से नहीं होती। अशालीन और कर्कश नारियां सुन्दर वस्त्राभूषण पहिनकर भी अशोभनीय प्रतीत होती हैं। शालीन व हंसमुख नारियां साधारण वस्त्रों में भी बड़ी शोभनीय प्रतीत होती हैं। ईर्ष्या, द्वेष, लड़़ाई झगड़ा करनेवाली नारियों का रूप लावण्य बहुत शीघ्र विनष्ट हो जाता है। शोभनीय माताओं की सन्तान शोभनीय और कर्कशा माताओं की सन्तान अशोभनीय होती हैं। अतः नारियों का सर्वतः शोभनीय होना योग्य है।

 

नारियां (श्रिया) लक्ष्मी से (समिश्लाः) संयुक्त हों। नारियां स्वयं लक्ष्मी होती हैं। जहां लक्ष्मीरूप नारी हों, वहां लक्ष्मी होनी ही चाहिये। लक्ष्मी नाम धन सम्पदा का है। पुरुषों द्वारा कमाई गई लक्ष्मी का जब नारियां सुप्रबन्ध तथा मितव्यय करती हैं तो उनका गृह लक्ष्मी से पूरित रहता है। नारियों को चाहिये कि परिश्रम करके गृह के सब कार्य सुष्ठुता से करें। व्यसनों और विलासों पर धन लेशमात्र भी व्यय न होने दें। भोजन छादन और रहन सहन के सुप्रबन्ध से रोग नहीं होते। स्वस्थ परिवार में लक्ष्मी का सतत शुभागमन होता है। विवाह आदि सामाजिक कार्यों में भी व्यर्थ व्यय न होने दें। आय व्यय पर नियन्त्रण रखने से भी लक्ष्मी की वृद्धि होती है। लक्ष्मीयुक्त पविर में सब प्रकार का सुख होता है और सब प्रकार की उन्नति होती है।

 

नारियां (ओजोभिः) ओजों से (उग्राः) उग्र हों। नारियां भीरु, डरपोक और ओजविहीन न होकर निर्भय, साहसी, अदम्य और ओजस्विनी हों। वे सुलक्षणा और लज्जावती तो हों, किन्तु दीन और ओजहीन न हों। नारियों के स्वभाव में झिझक और संकोच का होना ओजहीनता का लक्षण है। नारियों में सहनशीलता का होना जहां भूषण है, वहां उनमें उग्रता का होना भी परम आवश्यक है। बड़ी से बड़ी आपत्ति को अपनी सहनशीलता से सहने का स्वभाव नारियों की विशेषता है, किन्तु उनमें इतनी उग्रता भी होनी चाहिए कि उनकी कहीं भी उपेक्षा और उनका अपमान या अवमान न होने पाये। ओज से साहस का विकास और उग्रता से मान की रक्षा होती है। अतः नारियां अपने ओज और उग्रता की स्थापना करें।

 

हम समझते हैं कि वेद मन्त्र में नारियों को जो उपदेश दिया गया है वह नारियों के लिए परम औषध के समान है। इसका आचरण करने से उन्हें अपने जीवन में लाभ ही लाभ होगा और इन शिक्षाओं की उपेक्षा उन्हें पतन की ओर ले जा सकती है। हम आशा करते हैं कि सभी पाठक लेख व उसमें निहित शिक्षा को उपयोगी पायेंगे। स्वामी विद्यानन्द जी ने इस मन्त्र को व्याख्या व उपदेश के लिए चुना, उनका सादर स्मरण कर धन्यवाद करते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की बाल हकीकत राय पर प्रेरणादायक काव्यमय पंक्तियां

ओ३म्
सबके पूज्य आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की
बाल हकीकत राय पर प्रेरणादायक काव्यमय पंक्तियां

धन्य-धन्य हे बाल हकीकत, धन्य-धन्य बलिदानी।
देगी नवजीवन जन-जन को, तेरी अम र कहानी।।

प्राण लुटाए निर्भय होकर, धर्म प्रेम की ज्वाला फूंकी।
तुझे प्रलोभन देकर हारे, सकल क्रूर मुल्ला अज्ञानी।।

नश्वर तन है जीव अमर यह,
तत्व ज्ञान का तूने जाना।
तेरी गौरव गाथा गा गा,
धन्य हुई कवियों की वाणी।।
गूंज उठे धरती और अम्बर,
जय जयकार तुम्हारा।
तेरे पथ पर शीश चढ़ाने
की, कितनों ने ठानी।।

मृत्यु का आलिंगन कीना, जीवन भेद बताया।
मौत से डरकर अन्यायियों की एक न तूने मानी।।

धन्य तुम्हारे मात पिता और,
सती लक्ष्मी प्यारी।
प्राण वीर तुम प्रण के पक्के,
धन्य देश-अभिमानी।।
प्रस्तुतकर्ता मनमोहन कुमार आर्य

‘महर्षि दयानन्द के योग शिष्य लक्ष्मणानन्द’

ओ३म्

विस्मृत व्यक्तित्व

महर्षि दयानन्द के योग शिष्य लक्ष्मणानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

स्वामी लक्ष्मणानन्द जी ने स्वामी दयानन्द की अमृतसर यात्रा में उनसे योग सीखा था और उसके बाद उन्होंने योगाभ्यास व इसकी शिक्षा को ही अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया प्रतीत होता है। आप आर्यजगत के विख्यात विद्वान पं. भगवद्दत्त रिसर्चस्कालर के भी गुरू रहे। ध्यान योग प्रकाश आपकी योग पर महत्वपूर्ण कृति है जिसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। अन्तिम संस्करण रामलाल कपूर टस्ट्र, रेवली-सोनीपत-हरयाणा से कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ है जो वहां बिक्री के लिए उपलब्ध है। सम्प्रति हमारे पास भी इस ग्रन्थ के दो-तीन संस्करण विद्यमान हैं। अध्यात्म व योग का गहरा सम्बन्ध है। हमारा मानना है कि स्वामी दयानन्द ने समाज सुधार सहित समग्र सामाजिक क्रान्ति का जो महान कार्य किया उसके मूल में भी उनकी योग एवं वेद विद्या ही कारण है। अतः स्वामी लक्ष्मणानन्द जी पर उपलब्ध जानकारी से पाठकों को अवगत कराने का विचार हुआ, जिसका परिणाम यह पंक्तियां हैं।

 

स्वामी लक्ष्मणानन्द जी का जन्म अमृतसर के एक खत्री परिवार में विक्रमी संवत् 1887 (सन् 1831) में हुआ था। दो वर्ष की आयु होने पर ही लक्ष्मणानन्द जी के पिता का देहान्त हो गया। अनुमान कर सकते हैं कि माता ने कितनी कठिनाईयों से अपने पुत्र लक्ष्मणानन्द का पालन किया होगा। वह समय ऐसा था जब लोगों में धर्म-कर्म की बातों को आज की तुलना में कहीं अधिक महत्व दिया जाता था। सम्भवतः इसी कारण आपकी साधु-संन्यासियों की संगति में विशेष रूचि हो गई थी और धर्म-कर्म विषयक अनेक उचित अनुचित बातों का आपकों ज्ञान हो गया था। आपकी माता को आपकी यह रूचि पसन्द नहीं थी। कुछ बड़े होकर आपने धनोपार्जन करना आरम्भ किया और आपको अच्छी सफलता मिली जिससे आपकी माता की अप्रसन्नता दूर हो गई। आप विवाह के प्रति उदासीन रहे। कालान्तर में जब स्वामी दयानन्द जी अमृतसर में आये तो आपने न केवल वहां उनके प्रवचन ही सुने अपितु उनके पास जाकर योगाभ्यास सीखने की भी इच्छा की जिसका परिणाम यह हुआ कि स्वामी दयानन्द जी ने आपको योगाभ्यास की समस्त आवश्यक क्रियाओं का क्रियात्मक अभ्यास कराया। इस प्रकार स्वामी दयानन्द ही आपके योगगुरु हुए। आपने ब्रह्मचर्य से सीधे ही संन्यास की दीक्षा ली। डा. भवानीलाल भारतीय जी ने आपके संन्यास के विषय में लिखा है कि आपने सम्वत् 1943 अर्थात् सन् 1887 में संस्कार विधि की पद्धति से ही संन्यास की दीक्षा ली। आपके संन्यास गुरु कौन रहे होंगे, इसका उल्लेख हमें नहीं मिल सका। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, एकादशी व्रत आदि पौराणिक कर्मकाण्डों के प्रति आपमें आरम्भ से ही अरूचि थी। ऐसा भी उल्लेख है कि स्वामी दयानन्द से योग की दीक्षा लेने से पूर्व आपने पहले दो योगियों से योग का कुछ प्रशिक्षण प्राप्त किया था तथा स्वामी दयानन्द जी ने आपको अष्टांग योग की पूर्ण विधि सिखाई थी।

 

आर्य सिद्धान्तों का स्वामी लक्ष्मणानन्द जी पूरी तरह से पालन करते थे। उन दिनों आर्य पद्धति से परिवार के किसी सदस्य की अन्त्येष्टि करने पर जातिबन्धु विरोध करते थे और जाति बाह्य भी कर देते थे। हम देखते हैं कि जब पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी जी के पिता का देहान्त हुआ तो आर्य पद्धति से उनकी अन्त्येष्टि का उनके प्रायः सभी जाति बन्धुओं ने विरोध किया था। पं. गुरुदत्त जी की आर्य सिद्धान्तों व पद्धति में गहरी निष्ठा होने के कारण उन्होंने उसकी कोई परवाह नहीं की थी, अतः वह संस्कार वैदिक पद्धति से ही सम्पन्न हुआ था। कालान्तर में जब स्वामी लक्ष्मणानन्द जी की माता की मृत्यु हुई तो आपने संस्कारविधि वर्णित आर्य पद्धति से ही अपनी माता की अंत्येष्टि कर वैदिक सिद्धान्तों में अपनी गहरी निष्ठा व विश्वास का परिचय दिया।

 

स्वामी लक्ष्मणानन्द जी ने योग पर ध्यान योग प्रकाश नाम से अपने अनुभवों पर आधारित पुस्तक लिखी है जिसका पहला संस्करण सन् 1902 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद सन् 1914, 1938, 1964 तथा 1976 में इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हुए। इसका नया संस्करण रामलाल कपूर ट्रस्ट से कुछ वर्ष पूर्व ही प्रकाशित हुआ है और अब यही संस्करण पाठकों को बिक्री हेतु सुलभ है। हमारी दृष्टि में आपकी यह पुस्तक ही आपका स्मारक है। जो भी व्यक्ति इसे पढ़ेगा वह अवश्य इससे लाभान्वित होगा।

 

स्वामी लक्ष्मणानन्द जी का महर्षि दयानन्द का शिष्य होने व उनसे परिपूर्ण योग विद्या सीखने के कारण अपना ऐतिहासिक महत्व है। इसके साथ हमें इस बात ने भी प्रभावित किया है कि स्वामी लक्ष्मणानन्द जी आर्यजगत के प्रख्यात विद्वान पं. भगवद्दत्त जी के गुरु रहे हैं और इनकी शिक्षाओं का आपके जीवन पर गहरा प्रभाव हुआ। स्वामी लक्ष्मणानन्द जी के जीवन पर इससे अधिक जानकारी हमें प्राप्त न हो सकी। जितनी प्राप्त हुई, उसी से सन्तोष कर वह सामग्री हम पाठकों को इस भावना से भेंट कर रहे हैं कि स्यात् यह किसी को पसन्द आये।

मनमोहन कुमार आर्य

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